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Thursday, June 8, 2017

हिन्दू शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई

हिन्दू शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई।*


कुछ लोग कहते हैं की हिन्दू शब्द फारसियों की देन है । क्यूंकि इसका उल्लेख वेद पुराणों में नहीं है।
मेरे सनातनी हिन्दू भाईयों, इन जैसे लोगों का मुंह बंद करने के लिये आपके सन्मुख हजारों वर्ष पूर्व लिखे गये सनातन शास्त्रों में लिखित चंद श्लोक (अर्थ सहित) प्रमाणिकता सहित बता रहा हूँ । आप सब सेव करके रख लें, और मुझसे या आप से यह सवाल करने वाले को मेरा जवाब भी देख लें !

*1-ऋग्वेद के ब्रहस्पति अग्यम में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार आया है......!*
*"हिमलयं समारभ्य यावत इन्दुसरोवरं ।*
*तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते ।।*
*(अर्थात हिमालय से इंदु सरोवर तक देव निर्मित देश को हिंदुस्थान कहते हैं)*
*2- सिर्फ वेद ही नहीं.... बल्कि.. मेरूतंत्र ( शैव ग्रन्थ ) में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार किया गया है.....*
*"हीनं च दूष्यतेव् हिन्दुरित्युच्च ते प्रिये ।"*
*(अर्थात... जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं)*
*3- और इससे मिलता जुलता लगभग यही यही श्लोक कल्पद्रुम में भी दोहराया गया है....!*
*"हीनं दुष्यति इति हिन्दू ।"*
*(अर्थात जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते है )*
*4- पारिजात हरण में हिन्दू को कुछ इस प्रकार कहा गया है....!*
*"हिनस्ति तपसा पापां दैहिकां दुष्टं । हेतिभिः श्त्रुवर्गं च स हिन्दुर्भिधियते ।।"*
*(अर्थात जो अपने तप से शत्रुओं का दुष्टों का और पाप का नाश कर देता है, वही हिन्दू है )*
*5- माधव दिग्विजय में भी हिन्दू शब्द को कुछ इस प्रकार उल्लेखित किया गया है....!*
*"ओंकारमन्त्रमूलाढ्य पुनर्जन्म द्रढ़ाश्य: ।*
*गौभक्तो भारतगरुर्हिन्दुर्हिंसन दूषकः ।।*
*(अर्थात.... वो जो ओमकार को ईश्वरीय धुन माने, कर्मों पर विश्वास करे, सदैव गौपालक रहे तथा बुराईयों को दूर रखे, वो हिन्दू है )।*
*6- केवल इतना ही नहीं हमारे ऋगवेद ( ८:२:४१ ) में विव हिन्दू नाम के बहुत ही पराक्रमी और दानी राजा का वर्णन मिलता है । जिन्होंने 46000 गौमाता दान में दी थी.... और ऋग्वेद मंडल में भी उनका वर्णन मिलता है ।*
*7- ऋग वेद में एक ऋषि का उल्लेख मिलता है जिनका नाम सैन्धव था । जो मध्यकाल में आगे चलकर "हैन्दव/हिन्दव" नाम से प्रचलित हुए, जिसका बाद में अपभ्रंश होकर हिन्दू बन गया...!!*
*8- इसके अतिरिक्त भी कई स्थानों में हिन्दू शब्द उल्लेखित है....।।*
*इसलिये गर्व से कहो, हाँ हम हिंदू थे, हिन्दू हैं और सदैव सनातनी हिन्दू ही रहेंगे ॥*
हिन्दू🚩
साभार: WEB, FACEBOOK 

Saturday, April 22, 2017

महान हिन्दू योद्धा पेशवा बाजीराव का वो सच, जो फिल्म में दिखाने से चूक गए भंसाली



जब संजय लीला भंसाली ने बाजीराव मस्तानी नाम की फिल्म बनाने का ऐलान किया था, तो लग रहा था कि शायद अब तक हिंदुस्तान के इतिहासकारों ने मराठा इतिहास के सबसे बड़े नायक के साथ जो अन्याय किया है, वो कुछ हद तक दूर होगा। शिवाजी ने एक सपने की नींव रखी थी, लेकिन उस सपने को पूरा किया था बाजीराव बल्लाल भट्ट यानी पेशवा बाजीराव प्रथम ने। कितने आम लोग उसे जानते थे? संजय लीला भंसाली ने एक तरह से इतिहास पर एक उपकार किया है। मराठा और हिंदुस्तानी इतिहास के साथ न्याय किया है, लेकिन ये न्याय अब भी अधूरा है।

