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Wednesday, May 28, 2025

इस्लाम से पहले 100% सनातन धर्मी था अफगानिस्तान, हर जगह थी केवल सनातन धर्म की पताका

इस्लाम से पहले 100% सनातन धर्मी था अफगानिस्तान, हर जगह थी केवल सनातन धर्म की पताका



आज अफगानिस्तान और इस्लाम एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं, इसमें शक नहीं लेकिन यह भी सत्य है कि वह देश जितने समय से इस्लामी है, उससे कई गुना समय तक वह गैर-इस्लामी रह चुका है| इस्लाम तो अभी एक हजार साल पहले ही अफगानिस्तान पहुँचा, उसके कई हजार साल पहले तक वह आर्यों, बौद्घों और हिन्दुओं का देश रहा है|

धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, महान संस्कृत वैयाकरण आचार्य पाणिनी और गुरू गोरखनाथ पठान ही थे| जब पहली बार मैंने अफगान लड़कों के नाम कनिष्क और हुविष्क तथा लड़कियों के नाम वेदा और अवेस्ता सुने तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ| अफगानिस्तान की सबसे बड़ी होटलों की श्रृंखला का नाम ‘आर्याना‘ था और हवाई कम्पनी भी ‘आर्याना‘ के नाम से जानी जाती थी| भारत के पंजाबियों, राजपूतों और अग्रवालों के गोत्र्-नाम अब भी अनेक पठान कबीलों में ज्यों के त्यों मिल जाते हैं|

मंगल, स्थानकजई, कक्कर, सीकरी, सूरी, बहल, बामी, उष्ट्राना, खरोटी आदि गोत्र् पठानों के नामों के साथ जुड़े देखकर कौन चकित नहीं रह जाएगा ? ग़ज़नी और गर्देज़ के बीच एक गाँव के हिन्दू से जब मैंने पूछा कि आपके पूर्वज भारत से अफगानिस्तान कब आए तो उसने तमककर कहा ‘जबसे अफगानिस्तान ज़मीन पर आया|’ इस अफगान हिन्दू की बोली न पश्तो थी, न फारसी, न पंजाबी| वह शायद ब्राहुई थी, जो वर्तमान अफगानिस्तान की सबसे पुरानी भाषा है और वेदों की भाषा के भी बहुत निकट है|

छठी शताब्दि के वराहमिहिर के ग्रन्थ ‘वृहत्र संहिता‘ में पहली बार ‘अवगाण‘ शब्द का प्रयोग हुआ है| इसके पहले तीसरी शताब्दि के एक ईरानी शिलालेख में ‘अबगान‘ शब्द का उल्लेख माना जाता है| फ्रांसीसी विद्वान साँ-मार्टिन के अनुसार अफगान शब्द संस्कृत के ‘अश्वक‘ या ‘अशक‘ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है-अश्वारोही या घुड़सवार ! संस्कृत साहित्य में अफगानिस्तान के लिए ‘अश्वकायन‘ (घुड़सवारों का मार्ग) शब्द भी मिलता है| वैसे अफगानिस्तान नाम का विशेष-प्रचलन अहमद शाह दुर्रानी के शासन-काल (1747-1773) में ही हुआ| इसके पूर्व अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम्र वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से पुकारा जाता था|

पारसी मत के प्रवर्त्तक जरथ्रुष्ट द्वारा रचित ग्रन्थ ‘जिन्दावेस्ता‘ में इस भूखण्ड को ऐरीन-वीजो या आर्यानुम्र वीजो कहा गया है| अफगान इतिहासकार फज़ले रबी पझवक के अनुसार ये शब्द संस्कृत के आर्यावर्त्त या आर्या-वर्ष से मिलते-जुलते हैं| उनकी राय में आर्य का मतलब होता है-श्रेष्ठ या सम्मानीय और पश्तो भाषा में वर्ष का मतलब होता है–चर भूमि ! अर्थात्र आर्यानुम्र वीज़ो का मतलब है–आर्यों की भूमि !

