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Wednesday, May 23, 2012

सम्राट विक्रमादित्य का साम्राज्य अरब तक था.



शकों को भारत से खदेड़ने के बाद सम्राट विक्रमादित्य ने पुरे भारतवर्ष में ही नही , बल्कि लगभग पूरे विश्व को जीत कर हिंदू संस्कृति का प्रचार पूरे विश्व में किया। सम्राट के साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नही होता था। सम्राट विक्रमादित्य ने अरबों पर शासन किया था, इसका प्रमाण स्वं अरबी काव्य में है । "सैरुअल ओकुल" नमक एक अरबी काव्य , जिसके लेखक "जिरहम विन्तोई" नमक एक अरबी कवि है। उन्होंने लिखा है,-------

"वे अत्यन्त भाग्यशाली लोग है, जो सम्राट विक्रमादित्य के शासन काल में जन्मे। अपनी प्रजा के कल्याण में रत वह एक कर्ताव्यनिष्ट , दयालु, एवं सचरित्र राजा था।"

"किंतु उस समय खुदा को भूले हुए हम अरब इंद्रिय विषय -वासनाओं में डूबे हुए थे । हम लोगो में षड़यंत्र और अत्याचार प्रचलित था। हमारे देश को अज्ञान के अन्धकार ने ग्रसित कर रखा था। सारा देश ऐसे घोर अंधकार से आच्छादित था जैसा की अमावस्या की रात्रि को होता है। किंतु शिक्षा का वर्तमान उषाकाल एवं सुखद सूर्य प्रकाश उस सचरित्र सम्राट विक्रम की कृपालुता का परिणाम है। यद्यपि हम विदेशी ही थे,फ़िर भी वह हमारे प्रति उपेछा न बरत पाया। जिसने हमे अपनी द्रष्टि से ओझल नही किया"। "उसने अपना पवित्र धर्म हम लोगो में फैलाया। उसने अपने देश से विद्वान् लोग भेजे,जिनकी प्रतिभा सूर्य के प्रकाश के समान हमारे देश में चमकी । वे विद्वान और दूर द्रष्टा लोग ,जिनकी दयालुता व कृपा से हम एक बार फ़िर खुदा के अस्तित्व को अनुभव करने लगे। उसके पवित्र अस्तित्व से परिचित किए गए,और सत्य के मार्ग पर चलाए गए। उनका यहाँ पर्दापण महाराजा विक्रमादित्य के आदेश पर हुआ। "

इसी काव्य के कुछ अंश बिड़ला मन्दिर,दिल्ली की यज्ञशाला के स्तभों पर उत्कीर्ण है,-------------------१-हे भारत की पुन्य भूमि!तू धन्य है क्योंकि इश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। २-वाह्ह ईश्वर का ज्ञान जो सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है,यह भारतवर्ष में ऋषियो द्बारा चारों रूप में प्रकट हुआ। ३-और परमात्मा समस्त संसार को आज्ञा देता है की वेड जो मेरे गान है उनके अनुसार आचरण करो। वह ज्ञान के भण्डार 'साम' व 'यजुर 'है। ४ -और दो उनमे से 'ऋग् ' व 'अथर्व 'है । जो इनके प्रकाश में आ गया वह कभी अन्धकार को प्राप्त नही होता।

सम्राट विक्र्मदियता के काल में भारत विज्ञान, कला, साहित्य, गणित, नस्छ्त्र आदि विद्याओं का विश्व गुरु था। महान गणितग्य व ज्योतिर्विद्ति वराह मिहिर ने सम्राट विक्रम के शासन काल में ही सारे विश्व में भारत की कीर्ति पताका फहराई थी।

एक मित्र की टिपण्णी के द्वारा पता चला है कि सम्राट विक्रम ने रोम के शासक जुलियस सीजर को भी हराकर उसे बंदी बनाकर उज्जेन की सड़कों पर घुमाया था.

टिपण्णी यह है कि ----------------------

कालिदास-ज्योतिर्विदाभरण-अध्याय२२-ग्रन्थाध्यायनिरूपणम्-

श्लोकैश्चतुर्दशशतै सजिनैर्मयैव ज्योतिर्विदाभरणकाव्यविधा नमेतत् ॥ᅠ२२.६ᅠ॥

विक्रमार्कवर्णनम्-वर्षे श्रुतिस्मृतिविचारविवेकरम्ये श्रीभारते खधृतिसम्मितदेशपीठे।

मत्तोऽधुना कृतिरियं सति मालवेन्द्रे श्रीविक्रमार्कनृपराजवरे समासीत् ॥ᅠ२२.७ᅠ॥

नृपसभायां पण्डितवर्गा-शङ्कु सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गुदत्तो जिष्णुस्त्रिलोचनहरो घटखर्पराख्य।

अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंहपूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽमो ॥ᅠ२२.८ᅠ॥

सत्यो वराहमिहिर श्रुतसेननामा श्रीबादरायणमणित्थकुमारसिंहा।

श्रविक्रमार्कंनृपसंसदि सन्ति चैते श्रीकालतन्त्रकवयस्त्वपरे मदाद्या ॥ᅠ२२.९ᅠ॥

नवरत्नानि-धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंहशङ्कुर्वेतालभट्टघटखर्परकालिदासा।

ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥ᅠ२२.१०ᅠ॥

यो रुक्मदेशाधिपतिं शकेश्वरं जित्वा गृहीत्वोज्जयिनीं महाहवे।

आनीय सम्भ्राम्य मुमोच यत्त्वहो स विक्रमार्कः समसह्यविक्रमः ॥ २२.१७ ॥

तस्मिन् सदाविक्रममेदिनीशे विराजमाने समवन्तिकायाम्।

सर्वप्रजामङ्गलसौख्यसम्पद् बभूव सर्वत्र च वेदकर्म ॥ २२.१८ ॥

शङ्क्वादिपण्डितवराः कवयस्त्वनेके ज्योतिर्विदः सभमवंश्च वराहपूर्वाः।

श्रीविक्रमार्कनृपसंसदि मान्यबुद्घिस्तत्राप्यहं नृपसखा किल कालिदासः ॥ २२.१९ ॥

काव्यत्रयं सुमतिकृद्रघुवंशपूर्वं पूर्वं ततो ननु कियच्छ्रुतिकर्मवादः।

ज्योतिर्विदाभरणकालविधानशास्त्रं श्रीकालिदासकवितो हि ततो बभूव ॥ २२.२० ॥

वर्षैः सिन्धुरदर्शनाम्बरगुणै(३०६८)र्याते कलौ सम्मिते, मासे माधवसंज्ञिके च विहितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः।

नानाकालविधानशास्त्रगदितज्ञानं विलोक्यादरा-दूर्जे ग्रन्थसमाप्तिरत्र विहिता ज्योतिर्विदां प्रीतये ॥ २२.२१ ॥

ज्योतिर्विदाभरण की रचना ३०६८ कलि वर्ष (विक्रम संवत् २४) या ईसा पूर्व ३३ में हुयी। विक्रम सम्वत् के प्रभाव से उसके १० पूर्ण वर्ष के पौष मास से जुलिअस सीजर द्वारा कैलेण्डर आरम्भ हुआ, यद्यपि उसे ७ दिन पूर्व आरम्भ करने का आदेश था। विक्रमादित्य ने रोम के इस शककर्त्ता को बन्दी बनाकर उज्जैन में भी घुमाया था (७८ इसा पूर्व में) तथा बाद में छोड़ दिया।। इसे रोमन लेखकों ने बहुत घुमा फिराकर जलदस्युओं द्वारा अपहरण बताया है तथा उसमें भी सीजर का गौरव दिखाया है कि वह अपना अपहरण मूल्य बढ़ाना चाहता था। इसी प्रकार सिकन्दर की पोरस (पुरु वंशी राजा) द्वारा पराजय को भी ग्रीक लेखकों ने उसकी जीत बताकर उसे क्षमादान के रूप में दिखाया है।


Gaius Julius Caesar (13 July 100 BC – 15 March 44 BC) --- In 78 BC, --- On the way across the Aegean Sea, Caesar was kidnapped by pirates and held prisoner. He maintained an attitude of superiority throughout his captivity. When the pirates thought to demand a ransom of twenty talents of silver, he insisted they ask for fifty. After the ransom was paid, Caesar raised a fleet, pursued and captured the pirates, and imprisoned them. He had them crucified on his own authority.

Quoted from History of the Calendar, by M.N. Saha and N. C. Lahiri (part C of the Report of The Calendar Reforms Committee under Prof. M. N. Saha with Sri N.C. Lahiri as secretary in November 1952-Published by Council of Scientific & Industrial Research, Rafi Marg, New Delhi-110001, 1955, Second Edition 1992.

Page, 168-last para-“Caesar wanted to start the new year on the 25th December, the winter solstice day. But people resisted that choice because a new moon was due on January 1, 45 BC. And some people considered that the new moon was lucky. Caesar had to go along with them in their desire to start the new reckoning on a traditional lunar landmark.”

ज्योतिर्विदाभरण की कहानी ठीक होने के कई अन्य प्रमाण हैं-सिकन्दर के बाद सेल्युकस्, एण्टिओकस् आदि ने मध्य एसिआ में अपना प्रभाव बढ़ाने की बहुत कोशिश की, पर सीजर के बन्दी होने के बाद रोमन लोग भारत ही नहीं, इरान, इराक तथा अरब देशों का भी नाम लेने का साहस नहीं किये। केवल सीरिया तथा मिस्र का ही उल्लेख कर संतुष्ट हो गये। यहां तक कि सीरिया से पूर्व के किसी राजा के नाम का उल्लेख भी नहीं है। बाइबिल में लिखा है कि उनके जन्म के समय मगध के २ ज्योतिषी गये थे जिन्होंने ईसा के महापुरुष होने की भविष्यवाणी की थी। सीजर के राज्य में भी विक्रमादित्य के ज्योतिषियों की बात प्रामाणिक मानी गयी।
en.wikipedia.org
Gaius Julius Caesar[2] (Classical Latin: [ˈɡaː.i.ʊs ˈjuː.lɪ.ʊs ˈkaj.sar],[3] July 100 BC[4] – 15 March 44 BC)[5] was a Roman general and statesman and a distinguished writer of Latin prose. He played a critical role in the gradual transformation of the Roman Republic into the Roman Empire.

