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Monday, August 27, 2012

शिव गण



शिव गण : भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है।

शिव गण :

१) शास्त्रों में भैरव के विभिन्न रुपों का उल्लेख मिलता है । तन्त्र में अष्ट भैरव तथा उनकी आठ शक्तियों का उल्लेख मिलता है । श्रीशंकराचार्य ने भी “प्रपञ्च-सार तन्त्र” में अष्ट-भैरवों के नाम लिखे हैं । सप्तविंशति रहस्
य में सात भैरवों के नाम हैं । इसी ग्रन्थ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है । इसी में तीन वटुक-भैरवों का उल्लेख है । रुद्रायमल तन्त्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है । आगम रहस्य में दस बटुकों का विवरण है ।

इनमें “बटुक-भैरव” सबसे सौम्य रुप है । “महा-काल-भैरव” मृत्यु के देवता हैं । “स्वर्णाकर्षण-भैरव” को धन-धान्य और सम्पत्ति का अधिष्ठाता माना जाता है, तगो “बाल-भैरव” की आराधना बालक के रुप में की जाती है । सद्-गृहस्थ प्रायः बटुक भैरव की उपासना ही हरते हैं, जबकि श्मशान साधक काल-भैरव की । इनके अतिरिक्त तन्त्र साधना में भैरव के ये आठ रुप भी अधिक लोकप्रिय हैं

शिव गण २) वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया. देवसंहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया. देवसंहिता गोरख सिन्हा द्वारा मद्य काल में लिखा हुआ संस्कृत श्लोकों का एक संग्रह है जिसमे जाट जाति का जन्म, कर्म एवं जाटों की उत्पति का उल्लेख शिव और पार्वती के संवाद के रूप में किया गया है.

वीरभद्र कि जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक मनोरंजक कथा कही जाती है. महादेवजी के श्वसुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया. पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुँच गयी, किंतु जब उसने वहां देखा कि न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया इसलिए उसने वहीं प्राणांत कर दिए. महादेवजी को जब यह समाचार मिला, तो उन्होंने दक्ष और उसके सलाहकारों को दंड देने के लिए अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया. वीरभद्र ने अपने अन्य साथी गणों के साथ आकर दक्ष का सर काट लिया और उसके साथियों को भी पूरा दंड दिया. यह केवल किंवदंती ही नहीं बल्कि संस्कृत श्लोकों में इसकी पूरी रचना की गयी है जो देवसंहिता के नाम से जानी जाती है.

३) मणिभद्र वह भगवान शिव का परम भक्त था। शिवगणों में मुख्य मणिभद्र नामक गण उसका मित्र था। एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक अत्यंत तेजोमय 'चिंतामणि' प्रदान की और य कथा मिलाती है जब शिव त्रिपुर संगराम में इनकों उतपन किया
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साभार : गौरी राय 

अभिमन्यु



अभिमन्यु महाभारत के महत्त्वपूर्ण पात्र थे जो पाँच पांडवों में से अर्जुन के पुत्र थे। उनका छल द्वारा कारुणिक अंत बताया गया है। अभिमन्यु महाभारत के नायक अर्जुन और सुभद्रा, जो बलराम व कृष्ण की बहन थीं, के पुत्र थे। उन्हें चंद्र देवता का पुत्र भी माना जाता है। धारणा है कि समस्त देवताओं ने अपने पुत्रों को अवतार रूप में धरती पर भेजा था परंतु चंद्रदेव ने कहा कि वे अपने पुत्र का वियोग सहन नहीं कर सकते अतः
उनके पुत्र को मानव योनि में मात्र सोलह वर्ष की आयु दी जाए।

अभिमन्यु का अर्थ
अभी (=निर्भय) और मन्यु (=क्रोधी) होने से इस बालक का नाम अभिमन्यु रखा गया था। इसे श्रीकृष्ण, पाण्डव लोग और नगर निवासी भी बहुत चाहते थे। इसके जातकर्म आदि संस्कार श्रीकृष्ण ने किये थे। इनके चार भागों और दस लक्षणों से संयुक्त दिव्य तथा मानुष धनुर्वेद अपने पिता अर्जुन से सीखा था। यह ऊँचा, भरे कन्धों वाला, रोबीला और श्रीकृष्ण के समान शूर-वीर था। इसमें युधिष्ठिर की तरह धैर्य, श्रीकृष्ण की तरह स्वभाव, भीमसेन की तरह पराक्रमी, अर्जुन की तरह रूप और विक्रम, नकुल की तरह नम्रता और सहदेव की तरह शास्त्र ज्ञान था।

जीवन परिचय

अभिमन्यु का बाल्यकाल अपनी ननिहाल द्वारका में ही बीता। उनका विवाह महाराज विराट की पुत्री उत्तरा से हुआ। अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित, जिसका जन्म अभिमन्यु के मृत्योपरांत हुआ, कुरुवंश के एकमात्र जीवित सदस्य पुरुष थे, जिन्होंने युद्ध की समाप्ति के पश्चात पांडव वंश को आगे बढ़ाया। अभिमन्यु एक असाधारण योद्धा थे। उन्होंने कौरव पक्ष की व्यूह रचना, जिसे चक्रव्यूह कहा जाता था, के सात में से छह द्वार भेद दिए थे। अर्जुन, सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदने की विधि सुना रहे थे, अभिमन्यु ने अपनी माता की कोख में रहते ही अर्जुन के मुख से चक्रव्यूह भेदन का रहस्य जान लिया था पर सुभद्रा के बीच में ही निद्रा मग्न होने से वे व्यूह से बाहर आने की विधि नहीं सुन पाये थे। अभिमन्यु की म्रृत्यु का कारण जयद्रथ था जिसने अन्य पांडवों को व्यूह में प्रवेश करने से रोक दिया था। संभवतः इसी का लाभ उठा कर व्यूह के अंतिम चरण में कौरव पक्ष के सभी महारथी युद्ध के मानदंडों को भुलाकर उस बालक पर टूट पड़े, जिस कारण उसने वीरगति प्राप्त की। अभिमन्यु की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये अर्जुन ने सूर्यास्त से पहले ही जयद्रथ के वध की शपथ ली थी। यहाँ कृष्ण के चमत्कार से अर्जुन ने जयद्रथ का वध किया।

अभिमन्यु का वध
पांडवों की सेना अभिमन्यु के पीछे-पीछे चली और जहाँ से व्यूह तोड़कर अभिमन्यु अंदर घुसा था, वहीं से व्यूह के अंदर प्रवेश करने लगी। यह देख सिंधु देश का पराक्रमी राजा जयद्रथ जो धृतराष्ट्र का दामाद था, अपनी सेना को लेकर पांडव-सेना पर टूट पड़ा। जयद्रथ के इस साहसपूर्ण काम और सूझ को देखकर कौरव सेना में उत्साह की लहर दौड़ गई। कौरव सेना के सभी वीर उसी जगह इकट्ठे होने लगे जहाँ जयद्रथ पांडव-सेना का रास्ता रोके हुए खड़ा था। शीघ्र ही टूटे मोरचों की दरारें भर गई। जयद्रथ के रथ पर चांदी का शूकर-ध्वज फहरा रहा था। उसे देख कौरव-सेना की शक्ति बहुत बढ गई और उसमें नया उत्साह भर गया। व्यूह को भेदकर अभिमन्यु ने जहाँ से रास्ता किया था, वहाँ इतने सैनिक आकर इकट्ठे हो गये कि व्यूह फिर पहले जैसा ही मज़बूत हो गया। व्यूह के द्वार पर एक तरफ युधिष्ठिर, भीमसेन और दूसरी ओर जयद्रथ युद्ध छिड़ गया। युधिष्ठिर ने जो भाला फेंककर मारा तो जयद्रथ का धनुष कटकर गिर गया। पलक मारते-मारते जयद्रथ ने दूसरा धनुष उठा लिया और दस बाण युधिष्ठिर पर छोड़े। भीमसेन ने बाणों की बौछार से जयद्रथ का धनुष काट दिया। रथ की ध्वजा और छतरी को तोड़-फोड़ दिया और रणभूमि में गिरा दिया। उस पर भी सिंधुराज नहीं घबराया। उसने फिर एक दूसरा धनुष ले लिया और बाणों से भीमसेन का धनुष काट डाला। पलभर में ही भीमसेन के रथ के घोड़े ढेर हो गये। भीमसेन को लाचार हो रथ से उतरकर सात्यकि के रथ पर चढ़ना पड़ा। जयद्रथ ने जिस कुशलता और बहादुरी से ठीक समय व्यूह की टूटी किलेबंदी को फिर से पूरा करके मज़बूत बना दिया उससे पाडंव बाहर ही रह गये। अभिमन्यु व्यूह के अंदर अकेला रह गया। पर अकेले अभिमन्यु ने व्यूह के अंदर ही कौरवों की उस विशाल सेना को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। जो भी उसके सामने आता, ख़त्म हो जाता था।

