हिन्दुस्तान में अंग्रेजों का शासन पूर्णत्या ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शासन था। उन्हों ने देश में ‘विकास’ भी किया। दैनिक जीवन के प्रशासन कार्यों में अंग्रेज़ हमारे भ्रष्ट नेताओं की तुलना में अधिक अनुशासित, सक्ष्म तथा ईमानदार भी थे। फिर भी हम ने स्वतन्त्रता के लिये कई बलिदान दिये क्योंकि हम अपने देश को अपने पूर्वजों की आस्थाओं और नैतिक मूल्यों के अनुसार चलाना चाहते थे। परन्तु स्वतन्त्रता संघर्ष के बाद भी हम अपने लक्ष्य में असफल रहै।
भारत विभाजन के पश्चात तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दुस्तान की पहचान ही मिटती जा रही है। शहीदों के बलिदान के ऐवज में इटली मूल की मामूली हिन्दी-अंग्रजी जानने वाली महिला हिन्दुस्तान के शासन तन्त्र की ‘सर्वे-सर्वा’ बनी बैठी है। हिन्दू संस्कृति और इतिहास का मूहँ चिडा कर यह कहने का दुसाहस करती है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। उसी महिला का मनोनीत किया हुआ प्रधान मन्त्री कहता है कि ‘देश के संसाधनों पर प्रथम हक तो अल्पसंख्यकों का है’। हमारे देश का शासन तन्त्र लगभग अल्प संख्यकों के हाथ में जा चुका है और अब स्वदेशी को त्याग भारत विदेशियों की आर्थिक गुलामी की तरफ तेजी से लुढक रहा है। हम बेशर्मी से अपनी लाचारी दिखा कर प्रलाप कर रहै हैं “अब हम ‘अकेले (सौ करोड हिन्दू)’ कर ही क्या सकते हैं? ”
धर्म-निर्पेक्षता का असंगत विचार
शासन में ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का विचार ‘कालोनाईजेशन काल’ की उपज है। योरूप के उपनेषवादी देशों ने जब दूसरे देशों में जा कर वहाँ के स्थानीय लोगों को जबरदस्ती इसाई बनाना आरम्भ किया था तो उन्हें स्थानीय लोगों का हिंसात्मक विरोध झेलना पडा था। फलस्वरुप उन्हों ने दिखावे के लिये अपने प्रशासन को इसाई मिशनरियों से प्रथक कर के अपने सरकारी तन्त्र को ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बताना शुरु कर दिया था ताकि आधीन देशों के लोग विद्रोह नहीं करें। इसी कारण सभी आधीन देशों में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारों की स्थापना करी गई थी।
शब्दकोष के अनुसार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शब्द का अर्थ है – जो किसी भी ‘नैतिक’ तथा ‘धार्मिक आस्था’ से जुडा हुआ ना हो। हिन्दू विचारधारा में जो व्यक्ति या शासन तन्त्र नैतिकता अथवा धर्म में विश्वास नहीं रखता उसे ‘अधर्मी’ या ‘धर्म-हीन’ कहते हैं। ऐसा तन्त्र केवल अनैतिक, स्वार्थी, व्यभिचारिक तथा क्रूर राजनैतिक शक्ति है, जिसे अंग्रेजी में ‘माफिया’ कहते हैं। अनैतिकता के कारण वह उखाड फैंकने लायक है।
आज पाश्चात्य जगत में भी जिन देशों में तथा-कथित ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारें हैं उन का नैतिक झुकाव स्थानीय आस्थाओं और नैतिक मूल्यों पर ही टिका हुआ है। पन्द्रहवीं शाताब्दी में जब इसाई धर्म का दबदबा अपने उफान पर था तब इंग्लैण्ड के ट्यूडर वँशी शासक हेनरी अष्टम नें ईंग्लैण्ड के शासन क्षेत्र में पोप तथा रोमन चर्च के हस्तक्षेप पर रोक लगा दी थी और ईंग्लैण्ड मेंकैथोलिक चर्च के बदले स्थानीय प्रोटेस्टैंट चर्च की स्थापना कर दी थी। प्रोटेस्टैंट चर्च को ‘चर्च आफ ईंग्लैण्ड ’ भी कहा जाता है। यद्यपि ईंग्लैण्ड की सरकार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ होने का दावा करती है किन्तु वहाँ के बादशाहों के नाम के साथ ‘डिफेन्डर आफ फैथ’ (धर्म-रक्षक) की उपाधि भी लिखी जाती है। ईंग्लैण्ड के औपचारिक प्रशासनिक रीति रिवाज भी इसाई और स्थानीय प्रथाओं और मान्यताओं के अनुसार ही हैं।
