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Monday, October 15, 2012

पश्चिम से सूर्योदय पूर्व में अस्त


सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया तो सीमावर्ती राजा आम्भी ने सिकन्दर के आगे सम्पर्ण किया। उस के पश्चात सिकन्दर का दूसरे सीमावर्ती राजा पुरू से मुकाबला हुआ। यद्यपि पुरू हार गया था किन्तु उस युद्ध में सिकन्दर की फौज को बहुत क्षति पहुँची थी और वह स्वयं भी घायल हो गया था। सिकन्दर को आभास हो गया था कि यदि वह आगे बढता रहा तो उस की सैन्य शक्ति नष्ट हो जाये गी। उस के सैनिक भी डर गये थे और अपने घरों को लौटने का आग्रह करने लगे थे। वास्तव में सिकन्दर ने भारत में कोई भी युद्ध नहीं जीता था। असल शक्तिशाली सैनाओं से युद्ध आगे होने थे जो नहीं हुऐ। वह केवल सिन्धु घाटी में प्रवेश कर के सिन्धु घाटी के रास्ते से ही वापिस चला गया था।
भारत की ज्ञान गाथा
ज्ञान-विज्ञान, कलाओं आदि के क्षेत्र में भारतवासियों ने जो भी प्रगति करी थी उस में अंग्रेजी भाषा या तकनीक का कोई योग्दान नहीं था और उस का पूरा श्रेय हिन्दू सम्राटों को जाता है। तब तक मुस्लमानों का भारत में आगमन भी नहीं हुआ था। भारत की सैन्य शक्ति का आँकलन इस तथ्य से किया जा सकता है कि सिकन्दर महान की सैना को सीमावर्ती राजा पुरू के सैनिकों ने ही स्वदेश लौटने के लिये विवश कर दिया था। इसी की तुलना में ऐक हजार वर्ष पश्चात जब ईरान का ऐक मामूली लुटेरा नादिरशाह तीन दिन तक राजधानी दिल्ली को बंधक बना कर लूटता रहा और नागरिकों का कत्लेाम करता रहा तो भी मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ उस के सामने घुटने टेक कर बेबस पडा रहा था। 
सिकन्दर मध्यकालीन युग के आक्रान्ताओं की तरह का लुटेरा नहीं था। उस की ज्ञान पिपासा भी कम नहीं थी। उस ने भारत के ज्ञान, वैभव तथा शक्ति की व्याख्या यूनान में ही सुन रखी थी और वह इस देश तक पहुँचने के लिये उत्सुक्त था। उस समय भारत विजय का अर्थ ही विश्व विजय था। सिकन्दर प्रथम योरुप वासी था जो भारत के ज्ञान वैभव की गौरवशाली गाथा योरुप ले कर गया जहाँ के राजाओ के लिये भारत ऐक आदर्श परन्तु दुर्लभ लक्ष्य बन चुका था।
योरुप का वातावरण
पश्चिम में उस समय तक अंधकार-युग(डार्क ऐज) चल रहा था। सभी देश लगभग आदि मानवों जैसी स्थिति में ही रह रहै थे। जानवरों की खालें उन का पहरावा था तथा मछली और शिकार उन का भोजन। अन्धविशवास के साथ अपने आप को बिमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से बचाते रहना ही उन की दिन-चर्या रहती थी। ज्ञान की प्रथम जागृति (फर्स्ट-अवेकनिंग) का प्रभाव आम योरुपवासियों के जीवन में विशेष नहीं था। यह वह समय था जब पूर्व में भारत और पश्चिम में ग्रीक तथा रोम विश्व की महाशक्तियाँ थीं।  
योरुप में रिनेसाँ
योरुप में ‘रिनेसाँ’ का युग चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी का है जो मध्य कालीन युग को आधुनिक युग से जोडता है। हिन्दू धर्म में तो वैचारिक स्वतन्त्रता थी, परन्तु पश्चिमी देशों में रोम के चर्च और पोप का प्रभाव किसी अडियल स्कूल मास्टर की तरह का था। सब से पहले इंगलैण्ड के राजा हैनरी अष्टम ने अपने निजि कारणों से रोम के पोप का प्रभाव चर्च आफ इंगलैण्ड (प्रोटेस्टेन्ट चर्च) बना कर समाप्त किया किन्तु वह केवल उस के अपने देश तक ही सीमित था बाकी योरुप में पोप की ही मान्यता थी।