दुर्योधन का पुत्र लक्ष्मण अभी बालक था, पर उसमें वीरता की आभा फूट रही थी। उसको भय छू तक नहीं गया था। अभिमन्यु की बाण वर्षा से व्याकुल होकर जब सभी योद्धा पीछे हटने लगे तो वीर लक्ष्मण अकेला जाकर अभिमन्यु से भिड़ पड़ा। बालक की इस निर्भयता को देख भागती हुयी कौरव सेना फिर से इकट्ठी हो गई और लक्ष्मण का साथ देकर लड़ने लगी। सबने एक साथ ही अभिमन्यु पर बाण वर्षा कर दी, पर वह अभिमन्यु पर इस प्रकार लगी जैसे पर्वत पर मेह बरसता हो। दुर्योधन पुत्र अपने अदभुत पराक्रम का परिचय देता हुआ वीरता से युद्ध करता रहा। अंत में अभिमन्यु ने उस पर एक भाला चलाया। केंचुली से निकले साँप की तरह चमकता हुआ वह भाला वीर लक्ष्मण के बड़े ज़ोर से जा लगा। सुंदर नासिका और सुंदर भौंहो वाला, चमकीले घुंघराले केश और जगमाते कुण्डलों से विभूषित वह वीर बालक भाले की चोट से तत्काल मृत होकर गिर पड़ा।

यह देख कौरव-सेना आर्त्तस्वर में हाहाकार कर उठी। "पापी अभिमन्यु का क्षण वध करो।" दुर्योधन ने चिल्लाकर कहा और द्रोण, अश्वत्थामा, वृहदबल, कृतवर्मा आदि छह महारथियों ने अभिमन्यु को चारों ओर से घेर लिया। द्रोण ने कर्ण के पास आकर कहा-"इसका कवच भेदा नहीं जा सकता। ठीक से निशाना बाँधकर इसके रथ के घोड़ों की रास काट डालो और पीछे की ओर से इस पर अस्त्र चलाओ।" व्यूह के अंतिम चरण में कौरव पक्ष के सभी महारथी युद्ध के मानदंडों को भुलाकर उस बालक पर टूट पड़े, जिस कारण उसने वीरगति प्राप्त की।

साभार : शंखनाद 


अर्धनरनारीश्वर…


सृष्टी के निर्माण के हेतु शिव ने अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक किया| शिव स्वयं पुरूष लिंग के द्योतक हैं तथा उनकी शक्ति स्त्री लिंग की द्योतक| पुरुष (शिव) एवं स्त्री (शक्ति) का एका होने के कारण शिव नर भी हैं और नारी भी, अतः वे अर्धनरनारीश्वर हैं।

जब ब्रह्मा ने सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्होंने पाया कि उनकी रचनायं अपने जीवनोपरांत नष्ट हो जायंगी तथा हर बार उन्हें नए सिरे से सृजन करना होगा। गहन विचार के उपरांत भी वो किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाय। तब अपने समस्या के सामाधान के हेतु वो शिव की शरण में पहुँचे। उन्होंने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप किया। ब्रह्मा की कठोर तप से शिव प्रसन्न हुए। ब्रह्मा के समस्या के सामाधान हेतु शिव अर्धनारीश्वर स्वरूप में प्रगट हुए। अर्ध भाग में वे शिव थे तथा अर्ध में शिवा। अपने इस स्वरूप से शिव ने ब्रह्मा को प्रजन्नशिल प्राणी के सृजन की प्रेरणा प्रदान की। साथ ही साथ उन्होंने पुरूष एवं स्त्री के सामान महत्व का भी उपदेश दिया। इसके बाद अर्धनारीश्वर भगवान अंतर्धयान हो गए।
शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं। तो फिर क्या हैं शिव और शक्ति?

शिव कारण हैं; शक्ति कारक।
शिव संकल्प करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी।
शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव सुशुप्तावस्था।
शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव हृदय।
शिव ब्रह्मा हैं; शक्ति सरस्वती।
शिव विष्णु हैं; शक्त्ति लक्ष्मी।
शिव महादेव हैं; शक्ति पार्वती।
शिव रुद्र हैं; शक्ति महाकाली।
शिव सागर के जल सामन हैं। शक्ति सागर की लहर हैं।
शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरे के सामान हैं। लहर क्या है? जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का? यही है शिव एवं उनकी शक्ति का संबंध। आएं तथा प्रार्थना करें शिव-शक्ति के इस अर्धनारीश्वर स्वरूप का इस अर्धनारीश्वर स्तोत्र द्वारा ।

अर्धनारीश्वर 


साभार : गौरिराय 

हिंदुओं को तिलक क्यों धारण करना चाहिए ?




शायद भारत के सिवा और कहीं भी मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं है। यह रिवाज अत्यंत प्राचीन है। माना जाता है कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु भगवान का निवास होता है, और तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है।

मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है, जहां सबकी नजर अटकती है। उसके मध्य में तिलक लगाकर, विशेषकर स्त्रियों में, देखने वाले की दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।

स्त्रियां लाल कुंकुम का तिलक लगाती हैं। यह भी बिना प्रयोजन नहीं है। लाल रंग ऊर्जा एवं स्फूर्ति का प्रतीक होता है। तिलक स्त्रियों के सौंदर्य में अभिवृद्धि करता है। तिलक लगाना देवी की आराधना से भी जुड़ा है। देवी की पूजा करने के बाद माथे पर तिलक लगाया जाता है। तिलक देवी के आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है।

तिलक का महत्व

हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना 
जाता है विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुम्कुम का तिलक या कार्य की महत्ता को ध्यान में रखकर, इसी प्रकार शुभकामनाओं के रुप में हमारे तीर्थस्थानों पर, विभिन्न पर्वो-त्यौहारों, विशेष अतिथि आगमन पर आवाजाही के उद्देश्य से भी लगाया जाता है । 

मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें । इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर, तृतीय नेत्र जानकर इसके उन्मीलन की दिशा में किया गयचा प्रयास जिससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है । 

तन्त्र शास्त्र के अनुसार माथे को इष्ट इष्ट देव का प्रतीक समझा जाता है हमारे इष्ट देव की स्मृति हमें सदैव बनी रहे इस तरह की धारणा क ध्यान में रखकर, ताकि मन में उस केन्द्रबिन्दु की स्मृति हो सकें । शरीर व्यापी चेतना शनैः शनैः आज्ञाचक्र पर एकत्रित होती रहे । चुँकि चेतना सारे शरीर में फैली रहती है । अतः इसे तिलक या टीके के माधअयम से आज्ञाचक्र पर एकत्रित कर, तीसरे नेत्र को जागृत करा सकें ताकि हम परामानसिक जगत में प्रवेश कर सकें । 

तिलक का हमारे जीवन में कितना महत्व है शुभघटना से लेकर अन्य कई धार्मिक अनुष्ठानों, संस्कारों, युद्ध लडने जाने वाले को शुभकामनाँ के तौर पर तिलक लगाया जाता है वे प्रसंग जिन्हें हम हमारी स्मृति-पटल से हटाना नही चाहते इन शुशियों को मस्तिष्क में स्थआई तौर पर रखने, शुभ-प्रसंगों इत्यादि के लिए तिलक लगाया जाता है हमारे जीवन में तिलक का बडा महत्व है तत्वदर्शन व विज्ञान भी इसके प्रचलन को शिक्षा को बढाने व हमारे हमारे जीवन सरल व सार्थकता उतारने के जरुरत है ?। 

तिलक हिंदू संस्कृति में एक पहचान चिन्ह का काम करता है। तिलक केवल धार्मिक मान्यता नहीं है बल्कि कई वैज्ञानिक कारण भी हैं इसके पीछे। तिलक केवल एक तरह से नहीं लगाया जाता। हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक है.