साभार : कुंवर दीप नयन सिंह, फेसबुक

Tuesday, May 22, 2012

भारत में इस्लाम ::देखिये इतिहास कैसे रचा जाता है



मुहम्मद बिन कासिम (७१२-७१५)



 

मुहम्मद बिन कासिम द्वारा भारत के पश्चिमी भागों में चलाये गये जिहाद का विवरण, एक मुस्लिम इतिहासज्ञ अल क्रूफी द्वारा अरबी के ‘चच नामा’ इतिहास प्रलेख में लिखा गया है। इस प्रलेख का अंग्रेजी में अनुवाद एलियट और डाउसन ने किया था।

सिन्ध में जिहाद

सिन्ध के कुछ किलों को जीत लेने के बाद बिन कासिम ने ईराक के गर्वनर अपने चाचा हज्जाज को लिखा था- ‘सिवस्तान और सीसाम के किले पहले ही जीत लिये गये हैं। गैर-मुसलमानों का धर्मान्तरण कर दिया गया है या फिर उनका वध कर दिया गया है। मूर्ति वाले मन्दिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं, बना दी गई हैं।
(चच नामा अल कुफी : एलियट और डाउसन खण्ड १ पृष्ठ १६४)

जब बिन कासिम ने सिन्ध विजय की, वह जहाँ भी गया कैदियों को अपने साथ ले गया और बहुत से कैदियों को, विशेषकर महिला कैदियों को, उसने अपने देश भेज दिया। राजा दाहिर की दो पुत्रियाँ- परिमल देवी और सूरज देवी-जिन्हें खलीफा के हरम को सम्पन्न करने के लिए हज्जाज को भेजा गया था वे हिन्दू महिलाओं के उस समूह का भाग थीं, जो युद्ध के लूट के माल के पाँचवे भाग के रूप में इस्लामी शाही खजाने के भाग के रूप् में भेजा गया था। चच नामा का विवरण इस प्रकार है- हज्जाज की बिन कासिम को स्थाई आदेश थे कि हिन्दुओं के प्रति कोई कृपा नहीं की जाए, उनकी गर्दनें काट दी जाएँ और महिलाओं को और बच्चों को कैदी बना लिया जाए’

(उसी पुस्तक में पृष्ठ १७३)

रेवार की विजय के बाद कासिम वहाँ तीन दिन रुका। तब उसने छः हजार आदमियों का वध किया। उनके अनुयायी, आश्रित, महिलायें और बच्चे सभी गिरफ्तार कर लिये गये। जब कैदियों की गिनती की गई तो वे तीस हजार व्यक्ति निकले जिनमें तीस सरदारों की पुत्रियाँ थीं, उन्हें हज्जाज के पास भेज दिया गया।
(वही पुस्तक पृष्ठ १७२-१७३)

कराची का शील भंग, लूट पाट एवम्‌ विनाश

‘कासिम की सेनायें जैसे ही देवालयपुर (कराची) के किले में पहुँचीं, उन्होंने कत्लेआम, शील भंग, लूटपाट का मदनोत्सव मनाया। यह सब तीन दिन तक चला। सारा किला एक जेल खाना बन गया जहाँ शरण में आये सभी ‘काफिरों’ – सैनिकों और नागरिकों – का कत्ल और अंग भंग कर दिया गया। सभी काफिर महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें मुस्लिम योद्धाओं के मध्य बाँट दिया गया। मुखय मन्दिर को मस्जिद बना दिया गया और उसी सुर्री पर जहाँ भगवा ध्वज फहराता था, वहाँ इस्लाम का हरा झंडा फहराने लगा। ‘काफिरों’ की तीस हजार औरतों को बग़दाद भेज दिया गया।’
(अल-बिदौरी की फुतुह-उल-बुल्दनः अनु. एलियट और डाउसन खण्ड १)

ब्राहम्नाबाद में कत्लेआम और लूट

‘मुहम्मद बिन कासिम ने सभी काफिर सैनिकों का वध कर दिया और उनके अनुयायियों और आश्रितों को बन्दी बना लिया। सभी बन्दियों को दास बना दिया और प्रत्येक के मूल्य तय कर दिये गये। एक लाख से भी अधिक ‘काफिरों’ को दास बनाया गया।’
(चचनामा अलकुफी : एलियट और डाउसन खण्ड १ पृष्ठ १७९)

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साभार:गौरी राय , फेसबुक 

Sunday, May 20, 2012

हिंदू शब्द की उत्पत्ती




"बृहस्पति आगम" सहित अन्य आगम ईरानी या अरबी सभ्यताओं से बहुत प्राचीन काल में लिखा जा चुके थे। अतः उसमें "हिन्दुस्थान" का उल्लेख होने से स्पष्ट है कि हिन्दू (या हिन्दुस्थान) नाम प्राचीन ऋषियों द्वारा दिया गया था न कि अरबों/ईरानियों द्वारा। यह नाम बाद में अरबों/ईरानियों द्वारा प्रयुक्त होने लगा।

हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरित:।
एक अन्य श्लोक में कहा गया है
ॐकार मूलमंत्राढ्य: पुनर्जन्म दृढ़ाशय:
गोभक्तो भारतगुरु: हिन्दुर्हिंसनदूषक:।
ॐकार जिसका मूलमंत्र है, पुनर्जन्म में जिसकी दृढ़ आस्था है, भारत ने जिसका प्रवर्तन किया है, तथा हिंसा की जो निन्दा करता है, वह हिन्दू है।
चीनी यात्री हुएनसाग् के समय में हिन्दू शब्द प्रचलित था। यह माना जा सकता है कि हिन्दू' शब्द इन्दु' जो चन्द्रमा का पर्यायवाची है से बना है। चीन में भी इन्दु' को इन्तु' कहा जाता है। भारतीय ज्योतिष में चन्द्रमा को बहुत महत्त्व देते हैं। राशि का निर्धारण चन्द्रमा के आधार पर ही होता है। चन्द्रमास के आधार पर तिथियों और पर्वों की गणना होती है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु' या 'हिन्दु' कहने लगे। मुस्लिम आक्रमण के पूर्व ही 'हिन्दू' शब्द के प्रचलित होने से यह स्पष्ट है कि यह नाम मुसलमानों की देन नहीं है।

“ सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।

—वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत

अर्थात
हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश(खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है।



साभार : शंख्नादी सुनील, फेसबुक 

Saturday, May 19, 2012

जब शिव ने सती का त्याग किया


 



सभी लोग जानते हैं कि सती ने अपने पिता द्वारा शिव को यज्ञ में आमंत्रित न करने और उनका अपमान करने पर उसी यज्ञशाला में आत्मदाह कर लिया था लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि इसकी भूमिका बहुत पहले हीं लिखी जा चुकी थी.

बात उन दिनों की है जब रावण ने सीता का हरण कर लिया था और श्रीराम और लक्षमण उनकी खोज में दर दर भटक रहे थे. जब सती ने ये देखा कि श्रीराम विष्णु के अवतार होते हुए भी इतना कष्ट उठा रहे हैं तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने भगवान शिव से पूछा कि प्रभु भगवान विष्णु तो आपके परम भक्त हैं फिर किस पाप के कारण वे इतना कष्ट भोग रहे हैं? भगवान शिव ने कहा कि चूँकि श्रीहरि विष्णु मनुष्य रूप में हैं इसलिए एक साधारण मनुष्य की तरह हीं वे भी दुःख भोग रहे हैं. सती ने पूछा कि अगर विष्णु केवल एक मनुष्य के रूप में हैं तो क्या उनमे वो सरे दिव्य गुण हैं जो श्रीहरि विष्णु में हैं? शिव ने जवाब दिया कि हाँ मनुष्य होते हुए भी वे उन सारी कलाओं से युक्त हैं जो श्रीहरि विष्णु में हैं. सती को इसपर विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि मनुष्य रूप में उनकी शक्तियां भी क्षीण हो गयी हैं इसलिए तो वे एक साधारण मनुष्य की भांति विलाप कर रहे हैं. अगर वे श्रीहरि विष्णु की सारी शक्तियों से युक्त होते तो उन्हें सीता को ढूंढ़ने के लिए इस प्रकार भटकने की आवश्यकता नहीं थी. उन्हें तुरंत पता चल जाता कि सीता लंका में है. सती ने शिव से कहा कि वो श्रीराम की परीक्षा लेना चाहती है. शिव ने उन्हें मना किया किया कि ये उचित नहीं है लेकिन सती नहीं मानी. अंततः विवश होकर महाकाल ने आज्ञा दे दी.

शिव कि आज्ञा पाकर सती ने सीता का रूप धरा और जाकर वन में ठीक उस जगह बैठ गयी जहाँ से श्रीराम और श्रीलक्षमण आने वाले थे. जैसे हीं दोनों वहां से गुजरे तो उन्होंने सीता के रूप में सती को देखा. लक्षमण सती की इस माया में आ गए और सीता रूपी सती को देख कर प्रसन्न हो गए. उन्होंने जल्दी से आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया. तभी अचानक श्रीराम ने भी आकर सती को दंडवत प्रणाम किया. ये देख कर लक्षमण के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. इससे पहले वे कुछ समझ पाते, श्रीराम ने हाथ जोड़ कर सीता रूपी सती से कहा कि माता आप इस वन में क्या कर रही है? क्या आज महादेव ने आपको अकेले हीं विचरने के लिए छोड़ दिया है? अगर अपने इस पुत्र के लायक कोई सेवा हो तो बताइए. सती ने जब ऐसा सुना तो बहुत लज्जित हुई. वे अपने असली स्वरुप में आ गयी और दोनों को आशीर्वाद देकर वापस कैलाश चली गयी.

जब वो वापस आई तो शिव ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने श्रीराम की परीक्षा ली? सती ने झूठ मूठ हीं कह दिया कि उन्होंने कोई परीक्षा नहीं ली. शिव से क्या छुपा था. उन्हें तुरंत पता चल गया कि सती ने सीता का रूप धर कर श्रीराम की परीक्षा ली थी. उन्होंने सोचा कि भले हीं सती ने अनजाने में हीं सीता का रूप धरा था किन्तु शिव सीता को पुत्री के रूप के अतिरिक्त और किसी रूप में देख हीं नहीं सकते थे. अब उनके लिए सती को एक पत्नी के रूप में देख पाना संभव हीं नहीं था. उसी क्षण से शिव मन हीं मन सती से विरक्त हो गए. उनके व्यहवार में आये परिवर्तन को देख कर सती ने अपने पितामह ब्रम्हा से इसका कारण पूछा तो उन्होंने सती को उनकी गलती का एहसास कराया. ब्रम्हदेव ने कहा कि इस जन्म में तो अब शिव किसी भी परिस्थिति में तुम्हे अपनी पत्नी के रूप में नहीं देख सकेंगे. इसी कारण सती ने भी मन हीं मन अपने शरीर का त्याग कर दिया. जब उन्हें अपने पिता दक्ष द्वारा शिव के अपमान के बारे में पता चला तो उन्होंने यज्ञ में जाने की आज्ञा मांगी. शिव ये भली भांति जानते थे कि सती अपने इस शरीर का त्याग करना चाहती है इसलिए उन्होंने सती को यज्ञ में न जाने की सलाह दी किन्तु सती हठ कर कर वहां चली गयी और जैसा कि पहले से तय था, उन्होंने वहां आत्मदाह कर लिया. इस प्रकार दक्ष का यज्ञ केवल सती के शरीर त्याग करने का कारण मात्र बन कर रह गया.

