गत कुछ दिनों से अखंड भारत पर देश भर में काफी चर्चाएं हो रही हैं। इन चर्चाओं में अखंड भारत की व्यावहारिकता, वर्तमान समय में इसकी प्रासंगिकता, इसके राजनैतिक स्वरूप, दक्षिण एशिया महासंघ बनाम अखंड भारत जैसे अनेक प्रश्न और बिन्दु सामने आए। इन्हीं प्रश्नों को लेकर भारतीय पक्ष के कार्यकारी संपादक रवि शंकर ने विख्यात विचारक श्री गोविन्दाचार्य से बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसके मुख्य अंश।
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प्रश्न: गत कुछ दिनों में देश में अखंड भारत का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में आ गया है। श्री आडवाणी और श्री मनमोहन सिंह के पाकिस्तान के अस्तित्व और सीमाओं की परिवर्तनशीलता संबंधी बयानों के संदर्भ में आपने भी कहा था कि भारत एक भूसांस्कृतिक सत्य है। भूसांस्कृतिक सत्य से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर: भारत एक भूराजनैतिक वस्तु ही नहीं है। यह भूसंस्कृति भी है। भूसमाजविज्ञान भी है, भूमनोविज्ञान है, भूदर्शन है। इस भू का काफी महत्व है। भारत ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में शोध, अधययन करने वाले, पढ़ने-लिखने वालों के लिए यह एक रोचक पहलू है। भूगोल पृथ्वी के सूर्य के साथ संबंधों के आधार पर निश्चित होता है। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर के साथ-साथ अपने अक्ष पर भी घूमती है।
सूर्य के चारों ओर घूमने से साल बनता है, मौसम बनते हैं और अपने अक्ष पर घूमने से दिन-रात। पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में सूर्य के प्रकाश की अलग-अलग मात्रा पहुंचती है। इसलिए सूर्य का प्रकाश मिलने की मात्रा, अवधि और तीव्रता अलग-अलग होगी। इससे ही भूगोल की जलवायु संबंधी स्थितियां बदलती हैं। भारत और इंग्लैंड में सूर्य के प्रकाश के पुहंचने का कोण, तीव्रता और समय अलग-अलग है।
भारत में साढ़े दस महीने सूर्य की रोशनी मिलती है, इंग्लैंड में साढ़े दस महीने सूर्य छिपा रहता है। इससे काफी अंतर आ जाएगा। यहां आक्सीकरण की प्रक्रिया तेज होगी, इंग्लैंड में नहीं। यहां बहता पानी पीने लायक होता है, वहां नहीं होगा। भारत की गाय का दूध पीलापन लिए हुए होगा। भारत में गेंहू तीन महीने में पकेगा, इंग्लैंड में सात महीने लगेंगे। इसलिए वहां का जीवन कृषि पर आधारित नहीं होगा। इन्हीं कारणों से भारत में दुनिया की केवल दो प्रतिशत भूमि है लेकिन जैव विविधता� दुनिया का तेरह प्रतिशत भारत में होता है।
इस विशिष्टता के कारण भाषा, भूषा, भोजन, भवन, भेषज, भजन आदि भारत में अलग प्रकार का होगा, इंग्लैंड का अलग होगा। जीवन मूल्य, जीवन आदर्श, जीवन शैली, जीवन लक्ष्य आदि भी भिन्न होंगे। इसके अलावे, समाज की रचना, समाज संचालन की तकनीक, उसका तंत्र और सही-गलत का विवेक भी अलग होगा। इसलिए परिवार संस्था, प्रकृति के साथ मैत्री भाव और अनेकता में एकता व एकता में अनेकता में विश्वास, भारत में जल्दी होगा।
