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Thursday, August 22, 2013

दुनिया पर भारतीय संस्कृति की छाप

अमरीकी अन्तरिक्ष संस्था ‘नासा’ ने ‘संस्कृत’ मिशन नाम से एक कार्यक्रम शुरु किया है। इसके संस्कृत सिखाई जाती है। 

अफ्रीका महाद्वीप ईथोपिया और मोरीटोनिया में संयुक्त राष्ट्र संघ की देखरेख में हुई खुदाई में गणपति की मूर्तियां मिली हैं।

नासा का नाम सुपरिचित है। अंतरिक्ष की खोज में इस अमरीकी संस्था का क्या योगदान है यह सर्वविदित है। उक्त संस्था अपने आप में एक प्रयोगशाला भी है और विश्व विद्यालय भी। इसका प्रशिक्षण कितना कठोर है यह तो नासा से जुड़ी सुनीता विलियम जैसा कोई विद्यार्थी ही बता सकता है। लेकिन इसका अध्ययन अत्यंत कठिन है। नासा ने माना है कि संस्कृत बहुत ही वैज्ञानिक भाषा है और संस्कृत साहित्य में विज्ञान के बारे में बड़ी अच्छी जानकारी है। इसलिए नासा ने ‘संस्कृत मिशन’ की शुरुआत की है। इसके अन्तर्गत संस्कृत सिखाई जाती है। वहां जो लोग संस्कृत सीख रहे हैं वे बाद में नासा के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध होंगे। नासा ने यह भी माना है कि तकनीकी आधार पर भी इस भाषा के माध्यम से तालमेल सरलतापूर्वक हो सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि संस्कृत साहित्य में अनेक जानकारियां उपलब्ध हैं इसलिए उन्होंने इस भाषा को प्राथमिकता दी है। भारत में संस्कृत भले ही उपेक्षित है, लेकिन नासा में उसे वैज्ञानिकों की भाषा का दर्जा दिया गया है।

पिछले दिनों वैष्णो देवी तीर्थ को लेकर भारत सरकार ने जब पांच रुपए का सिक्का जारी किया तो भारत के अल्पसंख्यक समाज के मुट्ठी भर लोगों ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि भारत एक पंथनिरपेक्ष देश है इसलिए यहां किसी देवी-देवता का सिक्का जारी नहीं किया जा सकता है। लेकिन विरोध करने वाले इस तथ्य को भूल गए कि भारतीय संस्कृति की छाप तो पूरी दुनिया में दिखती है। उससे आप कहां तक दूर भागेंगे? किसी देश की सांस्कृतिक विरासत का विरोध करना तर्क संगत नहीं है। जो लोग आज मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं कल उन्हीं के देशों में देवी-देवताओं की पूजा होती थी। ग्रीक और मिस्र से लेकर अरबस्तान में इस्लाम से पूर्व तक की यही कहानी है। विश्व में जहां कहीं ऐतिहासिक वस्तुओं की खोज और खंडहरों की खुदाई होती है उसमें अधिकतर धर्म से जुड़ी वस्तुएं उपलब्ध होती हैं। इसलिए इतिहास और प्राचीन धर्म से जुड़ी संस्कृति के बीच एक महीन रेखा है जिसको समझना और उसका वैचारिक विश्लेषण करना बड़ा जरूरी है। 

कुछ वर्ष पूर्व भारत सरकार ने लालकिले के भूगर्भ में एक ऐसा ही कैप्सूल दफन किया है जिसके माध्यम से सैकड़ों वर्षों के बाद आने वाली दुनिया आज के विकास और प्रगति को मानवीय इतिहास के रूप में समझ पाएगी। आज खुदाई करने के पश्चात ्जो कुछ उपलब्ध होता है उसमें भूतकाल की परछाइयां होती हैं। विश्व के किसी भी कोने में इन दिनों जब इतिहास की खोज होती है तो हम देखते हैं कि उसमें प्राचीन भारत की छवि दिखाई पड़ती है।

