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Wednesday, November 18, 2015

बिजली के आविष्कारक - महर्षि अगस्त्य



निश्चित ही बिजली का आविष्कार बेंजामिन फ्रेंक्लिन ने किया लेकिन बेंजामिन फ्रेंक्लिन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली।

महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ऋषि थे। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने 'अगस्त्य संहिता' नामक ग्रंथ की रचना की। आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-

संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
-अगस्त्य संहिता

अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।

अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबे या सोने या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।

साभार: कुमार राजीव 

Tuesday, November 3, 2015

GREAT DISCOVERY BY INDIANS - भारतीयों के महान आविष्कार

1. प्लास्टिक सर्जरी : माथे की त्वचा द्वारा नाक की मरम्मत, सुश्रुत (4000 2000 ईसापूर्व )

2. कृत्रिम अंग ऋग्वेद (1-116-15)

3. गुणसूत्र गुणाविधि - महाभारत

4. गुणसूत्रों की संख्या 23 महाभारत

5. कान की भोतिक रचना (Anatomy)- ऋग्वेद

6. गर्भावस्था के दूसरे महीने में भ्रूणके ह्रदय की शुरुआत- ऐतरेय उपनिषद 6000

7. महिला अकेले से वंशवृद्धि प्रजनन - कुंती और माद्री :- पांडव महाभारत

8. टेस्ट ट्यूब बेबी :-
अ) केवल डिंब(ovum) से ही- महाभारत (Not possible yet)
ब) केवल शुक्राणु से ही- ऋग्वेद & महाभारत (Not possible yet)
स) डिंब व शुक्राणु दोनों से- महाभारत ( Steptoe, 1979)

9. भ्रूणविज्ञान- ऐतरेय उपनिषद

10. विट्रो में भ्रूण का विकास- महाभारत

11. पेड़ों और पौधों में जीवन- महाभारत (Bose,19th century)

12. मस्तिष्क के 16 कार्य- ऐतरेय उपनिषद (19-20th Century)

13. जानवर की क्लोनिंग (कत्रिम उत्पति )- ऋग्वेद (in 1932 app.)

14. मनुष्य की क्लोनिंग मृत राजा वीणा से पृथु (not possible yet )

15. अश्रु - वाहिनी आंख को नाक से जोडती है Halebid,Karnataka के शिव मंदिर में एक व्यक्ति को द्वार
चौखट में दर्शाया गया है 20th century AD

16. कंबुकर्णी नली (Eustachian Tube ) आंतरिक कान को ग्रसनी (pharynx) से जोड़ती है Halebid,Karnataka के शिव मंदिर में शिव गणों को द्वार चौखट में दर्शाया गया है 20th century AD

17. श्याम विविर (Black Holes)- Vishvaruchi (मांडूक्य उपनिषद) (20th Century)

20. सूरज की किरणों में सात रंग- ऋग्वेद (8-72-16) ..!!

Saturday, October 31, 2015

हिन्दू धर्म की कहानी

राजा बाली के लगभग 3500 वर्ष बाद धरती पर जल प्रलय हुआ। जल प्रलय के बाद धीरे-धीरे जल उतरने लगा और... त्रिविष्टप (तिब्बत) या देवलोक से वैवस्वत मनु (6673 ईसा पूर्व) के नेतृत्व में प्रथम पीढ़ी के मानवों (देवों) का मेरु प्रदेश में अवतरण हुआ। वे देव स्वर्ग से अथवा अम्बर (आकाश) से पवित्र वेद पुस्तक भी साथ लाए थे। इसी से श्रुति और स्मृति की परंपरा चलती रही। वैवस्वत मनु के समय ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ।

वैवस्वत मनु के 10 पुत्र थे। इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यंत, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध पुत्र थे। वैवस्वत मनु के 10 पुत्र और इला नाम की कन्या थी। भागवत के अनुसार मनु वैवस्वत दक्षिण देश के राजा थे और उनका नाम सत्यव्रत था। वैवस्वत मनु को ही पृथ्वी का प्रथम राजा कहा जाता है। इला का विवाह बुध के साथ हुआ जिससे उसे पुरूरवा नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। यही पुरूरवा प्रख्यात ऐल या चंद्र वंश का संस्थापक था। 

वैवस्वत मनु के काल के प्रमुख ऋषि:- वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, कण्व, भारद्वाज, मार्कंडेय, अगस्त्य आदि। वैवस्वत मनु की शासन व्यवस्था में देवों में 5 तरह के विभाजन थे- देव, दानव, यक्ष, किन्नर और गंधर्व। दरअसल ये 5 तरह की मानव जातियां थीं। प्रारंभ में ये सभी जातियां हिमालय से सटे क्षेत्रों में ही रहती थीं फिर धीरे-धीरे वहां से नीचे फैलने लगीं। 

आज संपूर्ण एशिया में वैवस्वत मनु और गुफा, पहाड़ी आदि पर बच गए ऋषि-मुनियों के वंशज ही निवास करते हैं। यहां से निकला मानव इराक, ईरान, तुर्की, अरब, यरुशलम, मिस्र जैसे मध्य और पश्चिम एशिया के इलाकों तक फैल गया, जिसका प्रमाण इनके ऐतिहासिक व धार्मिक लेख तो देते ही हैं, साथ ही साथ समान लंबाई, बालों का काला रंग तथा बनावट, एक जैसी मूछें-दाढ़ी, चमड़ी का रंग, अंगुलियों की बनावट, उन्नत ललाट आदि सभी एक ही हैं। इसके अलावा नए शोध से पता चला कि सभी के डीएनए की संरचना भी एक है। 

जहां तक सवाल यूरोपीय, चीन और अफ्रीकी मूल के लोगों का है कि इनकी सभी के रूप, रंग और शारीरिक संरचना भिन्न है। लेकिन भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, तिब्बत, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, अरब, इसराइल आदि और उसके आसपास के देशों के लोग एक ही मूल से निकले हैं। 

तब हिमालय से सिंधु, सरस्वती नदी और ब्रह्मपु‍त्र निकलती थी जिसकी कई सहायक नदियां होती थीं, जो संपूर्ण अखंड भारत को उर्वर प्रदेश बनाती थीं। यमुना उस काल में सरस्वती की सहायक नदी थी। गंगा का अवतरण भागिरथ के काल में हुआ। मानव प्रारंभ में इन नदियों के आसपास ही रहा, फिर उसके कुछ समूह ने पश्चिम एशिया की ओर कदम बढ़ाकर अरब, मिश्र, इराक और इसराइल में अपना नया ‍ठिकाना बनाया। 

कैस्पियन सागर से लेकर ब्रह्मपुत्र के समुद्र में मिलने तक के स्थान पर वैवस्वत मनु की संतानें फैल चुकी थीं और कुछ खास जगहों पर उन्होंने नगर बसाए थे। जलप्रलय से जैसे-जैसे धरती प्रकट होती गई, वैसे-वैसे इस क्षेत्र के मानव ने फिर से आबादी को बढ़ाया। यह शोध का विषय है कि जलप्रलय से अफ्रीकी और यूरोपीय लोग प्रभावित हुए थे ये नहीं। हालांकि जल के कैलाश पर्वत तक चढ़ जाने का मतलब तो यही है कि संपूर्ण धरती ही जलमग्न हो गई होगी। 

वैवस्वत मनु के ‍कुल के लोग जब धरती पर फैल गए, तब उन्होंने अपने-अपने अलग- अलग कुल की शुरुआत की और उनमें से कुछ लोग अपने मूल धर्म और संस्कृति को छोड़कर मनमाने देव और देवता निर्मित करने लगे और अपने अलग पुरोहित नियुक्त करने लगे। तब पहली बार मानवों में धर्म के आधार पर विभाजन शुरू हुआ। 

वे लोग जो खुद को वैदिक धर्म का मानते थे उन्होंने खुद को आर्य कहना शुरू कर दिया, तब स्वाभाविक ही दूसरे अनार्य घोषित हो गए। यह वैदिक और स्थानीय संस्कृति व परंपरा की लड़ाई की शुरुआत थी। इस लड़ाई के चलते ही बना आर्यावर्त, ब्रह्मदेश और भारत बंटने लगा जनपदों में। लेकिन इस बंटवारे और लड़ाई को ऋषियों ने अच्छी तरह से संचालित किया। लड़ाई के और भी कई कारण होते थे। युद्ध नहीं होता तो अन्य दर्शन, धर्म और विज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती। उस काल में गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र के विचारों की लड़ाई दशराज्ञ युद्ध में बदल गई और इससे दो तरह की सभ्यताओं का जन्म हुआ। एक वह जो लोकतंत्र में विश्वास रखती थी और दूसरी वह जो एकतंत्र में विश्‍वास रखती थी। लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने वाले विश्‍वामित्र इस युद्ध में हार गए। 

साभार: अनिरुद्ध जोशी 'शतायु', वेब दुनिया 

Friday, May 8, 2015

ताजमहल के करीब बन रहा अनूठा सूर्य मंदिर




उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में ताजमहल से कुछ ही दूरी पर स्थित आंवलखेड़ा में अनूठे सूर्य मंदिर और ब्रह्मकमल का निर्माण किया जा रहा है। दो तलों में बन रहे इस मंदिर की खासियत इसमें लगाया जाने वाला लेंस होगा जिससे सूर्य की किरणों से मंदिर में स्थापित भगवान भास्कर की मूर्ति और भवन प्रकाशित होगा।

सूर्योदय से सूर्यास्त तक मंदिर सूर्य की रोशनी से ही प्रकाशित रहेगा। अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी की जन्मस्थली आंवलखेड़ा में इस अनूठे सूर्य मंदिर और ब्रह्मकमल का निर्माण कार्य अंतिम दौर में है और नवंबर तक मंदिर के उद्घाटन की योजना है। आध्यात्मिक ऊर्जा ही नहीं, पर्यटन के लिहाज से भी यह आकर्षण का केंद्र होगा। जहां दर्शनार्थी प्रेम का प्रतीक ताजमहल के दर्शनार्थ आगरा आते हैं, वहीं सूर्य मंदिर की खासियतें जानने के लिए अब वे आंवलाखेड़ा आ सकेंगे।

भारत में उत्कल के कोणार्क के बाद अब आंवलखेड़ा में भगवान भास्कर के अद्भुत मंदिर तथा ब्रह्मकमल का दर्शन होंगे। अब यहां सूर्य से अध्यात्म और तकनीक की किरणें फूटेंगी। इनके बीच ध्यान का अवसर साधकों के लिए अनूठा अनुभव वाला होगा। शहर से 25 किलोमीटर दूर जलेसर रोड पर स्थित आंवलखेड़ा को आध्यात्मिक पर्यटन स्थल के रूप में तैयार किया जा रहा है।

गायत्री परिवार के मुख्यालय हरिद्वार स्थित शांतिकुंज द्वारा तीर्थों की परंपरा में एक नया प्रयोग करते हुए आध्यात्मिक दृष्टि से अमूल्य धरोहर के रूप में इस सूर्य मंदिर को विकसित किया जा रहा है। सामाजिक परिवर्तन की चाह, आत्म परिष्कार की उमंग, अध्यात्म के वैज्ञानिक स्वरूप के जिज्ञासु यहां आकर मार्गदर्शन प्राप्त करेंगे। सूर्य मंदिर के अतिरिक्त जन्मस्थली परिसर में ब्रह्मकमल का निर्माण भी हो रहा है। बाकी पुराने परिसर को ज्यों का त्यों संवारा जा रहा है।

मंदिर दो तलों में बनाया गया है जहां प्रखर रश्मियां सूर्यदेव का श्रृंगार करेंगी। इसके शिखर पर एक लेंस लगाया जाएगा। यही मंदिर की खासियत है। इस लेंस पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों से मंदिर में स्थापित भगवान भास्कर की मूर्ति और भवन प्रकाशित होगा। ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक मंदिर में सूर्य की रोशनी से ही प्रकाश रहे, कृत्रिम प्रकाश की आवश्यकता न रहे। कक्ष के केंद्र में धवल संगमरमर से बनी मूर्ति में भगवान भास्कर देव सारथी के साथ रथ पर सवार हैं। उनके रथ में सात घोड़े ऐसी मुद्रा में लगाए गए हैं, मानो अभी दौड़ने लगेंगे। पीछे उदीयमान सूर्य का दृश्य उकेरा गया है।

मंदिर में गायत्री मंत्र और प्रज्ञा गीत निरंतर चलते रहेंगे। सूर्य मंदिर के नीचे के तल में स्वास्तिक भवन बनाया गया है। इसमें पं श्रीराम शर्मा आचार्य के जीवनवृत्त, व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रदर्शित करने वाली विशाल प्रदर्शनी लगाई जाएगी। उनके द्वारा लिखी गई 3200 पुस्तकें, चारों वेद, 108 उपनिषद, छह दर्शन, 20 स्मृति, 18 पुराण, गीता एवं रामायण सारांश, गायत्री महाविज्ञान तथा दैनिक जीवन से जुड़ी वस्तुएं यहां देखने को मिलेंगी ताकि श्रद्धालु दर्शनार्थी उनके बारे में जानकारियां प्राप्त कर सकें।

अभियंता शरद पारधी ने बताया, 'मंदिर का निर्माण अगस्त 2011 से शुरू हुआ था। परिसर का नक्शा नागपुर के आर्किटेक्ट अशोक मोखा द्वारा तैयार किया गया है। दिल्ली की कंस्ट्रक्शन कंपनी द्वारा तीन साल से चल रहे निर्माण कार्य में अनुमान के मुताबिक छह महीने का समय और लग सकता है। इस भव्य सूर्य मंदिर में दिल्ली और नागपुर से आए कुशल कारीगर काम कर रहे हैं।'

मंदिर में स्थापित की गई सूर्यदेव की मूर्ति चेन्नै से तैयार होकर आई है। मंदिर के शिखर पर लगने वाले लेंस के लिए वृत्ताकार जगह छोड़ दी गई है। स्लोब की तरह बनाए गए शिखर को एंगल से मजबूती दी गई है। जिसे कांस से ढक लिया गया है। इसलिए मंदिर परंपरागत मंदिरों से कुछ भिन्न नजर आता है। जानकारों का मानना है कि लेंस लगने के बाद मंदिर भव्य और अनूठेपन की मिसाल कायम करेगा।

अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख डॉ. प्रणव पण्ड्या के अनुसार गुरु चरणों में समर्पित योजना को पूरा होने के बाद लोग आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहेंगे। सामान्य मंदिरों से अलग अध्यात्म पिपासुओं को यहां अलग अनुभव मिलेगा। गायत्री शक्तिपीठ, आंवलखेड़ा के व्यवस्थापक घनश्याम देवांगन का कहना है कि यहां ध्यान करने का अवसर साधकों के लिए एक अनूठा अनुभव होगा।

साभार : नवभारत टाइम्स 


Wednesday, May 6, 2015

विश्‍व की प्राचीन सभ्यताएं और हिन्दू धर्म, जानिए रहस्य...

