अरबों की मार्फत योरुप पहुँचे भारतीय ज्ञान-विज्ञान ने जब पाश्चात्य देशों में जागृति की चमक पैदा करी तो पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ्राँस, स्पेन, होलैण्ड तथा अन्य कई योरुपीय देशों की व्यवसायिक कम्पनियाँ आपसी स्पर्धा में दौलत कमाने के लिये भारत की ओर निकल पडीं। उन की कल्पना में भारत के साथ उच्च कोटि की दार्शनिक्ता, धन, वैभव, व्यापार, तथा ज्ञान के भण्डार जुडे थे लेकिन इस्लामी शासकों ने भारत को नष्ट कर के जिस हाल में छोडा था वह निराशाजनक था। उस समय का हिन्दुस्तान योरूप वासियों की अपेक्षाओं के उलट निकला। योरुपीय जागृति के विपरीत भारत के प्रत्येक क्षेत्र में अन्धकार, घोर निराशा, अन्ध-विशवास, बीमारी, भुखमरी, तथा आपसी षटयन्त्रों का वातावरण था जिस कारण भारत की नई पहचान चापलूसों, चाटूकारों, सपेरों, लुटेरों और अन्धविशवासियों की बन गयी, जो इस्लाम की देन थी।
दासता का जाल
योरपीय व्यापारिक कम्पनियाँ सैनिक क्षमता के साथ छद्म भेष में भारत आईं थी। उन के पास उत्तम हथि्यार, तोपें, गोला बारूद तथा अनुशासित सैनिक और कर्मठ कर्मचारी थे। परस्परिक ईर्षा और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा होते हुये भी इसाई धर्म नें उन को ऐक सूत्र में बाँधे रखा। अब उन के पास अपने आप को भारतियों की तुलना में अधिक प्रगतिशील और सभ्य कहलाने का मनोबल भी था जिस का योरुपीय आगन्तुकों ने पूरा फायदा उठाया। लोभ और भय का प्रयोग कर के उन्हों ने इसाई धर्म का प्रचार किया और स्थानीय लोगों के धर्म परिवर्तन किये। अपने अधिकार क्षेत्रों को सुदृढ करने के पश्चात उन्हों ने मूर्ख और स्वार्थी शासकों की आपसी कलह को विस्तार देना आरम्भ किया। ऐक को दूसरे से लड़वा कर स्वयं न्यायकर्ता के रूप में ढलते गये। भूखी बिल्लियों के झगडे में मध्यस्तता करते करते बन्दर पूरी रोटी के मालिक बन बैठे। अन्ततः ब्रिटेन ने अन्य योरुपीय देशों से बाझी मार ली। भारत में इंगलैण्ड की व्यवसासिक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ‘कम्पनी-बहादुर’ के नाम से सर्वोच्च राजनैतिक शक्ति बन कर भारत के मूर्ख, झगडालू, तथा ईर्षालू शासकों को पालतु कुत्तों की तरह पीठ थप-थपा कर शासन करने लगी।
‘कम्पनी बहादुर’ ने 1857 तक भारत पर राज्य किया। उस के पश्चात सत्ता ब्रिटिश सरकार के हाथ चली गयी। हिन्दूओं की अपेक्षा मुस्लमान कई स्थानों पर सत्ता में बने हुये थे। इसाईयों के लिये उन का धर्म परिवर्तन करवाना कठिन था क्यों कि कट्टरपंथी मानसिक्ता के कारण धर्म परिवर्तन करने से मुस्लिम समाज परवर्तितों का बहिष्कार कर देता था। हिन्दूओं के पास ना तो सत्ता थी ना ही कट्टरपंथी मानसिक्ता। अतः वह धर्म परिवर्तन का सुगम लक्ष्य बनते रहै।
अंग्रेज़ी पिठ्ठुओं का उदय
