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Thursday, August 23, 2012

स्मृद्ध भारतीय जन-जीवन


आज विकसित कहे जाने वाले देशों के लोग जब तन ढकने के लिये पशुओं की खालें ओढते थे और भोजन कि लिये कच्चे पक्के माँस पर ही निर्वाह करते थे तब से भी सैंकडों वर्ष पूर्व भारत को ऐक विकसित महाशक्ति के रूप में जाना जाता था। सिकन्दर के गुरु अरस्तु के अनुसार ‘भारत-विजय’ का अर्थ ही ‘विश्व-विजय’ था। भारत धरती पर जीता जागता स्वर्ग था। तब भारत के लोग विदेश जाने को तत्पर नहीं होते थे बल्कि विदेशी भारत आने के लिये ललायत रहते थे।
पुरुषार्थ से जी भर के जियो
हिन्दू जीवन का लक्ष्य धर्म के मार्ग पर चल कर कर्तव्यों का पालन करते हुये जीवन में ‘अर्थ’ और ‘काम’ की तृप्ति कर के जीवन काल में ही ‘मोक्ष’ की प्राप्ति करना था। मृत्यु के पश्चात मोक्ष का कोई अर्थ नहीं रहता। मोक्ष की प्राप्ति संन्यास से पूर्व ही होनी चाहिये नहीं तो संन्यासी बनने के पश्चात घोटालों में फंस जाने के कारण सब किया कराया भी नष्ट हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति की होड में ‘धर्म’ की स्थानीय मर्यादाओं का उलंघन और किसी चीज़ की इति नहीं होनी चाहिये।
बिना गृहस्थाश्रम का धर्म निभाये वानप्रस्थाश्रम या संन्यासाश्रम में प्रवेश लेना उचित नहीं समझा जाता। हिन्दू समाज में स्त्री-पुरुष दोनों को ही संतान रहित होने पर ‘अधूरा’ समझा जाता है क्यों कि उन्हों ने ईश्वर के प्रति सृष्टी क्रम को प्रवाहित रखने के लिये निजि उत्तरदाईत्व का निर्वाह नहीं किया। जो स्त्री-पुरुष अपने पुरुषार्थ के भरोसे अपनी स्वाभाविक इन्द्रीय सुखों से वँचित रहे हों वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते।
अर्थ के बिना भी कुछ सार्थक नहीं हो सकता केवल अनर्थ ही होता है। जीवन के साधन अर्जित करना सभी का कर्तव्य है। वन में रहने वाले संन्यासी को भी कम से कम बीस-तीस वस्तुओं की आवशयक्ता निरन्तर पडती रहती है जिन की आपूर्ति का भार गृहस्थी ही उठाते हैं। अतः संसाधनों के बिना कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होता।
धर्म, अर्थ, और काम – जीवन में तीनों का महत्व है। केवल धर्म के मार्ग पर चल कर, अर्थ और काम से वँचित रह कर मोक्ष प्राप्ति कर लेना अति कठिन है। भारत के ऋषि अपनी अपनी पत्नियों के संग ही आश्रमों में रह कर संन्यास धर्म का पालन करते रहै हैं। स्वेच्छा से संन्यासी हो जाना ऐक मानसिक अवस्था है तथा संन्यास का भौतिक दिखावा करते रहना केवल नाटकबाजी है।   
विदेशी धर्मों के मतानुसार वैवाहिक सम्बन्ध का लक्ष्य संतान उपन्न करना ही है। इस की तुलना में हिन्दू जीवन का लक्ष्य पुरुषार्थ दूारा धर्म (कर्तव्यों का निर्वाह), अर्थ (संसाधनों का सदोप्योग तथा आपूर्ति), काम (सभी प्रकार के सुख भोगना) तथा मोक्ष ( पूर्ण सँतुष्टि) की प्राप्ति है। इन सभी का समान महत्व है। किसी अवस्था में यदि धर्म, अर्थ और काम समान मात्रा में अर्जित ना किये जा सकते हों तो क्रमशाः काम, अर्थ को छोडना चाहिये। धर्म का त्याग किसी भी अवस्था में नहीं किया जा सकता क्यों कि केवल धर्म का पालन ही मोक्ष प्राप्ति करवा सकता है। निजि कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है।
काम-सूत्र  