साभार : गौरी राय , फेसबुक 

..हम हिन्दू क्यों है ?



हिन्दुत्व को प्राचीन काल में सनातन धर्म कहा जाता था। हिन्दुओं के धर्म के मूल तत्त्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान आदि हैं जिनका शाश्वत महत्त्व है। अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व इन सिद्धान्...तों को प्रतिपादित कर दिया गया था। इस प्रकार हिन्दुत्व सनातन धर्म के रूप में सभी धर्मों का मूलाधार है क्योंकि सभी धर्म-सिद्धान्तों के सार्वभौम आध्यात्मिक सत्य के विभिन्न पहलुओं का इसमें पहले से ही समावेश कर लिया गया था। मान्य ज्ञान जिसे विज्ञान कहा जाता है प्रत्येक वस्तु या विचार का गहन मूल्यांकन कर रहा है और इस प्रक्रिया में अनेक विश्वास, मत, आस्था और सिद्धान्त धराशायी हो रहे हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आघातों से हिन्दुत्व को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसके मौलिक सिद्धान्तों का तार्किक आधार तथा शाश्वत प्रभाव है।

आर्य समाज जैसे कुछ संगठनों ने हिन्दुत्व को आर्य धर्म कहा है और वे चाहते हैं कि हिन्दुओं को आर्य कहा जाय। वस्तुत: 'आर्य' शब्द किसी प्रजाति का द्योतक नहीं है। इसका अर्थ केवल श्रेष्ठ है और बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य की व्याख्या करते समय भी यही अर्थ ग्रहण किया गया है। इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ उदात्त अथवा श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था। वस्तुत: प्राचीन संस्कृत और पालि ग्रन्थों में हिन्दू नाम कहीं भी नहीं मिलता। यह माना जाता है कि परस्य (ईरान) देश के निवासी 'सिन्धु' नदी को 'हिन्दु' कहते थे क्योंकि वे 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। धीरे-धीरे वे सिन्धु पार के निवासियों को हिन्दू कहने लगे। भारत से बाहर 'हिन्दू' शब्द का उल्लेख 'अवेस्ता' में मिलता है। विनोबा जी के अनुसार हिन्दू का मुख्य लक्षण उसकी अहिंसा-प्रियता है

हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरित:।

एक अन्य श्लोक में कहा गया है

ॐकार मूलमंत्राढ्य: पुनर्जन्म दृढ़ाशय:

गोभक्तो भारतगुरु: हिन्दुर्हिंसनदूषक:।

ॐकार जिसका मूलमंत्र है, पुनर्जन्म में जिसकी दृढ़ आस्था है, भारत ने जिसका प्रवर्तन किया है, तथा हिंसा की जो निन्दा करता है, वह हिन्दू है।

चीनी यात्री हुएनसाग् के समय में हिन्दू शब्द प्रचलित था। यह माना जा सकता है कि हिन्दू' शब्द इन्दु' जो चन्द्रमा का पर्यायवाची है से बना है। चीन में भी इन्दु' को इन्तु' कहा जाता है। भारतीय ज्योतिष में चन्द्रमा को बहुत महत्त्व देते हैं। राशि का निर्धारण चन्द्रमा के आधार पर ही होता है। चन्द्रमास के आधार पर तिथियों और पर्वों की गणना होती है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु' या 'हिन्दु' कहने लगे। मुस्लिम आक्रमण के पूर्व ही 'हिन्दू' शब्द के प्रचलित होने से यह स्पष्ट है कि यह नाम मुसलमानों की देन नहीं है।

भारत भूमि में अनेक ऋषि, सन्त और द्रष्टा उत्पन्न हुए हैं। उनके द्वारा प्रकट किये गये विचार जीवन के सभी पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं। कभी उनके विचार एक दूसरे के पूरक होते हैं और कभी परस्पर विरोधी। हिन्दुत्व एक उद्विकासी व्यवस्था है जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रही है। इसे समझने के लिए हम किसी एक ऋषि या द्रष्टा अथवा किसी एक पुस्तक पर निर्भर नहीं रह सकते। यहाँ विचारों, दृष्टिकोणों और मार्गों में विविधता है किन्तु नदियों की गति की तरह इनमें निरन्तरता है तथा समुद्र में मिलने की उत्कण्ठा की तरह आनन्द और मोक्ष का परम लक्ष्य है।

हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति अथवा जीवन दर्शन है जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को परम लक्ष्य मानकर व्यक्ति या समाज को नैतिक, भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के अवसर प्रदान करता है। हिन्दू समाज किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता, किसी एक मत का अनुयायी नहीं हैं, किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित या किसी एक पुस्तक में संकलित विचारों या मान्यताओं से बँधा हुआ नहीं है। वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नहीं मानता, किसी एक प्रकार की मजहबी पूजा पद्धति या रीति-रिवाज को नहीं मानता। वह किसी मजहब या सम्प्रदाय की परम्पराओं की संतुष्टि नहीं करता है। आज हम जिस संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के रूप में जानते हैं और जिसे भारतीय या भारतीय मूल के लोग सनातन धर्म या शाश्वत नियम कहते हैं वह उस मजहब से बड़ा सिद्धान्त है जिसे पश्चिम के लोग समझते हैं । कोई किसी भगवान में विश्वास करे या किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करे फिर भी वह हिन्दू है। यह एक जीवन पद्धति है; यह मस्तिष्क की एक दशा है। हिन्दुत्व एक दर्शन है जो मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त उसकी मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकता की भी पूर्ति करता है।

ॐ शांति ॐ


साभार : फेसबुक, दीप नयन सिंह 

वेद पुराण में सप्त संख्या का महत्त्व


सप्तद्वीप

1. जम्बूद्वीप
2. प्लक्षद्वीप
3. शाल्मलद्वीप
4. कुशद्वीप
5. क्रौंचद्वीप
6. शाकद्वीप
7. पुष्करद्वीप

सप्त पुरियां

1. अयोध्या
2. मथुरा
3. माया (हरिद्वार)
4. काशी
5. कांची
6. अवंतिका (उज्जयिनी)
7. द्वारका

सप्त सागर 

1. खारे पानी का सागर
2. इक्षुरस का सागर
3. मदिरा का सागर
4. घृत का सागर
5. दधि का सागर
6. दुग्ध का सागर
7. मीठे जल का सागर

सप्त नदी 

1. गंगा
2. गोदावरी
3. यमुना
4. सिंधु
5. सरस्वती
6. कावेरी
7. नर्मदा

सप्त ऋषि

1. केतु
2. पुलह
3. पुलस्त्य
4. अत्रि
5. अंगिरा
6. वशिष्ट
7. मारीचि

सप्त दिवस 

1. सोमवार
2. मंगलवार
3. बुधवार
4. गुरुवार
5. शुक्रवार
6. शनिवार
7. रविवार

सप्त ग्रह

1. सूर्य
2. चन्द्र
3. मंगल
4. बुध
5. ब्रहस्पति
6. शुक्र
7. शनि

सप्त लोक

1. अतल
2. वितल
3. नितल
4. गभस्तिमान
5. महातल
6. सुतल
7. पाताल

जय महाकाल

साभार फेसबुक 

धर्म सनातन धर्म [हिन्दू ] कई युगो पुराना है



धर्म ( हिन्दू ) कई युगो पुराना है धर्म पालकों ( हिन्दुओ ) को छोड़कर दुनिया के सभी उपधर्म संप्रदाय या जातियाँ क्रम विकास से जन्मती है और नष्ट हो जाती हैं परंतु धर्म पालक( हिन्दु ) कभी नही समाप्त होते , हिन्दुओ के धार्मिक ग्रंथो मे कल्पो का विवरण दिया हुआ है । हिन्दू धर्म के अनुसार चारों युगों का 1 चक्र 1000 बार पूरा होना एक कल्प होता है । हिन्दू धर्म मे चार युगो की गढ़ना की गई है सतयुग,त्रेता,द्वापर,कलियुग जो लगभग १२०००००० वर्ष या एक कल्प कहलाता है यह है हमारे ज्ञान-विज्ञान की....



हिन्दू धर्म के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा होते हैं। इनकी आयु इन्हीं के सौ वर्षों के बराबर होती है। इनकी आयु १००० महायुगों के बराबर होती है। विष्णु पुराण के अनुसार काल-गणना विभाग, विष्णु पुराण भाग १, तॄतीय अध्याय के अनुसार: 



* 2 अयन (छः मास अवधि, ऊपर देखें) = 360 मानव वर्ष = एक दिव्य वर्ष * 4,000 + 400 + 400 = 4,800 दिव्य वर्ष = 1 कॄत युग * 3,000 + 300 + 300 = 3,600 दिव्य वर्ष = 1 त्रेता युग * 2,000 + 200 + 200 = 2,400 दिव्य वर्ष = 1 द्वापर युग * 1,000 + 100 + 100 = 1,200 दिव्य वर्ष = 1 कलि युग * 12,000 दिव्य वर्ष = 4 युग = 1 महायुग (दिव्य युग भी कहते हैं)


ब्रह्मा की काल गणना


* 1000 महायुग= 1 कल्प = ब्रह्मा का 1 दिवस (केवल दिन) (चार खरब बत्तीस अरब मानव वर्ष; और यहू सूर्य की खगोलीय वैज्ञानिक आयु भी है).


(दो कल्प ब्रह्मा के एक दिन और रात बनाते हैं)


* 30 ब्रह्मा के दिन = 1 ब्रह्मा का मास (दो खरब 59 अरब 20 करोड़ मानव वर्ष) * 12 ब्रह्मा के मास = 1 ब्रह्मा के वर्ष (31 खरब 10 अरब 4 करोड़ मानव वर्ष) * 50 ब्रह्मा के वर्ष = 1 परार्ध * 2 परार्ध= 100 ब्रह्मा के वर्ष= 1 महाकल्प (ब्रह्मा का जीवन काल)(31 शंख 10 खरब 40अरब मानव वर्ष)


ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं: चारों युग 4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष) सत युग 3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग 2 चरण (864,000 सौर वर्ष) द्वापर युग 1 चरण (432,000 सौर वर्ष) कलि युग

हिंदू वेदों को इतना अत्यधिक महत्त्व क्यों देते हैं?




