बटवारे से पहले रियासतों में हिन्दू धर्म को जो संरक्षण प्राप्त था वह बटवारे के पश्चात धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण पूर्णत्या समाप्त हो गया। आज के भारत में हिन्दू धर्म सरकारी तौर पर बिलकुल ही उपेक्षित और अनाथ हो चुका है और अब काँग्रेसियों दूआरा अपमानित भी होने लगा है। अंग्रेज़ों ने जिन राजनेताओं को सत्ता सौंपी थी उन्हों ने अंग्रेजों की हिन्दू विरोधी नीतियों को ना केवल ज्यों का त्यों चलाये रखा बल्कि अल्प-संख्यकों को अपनी धर्म निर्पेक्षता दिखाने के लिये हिन्दूओं पर ही प्रतिबन्ध भी कडे कर दिये।
बटवारे के फलस्वरूप जो मुसलमान भारत में अपनी स्थायी सम्पत्तियाँ छोड कर पाकिस्तान चले गये थे उन में विक्षिप्त अवस्था में पाकिस्तान से निकाले गये हिन्दू शर्णार्थियों ने शरण ले ली थी। उन सम्पत्तियों को काँग्रेसी नेताओं ने शर्णार्थियों से खाली करवा कर उन्हें पाकिस्तान से मुस्लमानों को वापस बुला कर सौंप दिया। गाँधी-नेहरू की दिशाहीन धर्म निर्पेक्षता की सरकारी नीति तथा स्वार्थ के कारण हिन्दू भारत में भी त्रस्त रहे और मुस्लिमों के तुष्टिकरण का बोझ अपने सिर लादे बैठे हैं।
प्राचीन विज्ञान के प्रति संकीर्णता
शिक्षा के क्षेत्र में इसाई संस्थाओं का अत्याधिक स्वार्थ छुपा हुआ है। भारतीय मूल की शिक्षा को आधार बना कर उन्हों ने योरूप में जो प्रगति करी थी उसी के कारण वह आज विश्व में शिक्षा के अग्रज माने जाते रहै हैं। यदि उस शिक्षा की मौलिकता का श्रेय अब भारत के पास लौट आये तो शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में इसाईयों की ख्याति बच नहीं सके गी। यदि भारत अपनी शिक्षा पद्धति को मैकाले पद्धति से बदल कर पुनः भारतीयता की ओर जाये तो भारत की वेदवाणी और भव्य संस्कृति इसाईयों को मंज़ूर नहीं।
दुर्भाग्य से भारत में उच्च परिशिक्षण के संस्थान, पब्लिक स्कूल तो पहले ही मिशनरियों के संरक्षण में थे और उन्ही के स्नातक भारत सरकार के तन्त्र में उच्च पदों पर आसीन थे। अतः बटवारे पश्चात भी शिक्षा के संस्थान उन्ही की नीतियों के अनुसार चलते रहै हैं। उन्हों ने अपना स्वार्थ सुदृढ रखने कि लिये अंग्रेजी भाषा, अंग्रेज़ी मानसिक्ता, तथा अंग्रेज़ी सोच का प्रभुत्व बनाये रखा है और भारतीय शिक्षा, भाषा तथा बुद्धिजीवियों को पिछली पंक्ति में ही रख छोडा है। उन्हीं कारणों से भारत की राजभाषा हिन्दी आज भी तीसरी पंक्ति में खडी है। शर्म की बात है कि मानव जाति के लिये न्याय विधान बनाने वाले देश की न्यायपालिका आज भी अंग्रेजी की दास्ता में जकडी पडी है। भारत के तथाकथित देशद्रोही बुद्धिजीवियों की सोच इस प्रकार हैः-
अंग्रेजी शिक्षा प्रगतिशील है। वैदिक विचार दकियानूसी हैं। वैदिक विचारों को नकारना ही बुद्धिमता और प्रगतिशीलता की पहचान है।
हिन्दू आर्यों की तरह उग्रवादी और महत्वकाँक्षी हैं और देश को भगवाकरण के मार्ग पर ले जा रहै हैं। देश को सब से बडा खतरा अब भगवा आतंकवाद से है।
भारत में बसने वाले सभी मुस्लिम तथा इसाई अल्पसंख्यक ‘शान्तिप्रिय’ और ‘उदारवादी’ हैं और साम्प्रदायक हिन्दूओं के कारण ‘त्रास्तियों’ का शिकार हो रहै हैं।
युवा वर्ग की उदासीनता