अफ्रीका महाद्वीप, जो भारत से लाखों किलोमीटर दूर स्थित है, में राष्ट्र संघ के नेतृत्व में हो रही खुदाई में जो वस्तुएं प्राप्त हुई हैं उनमें गणपति के चित्र और तत्कालीन धातुओं से बनी गणपति की मूर्तियां मुख्य हैं। हाल ही में धुर पूर्व में बसे ईथोपिया और धुर पश्चिम में बसे मोरीटोनिया में एक जैसी गणपति की मूर्तियां प्राप्त होना आश्चर्यजनक बात है। आज का सऊदी अरब अफ्रीका के इन देशों से काफी दूर है। यहां नाइला नामक देवता की मूर्ति अर्ध नारेश्वरी का प्रतीक दिखाई पड़ता है, तो हुबल सफा और इज्जा नामक प्रतिमाएं कोई गणपति के आकार की है, तो कोई अन्य भारतीय देवी-देवताओं जैसी। उपरोक्त प्रतिमाओं का वर्णन उर्दू के प्रसिद्ध क वि अलताफ हुसैन हाली ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मुसददसे-हाली’ में किया है। हाली ने उन्हें प्राचीन अरब के बुत बताए हैं। खलील जिब्रान ने ‘दी प्रोफेट’ नामक अपनी पुस्तक में इसी प्रकार के देवी-देवताओं के माध्यम से विश्व दर्शन की ओर इशारा किया है। इससे एक सवाल खड़ा होता है कि भिन्न-भिन्न देशों में होने वाली खुदाई में एक जैसी प्रतिमाएं क्यों उपलब्ध हो रही हैं? या तो इनको बनाने वाला कोई एक ही था या फिर उन दिनों इनका प्रचार प्रसार चारों ओर था। वे इनके माध्यम से प्रकृति के रहस्यों को उजागर करते थे। यह भारतीय संस्कृति के फैलाव और विश्वव्यापी होने का एक ठोस सबूत है। 

तालिबानी जिस जिहाद के लिए लालायित हैं उनके मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट भारतीय संस्कृति का बोलबाला ही है। इस दिशा में इंडोनेशिया सरकार के एक निर्णय ने उन्हें बहुत निराश किया। 

पिछले दिनों इंडोनेशिया ने अमरीका को एक चौंका देने वाली वस्तु भेंट की है। वह न केवल उसके इस्लाम पूर्व की अपनी संस्कृति से जुड़े होने का संदेश देती है, बल्कि वह उसकी अनेकता में एकता के दृढ़ विश्वास को भी रेखांकित करती है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आज की दुनिया में मुसलमानों की सबसे अधिक आबादी वाला देश इंडोनेशिया है। लेकिन उसकी भाषा और पोशाक कहीं भी अरब संस्कृति से प्रभावित नहीं है। दक्षिण पूर्व एशिया का यह देश अपने नगरों और नेताओं के नाम भी अपनी प्राचीन संस्कृति के आधार पर ही रखता है। फिर वह सुकार्णों हो या सुहार्तों अथवा मेघावती। अपनी विमान सेवा को वह ‘गरुड़ा’ का नाम देने में गर्व महसूस करता है। उसी इंडोनेशिया में पिछले दिनों एक विचित्र घटना घटी। मुस्लिम बहुल देश इंडोनेशिया की मुस्लिम सरकार ने अमरीका को हिन्दू देवी सरस्वती की 6 फीट ऊंची प्रतिमा भेंट की है। इस सांस्कृतिक उपहार को वाशिंगटन में व्हाइट हाउस से कुछ दूरी पर स्थापित किया गया है। जहां महात्मा गांधी की प्रतिमा भी पहले से ही मौजूद है। इस्लाम मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करता है लेकिन अपनी राष्ट्रीय भावना को इंडोनेशिया आज भी सरस्वती की प्रतिमा के रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत करता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि धर्म से महान संस्कृति है, जिसका गुणगान करना देश की धरती के यशोगान करने के समान है।