योरुप में धर्मान्ध कट्टरपंथी पादरी वैज्ञानिक खोजों का लम्बे समय तक विरोध करते रहे थे। भारत के प्राचीन ग्रन्थ तो योरुप वासियों को ग्रीक, लेटिन तथा अरबी भाषा के माध्यम से प्राप्त हो चुके थे, किन्तु सत्य की खोज कर के वैज्ञानिक तथ्यों को कहने की हिम्मत जुटाने में योरूप वासियों को कई वर्ष लगे। जैसे ही चर्च का हस्तक्षेप कम हुआ तो यूनानी तथा अरबों की मार्फत गये भारतीय ज्ञान के प्रकाश नें समस्त योरुप को प्रकाशमय कर दिया। जिस प्रकार बाँध टूट जाने से सारा क्षेत्र जल से भर जाता है उसी प्रकार योरुप में चारों तरफ प्रत्येक क्षेत्र में तेजी से विकास होने लगा। योरुपीय देश विश्व भर में महा शक्तियों के रूप में उभरने लग गये ।
चर्च से वैज्ञानिक स्वतन्त्रता
रिनेसां के प्रभाव से इंगलैण्ड के बाद बाकी योरुपीय देशों में भी रोम के चर्च का प्रभाव कम होने लगा था। तभी वैज्ञानिक सोच विचार का पदार्पण हुआ। रोमन और ग्रीक साहित्य के माध्यम से अरस्तु, होमर, दाँते आदि की विचारधारा पूरे योरूप में फैल गयी जो सिकन्दर के समय से पहले ही भारतीय विचारधारा से प्रभावित थी। लेकिन योरूप वासियों को उस विचारधारा के जनक ग्रीक दार्शनिक ही समझे गये। उन्हें संस्कृत भाषा और साहित्य का ज्ञान नहीं था। योरुप में रिनेसाँ ऐक अध्यात्मिक, साँस्कृतिक, और राजनैतिक क्राँति थी जिस में ज्ञान-विज्ञान और कलाओं का प्रसार हुआ, परन्तु योरुप के सभी देशों में प्रगति का स्तर ऐक समान नहीं था।
धर्म-निर्पेक्ष विचारधारा
राजनीति में चर्च का हस्तक्षेप कम हो जाने से इंगलेण्ड में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ विचारधारा का भी प्रशासन में समावेश हुआ। अमेरिका में धर्म-निर्पेक्ष्ता अमेरिकन वार आफ इण्डिपैन्स (1775-1782) के पश्चात तथा फ्रांस में फ्रैन्च रैवोलुयूशन के पश्चात 1789 में आयी।
इंगलैण्ड के लोगों की तारीफ करनी चाहिये जो उन्हों ने विश्व के दुर्गम स्थानों को ढूंडा। वह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव तक पहुँचे और उन्हों ने सभी जगह अपनी अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व कायम किया। उन्हें सभी स्थानों से पुरातत्व की जो भी वस्तुऐं मिलीं उन्हें बटोर कर अपने देश में ले गये। इसी कारण आज ब्रिटिश संग्रहालय और उन के विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान के स्थाय़ी केन्द्र बन चुके हैं। जहाँ पर भी उन्हों ने कालोनियाँ स्थापित करीं थी वहाँ पर प्रशासन, शिक्षा, न्याय-विधान स्वास्थ-सेवायें तथा कुछ ना कुछ नागरिक सुवाधायें भी स्थापित करीं। यही कारण है कि आज भी विश्व में सभी जगह ब्रिटिश साम्राज्य की अमिट छाप देखी जा सकती है।
भारत को ‘सोने की चिडिया’ समझ कर सभी योरुपीय प्रतिस्पर्धी देश उस को दबोचने के लिये ललायत हो उठे थे। भारत की खोज करते करते पुर्तगाल का कोलम्बस अमेरिका जा पहुँचा, स्पेन का बलबोवा मैकिसिको, फ्राँस और इंग्लैण्ड कैनेडा तथा अमेरिका जा पहुँचे। ‘चोर-चोर मौसेरे भाईयोँ’ की तरह उन सभी का मकसद ऐक था - कोलोनियाँ बना कर स्थानीय धन-सम्पदा को लूटना और इसाई धर्म को फैलाना। उन्हों ने आपस में इलाके बाँट कर सिलसिलेवार स्थानीय लोगों को मारा, लूटा, और जो बच गये और उन का धर्म परिवर्तन किया।
