ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय उपलब्द्धियों को पाश्चातय बुद्धिजीवियों और भारत में उन्हीं के मार्ग दर्शन में प्रशिक्षित शिक्षा के ठेकेदारों ने स्दैव नकारा है। उन के बारे में भ्रामिकतायें फैलायी है। उन की आलोचना इस कदर की है कि विदेशी तो ऐक तरफ, भारत के लोगों को ही विशवास नहीं होता के उन के पूर्वज भी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कभी कुछ योग दान करने लायक थे।
स्वार्थवश, जान बूझ कर, सोची समझी साज़िश के अनुसार पिछले 1200 वर्षों का भारतीय इतिहास तोड मरोड कर विकृत कर के यही संकेत दिया जाता रहा है कि विश्व में आधुनिक सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान के सृजन कर्ता केवल योरुपीय ईसाई ही थे ताकि ज्ञान-विज्ञान पर उन्हीं का ऐकाधिकार बना रहै, जबकि वास्तविक तथ्य इस के उलट यह हैं कि आधुनिक सभ्यता तथा विज्ञान के जनक हिन्दूओं के पूर्वज ही थे और प्राचीन काल में ईसाईयों ने ज्ञान-विज्ञान का विरोध कर के उसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी थी।
योरूप का अन्धकार युग
जिस समय भारत का नाम ज्ञान-विज्ञान के आकाश में सर्वत्र चमक रहा था उसी समय को पाश्चात्य इतिहासकार ही योरुप का ‘अन्धकार-युग’ (डार्क ऐजिस) कहते हैं। उस समय योरुप में गणित, विज्ञान, तथा चिकित्सा के नाम पर सिवाय अन्ध-विशवास के और कुछ नहीं था। यूनान देश में कुछ ज्ञान प्रसार था जिसे योरुपीय इतिहासकार योरुप की ‘प्रथम-जागृति’ (फर्स्ट अवेकनिंग आफ योरुप) मानते हैं। यद्यपि इस ज्ञान को भी यूनान में भारत से छटी शताब्दी में आयात किया गया माना जाता है। वही ज्ञान ऐक हजार वर्षों के पश्चात 16 वीं शताब्दी में योरुप में जब पुनः फैला तो इसे जागृति के क्राँति युग (ऐज आफ रिनेसाँ) का नाम दिया जाने गया था। रिनेसाँ के पश्चात ही योरुपियन नाविक भारत की खोज करने को उत्सुक्त हो उठे और लग भग वहाँ के सभी देश ऐक दूसरे से इस दिशा में प्रति स्पर्धा करने की होड में जुट गये थे। भारत की खोज करते करते उन्हें अमेरिका तथा अन्य कई देशों के अस्तीत्व का ज्ञान प्राप्त हुआ था।
योरुपवासियों के भूगोलिक ज्ञान का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन को प्रशान्त महासागर का पता तब चला था जब अमेरिका से सोना प्राप्त करने की खोज में स्पेन का नाविक बलबोवा अटलाँटिक महासागर पार कर के अगस्त 1510 में मैक्सिको पहुँचा था। तब बलबोवा ने देखा कि मैक्सिको के पश्चिमी तट पर ऐक और विशालकाय महासागर भी दुनियाँ में है जिस को अब प्रशान्त महासागर कहा जाता है। यह वह समय है जब भारत पर लोधी वँश का शासन था। योरूपवासियों की तुलना में रामायण का वह वृतान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है जब सुग्रीव सीता की खोज में जाने वाले वानर दलों को विश्व के चारों महासागरों के बारे में जानकारी देते हैं।
इतिहास का पुनर्वालोकन