साभार : शंखनाद, धर्म और राजनीति.

खेल-कूद के प्रावधान


क्रिकेट, हाकी, बास्केटबाल, वोलीबाल, सक्वाश और टेनिस आदि खेलों के सामने ऐसे लगने लगा है कि हमारे देश में कोई भी खेल नहीं खेला जाता था और खेलना कूदना हमें अंग्रेज़ों ने ही सिखाया। वास्तव में यह सभी खेल जन साधारण के नहीं हैं क्योंकि इन्हें खेलने के लिये बहुत महंगे उपकरणों की, जैसे की विस्तरित मैदान और साजो सामान की आवश्यक्ता पडती है जिन्हें जुटा पाना आम जनता के लिये तो सम्भव ही नहीं है। आजकल भारत में खेलों दूारा मनोरंजन केवल देखने मात्र तक सीमित रह गया है। प्रत्यक्ष खेलना तो केवल उन साधन सम्पन्न लोगों के लिये ही सम्भव है जो महंगी कलबों के सदस्य बन सकें। इस की तुलना में प्राचीन भारतीय खेल खरचीले ना हो कर सर्व साधारण के लिये मनोरंजन तथा व्यायाम का माध्यम थे।
शरीरिक विकास और व्यायाम
आत्म-ज्ञान के लिये स्वस्थ और स्वच्छ शरीर का होना अनिवार्य है। हम सुख-दुःख शरीर के माध्यम से ही अनुभव करते हैं अतः व्यायाम का महत्व भारत में बचपन से ही शुरु हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिये ‘काया-साधना ’ करनी पडती है। हिन्दू मतानुसार शारीरिक क्षमता की बढौतरी करते रहना प्रत्येक प्राणी का निजि कर्तव्य है। अतः शरीर के समस्त अंगों के बारे में जानकारी होनी चाहिये। योग का अभिप्राय शारीरिक शक्ति की वृद्धि और इन्द्रीयों पर पूर्ण नियन्त्रण करना है। इस साधना की प्राकाष्ठा समाधि, ऐकाग्रता तथा शारीरिक चलन हैं जिन का विकास सभी खेलों में अत्यन्त आवश्यक है। अष्टांग योग साधना के अन्तरगत आसन (उचित प्रकार से अंगों का प्रयोग), प्राणायाम (श्वास नियन्त्रण), तथा प्रत्याहार (इन्द्रियों पर नियन्त्रण) मुख्य हैं।
शरीरिक क्षमताओं को प्रोत्साहन
वैदिक काल - वैदिक काल से ही सभी को शारीरिक क्षमता वृद्धि के लिये प्रोत्साहित किया जाता था। जहाँ ब्राह्मणों को अध्यात्मिक तथा मानसिक विकास के लिये प्रोत्साहित किया जाता था, वहीं  क्षत्रियों को शरीरिक विकास के लिये रथों की दौड, धनुर्विद्या, तलवारबाज़ी, घुड सवारी, मल-युद्ध, तैराकी, तथा आखेट का प्ररिशिक्षण दिया जाता था। श्रमिक वर्ग भी बैलगाडियों की दौड में भाग लेते थे। आधुनिक औल्मपिक खेलों की बहुत सी परम्परायें भारत के माध्यम से ही यूनान में गयीं थीं। हडप्पा तथा मोइनजोदारो के अवशेषों से ज्ञात होता है कि ईसा से 2500-1550 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता में कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्रयोग किये जाते थे। उन में से तोरण (जेविलिन), चक्र (डिस्कस) इत्यादि खेल मनोरंजन के लिये प्रयोग किये जाते थे।
इस के अतिरिक्त बलराम, भीमसेन, हनुमान, जामावन्त, और जरासन्ध आदि के नाम मल-युद्ध में प्रख्यात हैं। विवाह के क्षेत्र में भी शारिरिक बल के प्रमाण स्वरूप स्वयंबर में भी शारीरिक शक्ति और दक्षता का प्रदर्शन किसी ना किसी रूप में शामिल किया जाता था। ऱाम ने शिव-धनुष पर प्रत्यन्चा चढा कर और अर्जुन नें नीचे रखे तेल के कढायें में मछली की आँख का प्रतिबिम्ब देख कर ऊपर घूमती हुयी मछली की आँख का भेदन कर के निजि दक्षता का प्रमाण ही तो दिया था। 
बुद्ध काल - बुद्ध काल में शारीरिक क्षमता बनाने तथा दर्शाने के विधान अपनी प्राकाष्ठा पर पहुँच गये थे। गौतम बुद्ध स्वयं सक्ष्म धनुर्धर थे और रथ दौड, तैराकी तथा गोला फैंकने आदि की स्पर्द्धाओं में भाग ले चुके थे। ‘विलास-मणि-मंजरी’ ग्रंथ में त्र्युवेदाचार्य नें इस प्रकार की घटनाओं का उल्लेख किया है। अन्य ग्रंथ ‘मानस-उल्हास’ (1135 ईसवी) में सोमेश्वर नें भारश्रम (व्हेट लिफटिंग) और भ्रमण-श्रम ( व्हेट के साथ चलना-दौडना) आदि मनोरंजक खेलों का उल्लेख किया है। यह दोनो आज औलम्पिक्स खेलों की प्रतिस्पर्धायें बन चुकी हैं। मल-स्तम्भ ऐक विशिष्ट प्रकार की कला थी जिस में प्रतिस्पर्धी कमर तक पानी में खडे रह कर तथा अपने अपने सहयोगियों के कन्धों पर सवार हो कर ऐक दूसरे से मलयुद्ध करते थे। 
गुप्त काल - चीन के पर्यटक ऐवं राजदूत फाहियान तथा ह्यूनत्साँग ने भी कई प्रकार की भारतीय खेल प्रतिस्पर्धाओं का उल्लेख किया है। नालन्दा तथा तक्षशिला के शिक्षार्थियों में तैराकी, तलवारबाज़ी, दौड़, मलयुद्ध, तथा कई प्रकार की गेंद के साथ खेली जाने वाले खेल लोकप्रिय थे।
मध्य काल - सोहलवीं शताब्दी के विजयनगर में निवास कर रहे पुर्तगीज़ राजदूत के उल्लेखानुसार महाराज कृष्णदेव राय के राज्य में कई खेलोपयोगी क्रीडा स्थल थे तथा महाराज कृष्णदेव राय स्वयं भी अति उत्तम घुडसवार, और मलयोद्धा थे। 
बाह्य-खेल
भारतीय खेलों की मुख्य विशेषता थी कि मनोरंजन करने के लिये किसी विशिष्ट प्रकार के साजो सामान की आवश्यक्ता नहीं पडती थी। ना ही किसी वकालत प्रशिक्षशित अम्पायर की ज़रूरत पडती थी। खेल का मुख्य लक्ष्य मनोरंजन के साथ साथ शारीरिक क्षमताओं का विकास करना होता था। भारत के कुछ लोकप्रिय खेल जो आज पाश्चात्य देशों में स्टेटस-सिम्बल माने जाते हैं इस प्रकार थेः-
  • सगोल कंगजेट – आधुनिक पोलो की तरह का घुड सवारी युक्त खेल 34 ईसवी में मणिपुर राज्य में खेला जाता था। इसे ‘सगोल कंगजेट’ कहा जाता था। सगोल (घोडा), कंग (गेन्द) तथा जेट (हाकी की तरह की स्टिक)। कालान्तर मुस्लिम शासक उसी प्रकार से ‘चौग़ान’ (पोलो) और अफग़ानिस्तान वासी घोडे पर बैठकर ‘बुज़कशी’ खेलते थे। बुजकशी का खेल अति क्रूर था क्यों कि केवल मनोरंजन के लिये ही ऐक जिन्दा भेड को घुड सवार एक दूसरे से छीन झपट कर टुकडे टुकडे कर देते थे। सगोल कंगजेट का खेल अँग्रेज़ों ने पूर्वी भारत के चाय बागान वासियों से सीखा और बाद में उस के नियम आदि बना कर उन्नीसवीं शताब्दी में इसे पोलो के नाम से योरुपीय देशों में प्रसारित किया।
  • बैटलदोड – बैटलदोड का प्रचलन प्राचीन भारत में आज से 2 हजार वर्ष पूर्व था। उस खेल को आधुनिक बेड मिन्टन की तरह पक्षियों के पंखों से बनी एक गेन्द से खेला जाता था। आधुनिक बेड मिन्टन खेल अंग्रेज़ों दूारा बैटलदोड का रुपान्तर और संशोधन मात्र है।
  • कबड्डी – इस भारतीय खेल के लिये किसी विशेष साधनों की आवशयक्ता नहीं होती। धरती पर ऐक छोटे मैदान को लकीर खेंच कर दो बराबर भागों में बाँट दिया जाता है। दो टीमें ऐक दूसरे के सामने खेलती हैं। उन्हें विपरीत खिलाडी को छूना या पकडना होता है । दोनों टीमें अपने अपने खिलाडियों को बारी बारी से विपरीत टीम के पाले में भेजती हैं जो ऐक ही श्वास में “कब्डी-कब्डी” बोलता हुआ जाता है और बिना दूसरा श्वास भरे वापिस अपने भाग में आता है। यदि श्वास टूट जाये तो वह असफल माना जाता है। य़दि कोई खिलाडी सीमा से बाहर चला जाये या पकड लिया जाय तो वह असफल घोषित किया जाता है। भारत में तीन प्रकार की कब्डडी खेली जाती है जिन में से संजीवनी कब्डडी, कब्डडी फेडरेशन दूारा नियमित और मान्य है।