1857 के ‘स्वतन्त्रता-संग्राम’ के युद्ध की घटनाओं को दोहराने की आवश्यक्ता नहीं जो कि जन साधारण की ओर से ‘इसाईकरण’ का विरोध था। कुछ ऐक को छोड कर अधिकतर राजाओं के ‘व्यक्तिगत कारण’ थे जिन की वजह से उन्हों ने अंग्रेजों के विरुद्ध तलवार उठाय़ी थी। भारतीयों की आपसी फूट, तालमेल की कमी और अधिकाँश राजघरानों की देश के प्रति गद्दारी के कारण 1857 का जन आन्दोलन संगठित अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विफल हो गया। उस के पश्चात अंगेजी शासक अधिक सावधान हो गये और उन्हों ने अपनी स्थिति सुदृढ करने के लिये नाम मात्र ‘सुधारों’ की आड ले ली।
भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ से निकल कर ‘सलतनते इंग्लिशिया’ (महारानी विक्टोरिया) के अधिकार में चला गया। अपने शासन को भारत में स्वीकृत करवाने के लिये अंग्रेजों ने मिथ्या प्रचार किया कि जैसे मध्य ऐशिया से भारत आये आर्यों ने ‘स्थानीय द्राविड लोगों को दास बना कर’ अपना शासन कायम किया था, उसी प्रकार अंग्रेज भी यहाँ के लोगों को ‘सभ्य’ बना रहे हैं और उन का जीवन ‘सुधार’ रहै हैं। इस मिथ्याप्रचार की सफलता में हिन्दू धर्म ही ऐक मात्र बाधक था जिसे मिटाना अंग्रेजों के लिये जरूरी था।
मैकाले शिक्षा पद्धति
इस्लामी शासन के समय में हिन्दूओं का पठनपाठन बिखर गया था। मुस्लिम जन साधारण को ज्ञान के अन्दर कोई दिलचस्पी नहीं थी। अंग्रेजों ने भारतियों को अपनी सोच विचार के अनुरूप ढालने के लिये नयी शिक्षा प्रणाली लागू की जिस का मूल जनक लार्ड मैकाले था। उस शिक्षा पद्धति का मुख्य उद्देश्य हिन्दूओं में अपने प्राचीन ग्रन्थों और पूर्वजों के प्रति अविशवास जगाना था तथा अंग्रेजी सभ्यता, सोच विचार, रहन सहन के प्रति भारतियों को लुभाना था ताकि जीवन के हर क्षेत्र में वह अपने स्वाभिमान को स्वयं ही त्याग कर अंग्रेजी मानसिक दासता सहर्ष स्वीकार कर लें और उसे आगे फैलायें। उस शिक्षा प्रणाली को ‘धर्म-निर्पेक्ष वैज्ञिानिक सोच’ का नाम दे दिया गया। जो कुछ भारतीय था वह ‘रूढी-वाद’ और दकियानूसी घोषित कर दिया गया।
काँग्रेस का छलावा
ऐक अन्य अंग्रेज ऐ ओ ह्यूम ने मैकाले पद्धति से पढे भारतियों के लिये ऐक नया अर्ध राजनैतिक संगठनइंडियन नेशनल काँग्रेस के नाम से आरम्भ किया जिस का मुख्य उद्देश्य मामूली पढे लिखे भारतियों को सलतनते इंग्लिशिया के स्थानीय सरकारी तन्त्र का ‘हिस्सा’ बना कर साधारण जन-जीवन से दूर रखना था ताकि वह अपनी राजनैतिक आकाँक्षाओं की पूर्ति अंग्रेजी खिलौनों से कर के संतुष्ट रहैं। अंग्रेजों के संरक्षण में बने इस राजनैतिक संगठन से उन्हें कोई भय नहीं था और उन का अनुमान सही निकला।