भारतीय संस्कृति व सभ्यता विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। मध्यप्रदेश के भीमबेटका में पाए गए 25 हजार वर्ष पुराने शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा मेहरगढ़ के अलावा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत की भूमि आदिमानव की प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। यहीं से मानव ने अन्य जगहों पर बसाहट करने व वैदिक धर्म की नींव रखी थी।



आज से 3,500 वर्ष पूर्व जो सभ्यताएं जीवित थीं उनको पाश्चात्य इतिहासकारों ने 'प्राचीन सभ्यताएं' मानकर ही मानव इतिहास और समाज का विश्‍लेषण किया, लेकिन उनका यह विश्लेषण एकदम गलत और ईसाई धर्म को स्थापित करने वाला था। इसके लिए उन्होंने ऐसे कई तथ्य नकारे, जो प्राचीन भारत और चीन के इतिहास को महान बताते हैं और ईसा बाद के समाज से कहीं ज्यादा उन्हें सभ्य सिद्ध करते हैं।

प्राचीन सभ्यताओं पर अब कुछ ज्यादा ही शोध होने लगे हैं और उनसे नई-नई बातें निकलकर आ रही हैं, मसलन कि उनका एलियन से संबंध था और वे भी बिजली उत्पादन की तकनीक जानते थे। धरती पर फैली प्राचीन सभ्यताओं के बात करें तो धरती के पश्चिमी छोर पर रोम, ग्रीस और मिस्र देश की सभ्यताओं के नाम लिए जाते हैं तो पूर्वी छोर पर चीन का नाम लिया जाता है। मध्य में स्थित भारत की चर्चाभर करके उसे छोड़ दिया जाता है। क्यों? क्योंकि भारत को जानने से उनके समाज और धर्म के सारे मापदंड गिरने लगते हैं, तो वे नहीं चाहते हैं कि भारत और उसके धर्म का सच लोगों के सामने आए। लेकिन सच कब तक छिपा रहेगा?

दुनियाभर की प्राचीन सभ्यताओं से हिन्दू धर्म का क्या कनेक्शन था? या कि संपूर्ण धरती पर हिन्दू वैदिक धर्म ने ही लोगों को सभ्य बनाने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में धार्मिक विचारधारा की नए नए रूप में स्थापना की थी? आज दुनियाभर की धार्मिक संस्कृति और समाज में हिन्दू धर्म की झलक देखी जा सकती है चाहे वह यहूदी धर्म हो, पारसी धर्म हो या ईसाई-इस्लाम धर्म हो।

ईसा से 2300-2150 वर्ष पूर्व सुमेरिया, 2000-400 वर्ष पूर्व बेबिलोनिया, 2000-250 ईसा पूर्व ईरान, 2000-150 ईसा पूर्व मिस्र (इजिप्ट), 1450-500 ईसा पूर्व असीरिया, 1450-150 ईसा पूर्व ग्रीस (यूनान), 800-500 ईसा पूर्व रोम की सभ्यताएं विद्यमान थीं। उक्त सभी से पूर्व महाभारत का युद्ध लड़ा गया था इसका मतलब कि 3500 ईसा पूर्व भारत में एक पूर्ण विकसित सभ्यता थी।

सिन्धु-सरस्वती घाटी की सभ्यता (5000-3500 ईसा पूर्व)

हिमालय से निकलकर सिन्धु नदी अरब के समुद्र में गिर जाती है। प्राचीनकाल में इस नदी के आसपास फैली सभ्यता को ही सिन्धु घाटी की सभ्यता कहते हैं। इस नदी के किनारे के दो स्थानों हड़प्पा और मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान) में की गई खुदाई में सबसे प्राचीन और पूरी तरह विकसित नगर और सभ्यता के अवशेष मिले। इसके बाद चन्हूदड़ों, लोथल, रोपड़, कालीबंगा (राजस्थान), सूरकोटदा, आलमगीरपुर (मेरठ), बणावली (हरियाणा), धौलावीरा (गुजरात), अलीमुराद (सिंध प्रांत), कच्छ (गुजरात), रंगपुर (गुजरात), मकरान तट (बलूचिस्तान), गुमला (अफगान-पाक सीमा) आदि जगहों पर खुदाई करके प्राचीनकालीन कई अवशेष इकट्ठे किए गए। अब इसे सैंधव सभ्यता कहा जाता है।

हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में असंख्य देवियों की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। ये मूर्तियां मातृदेवी या प्रकृति देवी की हैं। प्राचीनकाल से ही मातृ या प्रकृति की पूजा भारतीय करते रहे हैं और आधुनिक काल में भी कर रहे हैं। यहां हुई खुदाई से पता चला है कि हिन्दू धर्म की प्राचीनकाल में कैसी स्थिति थी। सिन्धु घाटी की सभ्यता को दुनिया की सबसे रहस्यमयी सभ्यता माना जाता है, क्योंकि इसके पतन के कारणों का अभी तक खुलासा नहीं हुआ है।

इतना तो तय है कि इस काल में महाभारत का युद्ध इसी क्षेत्र में हुआ था। लोगों के बीच हिंसा, संक्रामक रोगों और जलवायु परिवर्तन ने करीब 4 हजार साल पहले सिन्धु घाटी या हड़प्पा सभ्यता का खात्मा करने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। यह दावा एक नए अध्ययन में किया गया है।

नॉर्थ कैरोलिना स्थित एप्पलचियान स्टेट यूनिवर्सिटी में नृविज्ञान (एन्थ्रोपोलॉजी) की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ग्वेन रॉबिन्स शुग ने एक बयान में कहा कि जलवायु, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों, सभी ने शहरीकरण और सभ्यता के खात्मे की प्रक्रिया में भूमिका निभाई, लेकिन इस बारे में बहुत कम ही जानकारी है कि इन बदलावों ने मानव आबादी को किस तरह प्रभावित किया।

आज जिस हिस्से को पाकिस्तान और अफगानिस्तान कहा जाता है, महाभारतकाल में इसे पांचाल, गांधार, मद्र, कुरु और कंबोज की स्थली कहा जाता था। अयोध्या और मथुरा से लेकर कंबोज (अफगानिस्तान का उत्तर इलाका) तक आर्यावर्त के बीच वाले खंड में कुरुक्षेत्र था, जहां यह युद्ध हुआ। आजकल यह हरियाणा का एक छोटा-सा क्षेत्र है।

उस काल में सिन्धु और सरस्वती नदी के पास ही लोग रहते थे। सिन्धु और सरस्वती के बीच के क्षेत्र में कई विकसित नगर बसे हुए थे। यहीं पर सिन्धु घाटी की सभ्यता और मोहनजोदड़ो के शहर भी बसे थे। मोहनजोदड़ो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है।

जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोहनजोदड़ो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्होंने देखा कि वहां की गलियों में नरकंकाल पड़े थे। कई अस्थिपंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थिपंजरों ने एक-दूसरे के हाथ इस तरह पकड़ रखे थे मानो किसी विपत्ति ने उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुंचा दिया था।

उन नरकंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो एक्टिविटी के चिह्न थे, जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गए थे। मोहनजोदड़ो स्थल के अवशेषों पर नाइट्रिफिकेशन के जो चिह्न पाए गए थे, उसका कोई स्पष्ट कारण नहीं था, क्योंकि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है। उल्लेखनीय है कि महाभारत में अश्‍वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था जिसके चलते आकाश में कई सूर्यों की चमक पैदा हुई थी।

सुमेरिया 2300-2150

सुमेर सभ्यता को ही मेसोपोटामिया की सभ्यता कहा जाता है। मेसोपोटामिया का अर्थ होता है- दो नदियों के बीच की भूमि। दजला (टिगरिस) और फुरात (इयुफ़्रेट्स) नदियों के बीच के क्षेत्र को कहते हैं। इसी तरह सिन्धु और सरस्वती के बीच की भूमि पर ही आर्य रहते थे। इसमें आधुनिक इराक, उत्तर-पूर्वी सीरिया, दक्षिण-पूर्वी तुर्की तथा ईरान के कुजेस्तान प्रांत के क्षेत्र शामिल हैं। इस क्षेत्र में ही सुमेर, अक्कदी, बेबिलोन तथा असीरिया की सभ्यताएं अस्तित्व में थीं। अक्कादियन साम्राज्य की राजधानी बेबिलोन थी अतः इसे बेबिलोनियन सभ्यता भी कहा जाता है। यहां के बाद की जातियां क्षेत्र तुर्क, कुर्द, यजीदी, आशूरी (असीरियाई), सबाईन, हित्ती, आदि सभी ययाति, भृगु, अत्रि वंश की मानी गई हैं।

सुमेरिया की सभ्यता और संस्कृति का विकास फारस की खाड़ी के उत्तर में दजला और फरात नदियों के कछारों में हुआ था। सुमेरियन सभ्यता के प्रमुख शहर ऊर, किश, निपुर, एरेक, एरिडि, लारसा, लगाश, निसीन, निनिवेह आदि थे। निपुर इस सभ्यता का सर्वप्रमुख नगर था जिसका काल लगभग 5262 ईपू बताया जाता है। इस नगर का प्रमुख देवता एनलिल समस्त देश में पूजनीय माना जाता था।

सुमेरिया निवासी भी आस्तिक और मूर्तिपूजक थे। वे भी मंदिरों का निर्माण कर उनमें अपने इष्ट देवताओं कि मूर्तियां स्थापित कर उसकी पूजा-अर्चना करते थे। हिन्दू संस्कृति पर आधारित यह सभ्यता ईसा पूर्व 2000 के पूर्व ही समाप्त हो गई।

सुमेरिया वालों का वर्ष हिन्दुओं जैसा ही 12 मासों का था। उनकी मास गणना भी चन्द्रमा की गति पर आधारित थी। इस कारण हर तीसरे वर्ष एक माह बढ़ता था, जो हिन्दुओं के अधिकमास जैसा ही था। हिन्दुओं के समान ही अष्टमी और पूर्णिमा का वे बड़े उत्साह से स्वागत करते थे।

सुमेरियावासियों का संबंध सिन्धु घाटी के लोगों से घनिष्ठ था, क्योंकि यहां कुछ ऐसी मुद्राएं पाई गई हैं, जो सिन्धु घाटी में पाई गई थीं। पश्चिम के इतिहासकार मानते हैं कि सिन्धु सभ्यता सुमेरियन सभ्यता का उपनिवेश स्थान था जबकि समेल लोग पूर्व को अपना उद्गम मानते थे। सुमेर के भारत के साथ व्यापारिक संबंध थे।

प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता लैंगडन के अनुसार मोहनजोदड़ो की लिपि और मुहरें, सुमेरी लिपि और मुहरों से एकदम मिलती हैं। सुमेर के प्राचीन शहर ऊर में भारत में बने चूने-मिट्टी के बर्तन पाए गए हैं। मोहनजोदड़ो की सांड (नंदी) की मूर्ति सुमेर के पवित्र वृषभ से मिलती है और हड़प्पा में मिले सिंगारदान की बनावट ऊर में मिले सिंगारदान जैसी है। इन सबके आधार पर कहा जा सकता है कि सुमेर सभ्यता के लोग भी हिन्दू धर्म का पालन करते थे। 'सुमेर' शब्द भी हमें पौराणिक पर्वत सुमेरु की याद दिलाता है।

बेबिलोनिया (2000-400 ईसा पूर्व)

सुमेरी सभ्यता के पतन के बाद इस क्षेत्र में बाबुली या बेबिलोनियन सभ्यता पल्लवित हुई। अक्कादियन साम्राज्य की राजधानी बेबिलोन थी, उसके प्रसिद्ध सम्राट् हम्मुराबी (हाबुचन्द्र) ने अत्यंत प्राचीन कानून और दंड संहिता बनाई। बेबिलोनियन सभ्यता की प्रमुख विशेषता हम्मुराबी की (2123-2080 ईपू) दंड संहिता है। बेबिलोनियन सभ्यता का प्रमुख ग्रंथ्र गिल्गामेश महाकाव्य था। गिल्गामेश (2700 ईपू) प्राचीन उरुक (वर्तमान इराक में) जन्म एक युवा राजा था।