भारत सरकार को पाश्चात्य ढंग से अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष घोषित करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है क्यों कि भारत में उपजित हिन्दू धर्म यथार्थ रुप में ऐक प्राकृतिक मानव धर्म है जो पर्यावरण के सभी अंगों को अपने में समेटे हुये है। आदिकाल से हिन्दू धर्म और हिन्दू देश ही भारत की पहचान रहै हैं।
पूर्णत्या मानव धर्म
स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से स्वतन्त्र है। प्रत्येक व्यक्ति निजि क्षमता और रुचि अनुसार अपने लिये मोक्ष का मार्ग स्वयं ढूंडने के लिये स्वतन्त्र है। ईश्वर से साक्षाताकार करने के लिये हिन्दू ईश्वर के पुत्र, ईश्वरीय के पैग़म्बर या किसी अन्य ‘विचौलिये’ की मार्फत नहीं जाते। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर का प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों को अपना ‘ईश्वरीयत्व’ स्वीकार करने के लिये बाधित और दण्डित नहीं कर सकता।
हम बन्दरों की संतान नहीं हैं। हमारी वँशावलियाँ ऋषि परिवारों से ही आरम्भ होती हैं जिन का ज्ञान और आचार-विचार विश्व में मानव कल्याण के लिये कीर्तिमान रहै हैं। अतः 1869 में जन्में मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा देना ऐक राजनैतिक भूल नहीं, बल्कि देश और संस्कृति के विरुद्ध काँग्रेसी नेताओं और विदेशियों का ऐक कुचक्र था जिस से अब पर्दा उठ चुका है।
हिन्दू धर्म वास्तव में ऐक मानव धर्म है जोकि विज्ञान तथा आस्थाओं के मिश्रण की अदभुत मिसाल है। हिन्दूओं की अपनी पूर्णत्या विकसित सभ्यता है जिस ने विश्व के मानवी विकास के हर क्षेत्र में अमूल्य योग्दान दिया है। स्नातन हिन्दू धर्म ने स्थानीय पर्यावरण का संरक्षण करते हुये हर प्रकार से ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दिया है। केवल हिन्दू धर्म ने ही विश्व में ‘वसुदैव कुटम्बकुम’ की धारणा करके समस्त विश्व के प्राणियों को ऐक विस्तरित परिवार मान कर सभी प्राणियों में ऐक ही ईश्वरीय छवि का आभास किया है।
भारत का पुजारी वर्ग कोई प्रशासनिक फतवे नहीं देता। हिन्दूओं ने कभी अहिन्दूओं के धर्मस्थलों को ध्वस्त नहीं किया। किसी अहिन्दू का प्रलोभनों या भय से धर्म परिवर्तन नहीं करवाया। हिन्दू धर्म में प्रवेष ‘जन्म के आधार’ पर होता है परन्तु यदि कोई स्वेच्छा से हिन्दू बनना चाहे तो अहिन्दूओं के लिये भी प्रवेष दूार खुले हैं।
हिन्दू धर्म की वैचारिक स्वतन्त्रता
हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, या साकार। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं जो अन्य धर्मों में घृणा के पात्र समझे जाते हैं।
हिन्दूओं ने कभी किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है। प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार ऐक या अनेक ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी दी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बल्कि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं।
हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार वस्त्र पहने या कुछ भी ना पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन बिताये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।
हर नयी विचारघारा को हिन्दू धर्म में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है। नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान दिया गया है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है तथा हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी धर्म में नहीं है।