‘आधुनिकीकरण’ के नाम पर अंग्रेजों ने कुछ औपचारिक ‘सुधार’ भी किये थे जिन का मूल उद्देश्य उपनेष्वादी तन्त्र को मजबूत करना था। लिखित कानून लागू किये गये। स्थानीय रीति रिवाज अंग्रेजी मुनसिफों को समझाने के लिये ब्राह्मण तथा मौलवी सलाहकारों (ऐमिक्स-क्यूरी) की नियुक्ति का प्रावधान न्यायालयों में किया गया था। ब्राह्मणों के पास परिवार चलाने के लिये रीति-रिवाज करवाने की दक्षिणा के अतिरिक्त आमदनी का कोई साधन नहीं रहा था। अतः उन्हों ने अपने स्वार्थ हित में रीतिरिवाजों को अधिक जटिल तथा खर्चीला बना दिया। जन साधारण रीति रिवाजों को आडम्बर और बोझ समझ कर उन से विमुख होने लगे। परिणाम अंग्रेजों के लिये हितकर था। उन्हें हिन्दू धर्म को बदनाम करने के और भी बहाने मिलने लगे। ग़रीब लोग हिन्दू धर्म को त्याग कर इसाई बनने लगे। इस्लामी शासन के समय चली हुई बाल विवाह, सती प्रथा, तथा कन्या हत्या (दुख्तर कशी) इत्यादि कुरीतियों को निषेध करवाने हिन्दू समाज सुधारक आगे आये परन्तु अंग्रेजी पद्धति से शिक्षशित लोगों ने उन सुधारों का श्रेय भी अंग्रेजों को ही दिया।
इतिहास से छेड-छाड
भारत का प्रचीन इतिहास तो इस्लामी आक्रान्ताओं ने नष्ट कर दिया था। पौराणिक प्रयाग का नाम अकबर ने ‘इलाहबाद’ रखवा दिया था, महाभारत का पाँचाल ‘फरुखाबाद’ बन चुका था। ऱाम की अयोध्या नगरी में राम मन्दिर के मल्बे से बाबरी मस्जिद बनवा कर उस का नाम ‘फैजाबाद’ रख दिया गया था। अधिकतर हिन्दू नगरों और पूजा स्थलों को नष्ट कर के उन्हीं के स्थान पर इस्लामी स्मारक बन चुके थे। भारतीय इतिहास का पुनर्वालोकन करने कि लिये लंका, बर्मा, तिब्बत, चीन तथा कुछ अन्य दक्षिण ऐशियाई देशों से अंग्रजों ने कुछ बचे खुचे ग्रन्थों को आधार बनाया। टूटी कडियों को जोडने के लिये उन्हों ने ‘अंग्रेजी हितों के अनुरूप’ मन घडंत तथ्यों का समावेश भी किया।
वैचारिक दासता
मानसिक आधीनता के कारण हमारी वैचारिक स्वतन्त्रता नष्ट हो चुकी थी। हम ने प्रत्येक तथ्य को अंग्रेजी मापदण्डों के अनुसार परखना शुरु कर दिया था। जो कूछ योरुप वासियों को नहीं पता था या जिस तथ्य का अनुमोदन वह नहीं करते थे वह हमारे ‘देसी बुद्धिजीवियों’ को भी ‘स्वीकृत’ नहीं था चाहे वही तथ्य हमारे सम्मुख अपने स्थूल रूप में विद्यमान खडा हो। लन्दन में ब्रिटिश संग्रहालय ज्ञान का विश्ष्ट मन्दिर बन चुका था जहाँ दुनिया भर से लूटे और चुराये गये पुरात्त्वों को सजा कर रखा जा रहा था। ज्ञान-विज्ञान तथा राजनीति के क्षेत्र में “ग्रेट ब्रिटैन” विश्व की इकलौती महा शक्ति बन चुका था। उन्हों ने भारत में भी अपने समर्थक बुद्धिजीवियों की ऐक सशक्त टोली खडी कर ली थी जो उन की राजनैतिक सत्ता और वैचारिक प्रभुत्व को सुदृढ करने में जुट चुकी थी।