आज सभी कालोनियों में इसाई धर्म फैल चुका है। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के सभी देश उसी युग के शोषण की बदौलत हैं नहीं तो पहले वहाँ भी हिन्दू सभ्यता ही थी। कदाचित मैक्सिको की प्राचीन ‘माया-सभ्यता’ का सम्पर्क रामायण युग के अहिरावण तथा महिरावण के वंश से ही था और पेरू के समतल पठार कदाचित उस काल के हवाई अड्डे थे। परन्तु यह बातें अब ऐक शोध का विषय है जो मिटने के कगार पर हैं।
योरुप का अतिकर्मण
इंगलैण्ड, फ्राँस, स्पेन, और पुर्तगाल योरूप के मुख्य तटीय देश हैं। उन के नागरिकों के जीवन पर समुद्र का बहुत प्रभाव रहा है जिस कारण वह कुशल नाविक ही नहीं बल्कि समुद्र पर नाविक सैन्य शक्ति भी थे। उन के पास अच्छी किस्म की तोपें, गोला बारूद, और बन्दूकें थीं। भूगोलिक सम्पदाओं की खोज करते करते योरूप के नाविक जिस दूवीप या महादूवीप पर गये उन्हों ने वहाँ के कमजोर, अशिक्षित, निश्स्त्र लोगों को मारा, बन्दी बनाया और सभी साधनों पर अपना अधिकार जमा लिया। इस प्रकार ग्रीन लैण्ड, अफरीका और आस्ट्रेलिया जैसे महादूवीपों पर उन का अधिकार होगया और उन्हों ने ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के नियमानुसार ऐशिया के तटीय देशों को भी अपने अधिकार में कर लिया।
स्पेन के लोगों को मुख्यतः इसाई धर्म फैलाने में अधिक रुचि थी जबकि पुर्तगाल के लोग कुशल नाविक होने के साथ साथ समुद्र से मछली पकडने में तेज थे। भारत के गर्म मसालों को भोजन में इस्तेमाल करना तो वह आज भी नहीं जानते लेकिन मछलियों को लम्बी लम्बी समुद्री यात्राओं के दौरान ताजा रखने के लिये उन्हें भारत के गर्म मसालों में रुचि थी। फ्राँस के लोगों को सौन्दर्य प्रसाधनों तथा धन सम्पदा के साथ अन्य देशों में कालोनियाँ बनाने की ललक थी।
उन सब की तुलना में इंग्लैण्ड के लोग अधिक जिज्ञासु, साहसी, अनुशासित, देश भक्त और कर्मनिष्ठ थे। इन सभी देशों के बीच में मित्रता और युद्धों का इतिहास रहा है। जैसे ही योरूप में रिनेसाँ की जागृति लहर आयी इन देशों में ऐक दूसरे से प्रतिस्पर्धा की भावना भी बढी। और वही दुनियाँ में चारों तरफ खोज करने निकल पडे थे। परन्तु विश्व के अधिकतर भू-भागों पर ब्रिटेन के झण्डे ही लहराये।
भारत में राजनैतिक अस्थिरता
योरुप में जहाँ नयी नयी भूगोलिक खोजें हो रहीं थी किन्तु भारत की राजनैतिक व्यवस्था टुकडे टुकडे हो कर छिन्न भिन्न होती जा रही थी। योरूप में साहित्य, ज्ञान, विचारधारा तथा सभ्यता के नये मापदण्डो के कीर्तिमान स्थापित हो रहै थे तो भारतीय विलासता और अज्ञान में डूबते चले जा रहै थे। योरुप वासी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में नये नये अविष्कार करते जा रहै थे किन्तु भारत में इस समय इस्लामी शासन के कारण सर्वत्र अन्धकार छा चुका था।
यह क्रूर संयोग ही है कि जब इंगलैण्ड में आक्सफोर्ड (1096) और कैम्ब्रिज (1209) जैसे विश्वविद्यालय स्थापित हो रहै थे तो भारत में तक्षिला, जगद्दाला (1027), और नालन्दा (1193) जैसे विश्वविद्यालय मुस्लिम आक्रान्ताओं दुआरा उजाडे जा रहै थे। 