राष्ट्र भावना का अभाव
पूवर्जों का धर्म, संस्कृति, नैतिक मूल्यों में विशवास, परम्पराओ का स्वेच्छिक पालन और अपने ऐतिहासिक नायकों के प्रति श्रध्दा, देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भ हैं। आज भी हमारी देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भों पर कुठाराघात हो रहा है। ईसाई मिशनरी और जिहादी मुसलिम संगठन भारत को दीमक की तरह खा रहे हैं। धर्मान्तरण रोकने के विरोध में स्वार्थी नेता धर्म-निर्पेक्ष्ता की दीवार खडी कर देते हैं। इन लोगों ने भारत को एक धर्महीन देश समझ रखा है जहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर सकता है। अगर कोई हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बनाये तो वह ‘उदार’,‘प्रगतिशील’ और धर्म-निर्पेक्ष है – परन्तु अगर कोई इस देश के हिन्दू को हिन्दू बने रहने को कहे तो वह ‘उग्रवादी’ ‘कट्टर पंथी’ और ‘साम्प्रदायक’ कहा जाता है। इन कारणों से भारत की नयी पी़ढी ‘लिविंग-इन‘ तथा समलैंगिक सम्बन्धों जैसी विकृतियों की ओर आकर्षित होती दिख रही है।
इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता
कत्लेाम और भारत विभाजन के बावजूद अपने हिस्से के खण्डित भारत में हिन्दू क्लीन स्लेटले कर मुस्लमानों और इसाईयों के साथ नया खाता खोलने कि लिये तैय्यार थे। उन्हों नें पाकिस्तान गये मुस्लमान परिवारों को वहाँ से वापिस बुला कर उन की सम्पत्ति भी उन्हें लौटा दी थी और उन्हें विशिष्ट सम्मान दिया परन्तु बदले में हिन्दूओं को क्या मिला ? ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रमाण पत्र पाने के लिये हिन्दू और क्या करे ?
व्यक्तियों से समाज बनता है। कोई व्यक्ति समाज के बिना अकेला नहीं रह सकता। लेकिन व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की सीमा समाज के बन्धन तक ही होती है। एक देश के समाजिक नियम दूसरे देश के समाज पर थोपे नही जा सकते। यदि कट्टरपंथी मुसलमानों या इसाईयों को हिन्दू समाज के बन्धन पसन्द नही तो उन्हें हिन्दुओं से टकराने के बजाये अपने धर्म के जनक देशों में जा कर बसना चाहिये।
मुस्लिम देशों तथा कई इसाई देशों में स्थानीय र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में धर्म-निर्पेक्ष्ता के साये में उन्हें ‘खुली छूट’ क्यों है ? महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर भीड़ नमाज़ पढ सकती है, दिन हो या रात किसी भी समय लाउडस्पीकर लगा कर आजा़न दी जा सकती है। किसी भी हिन्दू देवी-देवता के अशलील चित्र, फि़ल्में बनाये जा सकते हैं। हिन्दु मन्दिर, पूजा-स्थल, और सार्वजनिक मण्डप स्दैव आतंकियों के बम धमाकों से भयग्रस्त रहते हैं। इस प्रकार की इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता से हिन्दू युवा अपने धर्म, विचारों, परम्पराओं, त्यौहारों, और नैतिक बन्धनो से विमुख हो उदासीनता या पलायनवाद की और जा रहे हैं।
हिन्दू सैंकडों वर्षों तक मुसलसान शासकों को ‘जज़िया टैक्स’ देते रहै और आज ‘हज-सब्सिडी‘ के नाम पर टैक्स दे रहै हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय भी अवैध घौषित कर चुका है। भारत की नाम मात्र धर्म-निर्पेक्ष केन्द्रीय सरकार ने ‘हज-सब्सिडी‘ पर तो रोक नहीं लगायी, उल्टे इसाई वोट बैंक बनाये रखने के लिये ‘बैथलहेम-सब्सिडी` देने की घोषणा भी कर दी है। भले ही देश के नागरिक भूखे पेट रहैं, अशिक्षित रहैं, मगर अल्पसंख्यकों को विदेशों में तीर्थ यात्रा के लिये धर्म-निर्पेक्षता के प्रसाद स्वरूप सब्सिडी देने की भारत जैसी मूर्खता संसार में कोई भी देश नही करता।
