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Tuesday, November 27, 2012

धर्म हीनता या हिन्दू राष्ट्र ?


हिन्दुस्तान में अंग्रेजों का शासन पूर्णत्या ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शासन था। उन्हों ने देश में ‘विकास’ भी किया। दैनिक जीवन के प्रशासन कार्यों में अंग्रेज़ हमारे भ्रष्ट नेताओं की तुलना में अधिक अनुशासित, सक्ष्म तथा ईमानदार भी थे। फिर भी हम ने स्वतन्त्रता के लिये कई बलिदान दिये क्योंकि हम अपने देश को अपने पूर्वजों की आस्थाओं और नैतिक मूल्यों के अनुसार चलाना चाहते थे। परन्तु स्वतन्त्रता संघर्ष के बाद भी हम अपने लक्ष्य में असफल रहै। 
भारत विभाजन के पश्चात तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दुस्तान की पहचान ही मिटती जा रही है। शहीदों के बलिदान के ऐवज में इटली मूल की मामूली हिन्दी-अंग्रजी जानने वाली महिला हिन्दुस्तान के शासन तन्त्र की ‘सर्वे-सर्वा’ बनी बैठी है। हिन्दू संस्कृति और इतिहास का मूहँ चिडा कर यह कहने का दुसाहस करती है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। उसी महिला का मनोनीत किया हुआ प्रधान मन्त्री कहता है कि ‘देश के संसाधनों पर प्रथम हक तो अल्पसंख्यकों का है’। हमारे देश का शासन तन्त्र लगभग अल्प संख्यकों के हाथ में जा चुका है और अब स्वदेशी को त्याग भारत विदेशियों की आर्थिक गुलामी की तरफ तेजी से लुढक रहा है। हम बेशर्मी से अपनी लाचारी दिखा कर प्रलाप कर रहै हैं “अब हम ‘अकेले (सौ करोड हिन्दू)’ कर ही क्या सकते हैं? ”
धर्म-निर्पेक्षता का असंगत विचार
शासन में ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का विचार ‘कालोनाईजेशन काल’ की उपज है। योरूप के उपनेषवादी देशों ने जब दूसरे देशों में जा कर वहाँ के स्थानीय लोगों को जबरदस्ती इसाई बनाना आरम्भ किया था तो उन्हें स्थानीय लोगों का हिंसात्मक विरोध झेलना पडा था। फलस्वरुप उन्हों ने दिखावे के लिये अपने प्रशासन को इसाई मिशनरियों से प्रथक कर के अपने सरकारी तन्त्र को ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बताना शुरु कर दिया था ताकि आधीन देशों के लोग विद्रोह नहीं करें। इसी कारण सभी आधीन देशों में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारों की स्थापना करी गई थी।
शब्दकोष के अनुसार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शब्द का अर्थ है – जो किसी भी ‘नैतिक’ तथा ‘धार्मिक आस्था’ से जुडा हुआ ना हो। हिन्दू विचारधारा में जो व्यक्ति या शासन तन्त्र नैतिकता अथवा धर्म में विश्वास नहीं रखता उसे ‘अधर्मी’ या ‘धर्म-हीन’ कहते हैं। ऐसा तन्त्र केवल अनैतिक, स्वार्थी, व्यभिचारिक तथा क्रूर राजनैतिक शक्ति है, जिसे अंग्रेजी में ‘माफिया’ कहते हैं। अनैतिकता के कारण वह उखाड फैंकने लायक है। 
आज पाश्चात्य जगत में भी जिन  देशों में तथा-कथित ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारें हैं उन का नैतिक झुकाव स्थानीय आस्थाओं और नैतिक मूल्यों पर ही टिका हुआ है। पन्द्रहवीं शाताब्दी में जब इसाई धर्म का दबदबा अपने उफान पर था तब इंग्लैण्ड के ट्यूडर वँशी शासक हेनरी अष्टम नें ईंग्लैण्ड के शासन क्षेत्र में पोप तथा रोमन चर्च के हस्तक्षेप पर रोक लगा दी थी और ईंग्लैण्ड मेंकैथोलिक चर्च के बदले स्थानीय प्रोटेस्टैंट चर्च की स्थापना कर दी थी। प्रोटेस्टैंट चर्च को ‘चर्च आफ ईंग्लैण्ड ’ भी कहा जाता है। यद्यपि ईंग्लैण्ड की सरकार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ होने का दावा करती है किन्तु वहाँ के बादशाहों के नाम के साथ डिफेन्डर आफ फैथ (धर्म-रक्षक) की उपाधि भी लिखी जाती है। ईंग्लैण्ड के औपचारिक प्रशासनिक रीति रिवाज भी इसाई और स्थानीय प्रथाओं और मान्यताओं के अनुसार ही हैं। 
भारत सरकार को पाश्चात्य ढंग से अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष घोषित करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है क्यों कि भारत में उपजित हिन्दू धर्म यथार्थ रुप में ऐक प्राकृतिक मानव धर्म है जो पर्यावरण के सभी अंगों को अपने में समेटे हुये है। आदिकाल से हिन्दू धर्म और हिन्दू देश ही भारत की पहचान रहै हैं।
पूर्णत्या मानव धर्म
स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से स्वतन्त्र है। प्रत्येक व्यक्ति निजि क्षमता और रुचि अनुसार अपने लिये मोक्ष का मार्ग स्वयं ढूंडने के लिये स्वतन्त्र है। ईश्वर से साक्षाताकार करने के लिये हिन्दू ईश्वर के पुत्र, ईश्वरीय के पैग़म्बर या किसी अन्य ‘विचौलिये’ की मार्फत नहीं जाते। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर का प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों को अपना ‘ईश्वरीयत्व’ स्वीकार करने के लिये बाधित और दण्डित नहीं कर सकता। 
हम बन्दरों की संतान नहीं हैं। हमारी वँशावलियाँ ऋषि परिवारों से ही आरम्भ होती हैं जिन का ज्ञान और आचार-विचार विश्व में मानव कल्याण के लिये कीर्तिमान रहै हैं। अतः 1869 में जन्में मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा देना ऐक राजनैतिक भूल नहीं, बल्कि देश और संस्कृति के विरुद्ध काँग्रेसी नेताओं और विदेशियों का ऐक कुचक्र था जिस से अब पर्दा उठ चुका है।
हिन्दू धर्म वास्तव में ऐक मानव धर्म है जोकि विज्ञान तथा आस्थाओं के मिश्रण की अदभुत मिसाल है। हिन्दूओं की अपनी पूर्णत्या विकसित सभ्यता है जिस ने विश्व के मानवी विकास के हर क्षेत्र में अमूल्य योग्दान दिया है। स्नातन हिन्दू धर्म ने स्थानीय पर्यावरण का संरक्षण करते हुये हर प्रकार से ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दिया है। केवल हिन्दू धर्म ने ही विश्व में ‘वसुदैव कुटम्बकुम’ की धारणा करके समस्त विश्व के प्राणियों को ऐक विस्तरित परिवार मान कर सभी प्राणियों में ऐक ही ईश्वरीय छवि का आभास किया है। 
भारत का पुजारी वर्ग कोई प्रशासनिक फतवे नहीं देता। हिन्दूओं ने कभी अहिन्दूओं के धर्मस्थलों को ध्वस्त नहीं किया। किसी अहिन्दू का प्रलोभनों या भय से धर्म परिवर्तन नहीं करवाया। हिन्दू धर्म में प्रवेष ‘जन्म के आधार’ पर होता है परन्तु यदि कोई स्वेच्छा से हिन्दू बनना चाहे तो अहिन्दूओं के लिये भी प्रवेष दूार खुले हैं।
हिन्दू धर्म की वैचारिक स्वतन्त्रता
हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, या साकार। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं जो अन्य धर्मों में घृणा के पात्र समझे जाते हैं।
हिन्दूओं ने कभी किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है। प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार ऐक या अनेक ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी दी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बल्कि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं।
हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार वस्त्र पहने या कुछ भी ना पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन बिताये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।
हर नयी विचारघारा को हिन्दू धर्म में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है। नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान दिया गया है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है तथा हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी धर्म में नहीं है।
राष्ट्र भावना का अभाव 
पूवर्जों का धर्म, संस्कृति, नैतिक मूल्यों में विशवास, परम्पराओ का स्वेच्छिक पालन और अपने ऐतिहासिक नायकों के प्रति श्रध्दा, देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भ हैं। आज भी हमारी देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भों पर कुठाराघात हो रहा है। ईसाई मिशनरी और जिहादी मुसलिम संगठन भारत को दीमक की तरह खा रहे हैं। धर्मान्तरण रोकने के विरोध में स्वार्थी नेता धर्म-निर्पेक्ष्ता की दीवार खडी कर देते हैं। इन लोगों ने भारत को एक धर्महीन देश समझ रखा है जहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर सकता है। अगर कोई हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बनाये तो वह ‘उदार’,‘प्रगतिशील’ और धर्म-निर्पेक्ष है – परन्तु अगर कोई इस देश के हिन्दू को हिन्दू बने रहने को कहे तो वह ‘उग्रवादी’ ‘कट्टर पंथी’ और ‘साम्प्रदायक’ कहा जाता है। इन कारणों से भारत की नयी पी़ढी ‘लिविंग-इन‘ तथा समलैंगिक सम्बन्धों जैसी विकृतियों की ओर आकर्षित होती दिख रही है।
इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता
कत्लेाम और भारत विभाजन के बावजूद अपने हिस्से के खण्डित भारत में हिन्दू क्लीन स्लेटले कर मुस्लमानों और इसाईयों के साथ नया खाता खोलने कि लिये तैय्यार थे। उन्हों नें पाकिस्तान गये मुस्लमान परिवारों को वहाँ से वापिस बुला कर उन की सम्पत्ति भी उन्हें लौटा दी थी और उन्हें विशिष्ट सम्मान दिया परन्तु बदले में हिन्दूओं को क्या मिला ? ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रमाण पत्र पाने के लिये हिन्दू और क्या करे ? 
व्यक्तियों से समाज बनता है। कोई व्यक्ति समाज के बिना अकेला नहीं रह सकता। लेकिन व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की सीमा समाज के बन्धन तक ही होती है। एक देश के समाजिक नियम दूसरे देश के समाज पर थोपे नही जा सकते। यदि कट्टरपंथी मुसलमानों या इसाईयों को हिन्दू समाज के बन्धन पसन्द नही तो उन्हें हिन्दुओं से टकराने के बजाये अपने धर्म के जनक देशों में जा कर बसना चाहिये।
मुस्लिम देशों तथा कई इसाई देशों में स्थानीय र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में धर्म-निर्पेक्ष्ता के साये में उन्हें ‘खुली छूट’ क्यों है ? महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर भीड़ नमाज़ पढ सकती है, दिन हो या रात किसी भी समय लाउडस्पीकर लगा कर आजा़न दी जा सकती है। किसी भी हिन्दू देवी-देवता के अशलील चित्र, फि़ल्में बनाये जा सकते हैं। हिन्दु मन्दिर, पूजा-स्थल, और सार्वजनिक मण्डप स्दैव आतंकियों के बम धमाकों से भयग्रस्त रहते हैं। इस प्रकार की इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता से हिन्दू युवा अपने धर्म, विचारों, परम्पराओं, त्यौहारों, और नैतिक बन्धनो से विमुख हो उदासीनता या पलायनवाद की और जा रहे हैं।
हिन्दू सैंकडों वर्षों तक मुसलसान शासकों को ‘जज़िया टैक्स’ देते रहै और आज ‘हज-सब्सिडी‘ के नाम पर टैक्स दे रहै हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय भी अवैध घौषित कर चुका है। भारत की नाम मात्र धर्म-निर्पेक्ष केन्द्रीय सरकार ने ‘हज-सब्सिडी‘ पर तो रोक नहीं लगायी, उल्टे इसाई वोट बैंक बनाये रखने के लिये ‘बैथलहेम-सब्सिडी` देने की घोषणा भी कर दी है। भले ही देश के नागरिक भूखे पेट रहैं, अशिक्षित रहैं, मगर अल्पसंख्यकों को विदेशों में तीर्थ यात्रा के लिये धर्म-निर्पेक्षता के प्रसाद स्वरूप सब्सिडी देने की भारत जैसी मूर्खता संसार में कोई भी देश नही करता।
यह कहना ग़लत है कि धर्म हर व्यक्ति का ‘निजी’ मामला है, और उस में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जब धर्म के साथ ‘जेहादी मानसिक्ता’ जुड़ जाती है जो दूसरे धर्म वाले का कत्ल कर देने के लिये उकसाये तो वह धर्म व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। ऐसे धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था भी दूषित होती है और सरकार को इस पर लगाम लगानी आवशयक है।
धर्म-निर्पेक्षता का छलावा
हमारे कटु अनुभवों ने ऐक बार फिर हमें जताया है कि जो धर्म विदेशी धरती पर उपजे हैं, जिन की आस्थाओं की जडें विदेशों में हैं, जिन के जननायक, और तीर्थ स्थल विदेशों में हैं वह भारत के विधान में नहीं समा सकते। भारत में रहने वाले मुस्लमानों और इसाईयों ने किस हद तक धर्म निर्पेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकारा है और वह किस प्रकार से हिन्दू समाज के साथ रहना चाहते हैं यह कोई छिपी बात नहीं रही।        
धार्मिक आस्थायें राष्ट्रीय सीमाओं के पार अवश्य जाती हैं। भारत की सुरक्षा के हित में नहीं कि भारत में विदेशियों को राजनैतिक अधिकारों के साथ बसाया जाये। मुस्लिमों के बारे में तो इस विषय पर जितना कहा जाय वह कम है। अब तो उन्हों ने हिन्दूओं के निजि जीवन में भी घुसपैठ शुरु कर दी है। आज भारत में हिन्दू अपना कोई त्यौहार शान्त पूर्ण ढंग से सुरक्षित रह कर नहीं मना सकते। पूजा पाठ नहीं कर सकते, उन के मन्दिर सुरक्षित नहीं हैं, अपने बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते, तथा उन्हें सुरक्षित स्कूल भी नहीं भेज सकते क्यों कि हर समय आतंकी हमलों का खतरा बना रहता है जो स्थानीय मुस्लमानों के साथ घुल मिल कर सुरक्षित घूमते हैं।
अत्मघाती धर्म-निर्पेक्षता
धर्म-निर्पेक्षता की आड ले कर साम्यवादी, आतंकवादी, और कट्टरपँथी शक्तियों ने संगठित हो कर  भारत में हिन्दूओं के विरुद्ध राजसत्ता के गलियारों में अपनी पैठ जमा ली है। स्वार्थी तथा राष्ट्रविरोधी हिन्दू राजनेताओं में होड लगी हुई है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे से बढ चढ कर हिन्दू हित बलिदान कर के अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करें और निर्वाचन में उन के मत हासिल कर सकें। आज सेकूलरज्मि का दुर्प्योग अलगाववादी तथा राष्ट्रविरोधी तत्वों दूारा धडल्ले से हो रहा है। विश्व में दुसरा कोई धर्म निर्पेक्ष देश नहीं जो हमारी तरह अपने विनाश का सामान स्वयं जुटा रहा हो।
ऐक सार्वभौम देश होने के नातेहमें अपना सेकूलरज्मि विदेशियों से प्रमाणित करवाने की कोई आवश्यक्ता नहीं। हमें अपने संविधान की समीक्षा करने और बदलने का पूरा अधिकार है। इस में हिन्दूओं के लिये ग्लानि की कोई बात नहीं कि हम गर्व से कहें कि हम हिन्दू हैं। हमें अपनी धर्म हीन धर्म-निर्पेक्षता को त्याग कर अपने देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना होगा ताकि भारत अपने स्वाभिमान के साथ स्वतन्त्र देश की तरह विकसित हो सके।
धर्म-हीनता और लाचारी भारत को फिर से ग़ुलामी का ओर धकेल रही हैं। फैसला अब भी राष्ट्रवादियों को ही करना है कि वह अपने देश को स्वतन्त्र रखने के लिये हिन्दू विरोधी सरकार हटाना चाहते हैं या नहीं। यदि उन का फैसला हाँ में है तो अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होकर कर उस सरकार को बदल दें जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़।
साभार लेखक : चाँद शर्मा, http://hindumahasagar.wordpress.com