भंसाली की मजबूरियां थीं कि फिल्म को हिंदू-मुस्लिम दोनों तरह के दर्शकों की कसौटी पर खरा उतारते हुए उसका रोमांटिक चरित्र ही बनाए रखना था। सवाल है कि क्या था शिवाजी का वो सपना, जिसे बाजीराव बल्लाल भट्ट ने पूरा कर दिखाया? दरअसल जब औरंगजेब के दरबार में अपमानित हुए वीर शिवाजी आगरा में उसकी कैद से बचकर भागे थे तो उन्होंने एक ही सपना देखा था, पूरे मुगल साम्राज्य को कदमों पर झुकाने का। मराठा ताकत का अहसास पूरे हिंदुस्तान को करवाने का। अटक से कटक तक केसरिया लहराने का और हिंदू स्वराज लाने का। इस सपने को किसने पूरा किया? पेशवाओं ने, खासकर पेशवा बाजीराव प्रथम ने। उन्नीस-बीस साल के उस युवा ने तीन दिन तक दिल्ली को बंधक बनाकर रखा। मुगल बादशाह की लाल किले से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई। यहां तक कि 12वां मुगल बादशाह और औरंगजेब का नाती दिल्ली से बाहर भागने ही वाला था कि बाजीराव मुगलों को अपनी ताकत दिखाकर वापस लौट गया। नहीं दिखाया भंसाली ने ये सब, जबकि उनके हर तीसरे सीन में बाजीराव ये कहता दिखाया गया कि दिल्ली को तो हम कभी भी झुका देंगे। लगा था कि भंसाली मराठा साम्राज्य का वो सपना पूरा होता हुआ परदे पर दिखाएंगे, लेकिन वो चूक गए।


आगे की पीढ़ियां बाजीराव को जानेंगी, भंसाली को इसका क्रेडिट मिलना चाहिए, लेकिन एक रोमांटिक हीरो की तरह जानेंगी, एक ऐसे योद्धा की तरह जानेंगी, जिसने कट्टर ब्राह्मणों से टक्कर लेकर भी अपनी मुस्लिम बीवी को बनाए रखा। बेटे का संस्कार ना करने पर उसका नाम बदलकर गुस्से में कृष्णा से शमशेर बहादुर कर दिया, इसलिए जानेंगी। जोधा अकबर की तरह बाजीराव मस्तानी को भी जाना जाएगा। लेकिन क्या वो ये जानेंगी कि हिंदुस्तान के इतिहास का बाजीराव अकेला ऐसा योद्धा था, जिसने 41 लड़ाइयां लड़ीं और एक भी नहीं हारी, जबकि शिवाजी का भी रिकॉर्ड ऐसा नहीं है। वर्ल्ड वॉर सेकंड में ब्रिटिश आर्मी के कमांडर रहे मशहूर सेनापति जनरल मांटगोमरी ने भी अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ वॉरफेयर’ में बाजीराव की बिजली की गति से तेज आक्रमण शैली की जमकर तारीफ की है और लिखा है कि बाजीराव कभी हारा नहीं। आज वो किताब ब्रिटेन में डिफेंस स्टडीज के कोर्स में पढ़ाई जाती है। बाद में यही आक्रमण शैली सेकंड वर्ल्ड वॉर में अपनाई गई, जिसे ‘ब्लिट्जक्रिग’ बोला गया। निजाम पर आक्रमण के एक सीन में भंसाली ने उसे दिखाने की कोशिश भी की है।