(लेख थोड़ा दीर्घ है किन्तु अतिरिक्त समय में पढ़े अवश्य विशेष तौर पर हिन्दू लोग क्योंकि उन्हें अपने धर्म के मूल को तो जानना चाहिये कम से कम.) 

हिंदू धर्म में वेदों का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है. सभी हिंदू धार्मिक ग्रन्थ अपनी बातों को प्रमाणित करने के लिये शब्द प्रमाण के अन्तर्गत वेदों को सर्वोपरि स्थान देते हैं. किन्तु आज अधिकतर लोगो का मानना है कि इन वेदों को किसी पूर्वकाल में मनुष्यों ने समयानुसार अपने ज्ञान के अनुरूप लिखा था जिनमें कुछ बात सही हैं और कुछ गलत. कुछ हिंदू लोग मानते हैं वेद ईश्वरकृत ज्ञान है. अब इनमें ऐसा क्या लिखा है जो कुछ लोग गलत और कुछ लोग इनको सम्पूर्ण सत्य मानते हैं. यहाँ मैं इस लेख में केवल यह ही कहना चाहूँगा कि जो लोग इनमें असत्य या गलत बातों का आरोप लगाते हैं वे इस बात का आत्म-मंथन अवश्य करें कि वेद-भाष्य करने वाला या वेदों पर पुस्तक लिखने वाला किस स्तर, मानसिकता और कितना ज्ञान रखता है क्योंकि वेदों में भी और सभी प्रामाणिक वैदिक ग्रन्थों में वेद भाष्य का अधिकार केवल ध्यान अवस्था की उच्चतम अवस्था सबीज या निर्बीज समाधि तक पहुँचने वाले इंसान को ही दिया है. आजकल की संस्कृत या अन्य विषयों की डीग्री या थोड़ा बहुत शाब्दिक ज्ञान रखने वालों का वेद-भाष्य विद्वानों के मध्य मान्य नहीं होता है. एक तो ये डिग्रीयां वैदिक संस्कृत की ही नहीं हैं और यदि उसको वैदिक संस्कृत आती भी है तब भी जब तक वह योग, सांख्य दर्शन आदि के अनुरूप जितेन्द्रिय होकर अष्टांग योग का पालन नहीं करता है उसकी व्याख्या मान्य नहीं है. इसका एक सीधा सा कारण है वेदों में तत्वों के यथार्थ रूप, सृष्टि-सृजन, आत्मा-परमात्मा, जीवन-मौत जैसे अत्यन्त गूढ़ विषयों के साथ-२ मानव जीवन के लिये आवश्यक समस्त विज्ञान, गणित, संख्या आदि के मूल और सामाजिक, राजकीय इत्यादि सभी विषयों के ज्ञान का वर्णन हैं. मंत्रो के वास्तविक अर्थ और व्याख्या को समझाने वाला यदि कोई साधारण पुरुष होगा तो निश्चित तौर पर अर्थ का अनर्थ कर देगा. और यही कारण है आज वेदों को साधारण पुस्तक समझने की भूल का. उदाहरण के तौर पर आधुनिक युग में आइंस्टीन की रिलेटिविटी थियोरी को यदि कम बुद्धि वाला व्यक्ति और भौतिक शास्त्र को न जाने वाला व्यक्ति व्याखित करे तो वो उसको क्या समझेगा या क्या समझायेगा.

वेदों से मेरा तात्पर्य स्याही, कलम द्वारा लिखित पुस्तक से नहीं है मेरा तात्पर्य केवल उस ज्ञान से है जो वेद नाम से जाना जाता है. मैं फिलहाल वेदों में क्या लिखा और क्या नहीं लिखा है उस पर विचार न करते हुए यहाँ केवल इस बात पर विचार कर रहा हूँ कि वेद ईश्वरीय ज्ञान क्यों कहलाते हैं. क्योंकि बहुत लोगो का ये मानना है कि वेदों में उच्च स्तर का तो ज्ञान है किन्तु ये हैं ऋषियों या बुद्धिमान मानव द्वारा निर्मित ही हैं . इनके ईश्वर द्वारा कृत होने में क्या लाभ या तर्क है.

यहाँ एक नए द्रष्टिकोण से विचार किया गया है. यहाँ विषयानुरूप इस लेख में न कोई वेद प्रमाण दिया गया है न किसी अन्य शास्त्र का और न किसी ऋषि की उक्ति का निर्देश है, फिर भी पाठक को इसमें कुछ प्रेरणाप्रद तत्व अवश्य मिलेंगे.

मनुष्य को पूर्णरूप से जाने बगैर कोई विचार ठीक-ठीक समझ नहीं आता और न आ सकता है, क्योंकि यह मनुष्य ही तो है जो विचारशील है. तो प्रथम ‘मनुष्य क्या है’ यह जानना आवाश्यक है.

देखने से यह प्रतीत होता है कि शरीर और एक शक्ति के सम्बन्ध से जो वस्तु या व्यक्ति बनता है, वह मनुष्य कहाता है. इस समय हमें सिर्फ उसी शरीर और शक्ति पर ध्यान देना है जो मनुष्य को उत्पन्न करता है, और अन्य प्राणियों का यहाँ वृतान्त नहीं है.

मनुष्य पैदा होता है और उसी समय एक ध्वनि करता है. वह माता के स्तन से दूध पीने लगता है. वह मलमूत्र करता है ; और भी क्रियायें करता देखा जाता है. ये सब क्रियायें उसको किसी ने नहीं बताई हैं, यानि उसमें स्वाभाविक हैं. इस तरह ज्यों-ज्यों वह बढ़ता जाता है और उसमें बहुत से लक्षण पाए जाते हैं, उन्ही में ज्ञान भी है. इसी कारण बहुत से विद्वानों ने या ऋषियों ने , या योगियों ने कहा है और गौर करने पर अब भी प्रतीत होता है कि मनुष्य में ६ लक्षण हैं , वे हैं –सुख ,दुःख ,राग द्वेष ,ज्ञान , प्रयत्न.

यहाँ हमें ज्ञान को समझना है कि उसको कोई देता है या उसका , यानि मनुष्य का स्वभाविक गुण है. मनुष्य सृष्टि का एक अंग है और सृष्टि हमेशा होती आई है, यानि सृष्टि का होना अनिवार्य है है, यानि अनादी है.

मनुष्य जो अपनी इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है, इसी कारण मनुष्य में ज्ञान-इन्द्रियां कहीं जाति हैं. परन्तु एक और मन या अन्तःकरण , जिसका नाम बुद्धि है भी मनुष्य में है. इनकी सबकी सहायता से मनुष्य अपने लिये जो उसे लाभदायक प्रतीत होता है, कार्यप्रणाली बना लेता है, अर्थात ज्ञान वह है जिससे वह बाह्य पदार्थ से अपने को लाभ पहुँचाने की रीती निकालता है और अपने विचार बनाता है .

अब जब हम यह देखते हैं कि मनुष्य में ज्ञान स्वाभाविक है और उसमें प्रयत्न भी है जिससे ज्ञान बढ़ सकता है , तो किसी अन्य प्रकार से ज्ञान ग्रहण करके अपने विचार बनाने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात मनुष्य को ज्ञान देने का क्या अवसर है ? अर्थात यह मानना कि ईश्वर ने मनुष्य को आदिसृष्टि में ज्ञान दिया , किसी तर्क से ठीक प्रतीत नहीं होता?

इस बात को मानने से कि वेद ईश्वरकृत ज्ञान है, मनुष्यमात्र विशेषकर हिंदुओं की बड़ी हानि हुयी है और हो रही है, जिस भ्रान्ति को मिटाना मनुष्य का कर्तव्य है.

आजकल सभी का अनुभव यह है कि हर-एक जो जिस मत का अनुयायी है , अपने मत को सबसे अच्छा मानता है और अन्य प्रकार के विचारवालों की बातें सुनना या उनपर विचार करना भी अपनी बे-इज्जती समझता है; परन्तु प्रायः हिंदू धर्म के विद्वानों या आर्यों को यह कहते सुना जाता है कि हम तो केवल जो बात बुद्धि के अनुकूल होती है अर्थात तार्किक विद्वता पूर्ण होती वही मानते हैं.

आधुनिक समाज में यह भी विचार है कि यदि मनुष्य या कोई विद्वान मनुष्य की परिभाषा कर ले और ज्ञान की भी, तो उसका फल यही हो सकता है कि वेद मनुष्यों के विचारों की पुस्तक है , न कि परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान है. मनुष्यों को जो वेदों के काल में अपनी आवश्यकता के अनुसार कुछ विचार उत्पन्न हुए, वे लिख दिए या बना लिये. मनुष्यों को जिससे लाभ होता है वह उसकी पूजा करता है, परन्तु ईश्वर से न तो कोई लाभ होता है और न हो सकता है. यह तो माना जा सकता है कि कोई ऐसी वस्तु अवश्य होनी चाहिये. ऐसा मानने में कोई बुद्धि का काम नहीं है.परन्तु बुद्धि स्वाभाविक है और मनुष्य अनादि है, क्योंकि मनुष्य न हो तो सृष्टि का विचार कौन कर सकता है ? और बगैर मनुष्यों के सृष्टि ही नहीं, क्योंकि सृष्टि अनादि है; या सृष्टिक्रम अनादि है तो ईश्वर को सृष्टि बनाने या न बनाने में कोई अधिकार ही नहीं, तो मनुष्य जो सृष्टि का अंग है, जैसा और जहाँ तक उसका मस्तिष्क जिस काल में ले जाता है वही विचार बना लेता है, इस कारण वेद ईश्वरकृत नहीं हो सकते.

उपरोक्त विचार किसी भी विचारवान व्यक्ति के दिमाग में आ सकते हैं इसमें कोई शंका नहीं है. अब यहाँ से इन शंकाओं के निवारण पर विचार करते हैं.

शंका- वेद ईश्वर का दिया ज्ञान है, इस बात को समझने के लिये यह जानना आवश्यक है कि यह ज्ञान किसके लिये दिया गया है?

निवारण- यह ज्ञान समस्त मनुष्यमात्र के लिये दिया गया है. सब मनुष्य इसके अधिकारी हैं. मनुष्य से अतिरिक्त अन्य प्राणियों के लिये यह ज्ञान नहीं है.

शंका- यह ज्ञान कब दिया गया ?