सामाजिक, वेष-भूषा, खान-पान, आमोद-प्रमोद, शिक्षा और विचारधारा के हर क्षेत्र में इस्लामी परम्पराओं की अपेक्षा हिन्दूओं का ब्रिटिश सभ्यता से अधिक प्रभावित होना स्वाभाविक था क्योंकि वास्तव में वह हिन्दू परम्पराओं के मूल रूप का ही ‘विकृत संस्करण’ थीं। सहज में ही अंग्रेजी प्रशासनिक क्रिया पद्धति, शिक्षण-प्रणाली, तथा दैनिक काम-काज में नापतोल, कैलेँडर, समय सारिणी, खेल-कूद, कानूनी परिभाषाये, व्यापारिक रीतिरिवाजों ने स्थानीय परम्पराओं को स्थगित कर के अपनी जगह बना ली। चमक दमक के कारण अंग्रेजी पद्धतियां प्रत्येक क्षेत्र में प्रधान हो गयी।
यह व्यंगात्मक है कि हिन्दूओं ने यद्यपि अंग्रेजी माध्यम से अपने ही पूर्वजों के लगाये हुये पौधों के फलों पर मोहित होना स्वीकार कर लिया था क्योंकि वह योरुप की चमकीली पालिश के नीचे छुपे तथ्यों के वास्तविक रूप को नहीं पहचान सके जो उन्हीं के अपने ही पूर्वजों के लगाये गये बीज थे। हिन्दू चिन्ह मिट चुकने के कारण अन्तिम उत्पाद पर योरोपियन मुहर लग चुकी थी जिस कारण आज अंग्रेज प्रगति और विज्ञान के जन्मदाता समझे जाते हैं।
हिन्दू गौरव का पुनरोत्थान
हालात सुधरे तो धीरे धीरे सत्यता भी उभरी। उन्नीसवी शताब्दी में कई हिन्दू समाज सुधार आन्दोलन शुरु हुये जिन के कारण अन्धेरी सुरंग के पार कुछ रौशनी दिखायी पडने लगी। भारत वासियों ने अधुनिक विश्व को पुनः देखना आरम्भ किया। बीसवीं शताब्दी में भारतीय सैनिकों ने प्रथम विश्व युद्ध तथा दिूतीय विश्व युद्ध में भाग लिया और अपने रक्त से विदेशी शासन को सींचा। उस का सकारात्मिक प्रभाव भारत के हित में था। भारतीय तब तक तत्कालिक शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्रों से दूर रहे थे। विश्व युद्धों के कारण भारत के जन साधारण ने योरुप तथा अन्य देशों की प्रगति को जब अपनी आँखों से देखा तो उन के अन्दर भी अपने देश को आगे बढाने की भावना पुनः जागृत हुई। उन्हों ने दूसरे देशों के नागरिकों को स्वतन्त्र राष्ट्र के रुप में देखा तो उन की स्वतन्त्र रहने की भावना ने चिंगारी का रूप लिया जिस के फलस्वरूप ही लोगों में स्वतन्त्रता के लिये चेतना की भावना उमड कर तीव्र होती गयी।
स्वतन्त्रता की चिंगारी
भारतवासियों में सब से पहले ऐ ओ ह्यूम की बनाई काँग्रेस में ही देश की प्रशास्निक व्यवस्था में अधिकार पाने की आकाँक्षा ने जन्म लिया। किन्तु मैकाले पद्धति से प्रशिक्षित उन भारतियों की मांग केवल स्थानीय प्रशासन तक ही सीमित थी जिसे अंग्रेजी सरकार ने कुछ उल्ट फैर के साथ मान लिया। धीरे धीरे काँग्रेस में लोकमान्य तिलक जैसे स्वाभिमानी राष्ट्रवादी नेता भी जुडने लगे और उन्हों ने स्वतन्त्रता को अपना ‘जन्म सिद्ध अधिकार’ जता कर ब्रिटिश सरकार की नीन्द उडा दी। परिणामस्वरूप उन्हें ‘विद्रोही’ बना कर अभियोग चलाये गये और कालेपानी की घोर यातनायें दी गयीं। स्वतन्त्रता की मांग को लेकर चिंगारी तो भडक उठी थी जिस ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध जब हिंसक घटनायें होने लगीं तो अंग्रेजों को बातचीत में फुसलाये रखने के लिये अंग्रेजी पद्धति से पढे लिखे मध्यस्थों की जरूरत आन पडी।
