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Sunday, October 28, 2012

इस्लामीकरण का विरोध

इस्लाम को भारत में सफलता मिलने का ऐक कारण यहाँ के शासकों में परस्पर कलह, जातीय अहंकार, और राजपूतों में कूटनीति का आभाव था। वह वीरता के साथ युद्ध में मरना तो जानते थे किन्तु देश के लिये संगठित हो कर जीना नहीं जानते थे। युद्ध जीतने की चालों में पराजित हो जाते थे तथा भीतर छिपे गद्दारों को पहचानने में चूकते रहै। पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गौरी को पराजित कर के क्षमादान दिया तो अगले ही वर्ष गौरी ने कूटनीति से पृथ्वीराज चौहान को हरा कर उसे यात्नामयी मृत्यु प्रदान कर दी। इस प्रकार की घटनायें भारत के इतिहास में बार बार होती रही हैं। आज तक हिन्दूओं ने अपने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। 
इस्लाम ने हिन्दू धर्म की किसी भी आस्था और विशवास का आदर नहीं किया और इसी कारण दोनो ऐक दूसरे के विरोधी ही रहे हैं। भारत हिन्दूओं का जन्म स्थान था अतः जब भी सम्भव हुआ हिन्दूओं ने मुस्लिम शासन को भारत से उखाड देने के प्रयत्न भी कियेः-
  • राणा संग्राम सिहं कन्हुआ के युद्ध में मुग़ल आक्रान्ता बाबर को पराजित करने के निकट थे। बाबर ने सुलह का समय माँगा और मध्यस्थ बने राजा शिलादित्य को प्रलोभन दे कर उसी से राणा संग्राम सिहँ के विरुद्ध गद्दारी करवाई जिस के कारण राणा संग्राम सिहँ की जीत पराजय में बदल गयी। भारत में मुग़ल शासन स्थापित हो गया।

  • हेम चन्द्र विक्रमादितीय ने शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारी से दिल्ली का शासन छीन कर भारत में हिन्दू साम्राज्य स्थापित कर दिया था। अकबर की सैना को दिल्ली पर अधिकार करने से रोकने के लिये उस ने राजपूतों से जब सहायता माँगी तो राजपूतों ने उस के आधीन रहकर लडने से इनकार कर दिया था। पानीपत के दूसरे युद्ध में जब वह विजय के समीप था तो दुर्भाग्य से ऐक तीर उस की आँख में जा लगा। पकडे जाने के पश्चात घायल अवस्था में ही हेम चन्द्र विक्रमादितीय का सिर काट कर काबुल भेज दिया गया था और दिल्ली पर मुगल शासन दोबारा स्थापित हो गया।

  • महाराणा प्रताप ने अकेले दम से स्वतन्त्रता की मशाल जवलन्त रखी किन्तु राजपूतों में ऐकता ना होने के कारण वह सफल ना हो सके। अकबर और उस के पश्चात दूसरे मुगल बादशाहों ने भी राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाया और युद्ध जीते। अपने ही अपनों को मारते रहै।

  • महाराज कृष्ण देव राय ने दक्षिण भारत के विजयनगर में ऐक सशक्त हिन्दू साम्राज्य स्थापित किया था किन्तु बाहम्नी के छोटे छोटे सुलतानों ने ऐकता कर के विजयनगर पर आक्रमण किया। महाराज कृष्ण देव राय अपने ही निकट सम्बन्धी की गद्दारी के कारण पराजित हो गये और विजयनगर के सम्रद्ध साम्राज्य का अन्त हो गया। 

  • छत्रपति शिवाजी ने दक्षिण भारत में हिन्दू साम्राज्य स्थापित किया। औरंगज़ेब ने मिर्जा राजा जयसिहँ की सहायता से शिवा जी को सन्धि के बहाने दिल्ली बुलवा कर कैद कर लिया था। सौभागय से शिवाजी कैदखाने से निकल गये और फिर उन्हों ने औरंगजेब को चैन से जीने नहीं दिया। शिवाजी की मृत्यु पश्चात औरंगजेब ने शिवाजी के पुत्र शम्भा जी को भी धोखे से परास्त किया और अपमान जनक ढंग से यातनायें दे कर मरवा दिया।