  • गिल्ली डंडा – यह खेल समस्त भारत में अत्यनत लोक प्रिय रहा है। इस खेल के लिये लकडी का ऐक छोटा ‘डंडा’, तथा ऐक दोनों ओर से नोकीली ‘गिल्ली’ की आवश्यक्ता पडती है। गिल्ली को डंडे से चोट कर के थोडा उछाला जाता है और फिर उछली अवस्था में ही उसे पुनः डंडे के आघात से, जहाँ तक हो सके, फैंका जाता है। जो जितनी दूर तक फैंक सके, उसी के आधार पर अंको (स्कोर) का निर्णय होता है। इस खेल के स्थानीय नियम प्रचिल्लित हैं। यदि इसी खेल को गोल्फ की तरह का उच्च कोटि का साजो सामान और आकर्ष्ण प्रदान करा दिया जाये तो यह खेल आज भी विश्व स्तर पर गोल्फ को भी मात दे सकता है जैसे यदि फाईबर-ग्लास या चन्दन की लकडी की मान्यता प्राप्त वजन और आकार की पालिश करी हुयीं खूबसूरत गिल्लियाँ और डंडे, जिन्हें लैदर के कैरीबैग्स सें सहायक उठा कर खिलाडियों के साथ मखमली घास के लम्बे-चौडे ‘गिल्ली-डंडा कोर्स’ पर चलें, फैशनेबल युवक-युवतियाँ छतरियों के नीचे बैठ कर दूरबीनों से अन्तर्राष्ट्रीय मैचों को देखने के लिये आमन्त्रित हों, दूरियाँ मापने के लिये स्वचालित ट्रालियों पर अम्पायर सवार हों और साथ में कमेंनट्री चलती रहै तो निश्चय ही भारत का प्राचीन खेल गिल्ली डंडा गोल्फ की तरह सम्मानजनक खेल बन सकता है।
आंतरिक खेल
खेल और मनोरंजन केवल पुरुषों तक ही सीमित नहीं थे। महिलाओं को भी खेलों में भाग लेने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। उस के लिये पर्याप्त व्यव्स्था भी थी। स्त्रियाँ आत्म-रक्षा की कला में भी निपुण थीं। वह घरेलु क्रीडाओं के माध्यम से भी मनोरंजन कर सकती थीं जैसे कि ‘किकली’, रस्सी के साथ विभिन्न प्रकार से कूदना, ‘मुर्ग़-युद्ध’, ‘बटेर-दून्द’, आदि। अन्य घरेलु साधन इस प्रकार थे जो परिवार में घर के अन्दर खेले जा सकते थे।
  • शतरंज – युद्ध कला पर आधारित यह खेल राज घरानों तथा सामान्य लोगों में अति लोक प्रिय रहा है। ‘अमरकोश’ के अनुसार इस का प्राचीन नाम ‘चतुरंगिनी’ था जिस का अर्थ चार अंगों वाली सैना था। इस में हाथी, घोडे, रथ तथा पैदल सैनिक भाग लेते थे। इस का अन्य नाम ‘अष्टपदी’ भी था। इस को खेलने के लिये ऐक तख्ते की आवश्यक्ता पडती थी जिस पर प्रत्येक दिशा में आठ खाने बने होते थे। यह खेल युद्ध की चालें, सुरक्षा तथा आक्रमण के सिद्धान्तों का अद्भुत मिश्रण था। छटी शताब्दी में यह खेल महाराज अंनुश्रिवण के समय (531 – 579 ईस्वी) भारत से ईरान में लोकप्रिय हुआ। तब इसे ‘चतुरआंग’, ‘चतरांग’ और फिर कालान्तर अरबी भाषा में ‘शतरंज’ कहा जाने लगा। ईरान में शतरंज के बारे में प्राचीन उल्लेख 600 ईसवी में कर्नामके अरताख शातिरे पापाकान में मिलता है। फिर दसवीं शताब्दी में फिरदौसी कृत महाकाव्य ‘शाहनामा’ में भी इस खेल का उल्लेख है जो विदित करता है कि शतरंज का खेल भारत के राजदूत के माध्यम से ईरान में लाया गया था। भारत से ही यह खेल चीन और जापान में भी गया। चीन के साहित्य में इस का उल्लेख न्यू सेंग जू की पुस्तक यू क्वाइ लू (बुक आफ मार्वल्स) में मिलता है जो आठवीं शताब्दी के अंत में लिखी गयी थी। दक्षिण पूर्व ऐशिया के देशों ने शतरंज का खेल भारत से ही आयात किया तथा कुछ देशों ने जैसे कि स्याम आदि ने भारत से चीन की मार्फत आयात कर के सीखा।
  • मोक्ष-पट (साँप-सीढी) – इस खेल का प्रारम्भिक उल्लेख और श्रेय तेहरवीं शताब्दी में महाराष्ट्र के संत-कवि ज्ञानदेव को जाता है। उस समय इस खेल को मोक्ष-पट का नाम दिया गया था। खेल का लक्ष्य केवल मनोरंजन ही नहीं था अपितु हिन्दू धर्म मर्यादाओं का ज्ञान मनोरंजन के साथ साथ जन साधारण को देना भी था। खेल को एक कपडे पर चित्रित किया गया था जिस में कई खाने बने होते थे और उन्हें ‘घर’ की संज्ञा दी गयी थी। प्रत्येक घर को दया, करुणा, भय आदि भाव-वाचक संज्ञयाओं से पहचाना जाता था। सीढियाँ सद्गुणों को तथा साँप अवगुणों का प्रतिनिधित्व करते थे। साँप और सीढियों का भी अभिप्राय था। साँप की तरह की हिंसा जीव को नरक में धकेल देती थी तथा विद्याभ्यास उसे सीढियों के सहारे उत्थान की ओर ले जाते थे। खेल को सारिकाओं या कौडियों की सहायता से खेला जाता था। सतरहवीं शताब्दी में यह खेल थँजावर में प्रचिल्लित हुआ। इस के आकार में वृद्धि की गयी तथा कई अन्य बदलाव भी किये गये। तब इसे ‘परमपद सोपान-पट्टा’ कहा जाने लगा। इस खेल की नैतिकता विकटोरियन काल के अंग्रेजों को भी कदाचित भा गयी और वह इस खेल को 1892 में इंगलैण्ड ले गये। वहाँ से यह खेल अन्य योरूपीय देशों में लुड्डो अथवा स्नेक्स एण्ड लेडर्स के नाम से फैल गया।
  • गंजिफा – सामन्यता ताश जैसे इस खेल का भी धार्मिक और नैतिक महत्व था। ताश की तरह के पत्ते गोलाकार शक्ल के होते थे, उन पर लाख के माध्यम से या किसी अन्य पदार्थ से चित्र बने होते थे। ग़रीब लोग कागज़ या कँजी लगे कडक कपडे के कार्ड भी प्रयोग करते थे। सामर्थवान लोग हाथी दाँत, कछुए की हड्डी अथवा सीप के कार्ड प्रयोग करते थे। उस समय इस खेल में लगभग 12 कार्ड होते थे जिन पर पौराणिक चित्र बने होते थे। खेल के एक अन्य संस्करण ‘नवग्रह-गंजिफा’ में 108 कार्ड प्रयोग किये जाते थे। उन को 9 कार्ड की गड्डियों में रखा जाता था और प्रत्येक गड्डी सौर मण्डल के नव ग्रहों को दर्शाती थी।
  • पच्चीसी -  यह खेल लगभग 2200 वर्ष पुराना है। इसे भारत का राष्ट्रीय खेल कहना उचित हो गा। यह खेल ‘चौपड’, ‘चौसर’ अथवा ‘चौपद’ के नाम से जाना जाता है तथा आज भी भारत में खेला जाता है। यह लोकप्रिय और मनोरंजक भी है तथा नियमों आदि से बाधित भी है। मुस्लिम काल में यह खेल शासकीय वर्ग तथा सामान्य लोगों के घरों में ‘पांसा’ के नाम से खेला जाता था।
इस के अतिरिक्त जन जातियाँ भी जिमनास्टिक की तरह के प्रदर्शनकारी खेलों में पारंगत थी। बाजीगर चलते फिरते सरकस थे। उन के लिये बाँस की सहायता से अपना शरीरिक संतुलन नियन्त्रित कर के रस्सों के ऊपर चलना साधारण सी बात है और आज कल भी वह करते हैं। केवल हाथों के बल पर चलना फिरना, बाँस की सहायता से ऊंची छलाँग (हाई जम्प)भरना आदि के अधुनिक खेल वह बिना किसी सुरक्षा आडम्बरों के दिखा सकते हैं। यह खेद का विषय है कि भारत के आधुनिक शासकों नें इस संस्कृति के विकास के लिये कोई संरक्षण नहीं दिया है और यह कलायें लगभग लुप्त होती जा रही हैं और हमारे सामने ही हमारी विरासत उजडती जा रही है। उसी प्रकार 1960 के दशक तक यह सभी मनोरंजक खेल प्राय भारत के गाँवों और नगरों में खेले जाते थे परन्तु अब यह लुप्त होते जा रहै हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले समय में युवा कम्पूटर गेम्स के माध्यम से ही महंगे विदेशी खेल खेला करें गे या केवल टी वी पर ही खेल देखा करें गे। 
साभार : चाँद शर्मा

