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Saturday, January 26, 2013

ऐ मेरे वतन के लोगो

ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी
जो शहीद हुये हैं उन की जरा याद करो कुर्बानी।
य़ह भावपूर्ण गीत कवि प्रदीप ने लिखा था और इस में भारतीय सैनिकों के साहस, वीरता और देश-प्रेम के साथ साथ उन की दुर्दशा और दुखद अन्त का चित्र भी खींचा था। गीत की आत्मा उस के शब्द हैं जिस के लिये बधाई के ऐकमात्र पात्र कवि प्रदीप हैं।
इस गीत की धुन महान संगीतकार सी रामचन्द्र ने बनाई थी। सर्व प्रथम इस गीत को लता मंगेश्कर ने संवेदन शीलता साथ 27 जनवरी 1963  को नेशनल स्टेडियम में सी रामचन्द्र के लाईव आर्केस्ट्रा के साथ गाया था।
लेकिन अब यह गीत अपनी खूबियों के कारण याद नहीं किया जाता। इस गीत का परिचय केवल यह रह गया है कि इसे सुन कर जवाहरलाल नेहरू रो पडे थे।
पता नहीं कितनी माताये, बहने पत्नियां और बच्चे और भी कई जगहों पर रोये होंगे जिन के घरों के चिराग चीन की सुर्ख आँधी ने बुझा दिये थे। परन्तु वह अब किसी को याद नहीं।
नेहर जी ने संसद को बताया था कि हमारी सैनायें चीन से युद्ध करने को तैय्यार नहीं थी। उन के पास हथियार और साजो सामान नहीं थे। फिर क्यों उन्हें ठिठुरती सर्दी में ऊँचे पर्वतों पर चीनी ड्रैगन के आगे धकेल दिया गया था? क्यों नेहरू जी ने बिना किसी तैय्यारी के थलसैनाध्यक्ष को रक्षा सचिव सरीन के माध्यम से ही ‘Evict the Chinese’ का हुक्म सुना कर खुद कोलम्बो चले गये थे?
लेकिन जो कुछ भी हुआ वह आज भी  भारतीयों के लिये ऐक शर्मनाक याद है। इतिहास इस तथ्य को जानना चाहता है कि 1962 के असली गुनाहगार कौन थे?
सरदार पटेल से ले कर राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद और चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य तक देश के मझे हुये नेता नेहरू को तिब्बत समझोते के विरुध चेतावनी देते रहै लेकिन नेहरू रूपी दुर्योधन ने किसी की बात नहीं सुनी थी। विपक्षी नेता बार बार चीनी अतिकर्मण के बारे में सरकार से सफाई मांगते थे तो नेहरू जी उन्हें भी नकार देते थे। देश की धरती के बारे में उन की क्षद्धा थी ‘Not a blade of grass grows there’. जनरल सैन्य कमियों की दुहाई देते रहै परन्तु 14 नवम्बर 1961 तक नेहरू जी अपने जन्मदिन मनाने में व्यस्त रहै और उन की बातों को अपने लफ्जों से ही उडाते रहै।
इन सब बातों का क्च्चा चिठ्ठा शायद लेफ्टिनेन्ट जनरल हैण्डरसन ब्रुक्स की इन्कवाईरी रिपोर्ट से निकल कर जनता के सामने आ जाता अगर उसे सार्वजनिक नहीं किया गया। लेकिन वह रिपोर्ट पचास साल के बाद भी आजतक गुप्त ही पडी है ताकि चाचा नेहरू की 'वाह-वाह' के सहारे उन के वंशज काँग्रसी अपने चुनाव जीतते रहैं।
आज हमारी सैनाओं की जो हालत है वह भी किसी से कोई छिपी नहीं। आफिसर्स की कमी, हथियारों की खरीद के लिये बजट में कटौती आम बात है।
इन सब से अधिक जवानो के पास आज मनोबल की कमी है। जिस देश के नेता दुशमन के साथ दोस्ती कर के उसे गले लगाने की होड में जुटे हों तो उस दुशमन को यह पूरी छूट है वह चाहे तो  हमारे जवानों के सिर काट ले, चाहे उन की लाशों को विक्षिप्त कर दे और चाहे तो किसी भारतीय को बन्दी बना कर पीट पीट कर मार दे।
देश में बेकारी बहुत है लेकिन फिर भी हमारे देश के युवा सैना के आफिसर नहीं बनना चाहते और हमें आफिसर बनाने के लिये क्रिकेटरों आदि को आनरेरी रैंक दे कर सम्मानित करना पडता है।
हमारी सैनाये हर साल अपना शक्ति प्रदर्शन राजपथ पर सैल्यूट दे कर करती हैं। नेताओं की चिता को राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम विदाई देती हैं, उन की सुरक्षा के लिये हर सम्भव प्रयत्न करती हैं लेकिन नक्सलवादियों के हाथो...चलो छोडो इन दुखदाई बातों को।
कितना प्यारा गीत है
ऐ मेरे वतन के लोगो जरा आंख में भर लो पानी
जो शहीद हुये हैं उन की जरा याद करो कुर्बानी।
काश नेहरू जी की आँखों में उस दिन आँसुओं के बजाये अगर थोडी शर्म आ गयी होती तो आज हमारी दशा कुछ बेहतर होती।
साभार  लेखक श्री चाँद शर्मा, http://hindumahasagar.wordpress.com

