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Sunday, March 28, 2021

महाभारत और रामायण काल्पनिक नहीं, बल्कि इन महाग्रंथो के अस्तित्व के पुख्ता प्रमाण हैं मौजूद


महाभारत और रामायण काल्पनिक नहीं, बल्कि इन महाग्रंथो के अस्तित्व के पुख्ता प्रमाण हैं मौजूद

27 सितंबर, 1931 को लाहौर के अखबार ‘द पीपल’ में एक लेख प्रकाशित हुआ. लेख का नाम था, 'मैं नास्तिक क्यों हूं'. जेल में रहते हुए इसे लिखने वाले व्यक्ति अमर क्रांतिकारी भगत सिंह थे. अपने इस लेख के माध्यम से उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किए थे. मॉर्डन युग में भी भगत सिंह का ये लेख प्रासंगिक बना हुआ है.

भगत सिंह की तरह ही आज भी देश के कई तर्कशील युवा अक्सर हिंदू धर्म के महान ग्रंथों की सामयिक जटिलताओं के चलते इसे पूरी तरह से अपना नहीं पाते हैं. दूरदर्शन पर अक्सर महाभारत और रामायण जैसे कार्यक्रमों को देखकर लगता था कि अगर ये ऐतिहासिक पात्र काल्पनिक नहीं हैं, तो युद्ध का समय, इनके रहने और जीने का समय हज़ारों सालों में कैसे बंट सकता है.
 
भगत सिंह की तरह ही लेनिन, मार्क्स जैसी कई बड़ी हस्तियों ने एक कदम आगे बढ़ते हुए ईश्वर में अपनी निष्ठा ख़त्म की, कई लोग दर्शनशास्त्र की तरफ़ भी मुड़े. कुछ आस्तिकों ने दर्शन शास्त्र को मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होने वाला परिदृश्य बताया.

लेकिन कई आस्तिक और फिलॉसॉफ़र भी महाभारत और उसके समय-काल से जुड़े अनुत्तरित सवालों के जवाब देने में सक्षम नहीं थे. ज़ाहिर है, रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथ इतिहास न होकर, पौराणिक और देव कथाओं में तब्दील होने शुरु हो चुके थे.
भारत के प्राचीन ग्रंथ, सत्य या मिथ्या?

आईआईटी मुंबई से पास आउट इतिहासकार सुनील शेरॉन की महाभारत के समय काल को लेकर बेहद दिलचस्प राय है. उनकी एक थ्योरी के अनुसार, महाभारत को गैरज़रूरी तरीके से जटिल बनाया गया है. महाभारत में इस्तेमाल हुए संस्कृत श्लोकों के द्वारा इन महान ग्रंथों के रहस्य को सुलझाया जा सकता है.
 
सुनील के मुताबिक, भारत में वैदिक गुरुओं की मौजूदगी का कारण भारत का कर्म भूमि होना था. भारत एक ऐसी जगह है, जहां करोड़ों देवी-देवताओं को पूजा जाता है. यहां सनातन धर्म का ज़बरदस्त प्रभाव था. ये एक ऐसी आध्यात्मिक और रहस्यमयी भूमि थी, जहां कर्मों के आधार पर इंसान की मोक्ष की दिशा तय होती है. वहीं दुनिया के बाकी देश भोग भूमि हैं, जहां इंसान भोग-विलास में मशगूल होकर अपनी ज़िन्दगी दिशाहीन तरीके से व्यतीत कर देता था.
  Source: Deviantart

महाभारत और रामायण के दौर में दुनिया के इन बाकी देशों के बारे में उल्लेख नहीं होने का कारण इनका भोग-भूमि होना है. कोई भी संस्कृति और सभ्यता, जो सनातन धर्म के फ्रेमवर्क और शिक्षाओं से बाहर थी, उसे महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता था. इसलिए उनके अस्तित्व पर अधिक चर्चाएं नहीं मिलती. वहीं सनातन धर्म के मुताबिक, मनुष्य का अंतिम उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है और भारत के ग्रंथों, पुराणों से लेकर प्राचीन साहित्य तक इस बात की कहीं न कहीं पुष्टि करते हैं.
 
महाभारत के समयकाल की सही अवधि

पिछले 2500 सालों से ज़्यादातर लोग, महाभारत और रामायण दौर को बयां करते संस्कृत श्लोकों को लेकर एक चूक करते आए हैं. 'देखन में छोटी लगे घाव करे गंभीर' जैसी कहावत की तर्ज पर ही इस गलती के गहरे असर को समझा जा सकता है.
दरअसल जिन संस्कृत श्लोकों में महाभारत और रामायण काल के युगों का उल्लेख हुआ है, उनमें इस्तेमाल होने वाले अंकों को अब तक ग़लत तरीके से समझा जा रहा था.
Source: Quora

मसलन अगर हम महाभारत के इस गद्य पर गौर फरमाएं, तो समझ आएगा कि दश वर्ष सहस्त्राणि को पारंपरिक तौर पर 10,000 साल माना जाता है, जिस पर सुनकर ही सहज विश्वास नहीं होता. हालांकि अगर यहां सहस्त्राणि की असल संख्या यानि 10 साल (सहस्त्राणि=10) इस्तेमाल की जाए और शतानी की संख्या को 1 (शताणी=1) साल माना जाए तो पुराणों के ये श्लोक कुछ इस प्रकार होंगे.
चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।
त्रीणि वर्षसहस्राणि त्रेतायुगमिहोच्यते।
तथा वर्षसहस्रे द्वे द्वापरं परिमाणतः।
सहस्रमेकं वर्षाणां ततः कलियुगं स्मृतम्।
एतत्सहस्रपर्यन्तमहो ब्राह्ममुदाहृतम्।
इस बदलाव के अनुसार,

40 (4*10) साल कृति युग है. वहीं 30 साल त्रेता युग, 20 साल द्वापर युग और 10 साल कलियुग को कहा गया है. वहीं 1000 साल (120 साल की एक साइकिल) को ब्रहमा डे के तौर पर माना जाएगा. ये सभी संधि के बिना इस्तेमाल किए गए है. यानि इन अंकों में 20 प्रतिशत जोड़ देने के बाद इनकी संख्या क्रमश: 48 साल, 36 साल, 24 साल और 12 साल होगी.
 
इन संख्याओं के सामने आने के बाद महाभारत से जुड़े ज़्यादातर संस्कृत श्लोकों में उल्लेख किया गया समय, अब विश्वास लायक था.
Source: Quora

इस विश्लेषण से न केवल युगों और महायुगों के चक्र-काल का सही अंदाज़ा लगाया जा सकता है, बल्कि भारत के प्राचीन इतिहास की जटिलताओं को भी आसानी से समझा जा सकता है. इससे साबित होता है कि समय की उत्पत्ति (7th मन्वन्तर) 4174 BCE में हुई.
4174 BC से लेकर 3000 BCE भगवानों औऱ देवी देवताओं का दौर था, 3000 BCE में पूरी दुनिया को बाढ़ के प्रकोप ने काफ़ी नुकसान पहुंचाया. 3000 BCE से 1299 BCE तक 59 पीढ़ियां धरती पर अपना समय व्यतीत कर चुकी थी. भगवान श्री राम इस कड़ी में 60वीं पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
  Source: Chainimage

3000BCE के बाद ही दुनिया में आबादी ने दूर-दराज के क्षेत्रों में बसना शुरु किया. कुछ लोगों को भारत से निकाल दिया गया और कुछ ऐसे भी थे जिन्हें बाहरी दुनिया में दिलचस्पी थी. इसके तहत ही भारत से अलग होकर मिडल ईस्ट अस्तित्व में आया. मिडिल ईस्ट से निकल यूरोप का निर्माण हुआ.

 
Source: nisachar.deviantart

जहां तक महाभारत के Scientific प्रमाण की बात थी, तो इससे जुड़ा सबसे बड़ा पुरातात्विक प्रमाण प्रोफ़ेसर बी. बी. लाल ने खोज निकाला था. वे भारत सरकार के पौरातात्विक विभाग में काम करते हैं. उन्होंने 1951 में हस्तिनापुर लोकेशन की खुदाई कर एक ऐसे Flooding Zone का पता लगाया था, जिसे 700 BCE का बताया जा रहा है. Source: Quora


पुराणों में भी हस्तिनापुर में आई बाढ़ के प्रकोप का है. पुराणों मे कहा गया है कि परिक्शित की चार पुश्तों गुज़रने के बाद इस बात का ज़िक्र किया गया है. गौरतलब है कि परिक्शित युधिष्ठिर के पोते थे. इससे साफ़ है कि हस्तिनापुर में आई भयानक बाढ़ से पहले के 130-150 सालों का दौर, महाभारत युद्ध का दौर था.

 

महाभारत के युद्ध की व्याख्या को कई लोगों ने गैरज़रूरी तरीके से जटिल बनाया है. इसके मुताबिक, महाभारत का युद्ध 3000-5000 BCE के बीच लड़ा गया था जो कि अविश्वसनीय है.. दरअसल इसके पीछे महान वैज्ञानिक आर्यभट्ट (499 AD) का दिमाग था. आर्यभट्ट ने ही महायुग के असली समय यानि 120 सालों को एक ऐसे आंकड़ें में बदल दिया था, जिस पर विश्वास करना आसान नहीं था. Source: youthconnect

Inspired from: mcremo

आर्यभट्ट ने 120 सालों के महायुग की अवधि को अपने आकलनों के द्वारा 4,32,0000 साल बताया, जिसे सुनने पर ही विश्वास करना मुश्किल था. आर्यभट्ट के इस विचार की उस ज़माने में सशक्त मौजूदगी थी. लोगों के दिमाग में ये बात घर कर चुकी थी. ज़ाहिर है, कई तर्कशील और लॉजिकल लोग इस तथ्य को अपनाने से इंकार करने लगे और भारत का जीता जागता इतिहास, माइथोलॉजी में तब्दील होकर रह गया.

प्रोफ़ेसर बी. बी. लाल के पुरातात्विक प्रमाणों और महाभारत के Double Eclipse Pair से ये आसानी से समझा जा सकता है कि महाभारत का युद्ध 827 BCE में हुआ था. सभी ग्रहों की स्थितियां जो महाभारत में दर्शाई गई थी, भी इस साल की पुष्टि करती हैं


इसी के आधार पर कहा जा सकता है कि श्री राम का जन्म 1331 BCE में हुआ था और वे 1299 BCE में अयोध्या के राजा बने थे वहीं महाभारत का युद्ध 827 BCE में लड़ा गया था.
प्रोफ़ेसर बी. बी. लाल और सुनील शेरॉन की प्रेजेंटेशन से इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

  Source: 
सुनील अपनी इस थ्योरी को लेकर काफ़ी आश्वस्त हैं और देखना दिलचस्प होगा कि इस पर बाकी इतिहासकारों की क्या प्रतिक्रिया होती है.