Friday, August 24, 2012

भारत का वैज्ञानिक चिन्तन - ३


रसायन शास्त्र : धातु, आसव, तत्व - सब भारतीय सत्य

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सायन शास्त्र का सम्बन्ध धातु विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान से भी है। वर्तमान काल के प्रसिद्ध वैज्ञानिक आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय ने ‘हिन्दू केमेस्ट्री‘ ग्रंथ लिखकर कुछ समय से लुप्त इस शास्त्र को फिर लोगों के सामने लाया। रसायन शास्त्र एक प्रयोगात्मक विज्ञान है। खनिजों, पौधों, कृषिधान्य आदि के द्वारा विविध वस्तुओं का उत्पादन, विभिन्न धातुओं का निर्माण व परस्पर परिवर्तन तथा स्वास्थ्य की दृष्टि में आवश्यक औषधियों का निर्माण इसके द्वारा होता है।

पूर्व काल में अनेक रसायनज्ञ हुए, उनमें से कुछ की कृतियों निम्नानुसार हैं।

नागार्जुन-रसरत्नाकर, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक

वाग्भट्ट - रसरत्न समुच्चय
गोविंदाचार्य - रसार्णव
यशोधर - रस प्रकाश सुधाकर
रामचन्द्र - रसेन्द्र चिंतामणि
सोमदेव- रसेन्द्र चूड़ामणि

रस रत्न समुच्चय ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-

(१) महारस (२) उपरस (३) सामान्यरस (४) रत्न (५) धातु (६) विष (७) क्षार (८) अम्ल (९) लवण (१०) लौहभस्म।

महारस

 (१) अभ्रं (२) वैक्रान्त (३) भाषिक (४) विमला (५) शिलाजतु (६) सास्यक (७)चपला (८) रसक

उपरस :-

 (१) गंधक (२) गैरिक (३) काशिस (४) सुवरि (५) लालक (६) मन: शिला (७) अंजन (८) कंकुष्ठ

सामान्य रस-

 (१) कोयिला (२) गौरीपाषाण (३) नवसार (४) वराटक (५) अग्निजार (६) लाजवर्त (७) गिरि सिंदूर (८) हिंगुल (९) मुर्दाड श्रंगकम्‌

इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं।

अम्ल का भी वर्णन है। द्वावक अम्ल (च्दृथ्ध्ड्ढदद्य ठ्ठड़त्ड्ड) और सर्वद्रावक अम्ल (ठ्ठथ्थ्‌ ड्डत्द्मद्मदृथ्ध्त्दढ़ ठ्ठड़त्ड्ड)

विभिन्न प्रकार के क्षार का वर्णन इन ग्रंथों में मिलता है तथा विभिन्न धातुओं की भस्मों का वर्णन आता है।

प्रयोगशाला- 

रस-रत्न-समुच्चय‘ अध्याय ७ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं- (१) दोल यंत्र (२) स्वेदनी यंत्र (३) पाटन यंत्र (४) अधस्पदन यंत्र (५) ढेकी यंत्र (६) बालुक यंत्र (७) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र (८) विद्याधर यंत्र (९) धूप यंत्र (१०) कोष्ठि यंत्र (११) कच्छप यंत्र (१२) डमरू यंत्र।

प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।

पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था। भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया।

पारे की रूपान्तरण प्रक्रिया-

इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है। रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है।

धातुओं को मारना:- 

विविध धातुओं को उपयोग करने हेतु उसे मारने की विधि का वर्णन किया गया है। प्रयोगशाला में धातुओं को मारना एक परिचित विधि थी। गंधक का सभी धातुओं को मारने में उपयोग होता था। अत: ग्रंथ में गंधक की तुलना सिंह से की गई तथा धातुओं की हाथी से और कहा गया कि जैसे सिंह हाथी को मारता है उसी प्रकार गंधक सब धातुओं को मारता है।

जस्ते का स्वर्ण रंग में बदलना-हम जानते हैं जस्ता (झ्त्दत्त्‌) शुल्व (तांबे) से तीन बार मिलाकर गरम किया जाए तो पीतल (एद्धठ्ठद्मद्म) धातु बनती है, जो सुनहरी मिश्रधातु है। नागार्जुन कहते हैं-

क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्‌॥
(रसरत्नाकार-३)

धातुओं की जंगरोधी क्षमता-गोविन्दाचार्य ने धातुओं के जंगरोधन या क्षरण रोधी क्षमता का क्रम से वर्णन किया है। आज भी वही क्रम माना जाता है।

सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।
लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्‌॥
(रसार्णव-७-८९-१०)

अर्थात्‌ धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।

तांबे से मथुर तुप्ता

(ड़दृद्रद्रड्ढद्ध द्मद्वथ्द्रण्ठ्ठद्यड्ढ) बनाना-
ताम्रदाह जलैर्योगे जायते
तुत्यकं शुभम्‌।

अर्थात्‌ तांबे के साथ तेजाब का मिश्रण होता है तो कॉपर सल्फेट प्राप्त होता है।

भस्म:- 

रासायनिक क्रिया द्वारा धातु के हानिकारक गुण दूर कर उन्हें राख में बदलने पर उस धातु की राख को भस्म कहा जाता है। इस प्रकार मुख्य रूप से औषधि में लौह भस्म (क्ष्द्धदृद), सुवर्ण भस्म (क्रदृथ्ड्ड), रजत भस्म (च्त्थ्ध्ड्ढद्ध), ताम्र भस्म (क्दृद्रद्रड्ढद्ध), वंग भस्म (च्र्त्द), सीस भस्म (ख्र्ड्ढठ्ठड्ड) प्रयोग होता है।

