Pages

Sunday, August 5, 2012

भारत का ज्योतिष विज्ञानं


ज्योतिष विद्या को वेदाँग माना गया है। सौर मण्डल के ग्रहों का प्रभाव हमारे शरीर, और विचारों पर पडना ऐक ऐसा वैज्ञानिक सत्य है जिस से इनकार नहीं किया जा सकता। विचारों के अनुसार ही कर्म होते हैं जिन के फल जीवन में सुख दुःख का कारण बनते हैं। ऋषियों नें ग्रहों के प्रभाव को जीवन की घटनाओं के साथ जोडने और परखने के लिये ज्योतिष ज्ञान रचा था।
कालान्तर भविष्यवाणियाँ करने का कार्य मुख्यता ब्राह्मणों का व्यवसाय बन गया। समय के साथ जीवन में सुख वृद्धि और दुःख निवार्ण के उपचार के लिये इस विद्या में सत्यता और प्रमाणिक्ता के अतिरिक्त वहम, आडम्बर और अविशवास भी जुडते  गये। आज विश्व में कोई भी सभ्यता ज्योतिष, हस्त रेखा ज्ञान, अंक विशलेष्ण, ओकल्ट (भूत प्रेत) टोरोट कार्ड, और कई प्रकार के जन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, टोनें, टोटकों, तथा रत्नों के प्रयोग से अछूती नहीं है। आजकल प्रसार के सभी माध्यमों पर असला-नकली ज्योतिषियों की भरमार देखी जा सकती है।

