भारत कथा साहित्य का जनक देश है। भारत रचित कथायें आज विश्व के दूर दराज़ देशों की सभी भाषाओं और शैलियों में प्रचिलित हैं, लेकिन सुनने और पढने वालों को उन के मूल के बारे में कोई जानकारी नहीं होती। पाश्चात्य साहित्यकारों को संस्कृत भाषा की औपचारिक जानकारी अठाहरवीं शताब्दी में मिली थी जिस के पश्चात उन को भारत की साहित्यक प्रतिभाओं का ज्ञान हुआ था। लेकिन साहित्य का हस्तान्तरण श्रुति के आधार पर इस से पूर्व ही हो चुका था। किस सीमा तक हमारी मौलिक साहित्यिक विरास्त बाहर जा चुकी है इस का कोपी-राईट के युग में आंकलन करना अब शौध का विषय है। अंग्रेजी साहित्य के जन्म से कई शताब्दियों पूर्व भारत के कथा संग्रह अपने उत्थान पर पहुँच चुके थे। अठाहरवीं शताब्दी से पूर्व विश्व साहित्य में ऐसी कोई लेखन शैलि नहीं थी जिस का जन्म भारत में नहीं हुआ था।
भारतीय लोक कथा शैलियाँ
बैलेड सिंगिंग - रामायण, महाभारत तथा पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त, भारत के लोक गायक नल-दमयन्ती, राजा भर्तरि, आल्हा-उदल आदि के प्रेम, विरह, और शौर्य की गाथायें ऐकत्रित जन समूहों में गा कर सुनाया करते थे। इसी रिवाज से प्रेरणा ले कर सदियों बाद पाश्चात्य जगत में भी बैलैड सिंगिंग की शुरुआत हुई। पुराण ऐतिहासिक ग्रन्थ होने के साथ साथ कथा साहित्य के प्राचीनत्म ग्रन्थ हैं जो जन जीवन की कथायें अपनें में समेटे हुये हैं। उन कथाओं में जन जीवन चित्रण के साथ समस्या का समाधान भी दिया जाता था। भारतीय लेखक समाज सुधारक पहले भी थे और आज भी उसी परम्परा पर चल रहै हैं। उन की लेखन शैलि में नैतिकता की प्रधानता आदिकाल से रही है।
पंचतंत्र - शताब्दियों पूर्व भारत की लोक कथाओं ने योरुप, अरब तथा पूर्व ऐशिया में लोकप्रियता हासिल कर ली थी। पँचतन्त्र की कथायें, हितोपदेश तथा जातक कथाओं को यात्री अपने देशों में सुनाते रहै थे। मानव कथा साहित्य में पँचतन्त्र से अधिक किसी अन्य कथा ग्रन्थ का योगदान नहीं है। अधिकाँश भारतीयों को शायद पता भी नहीं कि बाईबल के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में यदि कोई पुस्तक सर्वाधिक लोकप्रिय हुई है तो वह विष्णु शर्मा रचित भारतीय साहित्य की अनमोल कृति पँचतन्त्र ही है।
जातक कथायें - हिन्दू आस्थाओं में पुनर्जन्म का प्रावधान अति महत्वशाली है। जातक कथाओं में भगवान बुध (बोधिसत्वः) बार बार कभी बन्दर, हिरण, हाथी, अथवा मानव के रूप में अवतरित होते हैँ और कथा के माध्यम से कोई शिक्षाप्रद संदेश देते हैं। प्रत्येक कथानाक के साराँश में शिक्षात्मक रहस्य अपने आप ही पाठकों को समझ आ जाता है।
हितोपदेश - हितोपदेश में तत्कालिक सामाजिक अवस्थाओं और जन जीवन की दैनिक घटनाओं का शिक्षाप्रद चित्रण किया गया है, जैसे कि जीवन में मित्रों का चुनाव किस प्रकार करना चाहिये, आदि। यह कथायें व्यवहारिक जीवन में सकारात्मिक मूल्यों तथा चरित्र निर्माण का श्रेष्ट स्त्रोत्र हैं।
