स्नातन धर्म के सभी देवी देवता शस्त्र धारण करते हैं। युद्धाभ्यास केवल क्षत्रियों तक ही सीमित नहीं थे, अन्य वर्ग भी इस का प्रशिक्षण ले सकते थे। शस्त्र ज्ञान के क्षेत्र में महिलायें भी पुरुषों के समान ही निपुण थीं। ऋषि वात्सायन कृत काम-सूत्र में महिलाओं के लिये तलवार, छडी, धनुषबाण के साथ युद्धकलाभ्यास के लिये भी प्रोत्साहन दिया गया है।
युद्ध कला साहित्य
विज्ञान तथा कलाओं की भान्ति युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास का उद्गम भी वेद ही हैं। वेदों में अठारह ज्ञान तथा कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। अग्नि पुराण का उपवेद ‘धनुर्वेद’ पूर्णत्या धनुर्विद्या को समर्पित है। अग्नि पुराण में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है कि उस में पाँच भाग इस प्रकार थेः-
- यन्त्र-मुक्ता – अस्त्र-शस्त्र के उपकरण जैसे घनुष और बाण।
- पाणि-मुक्ता – हाथ से फैंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला।
- मुक्ता-मुक्ता – हाथ में पकड कर किन्तु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि बर्छी, त्रिशूल आदि।
- हस्त-शस्त्र – हाथ में पकड कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा अदि।
- बाहू-युद्ध – निशस्त्र हो कर युद्ध करना।
युद्ध कला परिशिक्षण
प्रथम शताब्दि में भी में युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। आठवीं शताब्दी के उद्योत्ना कृत ग्रंथ ‘कुव्वालय-माला’ में कई कई युद्ध क्रीडाँओं का उल्लेख किया गया है जिन में धनुर्विद्या, तलवार, खंजर, छडियों, भालों तथा मुक्कों के प्रयोग से परिशिक्षण दिया जाता था।
शिक्षार्थियों की दक्षता आँकने के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित करी जाती थीं। रामायण में राम दूारा शिव धनुष उठा कर अपनी शारीरिक क्षमता का प्रमाण देने का वृतान्त सर्व विदित है। महाभारत मे भी उल्लेख मिलते हैं जब गुरु द्रौणाचार्य ने कौरव पाँडव राजकुमारों के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित कीं थीं। सभी राजकुमारों को ऐक मिट्टी के बने पक्षी की आँख पर लक्ष्य साधना था जिस में केवल अर्जुन ही सफल हुआ था। इसी प्रकार उर्जुन नें द्रौप्दी के स्वयंबर के समय नीचे रखे तेल के कढाहे में देख कर ऊपर घूमती हुई मछली की आँख को बींध दिया था। ऐक अन्य महाभारत कालीन उल्लेख में निशस्त्र युद्ध कला का वर्णन है जिस में दो प्रतिदून्दी मुक्कों, लातों, उंगलियों तथा अपने शीश के आघातों से परस्पर युद्ध करते हैं।
निशस्त्र युद्धाभ्यास - बाहु-युद्ध
सुश्रुत लिखित सुश्रुत संहिता में मानव शरीर के 107 स्थलों का उल्लेख है जिन में से 49 अंग अति संवेदनशील बताये गये हैं। यदि उन पर घूंसे से या किसी अन्य वस्तु से आघात किया जाये तो मृत्यु हो सकती है। भारतीय शस्त्राभ्यास के समय उन स्थलों पर आघात करना तथा अपने आप को आघात से कैसे बचाना चाहिये सिखाया जाता था।
लगभग 630 ईस्वी में पल्लवराज नरसिंह्म वर्मन ने कई पत्थर की प्रतिमायें लगवायीं थी जिन को निश्स्त्र अभ्यास करते समय अपने प्रतिदून्दी को निष्क्रय करते दर्शाया गया था।
युद्ध क्रीडा
कुश्ती को मल-युद्ध कहा जाता था। हनुमान, भीम, और कृष्ण के बडे भाई बलराम इस कला में निपुण थे। आज भी भारतीय खिलाडी उन्हीं में से किसी ऐक को अपना आराघ्य मान कर अभ्यास करते हैं।
प्रथम शताब्दी की बुद्ध धर्म की कृति ‘लोटस-सूत्र’ में भी मुक्केबाज़ी, मुष्टिका प्रहार, अंगों को जकडना तथा उठा कर फैंकने आदि के अभ्यासों का उल्लेख मिलता है।