Thursday, January 24, 2013

गण और गणराज्य की अवधारणा



वैदिक युग के परवर्ती काल में लोगों की प्रवृत्ति अपने-अपने वर्ग का स्वतंत्र शासन करने की ओर हो चली थी। हमारे इस कथन का दूसरा प्रमाण हिन्दू प्रजातंत्र है। वैदिक युग के आरम्भ में केवल राजाओं के द्वारा ही शासन हुआ करता था। परन्तु वैदिक युग के उपरान्त यह साधारण राज्य-व्यवस्था छोड दी गई थी और जैसा कि मेगास्थनीज ने भी परम्परा से चली आई हुई दंत-कथाओं के आधार पर लिखा है, राजा के द्वारा शासन करने की प्रथा तोड दी गई थी और भिन्न-भिन्न स्थानों में प्रजातंत्र शासन की स्थापना हो गई थी। महाभारत का भी यही मत है कि वैदिक युग में केवल राजा द्वारा ही शासन करने की प्रथा थी। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में आई हुई स्तुतियों, महाभारत के मत तथा ईसवी चौथी शताब्दी मेगास्थनीज की सुनी हुई परम्परागत बातों से यही सिद्घ होता है कि भारत में राजकीय शासन के बहुत बाद और आरम्भिक वैदिक युग के उपरान्त प्रजातंत्र शासन के प्रमाण परवर्ती वैदिक साहित्य, ऋग्वेद के ब्राह्मण भाग, ऐतरेय तथा यजुर्वेद और उसके ब्राह्मण तैत्तिरीय में मिलते हैं। सुविधा के लिए हम पहले परवर्ती इतिहास के कुछ अधिक प्रसिद्घ प्रजातंत्री का उल्लेख करके तब उन प्रजातंत्री संस्थाओं का उल्लेख करेंगे जिनका वर्णन उक्त वैदिक ग्रंथों आदि में आया है।

हिन्दू राज्यों की राजा-रहित शासन-प्रणालियों के उल्लेख से इस जाति के संघटनात्मक या शासन-प्रणाली सम्बन्धी इतिहास के एक बहुत बडें अंश की पूर्ति होती है। यह मानो उस इतिहास का एक बहुत बडा प्रकरण है। अत: इस विवेचन में इस विषय पर विशेष ध्यान देंगे।

प्रोफेसर रहीस डेविड्स ने अपने बुद्घिस्ट इंडिया  नामक ग्रंथ में दिखलाया है कि शासन का प्रजातंत्री स्वरूप महात्मा बुद्घ के देश में तथा उसके आस-पास पाया जाता था। परन्तु उसमें नहीं बतलाया गया है कि हमारे यहां के साहित्य में हिन्दू प्रजातंत्रों के सम्बन्ध के पारिभाषिक शब्द भी सुरक्षित हैं। इनमें से जिस पहले शब्द ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया था। वह गण शब्द है। हिन्दू साहित्य की जैन शाखा के आचारांग सूत्र में मुझे दोरज्जाणि और गणरायाणि- ये दो शब्द मिले थे। उस समय मुझे इस बात का ध्यान हुआ कि ये शासन-प्रणालियों के व्याख्यात्मक शब्द हैं। दोरज्जाणि वे राज्य थे जिनमें दो शासक शासन करते थे। इसी प्रकार गणरायाणि वे राच्य रहे होंगे, जिनमें दो शासक शासन करते थे। इसी प्रकार गणरायाणि वे राच्य रहे होंगे जिनमें गण या समूह का शासन होता होगा। दूसरे अनेक स्थानों में मुझे केवल गण शब्द ही गण राच्य के स्थान में मिला था। और अधिक अनुसंधान करने पर मेरे इस विचार का समर्थन करने वाले प्रमाण भी मिल गए कि गण से प्रजातंत्र का अभिप्राय लिया जाता था, और उन दिनों इसके जो दूसरे अर्थ प्रचलित थे, (उदाहरणस्वरूप फ्लीट तथा दूसरे विद्घानों ने इसका अर्थ 81्रुी तथा बुहलर ने व्यापारियों अथवा कारीगरों आदि का संघ या सभा किया है) वे गलत थे।

पहले यह जान लेना आवश्यक है कि गण शब्द का ठीक-ठीक अर्थ क्या है। गण का मुख्य अर्थ है-समूह और इसलिए गणराच्य का अर्थ होगा, समूह के द्वारा संचालित राच्य अथवा बहुत से लोगों के द्वारा होनेवाला शासन। यहाँ बौद्घों के धर्मग्रंथों से हमें सहायता मिलती है। बुद्घ से पूछा गया था कि भिक्खुओं की संख्या किस प्रकार जानी जाय।

जो भिक्खु भिक्षा के लिए गए थे, उनमे उस समय लोगों ने पूछा था कि महाराज कुल कितने भिक्खु हैं?

भिक्खुओं ने उत्तर दिया- भाई यह तो हम नहीं जानते।

इससे लोग बहुत चिंतित हुए। उन्होंने यह बात बुद्घ से की बुद्घ ने यह व्यवस्था की कि उपोसथ के दिन सब भाइयों की गणना होगी, और यह गणना गण के ढंग पर अथवा मताधिकार पत्र एकत्र करके की जाया करे।

हे भिक्खुओं मैं यह निर्धारित करता हूं कि तुम गण की रीति पर उपोसथ के दिन भिक्खुओं की गणना करो (गणमग्गेन गणेतुम), अथवा तुम शालाकाएं (मताधिकारसूचक) लो।

