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Wednesday, February 29, 2012

भारत का विनाश करने वाला निष्क्रिय कोंग्रेस शासन

भारतके हितकी उपेक्षा कर आतंकवादको बढावा देनेवाले निष्क्रिय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह !

‘जिस प्रकार, ऋतुओंमें नित्य परिवर्तन सामान्य घटना हैं’, उसी प्रकार भारतमें बमविस्फोट होना, अब नित्यकी बात हो गई है । वह कब होगा, इसकी प्रतीक्षा करना ही समस्त भारतीयोंके भाग्यमें है । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंहजीके हाथोंमें सर्व सत्ता एवं सुरक्षा व्यवस्था है, तब भी बमविस्फोटकी पूर्वसूचना मिलनेपर उनका शासन कुछ नहीं करता । ऐसे निष्क्रिय प्रधानमंत्री मिलना समस्त भारतीयोंका दुर्भाग्य ही है ।

१. शासकोंकी निष्क्रियताके कारण अतिसाधारण आतंकवादी संगठनोंका भारतको धमकाना : ७.९.२०११ को हुए दिल्लीमें बमविस्फोटके पश्चात् प्रधानमंत्री मनमोहन सिंहने नित्यकी भांति कह डाला, ‘यह कायरतापूर्ण कृत्य है ।’ उन्होंने बताया नहीं कि, इस स्थितिमें उन्होंने क्या किया । उन्होंने कुछ नहीं किया । १२० करोडकी जनसंख्यावाले इस देशको एक अतिसाधारण आतंकवादी संगठन, ‘हम बमविस्फोट करनेवाले हैं, साहस है तो रोककर दिखाओ !’ ऐसा संगणकीय पत्र (ई-मेल) भेजनेका दुस्साहस करता है । इससे स्पष्ट होता है कि प्रधानमंत्री कितने कायर हैं । तोतेके समान रटे-रटाए कुछ वाक्य हम भारतीयोंके समक्ष बोलना, इसे वे अपने दायित्वकी पूर्ति समझ बैठे हैं ।

२. शासकोंके स्वार्थीपन एवं निष्क्रियताके कारण फांसीका दंड भी हास्यास्पद बना ! : अफजल एवं कसाबकी फांसीको कब क्रियान्वित करेंगे ? इस देशमें फांसीका दंड भी अब हास्यास्पद हो गया है; क्योंकि संसदपर आक्रमण करनेवालेको फांसीका दंड सुनाए पांच वर्ष बीत गए हैं एवं इस घटनाको भी अब १० वर्ष हो गए हैं । फांसीका दंड सुनाकर भीr फांसी नहीं दी जाती, तो आतंकवादियोंके लिए दंडव्यवस्थाका क्या प्रयोजन है ? जनताको भ्रमित कर क्या मिलेगा ?

३. प्रधानमंत्री तथा भूतपूर्व प्रख्यात अर्थशास्त्री मनमोहन सिंहजीका उलटा न्याय ! : मनमोहन सिंहजी अर्थशास्त्री हैं न ? बमविस्फोटमें अकारण मृत निर्दोष व्यक्तियोंके परिजनो तथा पीडित व्यक्तियोंको २-४ लाख रुपए ही देते हैं; किंतु जिहादी कसाबका पोषण तथा उसकीr सुरक्षाव्यवस्थापर भारतके करोडों रुपए पानीकी भांति बहा रहे हैं ! यह वैâसा न्याय है ? यह देश आतंकवादियोंका है अथवा हम भारतीयोंका ? आतंकवादियोंको कठोर दंड देना तो दूरकी बात रही, उन्हें विविध सुख-सुविधाएं देकर आतंकवादका पोषण किया जा रहा है । लज्जा तो प्रधानमंत्रीजी त्याग ही चुके हैं; परंतु समाजकी मर्यादाका ध्यान रखते हुए वे अब अपनेपदसे त्यागपत्र दे दें । भारतवासियोंकी दृष्टिमें इस पदकी कोई गरिमा एवं मर्यादा शेष नहीं रह गई है ।’

आतंकवादकी समस्याको जड-मूलसे मिटानेके लिए रामबाण पद्धतिका प्रयोग न कर,
ऊपरी उपाययोजनाका दिखावाकर जनताको भ्रमित करनेवाला कांग्रेसी शासन !