यहां उपासना के सभी मार्ग ईश्वर तक पहुंचते हैं, का भाव स्वाभाविक रूप से होगा, वहां समझाना होगा। इसलिए उनको भी बेहतर बनाने का काम भारत को करना पड़ेगा। यह इस भूमि की विशेषता है। यह अनायास नहीं है कि दुनिया के भूभागों में से भारत वह भूभाग है जहां एक दैवी त्रिकोण का अस्तित्व है। वह त्रिकोण है धरतीमाता, गौमाता और घर की माता। इसमें हरेक कोण शेष दो को मजबूत करता है। घर की मां गोमाता की भी सेवा करे, धरतीमाता की भी करे। गोमाता घर की मां को दूध दे और धरतीमाता को उसकी खुराक गोबर-गोमूत्र दे। इंग्लैंड में भी गाय गोबर-गोमूत्र देगी, लेकिन वहां नमी और उष्णता का मेल अलग होने के कारण वह धरती का भोजन नहीं बन पाएगा, व्यर्थ जाएगा।
यहां की धरतीमाता घर की माता को पर्याप्त अनाज और गौमाता को पर्याप्त चारा देती है। लेकिन वहां पर्याप्त अनाज व चारा नहीं होगा। यह नमी और उष्णता का विशेष मेल भारत में होने के कारण यहां इतनी जैव विविधता होती है। आदि पराशक्ति का त्रिकोण यहां के सारे जीवनशैली का एक ऐसा हिस्सा बन जाता है जिसमें मातृशक्ति की विशेष उपासना संभव हो पाती है। यह इस भूभाग की विशेषता है। यही इसकी भूसांस्कृतिक सच्चाई है।
प्रश्न : परंतु आज इस भूखंड में जो राजनीतिक और जनसांख्यिक परिवर्तन हो चुके हैं, इनके परिप्रेक्ष्य में अखंड भारत का व्यावहारिक स्वरूप क्या होगा?
उत्तर : ये प्रश्न बहुत छोटे कालक्षितिज में ही तर्कसंगत हैं। आप एक दूसरे दृश्य की कल्पना करें। 1294 में मोहम्मद गोरी का शासन था। सबको लगा कि अब तो सब कुछ समाप्त हो गया। पृथ्वीराज चौहान हार गए थे। विदेशी शासन की यह स्थिति सवा चार सौ साल तक चली। औरंगजेब की मृत्यु 1707 में हुई। इन चार सौ वर्षों में समाज में जो निराशा, हताशा थी, जो राजनीतिक परिदृश्य था, उसमें औरंगजेब की मृत्यु के बाद क्या हुआ? जजिया कर जैसी चीजें प्रासंगिक रह ही नहीं गईं। उल्टा हो गया।
भारतीय संस्कृति की समाजसता में वे समरस होने लगे। समाजसता यानी अपने अंदर समा लेने की क्षमता। भाषा, भूषा, भोजन, भवन, भेषज, भजन आदि के क्षेत्रों में यह समाहित करने की प्रक्रिया चलने लगी। केवल भजन के क्षेत्र में थोड़ा बदलाव हुआ, अन्यथा जो भूसांस्कृतिक पहलू हैं, वह धीरे-धीरे मनोविज्ञान पर हावी होने लगे। तब वे जगह-जगह पर स्थानीय रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार आदि में सबके साथ सम्मिलित होने लगे।
भाषा भी बदली भूषा भी बदली। केरल का मुसलमान मलयालम का आग्रह रखता था और कर्नाटक का मुसलमान कन्नड़ का। आज जो फिर से मजहबी चेतना जगी है, वह 1890 के बाद की बात है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में ब्रिटिश कलेक्टर ने सुनियोजित दंगे कराए। उसके बाद धीरे-धीरे इसमें उफान आता गया और फिर 1920 में शरीयत पर बहस चली। 1937 में शरीयत को सर्वमान्य करने की जबरदस्ती की गई। इस प्रकार देखें तो 1707 से 1894 तक के कालखंड का प्रकार अलग था।
