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Thursday, March 21, 2013

आदिवाराह - प्रतिहार




तद्वंशे प्रतिहार केतान्भ्रुती त्रैलोक्य रक्षास्पदे
देवो नागभट पुरातन मुनेर्भुतिर्ववाद्भुतम ।
येनासो सुकृत्प्रमार्थिर्बल्न म्लेच्छ-धिपाक्शोहीनिः
क्शुन्दानास्फुर दुग्रहेतिरुचिरैर्दोश्च्तुर्भिर्वभौ ।। 


युगों पूर्व हिरण्याक्ष नामक असुर ने धरती को रसातल मे डुबो दिया था, तब धरती को पाताल से मुक्त करने हेतु भगवान् वाराह ने हिरण्याक्ष का वध किया और धरती को पाताल से बाहर निकाल कर उसका उद्धार किया,जिसप्रकार वे धरती के रक्षक कहलाये ।

यही एक कारण था,की प्रतिहार शासक आदिवाराह नाम से जाने लगे,उनकी राजमुद्रा पर भी वराह का रूप अंकित उन्होंने करवाया क्योंकि वे भी भगवान् वाराह की तरह हिन्दुभूमि को म्लेच्छो के काल-पाश में जाने से बचा पाए थे,और म्लेच्छो के अधिकार में गयी हुयी भूमि को उनसे वापस छीन कर उसका उद्धार करने में सफल हो पाए थे ।

इस्लाम की स्थापना तथा अरबो का रक्तरंजीत साम्राज्यविस्तार सम्पूर्ण विश्व के लिए एक भयावह घटना है, मोहम्मद पैगम्बर के मृत्यु के बाद अरबो का अत्यंत प्रेरणादायी रूप से समरज्यिक उत्थान हुआ|

१०० वर्ष भीतर ही उन्होंने पश्चिम में स्पेन से पूर्व में चीन तक अपने साम्राज्य को विस्तारित किया। वे जिस भी प्रदेश को जितते वहा के लोगो के पास केवल दो ही विकल्प रखते, या तो वे उनका धर्म स्वीकार कर ले या मौत के घाट उतरे|उन्होंने पर्शिया जैसी महान संस्कृतियों,सभ्यताओं,शिष्टाचारो को रौंध डाला,मंदिर,चर्च,पाठशालाए, ग्रंथालय नष्ट कर डाले। कला और संस्कृतियों को जला डाला सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मचा डाला।

ग्रीस, इजिप्त, स्पेन, अफ्रीका, इरान आदि महासत्ताओ को कुचलने के बाद अरबो के खुनी पंजे हिन्दुस्तान की भूमि तरफ बढे।

कठिन परिश्रम के बाद अंतर्गत धोकाधडियो से राजा दाहिर की पराजय हुयी और अरबो की सिंध के रूप में भारत में पहली सफलता मिली।

सिंध विजय के तुरंत बाद अरबो ने सम्पूर्ण हिन्दुस्तान को जीतकर वहा की संस्कृति को नष्ट भ्रष्ट करने हेतु महत्वाकांक्षी सेनापति अब्दुल-रहमान-जुनैद-अलगारी और अमरु को सिंध का सुबेदार बनाकर भेजा।

जुनैद ने पुरे शक्ति के साथ गुजरात, मालवा और राजस्थान के प्रदेशो पर हमला बोल दिया। उस समय वहा बहुत  सी छोटी रियासते राज्य करती थी। जैसलमेर के भाटी, अजमेर के चौहान, भीनमाल के चावड़ा आदि ने डट कर अरबी सेना का मुकाबला किया, पर वे सफल नहीं हो पाए और एक के बाद एक टूटने लगे। जैसलमेर के भाटी शासको की पराजय के बाद वहा के प्रदेशो पर अरबो का अधिकार हो गया।

इन सबको हराकर जुनैद ने मालवा पर आक्रमण कर दिया,जहा की राजधानी थी उजैन,जहा प्रतिहार साम्राज्य का शासन था और जहा का शासक था एक महावीर धर्मपुरुष सम्राट नागभट प्रतिहार।

अरबी सेना का नागभट के साथ युद्ध हुआ जिसमे अरबी सेना को वापस लौटना पडा क्योंकि नाग भट ने उनका कडा प्रतिकार किया था,परन्तु वे लौट कर पूर्ण शक्ति के साथ आयेंगे ये निश्चित था।
सम्पूर्ण भारत पर अब अरबो के भीषण आक्रमण से होनेवाले महाविनाश का खतरा मंडराने लगा,और सम्पूर्ण भारत की जनता ये प्रतीक्षा करने लगी की कोई अवतारी पुरुष उन्हें इस खतरे से बचाए.....