‘भारतमें नित्य बमविस्फोट हो रहे हैं । उन्हें रोकनेके लिए आतंकवादियोंके गढ नष्ट करना, देशकी सीमाएं सुरक्षित करना, आतंकवादियोंको शीघ्राति-शीघ्र कठोर दंड देना इत्यादि प्रक्रिया क्या कांगे्रस शासनको ज्ञात नहीं है ? सच तो यह है कि वे ऐसा करना ही नहीं चाहते । आतंकवादियोंके सामने आपको हिंदुओंके अर्थात् भारतीयोंके प्राणोंका मोल नगण्य एवं तुच्छ लगता है । ऐसेमें, जनताकी सुरक्षाका प्रश्न ही कहां उठता है ?

भारतमें निरंतर बमविस्फोट होते हैं । इसलिए सर्वत्र सुरक्षा बढानेपर बल दिया जा रहा है । इसका अर्थ यह है कि दुर्घटनाके कारणोंका उन्मूलन करनेकी अपेक्षा आप दुर्घटनासे पीडितोंके लिए चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध करनमें व्यस्त रहते हैं । दुर्घटना हो ही नहीं, इस हेतु यदि कटिबद्ध रहते, तो उपरोक्त स्थिति उत्पन्न नहीं होती । ठीक इसी प्रकार, देशकी आंतरिक सुरक्षा बढानेकी अपेक्षा देशकी जनता निर्भय रहे, ‘देशमें एक भी आतंकवादी आक्रमण न हो, इस हेतु शासकोंद्वारा ठोस कदम उठाए जाने आवश्यक हैं । कांगे्रसी शासकोंसे ऐसी आशा देशकी जनता त्याग चुकी है । इस हेतु अब राष्ट्र एवं धर्मप्रेमी शासकोंके शासनकी आवश्यकता है ।’

आतंकवादियोंद्वारा खोखला कर दिए गए भारतकी वर्तमानस्थिति
सुधारनेके लिए कांग्रसियोंको सत्तासे हटाना ही एकमात्र उपाय !

आज विश्वमें भारत एकमात्र ऐसा देश है, जो आतंकवादियोंके लिए नंदनवन बन गया है तथा जहां निरंतर बमविस्फोट होते हैं । इसके लिए उत्तरदायी हैं, भारतके निष्क्रिय शासक! आतंकवादियोंने राजधानी दिल्लीमें, दिन-दहाडे अत्यंत भीड-भाडवाले न्यायालय परिसरमें बमविस्फोट किया; परंतु आजतकके अनुभवोंके आधारपर कहा जा सकता है कि कांगे्रसी शासक उन आतंकवादियोंको बंदी नहीं बनाएंगे । यदि बंदी बनाते भी हैं, तो अनेक अफजल, कसाब खडे हो जाएंगे तथा उनका पालन-पोषण करने एवं अभियोग चलानेमें जनताका विपुल धन व्यय होगा । इस छलसे जनता ऊब चुकी है । इसके लिए कांग्रेसको नष्ट करना ही एकमात्र विकल्प है ।’ – श्रीमती राजश्री खोल्लम (भाद्रपद शु. चतुर्दशी, कलियुग वर्ष ५११३ (११.९.२०११)

भारत, यदि हिंदु राज्य होता, तो ऐसा कभी नहीं होता !

१. ‘जिन लाखों हिंदु एवं सिख शरणार्थियोंको वर्ष १९४७ में पाकिस्तानसे निकाला गया था, उन्हें कश्मीरमें बसा दिया गया होता !

२. १९७१ में जब ‘बांग्लादेश’को स्वाधीनता मिली, तब वहांसे जिन हिंदुओंको निकाला जा रहा था, उनके लिए उसी समय बांग्लादेशका एक तृतीयांश भू-भाग सुरक्षित कर लिया गया होता!

३. नेपाल जैसे हिंदु राष्ट्रको उद्ध्वस्त करनेकी माओवादी, पाकिस्तानी, ईसाई मिशनरियोंकी चालें सफल न होतीं

४. ‘मुसलमानोंकी जनसंख्यात्मक आक्रमकताके कारण भारतका ‘हिंदु’ रूप संकटमें है । यहांकी हिंदु जनसंख्यामें होनेवाली घटौती एवं मुसलमान तथा ईसाइयोंकी जनसंख्यामें होनेवाली वृद्धिसे परिस्थिति इतनी गंभीर हो चुकी है कि वर्ष २०५१ तक भारतमें हिंदु अल्पसंख्यक हो जाएंगे ।’ (संदर्भ : जनगणना प्रतिवेदन २००१ : Centre for Policy studies) भारत, यदि हिंदु राज्य होता, तो ऐसा कभी नहीं होता !

(मासिक अभय भारत, १५ अक्तुबर से १४ नवंबर २०१०)
SAABHAR : SANATAN PRABHAT

Saturday, February 25, 2012

इमाम हुसैन का भारतप्रेम !!



