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Thursday, May 30, 2013

इतिहास का सच और भविष्य की चुनौती है अखंड भारत - गोविन्दाचार्य

गत कुछ दिनों से अखंड भारत पर देश भर में काफी चर्चाएं हो रही हैं। इन चर्चाओं में अखंड भारत की व्यावहारिकता, वर्तमान समय में इसकी प्रासंगिकता, इसके राजनैतिक स्वरूप, दक्षिण एशिया महासंघ बनाम अखंड भारत जैसे अनेक प्रश्न और बिन्दु सामने आए। इन्हीं प्रश्नों को लेकर भारतीय पक्ष के कार्यकारी संपादक रवि शंकर ने विख्यात विचारक श्री गोविन्दाचार्य से बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसके मुख्य अंश।
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प्रश्न: गत कुछ दिनों में देश में अखंड भारत का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में आ गया है। श्री आडवाणी और श्री मनमोहन सिंह के पाकिस्तान के अस्तित्व और सीमाओं की परिवर्तनशीलता संबंधी बयानों के संदर्भ में आपने भी कहा था कि भारत एक भूसांस्कृतिक सत्य है। भूसांस्कृतिक सत्य से आपका क्या अभिप्राय है?

उत्तर: भारत एक भूराजनैतिक वस्तु ही नहीं है। यह भूसंस्कृति भी है। भूसमाजविज्ञान भी है, भूमनोविज्ञान है, भूदर्शन है। इस भू का काफी महत्व है। भारत ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में शोध, अधययन करने वाले, पढ़ने-लिखने वालों के लिए यह एक रोचक पहलू है। भूगोल पृथ्वी के सूर्य के साथ संबंधों के आधार पर निश्चित होता है। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर के साथ-साथ अपने अक्ष पर भी घूमती है।

सूर्य के चारों ओर घूमने से साल बनता है, मौसम बनते हैं और अपने अक्ष पर घूमने से दिन-रात। पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में सूर्य के प्रकाश की अलग-अलग मात्रा पहुंचती है। इसलिए सूर्य का प्रकाश मिलने की मात्रा, अवधि और तीव्रता अलग-अलग होगी। इससे ही भूगोल की जलवायु संबंधी स्थितियां बदलती हैं। भारत और इंग्लैंड में सूर्य के प्रकाश के पुहंचने का कोण, तीव्रता और समय अलग-अलग है।

भारत में साढ़े दस महीने सूर्य की रोशनी मिलती है, इंग्लैंड में साढ़े दस महीने सूर्य छिपा रहता है। इससे काफी अंतर आ जाएगा। यहां आक्सीकरण की प्रक्रिया तेज होगी, इंग्लैंड में नहीं। यहां बहता पानी पीने लायक होता है, वहां नहीं होगा। भारत की गाय का दूध पीलापन लिए हुए होगा। भारत में गेंहू तीन महीने में पकेगा, इंग्लैंड में सात महीने लगेंगे। इसलिए वहां का जीवन कृषि पर आधारित नहीं होगा। इन्हीं कारणों से भारत में दुनिया की केवल दो प्रतिशत भूमि है लेकिन जैव विविधता� दुनिया का तेरह प्रतिशत भारत में होता है।

इस विशिष्टता के कारण भाषा, भूषा, भोजन, भवन, भेषज, भजन आदि भारत में अलग प्रकार का होगा, इंग्लैंड का अलग होगा। जीवन मूल्य, जीवन आदर्श, जीवन शैली, जीवन लक्ष्य आदि भी भिन्न होंगे। इसके अलावे, समाज की रचना, समाज संचालन की तकनीक, उसका तंत्र और सही-गलत का विवेक भी अलग होगा। इसलिए परिवार संस्था, प्रकृति के साथ मैत्री भाव और अनेकता में एकता व एकता में अनेकता में विश्वास, भारत में जल्दी होगा।

यहां उपासना के सभी मार्ग ईश्वर तक पहुंचते हैं, का भाव स्वाभाविक रूप से होगा, वहां समझाना होगा। इसलिए उनको भी बेहतर बनाने का काम भारत को करना पड़ेगा। यह इस भूमि की विशेषता है। यह अनायास नहीं है कि दुनिया के भूभागों में से भारत वह भूभाग है जहां एक दैवी त्रिकोण का अस्तित्व है। वह त्रिकोण है धरतीमाता, गौमाता और घर की माता। इसमें हरेक कोण शेष दो को मजबूत करता है। घर की मां गोमाता की भी सेवा करे, धरतीमाता की भी करे। गोमाता घर की मां को दूध दे और धरतीमाता को उसकी खुराक गोबर-गोमूत्र दे। इंग्लैंड में भी गाय गोबर-गोमूत्र देगी, लेकिन वहां नमी और उष्णता का मेल अलग होने के कारण वह धरती का भोजन नहीं बन पाएगा, व्यर्थ जाएगा।

यहां की धरतीमाता घर की माता को पर्याप्त अनाज और गौमाता को पर्याप्त चारा देती है। लेकिन वहां पर्याप्त अनाज व चारा नहीं होगा। यह नमी और उष्णता का विशेष मेल भारत में होने के कारण यहां इतनी जैव विविधता होती है। आदि पराशक्ति का त्रिकोण यहां के सारे जीवनशैली का एक ऐसा हिस्सा बन जाता है जिसमें मातृशक्ति की विशेष उपासना संभव हो पाती है। यह इस भूभाग की विशेषता है। यही इसकी भूसांस्कृतिक सच्चाई है।

प्रश्न : परंतु आज इस भूखंड में जो राजनीतिक और जनसांख्यिक परिवर्तन हो चुके हैं, इनके परिप्रेक्ष्य में अखंड भारत का व्यावहारिक स्वरूप क्या होगा?

उत्तर : ये प्रश्न बहुत छोटे कालक्षितिज में ही तर्कसंगत हैं। आप एक दूसरे दृश्य की कल्पना करें। 1294 में मोहम्मद गोरी का शासन था। सबको लगा कि अब तो सब कुछ समाप्त हो गया। पृथ्वीराज चौहान हार गए थे। विदेशी शासन की यह स्थिति सवा चार सौ साल तक चली। औरंगजेब की मृत्यु 1707 में हुई। इन चार सौ वर्षों में समाज में जो निराशा, हताशा थी, जो राजनीतिक परिदृश्य था, उसमें औरंगजेब की मृत्यु के बाद क्या हुआ? जजिया कर जैसी चीजें प्रासंगिक रह ही नहीं गईं। उल्टा हो गया।

भारतीय संस्कृति की समाजसता में वे समरस होने लगे। समाजसता यानी अपने अंदर समा लेने की क्षमता। भाषा, भूषा, भोजन, भवन, भेषज, भजन आदि के क्षेत्रों में यह समाहित करने की प्रक्रिया चलने लगी। केवल भजन के क्षेत्र में थोड़ा बदलाव हुआ, अन्यथा जो भूसांस्कृतिक पहलू हैं, वह धीरे-धीरे मनोविज्ञान पर हावी होने लगे। तब वे जगह-जगह पर स्थानीय रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार आदि में सबके साथ सम्मिलित होने लगे।

भाषा भी बदली भूषा भी बदली। केरल का मुसलमान मलयालम का आग्रह रखता था और कर्नाटक का मुसलमान कन्नड़ का। आज जो फिर से मजहबी चेतना जगी है, वह 1890 के बाद की बात है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में ब्रिटिश कलेक्टर ने सुनियोजित दंगे कराए। उसके बाद धीरे-धीरे इसमें उफान आता गया और फिर 1920 में शरीयत पर बहस चली। 1937 में शरीयत को सर्वमान्य करने की जबरदस्ती की गई। इस प्रकार देखें तो 1707 से 1894 तक के कालखंड का प्रकार अलग था।

फिर आप यह क्यों मान लेते हैं कि वह कालखंड फिर नहीं दोहराया जा सकता? मेरा मानना है कि आज अगर मन के स्तर पर विभेद और मजहब का रिश्ता ज्यादा मजबूत दिखाई देता है तो उसके पीछे आज का वह परिदृश्य भी कारण है जिसमें पाकिस्तान की मजहबी जुनून को बढ़ाने वाली हुकूमत और कई इस्लामिक देशों द्वारा पैसा, समाज और रूतबे का अंधाधुंध उपयोग है। इन सबके कारण स्थानीय रिश्तों और संबंधों की बजाय एक विशेष मजहबी भाव मानस पर हावी हो जाता है।

इसका अर्थ यह हुआ कि आज के परिदृश्य से यदि इन दो कारक तत्वों को मिटा दें तो फिर ये सारे ही समीकरण एकदम बदल जाएंगे और यह प्रश्न ही असंगत हो जाएगा। इसलिए हम यह क्यों मान रहे हैं कि स्थितियां सदैव ऐसी ही होंगी? आज विश्व के वर्तमान परिदृश्य के संदर्भ में हटिंगटन ने सभ्यताओं की लड़ाई की जो बात कही है, वह भले ही पूरी सही नहीं है लेकिन उसमें कुछ तो सत्यता है।

आज यूरोप और अमेरिका मिलकर इस्लामिक आतंकवाद से जूझने के लिए मजबूर हो गए हैं। वे आज चुन-चुनकर लोगों को मार रहे हैं। उनकी मंशा सभी भूरे लोगों पर कहर ढाने की है। दक्षिणी फ्रांस और स्पेन इस्लाम के साथ चार सौ वर्षों तक जूझते रहे, इस बात का उनके मनोविज्ञान पर इतना ज्यादा प्रभाव है कि वे इस्लाम के धुर विरोध में खड़े हो गए हैं। इसलिए आज की स्थिति को हम यदि स्थायी मान कर चल रहे हों तो यह स्थिति की सरलीकृत समझ होगी, जो ठीक नहीं है।

प्रश्न : आपने कहा कि अखंड भारत एक सांस्कृतिक सत्य है यानी यह भूभाग यदि अखंड था तो संस्कृति के कारण। आज वह संस्कृति जब वर्तमान भारत में ही कमजोर पड़ रही है तो जिन स्थानों से वह लुप्त हो गई है, वहां अपना प्रभाव कैसे फैला पाएगी?