वज्रसंधात (ॠड्डठ्ठथ्र्ठ्ठदद्यत्दड्ढ क्दृथ्र्द्रदृद्वदड्ड)-

वराहमिहिर अपनी बृहत्‌ संहिता में कहते हैं-
अष्टो सीसक भागा: कांसस्य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मया कथितो योगोऽयं विज्ञेयो वज्रसड्घात:॥

अर्थात्‌ एक यौगिक जिसमें आठ भाग शीशा, दो भाग कांसा और एक भाग लोहा हो उसे मय द्वारा बताई विधि का प्रयोग करने पर वह वज्रसङ्घात बन जाएगा।
आसव बनाना-

चरक के अनुसार ९ प्रकार के आसव बनाने का उल्लेख है।

१. धान्यासव - ङदृदृद्यद्म
२. फलासव-क़द्धद्वत्द्यद्म
३. मूलासव-क्रद्धठ्ठत्दद्म ठ्ठदड्ड द्मड्ढड्ढड्डद्म
४. सरासव-ज़्दृदृड्ड
५. पुष्पासव-क़थ्दृध्र्ड्ढद्धद्म
६. पत्रासव-थ्ड्ढठ्ठध्ड्ढद्म
७. काण्डासव-द्मद्यड्ढथ्र्द्म (च्द्यठ्ठड़त्त्द्म)
८. त्वगासव-एठ्ठद्धत्त्द्म
९. शर्करासव-च्द्वढ़ड्ढद्ध

इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के गंध, इत्र सुगंधि के सामान आदि का भी विकास हुआ था।

ये सारे प्रयोग मात्र गुरु से सुनकर या शास्त्र पढ़कर नहीं किए गए। ये तो स्वयं प्रत्यक्ष प्रयोग करके सिद्ध करने के बाद कहे गए हैं। इसकी अभिव्यक्ति करते हुए अनुमानत: १३वीं सदी के रूद्रयामल तंत्र के एक भाग रस कल्प में रस शास्त्री कहता है।

इति सम्पादितो मार्गो द्रुतीनां पातने स्फुट:
साक्षादनुभवैर्दृष्टों न श्रुतो गुरुदर्शित:
लोकानामुपकाराएतत्‌ सर्वें निवेदितम्‌
सर्वेषां चैव लोहानां द्रावणं परिकीर्तितम्‌-
(रसकल्प अ.३)

अर्थात्‌ गुरुवचन सुनकर या किसी शास्त्र को पढ़कर नहीं अपितु अपने हाथ से इन रासायनिक प्रयोगों और क्रियाओं को सिद्धकर मैंने लोक हितार्थ सबके सामने रखा है।

प्राचीन रसायन शास्त्रियों की प्रयोगशीलता का यह एक प्रेरणादायी उदाहरण है।


साभार : भारतीय संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ हैं, फेसबुक 

भारत का वैज्ञानिक चिन्तन



स्थापत्य शास्त्र-२ : अजंता, एलोरा, कोणार्क, खजुराहो - ये हैं भारतीय शिल्प की चमत्कारिक धरोहर ---------------------------------
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२५००-३००० ई.पू. से लेकर १७वीं शताब्दी तक के देश के विविध हिस्सों में जल प्रदाय की व्यवस्था के आश्चर्यजनक नमूने मिलते हैं जिसमें बड़े तालाब, नहरें तथा अन्य स्थान से पानी का मार्ग परिवर्तित कर पानी लाने के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं।

कौटिल्य आज से २५०० वर्ष पूर्व अपने अर्थशास्त्र में कहते हैं कि राजा जिस पवित्र भाव से मन्दिर का निर्माण करता है उसी भाव से उसे जल रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। आज पानी को लेकर चारों ओर हाहाकार है। लोग कहते हैं कि कहीं तीसरा विश्वयुद्ध पानी को लेकर न हो जाए। ऐसे समय में चाणक्य की बात ध्यान देने योग्य है। चाणक्य राजा को पवित्र भाव से जल रोकने का प्रयास करने की सलाह देकर ही नहीं रुके, अपितु आगे वे कहते हैं कि जनता को भी जल संरक्षण के लिए प्रेरित करना चाहिए। उस हेतु आर्थिक सहयोग देना चाहिए, आवश्यकता पड़ने पर वस्तु का सहयोग करना चाहिए, इतना ही नहीं तो व्यक्ति का भी सहयोग करना चाहिए।

कौटिल्य जल रोकने हेतु बांध बनाने का भी उल्लेख करते हैं तथा इसका भी वर्णन करते हैं कि बांध वहां नहीं बनाना चाहिए जहां दो राज्यों की सीमाएं मिलती हैं, क्योंकि ऐसा होने पर वह झगड़े की जड़ बनेगा। आज कावेरी तथा नर्मदा नदी के विवादों को देखकर लगता है वे बहुत दूरद्रष्टा थे।

दक्षिण में पेरुमामिल जलाशय अनंतराजा सागर ने बनवाया था। यह भारत में सिंचाई, शिल्प और प्रौद्योगिकी की कहानी कहता है। समीप के मंदिर की ओर दो पत्थर-शिलाओं पर बने शिलालेख (सन्‌ १३६९) से पता लगता है कि जलागार के निर्माण में दो वर्ष लगे। एक हजार श्रमिक लगाए गए और एक सौ गाड़ियां पत्थर निर्माण स्थल तक पहुंचाने में प्रयुक्त हुएं। शिलालेख में इस जलागार (जलाशय) के निर्माण स्थल के चयन और निर्माण के संबंध में बारह विशेष बातों का उल्लेख हैं, जो एक अच्छे तालाब के निर्माण के लिए आवश्यक हैं।

(१) शासक में कुछ भलाई, समृद्धि, खुशहाली के माध्यम से यश पाने की अभिलाषा हो। (२) पायस शास्त्र यानी जल विज्ञान में निपुणता हो। (३) जलाशय का आधार सख्त मिट्टी पर आधारित हो। (४) नदी जल का भण्डार करीब ३८ किलोमीटर से ला रही हो। (५) बांध के दो तरफ किसी पहाड़ी के ऊंचे शिखर हों। (६) इन दो पहाड़ी टीलों के बीच बांध ठोस पत्थर का बने। भले ही लंबा न हो, लेकिन सख्त हो। (७) ये पहाड़ियां ऐसी जमीन से भिन्न हों जो उद्यानिकी के अनुकूल और उर्वर होती हैं। (८) जलाशय का वेड (तल) लंबा, चौड़ा और गहरा हो। (९) सीधे, लम्बे पत्थरों वाली जमीन हो। (१०) समीप में निचली, उर्वर जमीन सिंचाई के लिए उपलब्ध हो। (१२) जलाशय बनाने में कुशल शिल्पी लगाए जाएं।

छह वर्जनाएं भी शिलालेख में उत्कीर्ण हैं, इन्हें हर हाल में टाला जाना चाहिए-

(१) बांध से रिसाव। (२) क्षारीय भूमि। (३) दो अलग शासित क्षेत्रों की सीमा में जलाशय का निर्माण। (४) जलाशय बांध के बीच में ऊंचाई वाला क्षेत्र। (५) कम जलापूर्ति आगम और सिंचाई के लिए अधिक फैला क्षेत्र। (६) सिंचाई के लिए अपर्याप्त भूमि और अधिक जलागम।

इसके अतिरिक्त ग्यारहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी में जल संरक्षण की संरचना के लिए जलाशयों के निर्माण को रोचक इतिहास देश में दर्ज है।