यह एक सर्वमान्य सत्य है कि इतिहास को दोहराया नहीं जा सकता है और न बदलाया जा सकता है ,क्योंकि इतिहास कि घटनाएँ सदा के लिए अमिट हो जाती है .लेकिन यह भी सत्य है कि विज्ञान कि तरह इतिहास भी एक शोध का विषय होता है .क्योंकि इतिहास के पन्नों में कई ऐसे तथ्य दबे रह जाते हैं ,जिनके बारे में काफी समय के बाद पता चलता है .ऐसी ही एक ऐतिहासिक घटना हजरत इमाम हुसैन के बारे में है वैसे तो सब जानते हैं कि इमाम हुसैन मुहम्मद साहिब के छोटे नवासे ,हहरत अली और फातिमा के पुत्र थे .और किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं ,उनकी शहादत के बारे में हजारों किताबें मिल जाएँगी .काफी समय से मेरे एक प्रिय मुस्लिम मित्र हजरत इमाम के बारे में कुछ लिखने का आग्रह कर रहे थे ,तभी मुझे अपने निजी पुस्तक संग्रह में एक उर्दू पुस्तक"हमारे हैं हुसैन " की याद आगई ,जो सन 1960 यानि मुहर्रम 1381 हि० को इमामिया मिशन लखनौउसे प्रकाशित हुई थी .इसकी प्रकाशन संख्या 351 और लेखक "सय्यद इब्न हुसैन नकवी " है .इसी पुस्तक के पेज 11 से 13 तक से कुछ अंश लेकर ,उर्दू से नकवी जी के शब्दों को ज्यों का त्यों दिया जा रहा , जिस से पता चलता है कि इमाम हुसैन ने भारत आने क़ी इच्छा प्रकट क़ी थी (.फिर इसके कारण संक्षिप्त में और सबूत के लिए उपलब्ध साइटों के लिंक भी दिए जा रहे हैं .)

1-इमाम क़ी भारत आने क़ी इच्छा

नकवी जी ने लिखा है "हजरत इमाम हुसैन दुनियाए इंसानियत में मुहसिने आजम हैं,उन्होंने तेरह सौ साल पहले अपनी खुश्क जुबान से ,जो तिन रोज से बगैर पानी में तड़प रही थी ,अपने पुर नूर दहन से से इब्ने साद से कहा था "अगर तू मेरे दीगर शरायत को तस्लीम न करे तो , कम अज कम मुझे इस बात की इजाजत दे दे ,कि मैं ईराक छोड़कर हिंदुस्तान चला जाऊं"
नकवी आगे लिखते हैं ,"अब यह बात कहने कि जरुरत नहीं है कि ,जिस वक्त इमाम हुसैन ने हिंदुस्तान तशरीफ लाने की तमन्ना का इजहार किया था ,उस वक्त न तो हिंदुस्तान में कोई मस्जिद थी ,और न हिंदुस्तान में मुसलमान आबाद थे .गौर करने की बात यह है कि,इमाम हुसैन को हिंदुस्तान की हवाओं में मुहब्बत की कौन सी खुशबु महसूस हुई थी ,कि उन्होंने यह नहीं कहा कि मुझे चीन जाने दो ,या मुझे ईरान कि तरफ कूच करने दो ..उन्होंने खुसूसियत से सिर्फ हिंदुस्तान कोही याद किया था

गालिबन यह माना जाता है कि हजरत इमाम हुसैन के बारे में हिन्दुस्तान में खबर देने वाला शाह तैमुर था .लेकिन तारीख से इंकार करना नामुमकिन है .इसलिए कहना ही पड़ता है कि इस से बहुत पहले ही " हुसैनी ब्राह्मण "इमाम हुसैन के मसायब बयाँ करके रोया करते थे .और आज भी हिंदुस्तान में उनकी कोई कमी नहीं है .यही नहीं जयपुर के कुतुबखाने में वह ख़त भी मौजूद है जो ,जैनुल अबिदीन कि तरफ से हिन्दुतान रवाना किया गया था .
इमाम हुसैन ने जैसा कहा था कि ,मुझे हिंदुस्तान जाने दो ,अगर वह भारत की जमीन पर तशरीफ ले आते तो ,हम कह नहीं सकते कि उस वक्त कि हिन्दू कौम उनकी क्या खिदमत करती"

2-इमाम हुसैन की भारत में रिश्तेदारी

इस्लाम से काफी पहले से ही भारत ,इरान ,और अरब में व्यापार होता रहता था .इस्लाम के आने से ठीक पहले इरान में सासानी खानदान के 29 वें और अंतिम आर्य सम्राट "यज्देगर्द (590 ई ) की हुकूमत थी .उस समय ईरान के लोग भारत की तरह अग्नि में यज्ञ करते थे .इसी लिए "यज्देगर्द" को संस्कृत में यज्ञ कर्ता भी कहते थे .