Sunday, November 25, 2012

हिन्दूओं की दिशाहीनता


आज का हिन्दू दिशाहीनता के असमंजस में उदासीन, असुरक्षित और ऐकाकी जीवन जी रहा है। अपने आप को अकेला और लाचार समझ कर या तो देश से भाग जाना चाहता है या मानसिक पलायनवाद की शरण में खोखला आदर्शवादी और धर्म-निर्पेक्ष बना बैठा है। “हम क्या कर सकते हैं” हिन्दूओं के निराश जीवन का सारंश बन चुका है।
कोई भी व्यक्ति या समाज अपने पर्यावरण और घटनाओं के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता। सुरक्षित रहने के लिये सभी को आने वाले खतरों से सजग रहना जरूरी है। विभाजन के पश्चात हिन्दू या तो पाकिस्तान में मार डाले गये थे या उन्हें इस्लाम कबूल करना पडा था। जिन्हें धर्म त्यागना मंज़ूर नहीं था उन्हें अपना घर बार छोड कर हिन्दुस्तान की ओर पलायन करना पडा था। पहचान के लिये प्रधानता धर्म की थी राष्ट्रीयता की नहीं थी। यदि आगे भी देश की राजनीति को कुछ स्वार्थी धर्म-निर्पेक्ष नेताओं के सहारे छोड दें गे और अपने धर्म को सुरक्षित नहीं करें गे तो भविष्य में भी हिन्दू डर कर पलायन ही करते रहैं गे।
इतिहास की अवहेलना
इतिहास अपने आप को स्दैव क्रूर ढंग से दोहराता है। आज से लगभग 450 वर्ष पहले मुस्लमानों के ज़ुल्मों से पीड़ित कशमीरी हिन्दू गुरू तेग़ बहादुर की शरण में गये थे। उन के लिये गुरू महाराज ने दिल्ली में अपने शीश की कुर्बानी दी। सदियां बीत जाने के बाद भी कशमीरी हिन्दू आज भी कशमीर से पलायन कर के शरणार्थी बन कर अपने ही देश में इधर उधर दिन काट रहे हैं कि शायद कोई अन्य गुरू उन के लिये कुर्बानी देने के लिये आगे आ जाये। उन्हों ने ऐकता और कर्मयोग के मार्ग को नहीं अपनाया।
मुन्शी प्रेम चन्द ने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी में नवाब वाजिद अली शाह के ज़माने का जो चित्रण किया है वही दशा आज हिन्दूओं की भी है। उस समय लखनऊ के सामंत बटेर बाजी और शतरंज में अपना समय बिता रहे थे कि अंग्रेज़ों ने बिना ऐक गोली चलाये अवध की रियासत पर अधिकार कर लिया था। आज हम क्रिकेट मैच, रोने धोने वाले घरेलू सीरयल और फिल्मी खबरें देखने में अपना समय नष्ट कर रहे हैं और अपने देश-धर्म की सुरक्षा की फिकर करने की फुर्सत किसी हिन्दू को नहीं। इटली मूल की ऐक महिला ने तो साफ कह दिया है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। हम ने चुप-चाप सुन लिया है और सह भी लिया है। हिन्दूओं का हिन्दूस्तान अल्पसंख्यकों के अधिकार में जा रहा है और देश के प्रधानमन्त्री ने भी कहा है कि देश के साधनों पर उन्हीं का ही “पहला अधिकार” है।
हिन्दूओं की भारत में अल्पसंख्या
हिन्दूओं की जैसी दशा कशमीर में हो चुकी है वैसी ही शीघ्र केरल, कर्नाटक, आन्ध्र, बंगाल, बिहार तथा उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में भी होने वाली है। यदि वह समय रहते जागृत और संगठित नहीं हुये तो उन्हें वहाँ से भी पलायन करना पडे गा। वहाँ मुस्लिम और इसाई जनसंख्या दिन प्रतिदिन बढ रही है। शीघ्र ही वह हिन्दू जनगणना से कहीं आगे निकल जाये गे। इन विदेशी घर्मों ने धर्म-निर्पेक्षता को हृदय से नहीं स्वीकारा है और धर्म-र्निर्पेक्षता का सरकारी लाभ केवल अपने धर्म के प्रचार और प्रसार के लिये उठा रहै हैं। वह अपनी राजनैतिक जडें कुछ स्वार्थी हिन्दू राजनेताओं के सहयोग से भारत में मजबूत कर रहै हैं। उन के सक्ष्म होते ही भारत फिर से मुस्लमानों और इसाईयों के बीच बट कर उन के आधीन हो जाये गा। हिन्दूओं के पास अब समय और विकल्प थोडे ही बचे हैं।  
प्राकृतिक विकल्प
सृष्टि में यदि पर्यावरण अनुकूल ना हो तो सभी प्राणियों की पास निम्नलिखित तीन विकल्प होते हैं- 
  • प्रथम – किसी अन्य अनुकूल स्थान की ओर प्रस्थान कर देना।
  • दूतीय – वातावरण के अनुसार अपने आप को बदल देना।
  • तीसरा – वातावरण के अपने अनुकूल बदल देना।
प्रथम विकल्प  हिन्दू किसी अन्य स्थान की ओर प्रस्थान कर देना
विश्व में अब कोई भी हिन्दू देश नहीं रहा जो पलायन करते हिन्दूओं की जनसंख्या को आसरा दे सके गा। ऐक ऐक कर के सभी हिन्दू देश संसार से मिट चुके हैं। इस कडी का अन्तिम हिन्दू देश नेपाल था। आने वाली पीढियों को यह विशवास दिलाना असम्भव होगा कि कभी इरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, लंका, म्यनमार, थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया, जावा, मैक्सिको, पेरू और बाँग्लादेश आदि ‘हिन्दू देश’ थे जहाँ मन्दिर और शिवालयों में आरती हुआ करती थी। अब अगर हिन्दूस्तान भी हिन्दूओं उन से छिन गया तो कहाँ जायें गे?
सिवाय मूर्ख हिन्दूओं के कोई भी देश दूसरे देश के शर्णार्थियों को स्दैव के लिये अपनी धरती पर स्थापित नहीं कर सकता। शर्णार्थियों को स्दैव स्थानीय लोगों का शोशण और विरोध झेलना पडता है। इस लिये प्रथम विकल्प में हिन्दूओं के लिये भारत से पलायन कर के अपने लिये नया सम्मान जनक घर तलाशना असम्भव है।
दूसरा विकल्प वातावरण अनुसार अपने आप को बदल देना
भारत में कई ‘धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी’ हैं जो रात दिन प्रचार करते रहते हैं कि हमें समय के साथ चलना चाहिये। बाहर से आने वालों के लिये अपने दरवाजे खोल कर भारत को पर्यटकों, घुसपैठियों, और समलैंगिकों का धर्म-निर्पेक्ष देश बना देना चाहिये जहाँ सभी साम्प्रदायों को अपने अपने ढंग की जीवन शैली जीने का अधिकार हो। यदि उन की सलाह मान ली जाय तो हिन्दूओं को “अरब और ऊँट” वाली कथा अपने घर में दोहरानी होगी। देश के कई विभाजन भी करने पडें गे ताकि आने वाले सभी पर्यटकों को उन की इच्छानुसार जीने दिया जाये। मुस्लिम और हिन्दू, मुस्लिम और इसाई, इसाई और हिन्दू ऐक ही शैली में नहीं जीते। सभी में प्रस्पर हिंसात्मिक विरोधाभास हैं। शान्ति तभी हो सकती थी यदि सभी ऐक ही आचार संहिता के तले रहते परन्तु भारत में ‘धर्म-निर्पेक्षों’ वैसा नहीं होने दिया।
यह सोचना भी असम्भव होगा कि लाखों वर्ष की प्राचीन हिन्दू सभ्यता इस परिस्थिति से समझोता कर सकें गी और उन समुदायों के रीति रिवाजों को अपना ले गी जो अज्ञानता के दौर से आज भी पूर्णत्या निकल नहीं पाये हैं। अन्य धर्मों में पादरियों और मौलवियों के कथन पर यकीन करना लाज़मी है नहीं तो उस की सजा मृत्युदण्ड है, किन्तु स्वतन्त्र विचार के हिन्दू उन आस्थाओं पर कभी भी विशवास नहीं कर सकें गे। हिन्दूओं की संख्या भले ही शून्य की ओर जाने लगे फिर भी हिन्दू अकेले ही विश्व के किसी कोने में भी जीवित रहै गा क्यों कि यही मानवता का प्राकृतिक धर्म है। मानवता प्रलयकाल से पहले समाप्त नहीं हो सकती यह भी प्रकृति का नियम है। अतः हिन्दू पहचान मिटाने का दूसरा विकल्प भी असम्भव है।
तीसरा विकल्प वातावरण के अपने अनुकूल बदल देना
हिन्दूओं के पास अब केवल यही ऐक प्रभावशाली, स्थायी, तर्क संगत तथा सम्मान जनक विकल्प है कि वह अपने प्रतिकूल धर्म-निर्पेक्ष वातावरण को बदल कर उसे अपने अनुकूल हिन्दूवादी बनाये।   
समय समय पर हिन्दू समाज के ध्वस्त मनोबल को पुनर्स्थापित करने के लिये श्री कृष्ण, चाण्क्य, शिवाजी, तथा गुरू गोबिन्द सिहं जैसे महा जन नायकों ने भी यही विकल्प अपनाया था। हमारा वर्तमान संविधान और सरकार केवल धर्म-निर्पेक्षता का छलावा मात्र हैं। वास्तव में वह केवल अल्पसंख्यक तुष्टिकारक और हिन्दू विरोधी हैं। हमारे संवैधानिक प्रतिष्ठान भी अल्पसंख्यक संरक्षण और तुष्टिकरण का कार्य करते हैं। यदि इस संविधान को नहीं बदला गया तो निश्चय ही भारत का विघटन होता चला जाये गा। इस को रोकना है तो हिन्दूओं को संगठित हो कर पूर्ण बहुमत से चुनाव जीत कर भारत में हिन्दू रक्षक सरकार की स्थापना करनी होगी जो संविधान में परिवर्तन करने में सक्षम हो। भारत को “हिन्दू-राष्ट्र” घोषित करना होगा और मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को कानूनी तरीके से दूर करना होगा। हिन्दू सरकार ही भारत की परम्पराओं और गौरव को पुनर्जीवित कर सकती है और यह हमारा अधिकार तथा कर्तव्य दोनों हैं।
