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Thursday, January 24, 2013

गण और गणराज्य की अवधारणा



वैदिक युग के परवर्ती काल में लोगों की प्रवृत्ति अपने-अपने वर्ग का स्वतंत्र शासन करने की ओर हो चली थी। हमारे इस कथन का दूसरा प्रमाण हिन्दू प्रजातंत्र है। वैदिक युग के आरम्भ में केवल राजाओं के द्वारा ही शासन हुआ करता था। परन्तु वैदिक युग के उपरान्त यह साधारण राज्य-व्यवस्था छोड दी गई थी और जैसा कि मेगास्थनीज ने भी परम्परा से चली आई हुई दंत-कथाओं के आधार पर लिखा है, राजा के द्वारा शासन करने की प्रथा तोड दी गई थी और भिन्न-भिन्न स्थानों में प्रजातंत्र शासन की स्थापना हो गई थी। महाभारत का भी यही मत है कि वैदिक युग में केवल राजा द्वारा ही शासन करने की प्रथा थी। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में आई हुई स्तुतियों, महाभारत के मत तथा ईसवी चौथी शताब्दी मेगास्थनीज की सुनी हुई परम्परागत बातों से यही सिद्घ होता है कि भारत में राजकीय शासन के बहुत बाद और आरम्भिक वैदिक युग के उपरान्त प्रजातंत्र शासन के प्रमाण परवर्ती वैदिक साहित्य, ऋग्वेद के ब्राह्मण भाग, ऐतरेय तथा यजुर्वेद और उसके ब्राह्मण तैत्तिरीय में मिलते हैं। सुविधा के लिए हम पहले परवर्ती इतिहास के कुछ अधिक प्रसिद्घ प्रजातंत्री का उल्लेख करके तब उन प्रजातंत्री संस्थाओं का उल्लेख करेंगे जिनका वर्णन उक्त वैदिक ग्रंथों आदि में आया है।

हिन्दू राज्यों की राजा-रहित शासन-प्रणालियों के उल्लेख से इस जाति के संघटनात्मक या शासन-प्रणाली सम्बन्धी इतिहास के एक बहुत बडें अंश की पूर्ति होती है। यह मानो उस इतिहास का एक बहुत बडा प्रकरण है। अत: इस विवेचन में इस विषय पर विशेष ध्यान देंगे।

प्रोफेसर रहीस डेविड्स ने अपने बुद्घिस्ट इंडिया  नामक ग्रंथ में दिखलाया है कि शासन का प्रजातंत्री स्वरूप महात्मा बुद्घ के देश में तथा उसके आस-पास पाया जाता था। परन्तु उसमें नहीं बतलाया गया है कि हमारे यहां के साहित्य में हिन्दू प्रजातंत्रों के सम्बन्ध के पारिभाषिक शब्द भी सुरक्षित हैं। इनमें से जिस पहले शब्द ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया था। वह गण शब्द है। हिन्दू साहित्य की जैन शाखा के आचारांग सूत्र में मुझे दोरज्जाणि और गणरायाणि- ये दो शब्द मिले थे। उस समय मुझे इस बात का ध्यान हुआ कि ये शासन-प्रणालियों के व्याख्यात्मक शब्द हैं। दोरज्जाणि वे राज्य थे जिनमें दो शासक शासन करते थे। इसी प्रकार गणरायाणि वे राच्य रहे होंगे, जिनमें दो शासक शासन करते थे। इसी प्रकार गणरायाणि वे राच्य रहे होंगे जिनमें गण या समूह का शासन होता होगा। दूसरे अनेक स्थानों में मुझे केवल गण शब्द ही गण राच्य के स्थान में मिला था। और अधिक अनुसंधान करने पर मेरे इस विचार का समर्थन करने वाले प्रमाण भी मिल गए कि गण से प्रजातंत्र का अभिप्राय लिया जाता था, और उन दिनों इसके जो दूसरे अर्थ प्रचलित थे, (उदाहरणस्वरूप फ्लीट तथा दूसरे विद्घानों ने इसका अर्थ 81्रुी तथा बुहलर ने व्यापारियों अथवा कारीगरों आदि का संघ या सभा किया है) वे गलत थे।

पहले यह जान लेना आवश्यक है कि गण शब्द का ठीक-ठीक अर्थ क्या है। गण का मुख्य अर्थ है-समूह और इसलिए गणराच्य का अर्थ होगा, समूह के द्वारा संचालित राच्य अथवा बहुत से लोगों के द्वारा होनेवाला शासन। यहाँ बौद्घों के धर्मग्रंथों से हमें सहायता मिलती है। बुद्घ से पूछा गया था कि भिक्खुओं की संख्या किस प्रकार जानी जाय।

जो भिक्खु भिक्षा के लिए गए थे, उनमे उस समय लोगों ने पूछा था कि महाराज कुल कितने भिक्खु हैं?