प्रसिद्ध इतिहासकार राज कुमार अस्थाना ने अपने शोधग्रंथ "Ancient India " में लिखा है कि सम्राट यज्देगर्द की तीन पुत्रियाँ थी ,जिनके नाम मेहर बानो , शेहर बानो , और किश्वर बानो थे .यज्देगर्द ने अपनी बड़ी पुत्री की शादी भारत के राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय से करावा दी थी .जिसकी राजधानी उज्जैन थी ..और राजा के सेनापति का नाम भूरिया दत्त था .जिसका एक भाई रिखब दत्त व्यापर करता था . .यह लोग कृपा चार्य के वंशज कहाए जाते हैं .चन्द्रगुप्त ने मेहर बानो का नाम चंद्रलेखा रख दिया था .क्योंकि मेहर का अर्थ चन्द्रमा होता है ..राजाके मेहर बानो से एक पुत्र समुद्रगुप्त पैदा हुआ .यह सारी घटनाएँ छटवीं शताब्दी की हैं

. यज्देगर्द ने दूसरी पुत्री शेहर बानो की शादी इमाम हुसैन से करवाई थी . और उस से जो पुत्र हुआ था उसका नाम "जैनुल आबिदीन " रखा गया .इस तरह समुद्रगुप्त और जैनुल अबिदीन मौसेरे भाई थे .इस बात की पुष्टि "अब्दुल लतीफ़ बगदादी (1162 -1231 ) ने अपनी किताब "तुहफतुल अलबाब " में भी की है .और जिसका हवालाशिशिर कुमार मित्र ने अपनी किताब "Vision of India " में भी किया है .

3-अत्याचारी यजीद का राज

इमाम हुसैन के पिता हजरत अली चौथे खलीफा थे . और उस समय वह इराक के शहर कूफा में रहते थे . हजरत prm अली सभी प्रकार के लोगों से प्रेमपूर्वक वर्ताव करते थे . उन के कल में कुछ हिन्दू भी वहां रहते थे .लेकिन किसी पर भी इस्लाम कबूल करने पर दबाव नहीं डाला जाता था .ऐसा एक परिवार रिखब दत्त का था जो इराक के एक छोटे से गाँव में रहता था ,जिसे अल हिंदिया कहा जाता है . जब सन 681 में हजरत अली का निधन हो गया तो , मुआविया बिन अबू सुफ़यान खलीफा बना . वह बहुत कम समय तक रहा .फउसके बाद उसका लड़का यजीद सन 682 में खलीफा बन गया . यजीद एक अय्याश , अत्याचारी . व्यक्ति था .वह सारी सत्ता अपने हाथों में रखना चाहता था .इसलिए उसने सूबों के सभी अधिकारीयों को पत्र भेजा और उनसे अपने समर्थन मेंबैयत ( oth of allegience ) देने पर दबाव दिया .कुछ लोगों ने डर या लालच के कारण यजीद का समर्थन कर दिया . लेकिन इमाम हुसैन ने बैयत करने से साफ मना कर दिया .यजीद को आशंका थी कि यदि इमाम हुसैन भी बैयत नहीं करेंगे तो उसके लोग भी इमाम के पक्ष में हो जायेंगे .यजीद तो युद्ध कि तय्यारी करके बैठा था .लेकिन इमाम हुसैन युद्ध को टालना चाहते थे ,यह हालत देखकर शहर बानो ने अपने पुत्र जैनुल अबिदीन के नाम से एक पत्र उज्जैन के राजा चन्द्रगुप्त को भिजवा दिया था .जो आज भी जयपुर महाराजा के संग्राहलय में मौजूद है .बरसों तक यह पत्र ऐसे ही दबा रहा ,फिर एक अंगरेज अफसर Sir Thomas Durebrught ने 26 फरवरी 1809 को इसे खोज लिया और पढ़वाया ,और राजा को दिया , जब यह पत्र सन 1813 में प्रकाशित हुआ तो सबको पता चल गया .
उस समय उज्जैन के राजा ने करीब 5000 सैनिकों के साथ अपने सेनापति भूरिया दत्त को मदीना कि तरफ रवाना कर दिया था .लेकिन इमाम हसन तब तक अपने परिवार के 72 लोगों के साथ कूफा कि तरफ निकल चुके थे ,जैनुल अबिदीन उस समय काफी बीमार था ,इसलिए उसे एक गुलाम के पास देखरेख के लिए छोड़ दिया था .भूरिया दत्त ने सपने भी नहीं सोचा होगा कि इमाम हुसैन अपने साथ ऐसे लोगों को लेकर कुफा जायेंगे जिन में औरतें , बूढ़े और दुधापीते बच्चे भी होंगे .उसने यह भी नहीं सोचा होगा कि मुसलमान जिस रसूल के नाम का कलमा पढ़ते हैं उसी के नवासे को परिवार सहित निर्दयता से क़त्ल कर देंगे .और यजीद इतना नीच काम करेगा . वह तो युद्ध की योजना बनाकर आया था . तभी रस्ते में ही खबर मिली कि इमाम हुसैन का क़त्ल हो गया . यह घटना 10 अक्टूबर 680 यानि 10 मुहर्रम 61 हिजरी की है .यह हृदय विदारक खबर पता चलते ही वहां के सभी हिन्दू( जिनको आजकल हुसैनी ब्राहमण कहते है ) मुख़्तार सकफी के साथ इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने को युद्ध में शामिल हो गए थे .इस घटना के बारे में "हकीम महमूद गिलानी" ने अपनी पुस्तक "आलिया " में विस्तार से लिखा है