ऋषि वात्सायन दूारा लिखित काम-सूत्र शरीरिक सुखों के विषय पर सम्पूर्ण गृन्थ है। हिन्दू धर्म में वैवाहिक काम सम्बन्ध किसी ‘ईश्वरीय-आज्ञा’ का उलन्धन नहीं माने जाते। वह ईश्वर के प्रति मानव कर्तव्यों के निर्वाह के निमित हैं और सृष्टि के क्रम को चलाये रखने की श्रंखला के अन्तर्गत आते हैं। कामदेव को देवता माना जाता है ना कि शैतान। काम-सूत्र गृन्थ का लग भग सभी विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और भारतीय अध्यात्मिकता की तरह अपने क्षेत्र में यह गृन्थ भी सर्वत्र प्रेरणादायक है। इस से प्रेरणा ले कर शिल्पियों और चित्रकारों ने अपनी कला से विश्व भर के पर्यटकों को चकित किया है। चन्देल राजाओं दूारा निर्मित खजुरोहो के तीस मन्दिर काम-कला कृतियों को ही समर्पित हैं जो इस विषय में मानव कल्पनाओ की पराकाष्ठा दर्शाती हैं। काम को धर्म शास्त्रों की पूर्ण स्वीकृति है अतः शिल्प कृतियों में अधिकतर देवी – देवताओ को ही नायक नायकाओं के रूप में दिखाया गया है।     
हिन्दू समाज में कोई ‘तालिबानी ’ ढंग का अंकुश नहीं है। केवल धर्म और सार्वजनिक स्थलों पर सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह करना ही आवश्यक है।  खजुरोहो कृतियों के पीछे छिपा अध्यात्मवाद और इतिहास शायद तथाकथित ओवर-लिबरल विदेशी पर्यटकों को समझ नहीं आये गा फिर भी उन्हें स्वीकारना पडे गा कि काम-कला प्रदर्शन में भी आज से दस शताब्दी पूर्व भारतवासी योरूप्यिन लोगों से कहीं आगे थे। 
काम का क्षेत्र केवल शरीरिक सम्बन्धों तक ही सीमित नहीं है। इस के अन्तर्गत सहचर्य के अतिरिक्त अच्छा भोजन, वस्त्र, आभूषण, रहन-सहन, कला, मनोरंजन, आराम, सुगन्धित वातावरण आदि जीवन के सभी भौतिक ऐश्वर्यों के आकर्षण आ जाते हैं। धर्म की सीमा के प्रतिबन्ध के अन्तर्गत सभी कुछ हिन्दू समाज में स्वीकृत है। यही वास्तविक ‘लिबरलज़िम ’ है।
वाल्मीकि रामायण में कई भौतिक सुखों की परम्पराओ के उल्लेख देखे जा सकते हैं। ऱाजा दशरथ को प्रातः जगाने का विधान अयोध्या नगरी की भव्यता तथा ऐश्वर्य  का भान कराता है। ऋषि भारदूाज चित्रकूट मार्ग पर राजकुमार भरत तथा अयोध्या वासियों के सत्कार में ऐक भोज का प्रबन्ध अपने आश्रम में ही करते है जो किसी भी पाँचतारा होटल की ‘बैंक्विट’ से कम नहीं। ऱावण के अन्तःपुर में सीता की खोज में जब हनुमान प्रवेष करते हैं तो वहाँ के वातावरण का चित्रण अमेरिका के किसी भी नाईट-कल्ब को पीछे छोड दे गा। किन्तु ऋषि वालमीकि कहीं भी वर्णन चित्रण करते समय भव्यता और शालीनता की रेखा को नहीं लाँघते।
भारतीय खान-पान 
हिन्दू धर्म शास्त्रों में, कर्म क्षेत्र के अनुसार, समाज के सभी वर्गों के लिये, भोजन का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया गया है जिसे सात्विक, राजसिक, तथा तामसिक भोजन कहते हैं। य़ह वर्गीकरण आधुनिक डायटीशियनों के विचारों से आज भी पूर्णत्या प्रमाणित हो रहा है। मनुस्मृति में भोजन परोसने, खाने तथा अन्त में हाथ और दाँत साफ करने तक की क्रियाओं का लिखित वर्णन है जैसा कि आधुनिक आई ऐस ओ मानकशास्त्री आजकल कम्पनियों में करवाते हैं।
हिन्दू जीवन में अधिकाँश तौर पर शाकाहारी भोजन को ही प्रोत्साहन दिया जाता है किन्तु धर्म अपने अपने कर्म क्षेत्र के उत्तरदाईत्व का निर्वाह करने के लिये सभी को शाकाहारी अथवा मांसाहारी भोजन गृहण करने की स्वतन्त्रता भी देता है। आखेट के माध्यम से मांसाहारी भोजन जुटाने की अनुमति है क्यों कि इस से जीवों की व्यवसायिक मात्रा में हत्यायें नहीं होंगी। आखेट पर प्रतिबन्ध पशु-पक्षियों के प्रजन्न काल की अवधि में पालन करना अनिवार्य होता है।