इस सभ्यता के लोग हिन्दु्ओं के समान ही पूजा प्रात: और सायं अर्घ्य, तेल, धूप, अभ्यंग, दीप, नेवैद्य आदि लगाकर करते थे। ईसा पूर्व 18वीं शताब्दी के वहां के कसाइट राजाओं के नामों में वैदिक देवताओं के सूर्य, अग्नि, मरूत आदि नाम मिलते हैं। वहां के हिट्टाइट और मिनानी राजाओं के बीच हुई संधियों में गवाह के रूप में इंद्र, वरुण, मित्र, नासत्य के नाम मिलते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि बेबिलोनिया के लोग भी हिन्दू धर्म का ही पालन करते थे।

अलअपरना में मिले शिलालेखों में सीरिया, फिलिस्तीन के राजाओं के नाम भारतीय राजाओं के समान है। असीरिया शब्द असुर का बिगड़ा रूप है। बेबिलोन की प्राचीन गुफाओं में पुरातात्विक खोज में जो भित्तिचित्र मिले हैं, उनमें भगवान शिव के भक्त, वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं की उपासना करते हुए उत्कीर्ण किया गया है।

असीरिया (1450-500 ईसा पूर्व)

असीरिया को पहले अश्शूर कहा जाता था। अश्शूर प्राचीन मेसोपोटामिया का एक साम्राज्य था। यह असुर शब्द का अपभ्रंश है। यह दजला नदी के ऊपरी हिस्से में अश्शूर साम्राज्य में स्थित था। इसके बाद यह साम्राज्य फारस के हखामनी वंश के शासकों के अधीन आ गया।

असीरिया निवासी सूर्यपूजक थे और वहां के राजा अपने आपको सूर्य का वंशज मानते थे। अथर्वण संप्रदाय में भारत में अंगीकृत अथर्वणि चिकित्सा यहां भी प्रचार में थी।

अथर्ववेद का बहुत-सा भाग असीरिया में प्रचलित था। होम, यज्ञ, वशीकरण, भूतविद्या आदि प्रकार प्रचलित थे। आयुर्वेद के अष्टांगों में तथा चरक संहिता के इंद्रिय स्थान के दूताधिकार अध्याय में इन विषयों का विवेचन किया गया है।

ईरान (2000-2500 ईसा पूर्व)

ईरान को प्राचीनकाल में पारस्य देश कहा जाता था। आर्याण से ईरान शब्द की उत्पत्ति हुई है। ईसा की 7वीं शताब्दी में जब खलीफाओं का आक्रमण बढ़ गया, तब अधिकतर को इस्लाम अपनाना पड़ा और जो नहीं चाहते थे अपनाना उन्हें अपने ही देश को छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेना पड़ी। यहां का मूल धर्म तो वैदिक धर्म ही था लेकिन जरथुस्त्र में वेदों पर आधारित पारसी धर्म की शुरुआत हुई। प्राचीनकाल में आर्यों का एक समूह ईरान में ही रहता था। ईरान में वेदकालीन धर्म और संस्कृति का गहरा प्रभाव था।

जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे। इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। यह लगभग वही काल था, जबकि राजा सुदास का आर्यावर्त में शासन था और दूसरी ओर हजरत इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।

पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है, जो ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है। यही कारण है कि ऋग्वेद और अवेस्ता में बहुत से शब्दों की समानता है। अत्यंत प्राचीन युग के पारसियों और वैदिक आर्यों की प्रार्थना, उपासना और कर्मकांड में कोई भेद नजर नहीं आता। वे अग्नि, सूर्य, वायु आदि प्रकृति तत्वों की उपासना और अग्निहोत्र कर्म करते थे। मिथ्र (मित्रासूर्य), वयु (वायु), होम (सोम), अरमइति (अमति), अद्दमन् (अर्यमन), नइर्य-संह (नराशंस) आदि उनके भी देवता थे। वे भी बड़े-बड़े यश्न (यज्ञ) करते, सोमपान करते और अथ्रवन् (अथर्वन्) नामक याजक (ब्राह्मण) काठ से काठ रगड़कर अग्नि उत्पन्न करते थे। उनकी भाषा भी उसी एक मूल आर्य भाषा से उत्पन्न थी जिससे वैदिक और लौकिक संस्कृत निकली है। अवेस्ता में भारतीय प्रदेशों और नदियों के नाम भी हैं, जैसे हफ्तहिन्दु (सप्तसिन्धु), हरव्वेती (सरस्वती), हरयू (सरयू), पंजाब इत्यादि।

मिस्र (इजिप्ट- 2000-150 ईसा पूर्व)

मिस्र बहुत ही प्राचीन देश है। यहां के पिरामिडों की प्रसिद्धि और प्राचीनता के बारे में सभी जानते हैं। ये पिरामिड प्राचीन सभ्यता के गवाह हैं। प्राचीन मिस्र नील नदी के किनारे बसा है। यह उत्तर में भूमध्य सागर, उत्तर-पूर्व में गाजा पट्टी और इसराइल, पूर्व में लाल सागर, पश्चिम में लीबिया एवं दक्षिण में सूडान से घिरा हुआ है।

यहां का शहर इजिप्ट प्राचीन सभ्यताओं और अफ्रीका, अरब, रोमन आदि लोगों का मिलन स्थल है। यह प्राचीन विश्‍व का प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केंद्र रहा है। मिस्र के भारत से गहरे संबंध रहे हैं। यहां पर फराओं राजाओं का बहुत काल तक शासन रहा है। माना जाता है कि इससे पहले यादवों के गजपत, भूपद, अधिपद नाम के तीन भाइयों का राज था। गजपद के अपने भाइयों से झगड़े के चलते उसने मिस्र छोड़कर अफगानिस्तान के पास एक गजपद नगर बसाया था। गजपद बहुत शक्तिशाली था।

मिस्र में सूर्य को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा देवता के रूप में माना जाता है। भारतीयों ने कहा है- आरोग्यं भास्करादिच्छेत। यहां अनेक औषधियां भारत से मंगाई जाती थीं। भारतीय और मिस्र की भाषाओं में बहुत से शब्द और उनके अर्थ समान है, जैसे हरी (सूर्य)- होरस, ईश्वरी- ईसिस, शिव- सेव, श्वेत- सेत, क्षत्रिय- खेत, शरद- सरदी आदि। मिस्र के पुरोहितों की वेशभूषा भारतीय पुरोहितों व पंडितों की तरह है। उनकी मूर्तियों पर भी वैष्णवी तिलक लगा हुआ मिलता है। एलोरा की गुफा और इजिप्ट की एक गुफा में पाई गई नक्काशी और गुफा के प्रकार में आश्चर्यजनक रूप से समानता है।

मिस्र के प्रसिद्ध पिरामिड वहां के राजाओं की एक प्रकार की कब्रें हैं। भारतीयों को इस विद्या की उत्तम जानकारी थी। उन्होंने राजा दशरथ का शव उनके पुत्र भरत के कैकेय प्रदेश से अयोध्या आने तक सुरक्षित रखा था।

यूनान (ग्रीस- 1450-150)

यूनान और भारत के तो बहुत प्राचीनकाल से ही संबंध रहे हैं। यूनानी देवी और देवताओं में बहुत हद तक समानताएं हैं। उनका संबंध सितारों से है, उसी तरह जिस तरह की हिन्दू देवी-देवताओं का है।

ग्रीस देश के महाकवि होमर ने ईसा की 8वीं शताब्दी में 'ओडिसी' नामक महाकाव्य लिखा था जिसमें उसने अपने समय की देश स्थिति का वर्णन किया है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि आयुर्वेद की 'दैव व्यपाश्रय' पद्धति वहां प्रचलित थी। उसकी दूसरी पुस्तक 'इलियाड' में भारतीय शल्य चिकित्सा के उपयोग का भी वर्णन है।

डॉ. रॉयल अपनी पुस्तक 'सिविलाइजेशन इन इंडिया' में लिखते हैं कि 'विश्व की प्रथम चिकित्सा प्रणाली के लिए हम हिन्दुओं के ऋणी हैं।' ग्रीस की वैद्यकीय चिकित्सा पर भारतीय आयुर्वेद का प्रभाव प्रत्यक्षतः तथा परोक्षतः (मिस्र, ईरान आदि के माध्यमों से) पड़ा था। डोरोथिया चैम्पलीन लिखते हैं- 'भारतीय आयुर्वेद के शरीर विज्ञान में कोई भी विदेशी शब्द नहीं है जबकि पाश्चात्य शरीर विज्ञान पर भारत की छाप स्पष्ट दिखाई देती है।'

सर में मस्तिष्क के ऊपर के भाग को आयुर्वेद में शिरोब्रह्म कहते हैं, वह ग्रीस और रोम में 'सेरेब्रम' हो गया है। वैसे ही मस्तिष्क के पीछे का भाग शिरोविलोम 'सेरिबैलम' और हृद 'हार्ट' हो गए हैं। घोड़ों पर सवार होकर रोगियों की चिकित्सा करने वाले भारतीय अश्विनीकुमारों के युग्म जैसे 'कैक्टस और पोलुपस' ग्रीक युग्म घोड़ों पर सवार होकर रोगियों की रक्षा करते हैं।

प्रसिद्ध इतिहासकार मोनियर विलियम्स ने स्पष्ट बताया है कि यूरोप के प्रथम दार्शनिक प्लेटो और पायथागोरस दोनों दर्शनशास्त्र के विषय में सब तरह से भारतवासियों के ऋणी हैं। पाइथागोरस के नाम से प्रसिद्ध प्रमेय भारत के बौधायन शुल्ब सूत्र में बहुत पहले से ही विद्यमान है।

रोम (800-500 ईसा बाद) 

रोमन सभ्यता के पास खुद का स्वयं का कुछ नहीं था। उसके पास जो भी ज्ञान था वह मिस्र, भारत और यूनान का दिया हुआ था। रोमनों ने ही भारतीय पंचांग और कैलेंडर को देखकर अपना खुद का एक कैलेंडर बनाया।

रोम का साम्राज्य पूरे यूरोप में फैला हुआ होने के कारण रोम की सभ्यता का प्रभाव सारे यूरोप पर पड़ा इसलिए यहां पर केवल एक ही उदाहरण दिया जा सकता रहा है- रोम के मुद्रसकन लोगों के देवता 'तितिया' के अस्त्र का वर्णन भारत के इंद्र के वज्र जैसा ही है।

इतिहासकारों के अनुसार बहुत से भारतीय घूमते-घूमते संसार के अनेक देशों में पहुंचे। वे स्वयं को 'रोम' कहते थे और उनकी भाषा रोमानी थी, परंतु यूरोप में उन्हें 'जिप्सी' कहा जाता था। वे वर्तमान समय के पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि को पार कर पश्चिम की ओर निकल गए थे। वहां से ईरान और इराक होते हुए वे तुर्की पहुंचे। फारस, तौरस की पहाड़ी और कुस्तुन्तुनिया होते हुए वे यूरोप के अनेक देशों में फैल गए।

इस अवधि में वे लोग यह तो भूल गए कि वे कहां के निवासी हैं, परंतु उन्होंने अपनी भाषा, रहन-सहन के ढंग, रीति-रिवाज और व्यवसाय आदि को नहीं छोड़ा। रोम लोगों को उनके नृत्य और संगीत के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि हर एक रोम गायक और अद्भुत कलाकार होता है।

वास्तव में ईसा युग की प्रथम तीन शताब्दियों में भारत का पश्चिम के साथ लाभप्रद समुद्री व्यापार हुआ जिनमें रोम साम्राज्य प्रमुख था। रोम भारतीय सामान का सर्वोत्तम ग्राहक था। यह व्यापार दक्षिण भारत के साथ हुआ, जो कोयम्बटूर और मदुराई में मिले रोम के सिक्कों से सिद्ध होता है। धार्मिक इतिहासकारों के अनुसार राजा विक्रमादित्य से रोम का राजा प्रतिद्वंद्विता रखता था। विक्रमादित्य को ज्योतिष और खगोल विज्ञान में बहुत रुचि थी। वराहमिहिर जैसे विद्वान उनके काल में थे। उनके प्रयासों के चलते ही आज दुनिया ने खगोल में उन्नति की।

हरिदत्त शर्मा ज्योति विश्वकोष के अनुसार राजा विक्रमादित्य ने ही अपना दिल्ली में एक 'ध्रुव स्तंभ' बनवाया था जिसे आज 'कुतुब मीनार' कहते हैं। दरअसल, यह ध्रुव स्तंभ 'हिन्दू नक्षत्र निरीक्षण केंद्र' है। कुतुब मीनार के आसपास दोनों पहाड़ियों के बीच से ही सूर्यास्त होता है। वराहमिहिर के अनुसार 21 जून को सूर्य ठीक इसके ऊपर से निकलता है। कुतुबुद्दीन लुटेरा तो मात्र 4 साल ही भारत में रहा और चला ‍गया, जबकि यह कुतुब मीनार (ध्रुव स्तंभ) 2 हजार वर्ष पुराना‍ सि‍द्ध किया गया है।

माया सभ्यता (250 ईस्वी से 900 ईस्वी)

 अमेरिका की प्राचीन माया सभ्यता ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडुरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में स्थापित थी। यह एक कृषि पर आधारित सभ्यता थी। 250 ईस्वी से 900 ईस्वी के बीच माया सभ्यता अपने चरम पर थी। इस सभ्यता में खगोल शास्त्र, गणित और कालचक्र को काफी महत्व दिया जाता था। मैक्सिको इस सभ्यता का गढ़ था। आज भी यहां इस सभ्यता के अनुयायी रहते हैं।