तीसरी शताब्दी में पतंजली योग सूत्र के कुछ अंश, तथा नट नृत्य कला की मुद्रायें भी युद्ध क्रीडाओं सें शामिल करी गयीं थीं।
प्राचीन काल से कलारिप्पयात, वज्र-मुष्ठि तथा गतका आदि कलायें युद्ध परिशिक्षण का अंग रही हैं।
कलारिप्पयात
कलारिप्पयात विश्व का सर्व प्रथम युद्ध अभ्यास है। इस की शुरुआत केरल के चौला राजाओं के काल से हुयी। यह अति उग्र और भयानक कलाभ्यास है जिस में लात, घूंसों के आघातों से क्रमशः निरन्तर कठिन और उग्र शस्त्रों का प्रयोग भी किया जाता है। इस में खंजर, तलवार, भाले सभी कुछ प्रयोग किये जाते हैं तथा उन के अतिरिक्त ऐक अन्य भयानक शस्त्र धातु मे बना हुआ चाबुक भी प्रयोग में आता है। खंजर तीन धार वाले तथा अत्यन्त तीखे होते हैं। आघात मर्म स्थलों पर और वध करने की धारणा से किये जाते हैं।कलारिप्पयात का मुख्य हथियार ऐक लचीली दो घारी तलवार होती है जिसे प्रतिस्पर्धी अपनी कमर पर लपेट कर रखते हैं। युद्ध के समय इसे हाथ में गोलाकार स्थिति में पकड कर रखा जाता है और फिर अचानक प्रतिदून्दी पर अघात किया जाता है। सावधान ना रहने की अवस्था में प्रतिस्पर्धी की मृत्यु निशचित है। यह विश्व भर में ऐक अनूठा शस्त्र है। इस कला का अभ्यास कडे नियमों तथा कुशल गुरू के सन्निध्य में किया जाता है।
इस कला के शिक्षार्थी शिव और शक्ति को अपना आराध्य मानते हैं। बुद्ध धर्म के साथ साथकलारिप्पयात का प्रसार दूरगामी पूर्वी देशों में भी हुआ। बुद्ध प्रचारक दूरगामी देशों की यात्रा करते थे इस लिये दूसरे धर्म के हिंसक विरोधियों से अपनी सुरक्षा के लिये वह इस कला का प्रयोग भी सीखते थे।इस का प्रयोग केवल प्रतिरक्षा के लिये ही होता था अतः कलारिप्पयात कला बुद्ध धर्म की अहिंसा की नीति के अनुकूल थी।
वज्र मुष्टि
वज्रमुष्टि का अर्थ है इन्द्र के वज्र का समान मुष्टिका से प्रहार करना। क्षत्रियों को युद्ध में कई बार अपने वाहन और शस्त्रों के खो जाने के कारण निशस्त्र हो कर पैदल भी युद्ध करना पडता था। यद्धपि युद्ध के नियमानुसार निशस्त्र पर प्रहार करना नियम विरुद्ध था तथापि नियम का उल्लंघन करने वाले भी सभी जगह होते हैं। अतः कुटिल शत्रुओं से युद्ध की स्थिति में क्षत्रिय मल युद्ध तथा मुष्टिका प्रहारों से अपना बचाव करते थे। आघात तथा बचाव के विधान परम्परा गत पीढी दर पीढी सिखाये जाते थे।
वज्र मुष्टि का अभ्यास शान्ति काल में सीखा जाता था और सभी प्रकार के आक्रमण तथा बचाव के गुर सिखाये जाते थे। संस्कृत में उन्हें संस्कृत नट कहा जाता है। नट को जाग्रित करने की अध्यात्मिक कला कठिन परिश्रम, अनुशासन नियमों के पालन तथा ऐकाग्रता की साधना के पश्चात ही सम्भव थी। मुसलिमों के आगमन और अधिकरण के पश्चात इस कला के विशेषज्ञ मार दिये गये और यह समाप्त हो गयी। 1804 ईसवी में अँग्रेज़ों ने इस पर पूर्णत्या प्रतिबन्ध लगा दिया।
गतका
गतका पंजाब का युद्ध कौशल है। यह दो अथवा चार टोलियों में खेला जाता है। प्रतिस्पर्धियों के पास बेंत, तलवार या खडग (खाँडा) आदि हथियार होते हैं तथा गोलाकार ढाल भी होता है। इस को योरुपीय तलवारबाज़ी की तरह ही खेला जाता है और इस कला में पँजाब के निहँग समुदाय की गतका बाजी अति लोकप्रिय प्रदर्शन है।
भारतीय युद्ध कलाओं का निर्यात
भारत के युद्ध कौशल क्रीडायें जैसे कि जूडो, सुम्मो मलयुद्ध बुद्ध प्रचारकों के साथ साथ चीन, जापान तथा अन्य पू्रवी देशों में प्रचिल्लत हुयीं।