(१) अरिकेशरी मंगलम्‌ जलाशय (१०१०-११) के साथ मन्दिर की संरचना। (२) गंगा हकोदा चोपुरम्‌ जलाशय (१०१२-१०१४) के बांध, स्तूप और नहरों का विस्तार १६ मील लम्बा है। (३) भोजपुर झील (११वीं सदी) भोपाल से लगी हुई २४० वर्गमील में फैली है। इसका निर्माण राजा भोज ने किया था। इस झील में ३६५ जल धाराएं मिलती हैं। (४) अलमंदा जलाशय (ग्यारहवीं) विशाखापट्टनम्‌ में है। (५) राजत टाका तालाब (ग्यारहवीं शताब्दी) (६) भावदेव भट्ट जलाशय बंगाल में (७) सिंधुघाटी जलाशय (११०६-०७) मैसूर में स्लूस तक निर्माण किया गया है। (८) पेरिया क्याक्कल स्लूस (१२१९) त्रिचलापल्ली जिले में। (९) पखाला झील (१३वीं शताब्दी)। वारंगल जिले में हल संरचना का उदाहरण है। (१०) फिरंगीपुरम्‌ जलाशय (१४०९) गुंटूर जिले में शिल्प की विशिष्टता है। (११) हरिद्रा जलाशय (१४१०) व्राह्मणों ने अपने खर्चे से निर्मित कराया था। तब विजयनगर में राजा देवराज सत्तासीन थे। (१२) अनंतपुर जिले में नरसिंह वोधी जलाशय (१४८९) का उल्लेख भी आवश्यक है। (१३) १५२० में नागलपुर जलाशय-राजा कृष्णराज ने नागलपुर की पेयजल पूर्ति के लिए बनवाया था। कृष्णराज को भूजल सुरंग बनाने का पहला गौरव प्राप्त हुआ। विजयपुर, महमदनगर, औरंगाबाद, कोरागजा, वासगन्ना चैनलों का निर्माण इसी श्रृंखला की कड़ी है। (१४) शिवसमुद्र (१५३१-३२) आज भी बंगलुरू की जलपूर्ति का स्रोत है। (१५) तुगलकाबाद में बांध के जनक अनंगपाल (११५१) थे (१६) सतपुला बांध दिल्ली (१३२६) में ३८ फुट ऊंची महराबें है। (१६) जमुना की पुरानी नहर, जिसे फिरोजशाह तुगलक नहर (१३वीं शताब्दी) कहा गया, रावी पर बनी है।

कलात्मक स्थापत्य के अमर उदाहरण-

प्राचीन मंदिर

प्राचीनकाल में शिल्पियों के समूह होते थे, जो एक कुल की तरह रहते थे और कोई राजकुल या धनिक व्यक्ति भक्ति भावना से भव्य मन्दिर निर्माण कराना चाहता तो ये वहां जाकर वर्षों अंत:करण की भक्ति से, पूजा के भाव से, व्यवसायी बुद्धि से रहित होकर, मूर्ति उकेरने की साधना में संलग्न रहते थे। उनकी मूक साधना प्रस्तर में प्राण फूंकती थी। इसी कारण आज भी प्राचीन मंदिरों की मूर्तिकला मानो जीवंत हो अपनी कहानी कहती है। कोणार्क के सूर्य मन्दिर का निर्माण लगातार १२ वर्ष तक अनेक शिल्पियों की साधना का परिणाम है।

इस श्रेष्ठ भारतीय कला के अनेक नमूने देश के विभिन्न स्थानों पर दिखाई देते हैं।

एलोरा के मन्दिर जिनमें व्राह्मण मंदिर कैलास सबसे विशाल और सुन्दर है, इसके सभी भाग निर्दोष और कलापूर्ण हैं। इसकी लंबाई १४२ फुट, चौड़ाई ६२ फुट तथा ऊंचाई १०० फुट है। इस पर पौराणिक दृश्य उत्कीर्ण हैं।

एलीफेंटा की गुफा में शिव-पार्वती के विवाद वाले दृश्यों में मानो शिल्पी की सारी साधना मुखर हुई है।

उड़ीसा का लिंगराज मंदिर कला का श्रेष्ठतम नमूना है। यह मन्दिर ५२०न्४६५ वर्गफुट में स्थित है, मंदिर की ऊंचाई १४४.०५ फुट है तथा ७.५ फुट भारी दीवार से घिरा है। इसके चार प्रमुख भाग हैं:- विमान-जगमोहन-नट मन्दिर-भाग मंडप। मंदिर में अनेक देवताओं की सुंदर उकेरी गई मूर्तियों के साथ-साथ रामायण और महाभारत के अनेक प्रसंगों को उकेरा गया है।

खजुराहो के मन्दिर-यह नवीं शताब्दी के मंदिर हैं। पहले ८५ मंदिर थे, अब लगभग २० ही शेष रह गए हैं। खजुराहो के मन्दिर शिल्पकला के महान्‌ प्रतीक हैं। बाह्य दीवारों पर भोग मुद्रायें हैं। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है।

इसके अतिरिक्त गुजरात में गिरनार के मन्दिर प्रसिद्ध हैं। दक्षिण भारत में श्रीरंगपट्टन का मंदिर सबसे बड़ा और स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना है। यहां पर एक सहस्र स्तंभों वाला (१६न्७०) मण्डप है, जिसका कमरा ४५०न्१३० फुट है। यहां गोकुल जैसा बड़ा और कलात्मक गोपुर और कहीं-कहीं कुण्डलाकार बेलें, पुष्पाकृतियों आदि अनोखी छटा उत्पन्न करते हैं।

११वीं शताब्दी का रामेश्वरम्‌ मंदिर चार धामों में से एक धाम है। मदुरई का मीनाक्षी मन्दिर कला का अप्रतिम नमूना है। इसकी लम्बाई ८४७ फुट, चौड़ाई ७९५ फुट ऊंचाई १६० फुट है। इसके परकोटे में ११ गोपुर हैं। एक सहस्र स्तंभों वाला मंडप यहां भी है और इसकी विशेषता है कि प्रत्येक स्तंभ की कारीगीरी, मूर्तियां व मुद्राएं भिन्न-भिन्न है। दक्षिण भारत में कला का यह सर्वश्रेष्ठ नमूना है।

इस प्रकार पूरे भारत में सहस्रों मंदिर, महल, प्रासाद प्राचीन शिल्पज्ञान की गाथा कह रहे हैं।

शिल्प के कुछ अद्भुत नमूने- (१) अजंता की गुफा में एक बुद्ध प्रतिमा है। इस प्रतिमा को यदि अपने बायीं ओर से देखें तो भगवान बुद्ध गंभीर मुद्रा में दृष्टिगोचर होते हैं, सामने से देखें तो गहरे ध्यान में लीन शांत दिखाई देते हैं और दायीं ओर देखें तो उनके मुखमंडल पर हास्य अभिव्यक्त होता है। एक ही मूर्ति के भाव कोण बदलने के साथ बदल जाते हैं।

(२) दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य में बना विट्ठल मंदिर शिल्पकला का अप्रतिम नमूना है। इसका संगीत खण्ड यह बताता है कि पत्थर, उनके प्रकार, विशेषता और किस पत्थर को कैसे तराशने से और किस कोण पर स्थापित करने पर उसमें से विशेष ध्वनि निकलेगी। इस खण्ड के विभिन्न स्तंभों से संपूर्ण संगीत व वाद्यों का अनुभव होता है। इसमें प्रवेश करते ही सर्वप्रथम सात स्तंभ हैं। इसमें प्रथम स्तंभ पर कान लगाएं और उस पर आघात दें। तो स की ध्वनि निकलती है और सात स्वरों के क्रम से आगे के स्तम्भों में से रे,ग,म,प,ध,नी की ध्वनि निकलती है। आगे अलग-अलग स्तंभों से अलग-अलग वाद्यों की ध्वनि निकलती है। किसी स्तम्भ से तबले की, किसी स्तंभ से बांसुरी की, किसी से वीणा की। जिन्होंने यह बनाया, उन्होंने पत्थरों में से संगीत प्रकट कर दिया। आज भी उन अनाम शिल्पियों की ये अमर कृतियां भारतीय शिल्प शास्त्र की गौरव गाथा कहती हैं।

चित्रकला

महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास स्थित अजंता की प्रसिद्ध गुफाओं के चित्रों की चमक हजार से अधिक वर्ष बीतने के बाद भी आधुनिक समय से विद्वानों के लिए आश्चर्य का विषय है। भगवान बुद्ध से संबंधित घटनाओं को इन चित्रों में अभिव्यक्त किया गया है। चावल के मांड, गोंद और अन्य कुछ पत्तियों तथा वस्तुओं का सम्मिश्रमण कर आविष्कृत किए गए रंगों से ये चित्र बनाए गए। लगभग हजार साल तक भूमि में दबे रहे और १८१९ में पुन: उत्खनन कर इन्हें प्रकाश में लाया गया। हजार वर्ष बीतने पर भी इनका रंग हल्का नहीं हुआ, खराब नहीं हुआ, चमक यथावत बनी रही। कहीं कुछ सुधारने या आधुनिक रंग लगाने का प्रयत्न हुआ तो वह असफल ही हुआ। रंगों और रेखाओं की यह तकनीक आज भी गौरवशाली अतीत का याद दिलाती है।

व्रिटिश संशोधक मि। ग्रिफिथ कहते हैं ‘अजंता में जिन चितेरों ने चित्रकारी की है, वे सृजन के शिखर पुरुथ थे। अजंता में दीवारों पर जो लंबरूप (खड़ी) लाइनें कूची से सहज ही खींची गयी हैं वे अचंभित करती हैं। वास्तव में यह आश्चर्यजनक कृतित्व है। परन्तु जब छत की सतह पर संवारी क्षितिज के समानान्तर लकीरें, उनमें संगत घुमाव, मेहराब की शक्ल में एकरूपता के दर्शन होते हैं और इसके सृजन की हजारों जटिलताओं पर ध्यान जाता है, तब लगता है वास्तव में यह विस्मयकारी आश्चर्य और कोई चमत्कार है।‘


साभार : भारतीय संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ हैं.

