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Wednesday, June 25, 2014

साईं बाबा का असली नाम

***ॐ साईं राम***



महाराष्ट्र के पाथरी (पातरी) गांव में सांईं बाबा का जन्म 28 सितंबर 1835 को हुआ था। कुछ लोग मानते हैं कि उनका जन्म 27 सितंबर 1838 को तत्कालीन आंध्रप्रदेश के पथरी गांव में हुआ था और उनकी मृत्यु 28 सितंबर 1918 को शिर्डी में हुई। खुद को सांई का अवतार मानने वाले सत्य सांई बाबा ने बाबा का जन्म 27 सितंबर 1830 को महाराष्ट्र के पाथरी (पातरी) गांव में बताया है। यह सत्य सांई की बात माने तो सिर्डी में सांई के आगमन के समय उनकी उम्र 23 से 25 के बीच रही होगी। 

सांई के जन्म स्थान पाथरी (पातरी) पर एक मंदिर बना है। मंदिर के अंदर सांई की आकर्षक मूर्ति रखी हुई है। यह बाबा का निवास स्थान है, जहां पुरानी वस्तुएं जैसे बर्तन, घट्टी और देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी हुई हैं।

सांई के माता पिता कौन थे? : मंदिर के व्यवस्थापकों के अनुसार यह सांई बाबा का जन्म स्थान है। उनके अनुसार सांई के पिता का नाम गोविंद भाऊ और माता का नाम देवकी अम्मा है। कुछ लोग उनके पिता का नाम गंगाभाऊ बताते हैं और माता का नाम देवगिरी अम्मा। कुछ हिन्दू परिवारों में जन्म के समय तीन नाम रखे जाते थे इसीलिए बीड़ इलाके में उनके माता-पिता को भगवंत राव और अनुसूया अम्मा भी कहा जाता है। वे यजुर्वेदी ब्राह्मण होकर कश्यप गोत्र के थे। सांई के चले जाने के बाद उनके परिवार के ‍लोग शायद हैदराबाद चले गए थे और फिर उनका कोई अता-पता नहीं चला।

साईं बाबा का असली नाम हरिबाबू भूसारी : शशिकांत शांताराम गडकरी की किताब 'सद्‍गुरु सांई दर्शन' (एक बैरागी की स्मरण गाथा) अनुसार सांई ब्राह्मण परिवार के थे। उनका परिवार वैष्णव ब्राह्मण यजुर्वेदी शाखा और कोशिक गोत्र का था। उनके पिता का नाम गंगाभाऊ और माता का नाम देवकीगिरी था। दे‍वकिगिरी के पांच पुत्र थे। पहला पुत्र रघुपत भुसारी, दूसरा दादा भूसारी, तीसरा हरिबाबू भुसारी, चौथा अम्बादास भुसारी और पांचवें बालवंत भुसारी थे। सांई बाबा गंगाभाऊ और देवकी के तीसरे नंबर के पुत्र थे। उनका नाम था हरिबाबू भूसारी।

सांई बाबा के इस जन्म स्थान के पास ही भगवान पांडुरंग का मंदिर है। इसी मंदिर के बाईं और देवी भगवती का मंदिर है जिसे लोग सप्तश्रृंगीदेवी का रूप मानते हैं। इसी मंदिर के पास चौधरी गली में भगवान दत्तात्रेय और सिद्ध स्वामी नरसिंह सरस्वती का भी मंदिर है, जहां पवित्र पादुका का पूजन होता है। लगभग सभी मराठी भाषियों में नरसिंह सरस्वती का नाम प्रसिद्ध है।

थोड़ी ही दूरी पर राजाओं के राजबाड़े हैं। यहां से एक किलोमीटर दूर सांई बाबा का पारिवारिक मारुति मंदिर है। सांई बाबा का परिवार हनुमान भक्त था। वे उनके कुल देवता हैं। यह मंदिर खेतों के मध्य है, जो मात्र एक गोल पत्थर से बना है। यहीं पास में एक कुआं है, जहां सांई बाबा स्नान कर मारुति का पूजन करते थे। सांई बाबा पर हनुमानजी की कृपा थी।जय साईं राम....


साभार: अनिरुद्ध जोशी 'शतायु, webdunia




Sunday, June 22, 2014

मंदिर जाने का वैज्ञानिक महत्व



मंदिर जाने का वैज्ञानिक महत्व--
- वैदिक पद्धति के अनुसार मंदिर वहां बनाना चाहिए जहां से पृथ्वी की चुम्बकीय तरंगे घनी हो कर जाती है.
- इन मंदिरों में गर्भ गृह में देवता की मूर्ती ऐसी जगह पर स्थापित की जाती है.