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना
आज हिन्दूओं को अपने ही घर हिन्दूस्तान में अल्पसंख्यकों के सामने विनती करनी पडती है। इस शर्मनाक स्थिति से उबरने के लिये हिन्दूओं को वैधानिक तरीके से सरकार तथा संविधान बदलने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं है। अतः हिन्दूओं को अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिये राजनैतिक तौर पर संगठित हो के ऐक सशक्त वोट बैंक बनाना होगा।
  • उन्हें किसी ऐक राजनैतिक दल को सम्पूर्ण सहयोग देना पडे गा या फिर नया हिन्दू राजनैतिक दल बना कर चुनाव में उतरना हो गा। समय और वर्तमान परिस्थितियों में नया राजनैतिक दल संगठित करना ऐक कठिन और तर्कहीन विचार होगा। अतः किसी शक्तिशाली दल को समर्थन देना ही क्रियात्मक उपाय है।
  • हिन्दूओं को अपने मतों का विभाजन रोकना होगा। खोखले आदर्शवाद की चमक में हिन्दू इस खेल को समझ नहीं पा रहै अल्पसंख्यक संगठित रह कर राजनैतिक संतुलन को बिगाडते हैं ताकि हिन्दूओं को सत्ता से वंचित रखा जाय। 
  • हिन्दूओं को नियन्त्रण करना होगा कि अल्पसंख्यक और हिन्दू विरोधी तत्व अनाधिकृत ढंग से मताधिकार तो प्राप्त नहीं कर रहै। घुसपैठिये भारत में कोई कर नहीं देते किन्तु सभी प्रकार की आर्थिक सुविधायें उठाते हैं जो भारत के वैधिनिक नागरिकों पर ऐक बोझ हैं। हिन्दू नागरिकों को पुलिस से सहयोग करना चाहिये ताकि वह अतिक्रमण को हटाये।
  • हमें भारत का निर्माण उन भारतीयों के लिये ही करना होगा जिन्हें विदेशियों के बदले भारतीय संस्कृति, भारतीय भाषा, तथा भारतीय महानायकों से प्रेम हो।
हमें अपनी धर्म निर्पेक्षता के लिये किसी विदेशी सरकार से प्रमाणपत्र लेने की आवश्यक्ता नहीं। किसी अन्य देश को भारत में साम्प्रदायक दंगों सम्बन्धित तथ्य खोजने के लिये मिशन भेजने का कोई अधिकार नहीं है। धर्म-निर्पेक्षता स्वतन्त्र भारत का आन्तरिक मामला है। बांग्ला देश का उदाहरण हमारे सम्मुख है जो विश्व पटल पर अपनी इच्छानुसार कई बार धर्म-निर्पेक्ष से इस्लामी देश बना है। हमें बिना किसी झिझक के भारत को ऐक हिन्दू राष्ट्र घोषित करना चाहिये। हिन्दू और भारत ऐक दूसरे के पूरक हैं। यह नहीं भूलना चाहिये कि मुस्लिम शासकों के समय भी भारत को ‘हिन्दुस्तान’ ही कहा जाता था।
हिन्दू समाज का संगठन
हिन्दू विचारकों तथा धर्म गुरूओं को हर प्रकार से विक्षिप्त हिन्दूओं को कम से कम राजनैतिक तौर पर किसी ऐक हिन्दू संस्था के अन्तरगत ऐकत्रित करना होगा। यदि अल्पसंख्यक धर्मान्तरण और जिहादी आतंकवाद को त्याग कर अपने आप को भारतीय संस्कृति के साथ जोडें और मुख्य धारा से संयुक्त हो कर अपने आप को राष्ट्र के प्रति समर्पित करें तो वह भी इस प्रकार की राष्ट्रवादी संस्था से सम्मानपूर्वक जुड सकते हैं। 
घर वापसी आन्दोलन
जिन्हों ने पहले किसी भय या प्रलोभन के कारण धर्म परिवर्तन किया था और अब स्वेच्छा से हिन्दू धर्म में पुनः लौट आना चाहें तो उन का स्वाग्त करना चाहिये।
जो कोई भी ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्तानुसार जीवन शैली जीता हो, अपने भारतीय पूर्वजों का सम्मान करता हो वह चाहे किसी भी निजि पूजा पद्धति में विशवास रखता हो उसे हिन्दू मान लेना चाहिये। परन्तु उसे समान आचार संहिता, समान राष्ट्रभाषा, समान संस्कृति तथा भारत की मुख्य धारा को अपना कर अल्पसंख्यक वर्ण को त्यागना होगा।
भारत को गौरवमय बनाने का विकल्प हमारे पास अगले निर्वाचन के समय तक ही है जिस के लिये समस्त हिन्दूओं को संगठित होना पडे गा । यदि हम इस लक्ष्य के प्रति कृतसंकल्प हो जाये तो अगले चुनाव में ही भारत अपने प्राचीन गौरव के मार्ग पर दोबारा अग्रेसर हो सकता है। यदि हम प्रयत्न करें तो सर्वत्र अन्धेरा नहीं हुआ अभी उम्मीद की किरणें बाकी है – परन्तु अगर अभी नहीं तो फिर कभी नहीं होगा।
लेखक साभार :  श्री चाँद शर्मा, http://hindumahasagar.wordpress.com

Wednesday, November 21, 2012

अपमानित मगर निर्लेप हिन्दू

बटवारे से पहले रियासतों में हिन्दू धर्म को जो संरक्षण प्राप्त था वह बटवारे के पश्चात धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण पूर्णत्या समाप्त हो गया। आज के भारत में हिन्दू धर्म सरकारी तौर पर बिलकुल ही उपेक्षित और अनाथ हो चुका है और अब काँग्रेसियों दूआरा अपमानित भी होने लगा है। अंग्रेज़ों ने जिन राजनेताओं को सत्ता सौंपी थी उन्हों ने अंग्रेजों की हिन्दू विरोधी नीतियों को ना केवल ज्यों का त्यों चलाये रखा बल्कि अल्प-संख्यकों को अपनी धर्म निर्पेक्षता दिखाने के लिये हिन्दूओं पर ही प्रतिबन्ध भी कडे कर दिये।

बटवारे के फलस्वरूप जो मुसलमान भारत में अपनी स्थायी सम्पत्तियाँ छोड कर पाकिस्तान चले गये थे उन में विक्षिप्त अवस्था में पाकिस्तान से निकाले गये हिन्दू शर्णार्थियों ने शरण ले ली थी। उन सम्पत्तियों को काँग्रेसी नेताओं ने शर्णार्थियों से खाली करवा कर उन्हें पाकिस्तान से मुस्लमानों को वापस बुला कर सौंप दिया। गाँधी-नेहरू की दिशाहीन धर्म निर्पेक्षता की सरकारी नीति तथा स्वार्थ के कारण हिन्दू भारत में भी त्रस्त रहे और मुस्लिमों के तुष्टिकरण का बोझ अपने सिर लादे बैठे हैं।

प्राचीन विज्ञान के प्रति संकीर्णता

शिक्षा के क्षेत्र में इसाई संस्थाओं का अत्याधिक स्वार्थ छुपा हुआ है। भारतीय मूल की शिक्षा को आधार बना कर उन्हों ने योरूप में जो प्रगति करी थी उसी के कारण वह आज विश्व में शिक्षा के अग्रज माने जाते रहै हैं। यदि उस शिक्षा की मौलिकता का श्रेय अब भारत के पास लौट आये तो शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में इसाईयों की ख्याति बच नहीं सके गी। यदि भारत अपनी शिक्षा पद्धति को मैकाले पद्धति से बदल कर पुनः भारतीयता की ओर जाये तो भारत की वेदवाणी और भव्य संस्कृति इसाईयों को मंज़ूर नहीं।

दुर्भाग्य से भारत में उच्च परिशिक्षण के संस्थान, पब्लिक स्कूल तो पहले ही मिशनरियों के संरक्षण में थे और उन्ही के स्नातक भारत सरकार के तन्त्र में उच्च पदों पर आसीन थे। अतः बटवारे पश्चात भी शिक्षा के संस्थान उन्ही की नीतियों के अनुसार चलते रहै हैं। उन्हों ने अपना स्वार्थ सुदृढ रखने कि लिये अंग्रेजी भाषा, अंग्रेज़ी मानसिक्ता, तथा अंग्रेज़ी सोच का प्रभुत्व बनाये रखा है और भारतीय शिक्षा, भाषा तथा बुद्धिजीवियों को पिछली पंक्ति में ही रख छोडा है। उन्हीं कारणों से भारत की राजभाषा हिन्दी आज भी तीसरी पंक्ति में खडी है। शर्म की बात है कि मानव जाति के लिये न्याय विधान बनाने वाले देश की न्यायपालिका आज भी अंग्रेजी की दास्ता में जकडी पडी है। भारत के तथाकथित देशद्रोही बुद्धिजीवियों की सोच इस प्रकार हैः-
अंग्रेजी शिक्षा प्रगतिशील है। वैदिक विचार दकियानूसी हैं। वैदिक विचारों को नकारना ही बुद्धिमता और प्रगतिशीलता की पहचान है।
हिन्दू आर्यों की तरह उग्रवादी और महत्वकाँक्षी हैं और देश को भगवाकरण के मार्ग पर ले जा रहै हैं। देश को सब से बडा खतरा अब भगवा आतंकवाद से है।
भारत में बसने वाले सभी मुस्लिम तथा इसाई अल्पसंख्यक ‘शान्तिप्रिय’ और ‘उदारवादी’ हैं और साम्प्रदायक हिन्दूओं के कारण ‘त्रास्तियों’ का शिकार हो रहै हैं।