उन दिनों चित्तोड और मेवाड़ से मौर्य साम्राज्य को हटाकर नागदा के गहलोत वंशीय बाप्पा रावल ने वहा अपना अधिकार जमा लिया था, नाग भट की तरह वो भी अरबो के संभावी खतरे को जानता था, इसीलिए उसने अरबो के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा स्थापित किया जिसमे अनेक पूर्व, पश्चिमी, उत्तर और दक्षिणी राजाओ ने हिस्सा लिया।

नाग भट को ये पता चलते ही उसने अपनी सारी सेना और शक्ति लेकर वो बाप्पा रावल के साथ हो लिया। चालुक्यो ने अपने युवा युवराज अव्निजनाश्रय पुल्केशी को भी भारी सेना के साथ नाग भट के साथ भेज दिया और इस प्रकार एक महान सेना का गठन हुवा जिसकी संख्य लक्षावधि थी।

मारवाड़ के आसपास सन ७३८ में अरबो की विशाल सेना से हिन्दुओ की इस सेना का जिसका नेतृत्व नाग भट और बाप्पा रावल कर रहे थे भीषण संग्राम हुआ जिस संग्राम का वर्णन देवासुर संग्राम से करना उचित होंगा.

दिन ढलने से पूर्व ही अरबो की सेना की मुख्य टुकड़ी काट कर फेक दी गयी, सूर्यास्त होने से पूर्व इने गिने अरबी सैनिको को छोड़ के बाकी सारे वध कर दिए गए,जुनैद अपने अंगरक्षको के साथ भाग निकला,युद्ध में आये हुए घावों के कारण उसी रात उसकी मृत्यु हो गयी। सम्पूर्ण अरेबिया में उनके बड़े सेनापति के अपनी सेना के साथ मारे जाने से हाहाकार मच गया।

बाप्पा रावल ने युद्ध में विजय प्राप्त होने के पश्चात सिंध पर आक्रमण कर वहा भी मुसलमानों को उखाड़ फेका। सिन्धु नदी को लांघकर इरान तक प्रदेश को विजय कर,और वहाके सुलतान हैबत्खान की पुत्री से विवाह कर बाप्पा रावल ने संन्यास ले लिया।

अरबो की भारत में भीषण पराजय होने से उनकी प्रतिष्ठा को कलंक लग गया था जिसे धोकर उस खोयी हुयी प्रतिष्ठा को प्राप्त करने और प्रतिशोध की भावना से अरब भारत के विरुद्ध एक दूसरा अभियान छेड़ने के लिए शाक्ति संचय में लग गए। उन्होंने इरान,ईराक,इजिप्त आफ्रिका आदि से सेनाये और सेनानायको को इकठ्ठा किया और तामीन के नेतृत्व में भारत तथा नाग भट की और कूच कर दिया ।

अत्यंत दूर दृष्टी रखनेवाले नाग भट ये जानते थे की ये एक ना एक दिन होना ही था,इसलिए वे दक्षिण में राष्ट्रकूट से हो रहे युध्धो को छोड़कर वापस उजैन आये और वहासे सीधे चित्तौर पहुचे जहा बाप्पा रावल का पुत्र खुमान रावल राज्य करता था। नाग भट ने खुमान को उसके पिता बाप्पा रावल से  किये हुए संयुक्त युद्ध को याद दिलाया और पुनः एक बार वैसा ही मोर्चा तथा सेना संघटन अरबो के विरुद्ध करने का आवाहन किया जिसे खुम्मान ने स्वीकार किया,एक बार फिर पुल्केशी परमारों,सोलंकियो ने मोर्चे में सहभाग लिया और महासेना का गठन हुआ।

इस बार मोर्चे का नेतृत्व पूर्ण रूप से नाग भट के हाथ में था, नाग भट ने अनोखी सोच सोची की इस से पहले की शत्रु हम पर वार करे हम खुद ही शत्रु पर कूच करे.  इस से पहले की अरबी सेना सिन्धु नदी को लांघ पाती नाग भट ने उनपर आक्रमण किया,जो युद्ध कुछ सप्ताह बाद होना था वो कुछ पहले हो जाने से अरब चकित हो गए,भीषण संग्राम में रणभूमि म्लेच्छो के रक्त से तर हुयी.