निवारण- इस विषय के जानकारों का कहना है कि सृष्टि-रचना होने के अनंतर जब जब सर्वप्रथम मानव का प्रादुर्भाव हुआ, उसी समय विशिष्ट मानवों के मस्तिष्क में किसी दिव्य आलौकिक शक्ति के द्वारा उस ज्ञान ज्ञान का उद्भावन किया गया.

शंका- यदि यह मनुष्यमात्र के लिये दिया गया, तो पहले यह जानना होगा मनुष्य क्या है ? और उसके लिये ज्ञान की आवश्यकता भी है या नहीं.

निवारण- आपका कहना उचित है, पर इस विषय में आपका अपना विचार क्या है ?

शंका- हमारे विचार में तो देखने से यह प्रतीत होता है कि शरीर और एक शक्ति के सम्बन्ध से जो वस्तु या व्यक्ति बनता है , वह मनुष्य कहाता है. इस समय हमें सिर्फ उसी शरीर और शक्ति पर ध्यान देना है, जो मनुष्य को उत्पन्न करता है. और प्राणियों का यह वृतान्त नहीं.

निवारण- यह पहले ही कहा गया है कि वेदज्ञान मनुष्यमात्र के लिये है, अन्य प्राणियों के लिये नहीं. मनुष्य कहे जाने वाले देह के साथ जब एक शक्ति का सम्बन्ध होता है, वह मनुष्य है, यही आपका मनुष्य से अभिप्रायः है तो इसे ईश्वर द्वारा सृष्टि के आदि में ज्ञान दिए जाने के लिये आप क्या कहते हैं.

शंका- हमारा कहना है कि मनुष्य जब पैदा होता है उसी समय एक ध्वनि करता है, वह माता के स्तन से दूध पीने लगता है, वह मल-मूत्र करता है, और भी क्रियाएँ करता देखा जाता है. ये सब क्रियायें उसको किसी ने नहीं बाताई हैं, अर्थात उसमें स्वाभाविक हैं. इस तरह ज्यों-ज्यों वह बढ़ता जाता है, उसमें और बहुत से लक्षण पायें जाते हैं, उन्हीं में ज्ञान भी है. इसी करण ऋषियों ने कहा है और गौर करने पर अब भी प्रतीत होता है मनुष्य में छः लक्षण हैं – सुख, दुःख, राग, द्वेष, ज्ञान, प्रयत्न.

निवारण- आपके कहने का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि इस मनष्य-देह के साथ जिस शक्ति का सम्बन्ध आपने बतलाया है , वह शक्ति वही है, जिसको ऋषियों ने जीवात्मा कहा है. ज्ञान, प्रयत्न आदि लक्षण उसी के बताये गए हैं. फलतः एक विशेष प्रकार के देह के साथ जीवात्मा का सम्बन्ध होना मनुष्य का स्वरूप है. जब बालक के रूप में यह प्रादुर्भूत होता है , उस समय की इसकी क्रियाओं और चेष्टाओं को आपने स्वाभाविक कहा है , क्योंकि उसे यह सब किसी ने बताया नहीं है.

यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि ऐसी क्रियायें सभी प्राणियों में समान रूप से होती हैं. मनुष्य की यह कोई विशेषता नहीं है. आपने इन्हें स्वाभाविक इसलिए कहा कि इस देह का प्रादुर्भाव होने पर उसे यह किसी ने सिखाया नहीं. जिन ऋषियों जीवात्मा के अस्तित्व , उसके स्वरुप का निर्णय कर उसे समझाया है. उनका कहना है कि नवजात बालक की ये क्रियायें पूर्वजन्म के संस्कार के करण होती हैं, जो प्राणी मात्र के लिये साधारण हैं. इन क्रियायों से मनुष्य की कोई विशेषता प्रकट नहीं होती. आहार, निद्रा, भय, आदि सम्बन्धी सब क्रियाएँ प्राणियों में पूर्व-संस्कारवश नवजात बालक में हुआ करती हैं, इन्हें किसी से सीखने की आवश्यकता नहीं होती. आप इन्हें स्वाभाविक बताकर ईश्वरीय ज्ञान के विषय में क्या कहना चाहते हैं?

शंका- यहाँ हमें ‘ज्ञान’ को समझना है कि यह मनुष्य को कोई देता है, या उसका स्वाभाविक गुण है. मनुष्य सृष्टि का एक अंग है और सृष्टि अनादि है. मनुष्य पांच ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है. एक अन्तःकरण, मन या बुद्धि है. इन सबकी सहायता से मनुष्य अपने लिये जो उसे लाभदायक प्रतीत होता है कार्यप्रणाली बना लेता है, यानि ज्ञान वह है जिससे मनुष्य बाह्य पदार्थ से अपने को लाभ पंहुचाने की रीति निकलता है और अपने विचार बनाता है.

हम यह देखते हैं कि मनुष्य में ज्ञान स्वाभाविक है और उसमें प्रयत्न भी है जिससे ज्ञान बढ़ सकता है , तो किसी अन्य प्रकार से ज्ञान ग्रहण करके अपने विचार बनाने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात मनुष्य को ज्ञान देने का क्या अवसर है ? अर्थात यह मानना कि ईश्वर ने मनुष्य को आदिसृष्टि में ज्ञान दिया , किसी तर्क से ठीक प्रतीत नहीं होता.

निवारण- ज्ञान जीवात्मा की एक विशेषता है या उसका स्वरुप, ऐसी हालत में हम कह सकते हैं यह उसका स्वाभाविक रूप है. पर जीवात्मा स्वभावतः अल्पज्ञान और अल्पशक्ति होता है; यद्यपि प्रयत्न उसमें हैं, पर केवल अपने प्रयत्न से अपने ज्ञान विषय को बढ़ा नहीं सकता. उसे इस कार्य के लिये बहार के सहयोग की सदा अपेक्षा रहती है. आदिसृष्टि के विषय में विचार को एक ओर रखिये, वर्त्तमान सृष्टि में भी कोई बालक स्वतः ज्ञान-वृद्धि नहीं कर सकता है. उसके लिये माता, पिता, आचार्य, गुरु एवं अन्य प्रकार के अनुभवी व्यक्तियों की अपेक्षा रहती है. उपदेश द्वारा ज्ञान बढ़ाने की यह परम्परा आदिसृष्टि से चली आ रही है. इस बात की एक से अधिक बार परीक्षा की गयी है कि एक नवजात बालक को बिना उसके साथ बोले और उसको कुछ सिखाये बिना अलग एकान्त में रखा गया. उसको आहार आदि का पूरा प्रबंध रखा गया . उसकी ऐसी उम्र तक यह अवस्था रखी गयी जैसी उम्र तक माता,पिता ,गुरु आदि या अन्य पारिवारिक जनों के सहयोग से सीखने वाला बालक संसार के सभी साधारण व्यवहारों को प्रायः सीख लेता है और भाषा आदि के द्वारा अपने सब भावों को प्रकट कर सकता है. एकान्त में रखा बालक यह सब-कुछ नहीं जान सका . शरीर से सब प्रकार पुष्ट होने पर भी वह स्वतः ज्ञानवृद्धि करना तो दूर, अपने आवश्यक उचित आहार आदि को भी समझ लेने में असमर्थ रहता है.

जैसा स्वाभाविक ज्ञान मनुष्य में है, वैसा प्रत्येक प्राणी में रहता है , पर मनुष्य देह की बनावट में ऐसी विशेषताएं हैं, और देह में ऐसी कुछ ग्रंथिया और अवयव हैं कि उनके अपने उचित कार्य करते रहने पर ज्ञान-वृद्धि में अतंत सहयोग प्राप्त होता है पर यह उसी अवस्था में सम्भव है जब बाह्य उपदेश या शिक्षा आदि का उचित सहयोग हो. यह उपदेश या शिक्षा की परम्परा जब से मनुष्य ने सर्गआदिकाल में आँखें खोली हैं तभी से चली आ रही है. वर्तमान काल में माता-पिता, गुरु आदि उपदेश द्वारा बालक को शिक्षित करते हैं; बालक के माता, पिता आदि ने अपने बड़ों से उपदेश प्राप्त किया, उन्होंने अपने पूर्वजों से. इस प्रकार यह उपदेश परम्परा आदिसृष्टि तक पंहुचती है. प्रश्न यह है कि जो सर्वप्रथम मानव हुए , उनको ऐसा उपदेश किसने दिया? माता, पिता आदि उनके पूर्वज कोई न थे. इस बात को निश्चित रूप से जाना जा चुका है कि जीवात्मा को अतिरिक्त ज्ञान-ग्रहण का सामर्थ्य होने पर भी, बिना अन्य सहयोग के स्वतः ज्ञान वृद्धि में वह असमर्थ रहता है. एक सशक्त मनुष्य को गहरे पानी में छोड़ने पर वह तत्काल तैरने नहीं लगेगा, डूब ही जायेगा. पर प्रायः समस्त पशु एवं अनेक पक्षी स्वभावतः जल में छोड़े जाने पर तैर जाते हैं, उन्हें यह सिखाया किसी ने नहीं. मनुष्य एक ऐसा अपाहज प्राणी है, जो बिना सिखाए ऐसे कार्यों में अक्षम रहता है ; सिखाए जाने पर उल्टा, सीधा, तिरछा सब तरह तैर सकता है, तथा जल पर तैरने, अंदर डुबकी लगाने एवं आकाश में उड़ने आदि के अनेक साधनों का निर्माण कर सकता है जबकि अन्य प्राणियों में ऐसी कोई सम्भावना नहीं. मनुष्य की यह यह विशेषता इसकी विशेष शरीर रचना पर आधारित है जैसा कि अभी हम पहले ही कह चुकें हैं. आदिकाल में कोई लौकिक शिक्षक सम्भव न होने से, मानव की उक्त स्तिथि इस बात को प्रमाणित करती है कि उसे किसी अलौकिक पद्वति से वह ज्ञान प्राप्त होता है. जिसपर उसके आगे के समस्त व्यवहार आधारित हैं. यही एक अवसर है जब मनुष्य को उस रीति पर ज्ञान का उपदेश किया जाता है, जो अनंतर काल में साधारण रूप से अनपेक्षित है. जिस रीति पर आदिमानव को ज्ञान वृद्धि का साधन प्राप्त हुआ, उसी का नाम साक्षत्धर्मा व्यक्तियों ने ईश्वर प्रेरणा से ज्ञान प्राप्ति बताया है, उस ज्ञान साधन का मानव सदा लाभ उठा सकता है. वही साधन वेद हैं, जो सृष्टि के आदि समय से लेकर आज तक मानव द्वारा सुरक्षित हैं.