SABHAR: gazabpost.com/The-reality-of-mahabharata-and-ramayana

HEMU VIKRAMADITYA - अंतिम हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य ,जो थे शौर्य और बलिदान का पर्याय

HEMU VIKRAMADITYA - अंतिम हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य ,जो थे शौर्य और बलिदान का पर्याय


भारतीय इतिहास शौर्य गाथाओ से सराबोर है | इन शौर्य गाथाओ के अदम्य साहस और वीरता की गाथाये आज भी प्रेरक मिसाल बनी हुयी है | ऐसे में रणबांकुरो में अंतिम हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (Samrat HemChandra Vikramaditya) , जिन्हें हेमू (Hemu) के नाम से भी जाना जाता है , का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है | एक साधारण व्यापारी से विक्रमादित्य की पदवी तक का सफरनामा उनके अद्भुद साहस ,कुशाग्र बुद्धि एवं प्रेरक रणकौशल का प्रमाण है |

हेमचन्द्र विक्रमादित्य (Samrat HemChandra Vikramaditya) का जन्म आश्विन शुक्ल दशमी विक्रमी संवत 1556 (1501 ईस्वी ) में राजस्थान के अलवर जिले के अंतर्गत माछेरी नामक गाँव के एक समृद्ध धूसर भार्गव वैश्य बनिया परिवार में हुआ था | हेमू के पिता राय पूरनदास संत प्रवृति के नेक इन्सान थे | बाद में उन्होंने हरियाणा के रेवाड़ी स्तिथ क़ुतुब पुर नामक क्षेत्र में रिहायश कर यहा व्यापार शूरू किया | वह मुख्यत: तोप और बंदूक में प्रयोग किय जाने वाले पोटेशियम नाइट्रेट (शोरा) का व्यापार करते थे |

हेमू (Hemu) ने अपनी शिक्षा में संस्कृत एवं हिंदी के अलावा फारसी ,अरबी और गणित का अध्ययन भी किया था | शरीर सौष्ठव एवं कुश्ती के शौक़ीन हेमू को धर्म एवं संस्कृति विरासत में मिली थी | वल्लभ सम्प्रदाय से जुड़े उनके पिता वर्तमान पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र सहित प्राय: विभिन्न हिन्दू धार्मिक स्थलों का दौरा करते थे |

हेमू (Hemu) ने अपना सैनिक जीवन शेरशाह सुरी के दरबार से शुरू किया | शेरशाह के पुत्र इस्लाम शाह के दरबार में हेमू अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रहे | 1548 में शेरशाह सुरी की मृत्यु के बाद इस्लाम शाह ने उत्तरी भारत का राज सम्भाला | उन्होंने हेमू के प्र्शाश्कीय कौशल ,बुद्धि ,बल और प्रतिभा को पहचान कर उन्हें निजी सलाहकार मनोनीत किया | वे हेमू से ना केवल व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में सलाह लेते थे बल्कि प्रशाश्नीय कार्यो और राजनितिक कार्यो में भी उनसे विमर्श करते थे |

यही कारण था कि उन्हें बाजार अधीक्षक जैसी महत्पूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गयी और बाद में उन्हें दरोगा-ए-चौकी जैसे अति महत्वपूर्ण पद से सुशोभित किया गया जिस पर वह इस्लाम शाह की मृत्यु (30 अक्टूबर 1553) तक रहे | नागरिक एवं सैन्य मामलो के मंत्री तक निरंतर पदोन्नति पाने वाले हेमू को इस्लाम शाह ने भतीजे और उत्र्रधिकारी आदिल शाह सुरी ने “विक्रमादित्य” की उपाधि प्रदान की क्योंकि उनके लिए कई लड़ाईयां लड़कर हेमू ने हुमायु के शाशनकाल में भी उसके लिए कुछ क्षेत्र सुरक्षित रखा | उत्तराधिकारियों के झगड़े की वजह से बिखरते राजवंश को कमजोर शाशक आदिल शाह के लिए हेमू ही आशा की एक किरण ,एक मजबूत स्तम्भ बना |

मध्ययुगीन भारतीय इतिहास में हेमू (Hemu) एकमात्र हिन्दू था जिसने दिल्ली पर राज किया | मुगल सम्राट हुमायु की अचानक मृत्यु हेमू के लिए एक देवप्रदत संयोग था | उसने ग्वालियर से अपनी सेना एकत्रित कर दिल्ली की ओर कुच किया | मुगल जनरल इस्कन्दर उजबेक खान आगरा ,इटावा ,कालपी और बयाना खाली कर दिल्ली में मुगल जनरल मिर्जातरगी बेज से जा मिला | हेमचन्द्र ने दिल्ली के निकट तुगलकाबाद में 7 अक्टूबर 1556 को मुगल सेना के छक्के छुडाये |

दिल्ली से भागकर मुगल सेना सरहिंद में एकत्रित हो गयी | हेमू (Hemu) ने दिल्ली की राजगद्दी पप्राप्त की और महाराजा विक्रमादित्य के रूप में अपना राजतिलक करवाया किन्तु पानीपत के युद्ध में उनकी पराजय निसंदेह एक दुर्घटना थी | अनेक इतिहासकारों ने लिखा है कि यदि हेमू युद्ध में विजयी होता तो आज भारत का इतिहास कुछ अलग ही होता | एक युद्ध में हेमू की आँख में लगे तीर ने युद्ध में पासा ही पलट दिया | हेमू की सेना अपने सेनानायक को न पाकर ह्तौत्साहित होकर बिखर गयी |

दुसरी ओर मुगल सेना में नई जान आ गयी और देखते ही देखते युद्ध का नक्शा ही बदल गया | बैरम खा के लिए यह घटना अप्रत्याक्षित थी | युद्ध में विजय के अलावा अपने बड़े शत्रु को अपने कब्जे में देखना उसके लिए असम्भव सी बात थी | बैरम खा ने अकबर से प्रार्थना की कि वे हेमू का वध करके गाजी की पदवी का हकदार बने | हेमू को मरनासन्न स्थिथि में देखकर अकबर ने इसका विरोध किया लेकिन बैरम खा ने आनन फानन में अचेत हेमू का सिर धड से अलग कर दिया |

हेमू (Hemu) की हत्या के बाद जहा उनके सिर को अफ़घान विद्रोहियों के हौसले पस्त करने के लिए काबुल भिजवाया गया , वही स्थानीय विद्रोह को कुचलने के उद्देश्य से उनके धड़ को दिल्ल्ली के पुराने किले के दरवाजे पर लटकाया गया | इतना ही नही ,हेमू वंश पर अत्याचार का कहर ढाया गया | उनके 80 वर्षीय संत पिता को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए बाध्य किया गया किन्तु उनके पिता ने जब साफ़ शब्दों में कह दिया कि मैंने पुरे 80 साल जिस धर्म के अनुसार ईश्वर की प्रार्थना की अब मौत के डर से क्या सांध्यकाल में अपना धर्म बदल लू ? उसके बाद पीर मोहम्मद के वार से उनके शरीर के टुकड़े कर दिए गये |

बैरम खा हेमू और उनके पिता तथा परिवार पर किये गये अत्याचारों से संतुष्ट नही था इसलिए उनके समस्त वंशधरो को अलवर ,रेवाड़ी ,कानोड़ , नारनौल से चुन चुन कर बंदी बनवाया गे | हेमू के विश्वासपात्र अफ्ग्गान अधिकारियों एवं सेवको को भी नही बक्शा गया | अपनी फतेह के जश्न में उसने सभी धूसर भार्गव और सैनिको के कटे हुए सिरों से एक विशाल मीनार बनवाई | हेमू के प्रेरक जीवन पर आधारित अनेक पुस्तको में उन्हें अदम्य साहस एवं वीरता का पर्याय बताया गया है | इतिहासकारों एवं लेखको ने अंतिम हिन्दू सम्राट के साथ पानीपत के मैदान में हुयी दुर्घटना को भाग्य की विडम्बना करार देते हुए एक सच्चा राष्ट्रभक्त बताया है |

संभाजी से थर्राते थे मुगल

संभाजी से थर्राते थे मुगल




हिन्दुस्थान में हिंदवी स्वराज एवं हिन्दू पातशाही की गौरवपूर्ण स्थापना करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन को यदि चार पंक्तियों में संजोया जाए तो यही कहा जाएगा कि:

'देश धरम पर मिटने वाला, शेर शिवा का छावा था।
महा पराक्रमी परम प्रतापी, एक ही शंभू राजा था।।'

संभाजी महाराज का जीवन एवं उनकी वीरता ऐसी थी कि उनका नाम लेते ही औरंगजेब के साथ तमाम मुगल सेना थर्राने लगती थी। संभाजी के घोड़े की टाप सुनते ही मुगल सैनिकों के हाथों से अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिरने लगते थे। यही कारण था कि छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद भी संभाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज को अक्षुण्ण रखा था। वैसे शूरता-वीरता के साथ निडरता का वरदान भी संभाजी को अपने पिता शिवाजी महाराज से मानों विरासत में प्राप्त हुआ था। राजपूत वीर राजा जयसिंह के कहने पर, उन पर भरोसा रखते हुए जब छत्रपति शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा पहंुचे थे तो दूरदृष्टि रखते हुए वे अपने पुत्र संभाजी को भी साथ लेकर पहंुचे थे। कपट के चलते औरंगजेब ने शिवाजी को कैद कर लिया था और दोनों पिता-पुत्र को तहखाने में बंद कर दिया। फिर भी शिवाजी ने कूटनीति के चलते औरंगजेब से अपनी रिहाई करवा ली, उस समय संभाजी अपने पिता के साथ रिहाई के साक्षी बने थे।

संभाजी महाराज का औरंगजेब की छल-कपट की नीति से बचपन में जो वास्ता पड़ा, दुर्भाग्यवश वह जीवन के अंत तक बना रहा और यही इतिहास बन गया। छत्रपति शिवाजी की रक्षा नीति के अनुसार उनके राज्य का किला जीतने की लड़ाई लड़ने के लिए मुगलों को कम से कम एक वर्ष तक अवश्य जूझना पड़ता। औरंगजेब जानता था कि इस हिसाब से तो सभी किले जीतने में 360 वर्ष लग जाएंगे। शिवाजी के बाद संभाजी महाराज की वीरता भी औंरगजेब के लिए अत्यधिक अचरज का कारण बनी रही। उन्होंने अपने पिता की जुझारु एवं दूरदर्शी रक्षा नीति को चार-चांद लगाने का कार्य उस समय कर दिखाया कि जब उनका रामसेज का किला औरंगजेब को लगातार पांच वर्षों तक टक्कर देता रहा।
 
इसके अलावा संभाजी महाराज ने औरंगजेब के कब्जे वाले औरंगाबाद से लेकर विदर्भ तक सभी सूबों से लगान वसूलने की शुरुआत कर दी जिससे औरंगजेब इस कदर बौखला गया कि संभाजी महाराज से मुकाबला करने के लिए वह स्वयं दक्खन पहंुच गया।

उसने संभाजी महाराज से मुकाबला करने के लिए अपने पुत्र शाहजादे आजम को तय किया। आजम ने कोल्हापुर संभाग में संभाजी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। उनकी तरफ से आजम का मुकाबला करने के लिए सेनापति हमीबीर राव मोहिते को भेजा गया। उन्होंने आजम की सेना को बुरी तरह से परास्त कर दिया औरंगजेब को स्वीकार करना पड़ा कि मुगलांे पर विजय पाना तो दूर, उन्हें परास्त करने के लिए प्रभावी नीति चुनौती है। युद्ध में हार का मुंह देखने पर औरंगजेब इतना हताश हो गया कि बारह हजार घुड़सवारों से अपने साम्राज्य की रक्षा करने का दावा उसे खारिज करना पड़ा। संभाजी महाराज पर नियंत्रण के लिए उसने तीन लाख घुड़सवार और चार लाख पैदल सैनिकों की फौज लगा दी। लेकिन वीर मराठों और गुरिल्ला युद्ध के कारण मुगल सेना हर बार विफल होती गई।

औरंगजेब के मन में व्याप्त भय का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब बीजापुर के कुछ चुनिंदा मौलवी औरंगजेब के पास इस्लाम और मजहबी पैगाम के आधार पर सुलह करने पहंुचे तो उसने स्पष्ट कर दिया कि वह कुरान के आधार पर बीजापुर के आदिलशाह से कभी भी सुलह कर सकता है, लेकिन उसकी सबसे बड़ी चिंता दक्खिन में संभाजी महाराज हैं जिनका वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा था।औरंगजेब ने बार-बार पराजय के बाद भी संभाजी से महाराज से युद्ध जारी रखा। इसी दौरान कोंकण संभाग के संगमेश्वर के निकट संभाजी महाराज के 400 सैनिकों को मुकर्रबखान के 3000 सैनिकों ने घेर लिया और उनके बीच भीषण युद्ध छिड़ गया।
इस युद्ध के बाद राजधानी रायगढ़ में जाने के इरादे से संभाजी महाराज अपने जांबाज सैनिकों को लेकर बड़ी संख्या में मुगल सेना पर टूट पड़े। मुगल सेना द्वारा घेरे जाने पर भी संभाजी महाराज ने बड़ी वीरता के साथ उनका घेरा तोड़कर निकलने में सफल रहे। इसके बाद उन्हांेने रायगढ़ जाने की बजाय निकट इलाके में ही ठहरने का निर्णय लिया। मुकर्रबखान इसी सोच और हताशा में था कि संभाजी इस बार भी उनकी पकड़ से निकलकर रायगढ़ पहंुचने में सफल हो गए, लेकिन इसी दौरान बड़ी गड़बड़ हो गई कि एक मुखबिर ने मुुगलों को सूचित कर दिया कि संभाजी रायगढ़ की बजाय एक हवेली में ठहरे हुए हैं। यह बात आग की तरह औरंगजेब और उसके पुत्रों तक पहंुच गई कि संभाजी एक हवेली में ठहरे हुए हैं। जो कार्य औरंगजेब और उसकी शक्तिशाली सेना नहीं कर सकी, वह कार्य एक मुखबिर ने कर दिया।