बैताल पच्चीसी - बैताल पच्चीसी में पच्चीस कथायें हैं। बैताल राजकुमार विक्रम को प्रति रात्रि ऐक कथा सुना कर अन्त में कथा से सम्बन्धित ऐक विश्ष्ट प्रश्न पूछता है जो किसी महत्वपूण नैतिकता के बारे में होता है।
सिहासन बत्तीसी - इसी प्रकार का अन्य संग्रह सिहासन बत्तीसी है जिस में महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन पर बनी बत्तीस पुतलियाँ बारी बारी से महाराज विक्रम के न्याय, शौर्य, या धैर्य से सम्बन्धित कोई वृतानत सुनाती हैं।
शुक-रम्भा - ऐक अन्य कथा संग्रह शुक-रम्भा है जिस में तोता और मैना स्त्री पुरुषों के प्रस्पर प्रेम सम्बन्धों, षटयन्त्रों, ईर्षा, व्याभिचार आदि की कथायें प्रति दिन सुना कर शिक्षा देने हेतु कोई प्रश्न पुछ कर समस्या का समाधान सुझाते हैं। इसी ग्रंथ का उर्दू रुपान्तर किस्सा ‘तोता-मैना ’ है।
लोक कथाओं का रूपान्तिकरण
अरब और ईरानी व्यापारियों के माध्यम से भारत की लोक कथायें तुर्की, रोम तथा योरुप के कई देशों में पहुँचीं। कुस्तुनतुनियाँ (कान्स्टीनोपल) से वह कथायें वेनिस और नेपल्स के व्यापारिक सूत्रों से योरुप और इंगलैंड पहुँची जहाँ वह बोकेशियो, चासर, केरवेन्टिस, शेक्सपियर, लिसेगे लाफोंटेनी तथा वोल्टायर आदि योरुपियन लेखकों की प्रेऱणा स्त्रोत्र बनीं। उस समय साहित्य सर्जन कोई व्यापार नहीं था और कोपी-राईट का कोई विधान नहीं था अतः प्रत्येक विदेशी कहानी लेखक ने कहानी को नयी छवि में रुपान्तरित किया और अपने देश वासियों को सुनाया। मूल कथाओं में इतने परिवर्तन होते गये कि उन की मौलिक छवि से मेल जोल के भारतीय चिन्ह मिटते चले गये। इसी का ऐक उदाहरण प्रस्तुत है।
होलैण्ड देश में समुद्र अकसर तट लाँघ कर स्थल को डुबो देता है। सुरक्षा के लिये पानी को रोकने के लिये स्थानीय लोगों ने तट के साथ साथ मिट्टी और पत्थरों की दीवार निर्माण कर दी थी। फिर भी उस अवरोध पर हर समय नजर रखनी पडती थी कि वह कहीं टूट ना जाये। कोई छोटा सा छेद भी खतरनाक हो सकता था। कई वर्ष पहले होलैण्ड में पीटर नाम का ऐक सात वर्षीय बालक रहता था। ऐक दिन पीटर की माँ ने उस को कुछ दूरी पर किसी नेत्रहीन बूढें व्यक्ति के पास कुछ केक देने के लिये भेजा और रात्रि होने से पूर्व ही लौट आने का आदेश भी दिया । घर वापिस लौटते समय पीटर ने देखा कि समुद्र की उफानी लहरें सुरक्षा दीवार के साथ टकरा रही थीं। उस के देखते ही देखते दीवार में दरार पड गयी और पानी नगर में रिसने लगा। पीटर ने अपने यत्न से दीवार में पानी का रिसाव रोकने की कोशिश की किन्तु दरार बढती गयी और रात्रि का अन्धेरा भी छाने लगा। सर्दी भी बढने लगी थी। पीटर की सहायता के लिये आस पास में कोई नहीं था। उस ने पूरी रात वहाँ अपने हाथों से ही दरार को यथासम्भव रोके रखा और प्रातः नगरवासियों ने उसे थकान के कारण निढाल अवस्था में देखा। लोगों ने दरार को बन्द किया तथा पीटर को उस के घर पर ले गये। उस का ऐक वीर नायक की तरह सम्मान किया गया। अब जब भी सागर गर्जता है तो वहाँ के लोग बच्चों को पीटर के दृष्टाँत से सिखाते हैं कि ऐक अकेला बालक भी बहुत कुछ कर सकता है। माता पिता अपने बच्चों को सागर तट पर ले जा कर पीटर की कहानी सुनाते हैं, लोक गीत गाते है जिस ने साहस कर के अपने नगर को बचा लिया था।