प्रसिद्घ अफगान इतिहासकार मोहम्मद अली और प्रो0 पझवक का यह दावा है कि ऋग्वेद की रचना वर्तमान भारत की सीमाओं में नहीं, बल्कि आर्योंके आदि देश में हुई, जिसे आज सारी दुनिया अफगानिस्तान के नाम से जानती है| कुछ पश्चिमी विद्वानों ने यह सिद्घ करने की कोशिश की है कि अफगान लोग यहूदियों की सन्तान हैं और मुस्लिम इतिहासकारों का कहना है कि अरब देशों से आकर वे इस इलाके में बस गए| लेकिन प्राचीन ग्रन्थों में मिलनेवाले अन्तर्साक्ष्यों तथा शिलालेखों, मूर्तियों, सिक्कों, खंडहरों, बर्तनों और आभूषणों आदि के बाहिर्साक्ष्य के आधार पर अकाट्रय रूप से माना जा सकता है कि अफगान लोग मध्य एशिया के मूल निवासी हैं| वे अरब भूमि, यूरोप या उत्तरी ध्रुव से आए हुए लोग नहीं हैं|

हाँ, इतिहास में हुए फेर-बदल तथा उथल-पुथल के दौरान जिसे हम आज अफगानिस्तान कहते हैं, उस क्षेत्र् की सीमाएँ या संज्ञाएँ हजार-पाँच सौ मील दाएँ-बाएँ और ऊपर-नीचे होती रही हैं तथा दुनिया के इस चौराहे से गुजरनेवाले आक्रान्ताओं, व्यापारियों, धर्मप्रचारकों तथा यात्र्ियों के वंशज स्थानीय लोगों में घुलते-मिलते रहे हैं|
विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में पख्तून लोगों और अफगान नदियों का उल्लेख है| दाशराज्ञ-युद्घ में ‘पख्तुओं‘ का उल्लेख पुरू कबीले के सहयोगियों के रूप में हुआ है| जिन नदियों को आजकल हम आमू, काबुल, कुर्रम, रंगा, गोमल, हरिरूद आदि नामों से जानते हैं, उन्हें प्राचीन भारतीय लोग क्रमश: वक्षु, कुभा, कु्रम, रसा, गोमती, हर्यू या सर्यू के नाम से जानते थे| जिन स्थानों के नाम आजकल काबुल, कन्धार, बल्ख, वाखान, बगराम, पामीर, बदख्शाँ, पेशावर, स्वात, चारसद्दा आदि हैं,

उन्हें संस्कृत और प्राकृत-पालि साहित्य में क्रमश: कुभा या कुहका, गन्धार, बाल्हीक, वोक्काण, कपिशा, मेरू, कम्बोज, पुरुषपुर, सुवास्तु, पुष्कलावती आदि के नाम से जाना जाता था| हेलमंद नदी का नाम अवेस्ता के हायतुमन्त शब्द से निकला है, जो संस्कृत के ‘सतुमन्त‘ का अपभ्रन्श है| इसी प्रकार प्रसिद्घ पठान कबीले ‘मोहमंद‘ को पाणिनी ने ‘मधुमन्त‘ और अफरीदी को ‘आप्रीता:‘ कहकर पुकारा है| महाभारत में गान्धारी के देश के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं| हस्तिनापुर के राजा संवरण पर जब सुदास ने आक्रमण्पा किया तो संवरण की सहायता के लिए जो ‘पस्थ‘ लोग पश्चिम से आए, वे पठान ही थे|