ज्योतिष शास्त्र

भारतीय ज्योतिषियों के अनुसार सभी ग्रहों का प्रभाव जीवों पर सदा ऐक जैसा नहीं रहता बल्कि जन्म समय के ग्रहों की आपसी स्थिति के अनुसार घटता बढता रहता है। ग्रह अपना सकारात्मिक या नकारात्मिक प्रभाव डालते रहते हैं। प्रत्येक मानव का व्यक्तित्व सकारात्मिक तथा नकारात्मिक प्रभावों का सम्मिश्रण बन कर विकसित होता है। ग्रहों के हानिकारक प्रभावों को ज्योतिषी उपचारों से लाभकारी प्रभाव में बदला जा सकता है। यह तर्क ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी के शरीर में होमोग्लोबिन की मात्रा कम हो तो उसे विशेष पौष्टिक आहार या व्यायाम करवा कर उस का उपचार किया जा सकता है।
भारतीय ज्योतिष की प्रमाणिक्ता
भिन्न भिन्न देशों में भविष्यवाणियों सम्बन्धी अपने अपने आधार हैं। चीन के ज्योतिषी जन्म समय के बजाय जन्म वर्ष को आधार मानते हैं। उन के अनुसार वर्षों में कई भाग भिन्न भिन्न जानवरों की मनोस्थिती को व्यक्त करते हैं और उस भाग में पैदा हुये सभी मानवों में भाग की अभिव्यक्ति करने वाले जानवरों जैसे मनोभाव हों गे। पाश्चात्य ज्योतिषी सभी गणनाओं में सूर्य को केन्द्र मान कर अन्य ग्रहों की स्थिति का विशलेषण करते हैं, किन्तु भारतीय पद्धति में सूर्य के स्थान पर चन्द्र को अधिक महत्व दिया गया है क्यों कि पृथ्वी का निकटतम ग्रह होने के काऱण चन्द्र मनोदशा पर सर्वाधिक प्रभावशाली होता है।
भारत के खगोल शास्त्रियों को ईसा से शताब्दियों पूर्व 27 नक्षत्रों, सात ग्रहों तथा 12 राशियों की जानकारी प्राप्त थी। प्रत्येक राशि में जन्में लोगों में भिन्न रुचियाँ और क्षमताये होती हैं जो अन्य राशि के लोगों को अपने अपने प्रभावानुसार आकर्शित या निष्कासित करती हैं।
पृथ्वी धीरे धीरे अपनी धुरी पर झुकती रहती है जिस कारण पृथ्वी तथा सूर्य की दूरी प्रत्येक वर्ष लगभग 1/60 अंश से कम होती है। आज कल यह झुकाव 23 अँश है जो ऐक सम्पूर्ण नक्षत्र के बराबर है। इन नक्षत्रों की गणना चन्द्र दूारा पृथ्वी की परिकर्मा पर आधारित है जो चन्द्र अन्य तारों की अपेक्षा करता है। प्रत्येक व्यक्ति की गणना का आधार उस की जन्म तिथि, समय तथा स्थल पर निर्भर करता है। भारतीय ज्योतिष उन्हीं ग्रहों के प्रभाव का आँकलन मानव की प्रकृति, मानसिक्ता तथा शरीरिक क्षमताओं पर करता है। कर्म क्षमताओं के आधार पर होंते हैं और कर्मों पर भविष्य निर्भर करता है। अतः व्यक्ति के जन्म समय के नक्षत्रों की दशा जीवन के सभी अंगों को प्रभावित करती रहती है। ग्रहों के प्रभाव को अनुकूल करने में रत्न आदि उस के सहायक होते हैं।
भारत वासियों ने प्राचीन काल से ही सौर मण्डल के प्रभाव को जन जीवन की घटनाओं तथा रस्मों के साथ जोड लिया था। भारतीय ज्योतिष ज्ञान वास्तव में सृष्टि की प्राकृतिक ऊर्जाओं के प्रभावों का विज्ञान है। मानव कई ऊर्जाओं का मिश्रण ही है। परिस्थितियों पर ग्रहों के आकर्षण, भिन्न भिन्न कोणों तथा मात्राओं का प्रभाव भी पडता रहता हैं। उन्हीं असंख्य मिश्रणों के कारण ही ऐक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से शरीरिक, मानसिक तथा वैचारिक क्षमताओं में भिन्न होता है। भारत का ज्योतिष शास्त्र विश्व में सर्वाधिक प्रमाणित है जिस का आधार भारतीय खगौलिक गणनायें हैं। 
भृगु संहिता
जन्म कुण्डलियों की लगभग सभी सम्भावनाओं की गणना कर के भृगु ऋषि ने ‘भृगु-संहिता’ ग्रंथ की रचना करी थी। कालान्तर सम्पूर्ण मूल ग्रंथ लुप्त हो गया। उस ग्रंथ के कुछ पृष्ट आज भी कई भविष्यवक्ता परिवारों की पैत्रिक सम्पत्ति बन चुके हैं जो भारत में कई जगह बिखरे हुये हैं। सौभाग्यवश यदि किसी की जन्म कुण्डली के ग्रह भृगु-संहिता के अवशेष पृष्टों से मिल जायें तो ज्योतिषी उस व्यक्ति के ना केवल वर्तमान जीवन की घटनायें बता देते हैं बल्कि पूर्व और आने वाले जन्मों की भविष्यवाणी भी कर देते हैं। इस क्षेत्र में नकली पृष्टों और भविष्यवक्ताओं का होना भी स्वभाविक है।