उत्तर : यहां फिर गलती हो रही है। वास्तव में समाज का भूसांस्कृतिक पक्ष अंतरतम में रहता है और अपना असर करता रहता है। समाज का भूराजनैतिक पक्ष सतह पर रहता है। काल प्रवाह में भूसांस्कृतिक तथा भूमनोवैज्ञानिक और इसलिए भूसमाजविज्ञानी पक्ष प्रभावी होते जाएंगे। इसके लिए आवश्यक है कि उनको अपने बारे में 700-800 या हजार साल पहले के सभी तथ्य बताए जाएं। उन्हें बताया जाए कि वे पहले क्या थी, अब क्या है? पाणिनी से पाकिस्तान के सामान्य जन का क्या रिश्ता है, इस ओर जब वे सोचने लगेंगे तो उनके मनोविज्ञान में काफी बदलाव होगा।

आज ‘ही’ संस्कृति के पक्षधर भूगोल के एक हिस्से पर हावी दिख रहे हैं। ‘ही’ संस्कृति अर्थात् उनका भगवान भगवान, बाकी सब शैतान। केवल वे ही सच्चे। लेकिन यही हमेशा का सार्वकालिक सत्य तो है नहीं। भारत की मूल संस्कृति भारत में ही कमजोर पड़ रही है, ऐसा आपको लगता है। मेरा दूसरा कहना है। भारत के भूमनोविज्ञान में संश्लेषण की अद्भुत क्षमता है, क्योंकि यहां की भूप्रकृति के कारण अनेकता में एकता और मेल बिठा लेने की एक विशेषता है।

इसके कारण ही सहिष्णुता, समरसता और समजसता का वैशिष्ट्य यहां की भूसंस्कृति में आ जाता है। हम जब इसको देखते हैं तो सतह पर अपकारी तत्व अर्थात् भूराजनीति के दर्षन हो हैं जबकि नीचे सरस्वती के समान प्रवाहित है भूसंस्कृति। थोड़ा बालू हटाने की जरूरत है और यह भूराजनीति का बालू है अर्थात् जो भी ‘ही’ संस्कृति के पक्षधर संप्रदाय हैं, उन्हें समाहित करने, बदलने की आवश्यकता है। भारत में सार्वभौम या पूरे भूभाग में फैले एक राज्य की आज से 2000 साल पहले तो जरूरत नहीं थी।

नाममात्र के लिए एक सार्वभौमत्व व्याप्त था जिसे चक्रवर्तित्व या ऐसा ही कुछ और कहा जाता था। पर उस समय राज्य समाज की संपूर्ण गतिविधियों का नियंता नहीं था, जैसा कि पश्चिम में रहा है। भूसंस्कृति ही यहां की जान रही है। राज्य केवल उसका एक उपकरण रहा है। इसलिए राज्य के बहुतेरे प्रकार अलग-अलग समय पर जरूरत के हिसाब से गढ़े गए और उपयोग में लाए गए।

राष्ट्र के लिए एक सार्वभौम राज्य की आवश्यकता तो आज से 2000 साल पहले ही हुई है जब हमें लुटेरे के रूप में आए सिकंदर का सामना करना पड़ा। तब तात्कालिक तौर पर सब सेनाओं को इकट्ठा कर लिया गया अन्यथा भारतीय समाज में स्थायी सेना रखने की भी आदत नहीं थी। यहां परंपरा थी कि सामान्यत: लोग अपने खेती या व्यवसाय में लगे रहते थे, सबके पास शस्त्र होते थे और वीर्य, शौर्य तथा बल संपदा का अधिकाधिक संपोषण किया जाता था।

जब जरूरत पड़ती थी तो सभी युध्द के लिए आ जाते थे। इसलिए समाज संचालन के पिछले 400 साल के पश्चिमी प्रयोगों को परंपरागत भारतीय समाज संचालन विधि के संदर्भ में अगर देखेंगे तो गलती हो जाएगी।

विगत एक हजार वर्षों में भारत को एक विशेष प्रकार की समस्या का सामना करना पड़ा। एक सहिष्णुता, समरसता और समजसता के गुण वाले समाज को असहिष्णु, एकाकी, सर्वंकश और सर्वग्रासी राजनैतिक पंथसत्ता से लड़ना पड़ा। वह पांथिक राजसत्ता नहीं, राजनैतिक पंथसत्ता थी। वास्तव में इस्लाम एक स्टेटक्राफ्ट है जिसका एक हिस्सा जीव और जगदीश के संबंधों के बारे में भी कुछ सोचता और बोलता है।

इसमें भौतिक और आधयात्मिक, दोनों का सम्मिश्रण है परंतु भौतिक की ही प्रधानता है। ऐसे असहिष्णु संप्रदाय से जब से भारत का सामना हुआ है तब से अब तक यहां का समाज विभ्रम में है। वह भारत के बाहर उपजे संप्रदायों-मजहबों को भी भारत के अंदर उपजे संप्रदायों के समानधर्मा और समानमनवाला मानने की भूल करता है। भारत के अंदर उपजे संप्रदायों में जैसे परस्पर समादर का रिश्ता है, वैसा ही रिश्ता वह अपने मनोविज्ञान में उनके बारे में अनुभव करने लगता है, जबकि वे ऐसे हैं ही नहीं। इसलिए उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए, यह समस्या है।

वे तो राज्य के साथ हैं और यहां के मानस में राज्य की वैसी कोई भूमिका ही नहीं है। यह द्वन्द्व है। इस द्वन्द्व में से सीखता-समझता भारतीय समाज गुजर रहा है। इसलिए इसे लगता है कि दुर्गा जैसी सक्षम राजसत्ता और काली जैसी समाजसत्ता की आवश्यकता है। राजसत्ता दुर्गा का काम करे और समाजसत्ता काली का काम करे, इन रक्तबीजों का रक्त अपनी जीभ पर फैला ले, गिरने न दे।

भारतीय समाज अभी इस सीख के साथ थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ रहा है। इसमें उसको यह भी धयान रखना होगा कि रावण से युध्द करते हुए कहीं अपना स्वभाव भी रावणी न बन जाए। असहिष्णु संप्रदायों का सामना करने के क्रम में सहिष्णुता, समरसता और समाजसता के अपने भूसांस्कृतिक वैशिष्टय को बरकरार रखने की विशेष चुनौती है।

प्रश्न : यदि अखंड भारत को हम राजनीतिक इकाई नहीं मानते हैं तो सीमाओं की चर्चा करने की जरूरत क्यों पड़ती है? पाकिस्तान के अस्तित्व पर बहस क्यों होती है? पाकिस्तान के रहने और न रहने से अखंड भारत को क्या फर्क पड़ता है?

उत्तर : मैं पहले ही कह चुका हूं कि भारत से बाहर उपजे संप्रदायों का पुरोधा बनकर यदि कोई राजसत्ता उसका सशस्त्र साथ देती है, तब संपूर्ण विश्व में शांति व भाईचारा फैलाने के भारत के दैवी दायित्व में बाधा होती है। तब भारतीय समाज को सोचने की आवश्यकता पड़ जाती है कि राजसत्ता का आश्रय लेकर जो अभारतीय संप्रदाय सामने आ रहे हैं, उन्हें राजनैतिक प्रत्युत्तर दिए बिना हम कैसे बने रहेंगे।

प्रश्न : इस राजनीतिक प्रत्युत्तर में सैन्य शक्ति का कितना उपयोग हो सकता है?