छान्दोग्य उपनिषद्र, मार्कण्डेय पुराण, ब्राह्मण ग्रन्थों तथा बौद्घ साहित्य में अफगानिस्तान के इतने अधिक और विविध सन्दर्भ उपलब्ध हैं कि उन्हें पढ़कर लगता है कि अफगानिस्तान तो भारत ही है, अपने पूर्वजों का ही देश है| यदि अफगानिस्तान को अपने स्मृति-पटल से हटा दिया जाए तो भारत का सांस्कृतिक-इतिहास लिखना असम्भव है| लगभग डेढ़ करोड़ निवासियों के इस भू-वेष्टित देश में हिन्दुकुश पर्वत का वही महत्व है जो भारत में हिमालय का है या मिस्र में नील नदी का है ! इब्न वतूता का कहना है कि इस पर्वत को हिन्दुकुश इसलिए कहते हैं कि हिन्दुस्तान से लाए जानेवाले गुलाम लड़के और लड़कियाँ इस क्षेत्र् में भयानक ठंड के कारण मर जाते थे| हिन्दुकुश अर्थात्र हिन्दुओं को मारनेवाला !
 
लेकिन अफगान विद्वान फज़ले रबी पझवक की मान्यता है कि यदि हिन्दुकुश शब्द का अर्थ प्राचीन बख्तरी भाषा तथा पश्तो के आधार पर किया जाए तो हिन्दुकुश का मतलब होगा–नदियों का उद्रगम ! बख्तरी भाषा में स को ह कहने का रिवाज है| अत: सिन्धु से हिन्दू बन गया| सिन्धू का मतलब होता है–नदी ! वास्तव में हिन्दुकुश पर्वत से, जो कि हिमालय की एक पश्चिमी शाखा है, अफगानिस्तान को कई महत्वपूर्ण नदियों का उद्रगम और सिंचन होता है| वक्षु, काबुल, हरीरूद और हेलमंद आदि नदियों का पिता हिन्दुकुश ही है| वर्षा की कमी के कारण जब अफगानिस्तान की नदियाँ सूखने लगती हैं तो हिन्दुकुश का बर्फ पिघल-पिघलकर उनकी प्यास बुझाता है|
 
ऋग्वेद और ‘जिन्दावस्ता‘ दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रन्थ माने जाते हैं| दोनों की रचना अफगानिस्तान में हुई, ऐसा बहुत-से यूरोपीय विद्वान भी मानते हैं| उन्होंने अनेक तर्क और प्रमाण भी दिए हैं| अवेस्ता के रचनाकार महर्षि जरथ्रुष्ट का जन्म उत्तरी अफगानिस्तान में बल्ख के आस-पास हुआ और वहीं रहकर उन्होंने पारसी धर्म का प्रचलन किया, जो लगभग एक हजार साल तक ईरान का राष्ट्रीय धर्म बना रहा| वेदों और अवेस्ता की भाषा ही एक जैसी नहीं है बल्कि उनके देवताओं के नाम मित्र्, इन्द्र, वरुण–आदि भी एक-जैसे हैं|
 
देवासुर संग्रामों के वर्णन भी दोनों में मिलते हैं| अब से लगभग 2500 साल पहले ईरानी राजाओं–देरियस और सायरस– ने अफगान क्षेत्र् पर अपना अधिकार जमा लिया था| देरियस के शिलालेख में खुद को ऐर्य ऐर्यपुत्र् (आर्य आर्यपुत्र्) कहता है| हिन्दुकुश के उत्तरी क्षेत्र् को उन्होंने बेक्टि्रया तथा दक्षिणी क्षेत्र् को गान्धार कहा| दो सौ साल बाद यूनानी विजेता सिकन्दर इस क्षेत्र् में घुस आया| सिकन्दर के सेनापतियों ने इस क्षेत्र् पर लगभग दो सौ साल तक अपना वर्चस्व बनाए रखा| उन्होंने अपना साम्राज्य मध्य एशिया और पंजाब के आगे तक फैलाया|
 
आज भी अनेक अफगानों को देखते ही आप तुरन्त समझ सकते हैं कि वे यूनानियों की तरह क्यों लगते हैं| आमू दरिया और कोकचा नदी के किनारे बसे गाँव ‘आया खानुम‘ की खुदाई में अभी कुछ वर्ष पहले ही ग्रीक साम्राज्य के वैभव के प्रचुर प्रमाण मिले हैं|
 