युवा वर्ग की उदासीनता

इस प्रकार फैलाई गयी मानसिक्ता से ग्रस्त युवा वर्ग हिन्दू धर्म को उन रीति रिवाजों के साथ जोड कर देखता है जो विवाह या मरणोपरान्त आदि के समय करवाये जाते हैं। विदेशा पर्यटक अधनंगे भिखारियों तथा बिन्दास नशाग्रस्त साधुओं की तसवीरें अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं में छाप कर विराट हिन्दू धर्म की छवि को धूमिल कर रहै हैं ताकि वह युवाओं को अपनी संस्कृति से विमुख कर के उन का धर्म परिवर्तन कर सकें। युवा वर्ग अपनी निजि आकाँक्षाओं की पूर्ति में व्यस्त है तथा धर्म-निर्पेक्षता की आड में धर्महीन पलायनवाद की ओर बढ रहा है।

लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से सर्जित किये गये अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं के लेखक दिन रात हिन्दू धर्म की छवि पर कालिख पोतने में लगे रहते हैं। इस श्रंखला में अब न्यायपालिका का दखल ऐक नया तथ्य है। ऐक न्यायिक आदेश में टिप्पणी कर के कहना कि जाति पद्धति को स्क्रैप कर दो हिन्दूओं के लिये खतरे की नयी चेतावनी है। अंग्रेजी ना जानने वाले हिन्दुस्तानी भारत के उच्चतम न्यायालय के समक्ष आज भी उपेक्षित और अपमानित होते हैं।

आत्म सम्मान हीनतता 

इस मानसिक्ता के कारण से हमारा आत्म सम्मान और स्वाभिमान दोनो ही नष्ट हो चुके हैं। जब तक पाश्चात्य देश स्वीकार करने की अनुमति नहीं देते तब तक हम अपने पूर्वजों की उपलब्द्धियों पर विशवास ही नहीं करते। उदाहरणत्या जब पाश्चातय देशों ने योग के गुण स्वीकारे, हमारे संगीत को सराहा, आयुर्वेद की जडी बूटियों को अपनाया, और हमारे सौंदर्य प्रसाधनों की तीरीफ की, तभी कुछ भारतवासियों की देश भक्ति जागी और उन्हों ने भी इन वस्तुओं को ‘कुलीनता’ की पहचान मान कर अपनाना शुरु किया।

जब जान सार्शल ने विश्व को बताया कि सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है तो हम भी गर्व से पुलकित हो उठे थे। आज हम ‘विदेशी पर्यटकों के दृष्टाँत’ दे कर अपने विद्यार्थियों को विशवास दिलाने का प्रयत्न करते हैं कि भारत में नालन्दा और तक्षशिला नाम की विश्व स्तर से ऊँची यूनिवर्स्टियाँ थीं जहाँ विदेशों से लोग पढने के लिये आते थे। यदि हमें विदेशियों का ‘अनुमोदन’ नहीं मिला होता तो हमारी युवा पीढियों को यह विशवास ही नहीं होना था कि कभी हम भी विदूान और सभ्य थे।

आज हमें अपनी प्राचीन सभ्यता और अतीत की खोज करने के लिये आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज जाना पडता है परन्तु यदि इस प्रकार की सुविधाओं का निर्माण भारत के अन्दर करने को कहा जाये तो वह सत्ता में बैठे स्वार्थी नेताओं को मंज़ूर नहीं क्योंकि उस से भारत के अल्प संख्यक नाराज हो जायें गे। हमारे भारतीय मूल के धर्म-निर्पेक्षी मैकाले पुत्र ही विरोध करने पर उतारू हो जाते हैं।

हिन्दू ग्रन्थो का विरोध

जब गुजरात सरकार ने विश्वविद्यालयों में ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन का विचार रखा था तो तथाकथित बुद्धिजीवियों का ऐक बेहूदा तर्क था कि इस से वैज्ञानिक सोच विचार की प्रवृति को ठेस पहुँचे गी। उन के विचार में ज्योतिष में बहुत कुछ आँकडे परिवर्तनशील होते हैं जिस के कारण ज्योतिष को ‘विज्ञान’ नहीं कहा जा सकता और विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल नहीं किया जा सकता।

इस तर्कहीन विरोध के उत्तर में यदि कहा जाय कि ज्योतिष विध्या को ‘विज्ञान’ नहीं माना जा सकता तो ‘कला’ के तौर पर उध्ययन करने में क्या आपत्ति हो सकती है? संसार भर में मानव समुदाय किसी ना किसी रूप में भविष्य के बारे में जिज्ञासु रहा हैं। मानव किसी ना किसी प्रकार से अनुमान लगाते चले आ रहै हैं। झोडिक साईन पद्धति, ताश के पत्ते, सितारों की स्थिति, शुभ अशुभ अपशगुण, तथा स्वप्न विशलेशण से भी मानव भावी घटनाओं का आँकलन करते रहते हैं। इन सब की तुलना में भारतीय ज्योतिष विध्या के पास तो उच्च कोटि का साहित्य और आँकडे हैं जिन को आधार बना कर और भी विकसित किया जा सकता है। 

व्यापारिक विशलेशण (फोरकास्टिंग) भी आँकडों पर आधारित होता है जिन से वर्तमान मार्किट के रुहझान को परख कर भविष्य के अनुमान लगाये जाते हैं। अति आधुनिक उपक्रम होने के बावजूद भी कई बार मौसम सम्बन्धी जानकारी भी गलत हो जाती है तो क्या बिज्नेस और मौसम की फोरकास्टों को बन्द कर देना चाहिये ? इन बुद्धजीवियों का तर्क माने तो किसी देश में योजनायें ही नहीं बननी चाहिये क्यों कि “भविष्य का आंकलन तो किया ही नहीं जा सकता”।

ज्योतिष के क्षेत्र में विधिवत अनुसंधान और परिशिक्षण से कितने ही युवाओं को आज काम मिला सकता है इस का अनुमान टी वी पर ज्योतिषियों की बढती हुय़ी संख्या से लगाया जा सकता है। इस प्रकार की मार्किट भारत में ही नहीं, विदेशों में भी है जिस का लाभ हमारे युवा उठा सकते हैं। यदि ज्योतिष शास्त्रियों को आधुनिक उपक्रम प्रदान किये जायें तो कई गलत धारणाओं का निदान हो सकता है। डेटा-बैंक बनाया जा सकता है। वैदिक परिशिक्षण को विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में जोडने से हम कई धारणाओं का वैज्ञानिक विशलेशण कर सकते हैं जिस से भारतीय मूल के सोचविचार और तकनीक का विकास और प्रयोग बढे गा। हमें विकसित देशों की तकनीक पर निर्भर नहीं रहना पडे गा।

अधुनिक उपक्रमों की सहायता से हमारी प्राचीन धारणाओं पर शोध होना चाहिये। उन पर केस स्टडीज करनी चाहियें। हमारे पास दार्शनिक तथा फिलोसोफिकल विचार धारा के अमूल्य भण्डार हैं यदि वेदों तथा उपनिष्दों पर खोज और उन को आधार बना कर विकास किया जाये तो हमें विचारों के लिये अमरीका या यूनान के बुद्धिजीवियों का आश्रय नहीं लेना पडे गा। परन्तु इस के लिये शिक्षा का माध्यम उपयुक्त स्वदेशी भाषा को बनाना होगा।

संस्कृत भाषा के प्रति उदासीनता 

प्राचीन भाषाओं में केवल संस्कृत ही इकलौती भाषा है जिस में प्रत्येक मानवी विषय पर मौलिक और विस्तरित जानकारी उपलब्द्ध है। किन्तु ‘धर्म-निर्पेक्ष भारत’ में हमें संस्कृत भाषा की शिक्षा अनिवार्य करने में आपत्ति है क्यों कि अल्पसंख्यकों की दृष्टि में संस्कृत तो ‘हिन्दू काफिरों’ की भाषा है। भारत सरकार अल्पसंख्यक तुष्टिकरण नीति के कारण उर्दू भाषा के विकास पर संस्कृत से अधिक धन खर्च करने मे तत्पर है जिस की लिपि और साहित्य में में वैज्ञानिक्ता कुछ भी नहीं। लेकिन भारत के बुद्धिजीवी सरकारी उदासीनता के कारण संस्कृत को प्रयोग में लाने की हिम्म्त नहीं जुटा पाये। उर्दू का प्रचार कट्टरपंथी मानसिकत्ता को बढावा देने के अतिरिक्त राष्ट्रभाषा हिन्दी का विरोधी ही सिद्ध हो रहा है। हिन्दू विरोधी सरकारी मानसिक्ता, धर्म निर्पेक्षता, और मैकाले शिक्षा पद्धति के कारण आज अपनेी संस्कृति के प्रति घृणा की भावना ही दिखायी पडती है।

इतिहास का विकृतिकरण

अल्पसंख्यकों को रिझाने के लक्ष्य से हमारे इतिहास में से मुस्लिम अत्याचारों और विध्वंस के कृत्यों को निकाला जा रहा है ताकि आने वाली पीढियों को तथ्यों का पता ही ना चले। अत्याचारी आक्रान्ताओं के कुकर्मों की अनदेखी कर दी जाय ताकि बनावटी साम्प्रदायक सदभाव का क्षितिज बनाया जा सके।

धर्म निर्पेक्षकों की नजर में भारत ऐक ‘सामूहिक-स्थल’ है या नो मेन्स लैण्ड है, जिस का कोई मूलवासी नहीं था। नेहरू वादियों के मतानुसार गाँधी से पहले भारतीयों का कोई राष्ट्र, भाषा या परम्परा भी नहीं थी। जो भी बाहर से आया वह हमें ‘सभ्यता सिखाता रहा’ और हम सीखते रहै। हमारे पास ऐतिहासिक गौरव करने के लिये अपना कुछ नहीं था। सभी कुछ विदेशियों ने हमें दिया। हमारी वर्तमान पीढी को यह पाठ पढाने की कोशिश हो रही है कि महमूद गज़नवी और मुहमम्द गौरी आदि ने किसी को तलवार के जोर पर मुस्लिम नहीं बनाया था और धर्मान्धता से उन का कोई लेना देना नहीं था। “हिन्दवी-साम्राज्य” स्थापित करने वाले शिवाजी महाराज केवल मराठवाडा के ‘छोटे से’ प्रान्तीय सरदार थे। अब पानी सिर से ऊपर होने जा रहा है क्यों कि काँग्रेसी सरकार के मतानुसार ‘हिन्दू कोई धर्म ही नहीं’।

हमारे कितने ही धार्मिक स्थल ध्वस्त किये गये और आज भी कितने ही स्थल मुस्लिम कबजे में हैं जिन के ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्द्ध है किन्तु सरकार में हिम्मत नहीं कि वह उन की जाँच करवा कर उन स्थलों की मूल पहचान पुनर्स्थापित कर सके।

हिन्दू आस्तीत्व की पुनर्स्थापना अनिवार्य 

पाश्चात्य देशों ने हमारी संचित ज्ञान सम्पदा को हस्तान्तरित कर के अपना बना लिया किन्तु हम अपना अधिकार जताने में विफल रहै हैं। किसी भी अविष्कार से पहले विचार का जन्म होता है। उस के बाद ही तकनीक विचार को साकार करती है। तकनिक समयानुसार बदलती रहती है किन्तु विचार स्थायी होते हैं। तकनीकी विकास के कारण बिजली के बल्ब के कई रूप आज हमारे सामने आ चुके हैं किन्तु जिस ने प्रथम बार बल्ब बनाने का विचार किया था उस का अविष्कार महानतम था। इसी प्रकार आज के युग के कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अविष्कारों के जन्मदाता भारतीय ही हैं। कितने ही अदभुत विचार आज भी हमारे वेदों, पुराणों, महाकाव्यों तथा अन्य ग्रँथों में दबे पडे हैं और साकार होने के लिये तकनीक की प्रतीक्षा कर रहै हैं। उन को जानने के लिये हमें संस्कृत को ही अपनाना होगा।