4-रिखब दत्त का महान बलिदान

कर्बला की घटना को युद्ध कहना ठीक नहीं होगा ,एक तरफ तिन दिनों के प्यासे इमाम हुसैन के साथी और दूसरी तरफ हजारों की फ़ौज थी ,जिसने क्रूरता और अत्याचार की सभी सीमाएं पर कर दी थीं ,यहाँ तक इमाम हुसैन का छोटा बच्चा जो प्यास के मारे तड़प रहा था , जब उसको पानी पिलाने इमाम नदी के पास गए तो हुरामुला नामके सैनिक ने उस बच्चे अली असगर के गले पर ऐसा तीर मारा जो गले के पार हो गया . इसी तरह एक एक करके इमाम के साथी शहीद होते गए .

और अंत में शिम्र नामके व्यक्ति ने इमाम हुसैन का सी काट कर उनको शहीद कर दिया , शिम्र बनू उमैय्या का कमांडर था . उसका पूरा नाम "Shimr Ibn Thil-Jawshan Ibn Rabiah Al Kalbi (also called Al Kilabi (Arabic: شمر بن ذي الجوشن بن ربيعة الكلبي) था. यजीद के सैनिक इमाम हुसैन के शरीर को मैदान में छोड़कर चले गए थे .तब रिखब दत्त ने इमाम के शीश को अपने पास छुपा लिया था .यूरोपी इतिहासकार रिखब दत्त के पुत्रों के नाम इसप्रकार बताते हैं ,1सहस राय ,2हर जस राय 3,शेर राय ,4राम सिंह ,5राय पुन ,6गभरा और7 पुन्ना .बाद में जब यजीद को पता चला तो उसके लोग इमाम हुसैन का सर खोजने लगे कि यजीद को दिखा कर इनाम हासिल कर सकें . जब रिखब दत्त ने शीश का पता नहीं दिया तो यजीद के सैनिक एक एक करके रिखब दत्त के पुत्रों से सर काटने लगे ,फिर भी रिखब दत्त ने पता नहीं दिया .सिर्फ एक लड़का बच पाया था . जब बाद में मुख़्तार ने इमाम के क़त्ल का बदला ले लिया था तब विधि पूर्वक इमाम के सर को दफनाया गया था .यह पूरी घटना पहली बार कानपुर में छपी थी .story had first appeared in a journal (Annual Hussein Report, 1989) printed from Kanpur (UP) .The article ''Grandson of Prophet Mohammed (PBUH


रिखब दत्त के इस बलिदान के कारण उसे सुल्तान की उपाधि दी गयी थी .और उसके बारे में "जंग नामा इमाम हुसैन " के पेज 122 में यह लिखा हुआ है ,"वाह दत्त सुल्तान ,हिन्दू का धर्म मुसलमान का इमान,आज भी रिखब दत्त के वंशज भारत के अलावा इराक और कुवैत में भी रहते हैं ,और इराक में जिस जगह यह लोग रहते है उस जगह को आज भी हिंदिया कहते हैं यह विकी पीडिया से साबित है

Al-Hindiya or Hindiya (Arabic: الهندية‎) is a city in Iraq on the Euphrates River. Nouri al Maliki went to school there in his younger days. Al-Hindiya is located in the Kerbala Governorate. The city used to be known as Tuwairij (Arabic: طويريج‎), which gives name to the "Tuwairij run" (Arabic: ركضة طويريج‎) that takes place here every year as part of the Mourning of Muharram on the Day of Ashura.

http://en.wikipedia.org/wiki/Hindiya

तबसे आजतक यह हुसैनी ब्राह्मण इमाम हुसैन के दुखों को याद करके मातम मनाते हैं .लोग कहते हैं कि इनके गलों में कटने का कुदरती निशान होता है .यही उनकी निशानी है .