ईसा के तीन सौ साल पहले जब अफगानिस्तान में यूनानी साम्राज्य दनदना रहा था, भारत में मौर्य साम्राज्य-चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार और अशोक-का उदय हो चुका था| अशोक ने बौद्घ धर्म को अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक फैला दिया| बौद्घ धर्म चीन, जापान और कोरिया समुद्र के रास्तांे नहीं गया बल्कि अफगानिस्तान और मध्य एशिया के थल-मार्गों से होकर गया| पालि-साहित्य में नग्नजित्र और पुक्कुसाति नामक दो अफगान राजाओं का उल्लेख भी आता है, जो गान्धार के स्वामी थे और बिन्दुसार के समकालीन थे|
 
गन्धार राज्य की राजधानी तक्षशिला थी, जिसके स्नातकों में जीवक जैसे वैद्य और कोसलराज प्रसेनजित जैसे राजकुमार भी थे| चन्द्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस के बीच हुई सन्धि के कारण अनेक अफगान और बलूच क्षेत्र् बौद्घ प्रभाव में पहले ही आ चुके थे| ये सब क्षेत्र् और इनके अलावा मध्य एशिया का लम्बा-चौड़ा भू-भाग ईसा की पहली सदी में जिन राजाओं के वर्चस्व में आया, वे भी बौद्घ ही थे|
 
कुषाण साम्राज्य के इन राजाओं–कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव–आदि ने सम्पूर्ण अफगानिस्तान को तो बुद्घ का अनुनायी बनाया ही, बौद्घ धर्म को दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचा दिया| चीनी इतिहासकारों ने लिखा है कि सन्र 383 से लेकर 810 तक अनेक बौद्घ ग्रन्थों का चीनी अनुवाद अफगान बौद्घ भिक्षुओं ने ही किया था| बौद्घ धर्म की ‘महायान‘ शाखा का प्रारम्भ अफगानिस्तान में ही हुआ| विश्व प्रसिद्घ गांधार-कला का परिपाक कुषाण-काल में ही हुआ| आजकल हम जिस बगराम हवाई अड्डे का नाम बहुत सुनते हैं,
 
वह कभी कुषाणों की राजधानी था| उसका नाम था, कपीसी| पुले-खुमरी से 16 कि0मी0 उत्तर में सुर्ख कोतल नामक जगह में कनिष्क-काल के भव्य खण्डहर अब भी देखे जा सकते हैं| इन्हें ‘कुहना मस्जिद‘ के नाम से जाना जाता है| पेशावर और लाहौर के संग्रहालयों में इस काल की विलक्षण कलाकृतियाँ अब भी सुरक्षित हैं|
 
अफगानिस्तान के बामियान, जलालाबाद, बगराम, काबुल, बल्ख आदि स्थानों में अनेक मूर्तियों, स्तूपों, संघारामों, विश्वविद्यालयों और मंदिरों के अवशेष मिलते हैं| काबुल के आसामाई मन्दिर को दो हजार साल पुराना बताया जाता है| आसामाई पहाड़ पर खड़ी पत्थर की दीवार को ‘हिन्दुशाहों‘ द्वारा निर्मित परकोटे के रूप में देखा जाता है| काबुल का संग्रहालय बौद्घ अवशेषों का खज़ाना रहा है|
 
अफगान अतीत की इस धरोहर को पहले मुजाहिदीन और अब तालिबान ने लगभग नष्ट कर दिया है| बामियान की सबसे ऊँची और विश्व-प्रसिद्घ बुद्घ प्रतिमाओं को भी उन्होंने नि:शेष कर दिया है| फाह्रयान और ह्नेन सांग ने अपने यात्र-वृतान्तों में इन महान प्रतिमाओं, अफगानों की बुद्घ-भक्ति और बौद्घ धर्म केन्द्रों का अत्यन्त श्रद्घापूर्वक चित्र्ण किया है| अब उनके खण्डहर भी स्मृति के विषय हो गए हैं|
 