एक स्थान पर एकत्र होने पर सब भिक्खुओं की गणना की जाती थी, और वह गणना या तो गण की गणना के ढंग पर होती थी और या उस ढंग से होती थी कि जिस ढंग से आजकल गोटी के द्वारा मत एकत्र किए जाते हैं। और इसमें मताधिकारसूचक शलाकाएं ली जाती थी। इस सम्बन्ध में हमें महावग्ग के गणपूरक शब्द पर भी ध्यान देना चाहिए। गणपूरक उस प्रधान अधिकारी को कहते थे जो किसी समाज के जुडने पर उसका कार्य आरम्भ होने से पहले यह देखा करता था कि नियमानुसार पूरक संख्या पूरी हो गई है या नहीं। गणपूरक का साधारण अर्थ होता है-गण की पूर्ति करने वाला इससे सिद्घ होता है कि गण लोगों का समूह या समाज होता था, और उसे गण इसलिए कहते थे जो बहुत से लोगों के समूह या पार्लिमेंट के द्वारा होती थी। इस प्रकार गण का दूसरा अर्थ पार्लिमेंट या सिनेट हो गया, और प्रजातंत्र राच्यों का शासन उन्हीं के द्वारा होता था, इसलिए गण का अर्थ स्वयं प्रजातंत्र राच्य भी हो गया।

पाणिनी ने अपने व्याकरण में (संघोद्घौ गणप्रशंसयो:।) कहा है कि संघ शब्द (साधारण संघात शब्द के विरुद्ध हन् धातु से निकला है।) गण के अर्थ में आता है। पाणिनी ने जहां-जहां व्यक्तिगत संघों का उल्लेख किया है, वहां-वहां उन्होंने उन्हीं वगरें या उपवगरें के नाम लिए हैं जो विजयस्तम्भों तथा दूसरे प्रमाणों के आधार पर प्रजातंत्री प्रमाणित हो चुकें है। पाणिनि के समय में संघ शब्द से गण का अभिप्राय लिया जाता था, और जान पडता है कि उस समय धार्मिक संघों का उतना अधिक महत्व नहीं स्थापित हुआ था और न उनकी उतनी अधिकता ही थी। वास्तव में, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे, धार्मिक संघ तो राजनीतिक संघ का अनुकरण-मात्र था। प्रसिद्घ प्रजातंत्री संस्थाओं को कौटिल्य ने संघ कहा है इसलिए इस विषय में संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती है कि आरम्भ में संघ शब्द से प्रजातंत्र का ही अभिप्राय लिया जाता था।

गण शब्द से शासन-प्रणाली का बोध होता था, परन्तु संघ शब्द से स्वयं राच्य का अर्थ लिया जाता था। जैसा कि पतंजलि ने कहा है, वह संघ इसलिए कहलाता है कि वह एक संस्था या सक समूह है जैसा कि हम अभी आगे चलकर बताएंगे, एक राजनीतिक समूह या संस्था के रूप में संघ के उसी प्रकार राजचिन्ह या लक्षण आदि होते थे, जिस प्रकार किसी राजा या सार्वजनिक नागरिक संस्था के होते थे।

इस विषय का सबसे अच्छा विवेचन महाभारत के शांतिपर्व के 107वें अध्याय में है जिसमें कहा गया है कि गण वास्तव में क्या था। उस अध्याय के अनुसार गण अपनी सफलतापूर्ण परराष्ट्र-नीति के लिए, अफने धनपूर्ण राजकोष के लिए, अपनी सदा प्रस्तुत रहने वाली सेना के लिए, अपनी युद्ध-निपुणता के लिए, अपने सुन्दर राजनियमों के लिए और अपनी सुव्यवस्था के लिए प्रसिद्ध थे। उसमें राच्य की नीति अथवा मंत्र तथा गण के बहुसंख्यक लोगों द्वारा उस नीति के सम्बन्ध में विवेचन होने का भी उल्लेख किया गया है। अन्याय अनेक विशेषताओं में से ये विशेषताएँ किसी उपजाति अथवा व्यापारियों की संस्था के सम्बन्ध में नहींहो सकतीं। धर्मशास्त्रों के टीकाकारों के समय से बहुत पहले ही राजनीतिक संस्था के रूप में गण का अंत हो चुका था। परन्तु उन टीकाकारों ने कभी गण को उपजाति अथवा 81्रुी समझने की भूल नहीं की। वे उन्हें कृत्रिम जनसमूह या संस्था ही समझते थे। अर्थात वे उनका वही अर्थ लेते थे जो डॉ. जोली ने अपने नारद के अनुवाद (र.इ.ए. खण्ड 33, पृ.6 का नोट) में लिया है; अर्थात् गण एक साथ रहने वालों का या सभा है। वास्तव में डॉ. जोली ने नारद के सातवें श्लोक में गण का अर्थ समूह किया है और गणेशायम् का अर्थ समाज की ओर से दिया है। यद्यपि यह अर्थ नारद के पारिभाषित भाव के नितांत अनुकूल नहींहै, तथापि वह उसके मूल भाव के बहुत कुछ समीप पहुंच गया है और बहुत कुछ उसी के अनुकूल है।

आरम्भिक गुप्त काल के कोशकार अमर ने (जो सम्भवत: चंद्रगुप्त विक्त्रमादित्य के समय में हुआ था) अपने कोश में राजक और राजन्यक इन दोनों पारिभाषिक शब्दों की परिभाषा करते हुए कहा है कि राजक का अर्थ राजाओं का गण और राजन्यक का अर्थ (क्षत्रियों, साधारण शासकों) का समूह है।

अवदानशतक में कहा गया है कि गण राच्य किसी राजा के राच्य का बिल्कुत उल्टा या विपरीत है। बुद्ध के समय में उत्तरी भारत के मध्य देश के वणिक् दक्षिण भारत में गए थे। जब दक्षिण के राजा ने उनसे पूछा-हे वाणिको,वहाँ (उत्तर भारत में)कौन राजा है? जब उन्होंने उत्तर दिया-

महाराज, कुछ देशों में तो गण का शासन है और कुछ देशों में राजाओं का यहां राजा द्वारा होने वाले शासन को गण द्वारा होने वाले शासन का विपरीत बतलाया गया है। मानो उस समय राच्यों के यही दो विभाग अथवा रूप थे। और यदि राजा के द्वारा होने वाले शासन के विपरीत कोई शासन हो सकता है, तो वह प्रजातन्त्र सासन ही है।