उत्तर : हम इतना जानते हैं कि सैन्य शक्ति इतनी जरूर हो कि कोई हमें टेढ़ी आंखों से देख न सके। दूसरी बात, सैन्य शक्ति इतनी सक्रिय होनी चाहिए कि राष्ट्रीय संप्रभुता पर यदि हमला हो तो कानूनी दांवपेंच में उलझकर अपनी निष्क्रियता को सही सिध्द न करे। जैसे, कारगिल के युध्द में अपनी सीमाओं में रहने की बेबसी दिखाने की कोई जरूरत नहीं थी।

जब आतंकवाद के अड्डे सीमापार हैं तो उसे नष्ट करने के लिए सीमा पार करना नैतिक है, आवश्यक है और यदि कोई इसका विरोध करता है तो वह अनैतिक है। इसी प्रकार जब भारतीय संसद पर चोट की गई तो वह ऐसा दूसरा अवसर था जब भारतीय सेना को दो-दो हाथ करना ही चाहिए था। केवल सद्भाव, सदाशयता और सदुपदेश से राष्ट्र नहीं चलता। राष्ट्र का मनोबल इससे गिरता है। मैं मानता हूं कि राष्ट्रीय प्रगति का मार्ग केवल सुहावने बगीचे में टहलने जैसा नहीं है। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण उतना होता है जितना समाज द्वारा खून, पसीने और आंसू का विनियोग किया जाता है।

प्रश्न : अखंड भारत के बारे में एक विचार यह भी प्रस्तुत किया जाता है कि यूरोपीय संघ की तर्ज पर दक्षिण एशियाई महासंघ बने। अखंड भारत आज के समय में सार्थक बात नहीं है लेकिन यह महासंघ इसका ही एक रूप होगा।

उत्तर : यूरोपीय संघ से दक्षिण एशियाई महासंघ की तुलना करना ठीक नहीं है। वहां जिन देशों का संघ बना है उनमें सभ्यता व सांस्कृतिक स्तर पर अत्यधिक समानताएं हैं। मजहब भी उनका एक है। इसकी तुलना में अभी दक्षिण एशिया की स्थिति काफी भिन्न है। इस पर भी यूरोपीय संघ में ही कई अंतर्विरोध भी हैं। तुर्की यदि यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहता है तो वे चिंता में पड़ जाते हैं।

वास्तव में इस्लामिक आबादी के बढ़ाव से वे भी काफी परेशान हैं। स्पेन के लोगों में इस्लाम का विरोध और उसके प्रति कटुता भारत में 50 साल पहले विस्थापित हुए लोगों से भी कहीं अधिक भीषण और तीव्र है। फ्रांस अल्जीरिया से हो रहे घुसपैठ से परेशान है। वस्तुत: यूरोपीय संघ में मजहब और भूसांस्कृतिक स्तर पर एक समानधर्मिता है, इसलिए वे एक हद तक थोड़ा बहुत चल पाए। इस आधार पर सोचें तो भारत महासंघ की कल्पना तथ्यात्मक कैसे हो सकती है?

इसके लिए बहुत से सुधार होने की आवश्यकता है। 1707 से 1894 के बीच समाजसता का जो क्रम चल रहा था, जिसमें विदेशी ताकतों के यहां से मिल रहा प्रश्रय और उनके प्रति सद्भाव बिल्कुल नहीं था, वह फिर से चलना जरूरी है। एक ही परंपरा और आदर्श से ओत-प्रोत जनमानस बनना, ऐसे किसी भी महासंघ बनने की पूर्व शर्त है।

साभार गोविन्दाचार्य जी

Published: Friday, Oct 21,2011, 23:32 IST

Source: IBTL

Wednesday, May 29, 2013

हिन्दुओ का क्या गुनाह हैं ?

कुछ प्रश्न जो आपके दिमाग मे भी होंगे


1. यदि पाकिस्तान और भारत का बटवारा धर्म के आधार पर हुआ जिसमे पाकिस्तान मुस्लिम राष्ट्र बना तो भारत हिन्दू राष्ट्र क्यूँ घोषित नहीं किया ? जबकि दुनिया मे एक भी हिन्दू राष्ट्र नहीं है !


2. तथाकथित राष्ट्र का पिता मोहनदास गांधी ने ऐसा क्यूँ कहा पाकिस्तान से हिन्दू सिखो की लाशे आए तो आए लेकिन यहाँ एक भी मुस्लिम का खून नहीं बहना चाहिए ?


3. मोहनदास करमचंद गांधी चाहते तो भगत सिंह जी को बचा सकते थे क्यूँ नहीं बचाया ?


4. भारत मे मुस्लिम के लिए अलग अलग धाराए क्यूँ है ?


5. ऐसा क्यूँ है की भारत से अलग होकर जीतने भी देश बने है सब इस्लामिक देश ही बने । क्यूँ ?


6. केरल मे कोई रिक्शा वाला वाहन चालक हिन्दू श्री कृष्ण जय हनुमान क्यूँ नहीं लिख सकता ?


7. भारत मे मुस्लिम 18% के आस पास है फिर भी अल्पसंख्यक कैसे है ? जबकि नियम कहता है की 10% के अंदर की संख्या ही अल्पसंख्यक है


8. कश्मीर से हिन्दुओ को क्यूँ खदेड़ दिया जबकि कश्मीर हिन्दुओ का राज्य था ?


9. ऐसा क्यूँ है की मुस्लिम जहा 30-40% हो जाते है तब अपने लिए अलग इस्लामिक राष्ट्र बनाने की मांग उठाते है विरोध करते है अन्य समुदाय के गले रेतते है क्यूँ ?


10. हिन्दुत्व को सांप्रदायिक क्यूँ ठहराया जाता है जबकि इस्लामिक आतंकवाद को धर्म से नहीं जोड़ने की अपील की जाती है ?


11. फरवरी मे बाबा रामदेव ने सर्वप्रथम भ्रष्टाचार के खिलाफ  विशाल रेली आयोजित की थी, उस महारेली मे 1 लाख 18 हजार लोग आए थे तब मीडिया के किसी भी चेनल ने एक खबर तक नहीं दिखाई थी और जैसे ही अण्णा जंतर मंत्र पर मात्र 5000 समर्थको के साथ अनशन पर बैठे तो सारे मीडिया वाले अण्णा चालीसा गाने लगे ???? इसके पीछे क्या कारण है


12. अगर अण्णा हज़ारे को अनशन करना ही था तो रामदेव से मंच से पब्लिसिटी हासिल करके अलग मंच बनाने की क्या आवश्यकता थी ?


13. बॉलीवुड अण्णा हज़ारे का समर्थन करता है लेकिन रामदेवजी का विरोध क्यूँ करता है ?


14. हमारा देश ही दुनिया मे एक मात्र देश है जो मुस्लिम को हज सब्सिडी देता है 60 वर्षो मे सरकार ने इसके लिए 10000 करोड़ रुपये खर्च कर डाले क्यूँ ?


15. भारत मे मुस्लिमो के मदरसो के अनुदान हिन्दू मंदिरो से क्यूँ ?


16. कश्मीर मे ऐसा गीता उपदेश देने पर संवेधानिक अडचने क्यूँ है ?


17. जमा मस्जिद के इमाम सैयद बुखारी ने एक बार कहा था की वह ओसामा बिन लादेन का समर्थन करता है और आईएसआई का अजेंट है फिर भी भारत सरकार उसे गिरफ्तार क्यूँ नहीं करती ?


18. सरकार ने अण्णा हज़ारे के आंदोलन को सख्ती से नहीं कुचला जबकि रामदेव के समर्थको और स्वामी रामदेव की जान के पीछे पड़ी थी क्यूँ ?


19. मोहनदास गांधी ने अपने ब्रह्म चर्या के प्रयोग को बुढ़ापे मे करके क्या सीखा ? क्या सिखाया ?


20. पाकिस्तान मे 1947 मे 22.45% हिन्दू थे आज मात्र 1.12% शेष है सब कहा गए ?


21. मुगलो द्वारा ध्वस्त किया गया मंदिर सोमनाथ के जीर्णोद्धार की बात आई तो गांधी ने ऐसा क्यूँ कहा की यह सरकारी पैसे का दुरपयोग है जबकि जामा मस्जिद के पुनर्निर्माण के लिए सरकार पर दबाव डाला, अनशन पर बैठे


22. भारत मे 1947 मे 7.88% मुस्लिम थे आज 22.80% है इतनी आबादी कैसे बढ़ी ?


23. भारत मे मीडिया हिन्दुओ के, संघ के खिलाफ क्यूँ बोलती है ?


24. अकबर के हरम मे 4878 हिन्दू औरते थी, जोधा अकबर फिल्म मे और स्कूली इतिहास मे इसे क्यूँ नहीं छापा गया


25. ऐसा क्यूँ होता है की जो भी सोनिया गांधी का धर्म जानने की कोशिश करता है कोर्ट उसी पर जुर्माना लगा देता है ?


26. बाबर ने लाखो हिन्दुओ की हत्या की फिर भी हम उसकी मस्जिद क्यूँ देखना चाहते है ?