जलालाबाद के पास अवस्थित हद्दा में मिट्टी की दो हजार साल पुरानी जीवन्त मूर्तियाँ चीन में सियान के मिट्टी के सिपाहियों जैसी थीं याने उनकी गणना विश्व के आश्चर्यों में की जा सकती थी| वे भी मुजाहिदीन हमलों में नष्ट हो चुकी हैं| बुतपरस्ती का विरोध करने के नाम पर गुमराह इस्लामवादी तत्वों ने अपने बाप-दादों के स्मृति-चिन्ह भी मिटा दिए|
 
इस्लाम के नौ सौ साल के हमलों के बावजूद अफगानिस्तान का एक इलाका 100 साल पहले तक अपनी प्राचीन सभ्यता को सुरक्षित रख पाया था| उसका नाम है, काफिरिस्तान| यह स्थान पाकिस्तान की सीमा पर स्थित चित्रल के निकट है| तैमूर लंग, बाबर तथा अन्य बादशाहों के हमलों का इन ‘काफिरों‘ ने सदा डटकर मुकाबला किया और अपना धर्म-परिवर्तन नहीं होने दिया| अफगानिस्तान की कुणार और पंजशीर घाटी के पास रहनेवाले ये पर्वतीय लोग जो भाषा बोलते हैं, उसके शब्द ज्यों के त्यों वेदों की संस्कृत में पाए जाते हैं|
 
ये इन्द्र, मित्र्, वरुण, गविष, सिंह, निर्मालनी आदि देवी-देवताओं की पूजा करते थे| इनके देवताओं की काष्ठ प्रतिमाएँ मैंने स्वयं काबुल संग्रहालय में देखी हैं| चग सराय नामक स्थान पर हजार-बारह सौ साल पुराने एक हिन्दू मन्दिर के खण्डहर भी मिले हैं| सन्र 1896 में अमीर अब्दुर रहमान ने इन काफिरों को तलवार के जोर पर मुसलमान बना लिया| कुछ पश्चिमी इतिहासकारों का मानना है कि ये काफिर लोग हिन्दुओं की तरह चोटी रखते थे और हवि आदि भी देते थे| अमीर अब्दुर रहमान को डर था कि बि्रटिश शासन की मदद से इन लोगों को कहीं ईसाई न बना लिया जाए|
 
अफगानिस्तान में इस्लाम के आगमन के पहले अनेक हिन्दू राजाओं का भी राज रहा| ऐसा नहीं है कि ये राजा काशी, पाटलिपुत्र्, अयोध्या आदि से कन्धार या काबुल गए थे| ये एकदम स्थानीय अफगान या पठान या आर्यवंशीय राजा थे| इनके राजवंश को ‘हिन्दूशाही‘ के नाम से ही जाना जाता है| यह नाम उस समय के अरब इतिहासकारों ने ही दिया था| सन्र 843 में कल्लार नामक राजा ने हिन्दूशाही की स्थापना की| तत्कालीन सिक्कों से पता चलता है कि कल्लार के पहले भी रूतविल या रणथल, स्पालपति और लगतुरमान नामक हिन्दू या बौद्घ राजाओं का गांधार प्रदेश में राज था| ये राजा जाति से तुर्क थे
 
लेकिन इनके ज़माने की शिव, दुर्गा और कार्तिकेय की मूतियाँ भी उपलब्ध हुई हैं| ये स्वयं को कनिष्क का वंशज भी मानते थे| अल-बेरूनी के अनुसार हिन्दूशाही राजाओं में कुछ तुर्क और कुछ हिन्दू थे| हिन्दू राजाओं को ‘काबुलशाह‘ या ‘महाराज धर्मपति‘ कहा जाता था| इन राजाओं में कल्लार, सामन्तदेव, भीम, अष्टपाल, जयपाल, आनन्दपाल, त्रिलोचनपाल, भीमपाल आदि उल्लेखनीय हैं| इन राजाओं ने लगभग साढ़े तीन सौ साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिंधु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया| लेकिन 1019 में महमूद गज़नी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटा खा गया| फिर भी अफगानिस्तान को मुसलमान बनने में पैगम्बर मुहम्मद के बाद लगभग चार सौ साल लग गए|
 