- इस मूर्ती के नीचे ताम्बे के पत्र रखे जाते है जो यह तरंगे अवशोषित करते है.
- इस प्रकार जो व्यक्ति रोज़ मंदिर जा कर इस मूर्ती की घडी के चलने की दिशा में प्रदक्षिणा करता है वह इस एनर्जी को अवशोषित कर लेता है.
- यह एक धीमी प्रक्रिया है और नियमित करने से व्यक्ति की सकारात्मक शक्ति का विकास होता है.
- मंदिर तीन तरफ से बंद रहता है जिससे ऊर्जा का असर बढ़ता है.
- मूर्ती के सामने प्रज्वलित दीप उष्मा की ऊर्जा का वितरण करता है.
- घंटानाद से मन्त्र उच्चार से ध्वनी बनती है जो ध्यान केन्द्रित करती है.
- समूह में मंत्रोच्चार करने से व्यक्तिगत समस्याएँ भूल जाती है.
- फूलों , कर्पुर और धुप की सुगंध से तनाव से मुक्ति हो कर मानसिक शान्ति मिलती है.
- तीर्थ जल मंत्रोच्चार से उपचारित होता है. चुम्बकीय ऊर्जा के घनत्व वाले स्थान में स्थित ताम्रपत्र को स्पर्श करता है और यह तुलसी कपूर मिश्रित होता है. इस प्रकार यह दिव्य औषधि बन जाता है.
- तीर्थ लेते समय वयुमुद्रा बना ली जाती है. देने वाला भी मन्त्र उच्चारित करता है, फिर पिने के बाद हाथों को शिखा यानी सहस्त्रार , आँखों पर स्पर्श करते है.
- मंदिर में जाते समय वस्त्र यानी सिर्फ रेशमी पहनने का चालान इसीसे शुरू हुआ क्योंकि ये उस ऊर्जा के अवशोषण में सहायक होते है.
- मंदिर जाते समय महिलाओं को गहने पहनने चाहिए. धातु के बने ये गहने ऊर्जा अवशोषित कर उस स्थान और चक्र को पहुंचाते है जैसे गले , कलाई , सिर आदि .
- नए गहनों और वस्तुओं को भी मंदिर की मूर्ती के चरणों से स्पर्श कराकर फिर उपयोग में लाने का रिवाज है जो अब हम समझ सकते है की क्यों है .
- मंदिर का कलश पिरामिड आकृति का होता है जो ब्रम्हांडीय ऊर्जा तरंगों को अवशोषित कर उसके नीचे बैठने वालों को लाभ पहुंचाता है.
- हर एक सामान्य व्यक्ति को उच्च वैज्ञानिक कारण समझ में आये ऐसा आवश्यक नहीं इसलिए हमारे सभी रीती रिवाज धर्म और बड़ों के आदेश के रूप में निभाये जाते है.

साभार: फेसबुक

Wednesday, June 18, 2014

अफगानिस्तान पहले था हिन्दू राष्ट्र

आज भी अफगानिस्तान के गांवों में बच्चों के नाम आपको कनिष्क, आर्यन, वेद आदि मिलेंगे।

पठान पख्तून होते हैं। पठान को पहले पक्ता कहा जाता था। ऋग्वेद के चौथे खंड के 44वें श्लोक में भी पख्तूनों का वर्णन 'पक्त्याकय' नाम से मिलता है। इसी तरह तीसरे खंड का 91वें श्लोक आफरीदी कबीले का जिक्र 'आपर्यतय' के नाम से करता है।

अफगानिस्तान और पाकिस्तान को छोड़कर भारत के इतिहास की कल्पना नहीं की जा सकती। कहना चाहिए की वह 7वीं सदी तक अखंड भारत का एक हिस्सा था। अफगान पहले एक हिन्दू राष्ट्र था। बाद में यह बौद्ध राष्ट्र बना और अब वह एक इस्लामिक राष्ट्र है।

17वीं सदी तक अफगानिस्तान नाम का कोई राष्ट्र नहीं था। अफगानिस्तान नाम का विशेष-प्रचलन अहमद शाह दुर्रानी के शासन-काल (1747-1773) में ही हुआ। इसके पूर्व अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम्र वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से पुकारा जाता था जिसमें गांधार, कम्बोज, कुंभा, वर्णु, सुवास्तु आदि क्षेत्र थे।

यहां हिन्दूकुश नाम का एक पहाड़ी क्षेत्र है जिसके उस पार कजाकिस्तान, रूस और चीन जाया जा सकता है। ईसा के 700 साल पूर्व तक यह स्थान आर्यों का था। ईसा पूर्व 700 साल पहले तक इसके उत्तरी क्षेत्र में गांधार महाजनपद था जिसके बारे में भारतीय स्रोत महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में वर्णन मिलता है।

अफगानिस्तान की सबसे बड़ी होटलों की श्रृंखला का नाम ‘आर्याना' था और हवाई कंपनी भी ‘आर्याना' के नाम से जानी जाती थी। इस्लाम के पहले अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम्र वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से पुकारा जाता था।

पारसी मत के प्रवर्तक जरथ्रुष्ट द्वारा रचित ग्रंथ ‘जिंदावेस्ता' में इस भूखंड को ऐरीन-वीजो या आर्यानुम्र वीजो कहा गया है। आज भी अफगानिस्तान के गांवों में बच्चों के नाम आपको कनिष्क, आर्यन, वेद आदि मिलेंगे।

उत्तरी अफगानिस्तान का बल्ख प्रांत दुनिया की कुछ बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक विरासतों को सहेजे हुए है। इसके कुछ प्राचीन शहरों को दुनिया के सभी शहरों का जनक कहा जाता है। ये बल्ख के तराई इलाकों की समतल भूमि है जिसके प्राचीन व्यापारिक मार्ग ने खानाबदोशों, योद्धाओं, साहसी लोगों और धर्म प्रचारकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इन लोगों ने अपने पीछे यहां ऐसे रहस्यों को छोड़ा जिन्हें पुरातत्वविदों ने खोजना शुरू ही किया है।

साभार: फेसबुक