  • गुरु गोबिन्द सिहं नेसवा लाख से ऐक लडाऊँ” के मनोबल के साथ अकेले ही मुगलों के अत्याचारों का सशस्त्र विरोध किया किन्तु उन्हें भी स्थानीय हिन्दू राजाओं का सहयोग प्राप्त नही हुआ था। दक्षिण जाते समय ऐक पठान ने उन के ऊपर घातक प्रहार किया जिस के ऊपर उन्हों ने पूर्व काल में दया की थी। उत्तरी भारत में सोये हुये क्षत्रित्व को झकझोर कर जगानें और सभी वर्गों को वीरता के ऐक सूत्र में बाँधने की दिशा में गुरु गोबिन्द सिहं का योगदान अदिूतीय था।
अपने ही देश में आपसी असहयोग और अदूरदर्शता के कारण हिन्दू बेघर और गुलाम होते रहै हैं। विश्व गुरु कहलाने वाले देश के लिये यह शर्म की बात है कि समस्त विश्व में अकेला भारत ही ऐक देश है जो हजार वर्ष तक निरन्तर गुलाम रहा था। गुलामी भरी मानसिक्ता आज भी हमारे खून मे समाई हुयी है जिस कारण हम अपने पूर्व-गौरव को अब भी पहचान नहीं सकते। 
खालसा का जन्म
मुगल बादशाह औरंगजेब ने भारत के इस्लामी करण की गतिविधियाँ तीव्र कर दीं थी। औरंगजेब को उस के सलाहकारों ने आभास करवा दिया गया था कि यदि ब्राह्मण धर्म परिवर्तन कर के मुस्लमान हो जायें गे तो बाकी हिन्दू समाज भी उन का अनुसरण करे गा। अतः औरंगजेब के अत्याचारों का मुख्य लक्ष्य हिन्दू समाज के अग्रज ब्राह्मण थे।
कशमीर के विक्षिप्त ब्राह्मणों ने गुरु तेग़ बहादुर से संरक्षण की प्रार्थना की। गुरु तेग़ बहादुर अपने स्पुत्र गोविन्द राय को उत्तराधिकारी नियुक्त कर के औरंगजेब से मिलने दिल्ली पहुँचे किन्तु औरंगजेब ने उन्हे उन के शिष्यों समेत बन्दी बना कर उन्हें अमानवी यातनायें दीं और  गुरु तेग़बहादुर का शीश दिल्ली के चाँदनी चौक में कटवा दिया था। 
पिता की शहादत का समाचार युवा गुरु गोविन्द राय के पास पहुँचा। उन्हों ने 30 मार्च 1699 को आनन्दपुर साहिब में ऐक सम्मेलन किया और अपने शिष्यों की आत्मा को झंझोड कर धर्म रक्षा के लिये प्ररेरित किया। जन सभा में अपनी तलवार निकाल कर उन्हों ने धर्म-रक्षार्थ बलि देने के लिये ऐक शीश की माँग की। थोडे कौहतूल के पश्चात ऐक वीर उठा जिसे गुरु जी बलि देने के लिये ऐक तम्बू के भीतर ले गये। थोडे समय पश्चात खून से सनी तलवार हाथ में ले कर गुरु जी वापिस आये और संगत से ऐक और सिर बलि के लिये माँगा। उसी प्रकार बलि देने के लिये गुरु जी पाँच युवाओं को ऐक के बाद ऐक तम्बू के भीतर ले गये और हर बार रक्त से सनी हुई नंगी तलवार ले कर वापिस लौटे। संगत में भय, हडकम्प और असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गय़ी और लोग डर के इधर उधर खिसकने लगे। तब अचानक श्वेत वस्त्र पहने पाँचों युवाओं के साथ गुरु जी तम्बू से बाहर निकल आये।
जनसभा में गुरू जी ने पाँचो वीरों को ‘अमृत छका कर’ अपना शिष्य घोषित किया और उन्हे ‘खालसा’ (पवित्र) की उपाधि प्रदान कर के कहा कि प्रतीक स्वरूप पाँचों शिष्य उन के विशेष अग्रज प्रियजन हों गे। तब उन नव खालसों को कहा कि वह अपने गुरु को भी ‘अमृत छका कर’ खालसा समुदाय में सम्मिलित कर लें। इस प्रकार ‘खालसा-पँथ’ का जन्म हुआ था। आज भी प्रतीक स्वरूप सिखों के धार्मिक जलूसों की अगुवाई ‘पाँच-प्यारे’ ही करते हैं।
व्यवसाय की श्रेणी से उऩ पाँच युवकों में ऐक क्षत्रिय जाति का दुकानदार था, ऐक जाट कृष्क, ऐक छिम्बा धोबी, ऐक कुम्हार, तथा ऐक नाई था किन्तु गुरु जी ने व्यवसायिक जाति की सीमाओं को तोड कर उन्हें ‘धार्मिक ऐकता’ के सूत्र में बाँध दिया और आदेश दिया कि वह अपने नाम के साथ ‘सिहँ’ (सिंघ) जोडें। उन्हें किसी का ‘दास’ कहलाने की जरूरत नहीं। गुरु गोविन्द राय ने भी अपना नाम गोबिन्द सिंहँ रख लिया। महिलाओं के योगदान को महत्व देते हुये उन्हों ने आदेश दिया कि सभी स्त्रियाँ अपने नाम के पीछे राजकीय सम्मान का सूचक ‘कौर’ (कुँवर) शब्द लगायें। दीनता और दासता की अवस्था में गिरे पडे हिन्दू समाज को इस प्रकार के मनोबल की अत्यन्त आवशयक्ता थी जो गुरु जी ने अपने मार्ग दर्शन से प्रदान की। 
दूरदर्शता और प्रेरणा के प्रतीक गुरु गोबिन्द सिहँ ने अपने नव निर्मित शिष्यों को ऐक विशिष्ट ‘पहचान’ भी प्रदान की ताकि उन का कोई भी खालसा शिष्य जोखिम के सामने कायर बन कर धर्म और शरणागत की रक्षा के कर्तव्य से अपने आप को छिपा ना सके और अपने आप चुनौती स्वीकार करे। अतः खालसा की पहचान के लिये उन्हें पाँच प्रतीक ‘चिन्ह’ धारण करने का आदेश भी दिया था। सभी चिन्ह ‘क’ अक्षर से आरम्भ होते हैं जैसे कि केश, कँघा, कछहरा, कृपाण, और कडा। इन सब का महत्व था। वैरागियों की भान्ति मुण्डे सिरों के बदले अपने शिष्यों को राजसी वीरों की तरह केश रखने का आदेश दिया, स्वच्छता के लिये कँघा, घोडों पर आसानी से सवारी कर के युद्ध करने के लिये कछहरा (ब्रीचिस), कृपाण (तलवार) और अपने साथियों की पहचान करने के लिये दाहिने हाथ में फौलाद का मोटा कडा पहनने का आदेश दिया।