रिनेसाँ के समय भारत में तुग़लक, लोधी और मुग़ल वँशो का शासन था। फ्राँस की क्राँति के समय (1789-1799) भारत में दिल्ली के तख्त पर उत्तराधिकार के लिये युद्ध चल रहै थे। थोड थोडे वर्षो के बाद ही बादशाह बदले जा रहै थे और हर तरफ अस्थिरता, असुरक्षा और बाहरी आक्रमणकारियों का भय था जिन में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली मुख्य थे। देश में केन्द्रीय सत्ता ना रहने के कारण प्रदेशी राजे नवाब अपने अपने ढंग से मनमाना शासन चलाते थे।
मुग़ल शासकों ने अपने शासन काल में शिक्षा क्षेत्र की पूर्णतया उपेक्षा की। उन के काल में सिवाय आमोद प्रमोद के विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई थी। धर्मान्धता के कारण वह ज्ञान विज्ञान से नफरत ही करते रहे तथा इसे कुफर की संज्ञा देते रहे। उन्हो ने अपने लिये काम चलाऊ अरबी फारसी पढने के लिये मकतबों का निर्माण करने के अतिरिक्त किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। निजि विलासता के लिये वह केवल विशाल हरम और ताजमहल जैसे मकबरे बनवा कर ही संतुष्टि प्राप्त करते रहे। जब योरुपवासी ऐक के बाद ऐक उपयोगी आविष्कार कर रहै थे तो उस समय भारत के सामंत बटेर बाजी और शतरंज में अपना समय बिता रहे थे । अंग्रेज़ों ने बिना ऐक गोली चलाये कई की रियासतों पर कूटनीति के आधार पर ही अपना अधिकार जमा लिया था।
भारत में अपने पैर जमाने के बाद अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के पास भारत के अय्याश राजाओं और नवाबों को आपस में लडवाने के पीछे कोई नैतिक कारण नहीं थे बल्कि वह उन विदेशियों के लिये  केवल ऐक व्यापार और सत्ता हथियाने का साधन था। ऐक पक्ष का साथ अंग्रेज देते थे तो दूसरे का फ्रांसिसी। शर्तें पूरी ना करने पर वह बे-झिझक हो कर पाले भी बदल लेते थे। हिन्दूओं की आपसी फूट का उन्हों ने पूरा लाभ उठाया जिस के कारण हिन्दू कभी मुस्लमानों से तो कभी योरुपवासियों से अपने ही घर में पिटते रहै।
आवश्यक्ता आविष्कार की जननी होती है। इस्लाम के पदार्पण से पहले भारत की विचारधारा संतोषदायक थी जिस के कारण भारतीयों ने ज्ञान तो अर्जित किया था लेकिन उस को अविष्कारों में साकार नहीं किया था। उत्तम विचारों के लिये मन की शान्ति चाहिये। तकनीक से विचारों को साकार करने के लिये साधनो की आवश्यक्ता होती है। जब हिन्दूओं के पास धन और साधनो की कमी आ गयी तो नये अविष्कारों की प्रगति के मार्ग भी में मुस्लिम आक्रान्ताओ की परतन्त्रता में बन्द हो गये। जब पश्चिम में ज्ञान विज्ञान के सूर्य का प्रकाश फैल रहा था तो भारत में ज्ञान विज्ञान के दीपक बुझ चुके थे और अज्ञान के अन्धेरे ने रोशनी की कोई किरण भी शेष नहीं छोडी थी।
जब भी पर्यावरण में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आता है तो उस से आस्थाओं, विचारधाराओ तथा परम्पराओं में भी बदलाव आना स्वाभाविक ही है। समय के प्रतिकूल रीतिरिवाजों को त्यागना अथवा सुधारना पडता है। स्थानीय पर्यावरण का प्रभाव ही महत्वशाली होता है।
साभार : चाँद शर्मा, हिंदू महासागर 

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