27. भारत मे 80% हिन्दू है फिर भी श्री राम मंदिर क्यूँ नहीं बन सकता ?


28. कॉंग्रेस के शासन मे 645 दंगे हुए है जिसमे 32,427 लोग मारे गए है मीडिया को वो दिखाई नहीं देता है जबकि गुजरात मे प्रतिकृया मे हुए दंगो मे 2000 लोग मारे गए उस पर मीडिया हो इतना हल्ला करती है क्यूँ ?


29. 67 कारसेवको को गोधरा मे जिंदा जलाया मीडिया उनकी बाते क्यूँ नहीं करती ?


30. जवाहर लाल नेहरू के दादा एक मुस्लिम (गया सुद्दीन गाजी) थे, हमें इतिहास मे गलत क्यूँ बताया गया ?


31. भारत मे गुरु परंपरा रही है, हर महापुरुष के गुरु थे गांधी जी ने आज तक अपना गुरु क्यूँ नहीं बनाया ?


32. बाकी के प्रश्न आप जोड़िए इतने जोड़िए की लोगो का दिमाग हिल जाये

BY -------Sefali Rathore

Tuesday, May 28, 2013

पाँच राष्ट्रीय भ्रम और उनकी वास्तविकता



1. भारत एक गरीब देश है

2. भारत मे लगभग 5% लोग ही टैक्स भरते है

3. सब लोग बेईमान है

4. भ्रष्टाचार नही मिट सकता, भ्रष्टाचारी ही देश पर शासन करेंगें

5. विदेशी पूंजी निवेश के बिना देश मे विकास एवं रोजगार सम्भव ही नहीं



1. भारत एक गरीब देश है !

कोरा झूठ 

तथ्य:  भारत दुनिया का सबसे ताकतवर एवं अमीर देश है। यह एक बहुत बडी सच्चाई है की दुनिया के अधिकांश विकसित देशो के लोग कमजोर है परन्तु वहा का नेत्रत्व कायर, बुजदिल एवं भ्रष्ट है तथा कानुन कमजोर है। भारत के स्थानिय निकायो, राज्य सरकारो एवं केन्द्र सरकार का कुल बजट 20 लाख करोड रुपये है। और यह 20 लाख करोड का बजट तो तब है जबकि देश मे चारो तरफ भ्रष्टाचार शिखर पर है। इस देश मेभ्रष्टाचार न हो तो भारत देश का कुल बजट 35-40 लाख करोड हो सकता है। आप ही सोचे आप ही निर्णय करे की क्या एक गरीब देश का इतना बजट हो सकता है। जानबुझकर देश के भ्रष्ट एवं बेईमान नेतओ ने देश को गरीब बनाना हुआ है। देश से यदि भ्रष्टाचार मिट जाए तो देश मे एक भी व्यक्ति बेरोजगार व गरीब नही रह सकता। एक षड्यंत्र के तहत लोगो को बेरोजगार गरीब एवं अनपढ बनाया हुआ है। जिससे की भ्रष्ट शासक देश के गरीब, बेरोजगार, अनपढ एवं अशिक्षित लोगो पर मनमाने ढंग से शासन कर सके अथवा लोकतन्त्र के नाम पर तानाशाही कर सके।

2. भारत मे लगभग 5% लोग ही टैक्स भरते है!

सफेद झूठ 

वास्तविकता : भारत मे 100% लोग टैक्स देते है। जो भी देशवासी तन पर दो कपडे ओढता है या साल मे एक दो बार साबून प्रयोग मे लाता है अथवा जूते चप्पल पहनता है अथवा बाजार मे, दुकान पर जाकर वह जीवन की जरुरी प्रयोग की वस्तू आटा, नमक, टूथपेस्ट, तेल, मसाले, कागज, कलम, लोहा, सीमेंट आदि खरीदता है, तो इन सब वस्तुओ पर वह वैट/एक्साइज आदि ड्यूटी भरकर ही दुकानदार से क्रय करता है। एक आम आदमी भी स्टैम्प ड्यूटी, पीने के पानी पर टैक्स, ग्रहकर, सीवेज टैक्स, रोड टैक्स, सर्विस टैक्स, सेल टैक्स अर्थात किसी न किसी प्रकार का टैक्स जीवन भर जरुर देता है, तो क्या यह सफेद झुठ नहीं है की मात्र पाँच प्रतिशत लोग ही टैक्स भरते है! ये झूठा भ्रम/प्रचार एक षड्यंत्र के तहत इसलिए किया जाता है की देश के बेईमान लोग यदि लुटे तो कोई आवाज ना उठाये। उनकी आवाज दबाने के लिए ही यह झूठ बोला जाता है, ताकि जब कोई इन भ्रष्ट बेईमानो से टैक्स मनी के रुप मे दिये गये टैक्स का हिसाब माँगे तो ये भ्रष्ट लोग कह सके की तुम तो टैक्स ही नही देते, तुम हिसाब मांगने वाले कोन होते हो ?


3. सब लोग बेईमान है !

सबसे बडा षड्यंत्र ।


सच्चाई : भारत मे 99% आम व्यक्ति ईमानदार है अथवा ईमानदारी से जीना चाहते है। इस तरह के झूठ को की सब लोग बेईमान हैं, इस तरह फैलाया गया है कि एक देशभक्त, ईमानदार एवं चरित्रवान भारतीय व्यक्ति के मन मे यह भ्रम गहरा हो गया है कि सब बेईमान हैं । अविश्वास गहरा है । जबकि हकीकत यह् है कि भारत के आम जन 99% इमानदार हैं या ईमानदारी से जीना चाहते है और देश के जनप्रतिनिधि अर्थात तथाकथित नेता एम पी, एम एल ए आदि लगभग 99% बेईमान है। इन 99% भ्रष्ट एवं बेईमान नेताओ ने अपनी बेईमानी छुपाने के लिए देश की 99% ईमानदार प्रजा को बेईमान प्रजा कहकर बहुत बडे झूठ के तहत देश के लोगो को झूठा एवं बेईमान बनाने का षड्यंत्र रचा है। जिस दिन देश के यह संवेदनशील, जागरुक, राष्ट्र्भक्त, ईमानदार ये 99% लोग संगठित हो जायेंगे, उस दिन ये 1% बेईमान लोग बेनकाब हो जायेंगे । और भारत बेईमानो का देश नही अपितु ईमानदारो का देश कहलायेगा।


4. भ्रष्टाचार कभी नहीं मिट सकता, भ्रष्टाचारी ही देश का शासन करेंगे!

गहरी साजिश।

संकल्प : राष्ट्र्वादी, ईमानदार लोग ही देश पर शासन करेंगे भ्रष्टाचारी लोग ही देश पर शासन करेंगे। यह झूठ भी एक साजिश के तहत बोला जा रहा है। जिससे कि ईमानदार, देशभक्त लोग कभी सत्ता मे नहीं आ सकते। और एक के बाद दूसरा बेईमान सत्ताओ के सिंहासन पर बैठकर बेरहमी एवं बेदर्दी के साथ देश को लुटेगा। इस देश मे देशभक्त, ईमानदार, पढे-लिखे, चरित्रवान एवं जिम्मेदार लोग भी है, जो देश को - भ्रष्टाचार मुक्त, श्रेष्ठ शासन दे सकते है। तो समस्त देशवासियों के मन मे एक सहज प्रश्न उत्पन्न होता है की क्या अच्छे व चरित्रवान लोग संगठित हो पायेंगे ? क्या ईमानदार लोग एम एल ए, एम पी नही बन पायेंगे ? इसका सीधा, स्पष्ट एवं यथार्थ उत्तर है कि देश को नेत्रत्व देने की क्षमता रखने वाले देशभक्त, चरित्रवान लोग तो है लेकिन देशभक्त, चरित्रवान, ईमानदार लोग संगठित नहीं है। जो उनको वोट देकर सत्ताओ के सिंहासन पर पहुँचा सके।


5.विदेशी पूंजी निवेश के बिना, न तो देश का विकास संभव है और न ही देश मे रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे!