शंका- मेरा विचार है कि यदि मनुष्य या कोई विद्वान मनुष्य की परिभाषा कर ले और ज्ञान की भी, तो उसका फल यही हो सकता है कि वेद मनुष्यों के विचारों की पुस्तक है , न कि परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान है. मनुष्यों को जो वेदों के काल में अपनी आवश्यकता के अनुसार कुछ विचार उत्पन्न हुए, वे लिख दिए या बना लिये. मनुष्यों को जिससे लाभ होता है वह उसकी पूजा करता है, परन्तु ईश्वर से न तो कोई लाभ होता है और न हो सकता है. यह तो माना जा सकता है कि कोई ऐसी वस्तु अवश्य होनी चाहिये. ऐसा मानने में कोई बुद्धि का काम नहीं है.

निवारण- मनुष्य और ज्ञान के विषय में अभी ऊपर थोड़ा उपयुक्त विचार प्रस्तुत किया गया है. उतना विचार इस समय हमारी विवेचना के लिये पर्याप्त है और आपकी उसमें सहमति है. मनुष्य और ज्ञान की स्तिथि ऐसी है कि उसमें अन्य सहयोग के बिना किसी तरह के परिवर्तन या वृद्धि आदि की सम्भावना नहीं देखी जाती. ऐसी अवस्था में आपने जो उसका परिणाम निकाला कि वेद मनुष्य के विचारों की पुस्तक है, यह वास्तविकता से सर्वथा विपरीत है. मनुष्य स्वतः बिना किसी अन्य सहयोग के अपने विचारों को इतना महान एवं विस्तृत जानकारी तक पंहुचा सकता है, यही बात तो समझनी है. हमारे सामने जो हालात हैं, उनसे गहरा विचार करने पर हम इसी नतीजे पर पंहुचते हैं कि मानव सहयोग के बिना स्वतः उस स्तिथि को प्राप्त नहीं कर सकता. ऐसा मालूम होता है कि जब मानव अपने व अन्य सहयोगियों के महान प्रयत्न के फलस्वरूप उस अवस्था में पंहुचता है कि वह ऐसी समस्याओं पर विचार कर सके, तब स्वभावतः वह अपनी उन पहली अवस्थाओं को भुला देता है, जब उसने तोतली अटपटी ध्वनियों के साथ एक विशिष्ट सामाजिक वातावरण में रहकर बोलना और अपना सुकोमल हाथ दूसरे के हाथ में देकर कलम पकड़ना सीखा था.वह स्तिथि केवल स्वभाविक ज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं होती. यदि कोई विचारशील व्यक्ति आंकें खोल कर मानव समाज की; या अपनी पिछली यात्रा का सिंहावलोकन करे , तो वह इस नतीजे पर पंहुच सकता है कि जहाँ से मानव ने अपनी जीवनयात्रा प्रारम्भ की; वह अवस्था कैसी रही होगी – जीवन का प्रारम्भ किन दशाओं में सम्भव रहा होगा. इससे अच्छा और अधिक निर्दोष कोई अन्य मार्ग नहीं दिखाई देता कि आदिमानव को आलौकिक शक्ति द्वारा वह ज्ञान-साधन अवश्य प्राप्त हुआ, जिसके आधार पर वह अपने जीवन व्यवहार को चलने में समर्थ हो सका.

यह बात कह देने में बड़ी सरल है कि वेद काल में अपनी आवश्यकता-अनुसार जो विचार मनुष्य को उत्पन्न हुए , वे उसने लिख लिये या बना लिये , उन्हीं का नाम वेद है. वेद जिस रूप में हमारे सामने हैं , और उनमें जो कुछ है , वह सब इतना असाधारण है कि उस अवस्था तक पंहुचने के लिये मनुष्यों ने विस्तृत जगत का कितना सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त कर लिया होगा, इन्द्रियों के सर्वथा अगोचर विषयों को भी कितनी गहराई व सच्चाई के साथ जान लिया होगा , आज इसकी केवल कल्पना कर सकते हैं ; पर मूल प्रश्न यही है कि यदि कुछ सच्चाई इसी विचार में है, तो यह समस्या मुंह फाड़कर सामने आती है कि वह मानव , जिसके विचार वेद हैं –जानकारी की इतनी ऊँचीं अवस्था तक कैसे पहुँचा होगा? जबकि मानव स्वभावतः इतना अपाहज है कि बिना अन्य सहयोग के स्वतः कुछ नहीं सीख सकता.

इसके समाधान के लिये आधुनिक युग में एक ही मार्ग सुझाया गया है जो भारतीय परम्परा की इस विषय की प्रक्रियाओं की अपेक्षा करता है वह मार्ग है विकासवाद. आदिसर्ग की स्तिथि को हममें से किसी ने नहीं देखा है; जिन्होंने देखा वो आज नहीं ; हमारे–उनके सम्पर्क का कोई आधार नहीं. उसको किसी रूप में जानने या अंदाज़ा करने के लिये हमारे सामने यह प्राक्रतिक जगद्रूप पुस्तक है. इसको यदि कोई पढ़ सके , तो सम्भव है सच्चाई के समीप पहुंचने का मार्ग मिल जाये. प्राचीनकाल में साक्षातधर्मा ऋषियों ने इसे पढ़ा. उन्होंने जो परिणाम इसके प्रस्तुत किये , वे भारतीय संस्कृति व वैदिक साहित्य के रूप में कुछ सीमा तक सुरक्षित हैं. आधुनिक काल में कुछ समय से कुछ लोग इसके अध्यन का प्रशंसनीय प्रयास कर रहे हैं. अनेक जानकारियां भी सामने आ रही हैं. यह भी अपने ढंग का एक अनुपम प्रयास है , इसका अंतिम परिणाम क्या होगा, इसकी अभी प्रतीक्षा करनी होगी.सम्भव है कुछ अगली पीढियांइसे देख-समझ सकें. इसी दिशा में प्रकृति की परतों को उलटकर मानव समाज की यात्रा का जो स्वरुप किया गया है वही विकासवाद है; पर मूलतः यह एक अपसिद्धांत है.कारण यह कि संसार की ज्ञात परिस्तिथि के साथ यह मेल नहीं खाता. मूल प्रश्न यह है कि मानव का स्वतः विकास कैसे होता है? इसका उदाहरण कोई संसार में नहीं मिलता, जबकि इसके विपरीत सारा संसार प्रत्यक्ष उदाहरण है. इसीलिए संसार का ज्ञात या अज्ञात इतिहास कोई इस कल्पना की पुष्टि नहीं करता. जिन पर्त्तों को खोलकर तथाकथित उनके अध्यन से इस कल्पना का उदभावन किया गया है, वे पर्त्तें गहरे संदेशों से भरी हैं.

मानव –मस्तिष्क तथा मानव-देह की अन्य अनेक ग्रंथियों की ऐसी बनावट है जिससे ज्ञानवृद्धि के अत्यन्त साधन रूप में विशिष्ट सहयोग प्राप्त होता है, पर इसका बनाना मानव के हाथ में नहीं है. अपनी इच्छानुसार पूर्ण स्वस्थ मस्तिष्कयुक्त एवं सक्रिय ग्रंथियों से युक्त मानव-देह का निर्माण मानव द्वारा होना सम्भव नहीं, अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति उन्नतमस्तिष्क बालक को पैदा कर सकता है. कौन ऐसा पिता हो सकता है, जो अपने पुत्र को सर्वश्रेष्ठ न होना चाहे? यह कितना आश्चर्य है कि इतना अक्षम होता हुआ भी मानव यह समझता है कि उसने स्वतः सब-कुछ अर्जित कर लिया है, उसे कभी किसी से कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं हुई !

मनुष्य के लाभ का प्रश्न भी विचारणीय है . लाभालाभ आदि आपेक्षिक भाव हैं, इनकी कोई नियत सीमा नहीं. पर समाज की उच्च स्तिथि में मानव के लिये यह विचार महत्त्व रखता है, इसमें अभ्युदय की श्रेणियाँ छिपी रहती हैं. सवाल यह कि मनुष्य के लाभ में ईश्वर के सहयोग की अपेक्षा है भी कि नहीं. मनुष्य अपने विचार तथा ऐश्वर्यों के लिये प्रयत्न करने पर जिन उपलब्धियों में सफल होता है उसे लाभ कहता है. यह ठीक है पर इन सब प्रकार की ऐहिक उपलब्धियों का जो मूल आधार है, ऐसी ऐश्वरी रचना की ओर से मानव अपनी आँखें मूँद लेता है.

आप मानते हैं संसार या संसार का क्रम अनादि है, संसार बनता व बिगड़ता रहता है, इसे प्रत्येक वैज्ञानिक समझता है. इसका बनाना या बिगाड़ना मनुष्य की शक्ति से बाहर है. जो शक्ति इसे बनाती या बिगाड़ती है, उसी का नाम ईश्वर है. ईश्वर वैसे ही मान नहीं लिया गया है . उसका अस्तित्व आवश्यक, प्रामाणिक है, अनुपेक्षणीय है. मनुष्य के सब प्रकार के ऐहिक-पारलौकिक लाभ जगाद्रचना पर अवलम्बित है. मानव –देह में बैठा देह का अधिष्ठाता[आत्मा] जो इस तर्कणा की उद्भावना किया करता है, वह सृष्टि-रचना के अनन्तर ही इस अवस्था में आ पता है. संसार की यह रचना ईश्वराधीन है., इससे मनुष्य सब प्रकार के लाभ प्राप्त किया करता है. तब क्या यह नहीं माना जा सकता कि ईश्वर द्वारा ही मनुष्य को यह लाभ हुआ है. ठीक मस्तिष्क वाले ने इस सच्चाई को समझा है , इसीलिए वह आपके शब्दों में ईश्वर की पूजा करता है, करता आया है और आगे सदा करता रहेगा.

शंका- विचार यह है कि मनुष्य अनादि है, उसकी बुद्धि या ज्ञान स्वाभाविक है , क्योंकि मनुष्य न हो तो सृष्टि का विचार कौन कर सकता है ? और बगैर मनुष्यों के सृष्टि ही नहीं, क्योंकि सृष्टि अनादि है; या सृष्टिक्रम अनादि है तो ईश्वर को सृष्टि बनाने या न बनाने में कोई अधिकार ही नहीं, तो मनुष्य जो सृष्टि का अंग है, जैसा और जहाँ तक उसका मस्तिष्क जिस काल में ले जाता है वही विचार बना लेता है, इस कारण वेद ईश्वरकृत नहीं हो सकते.