यूं तो इस इलाके में ईसा से 10 हजार साल पहले से बसावट शुरू होने के प्रमाण मिले हैं और 1800 साल ईसा पूर्व से प्रशांत महासागर के तटीय इलाक़ों में गांव भी बसने शुरू हो चुके थे। लेकिन कुछ पुरातत्ववेत्ताओं का मानना है कि ईसा से कोई एक हजार साल पहले माया सभ्यता के लोगों ने आनुष्ठानिक इमारतें बनाना शुरू कर दिया था और 600 साल ईसा पूर्व तक बहुत से परिसर बना लिए थे। सन् 250 से 900 के बीच विशाल स्तर पर भवन निर्माण कार्य हुआ, शहर बसे। उनकी सबसे उल्लेखनीय इमारतें पिरामिड हैं, जो उन्होंने धार्मिक केंद्रों में बनाईं लेकिन फिर सन् 900 के बाद माया सभ्यता के इन नगरों का ह्रास होने लगा और नगर खाली हो गए।

माया सभ्यता का पंचांग 3114 ईसा पूर्व शुरू किया गया था। इस कैलेंडर में हर 394 वर्ष के बाद बाकतुन नाम के एक काल का अंत होता है। 21 दिसबंर, 2012 को उस कैलेंडर का 13वां बाकतुन खत्म हो जाएगा। हालांकि माया सभ्यता के बारे में कहा जाता है कि यह भी सिन्धु घाटी और मिस्र की सभ्यताओं की तरह सबसे रहस्यमयी सभ्यता है, जो अपने भीतर कई अनसुलझे रहस्य समेटे हुए है।

अमेरिकन इतिहासकार मानते हैं‍ कि भारतीय आर्यों ने ही अमेरिका महाद्वीप पर सबसे पहले बस्तियां बनाई थीं। अमेरिका के रेड इंडियन वहां के आदि निवासी माने जाते हैं और हिन्दू संस्कृति वहां पर आज से हजारों साल पहले पहुंच गई थी। माना जाता है कि यह बसाहट महाभारतकाल में हुई थी।

चिली, पेरू और बोलीविया में हिन्दू धर्म

अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया (वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना ने नेटिव अमेरिकन की एक 45वीं मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वास्तिक था। नाजियों की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।

भारतीय उपमहाद्वीप के राष्ट्रों की सभ्यताएं...

कम्बोडिया और हिन्दू धर्म 

कम्बोडिया : कम्बोडिया जिसे पहले कंपूचिया और उससे पहले कम्बोज के नाम से जाना जाता था, यह दक्षिण-पूर्व एशिया का एक प्रमुख देश है। पहले यह हिन्दू राष्ट्र था, अब बौद्ध राष्ट्र है। लगभग 600 वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिन्दू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योग दिया, तत्पश्चात इस क्षेत्र में कम्बुज या कम्बोज का महान राज्य स्थापित हुआ।

माना जाता है कि प्रथम शताब्दी में कौंडिन्य नामक एक ब्राह्मण ने हिन्द-चीन में हिन्दू राज्य की स्थापना की। इन्हीं के नाम पर कम्बोडिया देश हुआ। हिन्द-चीन ने मिलकर यहां खमेर साम्राज्य की स्थापना की थी। यह भी माना जाता है कि भारतीय राज्य कम्बोज के उपनिवेश के रूप में कम्बोडिया की स्थापना हुई थी।

कम्बोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के शिवभक्त राजा कम्बु स्वायंभुव ने डाली थी। वे इस भयानक जंगल में आए और यहां बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने यहां एक नया राज्य बसाया, जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे-भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कम्बु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कम्बुज राजवंश की नींव डाली।

कम्बोडिया में हजारों प्राचीन हिन्दू और बौद्ध मंदिर है। गौरतलब है कि एएसआई कम्बोडिया स्थित 'ता प्रोहम मंदिर' का जीर्णोद्धार कर रहा है। कम्बोडिया में ही भगवान विष्णु का सबसे पुराना मंदिर है। अभिलेखों से प्राप्त जानकारी के अनुसार 1,000 वर्ष पहले भारत से कई लोग कम्बोडिया गए और वहां मंदिरों का निर्माण कराया।

इसके साथ कम्बोडिया में एक प्राचीन शिव मंदिर भी था, जहां से 17 अभिलेख मिले थे, लेकिन उस मंदिर के अब कुछ अवशेष ही शेष रह गए हैं। इस मंदिर के इतिहास की भी जानकारी उन अभिलेखों में मिलेगी। इसी तरह विष्णु का प्राचीन मंदिन अंगकोर वट सबसे पुराना विष्णु का मंदिर है, वहां से भी कई अभिलेख मिले हैं, जिन्हें पढ़ने का काम शुरू किया जा रहा है।

वियतनाम और हिन्दू धर्म...

वियतनाम : वियतनाम का इतिहास 2,700 वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। वियतनाम का पुराना नाम चम्पा था। चम्पा के लोग और चाम कहलाते थे और उनके राजा शैव थे। दूसरी शताब्दी में स्थापित चंपा भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। यहां के चम लोगों ने भारतीय धर्म, भाषा, सभ्यता ग्रहण की थी। 1825 में चंपा के महान हिन्दू राज्य का अंत हुआ।

श्री भद्रवर्मन् जिसका नाम चीनी इतिहास में फन-हु-ता (380-413 ई.) मिलता है, चंपा के प्रसिद्ध सम्राटों में से है जिसने अपनी विजयों ओर सांस्कृतिक कार्यों से चंपा का गौरव बढ़ाया। किंतु उसके पुत्र गंगाराज ने सिंहासन का त्याग कर अपने जीवन के अंतिम दिन भारत में आकर गंगा के तट पर व्यतीत किए। चम्पा संस्कृति के अवशेष वियतनाम में अभी भी मिलते हैं। इनमें से कई शैव मन्दिर हैं।

नृजातीय तथा भाषायी दृष्टि से चम्पा के लोग चाम (मलय पॉलीनेशियन) थे। वर्तमान समय में चाम लोग वियतनाम और कम्बोडिया के सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं। आरम्भ में चम्पा के लोग और राजा शैव थे लेकिन कुछ सौ साल पहले इस्लाम यहां फैलना शुरु हुआ। अब अधिक चाम लोग मुसलमान हैं पर हिन्दू और बौद्ध चाम भी हैं। भारतीयों के आगमन से पूर्व यहां के निवासी दो उपशाखाओं में विभक्त थे। जो भारतीयों के संपर्क में सभ्य हो गए वे कालांतर में चंपा के नाम पर ही चम के नाम से विख्यात हुए और जो बर्बर थे वे 'चमम्लेच्छ' और 'किरात' आदि कहलाए। हालांकि संपूर्ण वियतनाम पर चीन का राजवंशों का शासन ही अधिक रहा।

मलेशिया और हिन्दू धर्म 

सिंगापुर पहले मलेशिया का ही हिस्सा था। पहले इसे सिंहपुर कहा जाता था। 'मलय' शब्द का संस्कृत में अर्थ होता है- 'पहाड़ों की भूमि'। प्रथम शताब्दी में साहसी भारतीयों ने मलेशिया पहुंचकर वहां के निवासियों को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से परिचित करवाया और मलेशिया में नगरों और मंदिरों का निर्माण किया। कालांतर में मलेशिया में शैव, वैष्णव तथा बौद्ध धर्म का प्रचलन हो गया। 1957 में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो यह संप्रभुता संपन्न राज्य बना।

उत्तर मलेशिया में बुजांग घाटी तथा मरबाक के समुद्री किनारे के पास पुराने समय के अनेक हिन्दू तथा बौद्ध मंदिर आज भी हैं। मलेशिया अंग्रेजों की गुलामी से 1957 में मुक्त हुआ।

इस्लामिक प्रचार प्रसार के चलते मलेशिया अब एक मुस्लिम बहुल देश है। मलेशिया की जनसंख्या ढाई करोड़ के करीब है। यहां मलय वंश के लोगों की संख्या लगभग 55 प्रतिशत है। मुस्लिमों की संख्या 55 प्रतिशत से ज्यादा होने के कारण अब इसे इस्लामिक गणराज्य घोषित कर दिया गया है। हालांकि यहां के मुसलमान अपने पुराने धर्म का सम्मान करते हैं। अब यहां हिन्दू महज 6 प्रतिशत ही रह गए हैं।

इंडोनेशिया और हिन्दू धर्म

इण्डोनेशिया : इण्डोनेशिया किसी समय में भारत का एक संपन्न राज्य था। आज इण्डोनेशिया में बाली द्वीप को छोड़कर शेष सभी द्वीपों पर मुसलमान बहुसंख्यक हैं, फिर भी हिन्दू देवी-देवताओं से यहां का जनमानस आज भी परंपराओं के माधयम से जुड़ा है।

फिलीपींस

फिलीपींस में किसी समय भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रभाव था, पर 15वीं शताब्दी में मुसलमानों ने आक्रमण कर वहां आधिपत्य जमा लिया। आज भी फिलीपींस में कुछ हिन्दू रीति-रिवाज प्रचलित हैं।

थाइलैंड

थाइलैण्ड की जनसंख्या लगभग छह करोड़ दस लाख है। सभी लोग एक ही वंश अथवा धर्म के नहीं हैं। इनमें से 92-93 प्रतिशत बौद्ध, 3-4 प्रतिशत मुसलमान, 1 प्रतिशत से भी कम ईसाई और शेष हिन्दू हैं। बौद्ध धर्म वहां का राष्ट्रीय धर्म माना जाता है। थाइ बौद्ध थेरावद पंथ के लोग हैं।

साभार: webdunia संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

Tuesday, May 5, 2015

भारत के बारे में 41 रोचक तथ्‍य

1. भारत ने अपने आखिरी 100000 वर्षों के इतिहास में किसी भी देश पर हमला नहीं किया है।

2. जब कई संस्कृतियों में 5000 साल पहले लोग घुमंतू वनवासी थे, तब भारतीयों ने सिंधु घाटी (सिंधु घाटी सभ्यता) में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की।

3. 

भारत का अंग्रेजी में नाम ‘इंडिया’ इं‍डस नदी से बना है, जिसके आसपास की घाटी में आरंभिक सभ्‍यताएं निवास करती थीं। आर्य पूजकों में इस इंडस नदी को सिंधु नाम दिया था।

4. ईरान से आए आक्रमणकारियों ने सिंधु को हिन्दू की तरह प्रयोग किया। ‘हिंदुस्तान’ नाम सिंधु और हिंदु का संयोजन है, जो कि हिंदुओं की भूमि के संदर्भ में प्रयुक्त होता है।

5. शतरंज की खोज भारत में की गई थी।

6. बीज गणित, त्रिकोणमिति और कलन (कैलकुलस) का अध्‍ययन भारत में ही आरंभ हुआ था।

7. ‘स्‍थान मूल्‍य प्रणाली’ और 'दशमलव प्रणाली' का विकास भारत में 100 बीसी में हुआ था।

8. विश्‍व का प्रथम ग्रेनाइट मंदिर तमिलनाडु के तंजौर में बृहदेश्‍वर मंदिर है। इस मंदिर के शिखर ग्रेनाइट के 80 टन के टुकड़ों से बने हैं। यह भव्‍य मंदिर राजाराज चोल के राज्‍य के दौरान केवल 5 वर्ष की अवधि में (1004 एडी और 1009 एडी के दौरान) निर्मित किया गया था।

9. भारत विश्‍व का सबसे बड़ा लोकतंत्र और विश्‍व का सातवां सबसे बड़ा देश तथा प्राचीन सभ्‍यताओं में से एक है।

10. सांप सीढ़ी का खेल तेरहवीं शताब्‍दी में कवि संत ज्ञानदेव द्वारा तैयार किया गया था इसे मूल रूप से मोक्षपट कहते थे। इस खेल में सीढ़ियां वरदानों का प्रतिनिधित्‍व करती थीं जबकि सांप अवगुणों को दर्शाते थे। इस खेल को कौड़ियों तथा पांसे के साथ खेला जाता था। आगे चल कर इस खेल में कई बदलाव किए गए, परन्‍तु इसका अर्थ वही रहा अर्थात अच्‍छे काम लोगों को स्‍वर्ग की ओर ले जाते हैं, जबकि बुरे काम दोबारा जन्‍म के चक्र में डाल देते हैं।

11. दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट का मैदान हिमाचल प्रदेश के चायल नामक स्‍थान पर है। इसे समुद्री सतह से 2444 मीटर की ऊंचाई पर भूमि को समतल बना कर 1893 में तैयार किया गया था।

12. भारत में विश्‍व भर से सबसे अधिक संख्‍या में डाक खाने (पोस्ट ऑफिस) स्थित हैं

13. भारतीय रेल देश का सबसे बड़ा नियोक्ता है। यह दस लाख से अधिक लोगों को रोजगार प्रदान करता है।

14. विश्‍व का सबसे प्रथम विश्‍वविद्यालय 700 बीसी में तक्षशिला में स्‍थापित किया गया था। इसमें 60 से अधिक विषयों में 10,500 से अधिक छात्र दुनियाभर से आकर अध्‍ययन करते थे। नालंदा विश्‍वविद्यालय चौथी शताब्‍दी में स्‍थापित किया गया था, जो शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन भारत की महानतम उपलब्धियों में से एक है।