बाजीराव पहला ऐसा योद्धा था, जिसके समय में 70 से 80 फीसदी भारत पर उसका सिक्का चलता था। वो अकेला ऐसा राजा था जिसने मुगल ताकत को दिल्ली और उसके आसपास तक समेट दिया था। पूना शहर को कस्बे से महानगर में तब्दील करने वाला बाजीराव बल्लाल भट्ट था, सतारा से लाकर कई अमीर परिवार वहां बसाए गए। निजाम, बंगश से लेकर मुगलों और पुर्तगालियों तक को कई कई बार शिकस्त देने वाली अकेली ताकत थी बाजीराव की। शिवाजी के नाती शाहूजी महाराज को गद्दी पर बैठाकर बिना उसे चुनौती दिए, पूरे देश में उनकी ताकत का लोहा मनवाया था बाजीराव ने। आज भले ही नई पीढ़ी के सामने उसे भंसाली की फिल्म के जरिए हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल के तौर पर पेश किया गया हो, लेकिन ये कौन बताएगा कि देश में पहली बार हिंदू पद पादशाही का सिद्धांत भी बाजीराव प्रथम ने दिया था। हर हिंदू राजा के लिए आधी रात मदद करने को तैयार था वो, पूरे देश का बादशाह एक हिंदू हो, उसके जीवन का लक्ष्य ये था, लेकिन जनता किसी भी धर्म को मानती हो उसके साथ वो न्याय करता था। उसकी अपनी फौज में कई अहम पदों पर मुस्लिम सिपहसालार थे, लेकिन वो युद्ध से पहले हर हर महादेव का नारा भी लगाना नहीं भूलता था। उसे टैलेंट की इस कदर पहचान थी कि उसके सिपहसालार बाद में मराठा इतिहास की बड़ी ताकत के तौर पर उभरे। होल्कर, सिंधिया, पवार, शिंदे, गायकवाड़ जैसी ताकतें जो बाद में अस्तित्व में आईं, वो सब पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट की देन थीं।


ग्वालियर, इंदौर, पूना और बड़ौदा जैसी ताकतवर रियासतें बाजीराव के चलते ही अस्तित्व में आईं। बुंदेलखंड की रियासत बाजीराव के दम पर जिंदा थी, छत्रसाल की मौत के बाद उसका तिहाई हिस्सा भी बाजीराव को मिला। कभी वाराणसी जाएंगे तो उसके नाम का एक घाट पाएंगे, जो खुद बाजीराव ने 1735 में बनवाया था, दिल्ली के बिरला मंदिर में जाएंगे तो उसकी एक मूर्ति पाएंगे। कच्छ में जाएंगे तो उसका बनाया आइना महल पाएंगे, पूना में मस्तानी महल और शनिवार बाड़ा पाएंगे। अकबर की तरह उसको वक्त नहीं मिला, कम उम्र में चल बसा, नहीं तो भव्य इमारतें बनाने का उसको भी शौक था, शायद तभी आज की पीढ़ी उसको याद नहीं करती। नहीं तो अकबर के अलावा कोई और मुगल बादशाह नहीं था, जिससे उनकी तुलना बतौर योद्धा, न्यायप्रिय राजा और बेहतर प्रशासक के तौर पर की जा सके।

दिल्ली पर आक्रमण उसका सबसे बड़ा साहसिक कदम था, वो अक्सर शिवाजी के नाती छत्रपति शाहू से कहता था कि मुगल साम्राज्य की जड़ों यानी दिल्ली पर आक्रमण किए बिना मराठों की ताकत को बुलंदी पर पहुंचाना मुमकिन नहीं, और दिल्ली को तो मैं कभी भी कदमों पर झुका दूंगा। छत्रपति शाहू सात साल की उम्र से 25 साल की उम्र तक मुगलों की कैद में रहे थे, वो मुगलों की ताकत को बखूबी जानते थे, लेकिन बाजीराव का जोश उस पर भारी पड़ जाता था। धीरे धीरे उसने महाराष्ट्र को ही नहीं पूरे पश्चिम भारत को मुगल आधिपत्य से मुक्त कर दिया। फिर उसने दक्कन का रुख किया, निजाम जो मुगल बादशाह से बगावत कर चुका था, एक बड़ी ताकत था। कम सेना होने के बावजूद बाजीराव ने उसे कई युद्धों में हराया और कई शर्तें थोपने के साथ उसे अपने प्रभाव में लिया।

इधर उसने बुंदेलखंड में मुगल सिपाहसालार मोहम्मद बंगश को हराया। मुगल असहाय थे, कई बार पेशवा से मात खा चुके थे, पेशवा का हौसला इससे बढ़ता गया। 1728 से 1735 के बीच पेशवा ने कई जंगें लड़ीं, पूरा मालवा और गुजरात उसके कब्जे में आ गया। बंगश, निजाम जैसे कई बड़े सिपहसालार पस्त हो चुके थे।