किस प्रकार ज्ञान-विज्ञान के भारतीय भण्डारों को नष्ट किया गया अथवा लूट कर विदेशों में ले जाया गया - इस बात का आँकलन करने के लिये हमें भारत के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का पुनर्वालोकन करना हो गा। यह भी स्मर्ण रखना हो गा कि वास्तव में वही काल पाश्चात्य जगत का के इतिहास का अन्धकार-युग कहलाता है।
भारत में स्वयं जियो के साथ साथ औरों को भी जीने दो का संदेश धर्म के रुप में पूर्णत्या क्रियात्मक रूप से विकसित हो चुका था। इसी आदर्श का वातावरण भारत ने अपने निकटवर्ती ऐशियाई देशों में पैदा करने की कोशिश भी लगातार की थी। य़ह वातावरण भारत की आर्थिक उन्नति, सामाजिक परम्पराओं, ज्ञान-विज्ञान के प्रसार तथा राजनैतिक स्थिरता के कारण बना था। उस समय चीन, मिस्र, मैसोपोटामिया, रोम और यूनान आदि देश ही विकासशील माने जाते थे। बाकी देशों का जन-जीवन आदि-मानव युग शैली से सभ्यता की ओर केवल सरकना ही आरम्भ ह्आ था।
योरुप की प्रथम जागृति
आरम्भ से ही भारत ज्ञान-विज्ञान का जनक रहा है। तक्षशिला विश्वविद्यालय ज्ञान प्रसारण का ऐक मुख्य केन्द्र था जहाँ ईरान तथा मध्य पश्चिमी ऐशिया के शिक्षार्थी विद्या ग्रहण करने के लिये आते थे। ईसा से लग भग ऐक दशक पूर्व ईरान भारतीय संस्कृति का ही विस्तरित रूप था। तुर्की को ऐशिया माईनर कहा जाता था तथा वह स्थल यूनानियों और ईरानियों के मध्य का सेतु था। तुर्की के रहवासी मुस्लिम नहीं थे। उस समय तो इस्लाम का जन्म ही नहीं हुआ था।
उपनिष्दों का प्रभाव
ईरान योरुप तथा ऐशिया के चौराहे पर स्थित देश था। वह भिन्न भिन्न जातियों और पर्यटकों के लिये ऐक सम्पर्क स्थल भी था। समय के उतार चढाव के साथ साथ ईरान की सीमायें भी घटती बढती रही हैं। कभी तो ईरान ऐक विस्तरित देश रहा और उस की सीमायें मिस्त्र तथा भारत के साथ जुडी रहीं, और कभी ऐसा समय भी रहा जब ईरान को विदेशी आक्रान्ताओं के आधीन भी रहना पडा। ईसा से 1500 वर्ष पूर्व उत्तरी दिशा से कई लोग ईरान में प्रवेश करने शुरु हुये जिन्हें इतिहासकारों ने कभी ‘ईन्डो-योरुपियन’ तो कभी ‘आर्यन’ भी कहा है। ईरान देश को पहले ‘आर्याना’ और अफ़ग़ानिस्तान को ‘गाँधार’ कहा जाता था। तब मक्का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र होने के साथ साथ ऐक धर्म स्थल भी था। वहाँ अरब वासी ऐकत्रित हो कर ऐक काले पत्थर की पूजा करते थे जिसे वह स्वर्ग से गिराया गया मानते थे। वास्तव में वह ऐक शिव-लिंग का ही चिन्ह था।
उपनिष्दों के माध्यम से ऐक ईश्वरवाद भारत में अपने पूरे उत्थान पर पहुँच चुका था। इस विचार धारा ने जोराष्ट्रईन (पारसी), जूडाज्मि (यहूदी), तथा मिस्त्र के अखेनेटन (1350 ईसा पूर्व) साम्प्रदायों को भी प्रभावित किया था। झोरास्टर ईसा से 5 शताब्दी पूर्व ईरान के पूर्वी भाग में रहे जो भारत के साथ सटा हुआ है। उन की विचारधारा में पाप और पुण्य तथा अंधकार और प्रकाश के बीच निरन्तर संघर्ष उपनिष्दवादी विचारधारा के प्रभाव को ही उजागर करती है। इसी प्रकार मध्य ऐशिया की तत्कालिक विचारधारा में ऐक ईश्वरवाद और सही-ग़लत की नैतिकता के बीच संघर्ष भी हिन्दू विचारघारा का प्रभाव स्वरूप ही है यद्यपि मिस्त्र में उपनिष्दों का प्रभाव ऐकमात्र संरक्षक अखेनेटन की मृत्यु के साथ ही लुप्त हो गया था।