एक जैन ग्रंथ में गण की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मानव समाज के सम्बन्ध में गण मनुष्यों का ऐसा समूह है जिसका मुख्य गुण है मन-युक्त अथवा विवेक-युक्त होना। उस ग्रंथ के अनुसार इस पारिभाषित शब्द का कुछ दुरुपयोग भी होता है। उसके सदुपयोग के सम्बन्ध में दिए गए उदाहरण इस प्रकार है-मल्लों का गण( एक प्रसिद्ध प्रजातंत्री समाज जिसका आगे चलकर उल्लेख किया गया है) और पुर का गण उसके दुरुपयोग के उदाहरणस्वरूप टीकाकार ने वस्तुओं का गण (वसु देवताओं का गण) दिया है। उसका असामाजिक उपयोग संगीत में मिलता है (भाव गण)। टीका के अनुसार असंघटनात्मक गणों में (समूह बनाने के) उद्देश्य या विवेक का अभाव होता है; जैसे वसुगण (वसु देवताओं का समूह)। असंघटनात्मक समूह के सम्बन्ध में इस शब्द का व्यवहार ध्यान देने योग्य है। संघटनात्मक गण ही वास्तविक गण है और जैन ग्रंथकार की दृष्टि में वब मन से युक्त होता है। मल्लों अथवा पौरों के राजनीतिक समूह की भाँति वह मनुष्यों का एक संघटित और विवेकयुक्त समूह होता है। वह समूह कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार संघटित होता है और उस समूह या भीड-भाड के विपरीत होता है जो यों ही अथवा संयोगवश एकत्र हो जाती है।

जब हम इस वाक्य पर महाभारत में दिए हुए गण सम्बन्धी विवेक और जातक तथा अवदान में आए हुए उल्लेखों पर विचार करते हैं और यह देखते हैं कि पाणिनि ने संघ और गण को समानार्थी ही बताया है, तब हमें गण के वास्तविक महत्व के सम्बन्ध में किसी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता।

(विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी द्वारा प्रकाशित प्रख्यात इतिहासकार काशीप्रसाद जायसवाल की कृति हिंदू राच्य-तंत्र से साभार।)

Tuesday, January 22, 2013

शिंदे जी - क्या हिन्दुस्तान के सभी हिन्दू आतंकवादी हैं?




आदित्य चोपड़ा

लडख़ड़ाते लोकतांत्रिक और बिगड़ते राजनीतिक हालात के बीच देश में एक तो पहले ही नेतृत्व नाम की कोई चीज दिखाई नहीं देती और बची-खुची कसर हमारी लचर व भेदभावपूर्ण नीतियों ने पूरी कर दी है। कहीं जंतर-मंतर और इंडिया गेट पर इंसाफ की मांग को लेकर यूथ का सैलाब तो कभी पाकिस्तानी फौज के शर्मनाक कृत्य को देखकर लगता है कि हमारे यहां पीएम के होते हुए भी राजनीतिक नेतृत्व कहीं नहीं है। इससे भी बढ़कर चौंकाने वाली बात यह है कि भारत में मुस्लिम कट्टïरता की जहरीली बेल फैलती जा रही है। अकबरुद्दीन ओवैसी नामक एक मुस्लिम विधायक ने हैदराबाद में हजारों की एक उन्मादी भीड़ के समक्ष जहर उगलते हुए नफरत भरा जो भाषण दिया, उसे कोई सुन ले तो रौंगटे खड़े हो जाएं। देश की हिन्दू शक्ति के खिलाफ इस शख्स ने इतनी बेशर्मी से नफरत भरी जुबां से जो बकवास की उसके खिलाफ हमारी सरकार के पुलिस व प्रशासनिक अमले ने बहुत लम्बा वक्त बीत जाने के बाद भी जो दिखावे की कार्रवाई की, वह भी राजनीति पर आधारित थी। मुसलमानों की भीड़ के सामने हिन्दुओं के बारे में जहर भरा भाषण देकर यह शख्स लंदन इलाज के बहाने चला गया तथा वापसी पर पुलिस ने उसे राजनीति का मोहरा बनाकर महज गिरफ्तार कर अपनी ड्यूटी पूरी कर ली। अब ओवैसी गिरफ्तारी के बाद जेल में 'महफूज' है। कल वह इत्मीनान से बाहर आ जाएगा क्योंकि उसके खिलाफ लगी धाराएं सरल व जमानती हैं। जिस व्यक्ति ने देश की अखंडता व अस्मिता के खिलाफ जहर घोला हो उसके खिलाफ कम से कम राष्ट्र द्रोह का केस दर्ज करना चाहिए था, ताकि पूरे देश के बाकी वे मुस्लिम जो आतंकियों से रिश्ते रखते हों, को भी सबक मिल जाता। जब गृहमंत्री शिंदे कानून तोडऩे वालों का साथ दे रहे हों तो देश की सुरक्षा में लगे राष्ट्र भक्त परिवारों की रक्षा कौन करेगा? देश में पहले ही मुस्लिम कट्टरता ने आतंकियों से हाथ मिलाकर हमारी सहिष्णुता छीन रखी है और अब भड़काऊ भाषण अगर खादी की ओट में दिए जाने लगें और खाकी अपना फर्ज निभाने में देरी करे तो परिणाम बहुत भयावह निकलेंगे। राजनेताओं को खबरदार हो जाना चाहिए।

हमें तो लगता है कि इंसाफ न मिलना, इसके लिए प्रयास भी न किया जाना और जुर्म पर कभी भी समय पर कार्रवाई न होने से अपराधियों के हौसले बढ़ते हैं। देश में आतंक पनपने और इंसाफ न होने से अब मुस्लिम कट्टरपन की जो नागफनी शो-पीस बनाकर रखी गई है, यह पूरी सीरत बिगाड़ कर रख देगी क्योंकि इसकी सूरत ही ठीक नहीं है। राजनीति के फ्रेम से इसे हटाना होगा। सवाल पैदा होता है क्या देश में हिन्दू होना गुनाह है?