इधर दिल्ली का दरबार ताकतवर सैयद बंधुओं को ठिकाने लगा चुका था, निजाम पहले ही विद्रोही हो चुका था। उस पर औरंगजेब के वंशज और 12 वें मुगल बादशाह मोहम्मद शाह को रंगीला कहा जाता था, जो कवियों जैसी तबियत का था। जंग लड़ने की उसकी आदत में जंग लगा हुआ था। कई मुगल सिपाहसालार विद्रोह कर रहे थे। उसने बंगश को हटाकर जय सिंह को भेजा, जिसने बाजीराव से हारने के बाद उसको मालवा से चौथ वसूलने का अधिकार दिलवा दिया। मुगल बादशाह ने बाजीराव को डिप्टी गर्वनर भी बनवा दिया। लेकिन बाजीराव का बचपन का सपना मुगल बादशाह को अपनी ताकत का परिचय करवाने का था, वो एक प्रांत का डिप्टी गर्वनर बनके या बंगश और निजाम जैसे सिपहासालारों को हराने से कैसे पूरा होता।

उसने 12 नवंबर 1736 को पुणे से दिल्ली मार्च शुरू किया। मुगल बादशाह ने आगरा के गर्वनर सादात खां को उससे निपटने का जिम्मा सौंपा। मल्हार राव होल्कर और पिलाजी जाधव की सेना यमुना पार कर के दोआब में आ गई। मराठों से खौफ में था सादात खां, उसने डेढ़ लाख की सेना जुटा ली। मराठों के पास तो कभी भी एक मोर्चे पर इतनी सेना नहीं रही थी। लेकिन उनकी रणनीति बहुत दिलचस्प थी। इधर मल्हार राव होल्कर ने रणनीति पर अमल किया और मैदान छोड़ दिया। सादात खां ने डींगें मारते हुआ अपनी जीत का सारा विवरण मुगल बादशाह को पहुंचा दिया और खुद मथुरा की तरफ चला आया।


बाजीराव को पता था कि इतिहास क्या लिखेगा उसके बारे में। उसने सादात खां और मुगल दरबार को सबक सिखाने की सोची। उस वक्त देश में कोई भी ऐसी ताकत नहीं थी, जो सीधे दिल्ली पर आक्रमण करने का ख्वाब भी दिल में ला सके। मुगलों का और खासकर दिल्ली दरबार का खौफ सबके सिर चढ़ कर बोलता था। लेकिन बाजीराव को पता था कि ये खौफ तभी हटेगा जब मुगलों की जड़ यानी दिल्ली पर हमला होगा। सारी मुगल सेना आगरा मथुरा में अटक गई और बाजीराव दिल्ली तक चढ़ आया, आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया। दस दिन की दूरी बाजीराव ने केवल पांच सौ घोड़ों के साथ 48 घंटे में पूरी की, बिना रुके, बिना थके। देश के इतिहास में ये अब तक दो आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं, एक अकबर का फतेहपुर से गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए नौ दिन के अंदर वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा बाजीराव का दिल्ली पर हमला।

बाजीराव ने तालकटोरा में अपनी सेना का कैंप डाल दिया, केवल पांच सौ घोड़े थे उसके पास। मुगल बादशाह मौहम्मद शाह रंगीला बाजीराव को लाल किले के इतना करीब देखकर घबरा गया। उसने खुद को लाल किले के सुरक्षित इलाके में कैद कर लिया और मीर हसन कोका की अगुआई में आठ से दस हजार सैनिकों की टोली बाजीराव से निपटने के लिए भेजी। बाजीराव के पांच सौ लड़ाकों ने उस सेना को बुरी तरह शिकस्त दी। ये 28 मार्च 1737 का दिन था, मराठा ताकत के लिए सबसे बड़ा दिन। कितना आसान था बाजीराव के लिए, लाल किले में घुसकर दिल्ली पर कब्जा कर लेना। लेकिन बाजीराव की जान तो पुणे में बसती थी, महाराष्ट्र में बसती थी।

वो तीन दिन तक वहीं रुका, एक बार तो मुगल बादशाह ने योजना बना ली कि लाल किले के गुप्त रास्ते से भागकर अवध चला जाए। लेकिन बाजीराव बस मुगलों को अपनी ताकत का अहसास दिलाना चाहता था। वो तीन दिन तक वहीं डेरा डाले रहा, पूरी दिल्ली एक तरह से मराठों के रहमोकरम पर थी। उसके बाद बाजीराव वापस लौट गया। बुरी तरह बेइज्जत हुआ मुगल बादशाह रंगीला ने निजाम से मदद मांगी, वो पुराना मुगल वफादार था, मुगल हुकूमत की इज्जत को बिखरते नहीं देख पाया। वो दक्कन से निकल पड़ा। इधर से बाजीराव और उधर से निजाम दोनों एमपी के सिरोंजी में मिले। लेकिन कई बार बाजीराव से पिट चुके निजाम ने उसको केवल इतना बताया कि वो मुगल बादशाह से मिलने जा रहा है।