निवारण- मनुष्य की परिभाषा आपकी अनुमति से जो पूर्व-निर्दिष्ट की गयी है, उसके अनुसार उस रूप में मनुष्य को अनादि नहीं कहना चाहिये. जब एक विशेष प्रकार के देह के साथ शक्ति(आत्मा) का सम्बन्ध होता है, उसे मनुष्य कहा जाता है. इस मनुष्य –परिभाषा में देह भी आ जाता है; पर कोई देह अनादि सम्भव नहीं है. देह को बनते-बिगड़ते हम अपने सामने देखते हैं, इसीलिए मनुष्य को अनादि न कहकर इसके क्रम को अनादि कहना चाहिये. मनुष्य का क्रम अर्थात सिलसिला अनादि है, मनुष्य अनादि काल से इसी प्रकार होता आया है , यही अभिप्राय आपका मनुष्य को अनादि कहने का हो सकता है. इसमें शक्ति(आत्मा) अनादि है, देह बनते –बिगड़ते रहते हैं. ज्ञान के स्वाभाविक होने की जो बात है, उसका विवेचन पहले ही किया जा चुका है.

‘मनुष्य न हो तो सृष्टि का विचार कौन कर सकता है ? बगैर मनुष्य के सृष्टि नहीं ‘ यह कहना ठीक नहीं है. सभी वैज्ञानिक , प्राचीन और नवीन , इस बात को जानते और मानते हैं कि मनुष्य के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व सृष्टि की पूर्ण रचना हो चुकी होती है. सृष्टि रचना के पर्याप्त अनन्तर मानव का प्रादुर्भाव होता है. तब यह कहना कहाँ तक ठीक है कि बगैर मनुष्य के सृष्टि ही नहीं ? इसके विपरीत कहना यह चाहिये कि सृष्टि के बिना मानव का प्रादुर्भाव सम्भव नहीं. सृष्टि का विचार पीछे की बात है; जब वह अपने अस्तित्व में आ चुकी है, तो उसका विचार होना या न होना कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता. सृष्टिक्रम को अनादि मानने का तात्पर्य यही है कि सृष्टि अनादि काल से चली आ रही है . जब इसका बनना –बिगड़ना माना जाता है, तब उसके बनाने-बिगाड़ने वाले से नकार नहीं किया जा सकता. निश्चित है कि मनुष्य इसके लिये सर्वथा असमर्थ है, साथ ही मनुष्य के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व सृष्टि-रचना हो चुकी होती है. इसकी जो रचना करता है, वही ईश्वर है. फिर सृष्टि के बनाने में ईश्वर का कोई अधिकार नहीं , यह कैसे कहा जा सकता है ?

मनुष्य सृष्टि का अंग है, यह कथन इस बात को स्पष्ट करता है कि सृष्टि-रचना पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं है. मनुष्य का एक भाग देह सृष्टि-रचना हो जाने पर अस्तित्व में आ सकता है, अन्यथा नहीं. आत्मा, जो शक्ति देह के अंदर बैठकर समस्त दैहिक क्रियाकलाप को प्रेरित करती है, उसका सब लौकिक व्यवहार इस स्थूल देह पर आश्रित रहता है. देह के सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग आत्मा-सम्बन्धी किसी भी व्यवहार के लिये उपयोगी होते हैं. देह के उन अंगों –प्रत्यंगों की क्रिया एवं प्रतिक्रिया के विषय में उसी देह के अधिष्ठाता आत्मा को कुछ भी जानकारी नहीं होती. परन्तु वे सब क्रिया एवं प्रतिक्रिया किसी नियम, किसी व्यवस्था के अनुसार अपना कार्य बराबर किया करती हैं. यदि गम्भीरता से देह की इस आन्तरिक प्रक्रिया पर विचार किया जाए, तो इस परिणाम पर पहुँचने में कोई बाधा नहीं होगी कि देह के अधिष्ठाता आत्मा का इन प्रक्रियाओं पर न कोई नियन्त्रण है और न उनकी इसे जानकारी है. उस प्रक्रिया में कभी व्यतिक्रम होने लगता है , तो अधिष्ठाता आत्मा को अपनी बेचैनी और मजबूरी का अहसास अच्छी तरह हो जाता है. स्पष्ट है कि देह की इस आन्तर व्यवस्था का व्यवस्थापक-आत्मा से अन्य कोई तत्व होना चाहिये. यह स्तिथि हमारे सम्मुख इस रहस्य को खोल देती है कि ‘ मनुष्य का मस्तिष्क जिस काल में उसे जहाँ ले जाता है, वही विचार बना लेता है.’ इस कथन में कितना बल है.

इस बात को पहले स्पष्ट कर दिया गया है कि मनुष्य चाहे जिस काल में हो, अन्य के सहयोग के बिना ज्ञानवृद्धि में सर्वथा अक्षम रहता है. इसीलिए ऐसे समय में जब उसके लिये लौकिक उपदेष्टाओं की उपलब्धि सम्भव है , आलौकिक उपदेष्टा के द्वारा उसके लिये ज्ञानवृद्धि के साधनों का उपलब्ध कराना अत्यन्त आवश्यक एवं स्वाभाविक है. इसमें गडबड होना मनुष्य की सांसारिक यात्रा को उत्पथ बना देना है. फलतः सर्गादीकाल में ईश्वर द्वारा मनुष्य के लिये सन्मार्ग प्रदर्शित करने का विचार अबुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है. ऐसे ही आधारों पर कहा गया है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है, यह उसी की देन है.

ऐसे विषय इन्द्रियागोचर हैं. सप्रमाण कल्पनाओं एवं ऊहाओं के आधार पर विवेचना प्रस्तुत की जा सकती है. भावुकता को छोड़कर केवल सत्यान्वेषण की भावना से इन विषयों पर मनन किया जाये तो सच्चाई तक पहुँचने की सम्भावना रहती है. पाठकगणों से मेरा हार्दिक निवेदन है कि वे स्वयं इन विषयों पर सलंग्नता से मनन करेंगे , तो उन्हें अवश्य सत्य का प्रकाश मिलेगा.

(ये लेख आचार्य उदयवीर शास्त्री द्वारा लिखे गए एक निबंध, पत्राचार के आधार पर है)

धर्म--- केवल सनातन धर्म [हिन्दू ] प्राकृतिक धर्म और भारतीय धर्म ही है, जिसमे मानवता का स्पंदन है .


करोणों वर्ष पहले जब किसी को पता नहीं था कोई शोध नहीं तब से यह सनातन धर्म मनुष्य को मानवता की शिक्षा दे रहा है पहले खेती नहीं होती थी लोग जंगलो में रहना गुरुकुलो में शिक्षा ग्रहण करना अध्यात्मिक जीवन व्यतीत करना श्रृष्टि को परमेष्टि से जोड़ना यही साधना थी, फल- फूल खाते थे विकाश की प्रक्रिया इस सनातन धर्म में प्रारंभ से ही बनी हुई है ऐसा नहीं कि जो मै कहू या मेरी किताब में लिखा है वही सही, यहाँ तो शोध और चिंतन के आधार पर मानव जीवन का विकाश यह लक्ष्य हमेशा बना रहा, हजारो संतो ने वेदों का अध्ययन कर वेदांत, उपनिषद और फिर पुराणो का भी काल आया, इस भारत माता ने कभी भगवन श्री राम तो कभी श्री कृष्ण जैसे महापुरुषों को जन्म देकर इस धर्म की प्रतिष्ठा को बढाया, यही धरती है जिसपर महाराजा पृथु पैदा हुए जिन्होंने जनता को खेती करने की प्रेरणा दी, कोई महाराजा जनक आये होगे जिन्होंने खेती को प्रमुखता दी इसलिए हमारे कहा गया ''उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद्ध चाकरी भूख निदान'' .

भारत में ऋषियों -मुनियों की परंपरा थी जिन्होंने शोध किया क्या खाना -क्या नहीं खाना क्या पहनना के नहीं पहनना ? आज भी हमारा जीवन- भारतीय जीवन -वैज्ञानिक जीवन बना हुआ है प्रत्येक घर में तुलसी का पौधा जरुर मिलेगा जो हमारे जीवन में तमाम रोगों के काम में आती है कोई भी हिन्दू पीपल के बृक्ष को नहीं काट सकता ये हमें रातो-दिन प्राणु वायु देता है हमने औषधियों को सुरक्षित करने का प्रयत्न किया प्रकृति की पूजा की इस नाते हम प्राकृतिक पूजक भी कहलाते है यही हमारी धीरे-धीरे सनातन परंपरा- सनातन धर्म कहलाता है जिससे हमारी जीवन धारा चलती है जो मनुष्य को मनुष्यता सिखाती है जियो और जीने दो, मेरा ग्रन्थ सही है तो किसी दुसरे का भी ठीक,यदि हमारे महापुरुष ठीक है तो दुसरे की निंदा नहीं करना, हमारे पूजा स्थल है तो दुसरे को नहीं तोडना .



समय बदलता गया विश्व में बहुत सारे महापुरुष आये बिभिन्न स्थानों के होना के नाते उन्होंने अपने हिसाब से दुनिया को परिभाषित करने का प्रयास किया और उन्होंने कहना शुरू किया कि मेरी ही बात ठीक है शेष सबकी बात गलत है, मेरा ही पूजा स्थल पवित्र है इसलिए दुसरे की जरुरत नहीं, मेरी ही पूजा पद्धति ठीक है इसलिए इसी को मनो नहीं तो जीने का अधिकार नहीं,मेरा ही ग्रन्थ जन्नत प्रदान करता है इस नाते और किसी ग्रन्थ की आवस्यकता नहीं, कारन सारे विश्व में हिंसा, तनाव, बर्चस्व की लडाई शुरू हो गयी धर्म के नाम पर इस्लाम मतावलंबियो ने करोणों की हत्या ही नहीं अमानुषिक ब्यवहार किया,लाखो मंदिरों को तोडा, दुनिया का इतिहास और भूगोल बदलने का प्रयास किया दूसरी तरफ इशाई मतावलंबियो ने भी यही काम किया इन्होने तो १५० करोण लोगो की हत्या की दोनों ने एक ही काम किया जिससे ये आज अप्रसांगिक हो गए है, लेकिन हिन्दू धर्म नित्य -नूतन और बैज्ञानिक अवधारना को मानने वाला है, प्रकृति के साथ चलने वाला किसी के साथ घृणा का भाव नहीं.