हिन्दू समुदाय को जुझारू वीरता से जीने की प्ररेणा का श्रेय दसवें गुरु गोबिन्द सिहँ को जाता है। केवल भक्ति मार्ग अपना कर पलायनवाद की जगह उन्हें ‘संत-सिपाही’ की छवि में परिवर्तित कर के कर्मयोग का मार्ग अपनाने को लिये प्रोत्साहित किया। अतः उत्तरी भारत में सिख समुदाय धर्म रक्षकों के रूप में उभर कर मुस्लिम जुल्म के सामने चुनौती बन कर खडा हो गया।
इस्लामी शासन का अंत
औरंगज़ेब की मृत्यु के पश्चात भारत में  कोई शक्तिशाली केन्द्रीय शासक नही रहा था। मुगलों में उत्तराधिकार का युद्ध लगभग 150 वर्ष तक चलता रहा। थोडे थोडे समय के लिये कई निकम्मे बादशाह आये और आपसी षटयन्त्रों के कारण चलते बने। दक्षिण तथा पूर्वी भारत योरुपीय उपनेष्वादी सशक्त व्यापारिक कम्पनियों के आधीन होता चला गया। कई मुगलिया सामन्त और सैनानायक स्वयं सुलतान बन बैठे और उपनेष्वादी योरुपियन कम्पनियों के हाथों कठपुतलियों की तरह ऐक दूसरे को समाप्त करते रहै। ऐकता, वीरता तथा देश भक्ति का सर्वत्र अभाव था। मकबरों, हरमों, तथा वैशियाओं के कोठों के साये मे बैठ कर तीतर बटेर लडवाना और फिर उन्हें भून कर खा जाना शासकों की की दिनचर्या बन चुकी थी। असुरक्षा, अशिक्षता, गरीबी, अज्ञान, अकाल, महामारियों की भरमार हो गयी और ‘सोने की चिडिया’ कहलाने वाला भारत मुस्लिम शासन के फलस्वरूप सपेरों और लुटेरो के देश की छवि ग्रहण करता गया।
इसी बीच ईरान से नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली जैसे लुटेरों ने भारत आकर बची खुची धन सम्पदा लूटी और हिन्दूओं का कत्लेआम करवाया। हिन्दुस्तान का संरक्षक कोई नहीं था। मुगल शासन केवल लालकिले की चार दिवारी में ही सिमट चुका था अन्य सर्वत्र जगह अन्धकार था। भारत जिस की लाठी उस की भैंस के सिद्धान्त पर चलने लग पडा था। 
हिन्दू मुस्लिम साँझी संस्कृति का भ्रम 
इस्लाम से पूर्व जो कोई भी मानव समुदाय बाहर से आये थे, भारत वासियों ने उन सभी का सत्कार किया था, और उन के साथ ज्ञान, विज्ञान, कला दार्शनिकता का आदान प्रदान भी किया। कालान्तर वह सभी भारतीय संस्कृति से घुल मिल गये। उन सभी ने भारत को अपना देश माना। मुसलमानों की दशा इस से भिन्न थी। प्रथम तो वह स्थानीय लोगों के साथ मिल जुल कर रहने के लिये नहीं आये थे बल्कि वह भारत में आक्रान्ताओं और लुटेरों की तरह आये। उन का स्पष्ट और पूर्व घोषित मुख्य उद्देश काफिरों को समाप्त कर के इस्लामी राज्य कायम करना था जिस के चारमुख्य आधार स्तम्भ थे ‘जिहाद’, ‘तलवार’, ‘गुलामी’ और ‘जज़िया’। उन का लक्ष्य था ‘स्वयं जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’।
भारत की स्वतन्त्र, ज्ञानवर्ती विचारधारा, तथा सत्य अहिंसा की सोचविचार के सामने इस्लामी कट्टरवाद, वैचारिक प्रतिबन्ध, तथा क्रूरतम हिंसा भारत के निवासियों के लिये पूर्णत्या नकारात्मिक थी। उन के साथ सम्बन्धों का होना अपने विध्वंस को न्योता देने के बराबर था। हिन्दू समाज का कोई भी कण मुस्लिम विचारधारा और जीवन शैली के अनुकूल नहीं था। अतः हिन्दू मुस्लिम विलय की प्रतिक्रिया का सम्पूर्ण अभाव दोनो तरफ निशचित था। वह भारत में सहयोग अथवा प्रयोग वश नहीं आये थे केवल उसे हथियाने लूटने और हिन्दू सभ्यता को बरबाद करने आये थे। लक्ष्य हिन्दूओं को मित्र बनाना नहीं था बल्कि उन्हें गुलाम, या मुस्लमान बनाना था या फिर उन्हें कत्ल करना था।
जब तक मुस्लमान अपनी विचारधारा और जीवन शैली का प्रचार विस्तार अपने जन्म स्थान अरब देशों तक सीमित रखते रहे हिन्दूओं को उन के साथ कोई आपत्ति या अवरोध नहीं था। किन्तु जब उन्हों ने अपना विधान भारत वासियों पर जबरन थोपना चाहा तो संघर्ष लाज़मी था। वह जियो और जीने दो में विशवास ही नहीं करते थे जो भारतीय परम्परा का मूल आधार है। इन कारणों से इस्लाम भारत में अस्वीकारनीय हो गया।हिन्दू मुस्लिम साँझी संस्कृति ऐक राजनैतिक छलावा या भ्रम से अधिक कुछ नहीं है जिस की तुलना आग और पैट्रोल से ही करी जा सकती है।