यह आश्चर्य की बात है कि इन हारते हुए ‘हिन्दूशाही‘ राजाओं के बारे में अरबी और फारसी इतिहासकारों ने तारीफ के पुल बाँधे हुए हैं| अल-बेरूनी और अल-उतबी ने लिखा है कि हिन्दूशाहियों के राज में मुसलमान, यहूदी और बौद्घ लोग मिल-जुलकर रहते थे| उनमें भेदभाव नहीं किया जाता था| शिक्षा, कला, व्यापार अत्यधिक उन्नत थे| इन राजाओं ने सोने के सिक्के तक चलाए| हिन्दूशाहों के सिक्के इतने अच्छे होते थे कि सन्र 908 में बगदाद के अब्बासी खलीफा अल-मुक्तदीर ने वैसे ही देवनागरी सिक्कों पर अपना नाम अरबी में खुदवाकर नए सिक्के जारी करवा दिए| मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार हिन्दूशाही की लूट का माल जब गज़नी में प्रदर्शित किया गया तो पड़ौसी मुल्कों के राजदूतों की आँखे फटी की फटी रह गइंर्| भीमनगर (नगरकोट) से लूट गए माल को गज़नी तक लाने के लिए ऊँटों की कमी पड़ गई|
 
अल-बेरूनी ने राजा आनन्दपाल के बड़प्पन का जि़क्र करते हुए लिख है कि महमूद गज़नी से सम्बन्ध खराब होने के बावजूद, जब तुर्कों ने उस पर हमला किया, तो आनन्दपाल ने महमूद की सहायता के लिए उसे पत्र् लिखा था| ‘हिन्दूशाही‘ राजवंश के राजा ‘आर्याना‘ के बाहर के सुल्तानों को इस क्षेत्र् में घुसने नहीं देना चाहते थे| इसीलिए उन्होंने महमूद गज़नी ही नहीं, अन्य स्थानीय हिन्दू और अ-हिन्दू शासकों से गठबन्धन करने की कोशिश की लेकिन महमूद गज़नी को सत्ता और लूटपाट के अलावा इस्लाम का नशा भी सवार था| इसीलिए वह जीते हुए क्षेत्रें के मंदिरों, शिक्षा केन्द्रों, मण्डियों और भवनों को नष्ट करता जाता था
 
और स्थानीय लोगों को जबरन मुसलमान बनाता जाता था| यह बात अल-बेरूनी, अल-उतबी, अल-मसूदी और अल-मकदीसी जैसे मुस्लिम इतिहासकारों ने भी लिखी है| समकालीन इतिहासकार अल-बेरूनी ने तो यहाँ तक लिखा है कि जीते हुए क्षेत्रें के लोगों के साथ किए गए कठोर बर्ताव और सुल्तानों की विध्वंसात्मक नीतियों के कारण यह क्षेत्र् (अफगानिस्तान) विद्वानों, व्यापारियों, योद्घाओं और राजकुमारों के रहने लायक नहीं रह गया है| “यही कारण है कि जो-जो क्षेत्र् हमने जीते हैं,
 
वहाँ-वहाँ से हिन्दू विद्याएँ इतनी दूर–कश्मीर, बनारस तथा अन्य स्थानों–पर भाग खड़ी हुई कि हमारी पहुँच के बाहर हो गई हैं|” क्या खल्की-परचमी, मुजाहिदीन और तालिबान हुकूमतों के दौरान पिछले 23 साल में एक-तिहाई अफगानिस्तान खाली नहीं हो गया ? क्या अफगानिस्तान के श्रेष्ठ विद्वान, उत्तम कलाकार, निपुण वैज्ञानिक, कुशल राजनीतिज्ञ, भद्रलोक के ज्यादातर सदस्य उस देश को छोड़कर अमेरिका, यूरोप और भारत में नहीं बस गए हैं ? क्या अभागे अफगानिस्तान के इतिहास का चक्र उलटा घूमता हुआ
 
