हिंदू आज भी दलगत राजनीति और सवर्ण अहंकार की चुनावी रणनीतियों में व्यस्त है। हिंदू समाज लगातार आश्वासनों, संकल्पों, आंदोलनों का ही शिकार होता रहा।
देश के विभिन्न हिस्सों में हिंदू समाज के अविभाज्य अंग अनुसूचित जातियों पर अत्याचार और कतिपय दलित वर्गों द्वारा इस्लाम स्वीकारने की चेतावनी के समाचार हिंदू संगठनों को चौंकाने और सचेत करने वाले होने चाहिए थे, किंतु अपने इतिहास से सबक न लेने वाला हिंदू आज भी दलगत राजनीति और सवर्ण अहंकार की चुनावी रणनीतियों में व्यस्त है। खंडित भारत को मिली आजादी में बहुसंख्य हिंदू के व्यापक हित तात्कालिक राजनीति के फायदे की धुंध में खो से गए हैं। इसके परिणामस्वरूप दलित मुस्लिम जनजातीय त्रिकोण के उभरने के साथ हिंदुओं पर छाने वाले खतरे आंखों से ओझल हो गए हैं। एक समय था जब तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में हिंदुओं के धर्मांतरण की घटना ने पूरे देश में आक्रोश को ज्वार पैदा कर दिया था और विराट हिंदू सम्मेलन की स्थापना हुई जिसकी वोट क्लब, नई दिल्ली में आयोजित विशाल सभा ने हिंदू जागरण का नया पर्व रचा था। कांग्रेस छोड़ वरिष्ठ नेता डा. कर्ण सिंह भी उस सम्मेलन का हिस्सा बने थे, लेकिन उसके बाद हिंदू समाज लगातार आश्वासनों, संकल्पों, आंदोलनों और राजनीतिक छल के भंवर का ही शिकार होता रहा। न तो मीनाक्षीपुरम ने और न ही अयोध्या आंदोलन ने हिंदुओं को किसी तार्किक परिणति तक पहुंचाया। राजनीतिक छल के सामने सामाजिक परिवर्तन की धारा चुनावी आवश्यकताओं के रेगिस्तान में सूखती रही। अनुसूचित जातियों के साथ भेदभाव हमारे मानस का हिस्सा बन गया है। न तो हम उनके साथ रोटी-बेटी का संबंध सहन करते हैं और न ही अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों का निर्वाह करने के लिए सचेष्ट दिखते हैं। दलित से ब्याह करने पर तो जान से मार दिया जाता है। हिंदुओं के बड़बोलेपन और पाखंड का तो यह हाल है कि कथित सवर्णों की सभा में वक्ताओं द्वारा सामाजिक समरसता और समानता पर वाणी-विलास किया जाता है। यही सवर्ण साथी सवर्णों को पुरस्कार देते हैं और घर आकर चैन से सोते हैं कि उन्होंने अपना कत्र्तव्य निभा दिया। दलितों के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और गायत्री परिवार जैसे संगठनों के अलावा जाता कौन है? उन्हें अपने समान हिंदू कौन मानता है? बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में समुद्री जहाजों, विमानों तक में करोड़पति भक्तों के सामने प्रभावशाली भगवद् भजन और प्रवचन करने वाले धनी हिंदू कथाकारों के एजेंडे में एक बार भी हिंदू समाज में समानता का प्रश्न शामिल हुआ क्या? क्या कभी किसी ने साधु-संन्यासी या राष्ट्रीय एकता के लिए भर-भर आंसू बहाने वालों को दलितों से सहानुभूति प्रकट करते हुए देखा है? जो पीडि़त-प्रताडि़त दलितों के पास जाते भी हैं वे आम तौर वही होते हैं जिनकी राष्ट्रीय सद्भाव या दलीय राजनीति से ऊपर उठकर हिंदू एकता में कोई दिलचस्पी नहीं होती। मूर्ति के विरोध में साधु और पंडित इकट्ठा हो सकते हैं, लेकिन क्या कभी उन्हें दलितों पर अत्याचार के विरूद्ध इकट्ठा होते देखा है? मंदिर के लिए आंदोलन होगा पर अपने ही समाज के मनुष्यों की रक्षा और हिंदू एकता के लिए सन्नाटा क्यों छाया रहता है?