जहाँ अन्य धर्मों के कुछ लोग व्यक्तिगत स्वास्थ के कारणों से मांसाहारी भोजन त्याग कर शाकाहारी बन जाते हैं, वहीं हिन्दू जीवों के प्रति संवेदनशील हो कर जीवों की रक्षा के कारण शाकाहारी बने रहते हैं। इसी तथ्य में जियो – और जीने दो का मूलमंत्र छिपा है। 
भारतवासी कई प्रकार के अनाजों का उत्पादन करते थे जिन में अनाज, दालें और फल भी शामिल हैं। चावल, बाजरा, मक्की, गेहूँ की खेती भारत में प्राचीन काल से ही करी जाती थी। भारत में आम, केले, खरबूजे, और नारियल आदि कई प्रकार के फलों के निजि कुंज भी थे। गाय पालन गौरवशाली समझा जाता था। दूध, दही, मक्खन, घी, और पनीर आदि पदार्थ दैनिक प्रयोग के घरेलू पदार्थ थे। इन तथ्यों की तुलना में अमेरिका तथा योरूप के प्रगतिशील महिलायें आज भी दालों, मसालों तथा घी का प्रयोग नहीं जानतीं। आज भी विदेशी भोजन में प्रोटीन की प्राप्ति मांसाहार या जंक-फूड से ही पूरी करते हैं।
जंगल में शिकार को आग पर भून कर खाने, और पेट भर जाने पर वहीं नाचने-गाने की आदत को आज कल केम्प-फायर तथा बारबेक्यू कहते हैं। नुकीले तीरों या छुरियों से भुने मांस को नोच कर खाने का आधुनिक सभ्य रूप छुरी-काँटे से खाना है। इसकी तुलना में शाकाहारी खाना सभ्यता और संस्कृति की प्रगति का बोध करवाता है।  
पाक-कला
पाक-कला को चौंसठ कलाओं की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय विविध रीतियों से भोजन पकाना जानते थे जिस में उबलाना, सेंकना, भूनना, धीमी आँच पर पकाना, तलना, तथा धूप में सुखाना भी शामिल हैं। प्रत्येक गृहणी को मसालों के औषधीय गुणों की जानकारी थी तथा वह दैनिक जीवन में मसालों का यथोचित प्रयोग करती थीं। संतुलन बनाये रखने के विचार से दिन के प्रत्येक भोजन में छः मौलिक स्वादों (मीठा, कडुआ, खट्टा, नमकीन, तीखा और फीका) को सम्मिलित किया जाता था। यह परम्परा आज भी अधिकाँश घरों में है। भोजन के पश्चात सुगन्धयुक्त पान अर्पित करना विशिष्ट शिष्टाचार माना जाता था। गृहस्थाश्रम में मदिरा पान पर शालीनता में रहने के अतिरिक्त अन्य कोई रोक-टोक नहीं थी। इस की तुलना में अन्य देशों में केवल माँस, नान, पिज्जा या इस प्रकार के पदार्थों को आग पर भूनना ही मुख्यता आता था। आज भी उन्हें मसालों की जानकारी नहीं के बराबर है और उन का दैनिक भोजन स्वाद में लगभग फीका ही होता है।
चीनी – भारत का उतपादन
अन्य देशों नें ‘शूगर ’ शब्द भारतीय शब्द शक्करा से ही अपनाया है। इसी को अरबी भाषा में शक्कर, लेटिन में साकारम, फरैंच में साकरे, जर्मन भाषा में ज़क्कार तथा अंग्रेज़ी में शूगर कहते हैं। चीनी का निर्माण भारत ही शूगरकेन (गन्ने) से किया था। अंग्रेजी में शूगरकेन का शब्दिक अर्थ “शूगर वाला बाँस” होता है।
हिन्दू घरों में मिष्टान को सात्विक भोजन माना जाता है। देवी देवताओं को अर्पण किये जाने वाले प्रसाद मीठे ही होते हैं। मीठे दूध में चावल पका व्यंजन क्षीर (पायसम) अति पवित्र तथा संतोष जनक माना जाता है। भारत के खान पान में विभन्न प्रकार की मिठाईयों की भरमार है जिन से विश्व के अन्य समाज आज तक भी अनिभिज्ञ्य हैं। आज  भारतीय मिठाईयाँ विदेशों में भी लोकप्रिय हो रही हैं। यह भारत का दुर्भाग्य है कि कुछ मिलावटखोरों के कारण भारत में ही भारतीय मिठाईयों का स्थान चोकलेट, कुकीस और विदेशी मिठाईयों ने छीनना शुरु कर दिया है। 