एक हजार साल पीछे नहीं चला गया है ? क्या हम आज वही भयावह दृश्य नहीं देख रहे हैं, जो अफगानिस्तान ने एक हजार साल पहले देखा था ?

Tuesday, May 27, 2025

हल्दीघाटी हो या पलासी, जातियों में छुपे हैं हार के कारण

हल्दीघाटी हो या पलासी, जातियों में छुपे हैं हार के कारण

हाल में कुछ इतिहासकारों ने बहादुरी का झंडा उठा लिया है। वे कह रहे हैं कि राणा प्रताप अकबर से हारे नहीं थे। उनके मुताबिक हल्दीघाटी की लड़ाई के इतिहास को गलत रूप में पेश किया गया है। बाबर ने 1526 में लगभग 15 हजार की सेना के साथ पानीपत का युद्ध लड़ा और जीता। यहां से मुगल साम्राज्य की शुरुआत मानी जाती है। हल्दीघाटी का युद्ध बाबर के पोते अकबर और महाराणा प्रताप की फौजों के बीच हुआ था। इसी युद्ध के नतीजे को लेकर विवाद खड़ा किया गया है। जो लोग कह रहे हैं कि इस मामले में इतिहास को गलत रूप से पेश किया गया है, वे या तो कोई वितंडा खड़ा कर चर्चा में आना चाहते हैं या शायद उनका कोई और अजेंडा हो।

अजेंडा तो यह होना चाहिए कि इतिहास में जो अप्रिय घटनाएं हुईं, वे किन परिस्थितियों में हुईं और यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि अब ऐसा न हो। सोचने की बात यह है कि अगर हमारा समाज जाति के आधार पर न बंटा होता तो क्या ऐसी घटनाएं होतीं? रॉबर्ट क्लाइव ने मात्र 3 हजार सैनिकों के दम पर पलासी का युद्ध जीत लिया। कैसे जीता, क्यों जीता, विश्लेषण तो इसका किया जाना चाहिए। कौन जीता, इस पर बवाल करने का क्या फायदा? इतिहास का लेखा-जोखा हम इसलिए रखते हैं कि उससे कुछ सीख सकें। यह केवल पठन-पाठन के लिए ही नहीं, गलतियों को सुधारने, सीखने और भविष्य की तैयारी के लिए भी होता है।


जिस देश में सारे मौसम हों, उपजाऊ जमीन हो, इतना पुराना इतिहास और संस्कृति हो, वह आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में पीछे क्यों है? जापान का उदाहरण सामने है, जहां लगभग 80 प्रतिशत जमीन कंकरीली-पथरीली है, जो भूकंप और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के लिए अभिशप्त है। वह इतना आगे कैसे निकल गया? इतिहासकारों को इस परिप्रेक्ष्य में अतीत को देखना चाहिए। तथाकथित वामपंथी इतिहासकार भी आर्थिक विश्लेषण तक ही सीमित रह गए, जबकि पराजय का कारण मूलतः सामाजिक रहा है।