5-सारांश और अभिप्राय

यद्यपि मैं इतिहास का विद्वान् नहीं हूँ ,और इमाम हुसैन और उनकी शहादत के बारे में हजारों किताबे लिखी जा सकती हैं ,चूँकि मुझे इस विषय पर लिखने का आग्रह मेरे एक दोस्त ने किया था ,इसलिए उपलब्ध सामग्री से संक्षिप्त में एक लेख बना दिया था , मेरा उदेश्य उन कट्टर लोगों को समझाने का है ,कि जब इमाम हुसैन कि नजर में भारत एक शांतिप्रिय देश है ,तो यहाँ आतंक फैलाकर इमाम की आत्मा को कष्ट क्यों दे रहे हैं .भारत के लोग सदा से ही अन्याय और हिंसा के विरोधी और सत्य के समर्थक रहे हैं .इसी लिए अजमेर की दरगाह के दरवाजे पार लिखा है ,

"शाहास्त हुसैन बदशाहस्त हुसैन ,दीनस्त हुसैन दीं पनाहस्त हुसैन
सर दाद नादाद दस्त दर दस्ते यजीद ,हक्का कि बिनाये ला इलाहस्त हुसैन "

इतिहास गवाह है कि अत्याचार से सत्य का मुंह बंद नहीं हो सकता है ,वह दोगुनी ताकत से प्रकट हो जाता है ,जैसे कि ,
" कत्ले हुसैन असल में मर्गे यजीद है "

6-संदर्भित किताबें और साइटें

अपने लेख को प्रमाणित करने के लिए यह सूचि दी जा रही है , ताकि लोग भी विस्तार से जान सकें और सच्चाई को स्वीकार करें
1-Brahmis followers of Imaam Hussain
http://www.milligazette.com/Archives/2004/16-31May04-Print-Edition/1605200441.htm

2-Brahmins Fought for Imam Hussain in the Battle of Karbala

http://smma59.wordpress.com/2007/09/19/brahmins-fought-for-imam-hussain-in-the-battle-of-karbala/


3-The Hindu Devotees of Imam Hussain (A.S.)
http://smma59.wordpress.com/2006/09/05/the-hindu-devotees-of-imam-hussain-as-2/
4-Relation of Imam Hussain with Indiaહજરત ઇમામ હુસેનના ભારત સાથેના સંબંધો
http://hi.shvoong.com/humanities/religion-studies/1909198-relation-imam-hussain-india/
5-The Story of Imam Hussein
http://hammorabi.blogspot.com/Imam%20Hussein/Imam%20Hussein.html
6-Relationship of Imam Husain with India
http://www.balawaristan.net/Documents/relationship-of-different-religions.html
7-Azadaar e Husain

http://alqaim.info/?p=1417


8-Hindus in Iraq

http://www.qatarliving.com/node/12239
9-Mohyal history
http://www.mohyal.com/index.php/general-mohyal-sabha/mohyal-history
10-Hussaini Brahmin
http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2008-01-21/patna/27750686_1_muharram-procession-hazrat-imam-hussain-month-of-islamic-calendar
11-JANG NAMA IMAM HUSSAIN
جنگ نامہ امام حسین
Auther Name : Dr.Qureshi Ahmed Hussain Ailadri
First Edition : 2001-Rs.150.00
http://www.punjabiadbiboard.com/index.php?main_page=product_info&cPath=5&products_id=26

मुझे पूरा विश्वास है कि इतने सबूतों के देखने के बाद लोग हिंसा का रास्ता छोडके मानवता और इमाम हुसैन के प्रिय भारत देश की सेवा जरुर करेंगे

http://www.shiaforums.com/vb/f25/hindu-followers-muslim-imam-imam-hussain-s-9251/

ऐसे थे वीर हुतात्‍मा महान् सावरकर


स्‍वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जी का संक्षिप्‍त जीवन परिचय