इसके बाद भारी संख्या में सैनिकों के साथ मुगल सेना ने हवेली की ओर कूच कर उसे चारों तरफ से घेर लिया। संभाजी को हिरासत में ले लिया गया, 15 फरवरी, 1689 का यह काला दिन इतिहास के पन्नों में दर्ज है। संभाजी की अचानक हुई गिरफ्तारी को लेकर औरंगजेब और पूरी मुगलिया सेना हैरान थी। संभाजी का भय इतना ज्यादा था कि पकड़े जाने के बाद भी उन्हें लोहे की जंजीरों से बांधा गया। बेडि़यों में जकड़ कर ही उन्हें औरंगजेब के पास ले जाया गया। इससे पूर्व उन्हें ऊंट की सवारी कराकर काफी प्रताडि़त किया गया।

संभाजी महाराज को जब 'दिवान-ए-खास' में औरंगजेब के सामने पेश किया गया तो उस समय भी वे अडि़ग थे और उनके चेहरे पर किसी प्रकार के भय का भाव तक नहीं था। उन्हें जब औरंगजेब को झुक कर सलाम करने के लिए कहा गया तो उन्होंने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया और उसे निडरता के साथ घूरते रहे। संभाजी के ऐसा करने पर औरंगजेब स्वयं सिंहासन से उतर कर उनके समक्ष पहंुच गया। इस पर संभाजी के साथ कैद कवि कलश ने कहा-'हे राजन, तुव तप तेज निहार के तखत त्यजो अवरंग।'

यह सुनकर औरंगजेब ने तुरंत कवि की जिह्वा (जीभ) काटने का आदेश दे दिया। साथ ही उसने संभाजी को प्रलोभन दिया कि यदि वे इस्लाम कबूल कर लें तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा और उनके सभी गुनाह माफ कर दिए जाएंगे। संभाजी महाराज द्वारा सभी प्रलोभन ठुकराने से क्रोधित होकर औरंगजेब ने उनकी आंखों में गरम सलाखें डाल कर उनकी आंखें निकलवा दीं। फिर भी संभाजी अपनी धर्मनिष्ठा पर अडि़ग रहे और उन्होंने किसी भी सूरत में हिन्दू धर्म त्याग कर इस्लाम को कबूल करना स्वीकार नहीं किया।
 
इस घटना के बाद से ही संभाजी ने अन्न-जल का त्याग कर दिया। उसके बाद सतारा जिले के तुलापुर में भीमा-इन्द्रायनी नदी के किनारे संभाजी महाराज को लाकर उन्हें लगातार प्रताडि़त किया जाता रहा और बार-बार उन पर इस्लाम कबूल करने का दबाव डाला जाने लगा। आखिर में उनके नहीं मानने पर संभाजी का वध करने का निर्णय लिया गया। इसके लिए 11 मार्च, 1689 का दिन तय किया गया क्योंकि उसके ठीक दूसरे दिन हिन्दू वर्ष प्रतिपदा थी। औरंगजेब चाहता था कि संभाजी महाराज की मृत्यु के कारण हिन्दू जनता वर्ष प्रतिपदा के अवसर पर शोक मनाये।

उसी दिन सुबह दस बजे संभाजी महाराज और कवि को एक साथ गांव की चौपाल पर ले जाया गया। पहले कवि कलश की गर्दन काटी गई। उसके बाद संभाजी के हाथ-पांव तोड़े गए, उनकी गर्दन काट कर उसे पूरे बाजार में जुलूस की तरह निकाला गया।

एक बात तो स्पष्ट है कि जो कार्य औरंगजेब और उसकी सेना आठ वर्षों में नहीं कर सके, वह कार्य एक भेदिये ने कर दिखाया। औरंगजेब ने छल से संभाजी महाराज का वध तो कर दिया, लेकिन वह चाहकर भी उन्हें पराजित नहीं कर सका। संभाजी ने अपने प्राणों का बलिदान कर हिन्दू धर्म की रक्षा की और अपने साहस व धैर्य का परिचय दिया। उन्होंने औरंगजेब को सदा के लिए पराजित कर दिया।

तुलापुर स्थित संभाजी महाराज की समाधि आज भी उनकी जीत और अहंकारी व कपटी औरंगजेब की हार को बयान करती है। इसका कवि योगेश ने इस प्रकार अपने शब्दों में वर्णन किया है:

'देश धरम पर मिटने वाला
शेर शिवा का छावा था।
महा पराक्रमी परम प्रतापी
एक ही शंभू राजा था।।
तेजपुंज तेजस्वी आंखें
निकल गयीं पर झुका नहीं।
दृष्टि गयी पर राष्ट्रोन्नति का
दिव्य स्वप्न तो मिटा नहीं।।
दोनों पैर कटे शंभू के
ध्येय मार्ग से हटा नहीं।
हाथ कटे तो क्या हुआ
सत्कर्म कभी तो छूटा नहीं।।
जिह्वा कटी खून बहाया
धरम का सौदा किया नहीं।
शिवाजी का ही बेटा था वह
गलत राह पर चला नहीं।।
वर्ष तीन सौ बीत गये अब
शंभू के बलिदान को।
कौन जीता कौन हारा
पूछ लो संसार को।।
मातृभूमि के चरण कमल पर
जीवन पुष्प चढ़ाया था।
है राजा दुनिया में कोई
जैसा शंभू राजा था।।' -द. वा. आंबुलकर

Saturday, March 27, 2021

महाभारत में वर्णित ये पेंतीस नगर आज भी मौजूद हैं!

महाभारत में वर्णित ये पेंतीस नगर आज भी मौजूद हैं

भारत देश महाभारतकाल में कई बड़े जनपदों में बंटा हुआ था। हम महाभारत में वर्णित जिन 35 राज्यों और शहरों के बारे में जिक्र करने जा रहे हैं, वे आज भी मौजूद हैं। आप भी देखिए।

1. गांधार,,,आज के कंधार को कभी गांधार के रूप में जाना जाता था। यह देश पाकिस्तान के रावलपिन्डी से लेकर सुदूर अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी वहां के राजा सुबल की पुत्री थीं। गांधारी के भाई शकुनी दुर्योधन के मामा थे।

2. तक्षशिला,,,तक्षशिला गांधार देश की राजधानी थी। इसे वर्तमान में रावलपिन्डी कहा जाता है। तक्षशिला को ज्ञान और शिक्षा की नगरी भी कहा गया है।

3. केकय प्रदेश,,, जम्मू-कश्मीर के उत्तरी इलाके का उल्लेख महाभारत में केकय प्रदेश के रूप में है। केकय प्रदेश के राजा जयसेन का विवाह वसुदेव की बहन राधादेवी के साथ हुआ था। उनका पुत्र विन्द जरासंध, दुर्योधन का मित्र था। महाभारत के युद्ध में विन्द ने कौरवों का साथ दिया था।

4. मद्र देश,,,केकय प्रदेश से ही सटा हुआ मद्र देश का आशय जम्मू-कश्मीर से ही है। एतरेय ब्राह्मण के मुताबिक, हिमालय के नजदीक होने की वजह से मद्र देश को उत्तर कुरू भी कहा जाता था। महाभारत काल में मद्र देश के राजा शल्य थे, जिनकी बहन माद्री का विवाह राजा पाण्डु से हुआ था। नकुल और सहदेव माद्री के पुत्र थे।

5. उज्जनक,,,आज के नैनीताल का जिक्र महाभारत में उज्जनक के रूप में किया गया है। गुरु द्रोणचार्य यहां पांडवों और कौरवों की अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देते थे। कुन्ती पुत्र भीम ने गुरु द्रोण के आदेश पर यहां एक शिवलिंग की स्थापना की थी। यही वजह है कि इस क्षेत्र को भीमशंकर के नाम से भी जाना जाता है। यहां भगवान शिव का एक विशाल मंदिर है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह शिवलिंग 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है।

6. शिवि देश,,,महाभारत काल में दक्षिण पंजाब को शिवि देश कहा जाता था। महाभारत में महाराज उशीनर का जिक्र है, जिनके पौत्र शैव्य थे। शैव्य की पुत्री देविका का विवाह युधिष्ठिर से हुआ था। शैव्य एक महान धनुर्धारी थे और उन्होंने कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों का साथ दिया था।

7. वाणगंगा,,,कुरुक्षेत्र से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है वाणगंगा। कहा जाता है कि महाभारत की भीषण लड़ाई में घायल पितामह भीष्म को यहां सर-सैय्या पर लिटाया गया था। कथा के मुताबिक, भीष्ण ने प्यास लगने पर जब पानी की मांग की तो अर्जुन ने अपने वाणों से धरती पर प्रहार किया और गंगा की धारा फूट पड़ी। यही वजह है कि इस स्थान को वाणगंगा कहा जाता है।

8. कुरुक्षेत्र,,,हरियाणा के अम्बाला इलाके को कुरुक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। यहां महाभारत की प्रसिद्ध लड़ाई हुई थी। यही नहीं, आदिकाल में ब्रह्माजी ने यहां यज्ञ का आयोजन किया था। इस स्थान पर एक ब्रह्म सरोवर या ब्रह्मकुंड भी है। श्रीमद् भागवत में लिखा हुआ है कि महाभारत के युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण ने यदुवंश के अन्य सदस्यों के साथ इस सरोवर में स्नान किया था।

9. हस्तिनापुर,,,महाभारत में उल्लिखित हस्तिनापुर का इलाका मेरठ के आसपास है। यह स्थान चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी थी। सही मायने में महाभारत युद्ध की पटकथा यहीं लिखी गई थी। महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने हस्तिनापुर को अपने राज्य की राजधानी बनाया।

10. वर्नावत,,,यह स्थान भी उत्तर प्रदेश के मेरठ के नजदीक ही माना जाता है। वर्णावत में पांडवों को छल से मारने के लिए दुर्योधन ने लाक्षागृह का निर्माण करवाया था। यह स्थान गंगा नदी के किनारे है। महाभारत की कथा के मुताबिक, इस ऐतिहासिक युद्ध को टालने के लिए पांडवों ने जिन पांच गांवों की मांग रखी थी, उनमें एक वर्णावत भी था। आज भी यहां एक छोटा सा गांव है, जिसका नाम वर्णावा है।

11. पांचाल प्रदेश,,,हिमालय की तराई का इलाका पांचाल प्रदेश के रूप में उल्लिखित है। पांचाल के राजा द्रुपद थे, जिनकी पुत्री द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ हुआ था। द्रौपदी को पांचाली के नाम से भी जाना जाता है।

12. इन्द्रप्रस्थ,,,मौजूदा समय में दक्षिण दिल्ली के इस इलाके का वर्णन महाभारत में इन्द्रप्रस्थ के रूप में है। कथा के मुताबिक, इस स्थान पर एक वियावान जंगल था, जिसका नाम खांडव-वन था। पांडवों ने विश्वकर्मा की मदद से यहां अपनी राजधानी बनाई थी। इन्द्रप्रस्थ नामक छोटा सा कस्बा आज भी मौजूद है।

13. वृन्दावन,,,यह स्थान मथुरा से करीब 10 किलोमीटर दूर है। वृन्दावन को भगवान कृष्ण की बाल-लीलाओं के लिए जाना जाता है। यहां का बांके-बिहारी मंदिर प्रसिद्ध है।

14. गोकुल,,यमुना नदी के किनारे बसा हुआ यह स्थान भी मथुरा से करीब 8 किलोमीटर दूर है। कंस से रक्षा के लिए कृष्ण के पिता वसुदेव ने उन्हें अपने मित्र नंदराय के घर गोकुल में छोड़ दिया था। कृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम गोकुल में साथ-साथ पले-बढ़े थे।

15. बरसाना,,,यह स्थान भी उत्तर प्रदेश में है। यहां की चार पहाड़ियां के बारे में कहा जाता है कि ये ब्रह्मा के चार मुख हैं।

16. मथुरा,,,यमुना नदी के किनारे बसा हुआ यह प्रसिद्ध शहर हिन्दू धर्म के लिए अनुयायियों के लिए बेहद प्रसिद्ध है। यहां राजा कंस के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। यहीं पर श्रीकृष्ण ने बाद में कंस की हत्या की थी। बाद में कृष्ण के पौत्र वृजनाथ को मथुरा की राजगद्दी दी गई।