उद्यौगिक घराने विचारों की खोज करने के लिये धन खर्च करते हैं, गोष्ठियाँ करवाते हैं, तथा ब्रेन स्टारमिंग सेशन आयोजित करते हैं ताकि वह नये उत्पादकों का अविष्कार कर सकें। यदि भारत में कोई विचार पंजीकृत कराने की पद्धति पहले होती तो आज भारत विचारों के जनक के रूप में इकलौता देश होता। किन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि संसार में दूसरा अन्य कोई देश नहीं जहाँ स्वदेशी विचारों का उपहास उडाया जाता हो। हम विदेशी वस्तुओं की प्रशंसा तोते की तरह करते हैं। भारत में आज विदेशी लोग किसी भी तर्कहीन अशलील, असंगत बात या उत्पादन का प्रचार, प्रसार खुले आम कर सकते हैं किन्तु यदि हम अपने पुरखों की परम्परा को भारत में ही लागू करवाने का विचार करें तो उस का भरपूर विरोध होता है।

हमें बाहरी लोग त्रिस्करित करें या ना करें, धर्म निर्पेक्षता का नाम पर हम अपने आप ही अपनी ग्लानि करने में तत्पर रहते हैं। विदेशी धन तथा सरकारी संरक्षण से सम्पन्न इसाई तथा मुस्लिम कटुटरपंथियों का मुकाबला भारत के संरक्षण वंचित, उपेक्षित हिन्दू कैसे कर सकते हैं इस पर हिन्दूओं को स्वयं विचार करना होगा। लेकिन इस ओर भी हिन्दू उदासीन और निर्लेप जीवन व्यतीत कर रहै हैं जो उन की मानसिक दास्ता ही दर्शाती है।

साभार : लेखक, चाँद शर्मा, http://hindumahasagar.wordpress.com 

Tuesday, November 20, 2012

तक्षशिला विश्वविद्यालय-TAKSHILA UNIVERSITY




वर्तमान पाकिस्तान की राजधानी रावलपिण्डी से 18 मील उत्तर की ओर स्थित था। जिस नगर में यह विश्वविद्यालय था उसके बारे में कहा जाता है कि श्री राम के भाई भरत के पुत्र तक्ष ने उस नगर की स्थापना की थी। यह विश्व का प्रथम विश्विद्यालय था जिसकी स्थापना 700 वर्ष ईसा पूर्व में की गई थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय में पूरे विश्व के 10,500 से अधिक छात्र अध्ययन करते थे। यहां 60 से भी अधिक व िषयों को पढ़ाया जाता था। 326 ईस्वी पूर्व में विदेशी आक्रमणकारी सिकन्दर के आक्रमण के समय यह संसार का सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ही नहीं था, अपितु उस समय के चिकित्सा शास्त्र का एकमात्र सर्वोपरि केन्द्र था। तक्षशिला विश्वविद्यालय का विकास विभिन्न रूपों में हुआ था। इसका कोई एक केन्द्रीय स्थान नहीं था, अपितु यह विस्तृत भू भाग में फैला हुआ था। विविध विद्याओं के विद्वान आचार्यो ने यहां अपने विद्यालय तथा आश्रम बना रखे थे। छात्र रुचिनुसार अध्ययन हेतु विभिन्न आचार्यों के पास जाते थे। महत्वपूर्ण पाठयक्रमों में यहां वेद-वेदान्त, अष्टादश विद्याएं, दर्शन, व्याकरण, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्धविद्या, शस्त्र-संचालन, ज्योतिष, आयुर्वेद, ललित कला, हस्त विद्या, अश्व-विद्या, मन्त्र-विद्या, विविद्य भाषाएं, शिल्प आदि की शिक्षा विद्यार्थी प्राप्त करते थे। प्राचीन भारतीय साहित्य के अनुसार पाणिनी, कौटिल्य, चन्द्रगुप्त, जीवक, कौशलराज, प्रसेनजित आदि महापुरुषों ने इसी विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। तक्षशिला विश्वविद्यालय में वेतनभोगी शिक्षक नहीं थे और न ही कोई निर्दिष्ट पाठयक्रम था। आज कल की तरह पाठयक्रम की अवधि भी निर्धारित नहीं थी और न कोई विशिष्ट प्रमाणपत्र या उपाधि दी जाती थी। शिष्य की योग्यता और रुचि देखकर आचार्य उनके लिए अध्ययन की अवधि स्वयं निश्चित करते थे। परंतु कहीं-कहीं कुछ पाठयक्रमों की समय सीमा निर्धारित थी। चिकित्सा के कुछ पाठयक्रम सात वर्ष के थे तथा पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद प्रत्येक छात्र को छ: माह का शोध कार्य करना पड़ता था। इस शोध कार्य में वह कोई औषधि की जड़ी-बूटी पता लगाता तब जाकर उसे डिग्री मिलती थी।

* यह विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय था जिसकी स्थापना 700 वर्ष ईसा पूर्व में की गई थी।

* तक्षशिला विश्वविद्यालय में पूरे विश्व के 10,500 से अधिक छात्र अध्ययन करते थे।

* यहां 60 से भी अधिक विषयों को पढ़ाया जाता था।

* 326 ईस्वी पूर्व में विदेशी आक्रमणकारी सिकन्दर के आक्रमण के समय यह संसार का सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ही नहीं था, अपितु उस समय के'चिकित्सा शास्त्र'का एकमात्र सर्वोपरि केन्द्र था।

आयुर्वेद विज्ञान का सबसे बड़ा केन्द्र 

500 ई. पू. जब संसार में चिकित्सा शास्त्र की परंपरा भी नहीं थी तब तक्षशिला'आयुर्वेद विज्ञान'का सबसे बड़ा केन्द्र था। जातक कथाओं एवं विदेशी पर्यटकों के लेख से पता चलता है कि यहां के स्नातक मस्तिष्क के भीतर तथा अंतड़ियों तक का ऑपरेशन बड़ी सुगमता से कर लेते थे। अनेक असाध्य रोगों के उपचार सरल एवं सुलभ जड़ी बूटियों से करते थे। इसके अतिरिक्त अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों का भी उन्हें ज्ञान था। शिष्य आचार्य के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करते थे। एक आचार्य के पास अनेक विद्यार्थी रहते थे। इनकी संख्या प्राय: सौ से अधिक होती थी और अनेक बार 500 तक पहुंच जाती थी। अध्ययन में क्रियात्मक कार्य को बहुत महत्त्व दिया जाता था। छात्रों को देशाटन भी कराया जाता था।

शुल्क और परीक्षा 

शिक्षा पूर्ण होने पर परीक्षा ली जाती थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय से स्नातक होना उससमय अत्यंत गौरवपूर्ण माना जाता था। यहां धनी तथा निर्धन दोनों तरह के छात्रों के अध्ययन की व्यवस्था थी। धनी छात्रा आचार्य को भोजन, निवास और अध्ययन का शुल्क देते थे तथा निर्धन छात्र अध्ययन करते हुए आश्रम के कार्य करते थे। शिक्षा पूरी होने पर वे शुल्क देने की प्रतिज्ञा करते थे। प्राचीन साहित्य से विदित होता है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले उच्च वर्ण के ही छात्र होते थे। सुप्रसिद्ध विद्वान, चिंतक, कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री चाणक्य ने भी अपनी शिक्षा यहीं पूर्ण की थी। उसके बाद यहीं शिक्षण कार्य करने लगे। यहीं उन्होंने अपने अनेक ग्रंथों की रचना की। इस विश्वविद्यालय की स्थिति ऐसे स्थान पर थी, जहां पूर्व और पश्चिम से आने वाले मार्ग मिलते थे। चतुर्थ शताब्दी ई. पू. से ही इस मार्ग से भारतवर्ष पर विदेशी आक्रमण होने लगे। विदेशी आक्रांताओं ने इस विश्वविद्यालय को काफ़ी क्षति पहुंचाई। अंतत: छठवीं शताब्दी में यह आक्रमणकारियों द्वारा पूरी तरह नष्ट कर दिया।

पाठ्यक्रम

* उस समय विश्वविद्यालय कई विषयों के पाठ्यक्रम उपलब्ध करता था, जैसे - भाषाएं , व्याकरण, दर्शन शास्त्र , चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, कृषि , भूविज्ञान, ज्योतिष, खगोल शास्त्र, ज्ञान-विज्ञान, समाज-शास्त्र, धर्म , तंत्र शास्त्र, मनोविज्ञान तथा योगविद्या आदि।

* विभिन्न विषयों पर शोध का भी प्रावधान था।

* शिक्षा की अवधि 8 वर्ष तक की होती थी।

* विशेष अध्ययन के अतिरिक्त वेद , तीरंदाजी, घुड़सवारी, हाथी का संधान व एक दर्जन से अधिक कलाओं की शिक्षा दी जाती थी।

* तक्षशिला के स्नातकों का हर स्थान पर बड़ा आदर होता था।

* यहां छात्र 15-16 वर्ष की अवस्था में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने आते थे। 

स्वाभाविक रूप से चाणक्य को उच्च शिक्षा की चाह तक्षशिला ले आई। यहां चाणक्य ने पढ़ाई में विशेष योग्यता प्राप्त की

जय हिंद ..... वन्देमातरम ........

साभार : सनातन सेना, फेस बुक

Saturday, November 17, 2012

वैश्य कौन, ब्राह्मण कौन, क्षत्रिय कौन......

आज के युग में वैश्य, ब्राहमण, क्षत्रिय आदि अपना कर्म भूल गए हैं. हर कोई अपनी अपनी जाति - वर्ण में उलझ कर रह गया हैं. हर कोई अपने आप को श्रेष्ठ बता रहा हैं. पर हम लोग भूल गए की हम क्या है, क्या हो गए हैं. और क्या थे. 

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में सभी वर्णों की अच्छी व्याख्या दी हैं. 

श्री भगवान कहते हैं, हे परंतप ! ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्रो के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गए हैं. (भागवद गीता, अध्याय १८, श्लोक ४१)

ब्राह्मण के कर्म 

अंतःकरण का निग्रह करना; इन्द्रियों का दमन करना; धर्मपालन के लिए कष्ट सहना; बाहर भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय, और शरीर को सरल रखना; वेद शास्त्र,  ईश्वर, और परलोक आदि में श्रद्धा रखना; वेद - शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन करना; और परमात्मा के तत्व का अनुभव करना - ये सब के सब ही एक ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं.(भागवद गीता, अध्याय १८, श्लोक ४२)

क्या इनमे से कोई भी कर्म आज कल के तथाकथित ब्राह्मण करते है. यदि नहीं करते है तो वे ब्राहमण कहलाने के अधिकारी नहीं हैं.

क्षत्रिय के कर्म 

देश - धर्म की रक्षा करना, दुर्बल, असहाय की रक्षा करना, शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता, और युद्ध में ना भागना, दान देना, और स्वामी भाव  - ये सब के सब ही एक क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं. जो इनका पालन नहीं करता वह क्षत्रिय नहीं हैं.(भागवद गीता, अध्याय १८, श्लोक ४३)

वैश्य के कर्म 

खेती, गोंऊ पालन, और क्रय - विक्रय रूप सत्य व्यवहार, वस्तुओ के खरीदने व बेचने में सद्व्यवहार, सही तौलना, अधिक दाम न लेना, झूठ, कपट, चोरी आदि का व्यवहार न करना, धर्म का पालन करना, दान करना, विक्रय से हुए लाभ को कुछ प्रतिशत समाज - धर्म के लिए, कुछ अपने माता पिता के लिए, और कुछ अपने  लिए रखना, यही वैश्य का धर्म हैं. जो इन सब नियमों का पालन नहीं करता वह वैश्य नहीं हैं. (भागवद गीता, अध्याय १८, श्लोक ४४)

भगवान श्री कृष्ण के अनुसार बनाए गए नियमों का यदि सभी वर्ण ठीक तरह से पालन करे तो हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया, व ताकतवर बन सकता हैं. और हिंदू धर्म दुनिया में सबसे बड़ी ताकत बन सकता हैं. 