इस कड़ी में देश के गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने सारी हदें पार कर दी हैं। उन्होंने जयपुर में, जहां आला कांग्रेसी नेता युवराज राहुल गांधी को 'बड़े पद की जिम्मेदारी' सौंपने के लिए चमचागिरी के नए रिकार्ड बना रहे थे, अपने संबोधन के दौरान कहा कि आरएसएस और भाजपा हिन्दू आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि ये दोनों संगठन आरएसएस के प्रशिक्षण शिविरों में आतंकवाद का प्रशिक्षण दे रहे हैं। शिंदे ने इस कड़ी में समझौता एक्सप्रैस और माले गांव धमाकों में हिन्दू आतंकवाद संलिप्तता का भी उदाहरण दिया। हम तो यही कहना चाहेंगे कि देश के योग्य गृह मंत्री के पास अगर कोई ऐसा प्रमाण है तो वह जाएं और भाजपा सुप्रीमो श्री नितिन गडकरी, सुषमा स्वराज या आरएसएस के दिग्गज नेता श्री मोहन भागवत को गिरफ्तार कर लें। दरअसल आरएसएस के बारे में देशवासी जानते हैं कि यह एक राष्ट्रभक्त संगठन है जबकि कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपना खेल खेल रही है। शिंदे साहब के साथ हुई अपनी एक उस मीटिंग का उल्लेख यहां उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना चाहूंगा। देश में राष्ट्र के लिए जान कुर्बान कर देने के बाद हमारे परिवार के अमर शहीद संपादकों परम श्रद्घेय लाला जगतनारायण जी और परम श्रद्घेय श्री रमेश जी की आतंकवादियों के हाथों बीच सड़क पर हत्या के बाद पिता श्री अश्विनी कुमार भी आतंकियों की हिट लिस्ट में हैं। हमारे पास आतंकी संगठनों से धमकी भरे पत्र आए जिसमें हमारे परिवार को खत्म कर देने की आतंकी धमकियां हैं। इसी सिलसिले में मैं जयपुर से विशेष रूप से दिल्ली आया और गृह मंत्री श्री शिंदे से मिला, उन्हें पूरी बात बताई लेकिन निष्ठुर शिंदे ने कहा- आप को कितना भी खतरा क्यों न हो, आप कितना भी किसी की हिट लिस्ट में क्यों न हों, मैं कुछ नहीं कर सकता। आपका एनएसजी कवर हटाने का हुक्म ऊपर से आया है। इस मीटिंग में गृह सचिव श्री आर.के. सिंह भी मौजूद थे। हमें इससे फर्क नहीं पड़ता। दरअसल पिताश्री अश्विनी कुमार पिछले कुछ दिनों से आरएसएस और भाजपा के समारोहों में शामिल हो रहे हैं लेकिन सवाल पैदा होता है इससे कांग्रेसी नेताओं को क्या खतरा है परन्तु शिंदे साहब की बात सुनकर हैरानी होती है कि देश का गृह मंत्री कैसा बर्ताव कर रहा है। देश के आम आदमी की सुरक्षा का अंदाजा इससे सहज ही लगाया जा सकता है। गृह मंत्री की कत्र्तव्य परायणता का एक नमूना आपके सामने है कि वह किस कदर 10 जनपथ का निजी गुलाम है। समय आ गया है कि कांग्रेस के दिग्गज खुद मंथन करें कि जिस गृह मंत्री के पद पर कभी सरदार पटेल जैसे लौहपुरुष हुआ करते थे वहां अब कैसे मिट्टी के माधो बिठा दिए गए हैं। उन्हें '10 जनपथ की हर बात को मानने का सचमुच ईनाम मिल चुका है।' एक तरफ तो ओवैसी जैसे लोग हिन्दुओं के खिलाफ जहर उगल रहे हैं और दूसरी तरफ शिंदे जैसे गृह मंत्री जो राष्ट्र भक्त परिवार हैं उनके खिलाफ मोर्चा खोलकर बैठे हैं। दरअसल ओवैसी और शिंदे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। एक हिन्दुओं को चैलेंज कर रहा है तो दूसरा हिन्दुओं के समर्थकों को नजरंदाज कर रहा है।

हमें ऐसा लगता है कि भारत में आज की तारीख में अगर मुस्लिम कट्टरता भारी है तो यह सब-कुछ एक साजिश के तहत हो रहा है। अचानक एलओसी पर हमारे दो जवानों की नृशंसता के साथ हत्या किया जाना, एक का सिर सीमा पार ले जाना, लश्करे सरगना हाफिद सईद का पीओके (पाक अधिकृत कश्मीर) में हाजिर होना, यह सब इत्तेफाक नहीं हो सकता। अचानक इसी दौरान एक विधायक द्वारा देश के हिन्दुओं के खिलाफ विष उगलना और ओवैशी की साधारण धाराओं के तहत गिरफ्तारी यह सब किसी भी सूरत में संयोग नहीं हो सकता। कांग्रेस की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की आड़ में अपनी सियासत करना जो कि उसे चुनावी मदद प्रदान कर सके, यह योजना बेहद खतरनाक है। शिंदे साहब इस बारे में कोई जवाब देना चाहेंगे?