17. अंग देश,,,वर्तमान में उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के इलाके का उल्लेख महाभारत में अंगदेश के रूप में है। दुर्योधन ने कर्ण को इस देश का राजा घोषित किया था। मान्यताओं के मुताबिक, जरासंध ने अंग देश दुर्योधन को उपहारस्वरूप भेंट किया था। इस स्थान को शक्तिपीठ के रूप में भी जाना जाता है।

18. कौशाम्बी,,,कौशाम्बी वत्स देश की राजधानी थी। वर्तमान में इलाहाबाद के नजदीक इस नगर के लोगों ने महाभारत के युद्ध में कौरवों का साथ दिया था। बाद में कुरुवंशियों ने कौशाम्बी पर अपना अधिकार कर लिया। परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया।

19. काशी,,,महाभारत काल में काशी को शिक्षा का गढ़ माना जाता था। महाभारत की कथा के मुताबिक, पितामह भीष्म काशी नरेश की पुत्रियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को जीत कर ले गए थे ताकि उनका विवाह विचित्रवीर्य से कर सकें। अम्बा के प्रेम संबंध राजा शल्य के साथ थे, इसलिए उसने विचित्रवीर्य से विवाह से इन्कार कर दिया। अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ कर दिया गया। विचित्रवीर्य के अम्बा और अम्बालिका से दो पुत्र धृतराष्ट्र और पान्डु हुए। बाद में धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव कहलाए और पान्डु के पांडव।

20. एकचक्रनगरी,,,,वर्तमान कालखंड में बिहार का आरा जिला महाभारत काल में एकचक्रनगरी के रूप में जाना जाता था। लाक्षागृह की साजिश से बचने के बाद पांडव काफी समय तक एकचक्रनगरी में रहे थे। इस स्थान पर भीम ने बकासुर नामक एक राक्षक का अन्त किया था। महाभारत युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया था, उस समय बकासुर के पुत्र ने भीषक ने उनका घोड़ा पकड कर रख लिया था। बाद में वह अर्जुन के हाथों मारा गया।

21. मगध,,,दक्षिण बिहार में मौजूद मगध जरासंध की राजधानी थी। जरासंध की दो पुत्रियां अस्ती और प्राप्ति का विवाह कंस से हुआ था। जब भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब वह अनायास ही जरासंध के दुश्मन बन बैठे। जरासंध ने मथुरा पर कई बार हमला किया। बाद में एक मल्लयुद्ध के दौरान भीम ने जरासंध का अंत किया। महाभारत के युद्ध में मगध की जनता ने पांडवों का समर्थन किया था।

22. पुन्डरू देश,,,मौजूदा समय में बिहार के इस स्थान पर राजा पोन्ड्रक का राज था। पोन्ड्रक जरासंध का मित्र था और उसे लगता था कि वह कृष्ण है। उसने न केवल कृष्ण का वेश धारण किया था, बल्कि उसे वासुदेव और पुरुषोत्तम कहलवाना पसन्द था। द्रौपदी के स्वयंवर में वह भी मौजूद था। कृष्ण से उसकी दुश्मनी जगजाहिर थी। द्वारका पर एक हमले के दौरान वह भगवान श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया।

23. प्रागज्योतिषपुर,,,गुवाहाटी का उल्लेख महाभारत में प्रागज्योतिषपुर के रूप में किया गया है। महाभारत काल में यहां नरकासुर का राज था, जिसने 16 हजार लड़कियों को बन्दी बना रखा था। बाद में श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया और सभी 16 हजार लड़कियों को वहां से छुड़ाकर द्वारका लाए। उन्होंने सभी से विवाह किया। मान्यता है कि यहां के प्रसिद्ध कामख्या देवी मंदिर को नरकासुर ने बनवाया था।

24. कामख्या,,,गुवाहाटी से करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कामख्या एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। भागवत पुराण के मुताबिक, जब भगवान शिव सती के मृत शरीर को लेकर बदहवाश इधर-उधर भाग रहे थे, तभी भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के मृत शरीर के कई टुकड़े कर दिए। इसका आशय यह था कि भगवान शिव को सती के मृत शरीर के भार से मुक्ति मिल जाए। सती के अंगों के 51 टुकड़े जगह-जगह गिरे और बाद में ये स्थान शक्तिपीठ बने। कामख्या भी उन्हीं शक्तिपीठों में से एक है।

25. मणिपुर,,,नगालैन्ड, असम, मिजोरम और वर्मा से घिरा हुआ मणिपुर महाभारत काल से भी पुराना है। मणिपुर के राजा चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा का विवाह अर्जुन के साथ हुआ था। इस विवाह से एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम था बभ्रुवाहन। राजा चित्रवाहन की मृत्यु के बाद बभ्रुवाहन को यहां का राजपाट दिया गया। बभ्रुवाहन ने युधिष्ठिर द्वारा आयोजित किए गए राजसूय यज्ञ में भाग लिया था।

26. सिन्धु देश,,,सिन्धु देश का तात्पर्य प्राचीन सिन्धु सभ्यता से है। यह स्थान न केवल अपनी कला और साहित्य के लिए विख्यात था, बल्कि वाणिज्य और व्यापार में भी यह अग्रणी था। यहां के राजा जयद्रथ का विवाह धृतराष्ट्र की पुत्री दुःश्शाला के साथ हुआ था। महाभारत के युद्ध में जयद्रथ ने कौरवों का साथ दिया था और चक्रव्युह के दौरान अभिमन्यू की मौत में उसकी बड़ी भूमिका थी।

27. मत्स्य देश,,,राजस्थान के उत्तरी इलाके का उल्लेख महाभारत में मत्स्य देश के रूप में है। इसकी राजधानी थी विराटनगरी। अज्ञातवास के दौरान पांडव वेश बदल कर राजा विराट के सेवक बन कर रहे थे। यहां राजा विराट के सेनापति और साले कीचक ने द्रौपदी पर बुरी नजर डाली थी। बाद में भीम ने उसकी हत्या कर दी। अर्जुन के पुत्र अभिमन्यू का विवाह राजा विराट की पुत्री उत्तरा के साथ हुआ था।

28. मुचकुन्द तीर्थ,,,यह स्थान धौलपुर, राजस्थान में है। मथुरा पर जीत हासिल करने के बाद कालयावन ने भगवान श्रीकृष्ण का पीछा किया तो उन्होंने खुद को एक गुफा में छुपा लिया। उस गुफा में मुचकुन्द सो रहे थे, उन पर कृष्ण ने अपना पीताम्बर डाल दिया। कृष्ण का पीछा करते हुए कालयावन भी उसी गुफा में आ पहुंचा। मुचकुन्द को कृष्ण समझकर उसने उन्हें जगा दिया। जैसे ही मुचकुन्द ने आंख खोला तो कालयावन जलकर भस्म हो गया। मान्यताओं के मुताबिक, महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब पांडव हिमालय की तरफ चले गए और कृष्ण गोलोक निवासी हो गए, तब कलयुग ने पहली बार यहां अपने पग रखे थे।

29. पाटन,,,महाभारत की कथा के मुताबिक, गुजरात का पाटन द्वापर युग में एक प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र था। पाटन के नजदीक ही भीम ने हिडिम्ब नामक राक्षस का संहार किया था और उसकी बहन हिडिम्बा से विवाह किया। हिडिम्बा ने बाद में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम था घटोत्कच्छ। घटोत्कच्छ और उनके पुत्र बर्बरीक की कहानी महाभारत में विस्तार से दी गई है।

30. द्वारका,,,माना जाता है कि गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित यह स्थान कालान्तर में समुन्दर में समा गया। कथाओं के मुताबिक, जरासंध के बार-बार के हमलों से यदुवंशियों को बचाने के लिए कृष्ण मथुरा से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर द्वारका ले गए।

31. प्रभाष,,,गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि यह स्थान भगवान श्रीकृष्ण का निवास-स्थान रहा है। महाभारत कथा के मुताबिक, यहां भगवान श्रीकृष्ण पैर के अंगूठे में तीर लगने की वजह से घायल हो गए थे। उनके गोलोकवासी होने के बाद द्वारका नगरी समुन्दर में डूब गई। विशेषज्ञ मानते हैं कि समुन्दर के सतह पर द्वारका नगरी के अवेशष मिले हैं।

32. अवन्तिका,,मध्यप्रदेश के उज्जैन का उल्लेख महाभारत में अवन्तिका के रूप में मिलता है। यहां ऋषि सांदपनी का आश्रम था। अवन्तिका को देश के सात प्रमुख पवित्र नगरों में एक माना जाता है। यहां भगवान शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में एक महाकाल लिंग स्थापित है।

33. चेदी,,,वर्तमान में ग्वालियर क्षेत्र को महाभारत काल में चेदी देश के रूप में जाना जाता था। गंगा व नर्मदा के मध्य स्थित चेदी महाभारत काल के संपन्न नगरों में एक था। इस राज्य पर श्रीकृष्ण के फुफेरे भाई शिशुपाल का राज था। शिशुपाल रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था, लेकिन श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर उनसे विवाह रचा लिया।

इस घटना की वजह से शिशुपाल और श्रीकृष्ण के बीच संबंध खराब हो गए। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय चेदी नरेश शिशुपाल को भी आमंत्रित किया गया था। शिशुपाल ने यहां कृष्ण को बुरा-भला कहा, तो कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका गला काट दिया। महाभरत की कथा के मुताबिक, दुश्मनी की बात सामने आने पर श्रीकृष्ण की बुआ उनसे शिशुपाल को अभयदान देने की गुजारिश की थी। इस पर श्रीकृष्ण ने बुआ से कहा था कि वह शिशुपाल के 100 अपराधों को माफ कर दें, लेकिन 101वीं गलती पर माफ नहीं करेंगे।

34. सोणितपुर,,,मध्यप्रदेश के इटारसी को महाभारत काल में सोणितपुर के नाम से जाना जाता था। सोणितपुर पर वाणासुर का राज था। वाणासुर की पुत्री उषा का विवाह भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के साथ सम्पन्न हुआ था। यह स्थान हिन्दुओं के लिए एक पवित्र तीर्थ है।

35. विदर्भ,,,महाभारतकाल में विदर्भ क्षेत्र पर जरासंध के मित्र राजा भीष्मक का शासन था। रुक्मिणी भीष्मक की पुत्री थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर उनसे विवाह रचाया था। यही वजह थी कि भीष्मक उन्हें अपना शत्रु मानने लगे। जब पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ किया था, तब भीष्मक ने उनका घोड़ा रोक लिया था। सहदेव ने भीष्मक को युद्ध में हरा दिया

साभार : S. N. VYAS

SAI BABA - साईं बाबा के विरोधियों के प्रश्नों के जवाब


SAI BABA - साईं बाबा के विरोधियों के प्रश्नों के जवाब

साईं बाबा के विरोधी साईं बाबा के बारे में अक्सर जो प्रश्न पूछते रहते हैं, उनको हमें एक जगह एकत्र करके, उन सभी का जबाब देने की इस नोट में कोशिश की है…इन प्रश्नों के उत्तर हमने श्री साई सच्चरित्र और कुछ अन्य पुस्तको से लिए हैं..

अगर किसी साईं बाबा के विरोधी या जिगासु के मन में कोई और भी प्रश्न उठ रहा हो तो वे नीचे कमेन्ट के रूप में पूछ सकता है, अगर हमें वो प्रश्न नया लगा तो हम उसका उत्तर भी अवश्य ही देंगे ..

प्रश्न 1: क्या साईं हिन्दू है?