साभार : लेखक चाँद शर्मा जी http://hindumahasagar.wordpress.com

Wednesday, October 24, 2012

हिन्दू मान्यताओं का विनाश


‘जियो और जीने दो’ के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी स्थानीय भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये ‘धर्म’ सम्बन्धी ‘नियम’ बनाये थे। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं जिन का पालन करना सभी का ‘कर्तव्य’ है। जब भी किसी एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के क्षैत्र में घुस कर अपने समुदाय के नियम कायदे ज़बरदस्ती दूसरे समुदायों पर लागू करते थे तो लड़ाई झगडे भी होने स्वाभाविक थे।
असमानताओं का संघर्ष
भारत ना तो कोई निर्जन क्षेत्र था ना ही अविकसित या असभ्य देश था। इस्लामी लुटेरों की तुलना में भारतवासी सभ्य, सुशिक्षित और समृद्ध थे। मुस्लिम धर्म और हिन्दू धर्म में कोई समानता नहीं थी क्यों कि इस्लाम प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दू धर्म के विरुद्ध नकारात्मिक दृष्टिकोण पर आधिरित था। अतः हिन्दूओं ने मुसलमानों के आगे आत्मसम्पर्ण करने के बजाय उन के विरुद्ध अपना निजि ऐवं सामूहिक संघर्ष जारी रखा और अपने देश के ऊपर मुस्लिम अधिकार को आज तक भी स्वीकारा नहीं। असमानताओं के कारण संघर्ष का होना स्वाभाविक ही था।
इस्लाम से पूर्व हिन्दूस्तान में जो विदेशी धर्मों के लोग बाहर से आते रहै उन्हों ने यहाँ के नियम कायदों को स्वेच्छा से अपनाया था। वैचारिक आदान-प्रदान के अनुसार वह स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल चुके थे। मुस्लिम भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे। उन का विशवास ‘जियो और जीने दो’ में बिलकुल नहीं था। वह ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। विपरीत सोच के कारण वह भारत में घुल मिल नही सके।
समझने की बात है, अमेरिका में सभी वाहन सडक के दाहिनी ओर चलाये जाते हैं और उन की बनावट भी उसी प्रकार की है। इस के विपरीत भारत में सभी वाहन सडक के बाईं ओर चलते हैं और उन की स्टीरिंग भी इस के अनुकूल है। जब तक दोनो अपने अपने स्थानीय इलाकों में चलें गे तो कोई समस्या नहीं हो गी। लेकिन अगर वह अपने क्षेत्र से बाहर दूसरे क्षेत्र में जबरदस्ती चलाये जायें गे तो दुर्घटनायें भी अवश्य हों गी। यही नियम धर्म की व्यवस्थाओं पर भी लागू होता है। यदि कोई भी दो विपरीत धर्म अपनी अपनी भूगौलिक सीमाओं को जबरदस्ती लाँघ जाते हैं तो संघर्ष को टाला नहीं जा सकता। खूनी संघर्ष भारत की सीमाओं में प्रवेश कर चुका था लेकिन हिन्दू उस समय संगठित और सैनिक तौर पर तैय्यार नहीं थे। अतः ऐक के बाद ऐक हिन्दूओं की पहचान, मान मर्यादा और जीवित रहने की सुविधायें मिटनी शुरु हो गयीं।
हिन्दू गुलामों की मण्डियाँ
कत्लेआम में मरने के अतिरिक्त लाखों की संख्या में हिन्दू ‘लापता’ हो गये थे क्यों कि आक्रान्ताओं ने उन्हें ग़ुलाम बना कर भारत से बाहर ले जा कर बेच दिया। अरब, बग़दाद, समरकन्द आदि स्थानों में काफिरों की मण्डियां लगा करती थी जो हिन्दूओं से भरी रहती थी और वहाँ स्त्री पुरूषों को बेचा जाता था। उन से सभी तरह के अमानवी काम करवाये जाते थे। उन के जीवन का कोई अस्तीत्व नहीं होता था। काफिरों को चाबुक से मारना, हाथ पाँव तोड देना, काट देना, उन का यौन शोषण करना आदि तो प्रत्येक मुसलमान के दैनिक धार्मिक कर्तव्य माने जाते थे। यातनाओं से केवल वही थोडा बच सकते थे जो इस्लाम में परिवर्तित हो जाते थे। फिर उन को भी शेष हिन्दूओं पर मुस्लिम तरीके के अत्याचार करने का अधिकार प्राप्त हो जाता था। धर्म परिवर्तन से भारत में मुस्लमानों की संख्या बढने लगी थी। 
कई बन्दी तो भारत से बाहर जाते समय मार्ग में ही यातनाओं के कारण मर जाते थे। तैमूर जब ऐक लाख गुलामों को भारत से समरकन्द ले जा रहा था तो ऐक ही रात में अधिकतर लोग ‘हिन्दू-कोह’ पर्वत की बर्फीली चोटियों पर सर्दी से मर गये थे। इस घटना के बाद उस पर्वत का नाम ‘हिन्दूकुश’ (हिन्दूओं को मारने वाला) पड गया था।
मन्दिरों का विध्वंस