अगर अतीत में झांकें और ओवैसी को केंद्र बिन्दु बनाएं तो हम पाते हैं कि इस शख्स ने विवादित ढांचे को गिराए जाने के अलावा 1993 मुंबई बम धमाकों को भी न्यायोचित ठहराया था। मुंबई के हमलावर अजमल कसाब की फांसी पर प्रश्न खड़ा करना और भारतीय व्यवस्था के खिलाफ जहर उगलना क्या यह हमारी संप्रभुता और अस्मिता पर हमला नहीं है? मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन की स्थापना इसी हैदराबाद में हुई थी और इसी संगठन की शह पर भारत विभाजन के दौरान हैदराबाद के निजाम ने हमारे देश में विलय से साफ इंकार कर दिया था। लिहाजा इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। सच बात तो यह है कि हमारे देश की अनेकता में एकता वाली संस्कृति में हिन्दुओं का वर्चस्व है परन्तु अब कांग्रेसी राजनेताओं ने बड़ी चतुराई से देश के कई इलाकों में अल्पसंख्यकों के नाम पर मुस्लिम कार्ड खेल कर सत्ता पाने का जो खतरनाक खेल खेला है उसकी कीमत हम सबको चुकानी पड़ सकती है। पूर्वोत्तर के कई हिस्सों में कांग्रेस के इसी मुस्लिम कार्ड की वजह से हिन्दू वोटर अल्पसंख्यक बन चुके हैं और कांग्रेस चुनावों के विजेता मुस्लिम जनसेवकों से सांठगांठ करते हुए सत्ता के उस घोड़े पर सवार है जिसकी लगाम सोनिया गांधी और राहुल गांधी के हाथ से निकल चुकी है। देश में अल्पसंख्यक कार्ड को कांग्रेस भले ही चुनावों के मौकों पर तेजी से चलाती है परन्तु हम यही कहेंगे कि सरकार की खामोशी एक कट्टरवादी मानसिकता को बढ़ावा भी दे रही है। शिंदे साहब क्या यह सब कुछ भी प्रियंका और राहुल के कहने से हो रहा है। आज इस्लामी कट्टरवाद हमारी सनातनी संस्कृति पर भारी पड़ रहा है और देश के कई इलाकों में मुसलमानों का अचानक बढ़ते जाना खतरे की एक घंटी है जिसे न केवल सुना जाना चाहिए बल्कि इस पर फौरन कार्रवाई भी करनी चाहिए। देश में गृह मंत्री हालात संवारने के लिए जाना जाता है परन्तु शिंदे साहब देश के हालात बेहद बदतर बनाते जा रहे हैं तभी तो ओवैसी जैसे लोग हिन्दुस्तान में हिन्दुओं के ही खिलाफ भड़काने का काम कर रहे हैं

1947 से लेकर आज तक मुस्लिम कट्टरपन की बेल ने देश में ऐसा जाल बुना है कि हमें हमेशा दर्द ही मिला है। सैकुलर राजनीतिक पार्टियां जो किरदार निभा रही हैं वह हमारे देश को तबाह करने की राह पर ले आई हैं। हिन्दुओं के खिलाफ जहर उगलने का काम आज ओवैसी कर रहे हैं तो कल उनके हिमायती भी शुरू हो जाएंगे। एक तरफ देश में चिदंबरम और शिंदे जैसे लोग हिन्दू आतंकवाद के नाम पर कितने ही हिन्दू संगठनों के बड़े नेताओं को बम विस्फोटों में गिरफ्तार कर रहे हैं और मुस्लिम आतंकवादियों को जेलों में सुरक्षित पनाह दे रहे हैं तो भविष्य की तस्वीर कितनी खतरनाक होगी? इसका जवाब हमें कौन देगा। कभी हिन्दू कोड बिल बनाकर सामाजिक सुधारों को केवल हिन्दुओं तक ही सीमित रखा गया और मुसलमानों को इससे अगर वंचित किया गया था तो वे कट्टरपंथियों की झोली में चले गए थे। हम यहां सन् 1986 में शाहबानो केस का उदाहरण देना चाहेंगे जब सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम समाज में सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया था। आज बाटला हाउस मामला हो या 1998 का कोयंबटूर बम धमाका, कितने ही सैकुलर नेता मुसलमानों के उदारवादी धड़ों के साथ खड़े हो जाते हैं। शिंदे जैसे लोग जब गृहमंत्री होंगे तो कुछ भी संभव है।

अब भी कांग्रेस ने अगर आंखें मूंदे रखीं और ओवैसी जैसी जहरीली बेलों को जड़ से न उखाड़ा तो ऐसे परिणाम निकलेंगे कि हम रसातल तक जा गिरेंगे। देश का नाम हिन्दुस्तान है लेकिन अगर मुसलमानों की ही ज्यादा चलेगी तो क्या हश्र होगा, इसका जवाब सत्ता के नशे में अंधे राजनेता जान लें। क्या गृह मंत्री शिंदे इसका जवाब देंगे?

अन्त में हम यही कहेंगे कि भाजपा या आर.एस.एस. में जो भी लोग हैं, तो क्या वे सारे ही आतंकवादी हैं। आर.एस.एस. एक हिन्दू संगठन है तो फिर हम क्या शिंदे साहब की बात मान लें? अगर हम उनकी बात मानते हैं तो फिर सारे हिन्दू आतंकवादी ही कहलाएंगे। हमारा सवाल ज्यों का त्यों है-क्या हिन्दू होना गुनाह है?