सूर्यास्त होने से पूर्व तामीन का शीश हवा में लहरा गया और सेना नायक की मृत्यु होने से युद्ध में अरबो की पूर्ण रूप से पराजय हुयी, भागते हुए अरबो का हिन्दू सेना ने कई दूर तक पीछा किया,कई स्थानों पर अरब वापस खड़े होते गए और उखड़ते गए।

मुस्लिम इतिहासकारों ने अरबो की इस पराजय का वर्णन "फुतुहूल्बल्दान" नामक ग्रन्थ में किया है जिसमे अरब लिखते है की हिन्दुओ ने अरबी मुसलमानों के लिए थोड़ी भी जमीं नहीं छोड़ी इसलिए उन्हें भागकर दरिया के उस पार एक महफूज नगर बसाना पड़ा|

बार बार भारत में अपनी सेना की हानि होने की वजह से अपनी बची हुयी प्रतिष्ठा वापस मिलाने अरबो ने ये निश्चय कर लिया की भारत के किसी भी हिस्से को अब छुआ नहीं जाए और इसीलिए अगले ३५० सालो तक अरबो ने भारत खंड में पैर नहीं रखा।

और इसप्रकार प्रतिहार नागभट और बाप्पा रावल ने अपने भूमि और धर्म की रक्षा की!

आज इस घटना और हमारे बिच दीर्घ काल बित गया है,कल्पना करना भी भयावह है की ये लोग यदि उस वक्त राज्यों में बटे भारत को एक कर अरबो के विरुद्ध ना खड़े होते तो आज हम कौन होते,क्या कर रहे होते और किस हाल में होते, और इसीलिए हमें उन धर्मवीरो का अहसान मान ना चाहिए.

अरबी राक्षसों के मुह में जाने से प्रतिहारो ने हिन्दुभूमि को बचाया और अपने आप को आदिवाराह की उपाधि दी.

आज भी हमारीभूमि अधर्मियों के चंगुल में फसी हुयी है और जर्वत है नाग भट जैसे "आदिवाराह" की, जो की अधर्मियों का नाश कर धर्म की पताका फहराए.

जयति अखंड हिन्दू राष्ट्रं

नर व्याघ्रो आर्यों सार्वभौम

साभार:  लेखक ठाकुर कुलदिप सिंह, फेसबुक  

Wednesday, March 20, 2013

क़ुतुब मीनार का सच .....






क़ुतुब मीनार का सच .....
असली नाम: विष्णु स्तंभ, ध्रुव स्तंभ
निर्माता: विराहमिहिर

विराहमिहिर के मार्गदर्शन में बना, 

सम्राट चंद्रगुप्त के शाशन काल के दौरान

असली आयु: २५०० साल से अधिक पुराना.

1191A.D.में मोहम्मद गौरी ने दिल्ली परआक्रमण किया ,तराइन के मैदान मेंपृथ्वी राज चौहान के साथ युद्ध में गौरी बुरी तरह पराजितहुआ, 1192 में गौरी ने दुबारा आक्रमणमें पृथ्वीराज को हरा दिया ,कुतुबुद्दीन,गौरी का सेनापति था. 1206 में गौरी ने  कुतुबुद्दीन को अपना नायब नियुक्त किया और जब 1206 A.D,में मोहम्मद गौरी की मृत्यु हुई तब  वह गद्दी पर बैठा ,अनेक विरोधियों को समाप्त करने में उसे लाहौर में ही दो वर्ष लग गए.1210 A.D. लाहौर में पोलो खेलते हुए घोड़े सेगिरकर उसकी मौत हो गयी. अब इतिहास के पन्नों में लिख दिया गया है कि कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार , कुवैतुल इस्लाम मस्जिद औरअजमेर में अढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद भी बनवाई.