अब तनिक पहचानियें कुछ वैसी ही कथा हमारे प्राचीन ग्रन्थो में बालक उपमन्यु की भी है जो ऋषि अपाद्द्योम्य के गुरुकुल में गायों की देख भाल करता था। ऐक दिन सायंकाल उपमन्यु को वन से सूखी लकडियाँ चुनने के लिये जब भेजा गया तो उस ने देखा कि गुरुकुल के खेत में जल भरता जा रहा था। उसे आशंका हुई कि यदि जल का रिसाव ना रोका गया तो प्रातः काल होने तक खेत नष्ट हो जाये गा। उपमन्यु ने पहले तो अपने यत्न से रिस्ती हुयी मेड की मरम्मत की किन्तु जब सफलता नहीं मिली तो स्वयं मेड बन कर रात भर जल में ही लेटा रहा और खेत को नष्ट होने से बचा लिया। अगले दिन गुरु तथा गुरुकुल के विद्यार्थियों ने उसे ढूंड निकाला।
दोनों लोक कथाओं में एक बालक की कर्तव्य परायणता दर्शायी गयी है। घटनायें एक जैसी हैं केवल बैकग्राऊड बदली गयी है। इसी प्रकार शेक्सपियर के नाटक मेकबेथ में मेकडफ पात्र की मृत्यु का पटाक्षेप महाभारत से प्रेरित है। कई अन्य लोकप्रिय कथायें जैसे कि हैंस ऐन्डरसन की फेयरी-टेल्स में मैजिक मिरर, जैक एण्ड दि बीन्स स्टाक, पर्स आफ फार्चुनेटस इत्यादि का मूल स्त्रोत्र भारतीय लोक कथाओं से है। कई कथाये जातक कथाओं तथा ‘कथासरितसागर’ से ली गयी हैं। अरेबियन नाईटस की भी कई कथाओं का मूल स्त्रोत्र भारतीय है। अरब इतिहासकार अलमसूद के अनुसार सिन्दबाद की विश्व प्रसिद्ध कथा ‘किताब-एल-सिन्दबाद’ का स्त्रोत्र भी भारत से है।
विश्व साहित्य पर भारतीय प्रभाव
कथा शैली - प्रति दिन ऐक कथा सुना कर नैतिकता दर्शाने की भारतीय कथा शैली का विश्व के सभी प्राचीन कथाकारों ने प्रयोग किया है। 1350 ईस्वी में लिखी ईंगलिश साहित्य की प्रथम पुस्तक चासर कीकेन्टरबरी-टेलेस हैं जहाँ कहानी सुनाने की भारतीय शैली को अपनाया गया है। केन्टरबरी जाने वाला प्रत्येक तीर्थयात्री सराय में अपनी बारी आने पर समय काटने के लिये ऐक ऐक कहानी दूसरे यात्रियों को सुनाता है।
सूत्रधार - नाटक के कथानक के वह अँश जिन को रंग मंच पर दृष्य में दिखाना सम्भव नहीं होता था उसे कालीदास तथा अन्य भारतीय नाटक कार ‘सूत्रधार’ के माध्यम से दर्शकों को अवगत कराते थे। इसी शैली का प्रयोग शेक्सपियर ने भी सोहलवीं शाताब्दी में किया। महारानी ऐलिजाबेथ प्रथम के काल के नाटक कारों ने प्रोलोग (प्रस्तावना) तथा एपिलोग (उपसंहार) का प्रयोग भी नाटकों में किया है। वास्तव में यह प्रथा कालीदास के समय की है जब इंगलैंड वासियों को रोमन लिपि का ज्ञान ही नहीं था। विलियम शेक्सपियर के समकालीन नाटककार क्रिस्टोफर मार्लो के नाटक डाक्टर फासस्टस की प्रसिद्ध प्रस्तावना (प्रोलोग) भी कालीदास प्रेरित है।