15. आयुर्वेद मानव जाति के लिए ज्ञात सबसे आरंभिक चिकित्‍सा शाखा है। शाखा विज्ञान के जनक माने जाने वाले चरक ने 2500 वर्ष पहले आयुर्वेद का समेकन किया था।

16. भारत 17वीं शताब्‍दी के आरंभ तक ब्रिटिश राज्‍य आने से पहले सबसे सम्‍पन्‍न देश था। क्रिस्‍टोफर कोलम्‍बस भारत की सम्‍पन्‍नता से आकर्षित हो कर भारत आने का समुद्री मार्ग खोजने चला और उसने गलती से अमेरिका को खोज लिया।

17. नौवहन की कला और नौवहन का जन्‍म 6000 वर्ष पहले सिंधु नदी में हुआ था। दुनिया का सबसे पहला नौवहन संस्‍कृ‍त शब्‍द नावा गाठी से उत्‍पन्‍न हुआ है। शब्‍द नौसेना भी संस्‍कृत शब्‍द नोउ से हुआ।

18. भास्‍कराचार्य ने खगोलशास्‍त्र के जन्म लेने से कई सौ साल पहले पृथ्‍वी द्वारा सूर्य के चारों ओर चक्‍कर लगाने में लगने वाले सही समय की गणना की थी। उनकी गणना के अनुसार सूर्य की परिक्रमा में पृथ्‍वी को 365.258756484 दिन का समय लगता है।

9. भारतीय गणितज्ञ बुधायन द्वारा 'पाई' का मूल्‍य ज्ञात किया गया था और उन्‍होंने जिस संकल्‍पना को समझाया उसे पाइथागोरस का प्रमेय करते हैं। उन्‍होंने इसकी खोज छठवीं शताब्‍दी में की, जो यूरोपीय गणितज्ञों से काफी पहले की गई थी।

20. चतुष्‍पद समीकरण का उपयोग 11वीं शताब्‍दी में श्रीधराचार्य द्वारा किया गया था। ग्रीक तथा रोमनों द्वारा उपयोग की गई की सबसे बड़ी संख्‍या 106 थी जबकि हिन्‍दुओं ने 10*53 जितने बड़े अंकों का उपयोग (अर्थात 10 की घात 53), के साथ विशिष्‍ट नाम 5000 बीसी के दौरान किया। आज भी उपयोग की जाने वाली सबसे बड़ी संख्‍या टेरा: 10*12 (10 की घात12) है।

21. वर्ष 1896 तक भारत विश्‍व में हीरे का एक मात्र स्रोत था। (स्रोत: जेमोलॉजिकल इंस्‍टी‍ट्यूट ऑफ अमेरिका)

22. बेलीपुल विश्‍व‍ में सबसे ऊंचा पुल है। यह हिमाचल पर्वत में द्रास और सुरु नदियों के बीच लद्दाख घाटी में स्थित है। इसका निर्माण अगस्‍त 1982 में भारतीय सेना द्वारा किया गया था।

23. महर्षि सुश्रुत को शल्‍य चिकित्‍सा का जनक माना जाता है। लगभग 2600 वर्ष पहले सुश्रुत और उनके सहयोगियों ने मोतियाबिंद, कृत्रिम अंगों को लगना, शल्‍य क्रिया द्वारा प्रसव, अस्थिभंग जोड़ना, मूत्राशय की पथरी, प्‍लास्टिक सर्जरी और मस्तिष्‍क की शल्‍य क्रियाएं आदि कीं।

24. निश्‍चेतक का उपयोग भारतीय प्राचीन चिकित्‍सा विज्ञान में भली भांति ज्ञात था। शारीरिकी, भ्रूण विज्ञान, पाचन, चयापचय, शरीर क्रिया विज्ञान, इटियोलॉजी, आनुवांशिकी और प्रतिरक्षा विज्ञान आदि विषय भी प्राचीन भारतीय ग्रंथों में पाए जाते हैं।

25. भारत से 90 देशों को सॉफ्टवेयर का निर्यात किया जाता है।

26. भारत में 4 धर्मों का जन्‍म हुआ - हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म और जिनका पालन दुनिया की आबादी का 25 प्रतिशत हिस्‍सा करता है।

27. जैन धर्म और बौद्ध धर्म की स्‍थापना भारत में क्रमश: 600 बीसी और 500 बीसी में हुई थी।

28. इस्‍लाम भारत का और दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है।

29. भारत में 3,00,000 मस्जिदें हैं जो किसी अन्‍य देश से अधिक हैं, यहां तक कि मुस्लिम देशों से भी अधिक।

30. भारत में सबसे पुराना यूरोपियन चर्च और सिनागोग कोचीन शहर में है। इनका निर्माण क्रमश: 1503 और 1568 में किया गया था।

31. ज्‍यू (यहूदी) और ईसाई व्‍यक्ति भारत में क्रमश: 200 बीसी और 52 एडी से निवास करते आए हैं।

32. विश्‍व में सबसे बड़ा धार्मिक भवन अंगकोरवाट, का हिन्‍दू मंदिर है जो कम्‍बोडिया में 11वीं शताब्‍दी के दौरान बनाया गया था।

33. तिरुपति शहर में बना विष्‍णु मंदिर 10वीं शताब्‍दी के दौरान बनाया गया था, यह विश्‍व का सबसे बड़ा धार्मिक स्थल है। रोम या मक्‍का धार्मिक स्‍थलों से भी बड़े इस स्‍थान पर प्रतिदिन औसतन 30 हजार श्रद्धालु आते हैं और लगभग 6 मिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति दिन चढ़ावा आता है।

34. सिख धर्म का उद्भव पंजाब के पवित्र शहर अमृतसर में हुआ था। यहां प्रसिद्ध स्‍वर्ण मंदिर की स्‍थापना 1577 में गई थी।

35. वाराणसी, जिसे बनारस के नाम से भी जाना जाता है, एक प्राचीन शहर है जब भगवान बुद्ध ने 500 बीसी में यहां आगमन किया और यह आज विश्‍व का सबसे पुराना और निरंतर आगे बढ़ने वाला शहर है।

36. भारत द्वारा श्रीलंका, तिब्‍बत, भूटान, अफगानिस्‍तान और बांग्‍लादेश के 3,00,000 से अधिक शरणार्थियों को सुरक्षा दी जाती है, जो धार्मिक और राजनैतिक अभियोजन के फलस्‍वरूप वहां से निकाले गए हैं।

37. माननीय दलाई लामा तिब्‍बती बौद्ध धर्म के निर्वासित धार्मिक नेता है, जो उत्तरी भारत के धर्मशाला में अपने निर्वासन में रह रहे हैं।

38. युद्ध कलाओं का विकास सबसे पहले भारत में किया गया और ये बौद्ध धर्म प्रचारकों द्वारा पूरे एशिया में फैलाई गई।

39. योग कला का उद्भव भारत में हुआ है और यह 5,000 वर्ष से अधिक समय से मौजूद है।

40. संख्या प्रणाली भारत द्वारा आविष्कार किया गया था। आर्यभट्ट नामक वैज्ञानिक ने अंक शून्य का आविष्कार किया था।

41. संस्कृत सभी उच्च भाषाओं की जननी माना जाता है क्योंकि यह कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए सबसे सटीक है और इसलिए उपयुक्त भाषा है। (फ़ोर्ब्स पत्रिका की एक रिपोर्ट, जुलाई 1987)।

साभार : वेबदुनिया 


Wednesday, April 29, 2015

अफगानिस्तान कभी आर्याना था

आज अफगानिस्तान और इस्लाम एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं, इसमें शक नहीं लेकिन यह भी सत्य है कि वह देश जितने समय से इस्लामी है, उससे कई गुना समय तक वह गैर-इस्लामी रह चुका है। इस्लाम तो अभी एक हजार साल पहले ही अफगानिस्तान पहुँचा, उसके कई हजार साल पहले तक वह आर्यों, बौद्धों और हिन्दुओं का देश रहा है। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, महान संस्कृत वैयाकरण आचार्य पाणिनी और गुरू गोरखनाथ पठान ही थे। जब पहली बार मैंने अफगान लड़कों के नाम कनिष्क और हुविष्क तथा लड़कियों के नाम वेदा और अवेस्ता सुने तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। अफगानिस्तान की सबसे बड़ी होटलों की श्रृंखला का नाम ‘आर्याना’ था और हवाई कम्पनी भी ‘आर्याना’ के नाम से जानी जाती थी। भारत के पंजाबियों, राजपूतों और अग्रवालों के गोत्र-नाम अब भी अनेक पठान कबीलों में ज्यों के त्यों मिल जाते हैं। मंगल, स्थानकजई, कक्कर, सीकरी, सूरी, बहल, बामी, उष्ट्राना, खरोटी आदि गोत्र पठानों के नामों के साथ जुड़े देखकर कौन चकित नहीं रह जाएगा ? ग़ज़नी और गर्देज़ के बीच एक गाँव के हिन्दू से जब मैंने पूछा कि आपके पूर्वज भारत से अफगानिस्तान कब आए तो उसने तमककर कहा ‘जबसे अफगानिस्तान ज़मीन पर आया।’ इस अफगान हिन्दू की बोली न पश्तो थी, न फारसी, न पंजाबी। वह शायद ब्राहुई थी, जो वर्तमान अफगानिस्तान की सबसे पुरानी भाषा है और वेदों की भाषा के भी बहुत निकट है।

छठी शताब्दि के वराहमिहिर के ग्रन्थ ‘वृहत् संहिता’ में पहली बार ‘अवगाण’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसके पहले तीसरी शताब्दि के एक ईरानी शिलालेख में ‘अबगान’ शब्द का उल्लेख माना जाता है। फ्रांसीसी विद्वान साँ-मार्टिन के अनुसार अफगान शब्द संस्कृत के ‘अश्वक’ या ‘अशक’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है-अश्वारोही या घुड़सवार ! संस्कृत साहित्य में अफगानिस्तान के लिए ‘अश्वकायन’ (घुड़सवारों का मार्ग) शब्द भी मिलता है। वैसे अफगानिस्तान नाम का विशेष-प्रचलन अहमद शाह दुर्रानी के शासन-काल (1747-1773) में ही हुआ। इसके पूर्व अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम् वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से पुकारा जाता था।

पारसी मत के प्रवत्र्तक जरथ्रुष्ट द्वारा रचित ग्रन्थ ‘जिन्दावेस्ता’ में इस भूखण्ड को ऐरीन-वीजो या आर्यानुम् वीजो कहा गया है। अफगान इतिहासकार फज़ले रबी पझवक के अनुसार ये शब्द संस्कृत के आर्यावत्र्त या आर्या-वर्ष से मिलते-जुलते हैं। उनकी राय में आर्य का मतलब होता है-श्रेष्ठ या सम्मानीय और पश्तो भाषा में वर्ष का मतलब होता है–चर भूमि ! अर्थात् आर्यानुम् वीज़ो का मतलब है–आर्यों की भूमि ! प्रसिद्ध अफगान इतिहासकार मोहम्मद अली और प्रो0 पझवक का यह दावा है कि ऋग्वेद की रचना वर्तमान भारत की सीमाओं में नहीं, बल्कि आर्योंके आदि देश में हुई, जिसे आज सारी दुनिया अफगानिस्तान के नाम से जानती है। कुछ पश्चिमी विद्वानों ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि अफगान लोग यहूदियों की सन्तान हैं और मुस्लिम इतिहासकारों का कहना है कि अरब देशों से आकर वे इस इलाके में बस गए। लेकिन प्राचीन ग्रन्थों में मिलनेवाले अन्तर्साक्ष्यों तथा शिलालेखों, मूर्तियों, सिक्कों, खंडहरों, बर्तनों और आभूषणों आदि के बाहिर्साक्ष्य के आधार पर अकाट्य रूप से माना जा सकता है कि अफगान लोग मध्य एशिया के मूल निवासी हैं। वे अरब भूमि, यूरोप या उत्तरी ध्रुव से आए हुए लोग नहीं हैं। हाँ, इतिहास में हुए फेर-बदल तथा उथल-पुथल के दौरान जिसे हम आज अफगानिस्तान कहते हैं, उस क्षेत्र की सीमाएँ या संज्ञाएँ हजार-पाँच सौ मील दाएँ-बाएँ और ऊपर-नीचे होती रही हैं तथा दुनिया के इस चैराहे से गुजरनेवाले आक्रान्ताओं, व्यापारियों, धर्मप्रचारकों तथा यात्रियों के वंशज स्थानीय लोगों में घुलते-मिलते रहे हैं।

विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में पख्तून लोगों और अफगान नदियों का उल्लेख है। दाशराज्ञ-युद्ध में ‘पख्तुओं’ का उल्लेख पुरू कबीले के सहयोगियों के रूप में हुआ है। जिन नदियों को आजकल हम आमू, काबुल, कुर्रम, रंगा, गोमल, हरिरूद आदि नामों से जानते हैं, उन्हें प्राचीन भारतीय लोग क्रमशः वक्षु, कुभा, कु्रम, रसा, गोमती, हर्यू या सर्यू के नाम से जानते थे। जिन स्थानों के नाम आजकल काबुल, कन्धार, बल्ख, वाखान, बगराम, पामीर, बदख्शाँ, पेशावर, स्वात, चारसद्दा आदि हैं, उन्हें संस्कृत और प्राकृत-पालि साहित्य में क्रमशः कुभा या कुहका, गन्धार, बाल्हीक, वोक्काण, कपिशा, मेरू, कम्बोज, पुरुषपुर, सुवास्तु, पुष्कलावती आदि के नाम से जाना जाता था। हेलमंद नदी का नाम अवेस्ता के हायतुमन्त शब्द से निकला है, जो संस्कृत के ‘सतुमन्त’ का अपभ्रन्श है। इसी प्रकार प्रसिद्ध पठान कबीले ‘मोहमंद’ को पाणिनी ने ‘मधुमन्त’ और अफरीदी को ‘आप्रीताः’ कहकर पुकारा है। महाभारत में गान्धारी के देश के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। हस्तिनापुर के राजा संवरण पर जब सुदास ने आक्रमण्पा किया तो संवरण की सहायता के लिए जो ‘पस्थ’ लोग पश्चिम से आए, वे पठान ही थे। छान्दोग्य उपनिषद्, मार्कण्डेय पुराण, ब्राह्मण ग्रन्थों तथा बौद्ध साहित्य में अफगानिस्तान के इतने अधिक और विविध सन्दर्भ उपलब्ध हैं कि उन्हें पढ़कर लगता है कि अफगानिस्तान तो भारत ही है, अपने पूर्वजों का ही देश है। यदि अफगानिस्तान को अपने स्मृति-पटल से हटा दिया जाए तो भारत का सांस्कृतिक-इतिहास लिखना असम्भव है। लगभग डेढ़ करोड़ निवासियों के इस भू-वेष्टित देश में हिन्दुकुश पर्वत का वही महत्व है जो भारत में हिमालय का है या मिस्र में नील नदी का है ! इब्न वतूता का कहना है कि इस पर्वत को हिन्दुकुश इसलिए कहते हैं कि हिन्दुस्तान से लाए जानेवाले गुलाम लड़के और लड़कियाँ इस क्षेत्र में भयानक ठंड के कारण मर जाते थे। हिन्दुकुश अर्थात् हिन्दुओं को मारनेवाला ! लेकिन अफगान विद्वान फज़ले रबी पझवक की मान्यता है कि यदि हिन्दुकुश शब्द का अर्थ प्राचीन बख्तरी भाषा तथा पश्तो के आधार पर किया जाए तो हिन्दुकुश का मतलब होगा–नदियों का उद्गम ! बख्तरी भाषा में स को ह कहने का रिवाज है। अतः सिन्धु से हिन्दू बन गया। सिन्धू का मतलब होता है–नदी ! वास्तव में हिन्दुकुश पर्वत से, जो कि हिमालय की एक पश्चिमी शाखा है, अफगानिस्तान को कई महत्वपूर्ण नदियों का उद्गम और सिंचन होता है। वक्षु, काबुल, हरीरूद और हेलमंद आदि नदियों का पिता हिन्दुकुश ही है। वर्षा की कमी के कारण जब अफगानिस्तान की नदियाँ सूखने लगती हैं तो हिन्दुकुश का बर्फ पिघल-पिघलकर उनकी प्यास बुझाता है।

ऋग्वेद और ‘जिन्दावस्ता’ दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रन्थ माने जाते हैं। दोनों की रचना अफगानिस्तान में हुई, ऐसा बहुत-से यूरोपीय विद्वान भी मानते हैं। उन्होंने अनेक तर्क और प्रमाण भी दिए हैं। अवेस्ता के रचनाकार महर्षि जरथ्रुष्ट का जन्म उत्तरी अफगानिस्तान में बल्ख के आस-पास हुआ और वहीं रहकर उन्होंने पारसी धर्म का प्रचलन किया, जो लगभग एक हजार साल तक ईरान का राष्ट्रीय धर्म बना रहा। वेदों और अवेस्ता की भाषा ही एक जैसी नहीं है बल्कि उनके देवताओं के नाम मित्र, इन्द्र, वरुण–आदि भी एक-जैसे हैं। देवासुर संग्रामों के वर्णन भी दोनों में मिलते हैं। अब से लगभग 2500 साल पहले ईरानी राजाओं–देरियस और सायरस– ने अफगान क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा लिया था। देरियस के शिलालेख में खुद को ऐर्य ऐर्यपुत्र (आर्य आर्यपुत्र) कहता है। हिन्दुकुश के उत्तरी क्षेत्र को उन्होंने बेक्ट्रिया तथा दक्षिणी क्षेत्र को गान्धार कहा। दो सौ साल बाद यूनानी विजेता सिकन्दर इस क्षेत्र में घुस आया। सिकन्दर के सेनापतियों ने इस क्षेत्र पर लगभग दो सौ साल तक अपना वर्चस्व बनाए रखा। उन्होंने अपना साम्राज्य मध्य एशिया और पंजाब के आगे तक फैलाया। आज भी अनेक अफगानों को देखते ही आप तुरन्त समझ सकते हैं कि वे यूनानियों की तरह क्यों लगते हैं। आमू दरिया और कोकचा नदी के किनारे बसे गाँव ‘आया खानुम’ की खुदाई में अभी कुछ वर्ष पहले ही ग्रीक साम्राज्य के वैभव के प्रचुर प्रमाण मिले हैं।

ईसा के तीन सौ साल पहले जब अफगानिस्तान में यूनानी साम्राज्य दनदना रहा था, भारत में मौर्य साम्राज्य-चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार और अशोक-का उदय हो चुका था। अशोक ने बौद्ध धर्म को अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक फैला दिया। बौद्ध धर्म चीन, जापान और कोरिया समुद्र के रास्तांे नहीं गया बल्कि अफगानिस्तान और मध्य एशिया के थल-मार्गों से होकर गया। पालि-साहित्य में नग्नजित् और पुक्कुसाति नामक दो अफगान राजाओं का उल्लेख भी आता है, जो गान्धार के स्वामी थे और बिन्दुसार के समकालीन थे। गन्धार राज्य की राजधानी तक्षशिला थी, जिसके स्नातकों में जीवक जैसे वैद्य और कोसलराज प्रसेनजित जैसे राजकुमार भी थे। चन्द्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस के बीच हुई सन्धि के कारण अनेक अफगान और बलूच क्षेत्र बौद्ध प्रभाव में पहले ही आ चुके थे। ये सब क्षेत्र और इनके अलावा मध्य एशिया का लम्बा-चैड़ा भू-भाग ईसा की पहली सदी में जिन राजाओं के वर्चस्व में आया, वे भी बौद्ध ही थे। कुषाण साम्राज्य के इन राजाओं–कनिष्क, हुविष्क, वासुदेव–आदि ने सम्पूर्ण अफगानिस्तान को तो बुद्ध का अनुनायी बनाया ही, बौद्ध धर्म को दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचा दिया। चीनी इतिहासकारों ने लिखा है कि सन् 383 से लेकर 810 तक अनेक बौद्ध ग्रन्थों का चीनी अनुवाद अफगान बौद्ध भिक्षुओं ने ही किया था। बौद्ध धर्म की ‘महायान’ शाखा का प्रारम्भ अफगानिस्तान में ही हुआ। विश्व प्रसिद्ध गांधार-कला का परिपाक कुषाण-काल में ही हुआ। आजकल हम जिस बगराम हवाई अड्डे का नाम बहुत सुनते हैं, वह कभी कुषाणों की राजधानी था। उसका नाम था, कपीसी। पुले-खुमरी से 16 कि0मी0 उत्तर में सुर्ख कोतल नामक जगह में कनिष्क-काल के भव्य खण्डहर अब भी देखे जा सकते हैं। इन्हें ‘कुहना मस्जिद’ के नाम से जाना जाता है। पेशावर और लाहौर के संग्रहालयों में इस काल की विलक्षण कलाकृतियाँ अब भी सुरक्षित हैं।

अफगानिस्तान के बामियान, जलालाबाद, बगराम, काबुल, बल्ख आदि स्थानों में अनेक मूर्तियों, स्तूपों, संघारामों, विश्वविद्यालयों और मंदिरों के अवशेष मिलते हैं। काबुल के आसामाई मन्दिर को दो हजार साल पुराना बताया जाता है। आसामाई पहाड़ पर खड़ी पत्थर की दीवार को ‘हिन्दुशाहों’ द्वारा निर्मित परकोटे के रूप में देखा जाता है। काबुल का संग्रहालय बौद्ध अवशेषों का खज़ाना रहा है। अफगान अतीत की इस धरोहर को पहले मुजाहिदीन और अब तालिबान ने लगभग नष्ट कर दिया है। बामियान की सबसे ऊँची और विश्व-प्रसिद्ध बुद्ध प्रतिमाओं को भी उन्होंने निःशेष कर दिया है। फाह्यान और ह्नेन सांग ने अपने यात्रा-वृतान्तों में इन महान प्रतिमाओं, अफगानों की बुद्ध-भक्ति और बौद्ध धर्म केन्द्रों का अत्यन्त श्रद्धापूर्वक चित्रण किया है। अब उनके खण्डहर भी स्मृति के विषय हो गए हैं। जलालाबाद के पास अवस्थित हद्दा में मिट्टी की दो हजार साल पुरानी जीवन्त मूर्तियाँ चीन में सियान के मिट्टी के सिपाहियों जैसी थीं याने उनकी गणना विश्व के आश्चर्यों में की जा सकती थी। वे भी मुजाहिदीन हमलों में नष्ट हो चुकी हैं। बुतपरस्ती का विरोध करने के नाम पर गुमराह इस्लामवादी तत्वों ने अपने बाप-दादों के स्मृति-चिन्ह भी मिटा दिए।

इस्लाम के नौ सौ साल के हमलों के बावजूद अफगानिस्तान का एक इलाका 100 साल पहले तक अपनी प्राचीन सभ्यता को सुरक्षित रख पाया था। उसका नाम है, काफिरिस्तान। यह स्थान पाकिस्तान की सीमा पर स्थित चित्राल के निकट है। तैमूर लंग, बाबर तथा अन्य बादशाहों के हमलों का इन ‘काफिरों’ ने सदा डटकर मुकाबला किया और अपना धर्म-परिवर्तन नहीं होने दिया। अफगानिस्तान की कुणार और पंजशीर घाटी के पास रहनेवाले ये पर्वतीय लोग जो भाषा बोलते हैं, उसके शब्द ज्यों के त्यों वेदों की संस्कृत में पाए जाते हैं। ये इन्द्र, मित्र, वरुण, गविष, सिंह, निर्मालनी आदि देवी-देवताओं की पूजा करते थे। इनके देवताओं की काष्ठ प्रतिमाएँ मैंने स्वयं काबुल संग्रहालय में देखी हैं। चग सराय नामक स्थान पर हजार-बारह सौ साल पुराने एक हिन्दू मन्दिर के खण्डहर भी मिले हैं। सन् 1896 में अमीर अब्दुर रहमान ने इन काफिरों को तलवार के जोर पर मुसलमान बना लिया। कुछ पश्चिमी इतिहासकारों का मानना है कि ये काफिर लोग हिन्दुओं की तरह चोटी रखते थे और हवि आदि भी देते थे। अमीर अब्दुर रहमान को डर था कि ब्रिटिश शासन की मदद से इन लोगों को कहीं ईसाई न बना लिया जाए।

अफगानिस्तान में इस्लाम के आगमन के पहले अनेक हिन्दू राजाओं का भी राज रहा। ऐसा नहीं है कि ये राजा काशी, पाटलिपुत्र, अयोध्या आदि से कन्धार या काबुल गए थे। ये एकदम स्थानीय अफगान या पठान या आर्यवंशीय राजा थे। इनके राजवंश को ‘हिन्दूशाही’ के नाम से ही जाना जाता है। यह नाम उस समय के अरब इतिहासकारों ने ही दिया था। सन् 843 में कल्लार नामक राजा ने हिन्दूशाही की स्थापना की। तत्कालीन सिक्कों से पता चलता है कि कल्लार के पहले भी रूतविल या रणथल, स्पालपति और लगतुरमान नामक हिन्दू या बौद्ध राजाओं का गांधार प्रदेश में राज था। ये राजा जाति से तुर्क थे लेकिन इनके ज़माने की शिव, दुर्गा और कार्तिकेय की मूतियाँ भी उपलब्ध हुई हैं। ये स्वयं को कनिष्क का वंशज भी मानते थे। अल-बेरूनी के अनुसार हिन्दूशाही राजाओं में कुछ तुर्क और कुछ हिन्दू थे। हिन्दू राजाओं को ‘काबुलशाह’ या ‘महाराज धर्मपति’ कहा जाता था। इन राजाओं में कल्लार, सामन्तदेव, भीम, अष्टपाल, जयपाल, आनन्दपाल, त्रिलोचनपाल, भीमपाल आदि उल्लेखनीय हैं। इन राजाओं ने लगभग साढ़े तीन सौ साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिंधु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया। लेकिन 1019 में महमूद गज़नी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटा खा गया। फिर भी अफगानिस्तान को मुसलमान बनने में पैगम्बर मुहम्मद के बाद लगभग चार सौ साल लग गए। यह आश्चर्य की बात है कि इन हारते हुए ‘हिन्दूशाही’ राजाओं के बारे में अरबी और फारसी इतिहासकारों ने तारीफ के पुल बाँधे हुए हैं। अल-बेरूनी और अल-उतबी ने लिखा है कि हिन्दूशाहियों के राज में मुसलमान, यहूदी और बौद्ध लोग मिल-जुलकर रहते थे। उनमें भेदभाव नहीं किया जाता था। शिक्षा, कला, व्यापार अत्यधिक उन्नत थे। इन राजाओं ने सोने के सिक्के तक चलाए। हिन्दूशाहों के सिक्के इतने अच्छे होते थे कि सन् 908 में बगदाद के अब्बासी खलीफा अल-मुक्तदीर ने वैसे ही देवनागरी सिक्कों पर अपना नाम अरबी में खुदवाकर नए सिक्के जारी करवा दिए। मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार हिन्दूशाही की लूट का माल जब गज़नी में प्रदर्शित किया गया तो पड़ौसी मुल्कों के राजदूतों की आँखे फटी की फटी रह गईं। भीमनगर (नगरकोट) से लूट गए माल को गज़नी तक लाने के लिए ऊँटों की कमी पड़ गई।