हमारी संस्कृति का विकाश धीरे- धीरे गंगा, यमुना और सरस्वती तथा नर्मदा के तटों द्वारा हुआ यहाँ कबीलों का नहीं तो गावो और नगरो का विकाश परिवार का अद्भुत विकाश जिसमे स्नेह प्रेम हमारी परंपरा बनी, हमारे ऋषियों ने वेदों को आधार बना जीवन रचना की जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले था हमने लाखो- करोणों वर्ष की यात्रा में मानवता का उत्कृष्ट उदहारण विश्व के सामने रखा है, हमारे पुर्बजो ने तीर्थो में जैसे द्वादस ज्योतिर्लिंग ५२ शक्ति पीठ चार धाम और कुम्भो की ब्यवस्था की जिससे हमारे समाज में चिंतन व विचार की प्रक्रिया चलती रहे यही सनातन धर्म की विशेषता है.

यही है हिंदुत्व, यही है सनातन धर्म, यही है भारतीयता, और यही है मानवता जिससे सारी दुनिया सुखी संपन्न रहकर इस युग में भी सृष्टि को परमेष्टि से जोड़ साकता है, आइये हम सभी मिलकर भूले बिसरे लोगो को पुनः हिन्दू धर्म में सामिलकर उन्हें मोक्ष का भागी बनावे-जिसका पुण्य हमें भी मिलेगा क्यों की वह गाय का हत्यारा नहीं होगा, वह मूर्ति को तोड़ने वाला नहीं होगा, वह पाकिस्तान जिंदाबाद नहीं करेगा, वह भारत माता की जय बोलेगा, वह भारतीय पहाड़ो, नदियों, तीर्थ स्थलों के प्रति श्रद्धा रखेगा और अंत में वह देश भक्त ही होगा आखिर इसका पुण्य तो हमें ही मिलेगा आईये सोचे, समझे और बिचार करे .

साभार : कुंवर दीप्नयन सिंह 

विश्व में हिन्दू देश एक अथवा दो नहीं वरन १३

विश्व में हिन्दू देश एक अथवा दो नहीं वरन १३



जब लोग कहते हैं कि विश्व में केवल एक ही हिन्दू देश है तो यह पूरी तरह गलत है यह बात केवल वे ही कह सकते हैं जो हिन्दू की परिभाषा को नहीं जानते । इसके लिए सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि हिन्दू की परिभाषा क्या है । 

हिन्दुत्व की जड़ें किसी एक पैगम्बर पर टिकी न होकर सत्य, अहिंसा सहिष्णुता, ब्रह्मचर्य , करूणा पर टिकी हैं । हिन्दू विधि के अनुसार हिन्दू की परिभाषा नकारात्मक है परिभाषा है जो ईसाई मुसलमान व यहूदी नहीं है वे सब हिन्दू है। इसमें आर्यसमाजी, सनातनी, जैन सिख बौद्ध इत्यादि सभी लोग आ जाते हैं । एवं भारतीय मूल के सभी सम्प्रदाय पुर्नजन्म में विश्वास करते हैं और मानते हैं कि व्यक्ति के कर्मों के आधार पर ही उसे अगला जन्म मिलता है । तुलसीदास जीने लिखा है परहित सरिस धरम नहीं भाई । पर पीड़ा सम नहीं अधमाई । अर्थात दूसरों को दुख देना सबसे बड़ा अधर्म है एवं दूसरों को सुख देना सबसे बड़ा धर्म है । यही हिन्दू की भी परिभाषा है । कोई व्यक्ति किसी भी भगवान को मानते हुए, एवं न मानते हुए हिन्दू बना रह सकता है । हिन्दू की परिभाषा को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि भारत में हिन्दू की परिभाषा में सिख बौद्ध जैन आर्यसमाजी सनातनी इत्यादि आते हैं । हिन्दू की संताने यदि इनमें से कोई भी अन्य पंथ अपना भी लेती हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं समझी जाती एवं इनमें रोटी बेटी का व्यवहार सामान्य माना जाता है । एवं एक दूसरे के धार्मिक स्थलों को लेकर कोई झगड़ा अथवा द्वेष की भावना नहीं है । सभी पंथ एक दूसरे के पूजा स्थलों पर आदर के साथ जाते हैं । जैसे स्वर्ण मंदिर में सामान्य हिन्दू भी बड़ी संख्या में जाते हैं तो जैन मंदिरों में भी हिन्दुओं को बड़ी आसानी से देखा जा सकता है । जब गुरू तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितो के बलात धर्म परिवर्तन के विरूद्ध अपना बलिदान दिया तो गुरू गोविन्द सिंह ने इसे तिलक व जनेउ के लिए उन्होंने बलिदान दिया इस प्रकार कहा । इसी प्रकार हिन्दुओं ने भगवान बुद्ध को अपना 9वां अवतार मानकर अपना भगवान मान लिया है । एवं भगवान बुद्ध की ध्यान विधि विपश्यना को करने वाले अधिकतम लोग आज हिन्दू ही हैं एवं बुद्ध की शरण लेने के बाद भी अपने अपने घरों में आकर अपने हिन्दू रीतिरिवाजों को मानते हैं । इस प्रकार भारत में फैले हुए पंथों को किसी भी प्रकार से विभक्त नहीं किया जा सकता एवं सभी मिलकर अहिंसा करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य को ही पुष्ट करते हैं । 

इसी कारण कोई व्यक्ति चाहे वह राम को माने या कृष्ण को बुद्ध को या महावीर को अथवा गोविन्द सिंह को परंतु यदि अहिंसा, करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य, पुर्नजन्म, अस्तेय, सत्य को मानता है तो हिन्दू ही है । इसी कारण जब पूरे विश्व में 13 देश हिन्दू देशों की श्रेणी में आएगें । इनमें वे सब देश है जहाँ बौद्ध पंथ है । भगवान बुद्ध द्वारा अन्य किसी पंथ को नहीं चलाया गया उनके द्वारा कहे गए समस्त साहित्य में कहीं भी बौद्ध शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । उन्होंने सदैव इस धर्म कहा । भगवान बुद्ध ने किसी भी नए सम्प्रदाय को नहीं चलाया उन्होनें केवल मनुष्य के अंदर श्रेष्ठ गुणों को लाने उन्हें पुष्ट करने के लिए ध्यान की पुरातन विधि विपश्यना दी जो भारत की ध्यान विधियों में से एक है जो उनसे पहले सम्यक सम्बुद्ध भगवान दीपंकर ने भी हजारों वर्ष पूर्व विश्व को दी थी । एवं भगवान दीपंकर से भी पूर्व न जाने कितने सम्यंक सम्बुद्धों द्वारा यही ध्यान की विधि विपश्यना सारे संसार को समय समय पर दी गयी ( एसा स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा कहा गया है । भगवान बुद्ध ने कोई नया पंथ नहीं चलाया वरन् उन्होंने मानवीय गुणों को अपने अंदर बढ़ाने के लिए अनार्य से आर्य बनने के लिए ध्यान की विधि विपश्यना दी जिससे करते हुए कोई भी अपने पुराने पंथ को मानते हुए रह सकता है । परंतु विधि के लुप्त होने के बाद विपश्यना करने वाले लोगों के वंशजो ने अपना नया पंथ बना लिया । परतुं यह बात विशेष है कि इस ध्यान की विधि के कारण ही भारतीय संस्कृति का फैलाव विश्व के 21 से भी अधिक देशों में हो गया एवं ११ देशों में बौद्धों की जनसंख्या अधिकता में हैं । 



हिन्दुत्व व बौद्ध मत में समानताएं - 

१- दोनों ही कर्म में पूरी तरह विश्वास रखते हैं । दोनों ही मानते हैं कि अपने ही कर्मों के आधार पर मनुष्य को अगला जन्म मिलता है । 

2- दोनों पुर्नजन्म में विश्वास रखते हैं । 

3- दोनों में ही सभी जीवधारियों के प्रति करूणा व अहिंसा के लिए कहा गया है । 

4- दोनों में विभिन्न प्रकार के स्वर्ग व नरक को बताया गया है । 

5- दोनों ही भारतीय हैं भगवान बुद्ध ने भी एक हिन्दू सूर्यवंशी राजा के यहां पर जन्म लिया था इनके वंशज शाक्य कहलाते थे । स्वयं भगवान बुद्ध ने तिपिटक में कहा है कि उनका ही पूर्व जन्म राम के रूप में हुआ था । 6- दोनों में ही सन्यास को महत्व दिया गया है । सन्यास लेकर साधना करन को वरीयता प्रदान की गयी है । 

7- बुद्ध धर्म में तृष्णा को सभी दुखों का मूल माना है । चार आर्य सत्य माने गए हैं । 

- संसार में दुख है 

- दुख का कारण है 

- कारण है तृष्णा 

- तृष्णा से मुक्ति का उपाय है आर्य अष्टांगिक मार्ग । अर्थात वह मार्ग जो अनार्य को आर्य बना दे । 

इससे हिन्दुओं को भी कोई वैचारिक मतभेद नहीं है । 

8- दोनों में ही मोक्ष ( निर्वाण )को अंतिम लक्ष्य माना गया है एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुरूषार्थ करने को श्रेष्ठ माना गया है । 

दोनों ही पंथों का सूक्ष्मता के साथ तुलना करने के पश्चात यह निष्कर्ष बड़ी ही आसानी से निकलता है कि दोनों के मूल में अहिंसा, करूणा, ब्रह्मचर्य एवं सत्य है । दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता । और हिन्दओं का केवल एक देश नहीं बल्कि 13 देश हैं । 

इस प्रकार हम देखते हैं विश्व की कुल जनसंख्या में भारतीय मूल के धर्मों की संख्या 20 प्रतिशत है जो मुस्लिम से केवल एक प्रतिशत कम हैं । एवं हिन्दुओं की कुल जनसंख्या बौद्धों को जोड़कर 130 करोड़ है। है जो मुसलमानों से कुछ ही कम है । व हिन्दुओं के 13 देश थाईलैण्ड, कम्बोडिया म्यांमार, भूटान, श्रीलंका, तिब्बत, लाओस वियतनाम, जापान, मकाउ, ताईवान नेपाल व भारत हैं । इसी कारण जब लोग कहते हैं कि विश्व में केवल एक ही हिन्दू देश है तो यह पूरी तरह गलत है यह बात केवल वे ही कह सकते हैं जो हिन्दू की परिभाषा को नहीं जानते हैं ।





बौद्ध देशों की सूची 



1. Bangladesh

2. Bhutan

3. Cambodia

4. China

5. Hong Kong

6. India

7. Indonesia

8. South Korea

9. Laos

10. Japan

11. Macau

12. Mongolia

13. Myanmar

14. Malaysia

15. Nepal

16. Singapore

17. Sri Lanka

18. Taiwan

19. Thailand

20. Vietnam

21. Philippines



Sabhar: http://www.hindusthangaurav.com/, दीप नयन  सिंह