इस प्रकार फैलाई गयी मानसिक्ता से ग्रस्त युवा वर्ग हिन्दू धर्म को उन रीति रिवाजों के साथ जोड कर देखता है जो विवाह या मरणोपरान्त आदि के समय करवाये जाते हैं। विदेशा पर्यटक अधनंगे भिखारियों तथा बिन्दास नशाग्रस्त साधुओं की तसवीरें अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं में छाप कर विराट हिन्दू धर्म की छवि को धूमिल कर रहै हैं ताकि वह युवाओं को अपनी संस्कृति से विमुख कर के उन का धर्म परिवर्तन कर सकें। युवा वर्ग अपनी निजि आकाँक्षाओं की पूर्ति में व्यस्त है तथा धर्म-निर्पेक्षता की आड में धर्महीन पलायनवाद की ओर बढ रहा है।
लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से सर्जित किये गये अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं के लेखक दिन रात हिन्दू धर्म की छवि पर कालिख पोतने में लगे रहते हैं। इस श्रंखला में अब न्यायपालिका का दखल ऐक नया तथ्य है। ऐक न्यायिक आदेश में टिप्पणी कर के कहना कि जाति पद्धति को स्क्रैप कर दो हिन्दूओं के लिये खतरे की नयी चेतावनी है। अंग्रेजी ना जानने वाले हिन्दुस्तानी भारत के उच्चतम न्यायालय के समक्ष आज भी उपेक्षित और अपमानित होते हैं।
आत्म सम्मान हीनतता
इस मानसिक्ता के कारण से हमारा आत्म सम्मान और स्वाभिमान दोनो ही नष्ट हो चुके हैं। जब तक पाश्चात्य देश स्वीकार करने की अनुमति नहीं देते तब तक हम अपने पूर्वजों की उपलब्द्धियों पर विशवास ही नहीं करते। उदाहरणत्या जब पाश्चातय देशों ने योग के गुण स्वीकारे, हमारे संगीत को सराहा, आयुर्वेद की जडी बूटियों को अपनाया, और हमारे सौंदर्य प्रसाधनों की तीरीफ की, तभी कुछ भारतवासियों की देश भक्ति जागी और उन्हों ने भी इन वस्तुओं को ‘कुलीनता’ की पहचान मान कर अपनाना शुरु किया।
जब जान सार्शल ने विश्व को बताया कि सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है तो हम भी गर्व से पुलकित हो उठे थे। आज हम ‘विदेशी पर्यटकों के दृष्टाँत’ दे कर अपने विद्यार्थियों को विशवास दिलाने का प्रयत्न करते हैं कि भारत में नालन्दा और तक्षशिला नाम की विश्व स्तर से ऊँची यूनिवर्स्टियाँ थीं जहाँ विदेशों से लोग पढने के लिये आते थे। यदि हमें विदेशियों का ‘अनुमोदन’ नहीं मिला होता तो हमारी युवा पीढियों को यह विशवास ही नहीं होना था कि कभी हम भी विदूान और सभ्य थे।
आज हमें अपनी प्राचीन सभ्यता और अतीत की खोज करने के लिये आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज जाना पडता है परन्तु यदि इस प्रकार की सुविधाओं का निर्माण भारत के अन्दर करने को कहा जाये तो वह सत्ता में बैठे स्वार्थी नेताओं को मंज़ूर नहीं क्योंकि उस से भारत के अल्प संख्यक नाराज हो जायें गे। हमारे भारतीय मूल के धर्म-निर्पेक्षी मैकाले पुत्र ही विरोध करने पर उतारू हो जाते हैं।
हिन्दू ग्रन्थो का विरोध
जब गुजरात सरकार ने विश्वविद्यालयों में ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन का विचार रखा था तो तथाकथित बुद्धिजीवियों का ऐक बेहूदा तर्क था कि इस से वैज्ञानिक सोच विचार की प्रवृति को ठेस पहुँचे गी। उन के विचार में ज्योतिष में बहुत कुछ आँकडे परिवर्तनशील होते हैं जिस के कारण ज्योतिष को ‘विज्ञान’ नहीं कहा जा सकता और विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल नहीं किया जा सकता।
इस तर्कहीन विरोध के उत्तर में यदि कहा जाय कि ज्योतिष विध्या को ‘विज्ञान’ नहीं माना जा सकता तो ‘कला’ के तौर पर उध्ययन करने में क्या आपत्ति हो सकती है? संसार भर में मानव समुदाय किसी ना किसी रूप में भविष्य के बारे में जिज्ञासु रहा हैं। मानव किसी ना किसी प्रकार से अनुमान लगाते चले आ रहै हैं। झोडिक साईन पद्धति, ताश के पत्ते, सितारों की स्थिति, शुभ अशुभ अपशगुण, तथा स्वप्न विशलेशण से भी मानव भावी घटनाओं का आँकलन करते रहते हैं। इन सब की तुलना में भारतीय ज्योतिष विध्या के पास तो उच्च कोटि का साहित्य और आँकडे हैं जिन को आधार बना कर और भी विकसित किया जा सकता है।