जय हिन्‍दू राष्‍ट्र वन्‍दे मातरम्




1883-1966


वीर हुतात्‍मा विनायक दामोदर सावरकर



जन्म: २८ मई १८८३ - मृत्यु: २६ फरवरी १९६६)
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे वीर विनायक दामोदर सावकर जी। उन्हें प्रायः वीर सावरकर के नाम से पुकारा जाता है। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा हिन्दुत्व को विकसित करने का सारा श्रेय वीर सावरकर जी को जाता है। वीर सावरकर जी न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक,कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता, सत्‍य सनातन धर्म में महती आस्‍था रखने वाले थे। वे एक ऐसे महान् इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से अच्‍छी तरह से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने १८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को बुरीतरह से चूलें हिला कर रख दिया था।

वीर सावरकर जी का जीवन वृत्त

वीर विनायक दामोदर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (तत्कालीन नाम बम्बई ) प्रान्त में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी एक आदर्श गृहिणी थी। उनकी मां का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं।

जब वीर सावरकर केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी परलोकवासी हो गयी थी। इसके सात वर्ष बाद सन् १८९९ में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी उन्‍हें छोड़ कर स्‍वर्ग सिधार गये। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला । दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से १९०१ में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी।

सन् १९०१ में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। १९०२ में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी०ए० किया।

लन्दन में प्रवास
वीर सावरकर जी १९२०-३० के दशक में

१९०४ में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। १९०५ में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर १९०६ में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुये, जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे।

१० मई, १९०७ को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित १८५७ के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया।
जून, १९०८ में इनकी पुस्तक द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस : १८५७ तैयार हो गयी परन्‍तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने १८५७ के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की प्रथम लड़ाई बताया। मई १९०९ में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की,परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली फिर भी वीर दामोदर निराश नही हुये।

लाला हरदयाल से एक महत्‍वपूर्ण भेंट

लन्दन में रहते हुये उनकी भेंट लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाऊस की देखरेख का काम संभालते थे। १ जुलाई, १९०९ को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। १३ मई, १९१० को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु ८ जुलाई, १९१० को एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकलने में सफल हो गये।

२४ दिसंबर, १९१० को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद ३१ जनवरी, १९११ को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार -

"मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।"

सेलुलर जेल में
सेलुलर जेल, पोर्ट ब्लेयर- जो काला पानी के नाम से बुरी तरह से कुख्यात थी। नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें ७ अप्रैल, १९११ को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल में प्रेषित किया गया। उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। और तो और उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था, जिसमें इन्‍हें भारी श्रम करना पड़ता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं, जिससे ये बुरी तरह लहूलुहान हो जाते थे। इतने बर्बर अत्‍याचारों के बाद भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। वीर सावरकर ४ जुलाई, १९११ से २१ मई, १९२१ तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे।

स्वतन्त्रता संग्राम

१९२०-१९३० के दशकों में सावरकर

१९२१ में मुक्त होने पर वीर महान् सावरकर स्वदेश लौटे और फिर ३ साल जेल भोगी। जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा। इस बीच ७ जनवरी, १९२५ को इनकी पुत्री, प्रभात का जन्म हुआ। मार्च, १९२५ में उनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ० हेडगेवार से हुई। १७ मार्च, १९२८ को इनके बेटे विश्वास का जन्म हुआ। फरवरी, १९३१ में इनके प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था।

महान हुतात्‍मा वीर सावरकर जी छुआछूत के घोर विरोधी थे। २५ फरवरी, १९३१ को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की।

हिन्‍दुत्‍व के महान् पुरोधा वीर सावरकर जी १९३७ में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए १९वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये,जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये।

१५ अप्रैल, १९३८ को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। १३ दिसम्बर, १९३७ को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी।

२२ जून, १९४१ को वीर दामोदर सावरकर की भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। ९ अक्तूबर, १९४२ को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया। वीर हुतात्‍मा सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे।स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था। १९४३ के बाद दादर, बम्बई में रहे। १६ मार्च, १९४५ को इनके भ्राता बाबूराव का देहान्त हुआ। १९ अप्रैल, १९४५ को उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष ८ मई को उनकी पुत्री प्रभात का विवाह सम्पन्न हुआ। अप्रैल १९४६ में बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया। १९४७ में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया।
स्वातन्त्र्योपरान्त जीवन

१५ अगस्त, १९४५ को उन्होंने सावरकर सदान्तों में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये। इस शुभ अवसर पर प्रतिक्रिया देते हुये उन्होंने पत्रकारों के समक्ष कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की प्रसन्‍नता है,परन्तु वह खण्डित है, इसका हमें गहरा दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, अपितु वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं।