अब कुछ प्रश्न .......अब कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार बनाई, लेकिन कब ? क्या कुतुबुद्दीन ने अपने राज्य काल 1206 से 1210 मीनार का निर्माण करा सकता था ? जबकि पहले के दो वर्ष उसने लाहौर में विरोधियों को समाप्त करने में बिताये और1210 में भी मरनेके पहले भी वह लाहौर में था ? कुछ ने लिखा कि इसे 1193AD में बनाना शुरू किया यह भी कि कुतुबुद्दीन ने सिर्फ एक ही मंजिल बनायीं उसके ऊपर तीन मंजिलें उसके परवर्ती बादशाह इल्तुतमिश ने बनाई और उसकेऊपर कि शेष मंजिलें बाद में बनी. यदि 1193 में कुतुबुद्दीन ने मीनार बनवाना शुरू किया होता तो उसका नाम बादशाह गौरी केनाम पर"गौरी मीनार", या ऐसा ही कुछ होता न कि सेनापति कुतुबुद्दीन के नाम पर क़ुतुब मीनार. उसने लिखवाया कि उस परिसर में बने 27मंदिरों को गिरा कर उनके मलबे से मीनार बनवाई, अब क्या किसी भवन के मलबे से कोई क़ुतुबमीनार जैसा उत्कृष्ट कलापूर्ण भवन बनाया जा सकता है जिसका हर पत्थर स्थानानुसार अलग अलग नाप का पूर्वनिर्धारित होता है ? कुछ लोगो ने लिखा कि नमाज़ समय अजान देने केलिए यह मीनार बनी पर क्या उतनी ऊंचाई से किसी कि आवाज़ निचे तक आभी सकती है ? सच तो यह है की जिस स्थान में क़ुतुब परिसर है वह मेहरौली कहा जाता है,मेहरौली वराहमिहिर के नाम परबसाया गया था जो सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में एक , और खगोलशास्त्री थे उन्होंने इस परिसर में मीनार यानि स्तम्भ के चारों ओर नक्षत्रों केअध्ययन के लिए २७ कलापूर्ण परिपथों का निर्माण करवाया था.इन परिपथों के स्तंभों पर सूक्ष्म कारीगरी केसाथ देवी देवताओं की प्रतिमाएं भी उकेरी गयीं थीं जो नष्ट किये जाने के बादभी कहीं कहीं दिख जाती हैं. कुछ संस्कृत भाषा केअंश दीवारों और बीथिकाओं के स्तंभों पर उकेरे हुए मिल जायेंगे जो मिटाए गए होने के बावजूद पढ़े जा सकते हैं. मीनार , चारों ओर के निर्माण का ही भाग लगता है ,अलग से बनवाया हुआ नहीं लगता,इसमे मूल रूप में सात मंजिलें थीं सातवीं मंजिल पर "ब्रम्हा जी की हाथ में वेद लिए हुए "मूर्ति थी जो तोड़ डाली गयीं थी ,छठी मंजिल पर विष्णु जी की मूर्ति के साथ कुछ निर्माण थे. वह भी हटा दिए गए होंगे ,अब केवल पाँच मंजिलें ही शेष है.इसका नाम विष्णु ध्वज /विष्णु स्तम्भ या ध्रुव स्तम्भ प्रचलन में थे, इन सब का सबसे बड़ा प्रमाण उसी परिसर में खड़ा लौह स्तम्भ है जिस पर खुदा हुआ ब्राम्ही भाषा का लेख,जिसमे लिखा है की यह स्तम्भ जिसे गरुड़ ध्वज कहा गया है जो सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य (राज्य काल 380-414ईसवीं) द्वारा स्थापित किया गया था और यह लौहस्तम्भ आज भी विज्ञानं के लिए आश्चर्य की बात है कि आज तक इसमें जंग नहीं लगा.उसी महान सम्राट के दरबार में महान गणितज्ञ आर्य भट्ट, खगोल शास्त्री एवं भवन निर्माण विशेषज्ञ वराह मिहिर ,वैद्य राज ब्रम्हगुप्त आदि हुए. ऐसे राजा के राज्य काल को जिसमे लौहस्तम्भ स्थापित हुआ तो क्या जंगल में अकेला स्तम्भ  बना होगा? निश्चय ही आसपास अन्य निर्माणहुए होंगे, जिसमे एक भगवन विष्णु का मंदिर था उसी मंदिर के पार्श्व में विशाल स्तम्भ विष्णुध्वज जिसमे सत्ताईस झरोखे जो सत्ताईस नक्षत्रो व खगोलीय अध्ययन के लिए बनाएगए, निश्चय ही वराह मिहिर के निर्देशन में बनाये गए. इस प्रकार कुतब मीनार के निर्माण का श्रेय सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य के राज्यकल में खगोल शाष्त्री वराहमिहिरको जाता है. कुतुबुद्दीन ने सिर्फ इतना किया कि भगवान विष्णु के मंदिर को विध्वंस किया उसे कुवातु लइस्लाम मस्जिद कह दिया ,विष्णु ध्वज(स्तम्भ ) के हिन्दू संकेतों को छुपाकर उन पर अरबी के शब्द लिखा दिए और क़ुतुब मीनार बन गया...


