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Friday, May 20, 2016

बुद्ध का धर्म चक्र प्रवर्तन


बुद्ध का धर्म चक्र प्रवर्तन

बहुतेरे लोग मानते हैं कि गौतम बुद्ध ने कोई नया धर्म चलाया था और वे हिंदू धर्म से अलग हो गए थे। हालांकि ऐसे लोग कभी नहीं बता पाते कि बुद्ध कब हिंदू धर्म से अलग हुए? हाल में एक वाद-विवाद में बेल्जियम के विद्वान डॉ. कोएनराड एल्स्ट ने चुनौती दी कि वे बुद्ध धर्म को हिंदू धर्म से अलग करके दिखाएं। एल्स्ट तुलनात्मक धर्म-दर्शन के प्रसिद्ध ज्ञाता हैं। ऐसे सवालों पर वामपंथी लेखकों की पहली प्रतिक्रिया होती है कि ‘दरअसल तब हिंदू धर्म जैसी कोई चीज थी ही नहीं।’ यह विचित्र तर्क है। जो चीज थी ही नहीं उसी से बुद्ध तब अलग हो गए? वामपंथी दलीलों में यह भी कहा जाता है कि हिंदू धर्म हाल की निर्मिति है।

रोमिला थापर तो इसे बमुश्किल दो सौ साल पुराना मानती हैं। वैसे आज अगर कोई हिंदू भारत के सारे शास्त्र पढ़ जाए और सारे तीर्थ कर ले तो भी बोलने-सुनने में कहीं ‘हिंदू’ शब्द नहीं मिलेगा। इसलिए नहीं मिलेगा, क्योंकि यह नाम ही भौगोलिक है। इसका हमारे धर्म दर्शन से कोई लेना-देना नहीं। यह संज्ञा बाहर के लोगों ने गढ़ी। इसका तात्पर्य था-सिंधु नदी के पार रहने वाले लोग। उसी से हिंदू और हिंदुस्तान शब्द बना। यह नामकरण बुद्ध की लगभग समकालीन घटना है।

‘हिंदू’ शब्द का प्रचलन मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा आरंभ हुआ। इससे उनका मतलब था वे सभी लोग जो मुस्लिम, ईसाई या यहूदी नहीं हैं। इस नकारात्मक बोध के अलावा इसका कोई दार्शनिक अर्थ नहीं था। इस मूल परिभाषा से आज हिंदू में बौद्ध, जैन, कबीरपंथी, आर्य समाजी आदि सभी आएंगे। वस्तुत: यही अर्थ स्वतंत्र भारत के ‘हिंदू मैरेज एक्ट, 1955’ में भी लिया गया। इससे भी दिखता है कि बौद्धों, सिखों और जैनों आदि को हिंदुओं से अलग करने की मान्यता कितनी नई है, लेकिन असली चिंताजनक बात दुष्प्रचार है। एक ओर बौद्ध, सिख और जैन यहां तक कि दलितों को भी हिंदू नहीं माना जाता और दूसरी ओर जब चर्च-मिशनरी और इस्लामी अतिक्रमण पर हिंदू चिंता रखी जाती है तब उपहास होता है कि आखिर 80 प्रतिशत हिंदुओं को दो प्रतिशत ईसाइयों और 18 प्रतिशत मुसलमानों से क्या खतरा हो सकता है?

ईसाई-मिशनरी भी वनवासियों, जनजातियों को हिंदू नहीं मानते, लेकिन जब उनकेधर्मातरण कुचक्र का यही जनजातीय प्रतिकार करते हैं तब उन्हें ‘हिंदू दंगाई’ कहा जाता है। डॉ. एल्स्ट के अनुसार हिंदू शब्द में जो एक अर्थ कभी नहीं रहा वह है ‘वैदिक’। हिंदू धर्म में अनेक तत्व वैदिक परंपरा से संबंधित हैं तो बहुतेरे ऐसे भी हैं जिसका वैदिक मान्यताओं से कोई संबंध नहीं। स्मृति और श्रुति, शास्त्र और लोक, महायान और हीनयान, यहां सदा से चलते रहे हैं।