मित्तराज्मि नाम से ऐक अन्य वैदिक प्रभावित विचारधारा ईरान, दक्षिणी योरुप और मिस्त्र में फैली हुयी थी। मित्रः को वैदिक सू्र्य देव माना जाता है तथा उन का जन्म दिवस 25 दिसम्बर को मनाया जाता था। कदाचित इसी दिन के पश्चात सूर्य का दक्षिणायण से उत्तरायण कटिबन्ध में प्रविष्टि होती है। कालान्तर उसी दिन को ईसाईयों ने क्रिसमिस के नाम से ईसा का जन्म दिन के साथ जोड कर मनाना आरम्भ कर दिया।
हिन्दू मान्यताओं का असर
ईसा से तीन शताब्दी पहले बहुत से भारतीय मिस्त्र के सिकन्द्रीया (एलेग्ज़ाँड्रीया)) नगर में रहते थे। मिस्त्र में व्यापारियों के अतिरिक्त कई बौध भिक्षु और वेदशास्त्री भी मध्य ऐशिया की यात्रा करते रहते थे। इस कारण हिन्दू दार्शनिक्ता, विज्ञान, रीति-रिवाज, आस्थायें इस्लाम और इसाई धर्म के आगमन से पूर्व ही उन इलाकों में फैल चुकीं थीं। हिन्दू विज्ञान के सिद्धान्त, भारतीय मूल के राजनैतिक तथा दार्शनिक विचार भी योरुप तथा मध्य ऐशिया में अपना स्थान बना चुके थे। कुछ प्रमुख विचार जो वहाँ फैल चुके थे वह इस प्रकार हैं-
- दुनियां गोल है – हिन्दू धर्म ने कभी भी दुनियाँ के गोलाकार स्वरूप को चुनौती नहीं दी। पौराणिक चित्रों में भी वराह भगवान को गोल धरती अपने दाँतों पर उठाये दिखाया जाता है। शेर के रूप में बुद्ध अवतार को भी अज्ञान तथा अऩ्ध विशवास रूपी ड्रैगन के साथ युद्ध करते दिखाया जाता है तथा उन के पास पूंछ से बंधी गोलाकार धरती होती है।
- रिलेटीविटी का सिद्धान्त– हिन्दू मतानुसार मानव को सत्य की खोज में स्दैव लगे रहना चाहिये। यह भी स्वीकारा है कि प्रथक प्रथक परिस्थितियों में भिन्न भिन्न लोग ऐक ही सत्य की छवि प्रथक प्रथक देखते हैं। अतः हिन्दू मतानुसार सहनशीलता के साथ वैचारिक असमान्ता स्वीकारने की भी आवश्यक्ता है। ज्ञान अर्जित कलने के लिये यह दोनों का होना अनिवार्य है अतः ऋषियों ने ज्ञान कोरिलेटिव बताया है।
- धार्मिक स्वतन्त्रता – हिन्दू धर्म ने नास्तिक्ता को भी स्थान दिया है। आस्था तथा धार्मिक विचार निजि परिकल्पना के क्षेत्र हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति इस क्षेत्र में स्वतन्त्र है। उस पर परिवार, समाज अथवा राज्य का कोई दबाव नहीं है। अतः हिन्दू विचारधारा में कट्टरपंथी मौलवियों और पाश्चात्य श्रेणी के पादरियों के लिये कोई प्रावधान नहीं जो अपनी ही बात के अतिरिक्त सभी कुछ नकारनें में विशवास रखते हैं।। हिन्दू परम्परा के अनुसार पुजारियों का काम केवल रीति रीवाजों को यजमान की इच्छा के अनुरूप सम्पन्न करवाना मात्र ही है।
- यूनिफीड फील्ड थियोरी –ब्रहम् के इसी सिद्धान्त ने कालान्तर रिलेटीविटी के सिद्धान्त की प्ररेणा दी तथा भौतिक शास्त्र में यूनिफीड फील्ड थियोरी को जन्म दिया।
- कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त – हिन्दू मतानुसार ‘सत्य’ शोध का विषय है ना कि अन्ध विशवास कर लेने का। प्रत्येक स्त्री पुरुष को भगवान के स्वरुप की निजि अनुभूति करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। कोई किसी को अन्य के बताये मार्ग को मूक बन कर अपना लेने के लिये बाध्य नहीं करता। ब्रह्माणड को समय अनुकूल कारण तथा प्रभाव के आधीन माना गया है। यही तथ्य आज कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त (ला आफ काज़ ऐण्ड इफेक्ट) कहलाता है।
- कर्म सिद्धान्त – हिन्दूओं दूारा प्रत्येक व्यक्ति को‘कर्म-सिद्धान्त’ के अनुसार अपने कर्मों के परिणामों के लिये उत्तरदाई मानना तथा क्रम के फल को दैविक शक्ति के आधीन मानना ही वैज्ञानिक विचारधारा का आरम्भ था। इस तर्क संगत विचार धारा के फलस्वरूप भारत अन्य देशों से आधुनिक विचार, विज्ञान तथा गणित के क्षेत्र में आगे था। इस की तुलना में कट्टर विचारधारा के फलस्वरूप यहूदी, इसाई तथा मुसलिम केवल उन के धर्म के ईश्वर को ही मानते थे और अन्य धर्मों के ईश को असत्य मानते थे। जो कुछ ‘उन के ईश’ ने ‘पैग़म्बर’ को बताया था केवल वही अंश सत्य था तथा अन्य विचार जो उन से मेल नहीं खाते थे वह नकारने और नष्ट करने लायक थे। परिणाम स्वरूप उन्हों ने धर्मान्धता, ईर्षा और असहनशीलता का वातावरण ही फैलाया।
सिकंदर महान का अभियान
यह वह समय था सिकन्दर महान अफ़रीका तथा ऐशिया के देशों की विजय यात्रा पर निकला था। सिकन्दर के व्यक्तित्व का ऐक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह वास्तव में ऐक सैनिक विजेता था और केवल स्वर्ण लूटने वाला लुटेरा नहीं था। उस ने जहाँ कहीं भी विजय प्राप्त करी तो भी वहाँ की स्थानीय सभ्यता को ध्वस्त नहीं किया। विजित क्षेत्रों में यदि वह किसी पशु, पक्षी, या ग्रन्थ को देखता था तो उसे अपने गुरु अरस्तु के पास यूनान भिजवा देता था ताकि उस का गुरू उस के सम्बन्ध में अतिरिक्त खोज कर सके।
विजय यात्रा के दौरान सिकन्दर भारत के कई बुद्धिजीवियों को मिला, उस ने उन से विचार विमर्श किया और उन्हें सम्मानित भी किया। सिकन्दर ने उन बुद्धिजीवियों से उन का ज्ञान-विज्ञान भी ग्रहण किया। पाश्चात्य देशों के साथ भारतीय ज्ञान का प्रसार सिकन्दर के माध्यम से ही आरम्भ हुआ था और सिकन्दर भारतीय के ज्ञान विज्ञान तथा समृद्धि की प्रशंसा सुन कर ही भारत विजय की अभिलाषा के साथ यहाँ आया था। उस काल में भारत विजय का अर्थ समस्त संसार पर विजय पाना माना जाता था। सिकन्दर ने तक्षशिला की भव्यता से प्रभावित हो कर सिकन्द्रिया में वैसा ही विश्वविद्यालय निर्माण करवाया था।
पाश्चात्य बुद्धिजीवी अपने अज्ञान और स्वार्थ के कारण भारत को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में उचित श्रेय ना देकर भारत को शोषण ही करते रहै हैं और भारतवासी अपनी लापरवाही के कारण शोषण सहते रहै हैं।
साभार: लेखक श्री चाँद शर्मा जी, हिंदू महासागर,http://hindumahasagar.wordpress.com