विश्व युद्धों पश्चात पूरे विश्व में उपनेषवाद के विरुद्ध स्वतन्त्रता की मांग किसी ना किसी रूप में उठने लग गयी थी। युद्धों में नष्ट हुये साधनो के कारण ब्रिटिश सरकार के लिये उपनेषवादी सरकारों को चलाये रखना कठिन होता जा रहा था। भारत में एक ओर तो उन्हों ने उग्र स्वतन्त्रता सैनानियों को प्रताडित किया तो दूसरी ओर अंग्रेजी पद्धति से पढे लिखे मध्यस्थों के साथ बात चीत का ढोंग किया और कुछ गिने चुने गाँधी, नेहरू और जिन्नाह जैसे नेताओं को हिन्दू मुस्लमानो का प्रतिनिधि बना कर भारत का बटवारा करने की योजना बनाई ताकि किसी ना किसी तरह से विक्षिप्त भारत को अपने प्रभाव में रख कर भविष्य में भी परोक्ष रूप से उपनेषवादी लाभ उठाये जा सकें।
भारत का बटवारा
15 अगस्त 1947 के मनहूस दिन अंग्रेजों ने भारत को हिन्दूओं तथा मुस्लमानों के बीच में बाँट दिया और सत्ता ‘ब्रिटिश मान्य’ हिन्दू मुस्लिम प्रतिनिधियों को सौंप दी। मुठ्ठी भर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने स्थानीय लोगों का धर्म परिवर्तन करवा कर अपनी संख्या बढायी थी जिस के फलस्वरूप भारत के ऐक तिहाई भाग को भारत वासियों से छीन लिया और उन्हें उन के शताब्दियों पुराने रहवासों से खदेड भी दिया। भारत की सीमायें ऐक ही रात में अन्दर की ओर सिमिट गयीं और हिन्दूओं की ‘इण्डियन नेशनेलिटी ’ रहने के बावजूद वह पाकिस्तान से स्दैव के लिये खदेड दिये गये।
उल्लेखनीय है कि बटवारे से पहिले भारत में मुसलमानों की संख्या लगभग चार करोड. थी। क्योंकि वह हिन्दुओं के साथ नहीं रहना चाहते थे इसलिये पाकिस्तान की मांग के पक्ष में 90 प्रतिशत मुसलमानों ने मतदान तो किया लेकिन जब घर बार छोडकर अपने मनचाहे देश में जाने का वक्त आया तो सिर्फ 15 प्रतिशत मुसलमान ही पाकिस्तान गये थे। 85 प्रतिशत मुस्लमानों ने पाकिस्तान मिलने के बाद भी हिन्दुस्तान में आराम से बैठे रहै थे। विभाजन होते ही मुसलमानों ने पाकिस्तान में सदियों से रहते चले आ रहे हिन्दुओं और सिखों को मारना काटना शुरू कर दिया। वहां लाखों हिन्दुस्तानियों को केवल हिन्दु-सिख होने के कारण अपना घर-सामान सब छोड. कर पाकिस्तान से निकल कर भारत आना पडा परन्तु भारत में पाकिस्तान के पक्ष में मतदान कर के भी मुसलमान अपने घरों में सुरक्षित बने रहे।
साभार : लेखक श्री चाँद शर्मा, http://hindumahasagar.wordpress.com
इस लेख से सहमत !!
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