किसी मुख्यधारा के साथ-साथ यहां छोटी-छोटी स्वतंत्र धाराओं, मतों, परंपराओं और रीतियों आदि के सदा पनपने, बने रहने का अवसर रहा है। वैदिक मान्यताओं के साथ ही बुद्ध या कबीर की बातें भी समाज में साथ-साथ चलती रही हैं। 1इतिहास यह है कि सिद्धार्थ गौतम क्षत्रिय थे, इक्क्षवाकु वंश के यानी मनु के वंशज। यह बात स्वयं बुद्ध ने ही कही। सिद्धार्थ शाक्य वंश के राजा के बेटे थे। स्वयं बौद्ध लोग भी बुद्ध को ‘शाक्य-मुनि कहते हैं। अर्थात शाक्य वंश के श्रेष्ठ ज्ञानी। यदि उस वंश और पहले की धर्म-परंपरा से बुद्ध ‘अलग’ हो गए होते तो नि:संदेह यह विशेषण गौरवशाली न होता। वह परंपरा मनु की यानी सनातन हिंदू ही थी।

इक्क्षवाकु मनु के ही ज्येष्ठ पुत्र का वंश है। इसे खारिज करने और अपने को अलग करने की घोषणा या उल्लेख बुद्ध ने कभी नहीं की। वस्तुत: सिद्धार्थ गौतम ने 29 वर्ष की आयु में समाज का त्याग किया, हिंदू धर्म-परंपरा का नहीं। समय-समय पर खोजियों, ज्ञानियों, भावी ऋषियों द्वारा परिवार, समाज और दुनियादारी का त्याग करना एक चिर-स्थापित हिंदू परंपरा ही थी। बुद्ध ने उसी परंपरा को दोहराया जो हिंदू समाज में पहले से प्रचलित थी। वह परंपरा आज भी है। बुद्ध ने वैदिक अनुष्ठानों का पालन अवश्य छोड़ दिया, फिर भी सभी वैदिक मंत्रों को छोड़ा, ऐसा नहीं है।

ङोन-बुद्धिज्म में वैदिक मंत्रों की तरह ही हृदय-सूत्र का पाठ किया जाता है, जिसमें अंत में ‘सोवाका’ अर्थात ‘स्वाहा’ भी कहते हैं, लेकिन कर्म-कांड छोड़ना कोई नई चीज नहीं थी जो बुद्ध ने शुरू की। ज्ञान पाने के लिए बुद्ध ने कई तरह के प्रयत्न किए, यह उनकी जीवन-गाथा बताती है। उसमें ‘अनपानासति’ (श्वास-संचालन पर ध्यान देना) भी था, जो योग-पद्धति की सामान्य चर्या है। किसी चर्या, साधना को स्वीकार करना या छोड़ देना भारत में सदा से चली आ रही बात है। उससे कोई हिंदू नहीं रह जाता, ऐसा कभी नहीं समझा गया। यदि बुद्ध ने कोई नई साधना तकनीक भी विकसित की तो यह पहली घटना हरगिज न थी। ज्ञान पाना, बोध होना, ‘बुद्ध’ बनना यह पहले भी हुआ है, इसे गौतम बुद्ध ने भी कहा है।

बुद्ध ने जब ‘धर्म-चक्र प्रवर्तन’ किया तो इसका कोई संकेत नहीं दिया कि वह पहले की कोई परंपरा तोड़ रहे हैं। उलटे उन्होंने कहा-‘एसो धम्मो सनंतनो’। अर्थात यही सनातन धर्म है, जिसे वे पुनव्र्याख्यायित मात्र कर रहे हैं। बुद्ध के संबोधन अपनी वैदिक जड़ों से मजबूती से जुड़े दिखते हैं। ‘हे ब्राrाणों’, ‘हे भिक्षुओं’, ‘हे आर्य’, आदि कहकर ही बुद्ध अपनी बातें कहते रहे। आर्य अर्थात भद्र, सभ्य, सज्जन। धर्म के गिरते स्तर को संभालना, उसकी हानि रोकना यही बुद्ध ने किया जो स्थापित हिंदू चेतना है। जिस तरह पहले श्रीकृष्ण या बाद में कबीर या स्वामी दयानंद ने अपने उपदेशों से कोई नया धर्म नहीं चलाया उसी श्रेणी में गौतम बुद्ध का जीवन और कार्य है।

बुद्ध ने शिष्यों को सीख देते हुए साधना द्वारा उसी बुद्धत्व की स्वयं ज्ञान प्राप्ति होने या करने की प्रेरणा दी जो भाव उपनिषदों में कूट-कूट कर भरा हुआ है। जो लोग भारत में हिंदू धर्म-परंपरा की हर अच्छी चीज को बुद्ध धर्म से ‘उधार’ लिया या ‘नकल’ बताते हैं, उन्होंने स्वयं बौद्ध ग्रंथों का शायद ही अध्ययन किया है। ऐसे लोगों को अपनी भ्रांति का सुधार करना चाहिए। 

साभार : शंकर शरण, दैनिक जागरण, २१/०५/२०१६ 

(लेखक शंकर शरण राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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