विदूषक – नाटकों में ऐक अन्य भारतीय प्रथा ‘विदूषक’ की भूमिका थी जिस को माध्यम बना कर नाटककार अपनी निजि टिप्पणियाँ कथानक के बीच में करते रहते थे। किसी ‘मूर्ख’ के चरित्र में विदूषक नायक या नायिका का सहयोगी पात्र होता था। विदूषक की भूमिका का अन्य लक्ष्य दुखान्त भाव को हास्यरस से क्षीण (कोमिक रिलीफ) कर के दर्शकों की भावनाओं में संतुलन बनाना होता था। ऐलिजाबेथ काल के नाटकों में से मुख्यतः शेक्सपियर के ऐतिहासिक नाटकों में विदूषक फालस्टफ इसी प्रकार के पात्र है जिस की प्रेरणा के जनक कालीदास थे।
नृत्य नाटिका - रंग मंच के सभी पक्षों पर मौलिक प्राचीनत्म ग्रंथ भरत मुनि रचित नाट्यशास्त्र है जो तीसरी शताब्दी में रचा गया था। महाकाव्यों और लोक कथाओं के अतिरिक्त कथाओं का गा कर या नृत्य-नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का चलन भी भारतीय है। कालीदास को ओपेरा का जनक कहना उचित होगा। भारत में सातवीं शताब्दी से पूर्व ही नृत्य-नाटिका लोकप्रियता की प्राकाष्ठा को पहुँच चुकी थी जब कि इंगलैण्ड, आस्ट्रीया आदि योरोपियन देशों में ओपेरा का कोई नामोनिशान ही नहीं था। कालीदास के अतिरिक्त भवभूति, बाणभट्ट और स्वयं महारज हर्षवर्द्धन उच्च कोटि के नाटककार थे।
संस्कृत साहित्य प्राचीन परम्परा और आधुनिक विचारधारा को जोडने में सफल रहा है। कालीदास की शकुन्तला पर आधारित शकुन्तला ओवरचर हंगरी देश के संगीतकार कार्ल गोल्डमार्क (1830-1915) की ऐक श्रेष्य़तम संगीत कृति है। उस के मतानुसार यदि कालीदास की भाषा इतनी सशक्त ना होती तो वैसी संगीत कला कृति की रचना असम्भव होती। लेकिन कालीदास रचित नृत्य नाटिका शैली को योरूप में फलने फूलने के लिये सोहलवीं शताब्दी तक इन्तिजार करना पडा था।
नाटकीय चित्रण का ऐक उदाहरण कालीदास के प्रसिद्ध नाटक रघुवंशमहाकाव्यम् से यहाँ प्रस्तुत है
स्वयंवर में वर चुनने की प्रक्रिया में राजकुमारी इन्दुमती जयमाला लिए राजाओं की पंक्ति के बीच से गुजर रही है। चलती हुई दीपशिखा की भाँति इन्दुमती जिस--जिस राजा के पास से गुजर जाती थी वह राजा प्रकाश के आगे बढ़ जाने पर अंधेरी अट्टालिकाओं की तरह कांतिहीन हो जाता था। इस प्रकार के दृश्य का पूर्ववर्ती साहित्य में कहीं उल्लेख नहीं हुआ है जब कि परवर्ती फ़िल्मों और धारावाहिकों में इससे प्रेरणा लेकर आज भी यह दृश्य प्रस्तुत किया जाता है। सदियों बाद इस प्रकार के दृष्य केवल फिल्म मुगले-आजम में ही देखने को मिले थे।
साहित्य शैली का सम्पू्र्ण विकास
साहित्य सर्जन में सभी प्रकार की लेखन शैलियों जिन में श्रव्य-काव्य (जो मौखिक सुनाये जाते हैं) तथा दृष्य-काव्य जो नाटक आदि की तरह दिखाये जाते हैं का विकास भारत में ही स्वतन्त्र रूप से हुआ था। उन्ही स्वरूपों को अन्य भाषाओं ने भी बाद में अपनाया। जैसे किः-