इस सम्बन्ध में ऐक रोचक उल्लेख है। ऐक बार मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के पास काशी से ऐक ज्योतिषी आया जिसे शाहजहाँ ने परखने के लिये कुछ आदेश दिये। आदेशानुसार ज्योतिषी ने गणना करी और अपनी भविष्यवाणी ऐक कागज़ पर लिख दी। वह कागज़ बिना पढे ऐक संदूक में ताला लगा कर बन्द कर दिया गया तथा ताले की चाबी शाहजहाँ नें अपने पास रख ली। इस के उपरान्त रोज़ मर्रा की तरह शाहजहाँ अपनी राजधानी दिल्ली के चारों ओर बनी ऊँची दीवार के घेरे से बाहर निकल कर हाथी पर घूमता रहा। उस ने कई बार नगर के अन्दर वापिस लौटने का उपक्रम किया परन्तु दरवाजों के समीप पहुँच कर अपना इरादा बदला और घूमता रहा। अन्त में उस ने ऐक स्थान पर रुक कर वहाँ से शहरपनाह तुडवा दी और नगर में प्रवेश किया। किले में लौटने के पश्चात तालाबन्द संदूक शाहजहाँ के समक्ष खोला गया। जब भविष्यवाणी को खोल कर पढा गया तो शाहजहाँ के आश्चर्य कि ठिकाना नहीं रहा। लिखा था – आज शहनशाह ऐक नये रास्ते से नगर में प्रवेष करें गे।   
कर्म प्रधानता का महत्व
हिन्दू धर्म कभी भी केवल भाग्य पर भरोसा कर के व्यक्ति को निष्क्रय हो जाने का उपदेश नहीं देता बल्कि व्यक्ति को सदा पुरुषार्थ करने कि लिये ही प्रोत्साहित करता है। कर्म करने पर मानव का अधिकार है परन्तु फल देने का अधिकार केवल ईश्वर का है। अतः हताश और निराश होने के बजाय जो भी फल मिले उस को अपना भाग्य समझ कर स्वीकार करना चाहिये। परिश्रम करते रहना ही कर्म का मार्ग है।
हस्त रेखा विज्ञान
ज्योतिष से ही संलग्ति हस्त रेखा विज्ञान भी भारत में विकसित हुआ था। इस के जनक देवऋषि नारद थे। ऋषि गौतम, भृगु, कश्यप, अत्रि और गर्ग भी इस ज्ञान का अग्रज थे। महाऋषि वाल्मिकि ने इस ज्ञान पर 567 पद्यों की रचना भी की थी। वराहमिहिर ने भी अपने खगौलिक ग्रंथ में हस्त रेखा विज्ञान पर अपना योगदान दिया है।
हस्त रेखा विज्ञान के मुख्य प्राचीन ग्रंथ 'सामुद्रिक-शास्त्र', 'रावण-संहिता' तथा 'हस्त-संजीवनी' हैं जो आज भी उपलब्द्ध हैं। ईसा से 3000 वर्ष पूर्व, भारत से यह विद्या चीन, तिब्बत, मिस्र, मैसोपोटामियां (इराक) तथा इरान में गयी थी। उन्हीं देशों के माध्यम से फिर आगे वह यूनान और अन्य योरुपीय देशों में फैली। सभी देशों में हस्त रेखाओं की पहचान भारत के अनुरूप ही है परन्तु विशलेषण की मान्यताओं में  भिन्नता होनी स्वाभाविक है।
अरुण-संहिता
संस्कृत के इस मूल ग्रंथ को अकसर 'लाल-किताब' के नाम से जाना जाता है। इस का अनुवाद कई भाषाओं में हो चुका है। मान्यता है कि इस का ज्ञान सूर्य के सार्थी अरुण ने लंकाधिपति रावण को दिया था। यह ग्रंथ जन्म कुण्डली, हस्त रेखा तथा सामुद्रिक शास्त्र का मिश्रण है और जिन व्यक्तियों को अपनी जन्म कुण्डली की सत्यता पर भरोसा ना हो तो वह अरुण-संहिता के ज्ञान के आधार पर अपने जीवन की बाधाओं का समाधान कर सकते हैं। यह ग्रंथ उन देशों में अधिक लोकप्रिय हुआ जहाँ जन्म कुण्डली बनाने का रिवाज नहीं था।
हाथ की लकीरों का अध्यन कर के मानव के भूत, वर्तमान तथा भविष्य का सही आंकलन किया जा सकता है क्यों कि हस्त रेखाओं का उदय प्रत्येक व्यक्ति के जन्म समय नक्षत्रों के प्रभाव के अनुसार होता है। इस तथ्य को आज विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है कि विश्व में दो व्यक्तियों की हस्तरेखाओं में पूर्ण समानता नहीं होती। इसी लिये सुरक्षा के निमित पहचान पत्र बनाने के लिये आज बायोमैट्रिक पहचान प्रणाली को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। 