एक प्रायोजित झूठ्।

विश्वास : संसाधनो का 100% उचित उपयोग होने से होगा राष्ट्र का विकास और नही रहेगा कोई बेरोजगार। यह भी देश को लूटने का एक प्रायोजित झूठ एवं षड्यंत्र है कि विदेशी पूंजी निवेश के बिना देश का विकास नहीं होगा। जबकि हकीकत यह है की देश की पूंजी, भ्रष्टाचार मे बर्बाद नही हो तो देश का एक भी व्यक्ति बेरोजगार नही रहेगा एवं यदि बेईमान लोगो के पास पूंजी जमा न हो करके जब देश के ढांचागत विकास एवं व्यवसाय लगेगी तो देश मे इतनी स्म्रध्दि आयेगी कि हम दूसरे देशो को पैसा ब्याज पर देने की स्थिति मे होंगे। और भारत विश्व की सबसे बडी आर्थिक महाशक्ति के रुप मे सम्मान के साथ खडा हो जायेगा।


साभार-भारत का सच्चा सपूत राजीव दीक्षित जी भाई

यशवंतराव होलकर - YASHWANT RAO HOLKAR

यशवंतराव होलकर - YASHWANT RAO HOLKAR 


भोपाल। एक ऐसा भारतीय शासक जिसने अकेले दम पर अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था। इकलौता ऐसा शासक, जिसका खौफ अंग्रेजों में साफ-साफ दिखता था। एकमात्र ऐसा शासक जिसके साथ अंग्रेज हर हाल में बिना शर्त समझौता करने को तैयार थे। एक ऐसा शासक, जिसे अपनों ने ही बार-बार धोखा दिया, फिर भी जंग के मैदान में कभी हिम्मत नहीं हारी।

इतना महान था वो भारतीय शासक, फिर भी इतिहास के पन्नों में वो कहीं खोया हुआ है। उसके बारे में आज भी बहुत लोगों को जानकारी नहीं है। उसका नाम आज भी लोगों के लिए अनजान है। उस महान शासक का नाम है - यशवंतराव होलकर। यह उस महान वीरयोद्धा का नाम है, जिसकी तुलना विख्यात इतिहास शास्त्री एन एस इनामदार ने 'नेपोलियन' से की है। भास्कर नॉलेज पैकेजके अंतर्गत आज हम आपको इसी वीर योद्धा के बारे में बताने जा रहे हैं।

पश्चिम मध्यप्रदेश की मालवा रियासत के महाराज यशवंतराव होलकर का भारत की आजादी के लिए किया गया योगदान महाराणा प्रताप और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कहीं कम नहीं है। यशवतंराव होलकर का जन्म 1776 ई. में हुआ। इनके पिता थे - तुकोजीराव होलकर। होलकर साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव के कारण ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया ने यशवंतराव के बड़े भाई मल्हारराव को मौत की नींद सुला दिया।

इस घटना ने यशवंतराव को पूरी तरह से तोड़ दिया था। उनका अपनों पर से विश्वास उठ गया। इसके बाद उन्होंने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया। ये अपने काम में काफी होशियार और बहादुर थे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1802 ई. में इन्होंने पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की मिलीजुली सेना को मात दी और इंदौर वापस आ गए।

इस दौरान अंग्रेज भारत में तेजी से अपने पांव पसार रहे थे। यशवंत राव के सामने एक नई चुनौती सामने आ चुकी थी। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना। इसके लिए उन्हें अन्य भारतीय शासकों की सहायता की जरूरत थी। वे अंग्रेजों के बढ़ते साम्राज्य को रोक देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया से एकबार फिर हाथ मिलाया और अंग्रेजों को खदेड़ने की ठानी। लेकिन पुरानी दुश्मनी के कारण भोंसले और सिंधिया ने उन्हें फिर धोखा दिया और यशवंतराव एक बार फिर अकेले पड़ गए।

उन्होंने अन्य शासकों से एकबार फिर एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का आग्रह किया, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद उन्होंने अकेले दम पर अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाने की ठानी। 8 जून 1804 ई. को उन्होंने अंग्रेजों की सेना को धूल चटाई। फिर 8 जुलाई, 1804 ई. में कोटा से उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ दिया।

11 सितंबर, 1804 ई. को अंग्रेज जनरल वेलेस्ले ने लॉर्ड ल्युक को लिखा कि यदि यशवंतराव पर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। इसी मद्देनजर नवंबर, 1804 ई. में अंग्रेजों ने दिग पर हमला कर दिया। इस युद्ध में भरतपुर के महाराज रंजित सिंह के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजों को उनकी नानी याद दिलाई। यही नहीं इतिहास के मुताबिक उन्होंने 300 अंग्रेजों की नाक ही काट डाली थी।

अचानक रंजित सिंह ने भी यशवंतराव का साथ छोड़ दिया और अंग्रजों से हाथ मिला लिया। इसके बाद सिंधिया ने यशवंतराव की बहादुरी देखते हुए उनसे हाथ मिलाया। अंग्रेजों की चिंता बढ़ गई। लॉर्ड ल्युक ने लिखा कि यशवंतराव की सेना अंग्रेजों को मारने में बहुत आनंद लेती है। इसके बाद अंग्रेजों ने यह फैसला किया कि यशवंतराव के साथ संधि से ही बात संभल सकती है। इसलिए उनके साथ बिना शर्त संधि की जाए। उन्हें जो चाहिए, दे दिया जाए। उनका जितना साम्राज्य है, सब लौटा दिया जाए। इसके बावजूद यशवंतराव ने संधि से इंकार कर दिया।

वे सभी शासकों को एकजुट करने में जुटे हुए थे। अंत में जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो उन्होंने दूसरी चाल से अंग्रेजों को मात देने की सोची। इस मद्देनजर उन्होंने 1805 ई. में अंग्रेजों के साथ संधि कर ली। अंग्रेजों ने उन्हें स्वतंत्र शासक माना और उनके सारे क्षेत्र लौटा दिए। इसके बाद उन्होंने सिंधिया के साथ मिलकर अंग्रेजों को खदेड़ने का एक और प्लान बनाया। उन्होंने सिंधिया को खत लिखा, लेकिन सिंधिया दगेबाज निकले और वह खत अंग्रेजों को दिखा दिया।

इसके बाद पूरा मामला फिर से बिगड़ गया। यशवंतराव ने हल्ला बोल दिया और अंग्रेजों को अकेले दम पर मात देने की पूरी तैयारी में जुट गए। इसके लिए उन्होंने भानपुर में गोला बारूद का कारखाना खोला। इसबार उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ने की ठान ली थी। इसलिए दिन-रात मेहनत करने में जुट गए थे। लगातार मेहनत करने के कारण उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा। लेकिन उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और 28 अक्टूबर 1806 ई. में सिर्फ 30 साल की उम्र में वे स्वर्ग सिधार गए।

इस तरह से एक महान शासक का अंत हो गया। एक ऐसे शासक का जिसपर अंग्रेज कभी अधिकार नहीं जमा सके। एक ऐसे शासक का जिन्होंने अपनी छोटी उम्र को जंग के मैदान में झोंक दिया। यदि भारतीय शासकों ने उनका साथ दिया होता तो शायद तस्वीर कुछ और होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक महान शासक यशवंतराव होलकर इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया और खो गई उनकी बहादुरी, जो आज अनजान बनी हुई है।

साभार : दैनिक भास्कर 







Monday, May 27, 2013

हिन्दुस्तान का आइना - INDIA'S MIRROR



दोस्तों ये लेख आपके सभी प्रशनो के का जवान देगा और जान पाएंगे असल में हिन्दुस्तान हैं क्या ...? शुरुवात की दस लाइनों से ही ये लेख आपको बाध्य कर देगा इसे पूर्ण पढने पर l
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तो आओ शुरू करते हैं कैसे हिन्दुस्तानियों पर जुल्म हुए और ये नेहरु और गांधी ने क्या कुकर्म किये l
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“पुरे विश्व  को अँधेरी गुफा से निकालकर सूर्य की रश्मि में भिगोने वाले, जो चरों पैरों पर घुडकना सिख रहे थे उन्हें ऊँगली पकड़कर चलना सिखाने वाले हम भारतियों को आज अपने भारतीय होने पर शर्म महसूस होता हैं, हिन् भावना से ग्रसित होकर जीवन जी रहे हैं हमसब.......
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तभी तो हम भारतीय अपना तर्कसंगत नया साल को छोड़कर अंग्रेजो का नया साल मानते हैं जिसका कोई आधार ही नहीं हैं.,



हम पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, दान-पुण्य कर घी के दिए को जलाकर अपना जन्म-दिवस मानाने की परंपरा को छोड़कर अंडे से बने गंदे केक पर थूककर बेहूदा और गन्दी परंपरा को बड़े गर्व के साथ निभा रहे हैं,



अपनी स्वास्थ्यकर चीजों को छोड़कर रोगों को बुलावा देने वाले चीजो को खाना अपना शान समझते हैं,
अपनी मातृभाषा में बात करने में हम अपने आप को अपमानित महसूस करते हैं और उस भाषा को बोलने में गर्व महसूस करते हैं जिसके विद्वानों को खुद उस भाषा के बारे में पता नहीं, खुद उसे अपनी सभ्यता-संस्कृति के इतिहास की कोई जानकारी नहीं और जो हमारे यहाँ के किसी बच्चे से भी कम बुद्धि रखता हैं ........
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अगर विश्वास नहीं होता तो किसी इसी से पूछकर देखिये तो की उनके आराधना-स्थल का नाम चर्च क्यों पड़ा.......? क्रिसमस का अर्थ क्या हैं ....? और क्रिसमस को एक्समस (X-mas) क्यों कहा जाता हैं..... ? हम लोगो के तो संस्कृत या हिंदी के प्रत्येक शब्द का अर्थ हैं क्योंकि सब संस्कृत के मूल धातु से उत्पन्न हुआ हैं

........... क्रिसमस को अगर ईसा के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता हैं तो फिर क्रिसमस में तो जन्मदिन जैसा कोई अर्थ नहीं है और उनके जन्म को लेकर ईसाई विद्वानों में ही मतभेद हैं....और उनके जन्म को 4 ईसा पूर्व बताते हैं तो कोई कुछ..........................................................