साभार : 
सुदेश शर्मा भारतीय (Notes), फेसबुक 

Saturday, March 9, 2013

भगवान शिव के 19 अवतार





शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है, 

1- पिप्पलाद अवतार :-


मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता  दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। शाप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है।  शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।


पिप्पलादेति तन्नाम चक्रे ब्रह्मा प्रसन्नधी:।
-शिवपुराण शतरुद्रसंहिता 24/61

अर्थात ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर सुवर्चा के पुत्र का नाम पिप्पलाद रखा। 


2- नंदी अवतार :-

भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। 


3- वीरभद्र अवतार :- 

यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रकट हुए। 

शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-

क्रुद्ध: सुदष्टïोष्ठïपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्वह्लिï
सटोग्ररोचिषम्। उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो 
हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥ 
ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं। 
श्रीमद् भागवत -4/5/1

शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।

4- भैरव अवतार :-

शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवें सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवां सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। तब काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है। 

5- अश्वत्थामा :-

महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार हैं। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मे अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। 

इस विषय में एक श्लोक प्रचलित है-

अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय ये आठों अमर हैं।

शिवमहापुराण(शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं। वैसे, उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है। 

6- शरभावतार :-

भगवान शंकर का छठे अवतार हैं शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (आख्यानिकाओं में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था।इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार हिरण्यकश्पू का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकश्यपू के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव शरभ के रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई तो शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की। 

7- गृहपति अवतार :-

भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की।  पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मती गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं पितामह ब्रह्म ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था। 

8- ऋषि दुर्वासा :-

भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोक में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए, जो देवताओं द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर उससे प्रकट हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्त उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया। 

शास्त्रों में इसका उल्लेख है-

अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ्जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मïसम्भवान्॥ 
-भागवत 4/1/15

अर्थ- अत्रि की पत्नी अनुसूइया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। 

ये क्रमश: भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे। 

9- हनुमान :-

भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहीत कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया,  जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए। 

10- वृषभ अवतार :-

भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु जी ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए, जिन्होंने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया। 

11- यतिनाथ अवतार :-

भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया है। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी। भील दम्पत्ति को अपने प्राण गंवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक को मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं।  जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया। 

12- कृष्णदर्शन अवतार :-

भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए। जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गया। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके उनके धन को प्राप्त करे। तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया।  अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।

13- अवधूत अवतार :-

भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उसका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा त्यों ही उसका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया। 

14- भिक्षुवर्य अवतार:-

भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी ही हैं। भगवान शंकर का भिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची। तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उसे बालक का पालन पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया। 

15- सुरेश्वर अवतार :-

भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जाप करने लगा। शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया। 

16- किरात अवतार :-

किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा। अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया। उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव की माया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाया और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगा। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया। 

17- सुनटनर्तक अवतार :-

पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर जब शिवजी हिमाचल के घर पहुंचे तो नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए। जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया। 

18- ब्रह्मचारी अवतार :-

दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं। 

19- यक्ष अवतार :-

यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार देवताओं व असुरों द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कंठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए, साथ ही उन्हें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोड़ने के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।