भिक्खुओं ने उत्तर दिया- भाई यह तो हम नहीं जानते।

इससे लोग बहुत चिंतित हुए। उन्होंने यह बात बुद्घ से की बुद्घ ने यह व्यवस्था की कि उपोसथ के दिन सब भाइयों की गणना होगी, और यह गणना गण के ढंग पर अथवा मताधिकार पत्र एकत्र करके की जाया करे।

हे भिक्खुओं मैं यह निर्धारित करता हूं कि तुम गण की रीति पर उपोसथ के दिन भिक्खुओं की गणना करो (गणमग्गेन गणेतुम), अथवा तुम शालाकाएं (मताधिकारसूचक) लो।

एक स्थान पर एकत्र होने पर सब भिक्खुओं की गणना की जाती थी, और वह गणना या तो गण की गणना के ढंग पर होती थी और या उस ढंग से होती थी कि जिस ढंग से आजकल गोटी के द्वारा मत एकत्र किए जाते हैं। और इसमें मताधिकारसूचक शलाकाएं ली जाती थी। इस सम्बन्ध में हमें महावग्ग के गणपूरक शब्द पर भी ध्यान देना चाहिए। गणपूरक उस प्रधान अधिकारी को कहते थे जो किसी समाज के जुडने पर उसका कार्य आरम्भ होने से पहले यह देखा करता था कि नियमानुसार पूरक संख्या पूरी हो गई है या नहीं। गणपूरक का साधारण अर्थ होता है-गण की पूर्ति करने वाला इससे सिद्घ होता है कि गण लोगों का समूह या समाज होता था, और उसे गण इसलिए कहते थे जो बहुत से लोगों के समूह या पार्लिमेंट के द्वारा होती थी। इस प्रकार गण का दूसरा अर्थ पार्लिमेंट या सिनेट हो गया, और प्रजातंत्र राच्यों का शासन उन्हीं के द्वारा होता था, इसलिए गण का अर्थ स्वयं प्रजातंत्र राच्य भी हो गया।

पाणिनी ने अपने व्याकरण में (संघोद्घौ गणप्रशंसयो:।) कहा है कि संघ शब्द (साधारण संघात शब्द के विरुद्ध हन् धातु से निकला है।) गण के अर्थ में आता है। पाणिनी ने जहां-जहां व्यक्तिगत संघों का उल्लेख किया है, वहां-वहां उन्होंने उन्हीं वगरें या उपवगरें के नाम लिए हैं जो विजयस्तम्भों तथा दूसरे प्रमाणों के आधार पर प्रजातंत्री प्रमाणित हो चुकें है। पाणिनि के समय में संघ शब्द से गण का अभिप्राय लिया जाता था, और जान पडता है कि उस समय धार्मिक संघों का उतना अधिक महत्व नहीं स्थापित हुआ था और न उनकी उतनी अधिकता ही थी। वास्तव में, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे, धार्मिक संघ तो राजनीतिक संघ का अनुकरण-मात्र था। प्रसिद्घ प्रजातंत्री संस्थाओं को कौटिल्य ने संघ कहा है इसलिए इस विषय में संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती है कि आरम्भ में संघ शब्द से प्रजातंत्र का ही अभिप्राय लिया जाता था।

गण शब्द से शासन-प्रणाली का बोध होता था, परन्तु संघ शब्द से स्वयं राच्य का अर्थ लिया जाता था। जैसा कि पतंजलि ने कहा है, वह संघ इसलिए कहलाता है कि वह एक संस्था या सक समूह है जैसा कि हम अभी आगे चलकर बताएंगे, एक राजनीतिक समूह या संस्था के रूप में संघ के उसी प्रकार राजचिन्ह या लक्षण आदि होते थे, जिस प्रकार किसी राजा या सार्वजनिक नागरिक संस्था के होते थे।