फिर आप यह क्यों मान लेते हैं कि वह कालखंड फिर नहीं दोहराया जा सकता? मेरा मानना है कि आज अगर मन के स्तर पर विभेद और मजहब का रिश्ता ज्यादा मजबूत दिखाई देता है तो उसके पीछे आज का वह परिदृश्य भी कारण है जिसमें पाकिस्तान की मजहबी जुनून को बढ़ाने वाली हुकूमत और कई इस्लामिक देशों द्वारा पैसा, समाज और रूतबे का अंधाधुंध उपयोग है। इन सबके कारण स्थानीय रिश्तों और संबंधों की बजाय एक विशेष मजहबी भाव मानस पर हावी हो जाता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि आज के परिदृश्य से यदि इन दो कारक तत्वों को मिटा दें तो फिर ये सारे ही समीकरण एकदम बदल जाएंगे और यह प्रश्न ही असंगत हो जाएगा। इसलिए हम यह क्यों मान रहे हैं कि स्थितियां सदैव ऐसी ही होंगी? आज विश्व के वर्तमान परिदृश्य के संदर्भ में हटिंगटन ने सभ्यताओं की लड़ाई की जो बात कही है, वह भले ही पूरी सही नहीं है लेकिन उसमें कुछ तो सत्यता है।
आज यूरोप और अमेरिका मिलकर इस्लामिक आतंकवाद से जूझने के लिए मजबूर हो गए हैं। वे आज चुन-चुनकर लोगों को मार रहे हैं। उनकी मंशा सभी भूरे लोगों पर कहर ढाने की है। दक्षिणी फ्रांस और स्पेन इस्लाम के साथ चार सौ वर्षों तक जूझते रहे, इस बात का उनके मनोविज्ञान पर इतना ज्यादा प्रभाव है कि वे इस्लाम के धुर विरोध में खड़े हो गए हैं। इसलिए आज की स्थिति को हम यदि स्थायी मान कर चल रहे हों तो यह स्थिति की सरलीकृत समझ होगी, जो ठीक नहीं है।
प्रश्न : आपने कहा कि अखंड भारत एक सांस्कृतिक सत्य है यानी यह भूभाग यदि अखंड था तो संस्कृति के कारण। आज वह संस्कृति जब वर्तमान भारत में ही कमजोर पड़ रही है तो जिन स्थानों से वह लुप्त हो गई है, वहां अपना प्रभाव कैसे फैला पाएगी?
उत्तर : यहां फिर गलती हो रही है। वास्तव में समाज का भूसांस्कृतिक पक्ष अंतरतम में रहता है और अपना असर करता रहता है। समाज का भूराजनैतिक पक्ष सतह पर रहता है। काल प्रवाह में भूसांस्कृतिक तथा भूमनोवैज्ञानिक और इसलिए भूसमाजविज्ञानी पक्ष प्रभावी होते जाएंगे। इसके लिए आवश्यक है कि उनको अपने बारे में 700-800 या हजार साल पहले के सभी तथ्य बताए जाएं। उन्हें बताया जाए कि वे पहले क्या थी, अब क्या है? पाणिनी से पाकिस्तान के सामान्य जन का क्या रिश्ता है, इस ओर जब वे सोचने लगेंगे तो उनके मनोविज्ञान में काफी बदलाव होगा।
आज ‘ही’ संस्कृति के पक्षधर भूगोल के एक हिस्से पर हावी दिख रहे हैं। ‘ही’ संस्कृति अर्थात् उनका भगवान भगवान, बाकी सब शैतान। केवल वे ही सच्चे। लेकिन यही हमेशा का सार्वकालिक सत्य तो है नहीं। भारत की मूल संस्कृति भारत में ही कमजोर पड़ रही है, ऐसा आपको लगता है। मेरा दूसरा कहना है। भारत के भूमनोविज्ञान में संश्लेषण की अद्भुत क्षमता है, क्योंकि यहां की भूप्रकृति के कारण अनेकता में एकता और मेल बिठा लेने की एक विशेषता है।
इसके कारण ही सहिष्णुता, समरसता और समजसता का वैशिष्ट्य यहां की भूसंस्कृति में आ जाता है। हम जब इसको देखते हैं तो सतह पर अपकारी तत्व अर्थात् भूराजनीति के दर्षन हो हैं जबकि नीचे सरस्वती के समान प्रवाहित है भूसंस्कृति। थोड़ा बालू हटाने की जरूरत है और यह भूराजनीति का बालू है अर्थात् जो भी ‘ही’ संस्कृति के पक्षधर संप्रदाय हैं, उन्हें समाहित करने, बदलने की आवश्यकता है। भारत में सार्वभौम या पूरे भूभाग में फैले एक राज्य की आज से 2000 साल पहले तो जरूरत नहीं थी।