उत्तर: यह प्रश्न अक्सर पुछा जाता है और साईं बाबा को मुस्लिम बताकर उनके बारे में कुप्रचार और अपशब्द कहे जाते हैं, जाति तो पाँच तत्व से निर्मित नश्वर देह की होती है न कि ज्ञान-स्वरूप आत्मा की। इसीलिये तो कबीरदास जी ने कहा है –

“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥”

फिर भी साईं बाबा के सम्बन्ध में प्रमाणपूर्वक निश्चयात्मक रूप से सिद्ध करके बताया जा सकता है कि वे हिन्दू ही थे और वह भी ब्राह्मण।शिरडी के साईं बाबा का कर्ण छेदन संस्कार हुआ था। उनके कान छिदे हुये थे। कर्ण छेदन हिन्दुओं के सोलह संस्कारों में से एक है। बाबा भगवान की मूर्ति और मूर्ति पूजा पर विश्वास करते थे। अपने आप में पण्ढरपुर के विट्ठल भगवान का दर्शन करा देना इसका प्रबल प्रमाण है। जिन भक्तों के राम, कृष्ण, शिव जो भी इष्ट थे, साईं बाबा उन्हें उसी रूप में दिखते थे। साईं बाबा ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी’ के साकार स्वरूप थे। साईं बाबा हिन्दुओं के त्यौहार मनाते थे जिनमें कष्णाष्टमी और रामनवमी मुख्य थे। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता चाहते थे। इसलिये मुसलमानों के त्यौहार सन्दल और ईद भी मनाते थे। दीपावली के दिन उनका निवास स्थान दीपमालिका से जगमगा उठता था। बाबा का निवास स्थान मस्जिद में था।

तुलसीदास जी के इस कथन का, कि ‘मांगि के खैवो, मजीद में सोइवो’, साईं बाबा मूर्तिमान स्वरूप थे। साईं बाबा को भगवानश्री कृष्ण के निवास स्थान द्वारिकापुरी से इतना प्रेम था कि उन्होंने अपने निवास स्थान का नाम “द्वारिका माई मस्जिद” ही रख लिया था। वे “द्वारिका माई” में रात-दिन लगातार धूनी जलाते थे। आज भी शिरडी में उनके समाधि स्थल पर धूनी जलती रहती है। धूनी तो हिन्दू सन्त ही जलाते हैं। यह काम ‘अग्निहोत्र’ कहलाता है जिसे अग्निहोत्री ब्राह्मण ही किया करते हैं।बाबा के निवास स्थान में उनकी प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या समय आरती की जाती थी और शंख, झालर तथा घण्टे बजाये जाते थे।

वहाँ लोग उनके दर्शन करते थे, नाम सप्ताह, कीर्तन और सत्संग किये जाते थे। उस मस्जिद अथवा साईं बाबा के मन्दिर के ऊपर हिन्दुओं के झण्डे लहराते थे। साईं बाबा के भक्त उन्हें साष्टांग दण्डवत करते थे और साईं बाबा सर्व रोग नाशक धूनी की पवित्र भस्मि लोगों को वितरित करते थे।शिरडी के साईं बाबा पुनर्जन्म पर विश्वास करते थे। उन्हें वेद, शास्त्र, उपनिषद, गीता, भागवत, विष्णु सहस्र नाम जैसे ग्रंथों पर पूर्ण आस्था थी। भक्तजन साईं बाबा को चन्दन लगाते थे। साईं बाबा योगी और वेदान्ती थे। वे स्वयं ‘एक ईश्वर’ के प्रति श्रद्धा, विश्वास और आस्था रखते थे और ‘सबका मालिक एक’ उनका सिद्धान्त था। उन्हें ‘नवधा भक्ति’ पर पूर्ण विश्वास था। शिरडी के साईं बाबा के लिये खण्ड योग, धौति, नेति और समाधि अत्यन्त सामान्य कर्म थे।शिरडी में म्हालासपति साईं बाबा के अनन्य भक्त थे। वे उनके साथ द्वारका माई मस्जिद और चावड़ी में सोते थे।

उनके आग्रह पर साईं बाबा ने उनको बताया था कि वे ब्राह्मण थे और पथरी उनका गाँव था। एक बार जब पथरी से कुछ लोग आये थे तो बाबा ने उनसे वहाँ के कुछ व्यक्तियों के बारे में पूछा था। श्रीमती काशीबाई कानेटकर जब मस्जिद की सीढ़ियों पर पढ़ रही थीं तब उनकी शंका का निवारण करने के लिये बाबा तोले थे कि ‘मैं ब्राह्मण हूँ, शुद्ध ब्राह्मण। यह ब्राह्मण (साईं बाबा) लाखों लोगों को धर्म के मार्ग पर चला सकता है और उनको मुक्त कर सकता है।”

प्रश्न 2: क्या साईं का सनातन धर्म से कुछ सम्बन्ध है?

उत्तर: यदि सनातन धर्म के धर्म ग्रंथों की बात की जाए तो उनमे ये परिभाषा मिलती है कि “धारयते इति धर्मः” अर्थात जो आप धारण करते हैं वो आपका धर्म है | कलयुग में साईं बाबा ने अवतार लिया और लोगो ने उन्हें पूजना शुरू किया या कहिये कि धारण किया .. तो यह तो सनातन धर्म के अनुसार ही किया गया है न …

प्रश्न 3: क्या साईं के नाम पर कोई मन्त्र है?

उत्तर: हिंदू परंपरा में देवी-देवताओं के लिए ही नहीं अपितु गुरुओं के लिए भी मंत्रों के उच्चारण, श्लोकों के गायन और व्यकितगत या सामूहिक रूप से भजन-आरती करने को पूजा का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है। साईं बाबा के भी कुछ मंत्र है :

ॐ श्री साईं जगत: पित्रे नम: (जगत पालन करने वाले साईं बाबा को नमन)

ॐ श्री साईं योगक्षेमवहाय नम: (हर सुख देने के साथ उसकी रक्षा भी करने वाले साईंबाबा)

ॐ श्री साईं प्रीतिवर्द्धनाय नम: (प्रेम भाव बढाने वाले साईंबाबा को नमन)

ॐ श्री साईं भक्ताभय प्रदाय नम: (अभय दान देने वाले हैं साईं बाबा को नमन)

प्रश्न 4: क्या साईं का वेदों पुराणों में कोई वर्णन है?

उत्तर: यह प्रश्न बिलकुल भी तर्कसंगत नहीं है क्योकि साईं बाबा का उदभव काल सन 1838 के आसपास का है और वेदों पुराणों की रचना तो सदियों पहले हुई थी ..तो इन ग्रंथो में साईं बाबा के नाम का वर्णन कैसे हो सकता है.

प्रश्न 5: क्या साईं की पूजा शास्त्रसम्मत है?

उत्तर: जी हाँ, आइए देखें वेदों शास्त्रों में दिए गए पूर्ण संत के कुछ मुख्य लक्षण :
१. सगुण और निर्गुण दोनोंके अस्तित्त्वको मान्यता देते हैं |
२. भक्ति और ज्ञानका उनमें अनूठा संगम होता है |
३. आवश्यकता पडनेपर क्षात्रवृत्तिका भी परिचय देते हैं |
४. वैदिक सनातन धर्मके सिद्धांतोंको ही पूर्ण रूपेण मानते हैं जैसे पितृ कर्म, पुनर्जन्म, सगुण निर्गुण स्वरूप इत्यादि |
५. उनके लेखनमें पूर्ण सत्यता होती है |
६. सूक्ष्म जगतकी पूर्ण जानकारी होती है |
७. इष्ट और अनिष्ट शक्तियां उनसे अपना उद्धार चाहती हैं |
८. उनकेद्वारा रचित ग्रंथ सृष्टिके अंत तक जीवोंका मार्गदर्शन करते हैं |
९. उन्हें सदेह मुक्ति प्राप्त होती है |
१०. अष्ट महासिद्धियां उनके आंगन खेलती हैं |
संक्षेपमें जिन संतोंमें ये गुण नहीं थे उन्हें पूर्णत्वकी प्राप्ति नहीं हुई थीपूर्णत्व प्राप्त संतों के कुछ उदाहरण – आदि गुरु शंकराचार्य, रमणा महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, तेलंग स्वामी, शिर्डी साईं बाबा, भक्तराज महाराज, परम पूज्य डॉ. आठवले इत्यादि ( —सुश्री तनूजा ठाकुर, उपासना हिन्दू धर्मोथान संस्थान )

प्रश्न 6: क्या साईं अवतार है, या कोई देवता, या इश्वर?? यदि नहीं तो साईं की पूजा करके सनातन धर्म का अपमान क्यों??

उत्तर: इसमें कोई सन्देह नहीं कि शिरडी के साईं बाबा अवतार थे। प्रश्न यह है कि वे किसके अवतार थे? साईं बाबा के कुछ भक्त उन्हें भगवान दत्तात्रय का अवतार मानते हैँ। उनका विश्वास है कि भगवान दत्तात्रय ने चौदहवीं शताब्दी में श्रपाद श्री वल्लभ के रूप में और पन्द्रहवीं शताब्दी में श्री नरसिंह सरस्वती के रूप में अवतार लिये थे। भगवान दत्तात्रय के अन्य अवतार थे मानिक प्रभु और अक्कल कोटकर महाराज। साईं बाबा अक्कल कोटकर महाराज के अवतार माने जाते हैं। इस प्रकार साईं बाबा मूलतः दत्तात्रय भगवान के ही अवतार हुये।

दत्तात्रय का आविर्भाव ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों के वरदान स्वरूप हुआ था। ये त्रिदेव एक ही परब्रह्म के तीन रूप हैं। अतः श्री साईं बाबा परब्रह्म परमात्मा के अवतार थे। उनमें परब्रह्म के सभी लक्षण थे। शिरडी के साईं बाबा को परब्रह्म का अवतार मानना ही उचित है। वे सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान थे। वे अन्तर्यामी थे। प्रत्येक के हृदय में उनका निवास था, है और सदा रहेगा। उनका अन्तर्यामी होना इसीसे सिद्ध होता है कि जब कोई उनके दर्शन करने के लिये आता था तब वे बिना बताये ही उसका नाम, निवास स्थान और आने का उद्देश्य जान लेते थे। लोक कल्याण के लिये वे अनेक लीलाएँ करते थे। वे परब्रह्म परमात्मा के लीलावतार थे।साईं बाबा की आरती में उनके किसी भक्त ने लिखा है –“तुम दत्तात्रय तुम शिव बाबा, तुम मंगलमय श्याम विठोबा,तुम योगेश्वर राम कन्हाई, तुम समर्थ सर्वेश्वर साईं।”शिरडी के साईं बाबा परब्रह्म के अवतार थे उनमें सभी अवतारों का समावेश होना स्वाभाविक ही है। साईं बाबा के जीवन काल में ही उनके कुछ अनन्य भक्तों को उनके “ब्रह्मत्व” का बोध हो चुका था। इन्दौर हाई कोर्ट के जज माननीय श्री एम. बी. रेगे, बी.ए., एल.एल.बी. ने लिखा है, “शरीरधारी अवतारी साईं बाबा अपने भक्तों के लिये परमब्रह्म के अवतार थे जो अपने वचनों और कार्यों से साधकों का मार्ग प्रकाशित करते थे।”उत्तर भारत के तत्कालीन एक रियासत के हाई कोर्ट के एक जज ने कहा था, “मैं साईं बाबा को सृष्टि के रचयिता, पालक और संहारकर्ता मानता हूँ।” अमरावती के प्रख्यात और विद्वान अधिवक्ता माननीय दादा साहब खापर्डे ने साईं बाबा के विषय में अपने विचार व्यक्त किये थे कि ‘साईं बाबा अन्तर्यामी थे। वे हर एक के आन्तरिक विचारों को जानते थे, शरणागतों के अभावों को मिटाते और सबको सुख-शान्ति प्रदान करते थे। वे पृथ्वी पर साकार भगवान थे।’ साईं बाबा के गुणगान करने वाले कीर्तनकार दास गणू का कहना है कि ‘साईं बाबा सृष्टि के आदि कारण थे।’

प्रश्न 7: साईं यदि सभी धर्मो को मानने वाले थे तो साईं को अवतार बता कर झूठ का प्रचार क्यों???

उत्तर: साईं बाबा सभी धर्मो खासकर हिन्दू और मुस्लिम को मानने वाले थे या कहिये कि उन्हें इन दोनों धर्मो का ज्ञान था तो अगर वो अवतार है और उन्हें दो दो धर्मो का ज्ञान है तो इसमें गलत क्या है ? अवतारी पुरुषो तो ज्ञान का भण्डार होते हैं. इसमें झूठ क्या है ?

प्रश्न 8: साईं के नाम पर आरती, चालीसा आदि क्यों??
जबकि शास्त्रों में मंत्रो का किसी और के साथ प्रयोग पापकर्म बताया गया है.

उत्तर: साईं के भक्त पूरी दुनिया में लाखो करोड़ो की संख्या में हैं, और साईं बाबा की आरतियाँ, चालीसा आदि भी उन्होंने ही बनाई हैं, इन आरतियों का प्रयोग साईं बाबा की भक्ति के लिए करना कोई पाप नहीं हो सकता, यह सब सिर्फ भ्रम पैदा करने के लिए कहा जाता है. ऐसा किसी शास्त्र में नहीं लिखा है.