रॉबर्ट क्लाइव।

क्लाइव जब अपनी छोटी सी फौज लेकर कोलकाता के समुद्री तट से मुर्शिदाबाद की तरफ अग्रसर हो रहा था तो उसके मन में यह भय बैठा हुआ था कि अगर रास्ते में मिले लाखों लोगों ने पत्थर भी उठा लिया तो वे चटनी हो जाएंगे। इतिहासकार इतने तक में सिमट गए कि सिराजुद्दौला की सेना बड़ी होते हुए भी पराजित हुई, क्योंकि मीर जाफर ने धोखा दे दिया। इतिहास की हर पराजय के पीछे उन्होंने कुछ न कुछ कारण ढूंढे हैं। कभी हाथी धोखा दे गए, कभी औजार अनुपयोगी थे, कभी सेनापति बिक गया। क्लाइव जिस रास्ते से गुजरा, वहां मौजूद हजारों-लाखों लोग तमाशबीन बने रहे। अगर वे बंगाली या भारतीय होते तो पहले तो कोई हमला करने की सोचता ही नहीं। और अगर ऐसा दुस्साहस कर भी लेता तो उसका भुर्ता बन गया होता।

बात यह थी कि रास्ते में जो लोग मिले वे नाई, धोबी, कुम्हार, सूद, चंडाल, बढ़ई, मोची, हेला, मुखर्जी, बनर्जी, चटर्जी आदि थे। नाई बाल काटने में लगा था, धोबी कपड़ा धोने में। सभी जातियों को अपने व्यावसायिक धर्म निभाने थे। ऐसे में बंगाल और देश उनका है, यह भावना उनमें कौन पैदा करता? ऐसे में क्लाइव या ईस्ट इंडिया कंपनी को जीतने और राज करने में सबसे ज्यादा मदद हमारी सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था ने ही तो की! आश्चर्य होता है कि आज भी इतिहासकार राजा-रानी तक ही सिमटे हुए हैं। युद्ध भी उन्हीं को लेकर होता है, हार-जीत की बात भी उनकी ही होती है।

60 और 70 के दशक के बाद आर्थिक दृष्टिकोण से शोध होना शुरू हुआ, लेकिन निशाना हम तब भी चूकते रहे। एक बार अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एक बड़ा सेमिनार आयोजित किया गया था, जिसमें विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्षों और पदाधिकारियों को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया। मशहूर इतिहासकार प्रफेसर इरफान हबीब वहां मौजूद थे और वक्ता के रूप में मैं भी वहां था। छात्रों-नौजवानों से मैंने सवाल किया कि क्या विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र पर लिखी ऐसी एक भी किताब है, जो हमारे वास्तविक जीवन को समाहित करती हो? उससे 3 दिन पहले मुजफ्फरनगर जाना हुआ था और चर्चा के दौरान जानकारी मिली थी कि मुसलमानों में भी ऐसी कई जातियां हैं, जैसे रांगड़, झोझा, त्यागी मुसलमान आदि, जो एक-दूसरे में शादी-ब्याह नहीं करते।

डायर को सरोपा

इतिहास को दुरुस्त करने की आवश्यकता तो है, पर यह तब तक नहीं हो सकता जब तक उसे सामाजिक और धार्मिक पृष्ठभूमि में न देखा जाए। जालियांवाला बाग कांड का हत्यारा जनरल डायर को माना जाता है, लेकिन क्या इतिहासकारों ने इसकी जांच-पड़ताल की कि स्वर्णमंदिर में उसे सरोपा क्यों भेंट किया गया? सभी बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं के पीछे जलवायु खराब होने से लेकर फूट और षड्यंत्र तक तमाम वजहें गिनाई गईं, लेकिन जो मूल कारण है, उस पर हमेशा परदा पड़ा रहा है।

जब सभी एक साथ रह नहीं सकते और एक बड़ी आबादी को छूने तक से परहेज करते हों, तो क्या बाहरी हमलावरों को रोका जा सकता है? एक तरफ लोग गोरों के साथ उठना-बैठना, खाना-पीना करते रहे, उन्हें गले लगाते रहे, दूसरी तरफ दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के साथ भेदभाव करते रहे। इतिहास बदला जाए तो इस उद्देश्य से कि अतीत की गलतियों से सीख कर हम भविष्य सुधारें। अतीत में जो हुआ, उसे बदलने की कोशिश निरर्थक ही कहलाएगी।

लेखक: उदित राज