समय समय पर मुस्लमानों ने कई प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिरों को भ्रष्ट और ध्वस्त किया । गुजरात के तट पर स्थित सोमनाथ मन्दिर को लूटा गया तथा मूर्तियों को खण्डित कर दिया गया था। काशी में स्थित विष्णु मन्दिर को तोड कर वहाँ आलमगीर मस्जिद का निर्माण किया गया। अयोध्या स्थित त्रेता के ठाकुर (भगवान राम) के मन्दिर को तोड कर मन्दिर के मलबे से ही बाबरी मस्जिद बना दी गयी थी। मथुरा के कृष्ण मन्दिर में औरंगजेब ने गौ वध करवा कर पहले तो उसे भ्रष्ट करवाया और फिर वहाँ पर भी मस्जिद का निर्माण कर दिया गया। यह केवल कुछ मुख्य मन्दिरों की कहानी है जहाँ विध्वंस के प्रमाण आज भी देखे जा सकते हैं। इस के अतिरिक्त लगभग 63000 छोटे बडे पूजा स्थल समस्त भारत में तोडे और विकृत किये गये या मस्जिदों और मज़ारों में परिवर्तित किये गये थे।
कई हिन्दू मूल की भव्य इमारतों की पहचान इस्लामी कर दी गयी थी जैसे कि दिल्ली में महरोली स्थित ‘ध्रुव-स्तम्भ’ (कुतुब मीनार) तथा आगरा स्थित ‘ताजो-महालय’ (ताज महल)। उन स्थलों के हिन्दू भवन होने के व्यापक प्रमाण आज भी अपनी रिहाई की दुहाई दे रहे हैं।
विध्वंस के कुकर्मों में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब (1658-1707) का नाम सब से ऊपर आता है। उस के आदेशानुसार बरबाद किये गये पूजा स्थलों की गिनती करने के लिये चारों उंगलियों की आवशक्ता पडे गी। औरंगजेब केवल मन्दिरों को मस्जिदों में परिवर्तित करवा कर ही संतुष्ट नहीं रहा उस नें पूजा करने वालों का भी कत्ल करवाया जिस के उल्लेख इतिहास के पृष्टों और विश्व भर की वेब-साईटस पर देखे जा सकते हैं। औरंगजेब ने अपने बडे भाई दारा शिकोह को इस लिये कत्ल करवा दिया था क्यों कि वह उपनिष्दों की हिन्दू विचारधारा का समर्थन करता था।
ईस्लामीकरण का दौर
सर्वत्र इस्लाम फैलाने के प्रयत्न भारत में आठ शताब्दियों तक चलते रहे। नगरों के नाम बदले गये, पूजा स्थलों के स्वरूप बदले गये, तथा हिन्दूओं के विधान और इमान बदले गये। मन्दिरों और नगरों से ‘माले-ग़नीमत’ (लूटी हुयी सम्पत्ति) और ‘जज़िया’ के धन से मुस्लिम फकीरों को खैरात बटवाने इस्तेमाल किया जाता था। मुस्लिम शासकों ने जन साधारण के कल्याण के लिये कोई कार्य नहीं किया था। ‘माले-ग़नीमत’ से प्राप्त धन का व्यय लडाईयों, शासकों के ‘हरम’, महल, किले और मृतकों के लिये मकबरे बनवाने पर ही खर्च किया जाता था। अपनी विलासता के लिये सभी छोटे बडे शासकों ने अपहरण करी हुई सुन्दर स्त्रियों के ‘हरम’ पाल रखे थे।
बादशाह शाहजहाँ के ‘हरम’ में सात सौ से अधिक युवा स्त्रियाँ थी। उन के अतिरिक्त उस के अनैतिक यौन सम्बन्ध कई निकटत्म सम्बन्धियों की पत्नियों के साथ भी थे। यहीं बस नहीं – उस के ‘नाजायज-सम्बन्ध’ उस की अपनी ज्येष्ट पुत्री जहाँनआरा के साथ भी इतिहास के पृष्टों पर उल्लेखित हैं। अपने लिये कितने ही महल और किले बनवाने के अतिरिक्त शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज़ महल के लिये अपने ‘प्रेम के प्रतीक स्वरूप’ ताजमहल का ‘निर्माण’ करवाया था। इन तथ्यो का अन्य पहलू भी है जिस के अनुसार ताज महल को मूलतः हिन्दू मन्दिर ताजो महालय बताया जाता है जिसे शाहजहाँ ने जयपुर नरेश मिर्ज़ा राजा जयसिहं से छीन कर मकबरे में परिवर्तित करवा दिया था। इस विवादस्पद तथ्य के पक्ष में ताजमहल की शिल्पकला के प्रमाणों के अतिरिक्त शाहजहाँ की जीवनी तथा गेजेट ‘बादशाहनामा’ से भी मिलते हैं और यह ऐक निष्पक्ष जाँच का विषय है। मुमताज महल (अरज़ुमन्द बानो) की मृत्यु बुरहानपुर (महाराष्ट्र) में हुई थी जहाँ उसे दफनाया गया था। जब ताजमहल ‘तैय्यार’ हुआ तो उस की सडी गली हड्डियो को निकाल कर पुनः ताज महल में दफनाया गया था।
हिन्दूओं की बचाव नीति
मुस्लिम काल में धर्म निष्ठ रह कर जीवन काटने के लिये हिन्दूओं को बहुत बडी कीमत चुकानी पडी थी। यद्यपि कई हिन्दू राजाओं ने अपनी आस्थाओं पर अडिग रह कर मुस्लमानों से संघर्ष जारी रखा किन्तु वह संगठित नहीं हो सके और इसी कारण प्रभावशाली भी नहीं हो सके। अधिकतर हिन्दू शासक अपने परम्परागत नैतिक नियमों के बन्धन में रह कर युद्ध कर के मर जाना सम्मान जनक समझते थे। दुर्भाग्य से वह देश और धर्म के लिये ‘जीना’ नहीं जानते थे। उन के विपरीत मुस्लिम जीने के लिये नैतिकता का त्याग कर के छल और नरसंहार करते थे। जरूरत पडने पर वह गद्दार हिन्दूओं की चापलूसी भी करते थे, शरण देने वाले की पीठ में खंजर घोंपने से गरेज नहीं करते थे और इन्हीं चालों से विजयी हो जाते थे। राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाना उन की मुख्य रण निति थी। 
हिन्दूओं की बचाव नीति