जन्म समय के ग्रहों की स्थिति और दशा हाथ पर जो प्राकृतिक मानचित्र बना देती हैं उसी के आधार पर शरीर में भावनाओं और क्षमताओं का विकास होता है। प्राकृति ने मानव के चेहरों, हाथों और शारीरिक अंगों में इतने प्रकार बना दिये हैं जिन के आधार पर ऐक मानव आचार विचार में दूसरे से भिन्न है।
स्त्री पुरुषों के शारीरिक अंगों का विशलेषण कर के ऋषि वात्सायन ने उन का वर्गीकरण किया था। मान्यता है कि ऊँची नाक वाले लोग घमण्डी होते है, छोटे मस्तक वाले मन्द बुद्धि होते हैं। तथा इस प्रकार के अंग विशलेष्ण नाटकों, चलचित्रों आदि के माध्यम मे पात्रों के चरित्र का बखान उस के बोलने या क्रियात्मिक होने से पहले ही कर देते हैं। इस विज्ञान को अंग्रेजी में फ्रैनोलाजी का नाम दिया गया है जिस के आधार पर नाटकों और चलचित्रों में पात्र का मेकअप निर्धारित किया जाता है। 
रत्न-विज्ञान
भारत में ज्योतिष विज्ञान तथारत्न-विज्ञान दोनों साथ साथ ही विकसित हुये। विश्व में सर्व प्रथम हीरों की खदानों का काम भारत में ही आरम्भ हुआ था। महऋषि शौणिक ने हीरों की विशेषताओं के आधार पर उन्हें चार श्रेणियों में बाँटा जिन के नाम खनिजः, कुलजः, शैलजः तथा कृतिकः रखे गये।
रत्न प्रदीपिका - रत्न प्रदीपिका ग्रंथ में हीरों, मोतियों तथा अन्य नगीनों की विस्तरित जानकारी दी गयी है। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में बोरेक्स, लवणों, फिटकरी तथा ओश्रा के माध्यम से कृत्रिम हीरे बनाने का भी वर्णन है।
अर्थशास्त्र - कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में हीरों की व्याख्या करते लिखा है कि हीरे आकार में बडे तथा बहुत कडे होते हैं जो समानाकार में खुरचने में सक्षम तथा आघात सहने में भी सक्षम होते हैं। वह अत्यन्त चमकदार होते हैं और धुरी (स्पिंडल) की भान्ति तेज़ी से घूम सकते
हीरों के अतिरिक्त भारतीयों को अन्य रत्नों की विशेषताओं के बारे में भी विस्तरित जानकारी थी जिन का प्रयोग आभूषण बनाने के अतिरिक्त चिकित्सा के क्षेत्र में भी किया जाता था। रत्नों के धारण करने से कई प्रकार की मानसिक तथा शरीरिक दुर्बलताओं का उपचार भी किया जाता था। शरीर के भिन्न भिन्न अंगों पर आभूषणों में जड कर रत्न पहनने से ग्रहों के दुष्प्रभाव को घटाया तथा अनुकूल प्रभाव को बढाया भी जा सकता था। आज भी विश्व भर में लोग कई तरह के रत्न इसी कारण पहनते हैं। महाभारत में पाँडवों ने अश्वथामा के माथे से जब नीलम मणि को दण्ड स्वरूप उखाडा था तो अश्वथामा का समस्त तेज नष्ट हो गया था। 
भिन्न भिन्न नगों को भिन्न भिन्न देवी देवताओं के प्रभाव के साथ जोडा जाता है तथा यह दुष्प्रभाव को घटा कर उचित प्रभाव को प्रदान करने में सहायक सिद्ध होते हैं। यह ज्ञान विज्ञान तथा आस्था के क्षेत्र का संगम है।
ज्योतिष ज्ञान व्यक्ति की प्रकृति की भविष्यवाणी करता है। व्यक्ति अपनी प्रकृति के संस्कार मातापिता से जन्म समय ग्रहण करता है किन्तु प्रकृति को शिक्षा, ज्ञान, तप, साधना वातावरण, कर्म तथा इच्छा शक्ति से परिवर्तित भी किया जा सकता है। कर्म सुधारने से फल भी संशोधित हो जाता है। भविष्यवाणियों को चेतावनी के तौर पर मानना चाहिये और समय रहते उचित कर्म कर के आने वाली विपत्ति के असर को कम किया जा सकता है। मानव को भविष्यवाणियों के आधार पर ना तो दुस्साहसी होना चाहिये और ना ही डर कर निराश हो जाना चाहिये।
साभार : चाँद शर्मा

1 comment:

हिंदू हिंदी हिन्दुस्थान के पाठक और टिप्पणीकार के रुप में आपका स्वागत है! आपके सुझावों से हमें प्रोत्साहन मिलता है कृपया ध्यान रखें: अपनी राय देते समय किसी प्रकार के अभद्र शब्द, भाषा का प्रयॊग न करें।