अपने देश में दलितों के लिए अलग शमशान घाट तक विद्यमान हैं। उन्हें मंदिर में प्रवेश से अनेक क्षेत्रों में आज भी मनाही है। गांवों में उन्हें उन नलों से पानी नहीं लेने दिया जाता जहां कथित सवर्ण रहते हैं। उनकी बस्तियां गांव के बाहर बनाई जाती हैं। अनुसूचित जाति की महिला जैसे कर्नाटक की राधम्मा स्कूल में मध्याह्न भोजन की प्रभारी बन जाए तो बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। पढ़े लिखे हिंदू अपने ही हिंदू दलितों की जान लेने का प्रयास करते हैं, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती, क्योंकि कथित सवर्णों की दलितों के विरुद्ध राजनीतिक एकता हो जाती है। कोई इन जाति-अहंकार से ग्रस्त हिंदुओं से पूछे कि आखिर कब तक आप हिंदू दलितों पर पत्थर मारोगे? सिर्फ तब तक ही न जब तक वे स्वयं को हिंदू कहते हैं? उसके बाद? जब वे 'सिर्फ सवर्णों के लिए' मंदिर के सामने मस्जिद या चर्च बनाएंगे तब तुम उनका क्या बिगाड़ लोगे? और ये महान कथाकार साधु और जाति-रक्षक नेता भूल जाते हैं कि कभी कराची, रावलपिंडी और लाहौर में भी इनके बड़े-बड़े आश्रम सजा करते थे। तब भी उन्होंने हिंदू समाज की एकता पर ध्यान नहीं दिया, फलत: वहां न मंदिर रहे, न आश्रम और न ही धन विलास में डूबे प्रवचनकार। अगर हिंदू समाज ने अपने धर्म के वास्तविक रक्षक दलितों को समानता का अधिकार नहीं दिया तो उनका खोखला, धर्म-विलास बाकी जगहों पर भी अर्थहीन, धर्महीन और प्रभावहीन होने में देर नहीं लगेगी। कुछ समय पहले उत्तराखंड में जब हम अपने कुछ दलित साथियों के साथ मंदिर प्रवेश के लिए गए तो हमें कल्पना भी नहीं थी कि पढ़े लिखे हिंदू मंदिर के प्रांगण में ही हम पर हमला बोल देंगे। हमें एक गाड़ी में जान बचाकर वहां से निकलना पड़ा तो चालक ने भी डर कर रास्ते में उतार दिया। खून से सने, सिर पत्थरों के प्रहार से घायल हम लोगों को एक अनपढ़ पीडब्लूडी के मजदूर उमर ने शरण दी, अपनी कुटिया में छिपाया, क्योंकि पीछे से गाडिय़ों में सवर्ण लड़के हमें मारने आ रहे थे। उस मुसलमान ने हमें अपनी चादर दी, चाय दी और मोबाइल दिया, जिससे मैंने जिलाधिकारी और राज्यपाल से सहायता की गुहार की। एम्बुलेंस तक को सवर्णों ने हम तक पहुंचने से रोका और जब तीन घंटे बाद डीएम और एसपी आए तब जाकर हम अस्पताल पहुंचाए गए। बाद में ऐसे लेखक-चिंतक दिखे जिन्होंने पत्थरबाजों का समर्थन किया और दलितों को ही 'उकसाने' का अपराधी बना कर उन पर पुलिस रपट की। यह है आज के हिंदू समाज का प्रगतिशील रूप?
एक समय था जब तथाकथित सवर्ण हिंदू जातियों के महानायकों ने जाति प्रथा के कलंक से समाज को मुक्त कराने के प्रयास किए। महामना मदन मोहन मालवीय, वीर सावरकर, बाला साहब देवरस जैसे लोग ब्राह्मण ही थे, लेकिन वे अनुसूचित जातियों के प्रति समानता और समता का व्यवहार चाहते थे। वे मंदिर प्रवेश से दलितों को रोकने की कोशिशों के विरोधी थे। आज दलितों को सिर्फ वोट बैंक का खिलौना बनाया जा रहा है। इसे दलित भी समझते हैं और इसीलिए वे कहते हैं कि आप हमें मंदिर प्रवेश दिलवा भी दोगे तो क्या एहसान करोगे? जो हिंदू अपने भगवान और यमराज को भी जाति में बांटता है उस हिंदू के मंदिर में जाने का सुख क्या होगा? यह स्थिति हिंदू समाज के लिए बहुत खतरनाक है। सभी राजनीतिक दलों में हिंदू हैं। क्या यह आशा की जा सकती है कि हिंदू समाज के भविष्य के लिए वे सब राजनीतिक लाभ-अलाभ छोड़कर एकजुटता के साथ अनुसूचित जातियों पर हो रहे अन्याय को समाप्त करने की पहल करेंगे और जिस धर्म ने वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश दिया उसे अपने ही देश में क्षतिग्रस्त होने से बचाएंगे?
साभार: श्री तरुण विजय
[ लेखक तरुण विजय, राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]
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