मुस्लिम शासनकाल में भारत के असंख्य नगरों के नाम मुस्लिम शासकों ने बदल दिए। चूंकि वे भारतीय संस्कृति पर आधारित थे अथवा उनके पीछे किसी न किसी देवी-देवता का नाम था। उत्तर भारत में तो नगरों के नामों में इतने फेर-बदल हुए कि मानो वे इतिहास को ही परिवर्तित करने के लिए कटिबद्ध हों। किसी भी स्थान के नाम को बदलकर कोई भी विजेता अपने अहं को शांत कर सकता है लेकिन उसके पीछे के इतिहास को बदलना बड़ा कठिन होता है। प्राचीन नगरों के नाम केवल धार्मिक आधार पर ही नहीं थे, बल्कि उसकी माटी में कोई न कोई विशेष गुण होता था इसलिए उस गुण को परिभाषित करने वाला नाम रख दिया जाता था। यह नाम भौगोलिक भी होते थे और पौराणिक भी। इन सबके उपरांत कुछ नामों में ऐसा जादू था कि मुस्लिम शासक उसका नाम तो बदल नहीं सके लेकिन उसके समानान्तर एक दूसरा नाम अवश्य रख लिया। भारत में ऋषिकेश एक पवित्र धार्मिक स्थल है। गंगा के किनारे बसे होने के कारण इस नगर का अपना सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है। मुस्लिम शासक चाहते तो इसका नाम कुछ भी दे सकते थे, लेकिन उन्होंने इस पवित्र नगर का नाम बदलने में रुचि नहीं दिखाई। क्योंकि सहस्रों वर्षों के पश्चात् भी यह आज ऋषिकेश ही है। इस पर मुस्लिम आक्रांताओं ने विचार नहीं किया होगा ऐसा भी नहीं है। वे जानते थे कि ऋषिकेश का नाम बदल भी देंगे तब भी इस तीर्थस्थल का नाम बदलने और उसे जन प्रिय बनाने में बड़े कष्ट उठाने पड़ेंगे। इसलिए उन्होंने यह प्रयास नहीं किया। लेकिन ऋषिकेश के तुल्य एक स्थान अवश्य ही कश्मीर की घाटी में तैयार कर लिया। जिस जगह पैगम्बर मोहम्मद के पवित्र बाल होने के सम्बंध में किवदंती प्रचलित है उसका नाम उन्होंने ‘हजरत बाल’ रख दिया। इस्लाम पूजा-पद्धति में विश्वास नहीं रखता। लेकिन अपने पैगम्बरों और ओलियाओं के प्रति श्रद्धा तो अवश्य ही व्यक्त करता है इसलिए उनसे सम्बंधित ऋषिकेश के अनुवाद स्वरूप हजरत बाल नामकरण कर दिया होगा। यह एक व्याख्या है इतिहास नहीं। अमीर हमजा नामक लेखक एवं बुद्धिजीवी पाकिस्तान के आंतकवादी संगठनों के मित्र एवं दार्शनिक माने जाते हैं। उनके कथनानुसार भारतीय वैज्ञानिकों ने अपनी मीसाइलों के नाम 'अग्नि' और 'पृथ्वी' दिए हैं, जो इस बात को सिद्ध करते हैं कि वे आतंकवादियों को इनसे नष्ट करके विजय प्राप्त कर लेंगे। एक ओर वे मुस्लिम राष्ट्र हैं जो भारतीय संस्कृति के सकारात्मक पहलू की प्रशंसा करते हुए थकते नहीं हैं, जबकि दूसरी ओर आंतकवादी मानसिकता से ग्रसित ऐसे जिहादियों की भी कमी नहीं है जिन्हें पृथ्वी और अग्नि जैसे पंचभूत तत्वों में भी राजनीति ही दिखाई पड़ती है।

अब लाहौर में श्मशान घाट भी नहीं बचे

हाल ही में एक खबर आई है कि पाकिस्तान के लाहौर में अब एक भी श्मशान घाट नहीं रहा। इस कारण लाहौर में रहने वाले हिन्दुओं और सिखों को बड़ी परेशानी होती है। किसी हिन्दू या सिख के मरने पर उनके परिजन इस चिन्ता से शोक भी नहीं मना पाते कि अब इसका अन्तिम संस्कार कहाँ किया जाए? लाहौर में रावी नदी के किनारे अन्तिम संस्कार करने की मनाही है। प्रशासन का कहना है कि रावी नदी के किनारे अन्तिम संस्कार करने से मुस्लिमों की मजहबी भावनाएँ आहत होती हैं। इसलिए लाहौर में रहने वाले हिन्दुओं को अपने मृत परिजन का अन्तिम संस्कार करने के लिए करीब 90 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। इतना ही नहीं शव को दिन में एक जगह से दूसरी जगह ले जाना भी खतरे से खाली नहीं है। कट्टरवादी विरोध करते हैं और शव को मुस्लिम रीति से दफनाने पर जोर देते हैं। इसलिए रात में शव को ले जाया जाता है,वह भी चोरी-छुपे। उल्लेखनीय है कि 1947 में लाहौर में 11 श्मशान घाट थे। ये घाट मडल टाऊन, टकसाली गेट, बक्कर मंडी, इशरा, कृष्ण नगर आदि इलाकों में थे। पहले इन श्मशान घाटों पर कट्टरवादियों ने जबरन कब्जा किया और अब उन लोगों ने इन्हें बेच दिया है। जहाँ पहले श्मशान घाट होते थे अब वहाँ बड़े-बड़े व्यावसायिक परिसर बन गए हैं। दिल्ली में रहने वाले कई पाकिस्तानी हिन्दुओं ने पाञ्चजन्य को बताया कि यह सब एक साजिश के तहत हुआ है। इस साजिश में पाकिस्तान की सरकार भी शामिल है। इन लोगों ने यह भी कहा कि लाहौर में अंगुली में गिनने लायक हिन्दू रह गए हैं। कट्टरवादियों को ये हिन्दू भी बर्दाश्त नहीं हो रहे हैं। इसलिए वे लोग हिन्दुओं को पाकिस्तान से भगाने में लगे हैं। 

साभार: पाञ्चजन्य, लेखक: मुजफ्फर हुसैन

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