नाममात्र के लिए एक सार्वभौमत्व व्याप्त था जिसे चक्रवर्तित्व या ऐसा ही कुछ और कहा जाता था। पर उस समय राज्य समाज की संपूर्ण गतिविधियों का नियंता नहीं था, जैसा कि पश्चिम में रहा है। भूसंस्कृति ही यहां की जान रही है। राज्य केवल उसका एक उपकरण रहा है। इसलिए राज्य के बहुतेरे प्रकार अलग-अलग समय पर जरूरत के हिसाब से गढ़े गए और उपयोग में लाए गए।
राष्ट्र के लिए एक सार्वभौम राज्य की आवश्यकता तो आज से 2000 साल पहले ही हुई है जब हमें लुटेरे के रूप में आए सिकंदर का सामना करना पड़ा। तब तात्कालिक तौर पर सब सेनाओं को इकट्ठा कर लिया गया अन्यथा भारतीय समाज में स्थायी सेना रखने की भी आदत नहीं थी। यहां परंपरा थी कि सामान्यत: लोग अपने खेती या व्यवसाय में लगे रहते थे, सबके पास शस्त्र होते थे और वीर्य, शौर्य तथा बल संपदा का अधिकाधिक संपोषण किया जाता था।
जब जरूरत पड़ती थी तो सभी युध्द के लिए आ जाते थे। इसलिए समाज संचालन के पिछले 400 साल के पश्चिमी प्रयोगों को परंपरागत भारतीय समाज संचालन विधि के संदर्भ में अगर देखेंगे तो गलती हो जाएगी।
विगत एक हजार वर्षों में भारत को एक विशेष प्रकार की समस्या का सामना करना पड़ा। एक सहिष्णुता, समरसता और समजसता के गुण वाले समाज को असहिष्णु, एकाकी, सर्वंकश और सर्वग्रासी राजनैतिक पंथसत्ता से लड़ना पड़ा। वह पांथिक राजसत्ता नहीं, राजनैतिक पंथसत्ता थी। वास्तव में इस्लाम एक स्टेटक्राफ्ट है जिसका एक हिस्सा जीव और जगदीश के संबंधों के बारे में भी कुछ सोचता और बोलता है।
इसमें भौतिक और आधयात्मिक, दोनों का सम्मिश्रण है परंतु भौतिक की ही प्रधानता है। ऐसे असहिष्णु संप्रदाय से जब से भारत का सामना हुआ है तब से अब तक यहां का समाज विभ्रम में है। वह भारत के बाहर उपजे संप्रदायों-मजहबों को भी भारत के अंदर उपजे संप्रदायों के समानधर्मा और समानमनवाला मानने की भूल करता है। भारत के अंदर उपजे संप्रदायों में जैसे परस्पर समादर का रिश्ता है, वैसा ही रिश्ता वह अपने मनोविज्ञान में उनके बारे में अनुभव करने लगता है, जबकि वे ऐसे हैं ही नहीं। इसलिए उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए, यह समस्या है।
वे तो राज्य के साथ हैं और यहां के मानस में राज्य की वैसी कोई भूमिका ही नहीं है। यह द्वन्द्व है। इस द्वन्द्व में से सीखता-समझता भारतीय समाज गुजर रहा है। इसलिए इसे लगता है कि दुर्गा जैसी सक्षम राजसत्ता और काली जैसी समाजसत्ता की आवश्यकता है। राजसत्ता दुर्गा का काम करे और समाजसत्ता काली का काम करे, इन रक्तबीजों का रक्त अपनी जीभ पर फैला ले, गिरने न दे।
भारतीय समाज अभी इस सीख के साथ थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ रहा है। इसमें उसको यह भी धयान रखना होगा कि रावण से युध्द करते हुए कहीं अपना स्वभाव भी रावणी न बन जाए। असहिष्णु संप्रदायों का सामना करने के क्रम में सहिष्णुता, समरसता और समाजसता के अपने भूसांस्कृतिक वैशिष्टय को बरकरार रखने की विशेष चुनौती है।
प्रश्न : यदि अखंड भारत को हम राजनीतिक इकाई नहीं मानते हैं तो सीमाओं की चर्चा करने की जरूरत क्यों पड़ती है? पाकिस्तान के अस्तित्व पर बहस क्यों होती है? पाकिस्तान के रहने और न रहने से अखंड भारत को क्या फर्क पड़ता है?