इस विषय का सबसे अच्छा विवेचन महाभारत के शांतिपर्व के 107वें अध्याय में है जिसमें कहा गया है कि गण वास्तव में क्या था। उस अध्याय के अनुसार गण अपनी सफलतापूर्ण परराष्ट्र-नीति के लिए, अफने धनपूर्ण राजकोष के लिए, अपनी सदा प्रस्तुत रहने वाली सेना के लिए, अपनी युद्ध-निपुणता के लिए, अपने सुन्दर राजनियमों के लिए और अपनी सुव्यवस्था के लिए प्रसिद्ध थे। उसमें राच्य की नीति अथवा मंत्र तथा गण के बहुसंख्यक लोगों द्वारा उस नीति के सम्बन्ध में विवेचन होने का भी उल्लेख किया गया है। अन्याय अनेक विशेषताओं में से ये विशेषताएँ किसी उपजाति अथवा व्यापारियों की संस्था के सम्बन्ध में नहींहो सकतीं। धर्मशास्त्रों के टीकाकारों के समय से बहुत पहले ही राजनीतिक संस्था के रूप में गण का अंत हो चुका था। परन्तु उन टीकाकारों ने कभी गण को उपजाति अथवा 81्रुी समझने की भूल नहीं की। वे उन्हें कृत्रिम जनसमूह या संस्था ही समझते थे। अर्थात वे उनका वही अर्थ लेते थे जो डॉ. जोली ने अपने नारद के अनुवाद (र.इ.ए. खण्ड 33, पृ.6 का नोट) में लिया है; अर्थात् गण एक साथ रहने वालों का या सभा है। वास्तव में डॉ. जोली ने नारद के सातवें श्लोक में गण का अर्थ समूह किया है और गणेशायम् का अर्थ समाज की ओर से दिया है। यद्यपि यह अर्थ नारद के पारिभाषित भाव के नितांत अनुकूल नहींहै, तथापि वह उसके मूल भाव के बहुत कुछ समीप पहुंच गया है और बहुत कुछ उसी के अनुकूल है।

आरम्भिक गुप्त काल के कोशकार अमर ने (जो सम्भवत: चंद्रगुप्त विक्त्रमादित्य के समय में हुआ था) अपने कोश में राजक और राजन्यक इन दोनों पारिभाषिक शब्दों की परिभाषा करते हुए कहा है कि राजक का अर्थ राजाओं का गण और राजन्यक का अर्थ (क्षत्रियों, साधारण शासकों) का समूह है।

अवदानशतक में कहा गया है कि गण राच्य किसी राजा के राच्य का बिल्कुत उल्टा या विपरीत है। बुद्ध के समय में उत्तरी भारत के मध्य देश के वणिक् दक्षिण भारत में गए थे। जब दक्षिण के राजा ने उनसे पूछा-हे वाणिको,वहाँ (उत्तर भारत में)कौन राजा है? जब उन्होंने उत्तर दिया-

महाराज, कुछ देशों में तो गण का शासन है और कुछ देशों में राजाओं का यहां राजा द्वारा होने वाले शासन को गण द्वारा होने वाले शासन का विपरीत बतलाया गया है। मानो उस समय राच्यों के यही दो विभाग अथवा रूप थे। और यदि राजा के द्वारा होने वाले शासन के विपरीत कोई शासन हो सकता है, तो वह प्रजातन्त्र सासन ही है।

एक जैन ग्रंथ में गण की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मानव समाज के सम्बन्ध में गण मनुष्यों का ऐसा समूह है जिसका मुख्य गुण है मन-युक्त अथवा विवेक-युक्त होना। उस ग्रंथ के अनुसार इस पारिभाषित शब्द का कुछ दुरुपयोग भी होता है। उसके सदुपयोग के सम्बन्ध में दिए गए उदाहरण इस प्रकार है-मल्लों का गण( एक प्रसिद्ध प्रजातंत्री समाज जिसका आगे चलकर उल्लेख किया गया है) और पुर का गण उसके दुरुपयोग के उदाहरणस्वरूप टीकाकार ने वस्तुओं का गण (वसु देवताओं का गण) दिया है। उसका असामाजिक उपयोग संगीत में मिलता है (भाव गण)। टीका के अनुसार असंघटनात्मक गणों में (समूह बनाने के) उद्देश्य या विवेक का अभाव होता है; जैसे वसुगण (वसु देवताओं का समूह)। असंघटनात्मक समूह के सम्बन्ध में इस शब्द का व्यवहार ध्यान देने योग्य है। संघटनात्मक गण ही वास्तविक गण है और जैन ग्रंथकार की दृष्टि में वब मन से युक्त होता है। मल्लों अथवा पौरों के राजनीतिक समूह की भाँति वह मनुष्यों का एक संघटित और विवेकयुक्त समूह होता है। वह समूह कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार संघटित होता है और उस समूह या भीड-भाड के विपरीत होता है जो यों ही अथवा संयोगवश एकत्र हो जाती है।

जब हम इस वाक्य पर महाभारत में दिए हुए गण सम्बन्धी विवेक और जातक तथा अवदान में आए हुए उल्लेखों पर विचार करते हैं और यह देखते हैं कि पाणिनि ने संघ और गण को समानार्थी ही बताया है, तब हमें गण के वास्तविक महत्व के सम्बन्ध में किसी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता।

(विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी द्वारा प्रकाशित प्रख्यात इतिहासकार काशीप्रसाद जायसवाल की कृति हिंदू राच्य-तंत्र से साभार।)

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