निजाम दिल्ली आया, कई मुगल सिपहसालारों ने हाथ मिलाया और बाजीराव को बेइज्जती करने का दंड देने का संकल्प लिया और कूच कर दिया। लेकिन बाजीराव बल्लाल भट्ट से बड़ा कोई दूरदर्शी योद्धा उस काल खंड में पैदा नहीं हुआ था। ये बात साबित भी हुई, बाजीराव खतरा भांप चुका था। अपने भाई चिमना जी अप्पा के साथ दस हजार सैनिकों को दक्कन की सुरक्षा का भार देकर वो अस्सी हजार सैनिकों के साथ फिर दिल्ली की तरफ निकल पड़ा। इस बार मुगलों को निर्णायक युद्ध में हराने का इरादा था, ताकि फिर सिर ना उठा सकें।

दिल्ली से निजाम के अगुआई में मुगलों की विशाल सेना और दक्कन से बाजीराव की अगुआई में मराठा सेना निकल पड़ी। दोनों सेनाएं भोपाल में मिलीं, 24 दिसंबर 1737 का दिन मराठा सेना ने मुगलों को जबरदस्त तरीके से हराया। निजाम की समस्या ये थी कि वो अपनी जान बचाने के चक्कर में जल्द संधि करने के लिए तैयार हो जाता था। इस बार 7 जनवरी 1738 को ये संधि दोराहा में हुई। मालवा मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने पचास लाख रुपये बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे। चूंकि निजाम हर बार संधि तोड़ता था, सो बाजीराव ने इस बार निजाम को मजबूर किया कि वो कुरान की कसम खाकर संधि की शर्तें दोहराए।

ये मुगलों की अब तक की सबसे बड़ी हार थी और मराठों की सबसे बड़ी जीत। पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट यहीं नहीं रुका, अगला अभियान उसका पुर्तगालियों के खिलाफ था। कई युद्दों में उन्हें हराकर उनको अपनी सत्ता मानने पर उसने मजबूर किया। अगर पेशवा कम उम्र में ना चल बसता, तो ना अहमद शाह अब्दाली या नादिर शाह हावी हो पाते और ना ही अंग्रेज और पुर्तगालियों जैसी पश्चिमी ताकतें। बाजीराव का केवल चालीस साल की उम्र में इस दुनिया से चले जाना मराठों के लिए ही नहीं देश की बाकी पीढ़ियों के लिए भी दर्दनाक भविष्य लेकर आया। अगले दो सौ साल गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहा भारत और कोई भी ऐसा योद्धा नहीं हुआ, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध पाता। आज की पीढ़ी को बाजीराव बल्लाल भट्ट की जिंदगी का ये पहलू भी जानने की जरूरत है।
साभार: News18 India


Sunday, March 26, 2017

प्राचीन भारत के 5 महान ‘बाहुबली’ जो आज के ‘बाहुबली’ से भी बहुत बलवान

इस संसार में भारत ही एक ऐसा देश है जहां से ज्ञान का उद्गम हुआ है, इस ज्ञान के स्रोत भारत में हर प्रकार का विज्ञान भी है। बाहुबली लोग भी विज्ञान से ही बाहुबली बनते हैं और हमारे भारतवर्ष में पहले देव, असुर, गंधर्व, किन्नर, यक्ष, मानव, नाग आदि जातियां निवास करती थीं। भारत के पूर्वी भाग में किरात (चीनी) और पश्चिमी भाग में यवन (अरबी) बसे हुए थे। उस काल में एक से बढ़कर एक बाहुबली होते थे, लेकिन हम उन असुरों की बात नहीं कर रहे जो अपनी मायावी शक्ति के बल पर कुछ भी कर सकते थे हम बात कर रहे हैं ऐसे लोगों की जिनकी भुजाओं में अपार बल था।


बाहुबली का अर्थ होता है जिसकी भुजाओं में अपार बल है। दुनिया में आज भी ऐसे कई व्यक्ति है जिनकी भुजाओं में इतना बल है जितना कि किसी सामान्य इंसान या किसी कसरत करने वाले ताकतवर व्यक्ति की भुजाओं में भी नहीं होगा।