अल-बेरूनी ने राजा आनन्दपाल के बड़प्पन का जि़क्र करते हुए लिख है कि महमूद गज़नी से सम्बन्ध खराब होने के बावजूद, जब तुर्कों ने उस पर हमला किया, तो आनन्दपाल ने महमूद की सहायता के लिए उसे पत्र लिखा था। ‘हिन्दूशाही’ राजवंश के राजा ‘आर्याना’ के बाहर के सुल्तानों को इस क्षेत्र में घुसने नहीं देना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने महमूद गज़नी ही नहीं, अन्य स्थानीय हिन्दू और अ-हिन्दू शासकों से गठबन्धन करने की कोशिश की लेकिन महमूद गज़नी को सत्ता और लूटपाट के अलावा इस्लाम का नशा भी सवार था। इसीलिए वह जीते हुए क्षेत्रों के मंदिरों, शिक्षा केन्द्रों, मण्डियों और भवनों को नष्ट करता जाता था और स्थानीय लोगों को जबरन मुसलमान बनाता जाता था। यह बात अल-बेरूनी, अल-उतबी, अल-मसूदी और अल-मकदीसी जैसे मुस्लिम इतिहासकारों ने भी लिखी है। समकालीन इतिहासकार अल-बेरूनी ने तो यहाँ तक लिखा है कि जीते हुए क्षेत्रों के लोगों के साथ किए गए कठोर बर्ताव और सुल्तानों की विध्वंसात्मक नीतियों के कारण यह क्षेत्र (अफगानिस्तान) विद्वानों, व्यापारियों, योद्धाओं और राजकुमारों के रहने लायक नहीं रह गया है। ”यही कारण है कि जो-जो क्षेत्र हमने जीते हैं, वहाँ-वहाँ से हिन्दू विद्याएँ इतनी दूर–कश्मीर, बनारस तथा अन्य स्थानों–पर भाग खड़ी हुई कि हमारी पहुँच के बाहर हो गई हैं।“ क्या खल्की-परचमी, मुजाहिदीन और तालिबान हुकूमतों के दौरान पिछले 23 साल में एक-तिहाई अफगानिस्तान खाली नहीं हो गया ? क्या अफगानिस्तान के श्रेष्ठ विद्वान, उत्तम कलाकार, निपुण वैज्ञानिक, कुशल राजनीतिज्ञ, भद्रलोक के ज्यादातर सदस्य उस देश को छोड़कर अमेरिका, यूरोप और भारत में नहीं बस गए हैं ? क्या अभागे अफगानिस्तान के इतिहास का चक्र उलटा घूमता हुआ एक हजार साल पीछे नहीं चला गया है ? क्या हम आज वही भयावह दृश्य नहीं देख रहे हैं, जो अफगानिस्तान ने एक हजार साल पहले देखा था ?

साभार :April 29, 2015 उगता भारत ब्यूरो,लेखक: डाॅ0 वेदप्रताप वैदिक

Sunday, March 15, 2015

शंखनाद की औषधीय विशेषता



हिंदू मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन के समय प्राप्त चौदह रत्नों में से एक शंख की उत्पत्ति छठे स्थान पर हुई। शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद हैं, जो अन्य तेरह रत्नों में हैं। दक्षिणावर्ती शंख के अद्भुत गुणों के कारण ही भगवान विष्णु ने उसे अपने हस्तकमल में धारण किया हुआ है।

शंख मुख्यतः दो प्रकार के होते ह्रैं : वामावर्ती और दक्षिणावर्ती। इन दोनों की पूजा का विशेष महत्व है। दैनिक पूजा-पाठ एवं कर्मकांड अनुष्ठानों के आरंभ में तथा अंत में वामावर्ती शंख का नाद किया जाता है। इसका मुख ऊपर से खुला होता है। इसका नाद प्रभु के आवाहन के लिए किया जाता है। इसकी ध्वनि से क्क शब्द निकलता है। यह ध्वनि जहां तक जाती है, वहां तक की नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है। वैज्ञानिक भी इस बात पर एकमत हैं कि शंख की ध्वनि से होने वाले वायु-वेग से वायुमंडल में फैले वे अति सूक्ष्म किटाणु नष्ट हो जाते हैं, जो मानव जीवन के लिए घातक होते हैं।

उक्त अवसरों के अतिरिक्त अन्य मांगलिक उत्सवों के अवसर पर भी शंख वादन किया जाता है। महाभारत के युद्ध के अवसर पर भगवान कृष्ण ने पांचजन्य निनाद किया था। कोई भी शुभ कार्य करते समय शंख ध्वनि से शुभता का अत्यधिक संचार होता है। शंख की आवाज को सुन कर लोगों को ईश्वर का स्मरण हो आता है।

शंख वादन के अन्य लाभ भी हैं। इसे बजाने से सांस की बीमारियों से छुटकारा मिलता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से शंख बजाना विशेष लाभदायक है। शंख बजाने से पूरक, कुंभक और प्राणायाम एक ही साथ हो जाते हैं। पूरक सांस लेने, कुंभक सांस रोकने और रेचक सांस छोड़ने की प्रक्रिया है। आज की सबसे घातक बीमारी हृदयाघात, उच्च रक्त चाप, सांस से संबंधित रोग, मंदाग्नि आदि शंख बजाने से ठीक हो जाते हैं।

घर में शंख वादन से घर के बाहर की आसुरी शक्तियां भीतर नहीं आ सकतीं। यही नहीं, घर में शंख रखने और बजाने से वास्तु दोष दूर हो जाते हैं।

दक्षिणावर्ती शंख सुख-समृद्धि का प्रतीक है। इसका मुख ऊपर से बंद होता है।

अगर आपको खांसी, दमा, पीलिया, ब्लड प्रेशर या दिल से संबंधित मामूली से लेकर गंभीर बीमारी है तो इससे निजात पाने का एक सरल और आसान सा उपाय है- प्रतिदिन शंख बजाइए।

कहते  हैं कि शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

शंख से निकलने वाली ध्वनि जहां तक जाती है वहां तक बीमारियों के कीटाणुओं का नाश हो जाता है।

शंखनाद से सकारात्मक ऊर्जा का सर्जन होता है जिससे आत्मबल में वृद्धि होती है।

शंख में प्राकृतिक कैल्शियम, गंधक और फास्फोरस की भरपूर मात्रा होती है।

प्रतिदिन शंख फूंकने वाले को गले और फेफड़ों के रोग नहीं हो सकते।

शंख से मुख के तमाम रोगों का नाश होता है।

शंख बजाने से चेहरे, श्वसन तंत्र, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों का भी व्यायाम हो जाता है।

शंख वादन से स्मरण शक्ति भी बढ़ती है।

साभार: Poojya Acharya Bal Krishan Ji Maharaj

Tuesday, March 3, 2015

गंगा जल खराब क्यों नहीं होता?

गंगा जल खराब क्यों नहीं होता?
अमेरिका में एक लीटर गंगाजल 250 डालर में क्यों मिलता है।

सर्दी के मौसम में कई बार छोटी बेटी को खांसी की शिकायत हुई और कई प्रकार के सिरप से ठीक ही नहीं हुई। इसी दौरान एक दिन घर ज्येष्ठ जी का आना हुआ और वे गोमुख से गंगाजल की एक कैन भरकर लाए। थोड़े पोंगे पंडित टाइप हैं, तो बोले जब डाक्टर से खांसी ठीक नहीं होती तो तब गंगाजल पिलाना चाहिए।

मैंने बेटी से कहलवाया, ताउ जी को कहो कि गंगाजल तो मरते हुए व्यक्ति के मुंह में डाला जाता है, हमने तो ऐसा सुना है तो बोले, नहीं कई रोगों का भी इलाज है। बेटी को पता नहीं क्या पढाया वह जिद करने लगी कि गंगा जल ही पिउंगी, सो दिन में उसे तीन बार दो-दो चम्मच गंगाजल पिला दिया और तीन din में उसकी खांसी ठीक हो गई। यह हमारा अनुभव है, हम इसे गंगाजल का चमत्कार नहीं मानते, उसके औषधीय गुणों का प्रमाण मानते हैं।

कई इतिहासकार बताते हैं कि सम्राट अकबर स्वयं तो गंगा जल का सेवन करते ही थे, मेहमानों को भी गंगा जल पिलाते थे।

इतिहासकार लिखते हैं कि अंग्रेज जब कलकत्ता से वापस इंग्लैंड जाते थे, तो पीने के लिए जहाज में गंगा का पानी ले जाते थे, क्योंकि वह सड़ता नहीं था। इसके विपरीत अंग्रेज जो पानी अपने देश से लाते थे वह रास्ते में ही सड़ जाता था।

करीब सवा सौ साल पहले आगरा में तैनात ब्रिटिश डाक्टर एमई हॉकिन ने वैज्ञानिक परीक्षण से सिद्ध किया था कि हैजे का बैक्टीरिया गंगा के पानी में डालने पर कुछ ही देर में मर गया।

दिलचस्प ये है कि इस समय भी वैज्ञानिक पाते हैं कि गंगा में बैक्टीरिया को मारने की क्षमता है। लखनऊ के नेशनल बोटैनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट एनबीआरआई के निदेशक डॉक्टर चंद्र शेखर नौटियाल ने एक अनुसंधान में प्रमाणित किया है कि गंगा के पानी में बीमारी पैदा करने वाले ई कोलाई बैक्टीरिया को मारने की क्षमता बरकरार है। डॉ नौटियाल का इस विषय में कहना है कि गंगा जल में यह शक्ति गंगोत्री और हिमालय से आती है। गंगा जब हिमालय से आती है तो कई तरह की मिट्टी, कई तरह के खनिज, कई तरह की जड़ी बूटियों से मिलती मिलाती है। कुल मिलाकर कुछ ऐसा मिश्रण बनता जिसे हम अभी नहीं समझ पाए हैं।

डॉक्टर नौटियाल ने परीक्षण के लिए तीन तरह का गंगा जल लिया था। उन्होंने तीनों तरह के गंगा जल में ई-कोलाई बैक्टीरिया डाला। नौटियाल ने पाया कि ताजे गंगा पानी में बैक्टीरिया तीन दिन जीवित रहा, आठ दिन पुराने पानी में एक एक हफ्ते और सोलह साल पुराने पानी में 15 दिन। यानी तीनों तरह के गंगा जल में ई कोलाई बैक्टीरिया जीवित नहीं रह पाया।

वैज्ञानिक कहते हैं कि गंगा के पानी में बैक्टीरिया को खाने वाले बैक्टीरियोफाज वायरस होते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया की तादाद बढ़ते ही सक्रिय होते हैं और बैक्टीरिया को मारने के बाद फिर छिप जाते हैं।

मगर सबसे महत्वपूर्ण सवाल इस बात की पहचान करना है कि गंगा के पानी में रोगाणुओं को मारने की यह अद्भुत क्षमता कहाँ से आती है?

दूसरी ओर एक लंबे अरसे से गंगा पर शोध करने वाले आईआईटी रुड़की में पर्यावरण विज्ञान के रिटायर्ड प्रोफेसर देवेंद्र स्वरुप भार्गव का कहना है कि गंगा को साफ रखने वाला यह तत्व गंगा की तलहटी में ही सब जगह मौजूद है। डाक्टर भार्गव कहते हैं कि गंगा के पानी में वातावरण से आक्सीजन सोखने की अद्भुत क्षमता है। भार्गव का कहना है कि दूसरी नदियों के मुकाबले गंगा में सड़ने वाली गंदगी को हजम करने की क्षमता 15 से 20 गुना ज्यादा है।

गंगा माता इसलिए है कि गंगाजल अमृत है, इसलिए उसमें मुर्दे, या शव की राख और अस्थियां विसर्जित नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मोक्ष कर्मो के आधार पर मिलता है। भगवान इतना अन्यायकारी नहीं हो सकता कि किसी लालच या कर्मकांड से कोई गुनाह माफ कर देगा। जैसी करनी वैसी भरनी!

जब तक अंग्रेज किसी बात को नहीं कहते भारतीय Satya नहीं मानते, इसलिए इस आलेख के वैज्ञानिकों के वक्तव्य BBC बीबीसी हिन्दी सेवा से साभार लिया गया है

प्रस्तुति: फरहाना ताज

Monday, March 2, 2015

भारतीय पुरातन विज्ञान



1.) यदि हमारा ज्ञान-विज्ञान एवं इतिहास इतना गौरवशाली एवं समृद्ध है तो भारत के छात्रों को इस जानकारी से वंचित क्यों रखा जाता है ???