साभार : पंजाब केसरी, लेखक श्री आदित्य चोपड़ा 

Sunday, January 13, 2013

नेता मण्डी


झाडखण्ड सरकार का गिरना तो तभी से तय था जिस दिन वह बनी थी। अब शिबूसौरेन काँग्रेस के समर्थन से वहाँ विधायक इक्ठे कर के सरकार बनायें गे तो यह भी कोई आश्चर्य की बात नहीं। 
हमारे देश में नेताओं का ऐक वर्ग ऐसा है जिन के माथे पर on sale का स्टिकर सदा लगा रहता है । जिस पार्टी को सरकार बनाने के लिये इन की जरूरत पडे वह इन्हें मोल-भाव कर के खरीद सकता है।  यह लोग अपनी पार्टी के Supremo कहलाते हैं। उन के सामने किसी अन्य वर्कर की कोई औकात नहीं होती। लालू यादव, रामविलास पासवान, अजीत सिहँ और शिबूसौरेन आदि इस वर्ग के जाने पहचाने नाम हैं।
दूसरा वर्ग उन लोगों का है जो Toggle switch की तरह जोडियों में काम करते हैं। अगर ऐक वर्ग पक्ष में होगा तो दूसरा विपक्ष में। मायावती - मुलायम, जयललिता – करुणानिधि, ऊधव ठाकरे – राज ठाकरे, फारुख अबदुल्ला - मुफ्ती मुहम्मद सैय्यद आदि इसी ‘प्रतिक्रियावादी’ श्रेणी के हैं।
तीसरा वर्ग उन Hard Bargainer स्वार्थियों का है जो काफी मोल भाव कर के बिकते हैं, मगर उन के समर्थन वचनों के बाद भी उन पर विशवास नहीं किया जा सकत। चन्द्रबाबू नायडू, ओम प्रकाश चौटाला, ममता बनर्जी, शरदपवार और नवीन पटनायक आदि इन में प्रमुख हैं। उन का निजी स्वार्थ ही सर्वोपरि रहता है।
इन लोगों ने भारतीय लोकतन्त्र को ऐक मजाक बना कर रख दिया है और यही नेता देश की प्रगति के मार्ग में सब से बडी रुकावट हैं। इस ‘नेतावी दीमक’ को को अगले चुनाव में सत्ता से बाहर करना ऐक महान देश सेवा होगी।
साभार : चाँद शर्मा, http://hindumahasagar.wordpress

Thursday, January 3, 2013

इलाहाबाद नहीं प्रयाग में महाकुम्भ हैं

यदि आप के बच्चे भारत का प्राचीन इतिहास जानने की कोशिश में आप से यह पूछें कि पौराणिक कथाओं में दिये गये नगर अब कहां हैं तो आप उन्हें क्या उत्तर दें गे ? अब काशी का नाम वाराणसी, अयोध्या का नाम फैज़ाबाद, पाटलीपुत्र का नाम पटना और प्रयाग का नाम इलाहबाद है? अभी श्रीनगर, अवन्तीपुर और अनन्तनाग के नामों का इसलामीकरण करने पर भी विचार हो रहा है। हमारा ही देश हम से छीन लिया गया है और हम लाचार बने बैठे हैं। 

मुसलमानों ने भारत में हज़ारों मन्दिरों और भवनों को ध्वस्त किया, लूटा, और उन पर कब्ज़ा कर लिया। प्रमुख मन्दिरों में से यदि काशी विश्वनाथ, मथुरा और अयोध्या को ही गिने तो पिछले कई दशकों से उन के बारे में विवाद कचहरियों में न्याय की प्रतीक्षा कर रहा है। अगर हिन्दुओं के विरुध कोई ऐसा मज़बी विवाद किसी मुसलिम देश में चल रहा होता तो वहां फैसला होने में क्या इतना समय लगता ?

आने वाली पीढी को यह विशवास दिलाना कठिन है कि कभी अफ़ग़ानिस्तान हिन्दु देश था और उस का नाम आर्याना तथा गान्धार था। जैसे पाकिस्तान, बांगलादेश तथा नेपाल भी हिन्दु देश थे पर अब नहीं, इसी तरह अब हिन्दूस्तान की बारी है और कांग्रेस सरकार हिन्दू पहचान को मिटाने में लगी हुयी है।

इस में कोई संशय नहीं कि जिहादी मुसलमानों को, काँग्रेसियों को और उन के धर्म निर्पेक्ष सहयोगियों को भारत के गौरव-मय प्राचीन इतिहास, और वैदिक साहित्य से कोई सरोकार ना कभी था, ना है, और ना कभी होगा। यह सभी हिन्दु विरोधी हैं और भारत में पुनः इसलामी, क्रिशचियन या ‘फरी-फार-आल’ धर्म-हीन राज्य स्थापित करने के स्वप्न देखते हैं।

आखिर क्यों कर हम अपनी उपलब्धियां, धार्मिक मर्यादायें, अपने पूर्वजों का यश, और अपने पहिचान चिन्ह अपने आप ही मिट्टी में मिलाते जा रहे हैं ? अपनी ऐतिहासिक धरोहर की रक्षा हम क्यों नहीं कर पा रहे ? क्या हमारा आने वाली पीढ़ी ओर कोई उत्तरदात्वि नहीं ? अगर है तो हमें अपने देश को हिन्दु राष्ट्र कहने और बनाने में कोई हिचकचाहट या भय नहीं होना चाहिये।

इस विषय में पहल तो धर्म गुरूओं को करनी चाहिये कि महाकुम्भ के अवसर पर त्रिवेणी में डुबकी लगाने से पहले यह प्रण करें कि आप इलाहबाद का प्राचीन नाम प्रयाग ही इस्तेमाल करें गे और सरकार से इस नाम को अपनाने के लिये इतना जनमत तैय्यार करें गे कि कोई नेता, विधायक या सरकार आनाकानी ना कर सके। सभी राष्ट्रवादियों को ‘इलाहबाद’ के बजाये ‘प्रयाग’ के साथ वही पिनकोड लिख कर पत्र व्यवहार करना चाहिये। 

साभार : लेखक श्री चाँद शर्मा, http://hindumahasagar.wordpress.com

Wednesday, January 2, 2013

क्या इसलिए हम सेकुलर हैं?