अपनी धन सम्पत्ति, माताओं, बहनों, पत्नियों तथा परिवार के अन्य जनों को अत्याचार, बलात्कार, अपहरण तथा मृत्यु से बचाने के लिये उन्हे असाहनीय स्थितियों के साथ निर्वाह करना पडता था। कई विकल्प प्रगट होने लगे जो इस प्रकार हैः-
पलायनवाद - बचाव का ऐक पक्ष ‘पलायनवाद’ के रुप में उजागर हुआ। ब्राह्मणो, संतों, कवियों तथा बुद्धि जीवियों ने अपने आप को मुस्लमानों का ‘दास’ कहलवाने के बजाये हिन्दू धर्म के किसी देवी-देवता का ‘दास’ बन जाना स्वीकारना आरम्भ कर दिया। उन्हों ने आपने नाम के साथ ‘आचार्य’ आदि की उपाधि त्याग कर दास कहलवाना शुरु कर दिया। अतः उन का नामकरण रामदास, कृष्णदास, तुलसीदास आदि हो गया तथा ‘कर्मयोग’ को त्याग कर मन की शान्ति और तन की सुरक्षा के लिये वह ‘भक्तियोग’ पर आश्रित हो गये। 
हिन्दू मुस्लिम भाईचारे का प्रचार - निरन्तर भय और असुरक्षा के वातावरण में रहने के कारण कुछ नें राम और कृष्ण को महा मानवों के रुप में निहारा तो कबीर दास तथा गुरू नानक जैसे संतों ने परमात्मा की निराकार छवि का प्रचार किया। उन्हों ने ‘हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और भाईचारे’ का संदेश भी दिया किन्तु हिन्दू तो उन के अनुयायी बने, पर कोई मुस्लिम उन का अनुयायी नहीं बना। हिन्दूओं ने तो कबीर और साईं बाबा को सत्कार दिया परन्तु मुस्लिम उन से भी दूर ही रहै हैं। कालान्तर गुरुजनों के शिष्यों नें हिन्दू समाज के अन्दर अपनी विशिष्ट पहचान बना कर कई उप-मत बना लिये और कुछ रीति रिवाजों का भी विकेन्द्रीयकरण कर दिया। फिर भी वह सभी मुख्य हिन्दू विचारधारा से जुडे रहे। वह सभी मुस्लिमों को प्रभावित करने में विफल रहै।
वंशावली पंजीकरण की प्रथा
इसी बचावी क्रम में ब्राह्मण वर्ग भूगौलिक क्षेत्रों के आधार पर अपने अपने यजमानों से साम्प्रिक्त हो गया। उन्हों अपने अपने भूगौलिक विभाग के जन्म मरण के आँकडे ऐकत्रित करने शुरु कर दिये। इस क्रिया के मुख्य केन्द्र कुम्भ स्थलों पर थे जैसे कि काशी, हरिदूवार, प्रयाग और ऩाशिक। आज भी हिन्दू परिवार जब तीर्थयात्रा करने उन स्थलों पर जाते हैं तो रेलवे स्टेशन पर ही विभागीय पुरोहित अपने अपने यजमानों को तलाश लेते हैं। क्षेत्रीय पुरोहितों के पास अपना कई पुरानी पीढियों पहले के पूर्वजों के नाम ढूंडे जा सकते हैं।
ऱिवाज था कि जब भी कोई परिवार तीर्थयात्रा पर जाये गा तो विभागीय पुरोहित के पास जा कर अपने परिवार के सभी जन्म, मरण, विवाह तथा अन्य मुख्य घटनाओं का ब्योरा दर्ज करवा कर उन की पोथी पर हस्ताक्षर या उंगूठे का निशान लगाये गा। पोथी से लगभग पाँच पीढी पूर्व की नामावली आज भी प्राप्त की जा सकती है। हिन्दूओं ने जो प्रावधान सैंकडों वर्ष पूव स्थापित किया था वैसा प्रबन्ध आधुनिक सरकारी केन्द्रों पर भी उपलब्द्ध नहीं है।
सौभाग्य की बात है कि कुछ स्थानों पर इन आलेखों का कम्प्यूटरीकरण भी किया जा रहा है किन्तु युवा पीढी की उदासीनता के कारण पुरोहितों को आर्थिक आभाव भी है। उन की युवा पीढी इस व्यवसाय के प्रति अस्वस्थ नहीं रही। हो सकता है कुछ काल पश्चात यह सक्षम प्रथा भी इतिहास के पन्नों पर ही सिमिट कर रह जाये। 
कुछ हिन्दू निष्ठावानों ने भृगु संहिता जैसे ग्रन्थों को छिपा कर नष्ट होने से बचा लिया था। भृगु संहिता सभी प्रकार की जन्मकुणडलियों का बृहदृ संकलन है जो गणित की दृष्टि से सम्भव हो सकती हैं। इन का प्रयोग कुण्डली से मेल खाने वाले व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का पू्र्वानुमान लगाने के लिये किया जाता है। यह ग्रंथ विक्षिप्त अवस्था में आज भी उपलब्द्ध है तथा उत्तरी भारत के कई परिवारों के पास इस के कुछ अंश हैँ। जिस किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली और जन्म स्थान ग्रन्थ के किसी पृष्ट से मिल जाता है तो उस के जीवन की अगली पिछली घटनाओं की व्याख्या कर दी जाती है जो अधिकतर लोगों को सच्ची जान पडती है।
जैसे तैसे अधिकाँश हिन्दू मर मर कर अपने लिये जीने का प्रवधान ही तालाशते रहै क्यों की उन में संगठन का सर्वत्र आभाव था और नकारात्मिक उदासीनता ने उन्हें ग्रस्त कर लिया था। लेकिन फिर भी जब जब सम्भव हुआ हिन्दों ने अपने धर्म की खातिर मुस्लिम शासन का सक्ष्मता से विरोध भी जारी रखा मगर ऐकता ना होने के कारण असफल रहै।
साभार : श्री चाँद शर्मा जी, http://hindumahasagar.wordpress.com