और ठीक हैं अगर मान लीजिये कि 25 दिसंबर को ही ईसा का जन्म हुआ था तो अपना नया साल एक सप्ताह बाद क्यों ...?



आपको तो नया साल का शुरुआत उसी दिन से करना चाहिए था …. ! कोई जवाब नहीं हैं उनके पास लेकिन हमारे पास हैं .... और जिन शब्दों का अर्थ उन्हें नहीं मालुम वो हमें हैं वो इसलिए कि लहरें नदी के जितना विशाल नहीं हो सकती

........ एक और प्रशन कि वो लोग अपना अगला दिन और तिथि रात के 12 बजे उठकर क्यों बदलते हैं जबकि दिन तो सूर्योदय के बाद होता हैं..............

तनिक विचार कीजिये कि अंग्रेजी में सेप्ट (Sept) 7 के लिए प्रयुक्त होता हैं Oct आठ के लिए Deci दस के लिए तो फिर September, October, November & December क्रमश:
नौवा, दसवां, ग्यारहवा और बारहवां महिना कैसे हो गया ........??

सितम्बर को तो सातवाँ महिना होना चाहिए फिर वो नॉवा महीना क्यों और कैसे ........? कभी सोचा आपने ........!!

इसका कारण ये हैं कि 1752 ई0 तक इंग्लैण्ड में मार्च ही पहला महीना हुआ करता था और उसी गणित से 7वां महीना सितम्बर और दसवां महीना दिसंबर था

लेकिन १७५२ के बाद जब शुरूआती महीना जनवरी को बनाया गया तब से साड़ी व्यवस्थाये बिगड़ी...तो अब समझे कि क्रिसमस को (X-mas) क्यों कहते हैं .... ! "x जो रोमन लिपि में दस का संकेत हैं और "mas" यानी मॉस, यानी दसवां महीना........ उस समय दिसंबर दसवां महीना था जिस कारण इसका X-mas नाम पड़ा.........


 और मार्च पहला महीना इसलिए होता था क्योंकि भारतीय लोग इसी महीने में अपना नववर्ष मानते थे और अभी भी मानते हैं ....


तो सोचिये कि हम लोग बसंत जैसे खुशाल समय जिसमे पैड-पौधे, फुल पत्ते साड़ी प्रकृति एक नए रंग में रंग जाती हैं और अपना नववर्ष मानती हैं उसे छोड़कर जनवरी जैसे ठन्डे, दुखदायी और पतझड़ के मौसम में अपना नयासाल मानकर हम लोग कितने बेवकूफ बनते हैं .....



सितम्बर यानी सप्त अम्बर यानी आकश का सातवां भाग...... भारतियों ने आकाश को बारह भागों में बाँट रखा था जिसका सातवा, आठवां, नौवां और दसवां भाग के आधार पर ये चरों नाम हैं...... तो अब समझे कि इन चार महीनो का नाम सेप्टेम्बर, अक्तूबर, नवम्बर और दिसंबर क्यों हैं.....l

संस्कृत में ७ को सप्त कहा जाता हैं तो अंग्रेजी में सेप्ट, अष्ट को ओक्ट, दस को डेसी.......अंग्रेज लोग "त" का उच्चारण "ट" और "द" का "ड" करते हैं इसलिए सप्त सेप्ट और दस डेश बन गया ..... तो इतनी समानता क्यों.....?? आप समझ चुके होंगे कि मैं किस और इशारा कर रहा हूँ .......! अगर अभी भी अस्पष्ट हैं तो चिंता कि बात नहीं आगे स्पष्ट हो जाएगा .........



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चलिए पहले हम बात कर रहे थे अपने हीन भावना कि तो इसी की बात कर लेते हैं
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........ हमारे देशवासियों की अगर ऐसी मानसिकता बन गयी हैं तो इसमें उनका भी कोई दोष नहीं हैं ....
भारतियों को रुग्न मानसिकता वाले और हीन भावना से भरने का चाल तो १७३१ से ही चला जा रहा हैं जबसे यहाँ अंग्रेजी शिक्षा लागू हुई............



अंग्रेजी शिक्षा का मुख्य उद्द्येश्य ही यहीं था कि भारतियों को पराधीन मानसिकता वाला बना दिया जाए ताकि वो हमेशा अंग्रेजों के तलवे चाटते रहे...



यहाँ के लोगो का के नारियों का नैतिक पतन हो जाए, भारतीय कभी अपने पूर्वजों पर गर्व ना कर सके,
वो बस यहीं समझते रहे कि अंग्रेजो के आने से पहले वो बिलकुल असभ्य था उसके पूर्वज अन्धविश्वासी और रुढ़िवादी थे, अगर अंग्रेज ना आये होते तो हम कभी तरक्की नहीं कर पाते...



इसी तर्ज पर उन्होंने शिक्षा-व्यवस्था लागू कि थी और सफल हो भी गए .............. और ये हमारा दुर्भाग्य ही हैं आज़ादी के बाद भी हमारा देश का नेत्रित्व किसी योग्य भारतीय के हाँथ में जाने के बजे नेहरु जैसे विकृत, बिलकुल दुर्बल इर रोगी मानसिकता वाले व्यक्ति के हाँथ में चला गया जो सिर्फ नाम से भारतीय था

पर मनन और कर्म से तो वो बिलकुल अंग्रेज( मुल्ला ) ही था.... बल्कि उनसे चार कदम आगे ही था........
ऐसा व्यक्ति था जो सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, वीर सावरकर और बाल गंगाधर तिलक जैसे हमारे देश भक्तों से नफरत करता था क्योंकि उसकी नजरों में वो लोग मजहबी थे ...



उसकी नजर में राष्ट्रवादी होना मजहबी होना था. वो समझता था कि भारतीय बहुत खुशनसीब हैं जो उनके ऊपर गोरे शासन कर रहे हैं, क्योंकि इससे असभ्य भारतीय सभ्य बनेंगे.........



उसकी ऐसी मानसिकता का कारण ये था कि उसने भारतीय शिक्षा कभी ली ही नहीं थी l अपनी पूरी शिक्षा उसने विदेश से प्राप्त की थी जिसका ये परिणाम निकला था....



चरित्र ऐसा की बुढ़ारी में इश्कबाजी करना नहीं छोड़े जब उनकी कमर छुक गयी थी और छड़ी के सहारे चलते थे........



भारत के अंतिम वायसराय की पत्नी एडविन माउन्टबेटेन के साथ उनकी रंगरेलियां जग-जाहिर हैं जिसका विस्तृत वर्णन एडविन की बेटी पामेला ने अपनी पुस्तक "India remembered" में किया हैं .....



पामेला के पास नेहरु द्वारा उसकी माँ को बक्सा भर-भरकर लिखे गए लव-लेटर्स भी हैं ...



वो तो भला हो हमारे लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल का जिसके कारण आज कश्मीर भारत में हैं नहीं तो पंडित जी ने तो इसे अपने प्यार पर कुर्बान कर ही दिया था .......



और उस लौह पुरुष को भी महात्मा कहे जाने वाले गाँधी ने इतना अपमानित किया था कि बेचारे के आँखों से आंसू चालक पड़े थे ..



सच्ची बात तो ये थी कि कश्मीर भारत में रहे या पाकिस्तान में इससे इन दोनों (नेहरु,गांधी) को कोई फर्क नहीं पड़ता था .......



लोग समझते हैं कि अंग्रेजो ने 1947 में भारत को आजाज़ कर दिया था पर सच्चाई ये नहीं हैं.. सच्चाई यह हैं कि उसने नेहरु के रूप में अपना नुमायिन्दा यहाँ छोड़ दिया था....



वो जानता था कि उसका नुमाईन्दा उससे भी ज्यादा निपुणता से भारत देश को बर्बाद करने काम करेगा.....
और सच में उसका नुमाईन्दा उसकी आशा से ज्यादा ही खरा उतरा ......



नेहरु (सीधी-सीधी कहूँ तो पुरे कांग्रेसियों का) का ही ये प्रभाव हैं कि आज तक मानसिक रूप से आज़ाद नहीं हो पाए अंग्रेजों से हमारी स्थिति इतनी दयनीय हो चुकी हैं कि अमृत भी मिल जाए तो पहले अंग्रेजों से पूछने जायेंगे कि इसे पिए कि नहीं.........



अगर कोई विषैला पदार्थ भी मिल गया तो पहले हम अंग्रेजों से ही पूछेंगे कि इसे त्यागना चाहिए या पि लेना चाहिए...........