हम महाबली शेरा, महाबली खली, महाबली सतपाल या दारासिंह की बात नहीं कर रहे हैं। हम आपको बताएंगे भारत के प्राचीनकाल में ऐसे कौन-कौन से व्यक्ति थे जिनकी भुजाओं में आम इंसान की अपेक्षा ज्यादा बल था।

श्रीरामदूत हनुमानजी के बारे में क्या कहें? उनके पराक्रम और बाहुबल के बारे में रामायण सहित दुनिया के हजारों ग्रंथों में लिखा हुआ है। केसरीनंदन पवनपुत्र श्रीहनुमानजी को भगवान शंकर का अंशशवतार माना जाता है।

कुंति पुत्र भीम : पांडु के पांच में से दूसरे पुत्र का नाम भीम था जिन्हें भीमसेन भी कहते थे। कहते हैं कि भीम में दस हजार हाथियों का बल था और वह गदा युद्ध में पारंगत था। एक बार उन्होंने अपनी भुजाओं से नर्मदा का प्रवाह रोक दिया था। लेकिन वे हनुमानजी की पूंछ को नहीं उठा पाए थे।


यह सभी जानते हैं कि गांधारी का बड़ा पु‍त्र दुर्योधन और गांधारी का भाई शकुनि, कुंती के पुत्रों को मारने के लिए नई-नई योजनाएं बनाते थे। कहते हैं कि इसी योजना के तहत एक बार दुष्ट दुर्योधन ने धोखे से भीम को विष पिलाकर उसे गंगा नदी में फेंक दिया। मूर्छित अवस्था में भीम बहते हुए नागों के लोक पहुंच गए। वहां विषैले नागों ने उन्हें खूब डंसा जिससे भीम के शरीर का जहर कम होने लगा यानी जहर से जहर की काट होने लगी।

जब भीम की मूर्छा टूटी, तब उन्होंने नागों को मारना शुरू कर दिया। यह खबर नागराज वासुकि के पास पहुंची, तब वे स्वयं भीम के पास आए। वासुकि के साथी आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना के नाना थे। भीम ने उन्हें अपने गंगा में धोखे से बहा देने का किस्सा सुनाया। यह सुनकर आर्यक नाग ने भीम को हजारों हाथियों का बल प्रदान करने वाले कुंडों का रस पिलाया जिससे भीम और भी शक्तिशाली हो गए।

महाबली बली : महाबली बली या बाली अजर-अमर है। कहते हैं कि वो आज भी धरती पर रहकर देवताओं के विरुद्ध कार्य में लिप्त है। पहले उसका स्थान दक्षिण भारत के महाबलीपुरम में था लेकिन मान्यता अनुसार अब मरुभूमि अरब में है जिसे प्राचीनकाल में पाताल लोक कहा जाता था। अहिरावण भी ‍वहीं रहता था। समुद्र मंथन में उसे घोड़ा प्राप्त हुआ था जबकि इंद्र को हाथी। उल्लेखनीय है कि अरब में घोड़ों की तादाद ज्यादा थी और भारत में हाथियों की।


शिवभक्त असुरों के राजा बाली की चर्चा पुराणों में बहुत होती है। वह अपार शक्तियों का स्वामी लेकिन धर्मात्मा था। वह मानता था कि देवताओं और विष्णु ने उसके साथ छल किया। हालांकि बाली विष्णु का भी भक्त था। भगवान विष्णु ने उसे अजर-अमर होने का वरदान दिया था।

वानर राज बालि : वानर राज बालि किष्किंधा का राजा और सुग्रीव का बड़ा भाई था। बालि का विवाह वानर वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा के साथ संपन्न हुआ था। तारा एक अप्सरा थी। बालि को तारा किस्मत से ही मिली थी। बालि के आगे रावण की एक नहीं चली थी, तब रावण ने क्या किया था यह अगले पन्ने पर पढ़ें।


रामायण के अनुसार बालि को उसके धर्मपिता इन्द्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ था। इस हार की शक्ति अजीब थी। इस हार को ब्रह्मा ने मंत्रयुक्त करके यह वरदान दिया था कि इसको पहनकर बालि जब भी रणभूमि में अपने दुश्मन का सामना करेगा तो उसके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और यह आधी शक्ति बालि को प्राप्त हो जाएगी। इस कारण से बालि बाहुबली बाहुबली बनकर लगभग अजेय था।