प्रश्न 9: साईं की मूर्ति मस्जिदों और चर्च में क्यों नहीं??

उत्तर: इसका सीधा सा कारण है : मुस्लिम मूर्ती पूजा के घोर विरोधी है इसीलिए वे साईं की मूर्ती की पूजा क्यों करेंगे वैसे भी वे अल्लाह के आलावा किसी और के आगे नतमस्तक नहीं हो सकते …चर्च में आपने आजतक ईसा मसीह / मरियम के आलावा किसी और की मूर्ति देखी है ??

मुस्लिम और ईसाई भले ही साईं बाबा पर श्रद्धा रखे हो, पर उन्हें पूजते बहुत कम ही है..

प्रश्न 10: साईं के जागरणों में अल्लाह अल्लाह क्यों???

उत्तर: एक हिन्दू साईं बाबा को हिन्दू मानकर पूजता है और मुस्लिम मुस्लिम मानकर, तो जब कोई मुस्लिम उनकी वंदना करेगा तो अल्लाह अल्लाह ही पुकारेगा न ? जैसे हिन्दू बोलते हैं ॐ साईं राम, ॐ साईं श्याम ..

दूसरा कारण यह है कि साईं बाबा को एक सूफी फ़कीर भी माना जाता है – और सूफी संगीत में अल्लाह शब्द प्राय: आया ही करता है.

इस नोट पर की गई टिप्पणियों में भी कुछ प्रश्न पूछे गए हैं, उनमे से कुछ प्रश्नों को हमने यहाँ जबाब के लिए चुना है, जिनको नहीं चुना, उनके उत्तर पहले ही इस नोट पर दिए जा चुके हैं या वे इस विषय से सम्बंधित नहीं है …

प्रश्न 11: भाई क्या किसी मस्जिद मे हिन्दू संत रह सकता है ??जो मुसलमान हिन्दुओ के साथ उनके त्योहार मानते है वो क्या हिन्दू हो जाते है ?

उत्तर: जिस मस्जिद में साईं बाबा रहते थे वो कोई सक्रिय मस्जिद नहीं थी, वो टूटी – फूटी, मस्जिद का एक खंडहर मात्र थी, मुस्लिम पंथ के अनुसार इस प्रकार की मस्जिद को मस्जिद माना ही नहीं जाता और न ही इसमें कोई नमाज ही पढ़ी जा सकती है. तो अगर साईं बाबा ने अपना डेरा इसमें बनाया था तो इसमें कोई आपत्ति नहीं की जा सकती थी, चुकीं साईं बाबा तो शिर्डी के रहने वाले थे नहीं, वे तो विचरण करते हुए शिर्डी में आये थे, कहीं और रहने की व्यवस्था नहीं थी .. मोह माया उनके पास फटकती भी नहीं थी तो इस सन्यासी ने उस खंडहर को अपना आश्रम / मंदिर / बसेरा / डेरा बना लिया …और नाम दिया अपने आराध्य श्री कृष्ण की द्वारका के नाम पर द्वारकामाई…

जो मुस्लिम हिन्दुओं के साथ उनके त्यौहार मानते हैं वो हिन्दू नहीं हो जाते .. बल्कि वास्तव में तो ऐसा होता है बहुत कम है कि कोई मुस्लिम हिन्दुओं के त्यौहार मनाये क्योकि उनके पंथ में यह सब हराम है / गलत है और यह सब करने की सख्ती से मनाही है बल्कि उनका तो मानना यहाँ तक है कि अगर कोई मुस्लिम मूर्ती पूजा करे तो वो मुस्लिम रह ही नहीं जाता …

और साईं बाबा तो विरोधाभासी जान पड़ते हैं, वो तो मूर्ती पूजा और बहुत से ऐसे कर्म करते थे, जो इस्लाम के विरुद्ध थे, जिनका विवरण हम पहले ऊपर दे ही चुके हैं … इसका निष्कर्ष क्या निकलता है, यह बनाते की जरुरत नहीं है …

प्रश्न 12: एक साई भक्त ने एक साई मंदिर खोला है उसके खोलने के बाद वो काफी अमीर हो गया है उसका कहना है की मंदिर मे काफी मात्रा मे चढ़ावा आता है ( सोना और रुपे )॥ तो क्या उसको भक्त कहे या व्यापारी ???? ( खोलना मैंने इसलिए लिखा की उसने उसे कमाई का साधन बना दिया है)…

उत्तर: क्या आप हमें उस तथाकथित साईं भक्त का कुछ और परिचय दे सकते हैं ? जो यह दावा करता हो कि साईं मंदिर के चढ़ावे से वो बहुत अमीर हो गया है, अगर वास्तव में वो इस प्रकार का दावा करता है तो उसे निश्चित तौर पर भक्त नहीं कहा जा सकता और हमारा मंच उसके इस कार्य का बिलकुल भी समर्थन नहीं करता…

प्रश्न 13: साई की मूर्ति मस्जिदों मे भी होनी चाहिए अगर उनको हिन्दू मुस्लिम दोनों भगवान मानते है तो क्यों की मुस्लिम को भी तो साक्षात भगवान के दर्शन हो गए होंगे उस समय,, आपके Q 10 के जवाब मे लिखा भी है की मुस्लिम उन्हे मुस्लिम मानकर वंदना करते है ॥ तो अपने भगवान की मूर्ति रखना सायद बुरा होगा … इस्लाम मूर्ति पुजा का विरोध करता है तो किसी मूर्ति को अल्लाह कैसे मान सकता है ये भी बताइये ??

उत्तर: वैसे तो आपके इस प्रश्न में ही इस प्रश्न का उत्तर भी छिपा हुआ है परन्तु फिर भी हम थोडा स्पष्ट कर देते हैं, कि जो भी मुस्लिम उन्हें मानते हैं वो निश्चित तौर पर उनकी मूर्ती की पूजा नहीं करते होंगे, मूर्ती को नहीं मानते होंगे.. किसी को मानने/ पूजने का अर्थ उसकी मूर्ती या चित्र का पूजन करना ही नहीं होता, भक्ति तो साकार और निराकार दोनों ही रूपों में की जा सकती है, और जैसा कि सर्वविदित है कि मुस्लिम मूर्ती पूजा विरोधी है तो वे मूर्ती को अपना अल्लाह नहीं मान रहे हैं / वे साईं को अल्लाह के रूप में देख रहे हैं ( वैसे यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि यह भी इस्लाम विरुद्ध ही है कि कोई मुस्लिम किसी संत या फ़कीर को अल्लाह के रूप में माने, जो मुस्लिम मान रहे हैं वे अपवाद ही कहे जायेंगे)