और जिस अंग्रेजों ने आजतक हमलोगों से नफरत कि कभी हमलोगों कि तरक्की सह नहीं पाए, क्या लगता हैं कि वो हमें हमारे भले कि सलहा देंगे .....?


सधन्यवाद : लेखक : रावल किशोर 

Tuesday, May 7, 2013

विष्णु के दस अवतार


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानमं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (श्रीमद्भाग्वद् गीता 4/7-8)
हिन्दूओं का विशवास है कि सृष्टि में सभी प्राणी पूर्वनिश्चित धर्मानुसार अपने अपने कार्य करते  रहते हैं और जब कभी धर्म की हानि की होती है तो सृष्टिकर्ता धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये धरती पर अवतार लेते हैं। मुख्यतः आज तक सृष्टि पालक भगवान विष्णु नौ बार धरती पर अवतरित हो चुके हैं और दसवीं बार अभी हों गे। सभी अवतारों की कथायें पुराणों में विस्तार पूर्वक संकलित हैं। उन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः –
  1. मत्स्य अवतार – एक बार राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी के तट पर तर्पण कर रहे थे तो एक छोटी मछली उन की अंजली में आकर विनती करने लगी कि वह उसे बचा लें। राजा सत्यव्रत ने एक पात्र में जल भर कर उस मछली को सुरक्षित कर दिया किन्तु शीघ्र ही वह मछली पात्र से भी बड़ी हो गयी। राजा ने मछली को क्रमशः तालाब, नदी और अंत में सागर के अन्दर रखा पर हर बार वह पहले से भी बड़े शरीर में परिवर्तित होती गयी। अंत में मछली रूपी विष्णु ने राजा सत्यव्रत को एक महाभयानक बाढ़ के आने से समस्त सृष्टि पर जीवन नष्ट हो जाने की चेतावनी दी।  तदन्तर राजा सत्यव्रत ने एक बड़ी नाव बनवायी और उस में सभी धान्य, प्राणियों के मूल बीज भर दिये और सप्तऋषियों के साथ नाव में सवार हो गये। मछली ने नाव को खींच कर पर्वत शिखर के पास सुरक्षित पहँचा दिया। इस प्रकार मूल बीजों और सप्तऋषियों के ज्ञान से महाप्रलय के पश्चात सृष्टि पर पुनः जीवन का प्रत्यारोपन हो गया। इस कथा का विशलेशन हज़रत नोहा की आर्क के साथ किया जा सकता है जो बाईबल में संकलित है। यह कथा डी एन ऐ सुरक्षित रखने की वैज्ञानिक क्षमता की ओर संकेत भी करती है जिस की सहायता से सृष्टि के विनाश के बाद पुनः उत्पत्ति करी जा सके।
  2. कुर्मा अवतार – महाप्रलय के कारण पृथ्वी की सम्पदा जलाशाय़ी हो गयी थी। अतः भगवान विष्णु ने कछुऐ का अवतार ले कर सागर मंथन के समय पृथ्वी की जलाशाय़ी सम्पदा को निकलवाया था। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आईस ऐज के बाद सृष्टि का पुनरर्निमाण हुआ था। पौराणिक सागर मंथन की कथानुसार सुमेरु पर्वत को सागर मंथन के लिये इस्तेमाल किया गया था। माऊंट ऐवरेस्ट का ही भारतीय नाम सुमेरू पर्वत है तथा नेपाल में उसे सागर मत्था कहा जाता है। जलमग्न पृथ्वी से सर्व प्रथम सब से ऊँची चोटी ही बाहर प्रगट हुयी होगी। यह तो वैज्ञानिक तथ्य है कि सभी जीव जन्तु और पदार्थ सागर से ही निकले हैं। अतः उसी घटना के साथ इस कथा का विशलेशन करना चाहिये।
  3. वराह अवतार  भगवान विष्णु ने दैत्य हिरणाक्ष का वध करने के लिये वराह रूप धारण किया था तथा उस के चुंगल से धरती को छुड़वाया था। पौराणिक चित्रों में वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर संतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर ला रहे होते हैं। वराह को पूर्णतया वराह (जंगली सूअर) के अतिरिक्त कई अन्य चित्रों में अर्ध-मानव तथा अर्ध-वराह के रूप में भी दर्शाया जाता है। वराह अवतार के मानव शरीर पर वराह का सिर और चार हाथ हैं जो कि भगवान विष्णु की तरह शंख, चक्र, गदा और पद्म लिये हुये दैत्य हिरणाक्ष से युद्ध कर रहे हैं। विचारनीय वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सभी प्राचीन चित्रों में धरती गोलाकार ही दर्शायी जाती है जो प्रमाण है कि आदि काल से ही हिन्दूओं को धरती के गोलाकार होने का पता था। इस अवतार की कथा का सम्बन्ध महाप्रलय के पश्चात सागर के जलस्तर से पृथ्वी का पुनः प्रगट होना भी है।
  4. नर-सिहं अवतार  भगवान विष्णु ने नर-सिंह (मानव शरीर पर शेर का सिर) के रूप में अवतरित  हो कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध किया था जिस के अहंकार और क्रूरता ने सृष्टि का समस्त विधान तहस नहस कर दिया था। नर-सिंह एक स्तम्भ से प्रगट हुये थे जिस पर हिरण्यकशिपु ने गदा से प्रहार कर के भगवान विष्णु की सर्व-व्यापिक्ता और शक्ति को चुनौती दी थी। यह अवतार इस धारणा का प्रतिपादन करता है कि ईश्वरीय शक्ति के लिये विश्व में कुछ भी करना असम्भव नहीं भले ही वैज्ञानिक तर्क से ऐसा असम्भव लगे।
  5. वामन अवतार  वामन अवतार के रूप नें भगवान विष्णु मे दैत्यराज बलि से तीन पग पृथ्वी दान में मांगी थी।  राजा बलि ने दैत्यगुरू शुक्राचार्य के विरोध के बावजूद जब वामन को तीन पग पृथ्वी देना स्वीकार कर लिया तो वामन ने अपना आकार बढ़ा लिया और दो पगों में आकाश और पाताल को माप लिया। जब तीसरा पग रखने के लिये कोई स्थान ही नहीं बचा तो प्रतिज्ञा पालक बलि ने अपना शीश तीसरा पग रखने के लिये समर्पित कर दिया। विष्णु ने तीसरे पग से बलि को सुतल-लोक में धंसा दिया परन्तु उस की दान वीरता से प्रसन्न हो कर राजा बलि को अमर-पद भी प्रदान कर दिया। आज भी बलि सुतुल-लोक के स्वामी हैं। दक्षिण भारत में इस कथा को पोंगल त्योहार के साथ जोडा जाता है।
  6. परशुराम अवतार  परशुराम का विवरण रामायण तथा महाभारत दोनो महाकाव्यों में आता है। वह ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे और उन्हों ने भगवान शिव की उपासना कर के एक दिव्य परशु (कुलहाड़ा) वरदान में प्राप्त किया था। एक बार राजा कृतवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु अपनी सैना का साथ जमदग्नि के आश्रम में आये तो ऋषि ने उन का आदर सत्कार किया। ऋषि ने सभी पदार्थ कामधेनु दिव्य गाय की कृपा से जुटाये थे। इस से आश्चर्य चकित हो कर कृतवीर्य ने अपने सैनिकों को ज़बरदस्ती ऋषि की गाय को ले जाने का आदेश दे दिया। अंततः परशुराम ने कृतवीर्य तथा उस की समस्त सैना का अपने परशु से संहार किया। तदन्तर कृतवीर्य के पुत्रों ने ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया तो परशुराम ने कृतवीर्य और समस्त क्षत्रिय जाति का विनाश कर दिया और पूरी पृथ्वी उन से छीन कर ऋषि कश्यप को दान कर दी। सम्भवतः बाद में कश्यप ऋषि के नाम से ही उन के आश्रम के समीप का सागर कश्यप सागर (केस्पीयन सी) के नाम से आज तक जाना जाता है। पूरा कथानांक  प्रचीन इतिहास अपने में छुपाये हुये है। परशुराम अवतार राजाओं के अत्याचार तथा निरंकुश्ता के विरुध शोषित वर्ग का प्रथम शक्ति पलट अन्दोलन था। परशुराम अवतार ने शासकों को अधिकारों के दुरुप्योग के विरुध चेताया और आज के संदर्भ में भी इसी प्रकार के अवतार की पुनः ज़रूरत है।
  7. राम अवतार - परशुराम अवतार राजसत्ता के दुरुप्योग के विरुध शोषित वर्ग का आन्दोलन था तो भगवान विष्णु ने ऐक आदर्श राजा तथा आदर्श मानव की मर्यादा स्थापित करने के लिये राम अवतार लिया। राम का चरित्र हिन्दू संस्कृति में एक आदर्श मानव, भाई, पति, पुत्र के अतिरिक्त राजा के व्यवहार का भी कीर्तिमान है। अंग्रेजी साहित्य के लेखक टोमस मूर ने पन्द्रवीं शताब्दी में आदर्श राज्य के तौर पर एक यूटोपिया राज्य की केवल कल्पना ही करी थी किन्तु राम राज्य टोमस मूर के काल्पनिक राज्य से कहीं अधिक वास्तविक आदर्श राज्य स्थापित हो चुका था। राम का इतिहास समेटे रामायण विश्व साहित्य का प्रथम महाकाव्य है।