Thursday, November 8, 2012

*** भारत का स्वर्णिम अतीत ***





आज से लगभग 100-150 साल से शुरू करके पिछले हज़ार साल का इतिहास के कुछ तथ्य। भारत के इतिहास/ अतीत पर दुनिया भर के 200 से ज्यादा विद्वानों/ इतिहास विशेषज्ञों ने बहुत शोध किया है। इनमें से कुछ विद्वानों/ इतिहास विशेषज्ञों की बात आपके सामने रखूँगा। ये सारे विद्वानों/ इतिहास विशेषज्ञ भारत से बाहर के हैं, कुछ अंग्रेज़ हैं, कुछ स्कॉ

टिश हैं, कुछ अमेरिकन हैं, कुछ फ्रेंच हैं, कुछ जर्मन हैं। ऐसे दुनिया के अलग अलग देशों के विद्वानों/ इतिहास विशेषज्ञों ने भारत के बारे में जो कुछ कहा और लिखा है उसकी जानकारी मुझे देनी है।

1. सबसे पहले एक अंग्रेज़ जिसका नाम है 'थॉमस बैबिंगटन मैकाले', ये भारत में आया और करीब 17 साल रहा। इन 17 वर्षों में उसने भारत का काफी प्रवास किया, पूर्व भारत, पश्चिम भारत, उत्तर भारत, दक्षिण भारत में गया। अपने 17 साल के प्रवास के बाद वो इंग्लैंड गया और इंग्लैंड की पार्लियामेंट 'हाउस ऑफ कोमेन्स' में उसने 2 फ़रवरी 1835 को ब्रिटिश संसद एक लंबा भाषण दिया।

उसने कहा था :: “ I have traveled across the length and breadth of India and have not seen one person who is a beggar, who is a thief, such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such caliber, that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and, therefore, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their native culture and they will become what we want them, a truly dominated nation. ”

इसी भाषण के अंत में वो एक वाक्य और कहता है : वो कहता है " भारत में जिस व्यक्ति के घर में भी मैं कभी गया, तो मैंने देखा की वहाँ सोने के सिक्कों का ढेर ऐसे लगा रहता हैं, जैसे की चने का या गेहूं का ढेर किसानों के घरों में रखा जाता है और वो कहता है की भारतवासी इन सिक्को को कभी गिन नहीं पाते क्योंकि गिनने की फुर्सत नही होती है इसलिए वो तराजू में तौलकर रखते हैं। किसी के घर में 100 किलो, इसी के यहा 200 किलो और किसी के यहाँ 500 किलो सोना है, इस तरह भारत के घरों में सोने का भंडार भरा हुआ है।"

2. इससे भी बड़ा एक दूसरा प्रमाण मैं आपको देता हूँ एक अंग्रेज़ इतिहासकर हुआ उसका नाम है "विलियम डिगबी"। ये बहुत बड़ा इतिहासकर था, सभी यूरोपीय देशों में इसको काफी इज्ज़त और सम्मान दिया जाता है। अमेरिका में भी इसको बहुत सम्मान दिया जाता है, कारण ये है की इसके बारे में कहा जाता है की ये बिना के प्रमाण कोई बात नही कहता और बिना दस्तावेज़/ सबूत के वो कुछ लिखता नहीं है। इस डिगबी ने भारत के बारे में एक पुस्तक में लिखा है जिसका कुछ अंश मैं आपको बताता हूँ। ये बात वो 18वीं शताब्दी में कहता है: " विलियम डिगबी कहता है की अंग्रेजों के पहले का भारत विश्व का सर्वसंपन्न कृषि प्रधान देश ही नहीं बल्कि एक 'सर्वश्रेष्ठ औद्योगिक और व्यापारिक देश' भी था। इसके आगे वो लिखता है की भारत की भूमि इतनी उपजाऊ है जितनी दुनिया के किसी देश में नहीं। फिर आगे लिखता है की भारत के व्यापारी इतने होशियार हैं जो दुनिया के किसी देश में नहीं। उसके आगे वो लिखता है की भारत के कारीगर जो हाथ से कपड़ा बनाते हैं उनका बनाया हुआ कपड़ा रेशम का तथा अन्य कई वस्तुएं पूरे विश्व के बाज़ार में बिक रही हैं और इन वस्तुओं को भारत के व्यापारी जब बेचते हैं तो बदले में वो सोना और चाँदी की मांग करते हैं, जो सारी दुनिया के दूसरे व्यापारी आसानी के साथ भारतवासियों को दे देते हैं। इसके बाद वो लिखता है की भारत देश में इन वस्तुओं के उत्पादन के बाद की बिक्री की प्रक्रिया है वो दुनिया के दूसरे बाज़ारों पर निर्भर है और ये वस्तुएं जब दूसरे देशों के बाज़ारों में बिकती हैं तो भारत में सोना और चाँदी ऐसे प्रवाहित होता है जैसे नदियों में पानी प्रवाहित होता है और भारत की नदियों में पानी प्रवाहित होकर जैसे महासागर में गिर जाता है वैसे ही दुनिया की तमाम नदियों का सोना चाँदी भारत में प्रवाहित होकर भारत के महासागर में आकार गिर जाता है। अपनी पुस्तक में वो लिखता है की दुनिया के देशों का सोना चाँदी भारत में आता तो है लेकिन भारत के बाहर 1 ग्राम सोना और चाँदी कभी जाता नहीं है। इसका कारण वो बताता है की भारतवासी दुनिया में सारी वस्तुओं उत्पादन करते हैं लेकिन वो कभी किसी से खरीदते कुछ नहीं हैं।"
इसका मतलब हुआ की आज से 300 साल पहले का भारत निर्यात प्रधान देश था। एक भी वस्तु हम विदेशों से नहीं खरीदते थे।

3. एक और बड़ा इतिहासकार हुआ वो फ़्रांस का था, उसका नाम है "फ़्रांसवा पिराड"। इसने 1711 में भारत के बारे में एक बहुत बड़ा ग्रंथ लिखा है और उसमे उसने सैकड़ों प्रमाण दिये हैं। वो अपनी पुस्तक में लिखता है की "भारत देश में मेरी जानकारी में 36 तरह के ऐसे उद्योग चलते हैं जिनमें उत्पादित होने वाली हर वस्तु विदेशों में निर्यात होती है। फिर वो आगे लिखता है की भारत के सभी शिल्प और उद्योग उत्पादन में सबसे उत्कृष्ट, कला पूर्ण और कीमत में सबसे सस्ते हैं। सोना, चाँदी, लोहा, इस्पात, तांबा, अन्य धातुएं, जवाहरात, लकड़ी के सामान, मूल्यवान, दुर्लभ पदार्थ इतनी ज्यादा विविधता के साथ भारत में बनती हैं जिनके वर्णन का कोई अंत नहीं हो सकता। वो अपनी पुस्तक में लिख रहा है की मुझे जो प्रमाण मिलें हैं उनसे ये पता चलता है की भारत का निर्यात दुनिया के बाज़ारों में पिछले '3 हज़ार वर्षों' से आबादीत रूप से बिना रुके हुए लगातार चल रहा है।"

4. इसके बात एक स्कॉटिश है जिसका नाम है 'मार्टिन' वो इतिहास की पुस्तक में भारत के बारे में कहता है: "ब्रिटेन के निवासी जब बार्बर और जंगली जानवरों की तरह से जीवन बिताते रहे तब भारत में दुनिया का सबसे बेहतरीन कपड़ा बनता था और सारी दुनिया के देशों में बिकता था। वो कहता है की मुझे ये स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है की "भारतवासियों ने सारी दुनिया को कपड़ा बनाना और कपड़ा पहनना सिखाया है" और वो कहता है की हम अंग्रेजों ने और अंग्रेजों की सहयोगी जातियों के लोगों ने भारत से ही कपड़ा बनाना सीखा है और पहनना भी सीखा है। फिर वो कहता है की रोमन साम्राज्य में जीतने भी राजा और रानी हुए हैं वो सभी भारत के कपड़े मांगते रहे हैं, पहनते रहे हैं और उन्हीं से उनका जीवन चलता रहा है।"

5. एक फ्रांसीसी इतिहासकार है उसना नाम है 'टैवरणीय',1750 में वो कहता है: "भारत के वस्त्र इतने सुंदर और इतने हल्के हैं की हाथ पर रखो तो पता ही नहीं चलता है की उनका वजन कितना है। सूत की महीन कताई मुश्किल से नज़र आती है, भारत में कालीकट, ढाका, सूरत, मालवा में इतना महीन कपड़ा बंता है की पहनने वाले का शरीर ऐसा दिखता है की मानो वो एकदम नग्न है। वो कहता है इतनी अदभूत बुनाई भारत के करीगर जो हाथ से कर सकते हैं वो दुनिया के किसी भी देश में कल्पना करना संभव नहीं है।"

6. इसके बाद एक अंग्रेज़ है 'विलियम वोर्ड': वो कहता है की "भारत में मलमल का उत्पादन इतना विलक्षण है, ये भारत के कारीगरों के हाथों का कमाल है, जब इस मलमल को घास पर बिछा दिया जाता है और उस पर ओस की कोई बूंद गिर जाती है तो वो दिखाई नहीं देती है क्योंकि ओस की बूंद में जितना पतला रंग होता है उतना ही हल्का वो कपड़ा होता है, इसलिए ओस की बूंद और कपड़ा आपस में मिल जाते हैं। वो कहता है की भारत का 13 गज का एक लंबा कपड़ा हम चाहें तो एक चोटी सी अंगूठी में से पूरा खींचकर बाहर निकाल सकते हैं, इतनी बारीक और इतनी महीन बुनाई भारत के कपड़ों की होती है। भारत का 15 गज का लंबा थान उसका वजन 100 ग्राम से भी कम होता है। वो कहता है की मैंने बार बार भारत के कई थान का वजन किया है हरेक थान का वजन 100 ग्राम से भी कम निकलता है। हम अंग्रेजों ने कपड़ा बनाना तो सन् 1780 के बाद शुरू किया है भारत में तो पिछले 3,000 साल से कपड़े का उत्पादन होता रहा है और सारी दुनिया में बिकता रहा है।"

7. एक और अंग्रेज़ अधिकारी था 'थॉमस मुनरो' वो मद्रास में गवर्नर रहा है। जब वो गवर्नर था तो भारत के किसी राजा ने उसको शॉल भेंट में दे दिया। जब वो नौकरी पूरी करके भारत से वापस गया तो लंदन की संसद में सन् 1813 में उसने अपना बयान दिया। वो कहता है: " भारत से मैं एक शॉल लेकर के आया उस शॉल को मैं 7 वर्षों से उपयोग कर रहा हूँ, उसको कई बार धोया है और प्रयोग किया है उसके बाद भी उसकी क्वालिटी एकदम बरकरार है और उसमे कहीं कोई सिकुड़न नहीं है। मैंने पूरे यूरोप में प्रवास किया है एक भी देश ऐसा नहीं है जो भारत की ऐसी क्वालिटी की शॉल बनाकर दे सके। भारत ने अपने वस्त्र उद्योग में सारी दुनिया का दिल जीत लिया है और भारत के वस्त्र अतुलित और अनुपमेय मानदंड के हैं जिसमे सारे भारतवासी रोजगार पा रहे हैं। इस तरह से लगभग 200 से अधिक इतिहासकारों ने भारत के बारे में यही कहा है की भारत के उद्योगों का, भारत की कृषि व्यवस्था का, भारत के व्यापार का सारी दुनिया में कोई मुक़ाबला नहीं है।"