व्यापारिक विशलेशण (फोरकास्टिंग) भी आँकडों पर आधारित होता है जिन से वर्तमान मार्किट के रुहझान को परख कर भविष्य के अनुमान लगाये जाते हैं। अति आधुनिक उपक्रम होने के बावजूद भी कई बार मौसम सम्बन्धी जानकारी भी गलत हो जाती है तो क्या बिज्नेस और मौसम की फोरकास्टों को बन्द कर देना चाहिये ? इन बुद्धजीवियों का तर्क माने तो किसी देश में योजनायें ही नहीं बननी चाहिये क्यों कि “भविष्य का आंकलन तो किया ही नहीं जा सकता”।
ज्योतिष के क्षेत्र में विधिवत अनुसंधान और परिशिक्षण से कितने ही युवाओं को आज काम मिला सकता है इस का अनुमान टी वी पर ज्योतिषियों की बढती हुय़ी संख्या से लगाया जा सकता है। इस प्रकार की मार्किट भारत में ही नहीं, विदेशों में भी है जिस का लाभ हमारे युवा उठा सकते हैं। यदि ज्योतिष शास्त्रियों को आधुनिक उपक्रम प्रदान किये जायें तो कई गलत धारणाओं का निदान हो सकता है। डेटा-बैंक बनाया जा सकता है। वैदिक परिशिक्षण को विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में जोडने से हम कई धारणाओं का वैज्ञानिक विशलेशण कर सकते हैं जिस से भारतीय मूल के सोचविचार और तकनीक का विकास और प्रयोग बढे गा। हमें विकसित देशों की तकनीक पर निर्भर नहीं रहना पडे गा।
अधुनिक उपक्रमों की सहायता से हमारी प्राचीन धारणाओं पर शोध होना चाहिये। उन पर केस स्टडीज करनी चाहियें। हमारे पास दार्शनिक तथा फिलोसोफिकल विचार धारा के अमूल्य भण्डार हैं यदि वेदों तथा उपनिष्दों पर खोज और उन को आधार बना कर विकास किया जाये तो हमें विचारों के लिये अमरीका या यूनान के बुद्धिजीवियों का आश्रय नहीं लेना पडे गा। परन्तु इस के लिये शिक्षा का माध्यम उपयुक्त स्वदेशी भाषा को बनाना होगा।
संस्कृत भाषा के प्रति उदासीनता
प्राचीन भाषाओं में केवल संस्कृत ही इकलौती भाषा है जिस में प्रत्येक मानवी विषय पर मौलिक और विस्तरित जानकारी उपलब्द्ध है। किन्तु ‘धर्म-निर्पेक्ष भारत’ में हमें संस्कृत भाषा की शिक्षा अनिवार्य करने में आपत्ति है क्यों कि अल्पसंख्यकों की दृष्टि में संस्कृत तो ‘हिन्दू काफिरों’ की भाषा है। भारत सरकार अल्पसंख्यक तुष्टिकरण नीति के कारण उर्दू भाषा के विकास पर संस्कृत से अधिक धन खर्च करने मे तत्पर है जिस की लिपि और साहित्य में में वैज्ञानिक्ता कुछ भी नहीं। लेकिन भारत के बुद्धिजीवी सरकारी उदासीनता के कारण संस्कृत को प्रयोग में लाने की हिम्म्त नहीं जुटा पाये। उर्दू का प्रचार कट्टरपंथी मानसिकत्ता को बढावा देने के अतिरिक्त राष्ट्रभाषा हिन्दी का विरोधी ही सिद्ध हो रहा है। हिन्दू विरोधी सरकारी मानसिक्ता, धर्म निर्पेक्षता, और मैकाले शिक्षा पद्धति के कारण आज अपनेी संस्कृति के प्रति घृणा की भावना ही दिखायी पडती है।
इतिहास का विकृतिकरण
अल्पसंख्यकों को रिझाने के लक्ष्य से हमारे इतिहास में से मुस्लिम अत्याचारों और विध्वंस के कृत्यों को निकाला जा रहा है ताकि आने वाली पीढियों को तथ्यों का पता ही ना चले। अत्याचारी आक्रान्ताओं के कुकर्मों की अनदेखी कर दी जाय ताकि बनावटी साम्प्रदायक सदभाव का क्षितिज बनाया जा सके।