  8. कृष्ण अवतार  कृष्ण अवतार का समय आज से लगभग 5100 वर्ष या ईसा से 3102 वर्ष पूर्व का माना जाता है। कृष्ण ने महाभारत युद्ध में एक निर्णायक भूमिका निभाय़ी और उन के दुआरा गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया जो कि संसार का सब से सक्ष्म दार्शनिक वार्तालाप है। कृष्ण के इतिहास का वर्णन महाभारत के अतिरिक्त कई पुराणों तथा हिन्दू साहित्य की पुस्तकों में भी है। उन के बारे में कई सच्ची तथा काल्पनिक कथायें भी लिखी गयी हैं। कृष्ण दार्शनिक होने के साथ साथ एक राजनीतिज्ञ्, कुशल रथवान, योद्धा, तथा संगीतिज्ञ् भी थे। उन को 64 कलाओं का ज्ञाता कहा जाता है और सोलह कला सम्पूर्ण अवतार कहा जाता है। कृष्ण को आज के संदर्भ में पूर्णत्या दि कम्पलीट मैन कहा जा सकता है।
  9. बुद्ध अवतार  विष्णु ने सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के रूप में जन-साधारण को पशु बलि के विरुध अहिंसा का संदेश देने के लिये अवतार लिया। भारतीय शिल्प कला में सब से अधिक मूर्तियां भगवान बुद्ध की ही हैं। आम तौर पर बौध मत के अनुयायी गौतम बुद्ध के अतिरिक्त बुद्ध के और भी बोधिसत्व अवतारों को मानते हैं।
  10. कलकी अवतार विष्णु पुराण में सैंकड़ों वर्ष पूर्व ही भविष्यवाणी की गयी है कि कलियुग के अन्त में कलकी महा-अवतार होगा जो इस युग के अन्धकारमय और निराशा जनक वातावरण का अन्त करे गा। कलकी शब्द सदैव तथा समय का पर्यायवाची है। कलकी अवतार की भविष्यवाणी के कई अन्य स्त्रोत्र भी हैं।
 अवतार-वाद
 हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने आप में ईश्वरीय छवि का आभास कर सकता है तथा ईश्वर से बराबरी भी कर सकता है। इतने पर भी संतोष ना हो तो अपने आप को ही ईश्वर घोषित कर के अपने भक्तों का जमावड़ा भी इकठ्ठा कर सकता है। हिन्दू् धर्म में ईश्वर से सम्पर्क करने के लिये किसी दलाल, प्रतिनिधि या ईश्वर के किसी बेटे-बेटी की मार्फत से नहीं जाना पड़ता। ईश्वरीय-अपमान (ब्लासफेमी) का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्यों कि हिन्दू धर्म में पूर्ण स्वतन्त्रता है।
हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने विचारों से अवतार-वाद की व्याख्या कर सकता है। कोई किसी को अवतार माने या ना माने इस से किसी को भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। सभी हिन्दू धर्म के मत की छत्र छाया तले समा जाते हैं। हिन्दू धर्माचार्यों ने  अवतार वाद की कई व्याख्यायें प्रस्तुत की हैं। उन में समानतायें, विषमतायें तथा विरोधाभास भी है।
  • सृष्टि की जन्म प्रक्रिया - एक मत के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाते हैं। इस मतानुसार जल से सभी जीवों की उत्पति हुई अतः भगवान विष्णु सर्व प्रथम जल के अन्दर मत्स्य रूप में प्रगट हुये। फिर कुर्मा बने। इस के पश्चात वराह, जो कि जल तथा पृथ्वी दोनो का जीव है। नरसिंह, आधा पशु – आधा मानव, पशु योनि से मानव योनि में परिवर्तन का जीव है। वामन अवतार बौना शरीर है तो परशुराम एक बलिष्ठ ब्रह्मचारी का स्वरूप है जो राम अवतार से गृहस्थ जीवन में स्थानांतरित हो जाता है। कृष्ण अवतार एक वानप्रस्थ योगी, और बुद्ध परियावरण का रक्षक हैं। परियावरण के मानवी हनन की दशा सृष्टि को विनाश की ओर धकेल देगी। अतः विनाश निवारण के लिये कलकी अवतार की भविष्यवाणी पौराणिक साहित्य में पहले से ही करी गयी है।
  • मानव जीवन के विभन्न पड़ाव - एक अन्य मतानुसार दस अवतार मानव जीवन के विभन्न पड़ावों को दर्शाते हैं। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कुर्मा भ्रूण, वराह गर्भ स्थति में बच्चे का वातावरण, तथा नर-सिंह नवजात शिशु है। आरम्भ में मानव भी पशु जैसा ही होता है। वामन बचपन की अवस्था है, परशुराम ब्रह्मचारी, राम युवा गृहस्थी, कृष्ण वानप्रस्थ योगी तथा बुद्ध वृद्धावस्था का प्रतीक है। कलकी मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म की अवस्था है।
  • राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त - कुछ विचारकों के मतानुसार राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त को बल देने के लिये कुछ राजाओं ने अपने कृत्यों के आश्रचर्य चकित करने वाले वृतान्त लिखवाये और कुछ ने अपनी वंशावली को दैविक अवतारी चरित्रों के साथ जोड़ लिया ताकि वह प्रजा उन के दैविक अधिकारों को मानती रहे। अवतारों की कथाओं से एक और तथ्य भी उजागर होता है कि खलनायक भी भक्ति तथा साधना के मार्ग से दैविक शक्तियां प्राप्त कर सकते थे। किन्तु जब भी वह दैविक शक्ति का दुर्पयोग करते थे तो भगवान उन का दुर्पयोग रोकने के लिये अवतार ले कर शक्ति तथा खलनायक का विनाश भी करते थे।
  • भूगोलिक घटनायें - एक प्राचीन यव (जावा) कथानुसार एक समय केवल आत्मायें ही यव दूइप पर निवास करती थीं। जावा निवासी विशवास करते हैं कि उन की सृष्टि स्थानांतरण से आरम्भ हुयी थी। वराह अवतार कथा में दैत्य हिरण्याक्ष धरती को चुरा कर समुद्र में छुप गया था तथा वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर समतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर लाये थे। कथा और यथार्थ में कितनी समानता और विषमता होती है इस का अंदाज़ा इस बात मे लगा सकते हैं कि जावा से ले कर आस्ट्रेलिया तक सागर के नीचे पठारी दूइप जल से उभरते और पुनः जलग्रस्त भी होते रहते हैं। आस्ट्रेलिया नाम आन्ध्रालय (आस्त्रालय) से परिवर्तित जान पडता है। यव दूइप पर ही संसार के सब से प्राचीन मानव अस्थि अवशेष मिले थे। पौराणिक कथाओं में भी कई बार दैत्यों ने देवों को स्वर्ग से निष्कासित किया था। इस प्रकार के कई रहस्य पौराणिक कथाओं में छिपे पड़े हैं।
मानना, ना मानना - निजि निर्णय
अवतारवाद का मानना या ना मानना प्रत्येक हिन्दू का निजि निर्णय है। कथाओं का सम्बन्ध किसी भूगौलिक, ऐतिहासिक घटना, अथवा किसी आदर्श के व्याखीकरण हेतु भी हो सकता है। हिन्दू धर्म किसी को भी किसी विशेष मत के प्रति बाध्य नहीं करता। जितने हिन्दू ईश्वर को साकार तथा अवतारवादी मानते हैं उतने ही हिन्दू ईश्वर को निराकार भी मानते हैं। कई हिन्दू अवतारवाद में आस्था नहीं रखते और अवतारी चरित्रों को महापुरुष ही मानते हैं। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अवतारी कथाओं में मानवता का इतिहास छुपा है।
कारण कुछ भी हो, निश्चित ही अवतारों की कथाओं में बहुत कुछ तथ्य छिपे हैं। अवश्य ही प्राचीन हिन्दू संस्कृति अति विकसित थी तथा पौराणिक कथायें इस का प्रमाण हैं। पौराणिक कथाओं का लेखान अतिश्योक्ति पूर्ण है अतः साहित्यक भाषा तथा यथार्थ का अन्तर विचारनीय अवश्य है। साधारण मानवी कृत्यों को महामानवी बनाना और ईश्वरीय शक्तियों को जनहित में मानवी रूप में प्रस्तुत करना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है। 
साभार : चाँद शर्मा, http://hindumahasagar.wordpress.com