8. अंग्रेजों की संसद में भारत के बारे में समय समय पर बहस होती रही है। सन् 1813 में अंग्रेजों की संसद में बहस हो रही थी की भारत की आर्थिक स्थिति क्या है ? उसमें अंग्रेजी सांसद कई सारी रिपोर्ट और सर्वेक्षणों के आधार पर कह रहे हैं की: "सारी दुनिया में जो कुल उत्पादन होता है उसका 43% उत्पादन अकेले भारत में होता है और दुनिया के बाकी 200 देशों में मिलाकर 57% उत्पादन होता है।"ये आंकड़ा अंग्रेजों द्वारा उनकी संसद में 1835 में और 1840 में भी दिया गया। इन आंकड़ों को अगर आज के समय में अगर इसे देखा जाए तो अमेरिका का उत्पादन सारी दुनिया के उत्पादन का 25% है, चीन का 23% है। सोचिए आज से लगभग पौने दो सौ साल पहले तक चीन और अमेरिका के कुल उत्पादन को मिलाकर लगभग उससे थोड़ा कम उत्पादन भारत अकेले करता था। इतना बड़ा उत्पादक देश था हमारा भारत। इसके बाद अँग्रेजी संसद में एक और आंकड़ा प्रस्तुत किया गया की: "सारी दुनिया के व्यापार में भारत का हिस्सा लगभग 33% है।" मतलब पूरी दुनिया में जो निर्यात होता था उसमे 33% अकेले भारत का होता था और ये आंकड़ा अंग्रेजों ने 1840 तक दिया है। इसी तरह से एक और आंकड़ा भारत के बारे में अँग्रेजी संसद में दिया गया की: "सारी दुनिया की जो कुल आमदनी है, उस आमदनी का लगभग 27% हिस्सा अकेले भारत का है।" सोचिए सन् 1840 तक भारत ऐसा अदभूत उत्पादक, निर्यातक और व्यापारी देश रहा है। 1840 तक सारी दुनिया का जो निर्यात था उसमें अमेरिका का निर्यात 1% से भी कम हैं, ब्रिटेन का निर्यात 0.5% से भी कम है और पूरे यूरोप और अमेरिका के सभी देशों को मिलाकर उनका निर्यात दुनिया के निर्यात का 3-4% है। 1840 तक यूरोप और अमेरिका के 27 देश मिलकर 3-4% निर्यात करते थे और भारत अकेले 33% निर्यात करता था। उन सभी 27 देशों का उस समय उत्पादन 10-12% था और भारत का अकेले उत्पादन 43% था और ये 27 देशों को इकट्ठा कर दिया जाए तो 1840 तक उनकी कुल आमदनी दुनिया की आमदनी में 4-4.5% थी और भारत की आमदनी अकेले 27% थी।"

9. अब थोड़ी बात भारत की शिक्षा व्यवस्था, तकनीकी और कृषि व्यवस्था की। उद्योगों के साथ भारत विज्ञान और तकनीक में भी काफी विकसित था। भारत के विज्ञान और तकनीक के बारे में दुनिया भर के अंग्रेजों ने बहुत सारी पुस्तकें लिखी हैं। ऐसा ही अंग्रेज़ हैं 'जी॰डबल्यू॰लिटनर' और 'थॉमस मुनरो', इन दोनों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर बहुत अध्ययन किया था। एक अंग्रेज़ है 'पेंडुरकास्ट' उसने भारत की तकनीक और विज्ञान पर बहुत अध्ययन किया और एक अंग्रेज़ है 'केंमवेल' उसने भी भारत की तकनीक और विज्ञान पर बहुत अध्ययन किया था।केंमवेल ने कहा है: "जिस देश में उत्पादन सबसे अधिक होता है ये तभी संभव है जब वहाँ पर कारखाने हो और कारखाने तभी संभव हैं जब वहाँ पर टेक्नालजी हो और टेक्नालजी किसी देश में तभी संभव है जब वहाँ पर विज्ञान हो और विज्ञान किसी देश में मूल रूप से शोध के लिए अगर प्रस्तुत है तभी तकनीकी का निर्माण होता है।" 18वीं शताब्दी तक इस देश में इतनी बेहतरीन टेक्नालॉजी रही है स्टील/लोहा/इस्पात बनाने की वो दुनिया में कोई कल्पना नही कर सकता। केंमवेल कहता है की "भारत का बनाया हुआ लोहा/इस्पात सारी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। ये बात वो 1842 में इस तरह कहता है की: "इंग्लैंड या यूरोप में जो अच्छे से अच्छा लोहा या स्टील बनता है वो भारत के घटिया से घटिया लोहे या स्टील का भी मुक़ाबला नही कर सकता।"
उसके बाद एक 'जेम्स फ़्रेंकलिन' नाम का अंग्रेज़ है जो धातुकर्मी विशेषज्ञ था वो कहता है की: "भारत का स्टील दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है। भारत के कारीगर स्टील को बनाने के लिए जो भट्टियाँ तैयार करते हैं वो दुनिया में कोई नही बना पाता। वो कहता है इंग्लैंड में लोहा बनाना तो हमने 1825 के बाद शुरू किया भारत में तो लोहा 10वीं शताब्दी से ही हजारों हजारों टन में बनता रहा है और दुनिया के देशों में बिकता रहा है। वो कहता है की मैं 1764 में भारत से स्टील का एक नमूना ले के आया था, मैंने इंग्लैंड के सबसे बड़े विशेषज्ञ डॉ॰ स्कॉट को स्टील दिया था और उनको कहा था की लंदन रॉयल सोसाइटी की तरफ से आप इसकी जांच कराइए। डॉ॰ स्कॉट ने उस स्टील की जांच कराने के बाद कहा की ये भारत का स्टील इतना अच्छा है की सर्जरी के लिए बनाए जाने वाले सारे उपकरण इससे बनाए जा सकते हैं, जो दुनिया में किसी देश के पास उपलब्ध नहीं हैं। अंत में वो कहते हैं की मुझे ऐसा लगता है की भारत का ये स्टील हम पानी में भी डालकर रखे तो इसमे कभी जंग नही लगेगा क्योंकि इसकी क्वालिटी इतनी अच्छी है।"

10. एक अंग्रेज़ है लेफ्टिनेंट कर्नल ए॰ वॉकर उसने भारत की शिपिंग इंडस्ट्री पर सबसे ज्यादा शोध किया है। वो कहता है की "भारत का जो अदभूत लोहा/ स्टील है वो जहाज बनाने के काम में सबसे ज्यादा आता है। दुनिया में जहाज बनाने की सबसे पहली कला और तकनीकी भारत में ही विकसित हुई है और दुनिया के देशों ने पानी के जहाज बनाना भारत से सीखा है। फिर वो कहता है की भारत इतना विशाल देश है जहां दो लाख गाँव हैं जो समुद्र के किनारे स्थापित हुआ माना जाता है इन सभी गाँव में जहाज बनाने का काम पिछले हजारों वर्षों से चलता है। वो कहता है की हम अंग्रेजों को अगर जहाज खरीदना हो तो हम भारत में जाते है और जहाज खरीद कर लाते हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी के जीतने भी पानी के जहाज दुनिया में चल रहे हैं ये सारे के सारे जहाज भारत की स्टील से बने हुए हैं ये बात मुझे कहते हुए शर्म आती है की हम अंग्रेज़ अभी तक इतनी अछि क्वालिटी का स्टील बनाना नही शुरू कर पाये हैं। वो कहता है भारत का कोई पानी का जहाज जो 50 साल चल चुका है उसको हम खरीद कर ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में लगाएँ तो 50 साल भारत में चलने के बाद भी वो हमारे यहाँ 20-25 साल और चल जाता है इतनी मजबूत पानी के जहाज बनाने की कला और टेक्नालजी भारत के कारीगरों के हाथ में है। आगे वो कहता है हम जीतने धन में 1 नया पानी का जहाज बनाते हैं उतने ही धन में भारतवासी 4 नए जहाज पानी के बना लेते हैं। फिर वो अंत में कहता है की हम भारत में पुराने पानी के जहाज खरीदें और उसको ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में लगाएँ यही हमारे लिए अच्छा है। इसी तरह से वो कहता है भारत में तकनीक के द्वारा ईंट बनती है, ईंट से ईंट को जोड़ने का चुना बनता है उसके अलावा 36 तरह के दूसरे इंडस्ट्री हैं। इन सभी उद्योगों में भारत दुनिया में सबसे आगे है, इसलिए हमें भारत से व्यापार करके ये सब तकनीकी लेनी है और इन सबको इंग्लैंड में लाकर फिर से पुनउत्पादित करना है।"

11. भारत के विज्ञान के बारे में बीसियों अंग्रेजों ने शोध की है और वो ये कहते हैं की भारत में विज्ञान की 20 से ज्यादा शाखाएँ हैं, जो बहुत ज्यादा पुष्पित और पल्लवित हुई है। उनमें से सबसे बड़ी शाखा है खगोल विज्ञान, दूसरी नक्षत्र विज्ञान, तीसरी बर्फ बनाने का विज्ञान, चौथी धातु विज्ञान, भवन निर्माण का विज्ञान ऐसी 20 तरह की वैज्ञानिक शाखाएँ पूरे भारत में हैं। वॉकर लिखा रहा है की "भारत में ये जो विज्ञान की ऊंचाई है वो इतनी अधिक है इसका अंदाज़ा हम अंग्रेजों को नहीं लगता।" एक यूरोपीय वैज्ञानिक था कॉपरनिकस, उसके बारे में कहा जाता है की उसने पहली बार बताया सूर्य का पृथ्वी के साथ क्या संबंध है, जिसने पहली बार सूर्य से पृथ्वी की दूरी का अनुमान लगाया और जिसने सूर्य से दूसरे उपग्रहों के बारे में जानकारी सारी दुनिया को दी। लेकिन इस कॉपरनिकस की बात को वॉकर ही कह रहा है की ये असत्य है। वॉकर कहता है की अंग्रेजों के हजारों साल पहले भारत में ऐसे विशेषज्ञ वैज्ञानिक हुए हैं जिनहोने पृथ्वी से सूर्य का ठीक ठीक पता लगाया है और भारत के शास्त्रों में उसको दर्ज़ कराया है। यजुर्वेद में ऐसे बहुत सारे श्लोक हैं जिनसे खगोल शास्त्र का ज्ञान मिलता है। कॉपरनिकस का जिस दिन जन्म हुआ था यूरोप में, उससे ठीक एक हज़ार साल पहले एक भारतीय वैज्ञानिक "श्री आर्यभट्ट जी" ने पृथ्वी और सूर्य की दूरी बिलकुल ठीक ठीक बता दी थी और जितनी दूरी आर्यभट्ट जी ने बताई थी उसमे कॉपरनिकस एक इंच भी इधर उधर नही कर पाया। वही दूरी आज अमेरिका और यूरोप में मानी जाती है। भारत में खगोल विज्ञान इतना गहरा था की इसी से नक्षत्र विज्ञान का विकास हुआ। भारतीय वैज्ञानिकों ने ही दिन और रात की लंबाई, समय के आंकड़े निकाले है और सारी दुनिया में उनका प्रचार हुआ है। ये जो दिनों की हम गिनती करते हैं रविवार, सोमवार इन सभी दिनों का नामकरण और अवधि पूरी की पूरी महान महर्षि आर्यभट्ट की निकाली हुई है और उनके द्वारा ही ये दिन तय किए हुए हैं। अंग्रेज़ इस बात को स्वीकार करते हैं की भारत के दिनों को ही उधार लेकर हमने सनडे, मंडे बनाया है। पृथ्वी अपनी अक्ष और सूर्य के चारों ओर घूमती है ये बात सबसे पहले 10वीं शताब्दी में भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रमाणित की थी। पृथ्वी के घूमने से दिन रात होते हैं, मौसम और जलवायु बदलते हैं, ये बात भी भारतीय वैज्ञानिकों के द्वारा प्रमाणित हुई है सारी दुनिया में। सूर्य के कितने उपग्रह हैं और उनका सूर्य के साथ अंतरसंबंध क्या है ये सारी खोज भारत में तीसरी शताब्दी में हुई थी जब दुनिया में कोई पढ़ना लिखना भी नहीं जानता था।