५ फरवरी, १९४८ को गान्धी-वध के उपरान्त उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। १९ अक्तूबर, १९४९ को इनके अनुज नारायणराव का देहान्त हो गया। ४ अप्रैल, १९५० को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर उन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया।

मई, १९५२ में पुणे की एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग किया गया।

१० नवम्बर, १९५७ को नई दिल्ली में आयोजित हुए,१८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे। ८ अक्तूबर, १९५९ को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया।

८ नवम्बर, १९६३ को इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं। सितम्बर, १९६६ से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा। १ फरवरी, १९६६ को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया। २६ फरवरी, १९६६ को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः १० बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को सिधार गये।

पुस्तक

द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस - १८५७ सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक है, जिसमें उन्होंने सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को पूरी तरह से झकझोर दिया अधिकांश इतिहासकारों ने १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक सिपाही विद्रोह या अधिकतम भारतीय विद्रोह कहा था। दूसरी ओर भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे तब तक एक योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण कहा था, जो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के ऊपर किया गया था।

चलचित्र

१९५८ में एक हिन्दी फिल्म काला पानी (1958 फ़िल्म) बनी थी। जिसमें मुख्य भूमिकाएं देव आनन्द और मधुबाला ने की थीं। इसका निर्देशन राज खोसला ने किया था। इस फिल्म को १९५९ में दोफ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिले थे। इंटरनेट मूवी डाटाबेस पर काला पानी

१९९६ में मलयालम में प्रसिद्ध मलयाली फिल्म-निर्माता प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फिल्म काला पानी बनी थी। इस फिल्म में हिन्दी फिल्म अभिनेता अन्नू कपूर ने सावरकर की भूमिका में अभिनव किया था। इंटरनेट मूवी डाटाबेस पर सज़ा-ए-काला पानी

२००१ में वेद राही और सुधीर फड़के ने एक बायोपिक चलचित्र बनाया- वीर सावरकर। यह निर्माण के कई वर्षों के बाद रिलीज़ हुई। सावरकर का चरित्र इसमें शैलेन्द्र गौड़ ने किया है। इनके नाम पर ही पोर्ट ब्लेयर के विमानक्षेत्र का नाम वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया है।

सामाजिक उत्थान

सावरकर एक प्रख्यात समाज सुधारक, समाज सेवक थे। उनका दृढ़ विश्वास था, कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार बराबरी का महत्त्व रखते हैं व एक दूसरे के विशेष पूरक हैं। उनके समय में समाज बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के बंधनों में जकड़ा हुआ था। इस कारण हिन्दू समाज अति दुर्बल हो गया था। अपने भाषणों, लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के लिये अनवरत प्रयास किए। हालांकि यह भी सत्य है, कि सावरकर ने सामाजिक कार्यों में तब ध्यान लगाया, जब उन्हें राजनीतिक कलापों से निषेध कर दिया गया था। किंतु उनका समाज सुधार जीवन पर्यन्त निरंतर चला। उनके सामाजिक उत्थान कार्यक्रम न केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि राष्ट्र को पूरी तरह से समर्पित होते थे। १९२४ से १९३७ का समय इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा।

सावरकर के अनुसार हिन्दू समाज सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था।

स्पर्शबंदी: निम्न जातियों का स्पर्श तक निषेध,अस्पृश्यता

रोटीबंदी: निम्न जातियों के साथ खानपान निषेध

बेटीबंदी: खास जातियों के संग विवाह संबंध निषेध

व्यवसायबंदी: कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध

सिंधुबंदी: सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध

वेदोक्तबंदी: वेद के कर्मकाण्डों का एक वर्ग को निषेध

शुद्धिबंदी: किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध

अंडमान की सेल्यूलर जेल में रहते हुए उन्होंने बंदियों को शिक्षित करने का काम तो किया ही, साथ ही साथ वहां हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु बहुत अधिक प्रयास किया। सावरकरजी हिंदू समाज में प्रचलित जाति-भेद एवं छुआछूत के घोर विरोधी थे। बंबई का पतितपावन मंदिर इसका जीवंत उदाहरण है, जो हिन्दू धर्म की प्रत्येक जाति के लोगों के लिए समान रूप से खुला है।पिछले सौ वर्षों में इन बंधनों से किसी हद तक मुक्ति सावरकर के ही अथक प्रयासों का परिणाम है।

वीर विनायक दामोदर सावरकरजी को कृतज्ञ राष्‍ट्र का कोटि-कोटि प्रणाम।