जापान की युद्ध कला सुमराई में भी कई विशेषतायें भारतीय संस्कृति से परिवर्तित हुईं जैसे कि तलवारों की पवित्रता, वीरगति की लालसा तथा अपने स्वामी के लिये प्राणों का बलिदान करने की भावना, मानव का प्राणायाम के माध्यम से पांच महाभूतों के साथ ऐकाकार करना आदि मानसिक्तायें भारत की उपज हैं। यदि मन और शरीर में ऐकाग्रता है तो शरार की क्षमतायें असीमित हो जाती हैं। इस सिद्धान्त को आधार मान कर बुद्ध धर्म के ऐक प्रचारक बौधिधर्म ने शाओलिन मन्दिर का निर्माण चीन में किया था जहां से युद्ध कलाओं की इस परम्परा की शुरुआत हुयी।
- जूडो तथा कराटे खेल में ऐक शिक्षार्था तथा गुरु के सम्बन्ध भारत की गुरु शिष्य परम्परा के अनुकूल और प्रभावित हैं।
- इसी प्रकार प्राणायाम के माध्यम से श्वास नियन्त्रण भी ताये क्वान दो कराते का प्रमुख अंश बन गया।
बोधि धर्मः
बोधिधर्म का जन्म कच्छीपुरम, तामिलनाडु के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 522 ईसवी में वह चीन के महाराज लियांग-नुति के दरबार में आया। उस ने चीन के मोंक्स को कलारिप्पयातकी कला का प्रशिक्षण दिया ताकि वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। शीघ्र ही वह शिक्षार्थी इस कला के पारांगत हो गये जिसे कालान्तर शाओलिन मुष्टिका प्रतियोग्यता के नाम से पहचाना गया। बोधिधर्म ने जिस कला के साथ प्राणा पद्धति (चीं) को भी संलगित किया और उसी से आक्यूपंक्चर का समावेश भी हुआ। ईसा से 500 वर्ष पूर्व जब बुद्ध मत का प्रभाव भारत में फैला तो नटराज को बुद्ध धर्म संरक्षक के रूप में पहचाना जाने लगा। उन का नया नामकरण नरायनादेव ( चीनी भाषा में ना लो यन तिंय) पडा तथा उन्हें पूर्वी दिशा मण्डल के संरक्षक के तौर पर जाना जाता है।
वल्लमकली नाव स्पर्धा
केरल में वल्लमकली नाव स्पर्धा ऐक आकर्षक क्रीडा है जिस में सौ से अधिक नाविक ऐक साथ सागर में नौका दौड की प्रतियोग्यता में भाग लेते हैँ। इस के सम्बन्ध में ऐक रोचक कथा हैः
चार सौ वर्ष पूर्व चन्दनवल्लम मुख्यता युद्ध में प्रयोग किये जाते थे। चन्दनवल्लम बनाने के लिये 20 से 30 लाख सिक्कों तक की लागत आती था और निर्माण में दो वर्ष से अधिक समय लगता था।
चम्पाकेसरी प्रदेश के राजा ने अपने मुख्य नाव निर्माता को आदेश दिया कि वह ऐक ऐसी नाव का निर्माण करे जिस में ऐक सौ सिपाही ऐक साथ नाव खेने का काम कर सकें। इस प्रकार की क्षमता प्राप्त कर के उस ने अपने प्रतिदून्दी कायामुखम के राजा को प्राजित किया।
प्राजित राजा ने गुप्तचर भेज कर चन्दनवल्लम के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाही। ऐक गुप्तचर नें नाविक की पुत्री को प्रेम जाल में फाँस कर उस की माता का स्नेह भी प्राप्त कर लिया। फलस्वरूप माँ-बेटी दोनो ने नाविक पर प्रभाव डाल कर उसे भेजे गये गुप्तचर को नाव निर्माण की कला सिखाने के लिये विवश कर दिया।
नाव निर्माण की कला सीखने के पश्चात अगले ही दिन गुप्तचर चुपचाप अपने प्रदेश चम्पाकेसरी चला गया। कायामुखम के राजा ने नाविक निर्माता को बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया। परन्तु उसे शीघ्र ही रिहाई मिल गयी क्यों कि अगली लडाई में कायामुखम को पुनः प्राजय का मुहँ देखना पडा। पता चला कि नाविक ने केवल नाव बनाने की कला ही सिखाई थी परन्तु चन्दनवल्लम का वास्तविक ज्ञान नहीं दिया था।
वल्लमकली क्रीडा भिन्न भिन्न जातियों, धर्मों तथा प्रदेशों के लोगों को ऐक सूत्र में बाँधती है। नौका पर बैठे सभी शरीर ऐक साथ विजय लक्ष्य के सूत्र में बँध जाते हैं। आजकल भी यह नौका दौड पर्यटकों को आकर्षित करती है।
साभार : चाँद शर्मा, हिन्दु महासागर
बहुत अच्छी जानकारी !!
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