अत्यधिक ताकतवर होने के बावजूद जब रावण पाताल लोक के राजा बालि के साथ युद्ध करने गया तो राजा बालि के भवन में खेल रहे बच्चों ने ही उसे पकड़कर अस्तबल में घोड़ों के साथ बांध दिया था। बड़ी मुश्किल से उनसे छुटकर जब वह संध्यावंदन कर रहे बालि की ओर बढ़ा तो बालि के मंत्री ने उसको बहुत समझाया कि आप उन्हें संध्यावंदन कर लेने दें अन्यथा आप मुसीबत में पड़ जाएंगे, लेकिन रावण नहीं माना।

रावण संध्या में लीन बालि को पीछे से जाकर उसको पकड़ने की इच्छा से धीरे-धीरे आगे बढ़ा। बालि ने उसे देख लिया था किंतु उसने ऐसा नहीं जताया तथा संध्यावंदन करता रहा। रावण की पदचाप से जब उसने जान लिया कि वह निकट है तो तुरंत उसने रावण को पकड़कर बगल में दबा लिया और आकाश में उड़ने लगा। राजा बालि ने रावण को अपनी बाजू में दबाकर 4 समुद्रों की परिक्रमा की।

बारी-बारी में उसने सब समुद्रों के किनारे संध्या की। राक्षसों ने भी उसका पीछा किया। रावण ने स्थान-स्थान पर नोचा और काटा किंतु बालि ने उसे नहीं छोड़ा। संध्या समाप्त करके किष्किंधा के उपवन में उसने रावण को छोड़ा तथा उसके आने का प्रयोजन पूछा। रावण बहुत थक गया था किंतु उसे उठाने वाला बालि तनिक भी शिथिल नहीं था। रावण समझ गया था कि बालि से लड़ना उसके बस की बात नहीं है तो उससे प्रभावित होकर रावण ने अग्नि कोसाक्षी बनाकर उससे मित्रता कर ली।

भगवान बाहुबली : जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के दो पुत्र भरत और बाहुबली थे। भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारत रखा गया था। ऋषभदेव के जंगल चले जाने के बाद राज्याधिकार के लिए बाहुबली और भरत में युद्ध हुआ। बाहुबली ने युद्ध में भरत को परास्त कर दिया।


लेकिन इस घटना के बाद उनके मन में भी विरक्ति भाव जाग्रत हुआ और उन्होंने भरत को राजपाट ले लेने को कहा, तब वे खुद घोर तपश्चरण में लीन हो गए। तपस्या के पश्चात उनको केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। भरत ने बाहुबली के सम्मान में पोदनपुर में 525 धनुष की बाहुबली की मूर्ति प्रतिष्ठित की। प्रथम सबसे विशाल प्रतिमा का यह उल्लेख है।

भारतीय राज्य कर्नाटक के मड्या जिले में श्रवणबेलगोला के गोम्मटेश्वर स्थान पर स्थित महाबली बाहुबली की विशालकाय प्रतीमा जिसे देखने के लिए विश्‍व के कोने-कोने से लोग आते हैं। बाहुबली की विशालकाय प्रतिमा पूर्णत: एक ही पत्थर से निर्मित है। इस मूर्ति को बनाने में मूर्तिकार को लगभग 12 वर्ष लगे। बाहुबली को गोमटेश्वर भी कहा जाता था।

साभार – बेवदुनिया

Monday, February 20, 2017

क्यों पूजा जाता है शिव को ही लिंग रूप में


शिव पुराण अनुसार शिवलिंग की पूजा करके जो भक्त भगवान शिव को प्रसन्न करना चाहते हैं उन्हें प्रातः काल से लेकर दोपहर से पहले ही इनकी पूजा कर लेनी चाहिए

वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। यही सबका आधार है। बिंदु एवं नाद अर्थात शक्ति और शिव का संयुक्त रूप ही तो शिवलिंग में अवस्थित है। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना की जाती है।

ब्रह्मांड का प्रतीक ज्योतिर्लिंग :

शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा की तरह है। यह शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड में घूम रहे पिंडों का प्रतीक है। शिवलिंग का अर्थ है भगवान शिव का आदि-अनादी स्वरूप। शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्दपुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है। वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनन्त ब्रह्माण्ड (ब्रह्माण्ड गतिमान है) का अक्स/धुरी ही लिंग है। पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है जैसे- प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, उर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ लिंग आदि। लेकिन बौद्धकाल में धर्म और धर्मग्रंथों के बिगाड़ के चलते लिंग को गलत अर्थों में लिया जाने लगा जो कि आज तक प्रचलन में है।