भारतीय परिधान
मानव सभ्यता को कपास की खेती तथा उन से निर्मित सूती वस्त्र भी भारत की ही देन हैं। पाँच लाख वर्ष पूर्व हडप्पा के अविशेषों में चाँदी के गमले में कपास, करघना तथा सूत कातना और बुनती का पाया जाना इस कला की पूरी कहानी दर्शाता है। वैदिक साहित्य में भी सूत कातने तथा अन्य की प्रकार के साधनों के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं। योरूप वासियों को कपास की जानकारी ईसा से 350 वर्ष पूर्व सिकंदर महान के सैनिकों के माध्यम से हुई थी। तब तक योरूप के लोग जानवरों की खालों से तन ढांकते थे। कपास का नाम भी भारत से ही विश्व की अन्य भाषाओं में प्रचिल्लत हुआ जैसे कि संस्कृत में कर्पस, हिन्दी में कपास, हिब्रू (यहूदी भाषा) में कापस, यूनानी तथा लेटिन भाषा में कार्पोसस 
हथ-कर्घा तथा हाथ से बुने वस्त्र आज भी भारत का गौरव हैं। आज से दो हजार वर्ष पूर्व तक मिस्र के लोग मम्मियों को भारतीय मलमल में ही लपेट कर सुरक्षित करते थे। जूलियस सीज़र के काल तक भारतीय सूती वस्त्रों का कोई भी प्रतिस्पर्धी नहीं था। भारतीय वस्त्रों के कलात्मिक पक्ष और गुणवत्ता के कारण उन्हें अमूल्य उपहार माना जाता था। खादी से ले कर सुवर्णयुक्त रेशमी वस्त्र, रंग बिरंगे परिधान, अदृष्य लगने वाले काशमीरी शाल भारत के प्राचीन कलात्मिक उद्योग का प्रत्यक्ष प्रमाण थे जो ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व विकसित हो चुके थे। कई प्रकार के गुजराती छापों तथा रंगीन वस्त्रों का मिस्र में फोस्तात के मकबरे के में पाया जाना भारतीय वस्त्रों के निर्यात का प्रमाण है।
आरम्भ में योरूप वासी भारत की ओर गर्म मसालों के व्यापार की होड में आये थे किन्तु शीघ्र ही भारतीय परिधान उन का मुख्य व्यवसाय बन गये। कताई बुनाई के क्षेत्र में पाँच हजार वर्षों के अनुभव तथा अनुसंधान का जादु इंगलैण्ड वासियों पर इस कदर चढा कि वस्त्रों का मानव निर्मित होना असम्भव जान पडता था।
ढाके की मलमल
मलमल एक प्रकार का पतला कपड़ा होता है जो बहुत बारीक़ सूत से बुना जाता है। प्राचीनकाल में यह कपड़ा विशेषकर बंगाल और बिहार में बुना जाता था। ढाके की मलमल अपनी बारीकी और नफासत के लिए विश्व विख्यात थी। एक अंगूठी से सात थान मलमल आर-पार किया जा सकता था। ढाके के मलमल के आगे मैनचेस्टर में बने वस्त्र फीके पड़ जाने के भय से अंग्रेजों ने भारतीय बुनकरों की उंगलियां काटवा दीं थी।
बंगाली बुनकरों की मलमल इतनी निर्मल और महीन थी कि उसे चलता पानी (रनिंग वाटर) तथा सायंकालीन ओस (ईवनिंग डयू) की उपाधि दी जाती थी। बनारसी सिल्क पर सोने चाँदी के महीन तारों की नक्काशी विश्व चर्चित थी। कशमीर के पशमीना शाल एक अंगूठी में से निकाले जा सकते थे। परिधानों के रंग प्रत्येक धुलाई के पश्चात और निखरते थे।   
परिधानों, आभूष्णों तथा सौंदर्य प्रसाधनों के कारण भारतीय स्त्रियों की तुलना स्वर्ग की अप्सराओं से करी जाती थी क्यों कि वह हर प्रकार के इन्द्रीय विलास के गुणों से पूर्णत्या सम्पन्न थीं। जो लोग आज विदेशी तकनीक की वकालत करते हैं उन के लिये यह कहना प्रसंगिक होगा कि भारत के उस समृद्ध वातावरण में तब तक पाश्चात्य तकनीक की कोई छाया भी नहीं पडी थी।  
साभार :चाँद शर्मा

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