शिवलिंगम



शिवलिंगकी अर्चना अनादिकालसे जगद्व्यापकहै। संसार के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में लिंगोपासना की चर्चा मिलती है। शुक्लयजुर्वेदकीरुद्राष्टाध्यायीके द्वारा शिवार्चन एवं रुद्राभिषेक करने से समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा अन्त में सद्गति भी प्राप्त होती है। रुद्रहृदयोपनिषद्का स्पष्ट कथन है-

सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:।

अर्थात् शिव और रुद्र सर्वदेवमयहोने से ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। प्राय: सभी पुराणों में शिवलिंगके पूजन का उल्लेख और माहात्म्य मिलता है। हिन्दू साहित्य में जहाँ कहीं भी शिवोपासनाका वर्णन है, वहाँ शिवलिंगकी महिमा का गुण-गान अवश्य हुआ है।

लिंग शब्द का साधारण अर्थ चिह्न अथवा लक्षण है। सांख्य दर्शन में प्रकृति को, प्रकृति से विकृति को भी लिंग कहते हैं। देव-चिह्न के अर्थ में लिंग शब्द भगवान सदाशिवके निर्गुण- निराकार रूप शिवलिंग के संदर्भ में ही प्रयुक्त होता है। स्कन्दपुराणमें लिंग की ब्रह्मपरकव्याख्या इस प्रकार की गई है-

आकाशं लिङ्गमित्याहु:पृथ्वी तस्यपीठिका।

आलय: सर्वदेवानांलयनाल्लिङ्गमुच्यते॥

आकाश लिंग है और पृथ्वी उसकी पीठिका है। इस लिंग में समस्त देवताओं का वास है। सम्पूर्ण सृष्टि का इसमें लय होता है, इसीलिए इसे लिंग कहते हैं।

शिवपुराणमें लिंग शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है-

लिङ्गमर्थ हि पुरुषंशिवंगमयतीत्यद:।

शिव-शक्त्योश्च चिह्नस्यमेलनंलिङ्गमुच्यते॥

अर्थात् शिव-शक्ति के चिह्नोंका सम्मिलित स्वरूप ही शिवलिंगहै। इस प्रकार लिंग में सृष्टि के जनक की अर्चना होती है। लिंग परमपुरुष सदाशिवका बोधक है। इस प्रकार यह विदित होता है कि लिंग का प्रथम अर्थ ज्ञापकअर्थात् प्रकट करने वाला हुआ, क्योंकि इसी के व्यक्त होने से सृष्टि की उत्पत्ति हुई। दूसरा अर्थ आलय है अर्थात् यह प्राणियों का परम कारण है और निवास-स्थान है। तीसरा अर्थ यह है कि प्रलय के समय सब कुछ जिसमें लय हो जाए वह लिंग है। समस्त देवताओं का वास होने से यह लिंग सर्वदेवमयहै। लिंग के आधार रूप में जो तीन मेखलायुक्तवेदिका है, वह भग रूप में कही जाने वाली जगद्धात्री महाशक्ति है। अत:आधार सहित लिंग जगत् का कारण है, उमा-महेश स्वरूप लिंग और वेदी के समायोग में भगवान शंकर के अर्धनारीश्वररूपके ही दर्शन होते हैं। सृष्टि के समय परमपुरुष सदाशिवअपने ही अर्धागसे प्रकृति (शक्ति) को पृथक कर उसके माध्यम से समस्त सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। इस प्रकार शिव- शक्ति का लिंग-योनिभाव और अ‌र्द्धनारीश्वरभाव मूलत:एक ही है। सृष्टि के बीज को देने वाले परमलिंगरूपश्रीशिवजब अपनी प्रकृतिरूपाशक्ति (योनि) से आधार-आधेय की भाँति संयुक्त होते हैं, तभी सृष्टि की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं। श्रीमद्भगवद्गीताके 14वें अध्याय के तीसरे श्लोक से इस तथ्य की पुष्टि होती है-

मम योनिर्महद्ब्रह्मतस्मिन्गर्भदधाम्यहम्।

ंभवत:सर्वभूतानांततोभवतिभारत॥

भगवान कहते हैं- महद्ब्रह्म(महानप्रकृति) मेरी योनि है, जिसमें मैं बीज देकर गर्भ का संचार करता हूँ और इसी से सम्पूर्ण सृष्टि (सब भूतों) की उत्पत्ति होती है। वस्तुत:अनादि सदाशिव-लिंगऔर अनादि प्रकृति-योनि के संयोग से ही सारी सृष्टि उत्पन्न होती है। इस दोनों के बिना सृष्टि की संरचना संभव नहीं है। शिवलिंग (परमपुरुष) जगदम्बारूपीजलहरीसे वेष्टित होने से प्रकृतिसंस्पृष्टपुरुषोत्तम है-

पीठमम्बामयं सर्वशिवलिङ्गंचचिन्मयम्।

अत: इसे जड समझना उचित न होगा। लिंगपुराणमें लिंगोद्भवकी कथा है। सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य एक बार यह विवाद हो गया कि उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है? इतने में उन्हें एक वृहत् ज्योतिर्लिगदिखाई दिया। उसके मूल और परिमाण का पता लगाने के लिए ब्रह्मा ऊपर गए और विष्णु नीचे, किंतु दोनों को उस लिंग के आदि-अन्त का पता न चला। तभी वेद ने प्रकट होकर उन्हें समझाया कि प्रणव (ॐ) में अ कार ब्रह्मा है, उ कार विष्णु है और म कार महेश है। म कार ही बीज है और वही बीज लिंगरूपसे सबका परम कारण है। लिंगपुराणशिवलिंगको त्रिदेवमयऔर शिव-शक्ति का संयुक्त स्वरूप घोषित करता है-

मूले ब्रह्मा तथा मध्येविष्णुस्त्रिभुवनेश्वर:।

रुद्रोपरिमहादेव: प्रणवाख्य:सदाशिव:॥

लिङ्गवेदीमहादेवी लिङ्गसाक्षान्महेश्वर:।

तयो:सम्पूजनान्नित्यंदेवी देवश्चपूजितो॥

शिवलिंगके मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा शीर्ष में शंकर हैं। प्रणव (ॐ) स्वरूप होने से सदाशिवमहादेव कहलाते हैं। शिवलिंगप्रणव का रूप होने से साक्षात् ब्रह्म ही है। लिंग महेश्वर और उसकी वेदी महादेवी होने से लिगांचर्नके द्वारा शिव-शिक्त दोनों की पूजा स्वत:सम्पन्न हो जाती है। भगवान सदाशिवस्वयं लिंगार्चन की प्रशंसा करते हैं-

लोकं लिङ्गात्मकंज्ञात्वालिङ्गेयोऽर्चयतेहि माम्।

न मेतस्मात्प्रियतर:प्रियोवाविद्यतेक्वचित्॥

जो भक्त संसार के मूल कारण महाचैतन्यलिंग की अर्चना करता है तथा लोक को लिंगात्मकजानकर लिंग-पूजा में तत्पर रहता है, मुझे उससे अधिक प्रिय अन्य कोई नर नहीं है।

वस्तुत:शिवलिंगसाक्षात् ब्रह्म का ही प्रतिरूप है। इस तथ्य को जान लेने पर साधक को शिवलिंगमें ब्रह्म का साक्षात्कार अवश्य होता है।

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ॐ नमः शिवाय


साभार : शंखनाद