(2.) अंको का आविष्कार भारत में 300 ई. पू. हुआ। (Pro. O. M. Mathew, Bhavan's Journal)

(3.) शून्य (जीरो, शिफर) का आविष्कार भारत में ब्रह्मगुप्त ने किया।

(4.) अंकगणित का आविष्कार 200 ई. पू. भास्कराचार्य ने किया। (Encyclopaedia Britannica)

(5.) बीजगणित का आविष्कार भारत में आर्यभट्ट ने किया। (Encyclopaedia Britannica)
(6.) सर्वप्रथम ग्रहों की गणना आर्यभट्ट ने 499 ई. पू. में की।(Jewish Encyclopaedia)
(7.) मोहनजोदडों व हडप्पा में मिले अवशेषों के अनुसार भारतीयों को त्रिकोणमिति व रेखागणित का 2500 ई. पू. में ज्ञान था।
(8.) जर्मन लेखक थॉमस आर्य के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता में मिले भार-माप यन्त्र भारतीयों के दशमलव प्रणाली के ज्ञान को दर्शाते हैं।
(9.) समय और काल की गणना करने वाला विश्व का पहला कैलेण्डर भारत में लतादेव ने 505 ई. पू. सूर्य सिद्धान्त नामक अपनी पुस्तक में वर्णित किया।
(10.) न्यूटन से भी पहले गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त भास्कराचार्य ने प्रतिपादित किया था। (Jewish Encyclopaedia)
(11.) 3000 ई. पू. लोहे के प्रयोग के प्रमाण वेदों में वर्णित है, अशोक स्तम्भ भारतीयों के तत्त्वज्ञान का स्पष्ट प्रमाण है। (The Current Science)
(12.) सिन्धु घाटी सभ्यता में मिले प्रमाण सिद्ध करते हैं कि भारतीयों को 2500 ई. पू. ताम्बे तथा जस्ते की जानकारी थी।
(13) विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं एवं रासायनिक रंगों का प्रयोग पाँचवी शताब्दी में भारत द्वारा किया गया। (National Science Center, New Delhi)
(14.) विश्व का सबसे पहला औषधि विज्ञान भारतीयों ने आयुर्वेद के रूप में किया। चरक ने 2500 वर्ष पूर्व औषधि विज्ञान को आयुर्वेद के रूप में संकलित किया।
(15.) लिम्बा बुक ऑफ रिकाॉर्ड्स के अनुसार 400 ई. पू. सुश्रुत (भारतीय चिकित्सक) ने सर्वप्रथम प्लास्टिक सर्जरी का प्रयोग किया।
(16.) राईट ब्रदर्स से भी अनेक वर्ष पूर्व महर्षि दयानन्द सरस्वती के पटु शिष्य श्री बापूजी तलपदे महाराष्ट्र निवासी ने मुम्बई के चौपाटी स्थान पर वैदिक विधि से बना वर्तमान युग का प्रथम विमान बनाकर उडाया था।
आइए, वर्षों से भारतीयों को अनेक ज्ञान से वंचित रखने के लिए चलाए जा रहे इस सुनियोजित षड्यन्त्र का हम सब मिलकर प्रतिकार करें।

Friday, February 13, 2015

जानिये अपने गौरवमयी इतिहास को



क्या आप जानते हैं कि....... ....... हमारे प्राचीन महादेश का नाम “भारतवर्ष” कैसे पड़ा....?????

साथ ही क्या आप जानते हैं कि....... हमारे प्राचीन हमारे महादेश का नाम ....."जम्बूदीप" था....?????

परन्तु..... क्या आप सच में जानते हैं जानते हैं कि..... हमारे महादेश को ""जम्बूदीप"" क्यों कहा जाता है ... और, इसका मतलब क्या होता है .....??????

दरअसल..... हमारे लिए यह जानना बहुत ही आवश्यक है कि ...... भारतवर्ष का नाम भारतवर्ष कैसे पड़ा.........????

क्योंकि.... एक सामान्य जनधारणा है कि ........महाभारत एक कुरूवंश में राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के प्रतापी पुत्र ......... भरत के नाम पर इस देश का नाम "भारतवर्ष" पड़ा...... परन्तु इसका साक्ष्य उपलब्ध नहीं है...!

लेकिन........ वहीँ हमारे पुराण इससे अलग कुछ अलग बात...... पूरे साक्ष्य के साथ प्रस्तुत करता है......।

आश्चर्यजनक रूप से......... इस ओर कभी हमारा ध्यान नही गया..........जबकि पुराणों में इतिहास ढूंढ़कर........ अपने इतिहास के साथ और अपने आगत के साथ न्याय करना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक था....।

परन्तु , क्या आपने कभी इस बात को सोचा है कि...... जब आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि........ प्राचीन काल में साथ भूभागों में अर्थात .......महाद्वीपों में भूमण्डल को बांटा गया था....।

लेकिन ये सात महाद्वीप किसने और क्यों तथा कब बनाए गये.... इस पर कभी, किसी ने कुछ भी नहीं कहा ....।

अथवा .....दूसरे शब्दों में कह सकता हूँ कि...... जान बूझकर .... इस से सम्बंधित अनुसंधान की दिशा मोड़ दी गयी......।

परन्तु ... हमारा ""जम्बूदीप नाम "" खुद में ही सारी कहानी कह जाता है ..... जिसका अर्थ होता है ..... समग्र द्वीप .

इसीलिए.... हमारे प्राचीनतम धर्म ग्रंथों तथा... विभिन्न अवतारों में.... सिर्फ "जम्बूद्वीप" का ही उल्लेख है.... क्योंकि.... उस समय सिर्फ एक ही द्वीप था...
साथ ही हमारा वायु पुराण ........ इस से सम्बंधित पूरी बात एवं उसका साक्ष्य हमारे सामने पेश करता है.....।

वायु पुराण के अनुसार........ त्रेता युग के प्रारंभ में ....... स्वयम्भुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने........ इस भरत खंड को बसाया था.....।

चूँकि महाराज प्रियव्रत को अपना कोई पुत्र नही था......... इसलिए , उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था....... जिसका लड़का नाभि था.....!

नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम........ ऋषभ था..... और, इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे ...... तथा .. इन्ही भरत के नाम पर इस देश का नाम...... "भारतवर्ष" पड़ा....।

उस समय के राजा प्रियव्रत ने ....... अपनी कन्या के दस पुत्रों में से सात पुत्रों को......... संपूर्ण पृथ्वी के सातों महाद्वीपों के अलग-अलग राजा नियुक्त किया था....।
राजा का अर्थ उस समय........ धर्म, और न्यायशील राज्य के संस्थापक से लिया जाता था.......।

इस तरह ......राजा प्रियव्रत ने जम्बू द्वीप का शासक .....अग्नीन्ध्र को बनाया था।
इसके बाद ....... राजा भरत ने जो अपना राज्य अपने पुत्र को दिया..... और, वही " भारतवर्ष" कहलाया.........।

ध्यान रखें कि..... भारतवर्ष का अर्थ है....... राजा भरत का क्षेत्र...... और इन्ही राजा भरत के पुत्र का नाम ......सुमति था....।

इस विषय में हमारा वायु पुराण कहता है....—

सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)

मैं अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए..... रोजमर्रा के कामों की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा कि.....

हम अपने घरों में अब भी कोई याज्ञिक कार्य कराते हैं ....... तो, उसमें सबसे पहले पंडित जी.... संकल्प करवाते हैं...।

हालाँकि..... हम सभी उस संकल्प मंत्र को बहुत हल्के में लेते हैं... और, उसे पंडित जी की एक धार्मिक अनुष्ठान की एक क्रिया मात्र ...... मानकर छोड़ देते हैं......।

परन्तु.... यदि आप संकल्प के उस मंत्र को ध्यान से सुनेंगे तो.....उस संकल्प मंत्र में हमें वायु पुराण की इस साक्षी के समर्थन में बहुत कुछ मिल जाता है......।

संकल्प मंत्र में यह स्पष्ट उल्लेख आता है कि........ -जम्बू द्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते….।

संकल्प के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं..... क्योंकि, इनमें जम्बूद्वीप आज के यूरेशिया के लिए प्रयुक्त किया गया है.....।

इस जम्बू द्वीप में....... भारत खण्ड अर्थात भरत का क्षेत्र अर्थात..... ‘भारतवर्ष’ स्थित है......जो कि आर्याव्रत कहलाता है....।

इस संकल्प के छोटे से मंत्र के द्वारा....... हम अपने गौरवमयी अतीत के गौरवमयी इतिहास का व्याख्यान कर डालते हैं......।

परन्तु ....अब एक बड़ा प्रश्न आता है कि ...... जब सच्चाई ऐसी है तो..... फिर शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत से.... इस देश का नाम क्यों जोड़ा जाता है....?

इस सम्बन्ध में ज्यादा कुछ कहने के स्थान पर सिर्फ इतना ही कहना उचित होगा कि ...... शकुंतला, दुष्यंत के पुत्र भरत से ......इस देश के नाम की उत्पत्ति का प्रकरण जोडऩा ....... शायद नामों के समानता का परिणाम हो सकता है.... अथवा , हम हिन्दुओं में अपने धार्मिक ग्रंथों के प्रति उदासीनता के कारण ऐसा हो गया होगा... ।

परन्तु..... जब हमारे पास ... वायु पुराण और मन्त्रों के रूप में लाखों साल पुराने साक्ष्य मौजूद है .........और, आज का आधुनिक विज्ञान भी यह मान रहा है कि..... धरती पर मनुष्य का आगमन करोड़ों साल पूर्व हो चुका था, तो हम पांच हजार साल पुरानी किसी कहानी पर क्यों विश्वास करें....?????

सिर्फ इतना ही नहीं...... हमारे संकल्प मंत्र में.... पंडित जी हमें सृष्टि सम्वत के विषय में भी बताते हैं कि........ अभी एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरहवां वर्ष चल रहा है......।

फिर यह बात तो खुद में ही हास्यास्पद है कि.... एक तरफ तो हम बात ........एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरह पुरानी करते हैं ......... परन्तु, अपना इतिहास पश्चिम के लेखकों की कलम से केवल पांच हजार साल पुराना पढ़ते और मानते हैं....!

आप खुद ही सोचें कि....यह आत्मप्रवंचना के अतिरिक्त और क्या है........?????

इसीलिए ...... जब इतिहास के लिए हमारे पास एक से एक बढ़कर साक्षी हो और प्रमाण ..... पूर्ण तर्क के साथ उपलब्ध हों ..........तो फिर , उन साक्षियों, प्रमाणों और तर्कों केआधार पर अपना अतीत अपने आप खंगालना हमारी जिम्मेदारी बनती है.........।

हमारे देश के बारे में .........वायु पुराण का ये श्लोक उल्लेखित है.....—-हिमालयं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत्।तस्मात्तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधा:.....।।

यहाँ हमारा वायु पुराण साफ साफ कह रहा है कि ......... हिमालय पर्वत से दक्षिण का वर्ष अर्थात क्षेत्र भारतवर्ष है.....।

इसीलिए हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि......हमने शकुंतला और दुष्यंत पुत्र भरत के साथ अपने देश के नाम की उत्पत्ति को जोड़कर अपने इतिहास को पश्चिमी इतिहासकारों की दृष्टि से पांच हजार साल के अंतराल में समेटने का प्रयास किया है....।

ऐसा इसीलिए होता है कि..... आज भी हम गुलामी भरी मानसिकता से आजादी नहीं पा सके हैं ..... और, यदि किसी पश्चिमी इतिहास कार को हम अपने बोलने में या लिखने में उद्घ्रत कर दें तो यह हमारे लिये शान की बात समझी जाती है........... परन्तु, यदि हम अपने विषय में अपने ही किसी लेखक कवि या प्राचीन ग्रंथ का संदर्भ दें..... तो, रूढि़वादिता का प्रमाण माना जाता है ।

और.....यह सोच सिरे से ही गलत है....।

इसे आप ठीक से ऐसे समझें कि.... राजस्थान के इतिहास के लिए सबसे प्रमाणित ग्रंथ कर्नल टाड का इतिहास माना जाता है.....।

परन्तु.... आश्चर्य जनक रूप से .......हमने यह नही सोचा कि..... एक विदेशी व्यक्ति इतने पुराने समय में भारत में ......आकर साल, डेढ़ साल रहे और यहां का इतिहास तैयार कर दे, यह कैसे संभव है.....?

विशेषत: तब....... जबकि उसके आने के समय यहां यातायात के अधिक साधन नही थे.... और , वह राजस्थानी भाषा से भी परिचित नही था....।

फिर उसने ऐसी परिस्थिति में .......सिर्फ इतना काम किया कि ........जो विभिन्न रजवाड़ों के संबंध में इतिहास संबंधी पुस्तकें उपलब्ध थीं ....उन सबको संहिताबद्घ कर दिया...।

इसके बाद राजकीय संरक्षण में करनल टाड की पुस्तक को प्रमाणिक माना जाने लगा.......और, यह धारणा बलवती हो गयीं कि.... राजस्थान के इतिहास पर कर्नल टाड का एकाधिकार है...।

और.... ऐसी ही धारणाएं हमें अन्य क्षेत्रों में भी परेशान करती हैं....... इसीलिए.... अपने देश के इतिहास के बारे में व्याप्त भ्रांतियों का निवारण करना हमारा ध्येय होना चाहिए....।

क्योंकि..... इतिहास मरे गिरे लोगों का लेखाजोखा नही है...... जैसा कि इसके विषय में माना जाता है........ बल्कि, इतिहास अतीत के गौरवमयी पृष्ठों और हमारे न्यायशील और धर्मशील राजाओं के कृत्यों का वर्णन करता है.....।

इसीलिए हिन्दुओं जागो..... और , अपने गौरवशाली इतिहास को पहचानो.....!

हम गौरवशाली हिन्दू सनातन धर्म का हिस्सा हैं.... और, हमें गर्व होना चाहिए कि .... हम हिन्दू हैं...!

साभार : आचार्य बालकृष्ण (फेसबुक)