साभार : स्वर्णिम हिंद का स्वर्णिम स्वप्न, फेसबुक 

Friday, March 8, 2013

कांग्रेस का डीएनए - DNA OF CONGRESS PARTY


कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर बैठते ही राहुल गांधी ने कांग्रेस की डीएनए जांच करके परिणाम घोषित कर दिया- यह भारतीय डीएनए है। हमारा प्रश्न यह है कि जिस पार्टी के जन्मदाता अंग्रेज रहे हों, उसका डीएनए भारतीय कैसे? ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी, जो बाद में (1870-1879) ब्रिटिश भारत सरकार के एक सचिव भी रहे, कांग्रेस के जनक माने जाते हैं। उनका नाम था- एलेन ऑक्टैवियन ह्यूम। पर हकीकत में उस समय भारत के अंग्रेज गवर्नर जनरल लॉर्ड डफरिन की सोच ही मूलरूप से कांग्रेस स्थापना के पीछे मौजूद थी। डफरिन ने ह्यूम को निर्देशित किया। इतना ही नहीं, उन्हें कांग्रेस-स्थापना से पहले इंग्लैण्ड भेजकर भारत के अनेक पूर्व अंग्रेज गवर्नर जनरलों से इस विषय पर बात करने को कहा। ह्यूम ने ब्रिटेन जाकर लॉर्ड रिपन, लॉर्ड डलहौजी आदि से वार्ता कर निर्देश तथा समझ प्राप्त की। उसके बाद 28 दिसम्बर 1885 को मुम्बई में कांग्रेस का जन्म हुआ।

जिस व्यक्ति के हाथ 1857 के संग्राम में भारतीय क्रांतिकारियों के खून से रंगे हों, उन्हें अपने संस्थापक रूप में पाने वाली कांग्रेस अपना डीएनए भारतीय कहे, यह आश्चर्य ही नहीं, आपत्ति का विषय है। कांग्रेस के प्रारंभिक वर्षों में कई अंग्रेज इसके अध्यक्ष रहे। डेविड यूल (1988), विलियम वैडरबर्न (1889 और 1910), अल्फ्रैउ वैब (1894) और हेनरी कॉटन (1904) ऐसे ही नाम हैं। लगभग 20 साल तक कांग्रेस अधिवेशनों में ब्रिटिश राष्ट्रगान 'गॉड सेव द किंग' गाया जाता था। अधिवेशनों को निर्देशित करने के लिए हर वर्ष अनेक ब्रिटिश सांसद भारत आते थे। चार्ल्स ब्रॉडलो, पैथविक लॉरेंस, डब्ल्यू एस केन आदि दर्जनों नाम हैं। ये लोग कांग्रेस में पारित होने वाले प्रस्तावों की भाषा बनवाते थे। कांग्रेस को ब्रिटिश नियंत्रण में रखने के लिए यह जरूरी समझा गया था। इसी काम के लिए लंदन में एक 'ब्रिटिश कांग्रेस कमेटी' बनायी गयी थी। इस कमेटी का सारा खर्चा कांग्रेस उठाती थी। इसके लिए प्रतिवर्ष 10,000 रुपए से 60,000 रुपए तक भारत से लंदन जाते थे (उन दिनों जब सोना 20 रु. तोला था)।

1905 के बाद लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चन्द्र पाल के कारण कांग्रेस अपनी पूर्व निर्धारित राह से हटने की प्रवृत्ति दिखाने लगी। पर अंग्रेजों ने वैसा होने नहीं दिया। भारत छोड़कर जाने से पहले अंग्रेजों ने अपने संरक्षण में 'अंतिम अंग्रेज' जवाहरलाल नेहरू को सत्ता सौंपी, जो लॉर्ड मैकाले की कल्पना के अनुरूप मात्र रक्त व रंग से भारतीय थे पर 'सोच, रुचि, नैतिकता तथा कर्म' में अंग्रेज। अंग्रेजी डीएनए वाली, अंग्रेजी संस्थापक वाली, अंग्रेजी नाम वाली कांग्रेस सदा अंग्रेजी या पश्चिमी हितों को तरजीह देकर चली है। भारत विभाजन की ब्रिटिश योजना की कांग्रेस कमेटी द्वारा स्वीकृति (15 जून 1947) से लेकर अमरीका से यूरेनियम समझौते और एफडीआई संबंधी निर्णय तक अनेक मिसालें हैं। पश्चिमी दबाव में रहने के कारण ही कांग्रेस की पाकिस्तान नीति घुटनाटेक है।

साभार : पाञ्चजन्य, लेखक श्री अजय मित्तल

97, खंदक, मेरठ (उ.प्र.)