उत्तर : मैं पहले ही कह चुका हूं कि भारत से बाहर उपजे संप्रदायों का पुरोधा बनकर यदि कोई राजसत्ता उसका सशस्त्र साथ देती है, तब संपूर्ण विश्व में शांति व भाईचारा फैलाने के भारत के दैवी दायित्व में बाधा होती है। तब भारतीय समाज को सोचने की आवश्यकता पड़ जाती है कि राजसत्ता का आश्रय लेकर जो अभारतीय संप्रदाय सामने आ रहे हैं, उन्हें राजनैतिक प्रत्युत्तर दिए बिना हम कैसे बने रहेंगे।
प्रश्न : इस राजनीतिक प्रत्युत्तर में सैन्य शक्ति का कितना उपयोग हो सकता है?
उत्तर : हम इतना जानते हैं कि सैन्य शक्ति इतनी जरूर हो कि कोई हमें टेढ़ी आंखों से देख न सके। दूसरी बात, सैन्य शक्ति इतनी सक्रिय होनी चाहिए कि राष्ट्रीय संप्रभुता पर यदि हमला हो तो कानूनी दांवपेंच में उलझकर अपनी निष्क्रियता को सही सिध्द न करे। जैसे, कारगिल के युध्द में अपनी सीमाओं में रहने की बेबसी दिखाने की कोई जरूरत नहीं थी।
जब आतंकवाद के अड्डे सीमापार हैं तो उसे नष्ट करने के लिए सीमा पार करना नैतिक है, आवश्यक है और यदि कोई इसका विरोध करता है तो वह अनैतिक है। इसी प्रकार जब भारतीय संसद पर चोट की गई तो वह ऐसा दूसरा अवसर था जब भारतीय सेना को दो-दो हाथ करना ही चाहिए था। केवल सद्भाव, सदाशयता और सदुपदेश से राष्ट्र नहीं चलता। राष्ट्र का मनोबल इससे गिरता है। मैं मानता हूं कि राष्ट्रीय प्रगति का मार्ग केवल सुहावने बगीचे में टहलने जैसा नहीं है। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण उतना होता है जितना समाज द्वारा खून, पसीने और आंसू का विनियोग किया जाता है।
प्रश्न : अखंड भारत के बारे में एक विचार यह भी प्रस्तुत किया जाता है कि यूरोपीय संघ की तर्ज पर दक्षिण एशियाई महासंघ बने। अखंड भारत आज के समय में सार्थक बात नहीं है लेकिन यह महासंघ इसका ही एक रूप होगा।
उत्तर : यूरोपीय संघ से दक्षिण एशियाई महासंघ की तुलना करना ठीक नहीं है। वहां जिन देशों का संघ बना है उनमें सभ्यता व सांस्कृतिक स्तर पर अत्यधिक समानताएं हैं। मजहब भी उनका एक है। इसकी तुलना में अभी दक्षिण एशिया की स्थिति काफी भिन्न है। इस पर भी यूरोपीय संघ में ही कई अंतर्विरोध भी हैं। तुर्की यदि यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहता है तो वे चिंता में पड़ जाते हैं।
वास्तव में इस्लामिक आबादी के बढ़ाव से वे भी काफी परेशान हैं। स्पेन के लोगों में इस्लाम का विरोध और उसके प्रति कटुता भारत में 50 साल पहले विस्थापित हुए लोगों से भी कहीं अधिक भीषण और तीव्र है। फ्रांस अल्जीरिया से हो रहे घुसपैठ से परेशान है। वस्तुत: यूरोपीय संघ में मजहब और भूसांस्कृतिक स्तर पर एक समानधर्मिता है, इसलिए वे एक हद तक थोड़ा बहुत चल पाए। इस आधार पर सोचें तो भारत महासंघ की कल्पना तथ्यात्मक कैसे हो सकती है?
इसके लिए बहुत से सुधार होने की आवश्यकता है। 1707 से 1894 के बीच समाजसता का जो क्रम चल रहा था, जिसमें विदेशी ताकतों के यहां से मिल रहा प्रश्रय और उनके प्रति सद्भाव बिल्कुल नहीं था, वह फिर से चलना जरूरी है। एक ही परंपरा और आदर्श से ओत-प्रोत जनमानस बनना, ऐसे किसी भी महासंघ बनने की पूर्व शर्त है।
साभार गोविन्दाचार्य जी
Published: Friday, Oct 21,2011, 23:32 IST
Source: IBTL