धर्म निर्पेक्षकों की नजर में भारत ऐक ‘सामूहिक-स्थल’ है या नो मेन्स लैण्ड है, जिस का कोई मूलवासी नहीं था। नेहरू वादियों के मतानुसार गाँधी से पहले भारतीयों का कोई राष्ट्र, भाषा या परम्परा भी नहीं थी। जो भी बाहर से आया वह हमें ‘सभ्यता सिखाता रहा’ और हम सीखते रहै। हमारे पास ऐतिहासिक गौरव करने के लिये अपना कुछ नहीं था। सभी कुछ विदेशियों ने हमें दिया। हमारी वर्तमान पीढी को यह पाठ पढाने की कोशिश हो रही है कि महमूद गज़नवी और मुहमम्द गौरी आदि ने किसी को तलवार के जोर पर मुस्लिम नहीं बनाया था और धर्मान्धता से उन का कोई लेना देना नहीं था। “हिन्दवी-साम्राज्य” स्थापित करने वाले शिवाजी महाराज केवल मराठवाडा के ‘छोटे से’ प्रान्तीय सरदार थे। अब पानी सिर से ऊपर होने जा रहा है क्यों कि काँग्रेसी सरकार के मतानुसार ‘हिन्दू कोई धर्म ही नहीं’।
हमारे कितने ही धार्मिक स्थल ध्वस्त किये गये और आज भी कितने ही स्थल मुस्लिम कबजे में हैं जिन के ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्द्ध है किन्तु सरकार में हिम्मत नहीं कि वह उन की जाँच करवा कर उन स्थलों की मूल पहचान पुनर्स्थापित कर सके।
हिन्दू आस्तीत्व की पुनर्स्थापना अनिवार्य
पाश्चात्य देशों ने हमारी संचित ज्ञान सम्पदा को हस्तान्तरित कर के अपना बना लिया किन्तु हम अपना अधिकार जताने में विफल रहै हैं। किसी भी अविष्कार से पहले विचार का जन्म होता है। उस के बाद ही तकनीक विचार को साकार करती है। तकनिक समयानुसार बदलती रहती है किन्तु विचार स्थायी होते हैं। तकनीकी विकास के कारण बिजली के बल्ब के कई रूप आज हमारे सामने आ चुके हैं किन्तु जिस ने प्रथम बार बल्ब बनाने का विचार किया था उस का अविष्कार महानतम था। इसी प्रकार आज के युग के कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अविष्कारों के जन्मदाता भारतीय ही हैं। कितने ही अदभुत विचार आज भी हमारे वेदों, पुराणों, महाकाव्यों तथा अन्य ग्रँथों में दबे पडे हैं और साकार होने के लिये तकनीक की प्रतीक्षा कर रहै हैं। उन को जानने के लिये हमें संस्कृत को ही अपनाना होगा।
उद्यौगिक घराने विचारों की खोज करने के लिये धन खर्च करते हैं, गोष्ठियाँ करवाते हैं, तथा ब्रेन स्टारमिंग सेशन आयोजित करते हैं ताकि वह नये उत्पादकों का अविष्कार कर सकें। यदि भारत में कोई विचार पंजीकृत कराने की पद्धति पहले होती तो आज भारत विचारों के जनक के रूप में इकलौता देश होता। किन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि संसार में दूसरा अन्य कोई देश नहीं जहाँ स्वदेशी विचारों का उपहास उडाया जाता हो। हम विदेशी वस्तुओं की प्रशंसा तोते की तरह करते हैं। भारत में आज विदेशी लोग किसी भी तर्कहीन अशलील, असंगत बात या उत्पादन का प्रचार, प्रसार खुले आम कर सकते हैं किन्तु यदि हम अपने पुरखों की परम्परा को भारत में ही लागू करवाने का विचार करें तो उस का भरपूर विरोध होता है।
हमें बाहरी लोग त्रिस्करित करें या ना करें, धर्म निर्पेक्षता का नाम पर हम अपने आप ही अपनी ग्लानि करने में तत्पर रहते हैं। विदेशी धन तथा सरकारी संरक्षण से सम्पन्न इसाई तथा मुस्लिम कटुटरपंथियों का मुकाबला भारत के संरक्षण वंचित, उपेक्षित हिन्दू कैसे कर सकते हैं इस पर हिन्दूओं को स्वयं विचार करना होगा। लेकिन इस ओर भी हिन्दू उदासीन और निर्लेप जीवन व्यतीत कर रहै हैं जो उन की मानसिक दास्ता ही दर्शाती है।
साभार : लेखक, चाँद शर्मा, http://hindumahasagar.wordpress.com
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