साईं बाबा के बारे में बहुत भ्रम फैला है। वे हिन्दू थे या मुसलमान? क्या वे कबीर, नामदेव, पांडुरंग आदि के अवतार थे। कुछ लोग कहते हैं कि वे शिव के अंश हैं और कुछ को उनमें दत्तात्रेय का अंश नजर आता है। अन्य लोग कहते हैं कि वे अक्कलकोट महाराज के अंश हैं। कट्टर धार्मिक युग में व्यक्ति हर संत को धर्म के आईने में देखना चाहता है। कट्टरपंथी हिन्दू भी जानना चाहते हैं कि वे हिन्दू थे या मुसलमान? यदि मुसलमान थे तो फिर हम उनकी पूजा क्यों करें? मुसलमान भी जानना चाहते हैं कि अगर यदि वे हिन्दू थे तो फिर हम उनकी समाधि पर जाकर दुआ क्यों करें? साईं बाबा के बारे में अधिकांश जानकारी श्रीगोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर द्वारा लिखित ‘श्री साईं सच्चरित्र’ से मिलती है। मराठी में लिखित इस मूल ग्रंथ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यह साईं सच्चरित्र साईं बाबा के जिंदा रहते ही 1910 से लिखना शुरू किया। 1918 के समाधिस्थ होने तक इसका लेखन चला। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि कितने हैं, जो ‘सबका मालिक एक’ की घोषणा करते हैं। साईं बाबा का मिशन था- लोगों में एकेश्वरवाद के प्रति विश्वास पैदा करना। लोगों के दुख-दर्द को दूर करना साथ ही समाज में भाईचारा कायम करना। साईं हिन्दू थे या मुसलमान साईं अपना ज्यादातर वक्त मुस्लिम फकीरों के संग बिताते थे, लेकिन माना जाता है कि उन्होंने किसी के साथ कोई भी व्यवहार धर्म के आधार पर नहीं किया। जो लोग साईं बाबा को हिन्दू मानते हैं वे उनके हिन्दू होने का तर्क देते हैं, जैसे- हिन्दू होने के कुछ कारण: 1. बाबा धूनी रमाते थे। धुनी तो सिर्फ शैव और नाथपंथी संत ही जलाते हैं। 2. बाबा के कान बिंधे हुए थे। कान छेदन सिर्फ नाथपंथियों में ही होता है। 3. साईं बाबा हर सप्ताह नाम कीर्तन का आयोजन करते थे जिसमें विट्ठल (कृष्ण) के भजन होते थे। बाबा कहते थे- ठाकुरनाथ की डंकपुरी, विट्ठल की पंढरी, रणछोड़ की द्व ारिका यहीं तो है। 4. साईं बाबा कपाल पर चंदन और कुमकुम लगाते थे। 5. जहां बाबा पहली बार लोगों को दिखे थे उस स्थान पर बाबा के गुरु का तप स्थान था। जब उस समाधि की खुदाई की गई तब वहां चार दीपक जल रहे थे। म्हालसापति तथा शिर्डी के अन्य भक्त इस स्थान को बाबा के गुरु का समाधि-स्थान मानकर सदैव नमन किया करते थे। साईं के बारे में जानकार मानते हैं कि वे नाथ संप्रदाय का पालन करते थे। हाथ में पानी का कमंडल रखना, धूनी रमाना, हुक्का पीना, कान बिंधवाना और भिक्षा पर ही निर्भर रहना- ये नाथ संप्रदाय के साधुओं की निशानी हैं। नाथों में धूनी जलाना जरूरी होता है जबकि इस्लाम में आग हराम मानी गई है। सिर्फ इस एक कर्म से ही उनका नाथपंथी होना सिद्ध होता है। यह बाबा का निवास स्थान है, जहां पुरानी वस्तुएं जैसे बर्तन, घट्टी और देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी हुई हैं। मंदिर के व्यवस्थापकों के अनुसार यह साईं बाबा का जन्म स्थान है। उनके अनुसार साईं के पिता का नाम गोविंद भाऊ और माता का नाम देवकी अम्मा है। कुछ लोग उनके पिता का नाम गंगाभाऊ बताते हैं और माता का नाम देवगिरी अम्मा। कुछ हिन्दू परिवारों में जन्म के समय तीन नाम रखे जाते थे इसीलिए बीड़ इलाके में उनके माता-पिता को भगवंत राव और अनुसूया अम्मा भी कहा जाता है। वे यजुर्वेदी ब्राह्मण होकर कश्यप गोत्र के थे। साईं के चले जाने के बाद उनके परिवार के लोग शायद हैदराबाद चले गए थे और फिर उनका कोई अता-पता नहीं चला। शशिकांत शांताराम गडकरी की किताब ‘सद्गुरु साईं दर्शन’ (एक वैरागी की स्मरण गाथा) के अनुसार साईं ब्राह्मण परिवार के थे। उनका परिवार वैष्णव ब्राह्मण यजुर्वेदी शाखा और कौशिक गोत्र का था। उनके पिता का नाम गंगाभाऊ और माता का नाम देवकीगिरी था। देवकीगिरी के पांच पुत्र थे। पहला पुत्र रघुपत भुसारी, दूसरा दादा भुसारी, तीसरा हरिबाबू भुसारी, चैथा अम्बादास भुसारी और पांचवें बालवंत भुसारी थे। साईं बाबा गंगाभाऊ और देवकी के तीसरे नंबर के पुत्र थे। उनका नाम था हरिबाबू भुसारी। साईं बाबा के इस जन्म स्थान के पास ही भगवान पांडुरंग का मंदिर है। इसी मंदिर के बाईं ओर देवी भगवती का मंदिर है जिसे लोग सप्तशृंगीदेवी का रूप मानते हैं। इसी मंदिर के पास चैधरी गली में भगवान दत्तात्रेय और सिद्ध स्वामी नरसिंह सरस्वती का भी मंदिर है, जहां पवित्र पादुका का पूजन होता है। लगभग सभी मराठी भाषियों में नरसिंह सरस्वती का नाम प्रसिद्ध है। थोड़ी ही दूरी पर राजाओं के राजबाड़े हैं। यहां से एक किलोमीटर दूर साईं बाबा का पारिवारिक मारुति मंदिर है। साईं बाबा का परिवार हनुमान भक्त था। वे उनके कुल देवता हैं। यह मंदिर खेतों के मध्य है, जो मात्र एक गोल पत्थर से बना है। यहीं पास में एक कुआं है, जहां साईं बाबा स्नान कर मारुति का पूजन करते थे। साईं बाबा पर हनुमानजी की कृपा थी। साईं बाबा की पढ़ाई की शुरुआत घर से ही हुई। उनके पिता वेदपाठी ब्राह्मण थे। उनके सान्निध्य में हरिबाबू (साईं) ने बहुत तेजी से वेद-पुराण पढ़े और वे कम उम्र में ही पढ़ने-लिखने लगे। 7-8 वर्ष की उम्र में साईं को पाथरी के गुरुकुल में उनके पिता ने भर्ती किया ताकि यह कर्मकांड सीख ले और कुछ गुजर-बसर हो। यहां ब्राह्मणों को वेद- पुराण आदि पाठ पढ़ाया जाता था। जब साईं 7-8 वर्ष के थे तो अपने गुरुकुल के गुरु से शास्त्रार्थ करते थे। गुरुकुल में साईं को वेदों की बातें पसंद आईं, लेकिन वे पुराणों से सहमत नहीं थे और वे अपने गुरु से इस बारे में बहस करते थे। वे पुराणों की कथाओं से संभ्रमित थे और उनके खिलाफ थे। तर्क-वितर्क द्वारा वे गुरु से इस बारे में चर्चा करते थे। गुरु उनके तर्कों से परेशान रहते थे। वे वेदों के अंतिम और सार्वभौमिक सर्वश्रेष्ठ संदेश ‘ईश्वर निराकार है’ इस मत को ही मानते थे। अंत में हारकर गुरु ने कहा- एक दिन तुम गुरुओं के भी गुरु बनोगे। साईं ने वह गुरुकुल छोड़ दिया। गुरुकुल छोड़कर वे हनुमान मंदिर में ही अपना समय व्यतीत करने लगे, जहां वे हनुमान पूजा-अर्चना करते और सत्संगियों के साथ रहते। उन्होंने 8 वर्ष की उम्र में ही संस्कृत बोलना और पढ़ना सीख लिया था। उन्होंने चारों वेद और 18 पुराणों का अध्ययन कर लिया था। साईं जिस इलाके में रहते थे वह हैदराबाद निजामशाही का एक भाग था। उनकी राजशाही में मुस्लिमों का एक हथियारबंद संगठन था जिसे रजाकार कहा जाता था। इसके लोग हिन्दुओं को धर्मांतरण के लिए मजबूर करते थे। हिन्दुओं पर कट्टरपंथी लोग तरह-तरह के अत्याचार करते या उन पर मनमाने टैक्स लगाते थे। साईं का परिवार गरीब ब्राह्मण परिवार था। उनके पास खेती योग्य भूमि नहीं थी और न ही कोई रोजी-रोजगार। यदि वे इस्लाम कबूल कर लेते तो उनकी गरीबी दूर हो जाती और उनकी हैसियत बढ़ जाती। उनके माता-पिता जैसे-तैसे भिक्षा मांगकर, मजदूरी करके पांचों बच्चों का पेट पाल रहे थे। कई बार ऐसा होता कि माता-पिता को भूखा सोना पड़ता था लेकिन वे दोनों बच्चों का पेट भरने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते। उनके घर के पास ही मुस्लिम परिवार रहता था। उनका नाम चांद मियां था और उनकी पत्नी चांद बी थी। उन्हें कोई संतान नहीं थी। हरिबाबू उनके ही घर में अपना ज्यादा समय व्यतीत करते थे। चांद बी हरिबाबू को पुत्रवत ही मानती थीं। रजाकारों का जुल्म बढ़ा तो उनके पिता ने वह स्थान छोड़ने का मन बनाया। उस गांव में वे अपमान का घूंट पी रहे थे। एक बार गंगाभाऊ अपने परिवार के साथ पंढरपुर गए। भीमा नदी पंढरपुर के पास से बहती है। गंगाभाऊ का परिवार नाव में बैठकर नदी पार कर रहा था तभी दुर्भाग्य से नाव पलटी और परिवार डूबने लगा। किनारे खड़े एक सूफी फकीर और तीर्थयात्रियों ने जैसे-तैसे सभी को बचाया लेकिन वे गंगाभाऊ को नहीं बचा सके। जिस फकीर के प्रयास से यह परिवार बच गया उसका नाम था वली फकीर। उसने ही सभी अंतिम कार्य संपन्न कराए और देवगिरी सहित पांचों लड़कों के भोजन आदि की व्यवस्था की। मुस्लिम फकीर के साथ देवगिरी के रहने के कारण लोग उन्हें बदनाम करने लगे तो वली फकीर देवगिरी को समझा-बुझाकर हरिबाबू को अपने साथ ले गए। देवगिरी के दोनों बड़े पुत्र रोजी-रोटी की तलाश में हैदराबाद चले गए और खुद देवगिरी अपने दो पुत्रों के साथ अपनी माता के गांव चली गईं। इस तरह पिता की मौत के बाद पूरा परिवार बिखर गया। 8 वर्ष की उम्र में पिता की मृत्यु के बाद बाबा को सूफी वली फकीर ने पाला, जो उन्हें एक दिन ख्वाजा शमशुद्दीन गाजी की दरगाह पर इस्लामाबाद ले गए। यहां वे कुछ दिन रहे, जहां एक सूफी फकीर आए जिनका नाम था रोशनशाह फकीर। रोशनशाह फकीर अजमेर से आए हुए थे और इस्लाम के प्रचारक थे। रोशनशाह को साईं में रूहानीपन नजर आया और हरिबाबू (साईं) को लेकर अजमेर आ गए। इस तरह साईं वली फकीर के बाद रोशनशाह के साथी बन गए। अजमेर में साईं बाबा सूफी संत रोशनशाह के साथ रहे। वहां उन्होंने इस्लाम के अलावा कई देशी दवाओं की जानकारी हासिल की।  इस दौरान साईं बाबा ने जहां इस्लाम और सूफीवाद को करीब से जाना वहीं उनके मन में पिता और गुरु के द्वारा वेदांती शिक्षा की ज्योति भी जलती रही। भीतर से वे पक्के वेदांती थे तभी तो उनको दूसरे मुस्लिमों ने कई बार इस्लाम कबूल करने के प्रस्ताव दिए, लेकिन हर बार उन्होंने इसको दृढ़ता से खारिज कर दिया। वे धर्म-परिवर्तन के कट्टर विरोधी थे। रोशनशाह एक बार धार्मिक प्रचार के लिए इलाहाबाद गए, जहां हृदयाघात से उनका निधन हो गया। रोशनशाह बहुत ही पहुंचे हुए फकीर थे और वे मानवता के लिए ही कार्य करते थे। वे इस्लाम के प्रचारक जरूर थे लेकिन उनके मन में किसी को जबरन मुसलमान बनाने की भावना नहीं थी। रोशनशाह के जाने के बाद हरिबाबू (साईं) एक बार फिर अनाथ हो गए। रोशनशाह बाबा की मृत्यु के समय इलाहाबाद में थे हरिबाबू (साईं बाबा)। जब इलाहाबाद में थे बाबा, तब संतों का सम्मेलन चल रहा था। हिन्दुओं का पर्व चल रहा था। कोने-कोने से देश के संत आए हुए थे जिसमें नाथ संप्रदाय के संत भी थे। बाबा का झुकाव नाथ संप्रदाय और उनके रीति-रिवाजों की ओर ज्यादा था। वे नाथ संप्रदाय के प्रमुख से मिले और उनके साथ ही संत समागम और सत्संग किया। बाद में वे उनके साथ अयोध्या गए और उन्होंने राम जन्मभूमि के दर्शन किए, जहां उस वक्त बाबरी ढांचा खड़ा था। अयोध्या पहुंचने पर नाथ पंथ के संत ने उन्हें सरयू में स्नान कराया और उनको एक चिमटा (सटाका) भेंट किया। यह नाथ संप्रदाय का हर योगी अपने पास रखता है। फिर नाथ संत प्रमुख ने उनके कपाल पर चंदन का तिलक लगाकर कहा कि वे हर समय इसको धारण करके रखें। जीवनपर्यंत बाबा ने तिलक धारण करके रखा लेकिन सटाका उन्होंने हाजी बाबा को भेंट कर दिया था। अयोध्या यात्रा के बाद नाथपंथी तो अपने डेरे चले गए लेकिन हरिबाबू अकेले रह गए। बाबा घूमते-फिरते राजपुर पहंचे, वहां से चित्रकूट और फिर बीड़। बीड़ गांव में बाबा को भिक्षा देने से लोगों ने इंकार किया, तब एक मारवाड़ी प्रेमचंद ने उनकी सहायता की। उन्होंने बाबा को काम पर रखा। बाबा ने कुछ दिन वहां साड़ियों पर नक्काशी का काम किया और इस काम से साड़ियों की मांग बढ़ गई जिससे इसकी कीमत भी दोगुनी हो गई। मारवाड़ी ने भी बाबा का मेहनताना दोगुना कर दिया लेकिन बाबा का वहां मन नहीं लग रहा था। उनको अपने गांव पाथरी की याद आ रही थी। बीड़ के बाद बाबा ने अपने गांव का रुख किया इस आशा से कि वहां