हम भारत के संविधान में निहित प्रावधानों का उल्लंघन करके अल्पसंख्यकों को आरक्षण देते हैं।

हम बंगलादेश के घुसपैठियों का राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र बनवाकर भारत की नागरिकता भी देते हैं।

 हम हिन्दू-तीर्थस्थलों की यात्रा के लिए एक पैसा भी नहीं देते, उल्टे टिकट और अन्य सुविधाओं के लिए 'सेवा कर' भी वसूलते हैं।

 हम सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को दरकिनार करके हज यात्रियों को हिन्दुओं पर 'जजिया कर' लगाकर भारी 'सब्सिडी' देते हैं।

 हम हिन्दुओं के लिए एक पत्नी रखने का कानून बनाते हैं और मुसलमानों के चार पत्नियां रखने के अधिकार को जायज ठहराते हैं।

 हम हिन्दू लड़कियों के घटते वस्त्र को नारी स्वातंत्र्य का जीवन्त उदाहरण मानते हैं और मुसलमानों की बुकर्ा प्रथा का समर्थन करते हैं।

 हम भारत माता को सार्वजनिक रूप से डायन कहने वाले को कैबिनेट मंत्री के पद से सम्मानित करते हैं।

 हम वन्दे मातरम् को अपमानित करने वालों को राज्य और केन्द्र सरकार में ऊंचे ओहदे देते हैं।

 हम 15 अगस्त के दिन पाकिस्तानी झंडा फहराने वालों और तिरंगा जलाने वालों को दिल्ली बुलाकर बिरयानी खिलाकर वार्ता करते हैं।

 हम कश्मीर घाटी से हिन्दुओं को जबरन खदेड़े जाने पर चुप्पी साध लेते हैं और असम में बंगलादेशियों के विस्थापन को राष्ट्रीय शर्म मानते हैं।

 हम देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार मुस्लिम लीग से केरल और केन्द्र में सत्ता की साझेदारी करते हैं और राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बार-बार प्रतिबंध लगाते हैं।

 हम मदरसों में आतंकवाद की शिक्षा देने वालों को सरकारी अनुदान देते हैं एवं सरस्वती शिशु मन्दिरों की नकेल कसते हैं।

 हम भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल और कन्हैया लाल माणिक लाल मुन्शी के प्रयासों से सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण को सेकुलर मानते हैं और राम मन्दिर निर्माण को घोर सांप्रदायिक।

 हम रामसेतु तोड़कर जलमार्ग बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और बाबरी निर्माण के लिए भी कृतसंकल्प हैं।

 हम 1984 के सिखों के कत्लेआम को इन्दिरा गांधी की मृत्यु से उत्पन्न सामान्य प्रतिक्रिया मानते हैं और गुजरात की हिंसा को महानतम सांप्रदायिक घटना।

 हम देश की प्राकृतिक संपदा पर 'मूल निवासी' होने के कारण मुसलमानों का पहला हक मानते हैं और हिन्दुओं (आर्यों) को बाहर से आया हुआ बताते हैं।

हम हिन्दुओं के शादी-ब्याह, जन्म-मृत्यु, उत्तराधिकार, जीवन शैली, पूजा-पाठ के लिए सैकड़ों कानून बना देते हैं लेकिन मुस्लिम पर्सनल ला की चर्चा करना भी अपराध मानते हैं।

 हम मुसलमानों को रास्ता रोककर नमाज पढ़ने की इजाजत देते हैं और मन्दिर प्रांगण में एकत्रित श्रद्धालुओं पर लाठी चार्ज करते हैं।

 हम 'वीर शिवाजी' पर आधारित टी.वी. धारावाहिक पर प्रतिबंध लगाते हैं और 'मुगले आजम' को राष्ट्रीय पुरस्कार देते हैं।

 हम मुसलमानों को अपना व्यवसाय खोलने के लिए आसान किश्तों पर 5 लाख रुपए का ऋण कभी न चुकाने के आश्वासन के साथ देते हैं और हिन्दू किसानों को ऋण न चुकाने के कारण आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं।

 हम रमजान के महीने में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य गण्यमान्य व्यक्तियों द्वारा सरकारी पैसों से रोजा इफ्तार का आयोजन करते हैं तथा होली-दीवाली पर एक पैसा भी खर्च नहीं करते।

 हम हजरत मोहम्मद पर डेनमार्क में बने कार्टून पर बलवा करने वालों पर लाठी के बदले फूल बरसाते हैं और राम-कृष्ण को गाली देने वालों को पद्म पुरस्कार देते हैं।

 हम पाकिस्तान से आए हिन्दुओं को जबरन भेड़ियों के हवाले कर देते हैं और बंगलादेशियों के लिए स्वागत द्वार बनाते हैं।

 हम जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में 'गोमांस उत्सव' का आयोजन करते हैं और बाबा रामदेव के शहद को प्रतिबंधित करते हैं।

 हम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखाएं देश के कोने-कोने में खोलने के लिए सरकारी पैकेज देते हैं और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का अनुदान रोक देते हैं।

 हम आतंकवादियों के घर जाकर आंसू बहाते हैं और शहीद जवानों की विधवाओं और बच्चों को भगवान भरोसे छोड़ देते हैं।

 हम आतंकवादियों से मुठभेड़ को फर्जी मुठभेड़ कहते हैं और हिन्दू साधु-सन्तों को आतंकवादी।

 हम सलमान रुश्दी को भारत आने की अनुमति नहीं देते, तस्लीमा नसरीन को भारत में रहने की इजाजत नहीं देते, लेकिन बीना मलिक को अनिश्चित काल के लिए सरकारी मेहमान बनाते हैं।

साभार : पाञ्चजन्य, लेखक श्री विपिन किशोर सिन्हा