ज्योतिर्लिंग :

ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में पुराणों में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं। वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के 12 खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।

आसमानी पत्थर :

ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार विक्रम संवत के कुछ सहस्राब्दी पूर्व संपूर्ण धरती पर उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदिमानव को यह रुद्र (शिव) का आविर्भाव दिखा। जहां-जहां ये पिंड गिरे, वहां-वहां इन पवित्र पिंडों की सुरक्षा के लिए मंदिर बना दिए गए। इस तरह धरती पर हजारों शिव मंदिरों का निर्माण हो गया। उनमें से प्रमुख थे 108 ज्योतिर्लिंग।


शिव पुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेक उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। कहते हैं कि मक्का का संग-ए-असवद भी आकाश से गिरा था। हजारों पिंडों में से प्रमुख 12 पिंड को ही ज्योतिर्लिंग में शामिल किया गया। हालांकि कुछ ऐसे भी ज्योतिर्लिंग हैं जिनका निर्माण स्वयं भगवान ने किया।

गौरतलब है कि हिन्दू धर्म में मूर्ति की पूजा नहीं होती, लेकिन शिवलिंग और शालिग्राम को भगवान का विग्रह रूप माना जाता है और पुराणों के अनुसार भगवान के इस विग्रह रूप की ही पूजा की जानी चाहिए। शिवलिंग जहां भगवान शंकर का प्रतीक है तो शालिग्राम भगवान विष्णु का।

शिव को ही लिंग रूप में क्यों पूजा जाता

शिव ब्रह्मरूप होने के कारण निष्कल अर्थात निराकार हैं । उनका न कोई स्वरूप है और न ही आकार वे निराकार हैं । आदि और अंत न होने से लिंग को शिव का निराकार रूप माना जाता है । जबकि उनके साकार रूप में उन्हे भगवान शंकर मानकर पूजा जाता है ।

केवल शिव ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते हैं । लिंग रूप में समस्त ब्रह्मांड का पूजन हो जाता है क्योंकि वे ही समस्त जगत के मूल कारण माने गए हैं । इसलिए शिव मूर्ति और लिंग दोनों रूपों में पूजे जाते हैं । यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है । बिंदु शक्ति है और नाद शिव । यही सबका आधार है । बिंदु एवं नाद अर्थात शक्ति और शिव का संयुक्त रूप ही तो शिवलिंग में अवस्थित है । बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि । यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है ।’शिव’ का अर्थ है – ‘परम कल्याणकारी’ और ‘लिंग’ का अर्थ है – ‘सृजन’ । शिव के वास्तविक स्वरूप से अवगत होकर जाग्रत शिवलिंग का अर्थ होता है प्रमाण ।


वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है । यह सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से बना होता है । मन ,बुद्धि ,पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां व पांच वायु ।

पौराणिक दृष्टि से लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और ऊपर प्रणवाख्य महादेव स्थित हैं । केवल लिंग की पूजा करने मात्र से समस्त देवी देवताओं की पूजा हो जाती है । लिंग पूजन परमात्मा के प्रमाण स्वरूप सूक्ष्म शरीर का पूजन है । शिव और शक्ति का पूर्ण स्वरूप है शिवलिंग ।शिव के निराकार स्वरूप में ध्यान-मग्न आत्मा सद्गति को प्राप्त होती है, उसे परब्रह्म की प्राप्ति होती है तात्पर्य यह है कि हमारी आत्मा का मिलन परमात्मा के साथ कराने का माध्यम-स्वरूप है,शिवलिंग । शिवलिंग साकार एवं निराकार ईश्वर का ‘प्रतीक’ मात्र है, जो परमात्मा- आत्म-लिंग का द्योतक है । शिवलिंग का अर्थ है शिव का आदि-अनादी स्वरूप । शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड व निराकार परमपुरुष का प्रतीक । स्कन्दपुराण अनुसार आकाश स्वयं लिंग है । धरती उसका आधार है व सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है । शिवलिंग हमें बताता है कि संसार मात्र पौरुष व प्रकृति का वर्चस्व है तथा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । शिव पुराण अनुसार शिवलिंग की पूजा करके जो भक्त भगवान शिव को प्रसन्न करना चाहते हैं उन्हें प्रातः काल से लेकर दोपहर से पहले ही इनकी पूजा कर लेनी चाहिए । इसकी पूजा से मनुष्य को भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

साभार: प्रीती झा, दैनिक जागरण