उनकी मां मिलेंगी, भाई होंगे और वह उनका जन्म स्थान भी है लेकिन वहां पहुंचने के बाद पता चला कि वहां कोई नहीं है। अंत में वे पड़ोस में रहने वाली चांद बी से मिले। चांद बी ने उनको सारा किस्सा बताया। चांद मियां को मरे बहुत दिन हो गए थे। हरिबाबू को देखकर चांद बी प्रसन्न हुईं। चांद बी हरिबाबू (बाबा) के रहने-खाने की व्यवस्था के लिए उन्हें नजदीक के गांव सेलू (सेल्यु) के वैंकुशा आश्रम में ले गई। उस वक्त बाबा की उम्र 15 वर्ष रही होगी। वैंकुशा बाबा एक दैवीय शक्ति संपन्न व्यक्ति थे और वे दत्त संप्रदाय की परंपरा का निर्वाह करने वाले संत थे। आश्रम के बाहर चांद बी और बाबा को इसलिए रोक दिया गया, क्योंकि दोनों अपने पहनावे से मुस्लिम नजर आ रहे थे। बाबा ने भी फकीरों जैसा बाना धारण कर रखा था। चांद बी ने मन ही मन वैंकुशा बाबा की प्रार्थना की तो ध्यान में बैठे बाबा को एकदम जागृति आ गई और वे खुद ही उठकर आश्रम के द्वार पर आ गए। बाबा से कुछ सवाल-जवाब करने के बाद वंैकुशा उनके उत्तरों से संतुष्ट हो गए और उन्होंने अपने आश्रम में उनको प्रवेश दिया। वे बाबा के उत्तरों से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने हरिबाबू को गले लगाकर अपना शिष्य बनाया। वैंकुशा के दूसरे शिष्य साईं बाबा से वैर रखते थे, लेकिन वैंकुशा के मन में बाबा के प्रति प्रेम बढ़ता गया और एक दिन उन्होंने अपनी मृत्यु के पूर्व बाबा को अपनी सारी शक्तियां दे दीं और वे बाबा को एक जंगल में ले गए, जहां उन्होंने पंचाग्नि तपस्या की। वहां से लौटते वक्त कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोग हरिबाबू (साईं बाबा) पर ईंट-पत्थर फेंकने लगे। बाबा को बचाने के लिए वैंकुशा सामने आ गए तो उनके सिर पर एक ईंट लगी। वैंकुशा के सिर से खून निकलने लगा। बाबा ने तुरंत ही कपड़े से उस खून को साफ किया। वैंकुशा ने वही कपड़ा बाबा के सिर पर तीन लपेटे लेकर बांध दिया और कहा कि ये तीन लपेटे संसार से मुक्त होने और ज्ञान व सुरक्षा के हैं। जिस ईंट से चोट लगी थी बाबा ने उसे उठाकर अपनी झोली में रख लिया। इसके बाद बाबा ने जीवनभर इस ईंट को ही अपना सिरहाना बनाए रखा। आश्रम पहुंचने के बाद दोनों ने स्नान किया और फिर वैंकुशा ने बताया कि 80 वर्ष पूर्व वे स्वामी समर्थ रामदास की चरण पादुका के दर्शन करने के लिए सज्जनगढ़ गए थे, वापसी में वे शिर्डी में रुके थे। उन्होंने वहां एक मस्जिद के पास नीम के पेड़ के नीचे ध्यान किया और उसी वक्त गुरु रामदास के दर्शन हुए और उन्होंने कहा कि तुम्हारे शिष्यों में से ही कोई एक यहां रहेगा और उसके कारण यह स्थान तीर्थ क्षेत्र बनेगा। वैंकुशा ने आगे कहा कि वहीं मैंने रामदास की स्मृति में एक दीपक जलाया है, जो नीम के पेड़ के पास नीचे एक शिला की आड़ में रखा है। इस वार्तालाप के बाद वैंकुशा ने बाबा को तीन बार सिद्ध किया हुआ दूध पिलाया। इस दूध को पीने के बाद बाबा को चमत्कारिक रूप से अष्टसिद्धि शक्ति प्राप्त हुई और वे एक दिव्य पुरुष बन गए। उन्हें परमहंस होने की अनुभूति हुई। इसके बाद वैंकुशा ने देह छोड़ दी। वैंकुशा के जाने के बाद साईं बाबा का आश्रम में रुकने का कोई महत्व नहीं रहा। इस आश्रम में बाबा करीब 8 वर्ष रहे यानी उस वक्त उनकी उम्र 22-23 वर्ष रही होगी। वैंकुशा की आज्ञा से साईं बाबा घूमते-फिरते शिर्डी पहुंचे। तब शिर्डी गांव में कुल 450 परिवारों के घर होंगे। शिर्डी के आसपास घने जंगल थे। वहां बाबा ने सबसे पहले खंडोबा मंदिर के दर्शन किए फिर वे वैंकुशा के बताए उस नीम के पेड़ के पास पहुंच गए। नीम के पेड़ के नीचे उसके आसपास एक चबूतरा बना था, जहां बैठकर बाबा ने कुछ देर ध्यान किया और फिर वे गांव में भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़े। ग्रामीणों ने उन्हें भिक्षा में काफी अन्न दिया। उसे ग्रहण कर वे बाकी बचा भोजन पीछे- पीछे चल रहे श्वान को खिलाते गए और पुनः नीम के झाड़ के पास आ बैठे। उनका प्रतिदिन का यह नियम बन गया था। नीम के झाड़ के नीचे ही सोना-उठना, बैठना-ध्यान करना और फिर गांव में भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़ना। कुछ लोगों ने उत्सुकतावश पूछा कि आप यहां नीम के वृक्ष के नीचे ही क्यों रहते हैं? इस पर बाबा ने कहा कि यहां मेरे गुरु ने ध्यान किया था इसलिए मैं यहीं विश्राम करता हूं। कुछ लोगों ने उनकी इस बात का उपहास उड़ाया, तब बाबा ने कहा कि यदि उन्हें शक है तो वे इस स्थान पर खुदाई करें। ग्रामीणों ने उस स्थान पर खुदाई की, जहां उन्हें एक शिला नजर आई। शिला को हटाते ही एक द्वार दिखा, जहां चार दीप जल रहे थे। उन दरवाजों का मार्ग एक गुफा में जाता था, जहां गौमुखी आकार की इमारत, लकड़ी के तख्ते, मालाएं आदि दिखाई पड़े। इस घटना के बाद लोगों में बाबा के प्रति श्रद्धा जागृत हो गई। बाबा ने उनके झोले से वही ईंट निकाली और उस दीपक के पास रख दी और ग्रामीणों से कहा कि इसे पुनः बंद कर दें। म्हालसापति, श्यामा तथा शिर्डी के अन्य भक्त इस स्थान को बाबा के गुरु का समाधि-स्थान मानकर सदैव नमन किया करते थे। प्रमुख ग्रामीणों में म्हालसापति और श्यामा बाबा के अनुयायी बन गए। बायजा माई नामक एक महिला थी, जो बाबा को प्रतिदिन भिक्षा देती थी। यदि बाबा किसी कारणवश भिक्षा लेने नहीं आते तो वे खुद नीम के वृक्ष के नीचे उनको भिक्षा देने पहुंच जाती थी। गांव के हिन्दू और मुसलमानों के बीच इसको लेकर चर्चा होती रहती थी कि बाबा हिन्दू हैं या मुसलमान? तीन महीने बाद बाबा किसी को भी बताए बगैर शिर्डी छोड़कर चले गए। लोगों ने उन्हें बहुत ढूंढ़ा लेकिन वे नहीं मिले। तीन माह बाद अचानक ही साईं कहीं चले गए और तीन साल बाद चांद पाशा पाटील (धूपखेड़ा के एक मुस्लिम जागीरदार) के साथ उनकी साली के निकाह के लिए बैलगाड़ी में बैठकर बाराती बनकर आए। इस बार तरुण फकीर के वेश में बाबा म्हालसापति के यहां गए तो उन्होंने उनका ‘या साईं’ ‘आओ साईं’ कहकर स्वागत किया, तब से उनका नाम ‘साईं बाबा’ पड़ गया। म्हालसापति विश्वकर्मा समुदाय के थे और सुनारी का काम करते थे। आज लोग इसका अर्थ यूं निकालते हैं- साईं का अर्थ हरि और बाबा का अर्थ भाऊ। म्हालसापति को साईं बाबा भगत के नाम से पुकारते थे। म्हालसापति और श्यामा का साईं बाबा में अटूट विश्वास था। वे उनके चमत्कार और संतत्व को जानते थे। माना जाता है कि यह बात 1854 की है जबकि बाबा का दूसरी बार शिर्डी में आगमन हुआ लेकिन शिर्डी के लोगों का कहना है कि 1856-58 में साईं बाबा नीम के नीचे पहली बार नजर आए। बाबा शिर्डी से पंचवटी गोदावरी के तट पर पहुंच गए थे, जहां उन्होंने ध्यान-तप किया। यहां बाबा की मुलाकात ब्रह्मानंद सरस्वती से हुई। बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दिया। पंचवटी के बाद बाबा शेगांव जा पहुंचे, जहां वे गजानन महाराज से मिले। वहां कुछ दिन रुकने के बाद बाबा देवगिरी के जनार्दन स्वामी की कुटिया पर पहुंचे। वहां से वे बिडर (बीड़) पहुंचे। वहां से फिर वे हसनाबाद गए जिसे पहले माणिक्यापुर कहा जाता था। माणिक प्रभु इस क्षेत्र के महान संत थे। माणिक प्रभु के पास बाबा पहुंचे तो माणिक प्रभु ने उन्हें गौर से देखा और फिर खड़े होकर गले लगा लिया। माणिक प्रभु के पास एक चमत्कारिक मग था जिसे आज तक कोई किसी भी वस्तु से भर नहीं सका था। कितने ही सिक्के डालो, मग खाली का खाली रहता था। बाबा ने कुछ खजूर और फूल उसमें डाले और मग भर गया। फिर बाबा वहां से बीजापुर होते हुए नरसोबा की वाडी पहुंच गए। यहां दत्त अवतार नृसिंह सरस्वती के चरण पादुका के दर्शन किए। यहीं कृष्णा नदी के किनारे एक युवा को तपस्या करते देखा तो उसे आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम बड़े संत बनोगे। यही युवक आगे चलकर वासुदेवानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने ही मराठी में गुरु चरित्र लिखा था। इसके पश्चात बाबा सज्जनगढ़ पहुंच गए, जहां समर्थ रामदास की चरण पादुका के दर्शन किए। इसके बाद बाबा सूफी फकीरों की दरगाह, हिन्दू संतों की समाधि पर जाते हाजिरी लगाते रहे। बाबा अहमदाबाद से भगवान कृष्ण की नगरी द्वारिका जा पहुंचे। यहीं उन्होंने तय किया कि शिर्डी में वे अपने निवास का नाम ‘द्वारिकामाई’ रखेंगे। द्वारिका से बाबा प्रभाष क्षे‍त्र गए, जहां भगवान कृष्ण ने अपनी देह छोड़ दी थी। पुनः शिर्डी आने से पहले चांद पाशा पाटील के पास बाबा.. औरंगाबाद के करीब 10 किलोमीटर दो गांव हैं- सिंधू और बिंदू। बिंदू ग्राम के 2 किलोमीटर पहले 2 छोटी-बड़ी आमने-सामने टेकरियां हैं। उसमें से एक टेकरी पर स्थित एक आम के झाड़ के नीचे लंबे प्रवास के बाद बाबा विश्राम के लिए रुके। ये दोनों ही गांव धूपखेड़ा के राजस्व अधिकारी चांद पाशा पाटील के राजस्व उगाही के अधिकार में आते थे। उनका एक घोड़ा चरने के लिए गया था, जो पिछले 8 दिनों से नहीं मिल रहा था। धूपखेड़ा वहां से 15 किलोमीटर दूर था। चांद पाशा अपना घोड़ा खोजते हुए सिंधू ग्राम के सड़क मार्ग से उस टेकरी पर पहुंचे। साईं बाबा ने उन्हें देखते ही पूछा- क्या तुम अपना घोड़ा खोज रहे हो? वहां सामने की टेकरी के पीछे वह घास चर रहा है। चांद पाशा पाटील ने देखा कि यहां से सामने जो टेकरी है उसके पीछे का तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा फिर ये कैसे कह सकते हैं कि वहां नीचे एक घोड़ा घास चर रहा है? उन्होंने वहां जाकर देखा तो वास्तव में वहां घोड़ा घास चर रहा था। चांद पाशा ने उसी वक्त बाबा के वहां कई चमत्कार देखे। बिंदू होते हुए बाबा सिंधू ग्राम पहुंचे। चांद पाशा भी उनके पीछे घोड़ा लेकर चलने लगा। सिंधू ग्राम की टेकरी पर बाबा ने कनीफनाथ के मजार के दर्शन किए, वहीं बाबा ने चांद पाशा से पूछा- प्यास लगी है? तो पाशा ने कहा- हां। बाबा ने जमीन खोदकर पानी का झरना निकाल दिया। चांद पाशा को आश्चर्य हुआ और उन्होंने बाबा को सूफी फकीर समझकर घर चलने का निमंत्रण दिया। पाशा के निमंत्रण पर बाबा धूपखेड़ा गांव पहुंच गए। धूपखेड़ा में चांद पाशा का भव्य बंगला था, जहां भरा-पूरा परिवार और रिश्तेदार मौजूद थे। चांद पाशा की साली की शादी की तैयारियां चल रही थीं। उनके मकान के पास ही एक नीम का झाड़ था, जहां एक शिला रखी थी। बाबा वहीं जाकर बैठक गए। बाबा चांद पाशा के यहां करीब एक माह रुके। मस्जिद बनी ‘द्वारिकामाई’ एक हिन्दू ने अपने मुसलमान भाइयों के लिए मस्जिद बनवाई थी लेकिन मुसलमानों के जाने के बाद वह मस्जिद खंडहर हो चुकी थी तथा वहां नमाज नहीं पढ़ी जाती थी। बाबा को जब और कोई ठिकाना न मिला तो उन्होंने मस्जिद की साफ-सफाई करवाकर उसे अपने रहने का स्थान बनाया और उस स्थान का नाम रखा- ‘द्वारकामाई’। गांव के मुसलमान उसे ‘हिन्दू मस्जिद’ कहते थे। वहां पर रहकर बाबा गांव में भिक्षा मांगने जाते और उस भिक्षा के सहारे ही गुजर-बसर करते थे। लोग उन्हें ‘साईं’ के नाम से पुकारा करते थे। उनकी दी गई जड़ी-बूटियों व भभूति से लोग भले-चंगे होते थे जिसके बदले में वे किसी से कुछ नहीं लेते थे। धीरे-धीरे उनके चमत्कार के चलते लोगों ने उनके यहां अन्न आदि सुख-सुविधाओं की पूर्ति कर दी। अब बाबा यहां लोगों को खुद अपने हाथ से भोजन कराने लगे थे। वे खुद चक्की चलाकर आटा निकालते थे और कड़ाव में दाल-भात बनाते थे। धीरे-धीरे उनके संतत्व की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी और उनसे मिलने दूर-दूर से लोग आने लगे।