12. एक अंग्रेज़ है 'डेनियल डिफ़ों' वो कहता है की "भारत के वैज्ञानिक कितने ज्यादा पक्के हैं गणित में की चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण का ठीक ठीक समय बता देते हैं सालों पहले।" 1708 में ये लंदन की संसद में के रहा है की 'मैंने भारत का पंचांग जब भी पढ़ा है मुझे एक प्रश्न का उत्तर कभी नही मिला की भारत के वैज्ञानिक कई कई साल पहले कैसे पता लगा लेते हैं की आज चन्द्र ग्रहण पड़ेगा, आज सूर्य ग्रहण पड़ेगा और इस समय पर पड़ेगा और सही सही उसी समय पर पड़ता है।' इसका मतलब भारत के वैज्ञानिकों की खगोल और नक्षत्र विज्ञान में बहुत गहरी शोध है। "
13. भारतीय शिक्षा के बारे में जर्मन दार्शनिक 'मैक्स मूलर' ने सबसे ज्यादा शोध किया है और वो ये कहता है की "मैं भारत की शिक्षा व्यवस्था से इतना प्रभावित हूँ शायद ही दुनिया के किसी देश में इतनी सुंदर शिक्षा व्यवस्था होगी जो भारत में है। भारत के बंगाल प्रांत में मेरी जानकारी के अनुसार 80 हज़ार से ज्यादा गुरुकुल पिछले हजारों साल से सफलता के साथ चल रहे हैं।" एक अंग्रेज़ शिक्षाशास्त्री, विद्वान है 'लुडलो' वो 18वीं शताब्दी में कह रहा है की "भारत में एक भी गाँव ऐसा नहीं है जहां कम से कम एक गुरुकुल नहीं है और भारत के एक भी बच्चे ऐसे नहीं हैं जो गुरुकुल में न जाते हो पढ़ाई के लिए।" इसके अलावा एक और अंग्रेज़ "जी॰डबल्यू॰ लिटनर", कहता है की मैंने भारत के उत्तरी इलाके का सर्वेक्षण किया है और मेरी रिपोर्ट कहती है की भारत में 200 लोगों पर एक गुरुकुल चलता है। इसी तरह थॉमस मुनरो कहता है की दक्षिण भारत में 400 लोगों पर कम से कम एक गुरुकुल भारत में है। दोनों के आंकड़े मिलाने पर भारत में औसत 300 लोगों पर एक गुरुकुल चलता था और जिस जमाने के ये आंकड़े है तब भारत की जनसंख्या लगभग 20 करोड़ थी। माने सन् 1822 के आसपास सम्पूर्ण भारत देश में 7,32000 गुरुकल थे। सन् 1822 में भारत में कुल गाँव भी लगभग 7,32000 थे, इस प्रकार लगभग हर गाँव में एक गुरुकुल था। वहीं अंग्रेजों के इतिहास से पता चलता है की सन् 1868 तक पूरे इंग्लैंड में सामान्य बच्चों को पढ़ाने के लिए एक भी स्कूल नहीं था। हमारी शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजों से बहुत बहुत आगे थी। सबसे अच्छी बात ये थी की इन गुरुकुलों को चलाने के लिए कभी भी किसी राजा से कोई दान और अनुदान नहीं लिया जाता था, ये सारे गुरुकुल समाज के द्वारा चलाये जाते थे।'जी॰डबल्यू॰ लिटनर' की रिपोर्ट कहती है की 1822 में सम्पूर्ण भारत में 97% साक्षरता की दर है। हमारे प्राचीन गुरुकुलों में पढ़ाई का समय होता था सूर्योदय से सूर्यास्त तक। इतने समय में वो 18 विषय पढ़ते है जिसमें वो गणित/ वैदिक गणित, खगोल शास्त्र , नक्षत्र विज्ञान, धातु विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, शौर्य विज्ञान जैसे लगभग 18 विषय पढ़ाये जाते थे।



एक अंग्रेज़ अधिकारी 'पेंडरगास्ट' लिखाता है की 'जब कोई बच्चा भारत में 5 साल, 5 महीने और 5 दिन का हो जाता था बस उसी दिन उसका गुरुकुल में प्रवेश हो जाता था और लगातार 14 वर्ष तक वो गुरुकुल में पढ़ता था। इसके बाद जिसको विशेषज्ञता हासिल करनी होती थी उसके लिए उच्च शिक्षा के केंद्र भी थे। भारत में शिक्षा इतनी आसान है की गरीब हो या अमीर सबके लिए शिक्षा समान है और व्यवस्था समान है। उदाहरण: भगवान श्रीकृष्ण जिस गुरुकुल में पढे थे, उसी में सुदामा भी पढे थे, एक करोड़पति का बेटा और एक रोडपति का।'


जबकि 2009 तक भारत में सरकार द्वारा लाखों करोड़ों खर्च करने के बाद 13,500 विद्यालय और 450 विश्वविद्यालय हैं। जबकि 1822 में अकेले मद्रास प्रांत (उस जमाने का कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडू) में 11,575 विद्यालय और 109 विश्वविद्यालय थे। इसके बाद मुंबई प्रांत, पंजाब प्रांत और नॉर्थ वेस्ट फ़्रोंटिएर चारों स्थानों को मिला दिया जाए तो भारत में लगभग 14,000+ विद्यालय और 500-525 विश्वविद्यालय थे। इसने इंजीनियरिंग, सर्जरी, मैडिसिन, आयुर्वेद, प्रबंधन सबके लिए अलग अलग विद्यालय और विश्वविद्यालय थे। तक्षशिला, नालंदा जैसे 500 से ज्यादा विश्वविद्यालय रहे थे।जबकि पूरे यूरोप में 'सामान्य लोगों के लिए शिक्षा व्यवस्था' सबसे पहले इंग्लैंड में 1868 में आयी। इससे पहले जो स्कूल थे वो सिर्फ राजाओं के बच्चों के लिए थे जो उनके ही महल में चला करते थे। साधारण लोगों को उनमे प्रवेश नहीं मिलता था। यूरोप के दार्शनिकों का मानना है की आम लोगों को तो गुलाम बनके रहना है उसको शिक्षित होने से कोई फायदा नहीं। अरस्तू और सुकरात दोनों कहते हैं की "सामान्य लोगों को शिक्षा नहीं देनी चाहिए, शिक्षा सिर्फ राजा और अधिकारियों के बच्चों को देनी चाहिए, इसलिए सिर्फ उनके लिए ही विद्यालय होते थे।"


14. भारत में कृषि व्यवस्था के बारे में "लेस्टर" नाम का अंग्रेज़ कहता है की "भारत में कृषि उत्पादन दुनिया में सर्वोच्च है। अंग्रेजों की संसद में भाषण देते समय वो कहता है, भारत में एक एकड़ में सामान्य रूप से 56 कुंटल धान पैदा होता है। ये उत्पादन औसतन है, भारत के कुछ इलाकों में तो 70-75 कुंटल धान होता है और कुछ इलाकों में 45-50 कुंटल धान पैदा होता है। भारत में एक एकड़ में सामान्य रूप से 120 मीट्रिक टन गन्ना पैदा होता है। कपास का उत्पादन सारी दुनिया में सबसे ज्यादा भारत में है।"



जबकि आज भारत में "यूरिया, डीएपी, फॉस्फेट" डालने के बाद औसतन एक एकड़ में 30 कुंटल से ज्यादा धान पैदा नहीं होता है। जबकि 150 साल पहले सिर्फ गाय के गोबर और गौमूत्र की खाद से एक एकड़ में औसतन 56 कुंटल धान पैदा होता था। आज भारत में "यूरिया, डीएपी, फॉस्फेट" के बोरे के बोरे डालने के बाद एक एकड़ में औसतन उत्पादन 30-35 मीट्रिक टन है।



एक अंग्रेज़ कहता है की: 'भारत में फसलों की विविधता दुनिया में सबसे ज्यादा है। भारत में धान के कम से कम 1 लाख प्रजाति के बीज हैं। भारत में दुनिया में सबसे पहला 'हल' बना। जो दुनिया को भारत की अदभूत दें है। इसके अलावा खुरपी, खुरपा, हसिया, हथौड़ा, बेल्ची, कुदाल, फावड़ा आदि सब चीज़ें दुनिया में बाद में आई है भारत में ये सैकड़ों साल पहले ही बन चुकी है। बीज को एक पंक्ति में बोने की परंपरा भी हजारों साल पहले भारत में विकसित हुई है।"



आज भी धान की 50,000 प्रजातियाँ पूरे देश में मौजूद हैं। दुनिया ने सन् 1750 में खेती करना भारत से ही सीखा है। इससे पहले ये यूरोप के लोग जंगली फलों और पशुओं को शिकार करके ही हजारों साल यही खाते रहे हैं। जिस समय इंग्लैंड और यूरोप के लोग दो ही चीज़ें खाते थे या तो जंगली फल या मांस, उस समय भारत में 1 लाख किस्म के चावल होते थे, बाकी चीजों की तो बात ही छोड़ दीजिये। हजारों साल तक भारत ने दुनिया को चावल, गुड, दालें उत्पादित करके खिलाई है। और खाने पीने की हजारों चीज़ें दुनियाभर के देश हमसे खरीदते थे और हमें बदले में सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात देते थे।



15. भारत के लोगों का स्वास्थ्य दुनिया में सबसे अदभूत था क्योंकि यहाँ की चिकित्सा व्यवस्था भी दुनिया में सबसे उत्तम थी। हजारों लाखों जड़ी बूटियाँ और सर्जरी की विद्या पूरी दुनिया को भारत से ही गयी है। भारत में हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू, केरल इन राज्यों में सर्जरी के सबसे बड़े शोध केंद्र चला करते थे। जब दुनिया में कोई नहीं जानता था तब आँख में मोतियाबिंद का पहला ऑपरेशन भारत में ही हुआ है। सर्जरी की सबसे आधुनिकम विद्या 'राइनोंप्लासी' का सबसे पहला परीक्षण और प्रयोग भी भारत में ही हुआ है। इंग्लैंड की 'रॉयल सोसाइटी ऑफ सर्जन' अपने इतिहास में लिखते हैं की हमने सर्जरी भारत से सीखी है और उसके बाद पूरे यूरोप को हमने ये सर्जरी सिखायी है।


इस प्रकार भारत चिकित्सा, तकनीक, विज्ञान, उद्योग, व्यपार सबसे दुनिया में शीर्ष पर रहा है और इन सबका श्रेय भारत की शिक्षा व्यवस्था को जाता है, जो दुनिया में सबसे ऊंची थी। ऐसा अदभूत 'हमारा भारत' देश अंग्रेजों के आने से पहले तक था। अंग्रेजों की नीतियों और क़ानूनों के कारण आज हमारी व्यवस्थाओं में इतनी गिरावट आई है। सबसे पहले उन्होने 'इंडियन एडुकेशन एक्ट' बनाकर भारत के गुरुकुल बंद किए गए। उसके बाद उन्होने भारत की वस्तुओं पर ज्यादा से ज्यादा टैक्स लगाकर और विदेशी वस्तुओं को टैक्स फ्री कराकर भारत के कारखाने बंद किए। भारत का निर्यात खत्म हो गया। भारत की कृषि व्यवस्था को खत्म करने के लिए अंग्रेजों ने किसानों पर लगान लगाना शुरू किया। किसानों की ज़मीनें छीनने के लिए 'Land Acquisition Act' बनाया। फिर किसानों के काम आने वाली गाय और बैल इनका कत्ल कराओ और सबसे पहला कत्लखाना अंग्रेजों ने ही शुरू किया कलकत्ता में, जो आज भी चल रहा है। अंग्रेज़ उसमें 350 गाय रोज कट्टे थे, लेकिन आज उसमे 14,000 गाय रोज कटती हैं। ये सारी दूर व्यवस्थाएँ अंग्रेजों की देन हैं। अगर अंग्रेज़ नहीं आते तो हम आज भी दुनिया के शीर्ष पर होते। आज भी उनके कानून हटाये जाए तो भारत फिर से दुनिया के शिखर पर बैठेगा।