Tuesday, October 23, 2012

देसी खोजों ने भी चुनौती दी है विदेशी खोजों को


टेक्नॉलजी के मामले में बेशक पश्चिम का दबदबा रहा है, लेकिन देसी खोज और इनोवेशन के बल पर हम भी उन्हें कड़ी चुनौती देते रहते हैं। यहां पेश हैं तीन ऐसी देसी खोज, जिनसे न केवल हमारी सहूलियतें बढ़ी हैं, बल्कि इन्होंने तकनीकी ज्ञान के मोर्चे पर भारत का हौसला भी बढ़ाया है:
'गगन' से ऊंची उड़ान
क्या है गगन: यह जीपीएस से लैस जियो ऑग्मेंटेड नेविगेशन सिस्टम है, जो अगले साल जुलाई में आ रहा है। यह एयर ऐक्टिविटी पर ज्यादा बेहतर तरीके से नजर रख पाता है। इस सिस्टम की बदौलत तकनीक के मोर्चे पर भारत यूएस, ईयू और जापान जैसे देशों के एलीट क्लब में शामिल हो गया है।
क्या हैं फायदे: गगन इंडियन एविएशन सेक्टर के लिए क्रांतिकारी साबित हो सकता है क्योंकि यह एयर फ्यूल कॉस्ट में 20 पर्सेंट तक की कमी ला सकता है। यह सिस्टम एयरक्राफ्ट की ऊंचाई का तेजी से पता लगाकर उसे सीधा और आसान रूट बता देता है, जिससे फ्यूल की खपत कम हो जाती है। जाहिर है, जब एयरलाइंस के रेवेन्यू का 50 फीसदी तक हिस्सा फ्यूल कॉस्ट की भेंट चढ़ जाता है, तो यह सिस्टम खास हो ही जाता है। वैसे, इसका इस्तेमाल सर्वे और मैपिंग, खेती, ट्रांसपोर्ट और माइनिंग के क्षेत्र भी किया जा सकेगा।
तो उबर जातीं एयरलाइंस कंपनियां: अगर गगन टेक्नॉलजी पहले आ गई होती तो फ्यूल कॉस्ट में 20 पर्सेंट बचत से 'चमत्कार' हो सकता था। 2011-12 के आंकड़े के आधार पर अगर देखें, तो गगन के इस्तेमाल से जेट एयरवेज अपने 1236 करोड़ रुपये के घाटे को 90 करोड़ रुपये के प्रॉफिट में बदल सकता था। इसी तरह स्पाइस जेट अपने 605 करोड़ रुपये के घाटे में से 439 करोड़ का घाटा पाट सकता था। जबकि अपना लाइसेंस तक खो चुके किंगफिशर एयरलाइंस के 651 करोड़ रुपये में से 589 करोड़ रुपये का घाटा कम हो जाता।
'गूगल अर्थ' को टक्कर देने आया 'भुवन'
क्या है भुवन: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने भुवन नाम से अपना सैटलाइट आधारित 3डी मैपिंग या इमेजरी ऐप्लिकेशन अगस्त, 2009 में लॉन्च किया था। भुवन अपने यूजर्स को गूगल अर्थ की तुलना में ज्यादा नजदीकी सैटलाइट डेटा मुहैया करता है। इसके फीचर्स गूगल से ज्यादा अडवांस्ड हैं। जहां गूगल अर्थ 200 मीटर तक और विकीमैपिया 50 मीटर नजदीक तक के डिटेल ही दिखाता है, वहीं देसी भुवन 10 मीटर नजदीक तक के इमेज दिखाने में सक्षम है। खास बात यह कि भुवन पोर्टल को स्लो इंटरनेट कनेक्शन पर भी काम करने लायक डिजाइन किया गया है।
और भी हैं फायदे: भुवन कई अन्य फीचर्स से भी लैस है, जिसमें मौसम की सूचना और भारत के सभी राज्यों और जिलों की प्रशासनिक सीमा की जानकारी देना शामिल है। हालांकि भुवन पूरे ग्लोब की इमेज मुहैया कराने में सक्षम है, लेकिन अभी इसका रिज़ॉल्यूशन भारत के लिए बेहद उपयोगी है।
अब 'भुवन चंद्र भूमि' भी: भुवन का अगला वर्जन 'भुवन चंद्र भूमि' होगा, जिसमें धरती के अलावा चांद की भी मैपिंग होगी।
वीजा, मास्टर कार्ड से मुकाबला करेगा रूपे
रूपे क्या है: क्रेडिट और डेबिट कार्ड पेमेंट पर एकाधिकार जमाए हुए वीजा और मास्टर कार्ड को हमारे 'रूपे' से कड़ी चुनौती मिलेगी। रूपे अपनी तरह का पहला स्वदेशी पेमेंट गेटवे है, जिसे नैशनल पेमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआई) ने तैयार किया है। हालांकि अभी यह डिवेलपमेंट के दूसरे स्टेज में है। अगले साल मार्च तक रूपे इंटरनैशनल डेबिट कार्ड और फिर मार्च, 2015 तक रूपे क्रेडिट कार्ड लॉन्च करने की तैयारी है।
चार बैंक हुए शामिल: अभी दो लाख रूपे एटीएम बाजार में हैं। चार बैंक- यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ इंडिया, एसबीआई और एक्सिस बैंक ने रूपे डेबिट कार्ड नेटवर्क को जॉइन किया है। आईसीआईसीआई और एचडीएफसी बैंक भी जल्द ही रूपे नेटवर्क में शामिल हो जाएंगे।
बैंकों का भी होगा फायदा: रूपे गेटवे का लाभ बैंकों को भी मिलेगा क्योंकि यह उनके लिए किफायती होगा। मसलन, रूपे नेटवर्क पर 1800 रुपये के कस्टमर ट्रांजेक्शन पर बैंक को करीब 1.50 रुपये ही चुकाना पड़ता है जबकि मास्टर और वीजा कार्ड पर उन्हें 2.80 रुपये देने पड़ते हैं। फिर इस नेटवर्क में शामिल होने के लिए बैंकों को किसी तरह की एंट्री फीस भी नहीं देनी पड़ती।
साभार-नवभारत टाईम्स से, http://www.hindimedia.in

भारत के बाहर इन देशों में जीवित है भारतीय संस्कृति

अपने देश की सीमाओं के भीतर आप कहीं भी चले जाएं, भाषा और जलवायु की भिन्नता के बावजूद भावनात्मक एकता और अपनेपन के जज्बे के कारण सब कुछ अपना-सा ही लगता है। यह अपनापन किसी जगह के प्रति जुड़ाव तो पैदा करता है, पर एक खास तरह के कुतूहल और रोमांच से आपकोवंचित भी कर देता है। यही वजह है जो देश की सीमाओं को पार करने की ललक हर श़ख्स के मन में बनी रहती है।
दूसरी तरफ अपने देश की सीमाएं पार करने के बाद थोड़ी देर तक तो आप एक नए तरह की दुनिया देखने के रोमांच से पुलकित रहते हैं, पर बाद में आपको फिर वही सारी चीजें याद आने लगती हैं, जिन्हें पीछे छोड़कर आप आए होते हैं। यही वजह है जो विदेश घूमना सिर्फ थोड़े दिनों के लिए ही ठीक समझा जाता है। हालांकि अब पर्यटन के लिए लोगों के बढ़ते शौक और इसमें आई व्यावसायिकता के कारण अपने देश के व्यंजन और सुविधाएं तो हर जगह मिल जाती हैं, पर अपना सांस्कृतिक ताना-बाना तो कहीं और नहीं मिल सकता है। न तो उस धरती पर आपको अपनों का प्यार मिलता है, न वह सहयोग और न ही ऐसी निश्ंिचतता पाने की उम्मीद आप कर सकते हैं।
लेकिन नहीं, ऐसा भी नहीं है कि भारत के बाहर आपको हर तरफ अनजानी-अजनबी दुनिया ही मिले। दुनिया में कुछ ऐसे देश भी हैं जहां आपको देश से बाहर होने का एहसास तक नहीं होगा। भारत के बाहर होते हुए भी सब कुछ आपको अपना-सा लगेगा। भाषा, खानपान, धार्मिक रीति-रिवाज और यहां तक कि संस्कार भी बिलकुल भारतीय। कुछ देश तो ऐसे भी हैं जहां कुछ दिन घूमने के बाद आप भारतीय संस्कृति से ऐसे अभिभूत हो जाएंगे जैसे आप भारत में रहते हुए भी नहीं हो सके होंगे।
मंदिरों में बजते घंटे, खानपान के तौर-तरीके और पारंपरिक भारतीय वेशभूषा देखकर तो आपको ऐसा लगेगा जैसे असली भारत अब यहीं आ गया हो। अपना देश अब जिस तरह पश्चिमी रंग में रंगता जा रहा है, उससे तुलना करने पर तो ऐसा लगेगा कि क्यों न अपनी संस्कृति से जुड़ाव को और गहरा तथा जीवंत करने के लिए हम शताब्दियों पहले अपने इन बिछुड़ गए भाई-बहनों से प्रेरणा लें।
जी हां, ये हमारे अपने बिछुड़े हुए लोग ही हैं जिन्होंने भारत से बाहर जाकर अपने ढंग से एक अलग भारत बसाया है। इनमें कुछ रोजी-रोटी की तलाश में खुद-ब-खुद गए हैं तो कुछ को अंग्रेजी शासनकाल के दौरान गिरमिटिया मजदूर के तौर पर जबरिया ले जाया गया है। दुर्गम और अत्यंत असुविधाजनक जगहों पर जाकर उन्होंने अपनी मेहनत से संपन्नता और सुविधाओं का जो स्वर्ग सजाया, उसने उन्हें सब कुछ दे दिया। वे मजदूर से मालिक तो बन गए, पर इस क्रम में भी उनके लिए बहुत कुछ बाकी रह गया। वे लगातार यह महसूस करते रहे कि उन्होंने अपना देश खोया है और खोई है उसकी संस्कृति। हालांकि परदेस के भयावह अंधकार में जो इकलौती रोशनी उन्हें मिलती रही, वह भी अपने देश की संस्कृति के दिए से ही मिल रही थी। लिहाजा मौका मिलते ही उन्होंने अपने उन संस्कारों-प्रतीकों को नई गति दी, जिसके नतीजे सबके सामने हैं।
कुछ जगहों पर हमारी संस्कृति इसलिए पहुंची कि वहां के लोगों को इसने आकर्षित किया। उन्होंने अपनी तमाम समस्याओं से मुक्ति और बेहतर जीवन शैली की ओर जाने का मार्ग भारत की संस्कृति और सभ्यता में देखा। इस तरह इसकी जड़ें दुनिया के अनेक देशों में अत्यंत गहरे तक जमती चली गई।