यह कहना ग़लत है कि धर्म हर व्यक्ति का ‘निजी’ मामला है, और उस में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जब धर्म के साथ ‘जेहादी मानसिक्ता’ जुड़ जाती है जो दूसरे धर्म वाले का कत्ल कर देने के लिये उकसाये तो वह धर्म व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। ऐसे धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था भी दूषित होती है और सरकार को इस पर लगाम लगानी आवशयक है।
धर्म-निर्पेक्षता का छलावा
हमारे कटु अनुभवों ने ऐक बार फिर हमें जताया है कि जो धर्म विदेशी धरती पर उपजे हैं, जिन की आस्थाओं की जडें विदेशों में हैं, जिन के जननायक, और तीर्थ स्थल विदेशों में हैं वह भारत के विधान में नहीं समा सकते। भारत में रहने वाले मुस्लमानों और इसाईयों ने किस हद तक धर्म निर्पेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकारा है और वह किस प्रकार से हिन्दू समाज के साथ रहना चाहते हैं यह कोई छिपी बात नहीं रही।
धार्मिक आस्थायें राष्ट्रीय सीमाओं के पार अवश्य जाती हैं। भारत की सुरक्षा के हित में नहीं कि भारत में विदेशियों को राजनैतिक अधिकारों के साथ बसाया जाये। मुस्लिमों के बारे में तो इस विषय पर जितना कहा जाय वह कम है। अब तो उन्हों ने हिन्दूओं के निजि जीवन में भी घुसपैठ शुरु कर दी है। आज भारत में हिन्दू अपना कोई त्यौहार शान्त पूर्ण ढंग से सुरक्षित रह कर नहीं मना सकते। पूजा पाठ नहीं कर सकते, उन के मन्दिर सुरक्षित नहीं हैं, अपने बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते, तथा उन्हें सुरक्षित स्कूल भी नहीं भेज सकते क्यों कि हर समय आतंकी हमलों का खतरा बना रहता है जो स्थानीय मुस्लमानों के साथ घुल मिल कर सुरक्षित घूमते हैं।
अत्मघाती धर्म-निर्पेक्षता
धर्म-निर्पेक्षता की आड ले कर साम्यवादी, आतंकवादी, और कट्टरपँथी शक्तियों ने संगठित हो कर भारत में हिन्दूओं के विरुद्ध राजसत्ता के गलियारों में अपनी पैठ जमा ली है। स्वार्थी तथा राष्ट्रविरोधी हिन्दू राजनेताओं में होड लगी हुई है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे से बढ चढ कर हिन्दू हित बलिदान कर के अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करें और निर्वाचन में उन के मत हासिल कर सकें। आज सेकूलरज्मि का दुर्प्योग अलगाववादी तथा राष्ट्रविरोधी तत्वों दूारा धडल्ले से हो रहा है। विश्व में दुसरा कोई धर्म निर्पेक्ष देश नहीं जो हमारी तरह अपने विनाश का सामान स्वयं जुटा रहा हो।
ऐक सार्वभौम देश होने के नातेहमें अपना सेकूलरज्मि विदेशियों से प्रमाणित करवाने की कोई आवश्यक्ता नहीं। हमें अपने संविधान की समीक्षा करने और बदलने का पूरा अधिकार है। इस में हिन्दूओं के लिये ग्लानि की कोई बात नहीं कि हम गर्व से कहें कि हम हिन्दू हैं। हमें अपनी धर्म हीन धर्म-निर्पेक्षता को त्याग कर अपने देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना होगा ताकि भारत अपने स्वाभिमान के साथ स्वतन्त्र देश की तरह विकसित हो सके।
धर्म-हीनता और लाचारी भारत को फिर से ग़ुलामी का ओर धकेल रही हैं। फैसला अब भी राष्ट्रवादियों को ही करना है कि वह अपने देश को स्वतन्त्र रखने के लिये हिन्दू विरोधी सरकार हटाना चाहते हैं या नहीं। यदि उन का फैसला हाँ में है तो अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होकर कर उस सरकार को बदल दें जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़।
साभार लेखक : चाँद शर्मा, http://hindumahasagar.wordpress.com