- गूढ रहिस्य समझाने के लिये प्रश्न-उत्तर संवाद की शैली अधिक सक्षम मानी जाती है जिसे पुराणों, उपनिष्दों तथा गीता में अपनाया गया था।
- महाकाव्य महामानवों सम्बन्धी घटनाओं को अलंकिृत कर के दर्शाते हैं तथा उन की लेखन शैली में उपमा, तुलना और अतिश्योक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग होता है जो रामायण तथा महाभारत तथा संस्कृत नाटकों में प्रचुर मात्रा में देखे जा सकते हैं। यही प्रभाव होमर कृत ‘औडेसी’ (ग्रीक), दाँते कृत‘इलियड’ (लेटिन) और मिलटन रचित ‘पैराडाईज लोस्ट’ (इंग्लिश) के ग्रैंड-स्टाईल में देखा जा सकता है। संस्कृत भाषा के उन्हीं अलंकारों (फिगर्स आफ स्पीच) का इस्तेमाल ही अंग्रेजीं साहित्य में किया गया है जिन्हें सिमली (उपमा) कमेपेरिज़न (तुलना) और मेटाफर (अतिश्योक्ति) आदि कहा जाता है। कोई इतिहासकार या साहित्य विषेज्ञ्य यह कह कर उल्टी गंगा नहीं बहा सकता कि संस्कृत साहित्य को अलंकारों के प्रयोग की प्रेरणा अंग्रेजी साहित्यकारों ने दी थी।
- महाकाव्यों में ‘मंगलाचरण’ दूारा प्रेरणादायक इष्ट (गणेश, सरस्वती आदि) को सर्वप्रथम अभिवादन किया जाता है। विदेशी महाकवि होमर, दाँते और मिलटन आदि ने भी उसी परम्परानुसार अपने महाकाव्यों में अपने प्रेरणादायक ‘हैवनली म्यूज’ की आराधना करी है।
- वेदों में देवताओं, प्रकृतिक शक्तियों तथा औष्धियों को ‘सम्बोधन’ कर के उन का बखान किया गया है। इस शैली को अंग्रेज़ी में ‘ओड’ कहा जाता है जिस का प्रयोग अंग्रेजी साहित्य के रोमांटिक कवि जोन कीट्स और शौलि ने सर्वाधिक किया था जैसे कि कीट्स की ओड टू नाईटिंगेल, ग्रऐशियन अर्न, मेलंकोली और शैली की ओड टू वेस्ट विंड हैं।
गुप्त काल के विश्व प्रसिद्ध नाटककार कालीदास को इण्डियन शेक्सपियर की उपाधि से सम्मानित होते देख कर हम भारतवासी ‘गर्व’ तो महसूस करते हैं परन्तु यह उस प्रकार है जैसे कोई पिता कहे कि उस में उस के पुत्र के सभी गुण विद्यमान हैं। आजतक किसी भारतीय ने शेक्सपियर को ‘इंग्लैण्ड का कालीदास’ कहने का साहस नहीं किया है, क्योंकि जितना प्रेम अंग्रेज अपने शेक्सपियर से करते हैं उतना भारतीय कालीदास से नहीं करते। अंग्रेजी का गुणगान करने वालों को शायद मालूम नहीं कि आज से केवल 800 वर्ष पूर्व, तेहरवीं शताब्दी तक विश्व में अंग्रेज़ी नाम की कोई भाषा नहीं थी। अंग्रेजी के जन्म से चार सौ वर्ष पूर्व हिन्दी भाषा ने भी अपने साहित्यिक इतिहास का सवर्णमय ‘वीर-गाथा काल’ समाप्त कर के ‘भक्ति-काल’ में प्रवेश कर लिया था। पृथ्वीराज-रासो, वीसलदेव-रासो, और पद्मावत आदि महाकाव्य लिखे जा चुके थे। संत कबीर के समक्ष अंग्रेजी साहित्य में कोई भी मेटाफिजिकल कवि नहीं है। किन्तु आज भी हमारी ‘नाम-मात्र राष्ट्रभाषा’ हिन्दी भारत में ही उपेक्षित हो रही है।
साभार : चाँद शर्मा
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