बदलते हुए वैश्विक परिदृश्य में वैसे तो भारतीयों का बोलबाला पूरी दुनिया में है। भारतीय ध्यान और योग की लहर से आज एशिया, यूरोप और अमेरिका के अलावा अन्य देश भी प्रभावित हैं। प्राच्य विद्याओं के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है। इन्हीं सबके साथ बढ़ रही है भारतीयों के प्रति स्नेह और सहयोग की भावना। पर कुछ देश ऐसे भी हैं जो भारत और भारतीयों के प्रति स्नेह-सम्मान की भावना कई पीढि़यों से अपने भीतर बसाए हुए हैं। उनका यह भाव दिखाई देता है उनकी पूरी जीवन शैली और उनके संस्कारों में।
मारीशस: भारत के नाम पर धड़कती जिंदगी

भारतभूमि से बहुत दूर होने के बावजूद भारतीय संस्कृति जहां पूरी तरह मूर्तमान है, उन देशों की चर्चा के क्रम में सबसे पहला नाम मॉरीशस का आता है। भारतीयता के प्रबल प्रतीक मॉरीशस में एयरपोर्ट पर उतरने से लेकर वहां के विभिन्न कार्यक्रमों में भागीदारी के बीच कहीं भी और कभी भी हमें यह महसूस नहीं हुआ कि हम अफ्रीका के दक्षिणी-पूर्वी छोर पर बसे एक छोटे-से द्वीप पर मौजूद हैं, बल्कि हर कदम पर यही लगा कि यह भारत का ही कोई हिस्सा है। मॉरीशस पर लंबे अरसे तक फ्रांस का आधिपत्य रहा है, अत: यहां अंग्रेजी और फ्रेंच के अलावा क्रियोल भाषाएं चलन में हैं। हिंदी और भोजपुरी का भी यहां जबर्दस्त वर्चस्व है। यहां के कुछ लोग हिंदी में आपका जवाब भले न दे सकें, पर आप कहना क्या चाहते हैं, यह वे समझते हैं।
भारतीय मूल के लोगों का तो कहना ही क्या!

यहां मंदिरों में विधि-विधान के साथ पूजा-पाठ होता है। पंडित-पुरोहित विविध संस्कारों को अत्यंत शुद्धता के साथ संपन्न कराते दिखते हैं। भारतीय मूल के लोग अपने तीज-त्योहारों के मामले में आज भी सभी परंपराओं का निर्वाह करते हैं। दक्षिण भारतीय समुदाय के लोग यहां मकर संक्रांति के अवसर पर पड़ने वाले ‘पोंगल’ को पूरे उत्साह के साथ मनाते हैं। पूरे तीन दिन तक चलने वाले उत्सव में यहां भी उन सभी रीति-रिवाजों का निर्वाह होता है, जिनका निर्वहन भारत में किया जाता है।
इतिहास में रुचि रखने वाले लोग जानते हैं कि भारत में जब अंगे्रजों और फ्रांसीसियों के बीच संघर्ष चल रहा था, तब अपनी स्थिति बेहतर बनाने के लिए अंगे्रजों की नजर मॉरीशस पर गई। उन्होंने मॉरीशस पर आक्रमण किया और इसे फ्रांसीसियों से छीन लिया। फ्रांसीसियों ने हारकर सत्ता तो अंगे्रजों के हवाले कर दी, पर अपनी सांस्कृतिक शक्ति को बचाए रखा। उन्होंने यहां के भारतीयों के साथ हिंदी व फ्रेंच को मिलाकर नई बोली का आविर्भाव किया, उसे ही अब क्रियोल के नाम से जानते हैं। भारतीय संस्कृति को पुष्पित-पल्लवित होने देने में फ्रांसीसियों ने परोक्ष योगदान किया। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व जब भारतीय यहां पहुंचे, तो उन्होंने इसे ‘मारीच देश’ कहा था। रामायण की अनुगूंज आज भी यहां भारतीयों की आस्था का जबर्दस्त सेतु है। श्रीरामचरित मानस की चौपाइयां यहां कष्ट में फंसे लोगों के लिए संजीवनी बूटी का काम करती हैं। भारत में निर्मित होने वाले धार्मिक टेलीविजन कार्यक्रमों का बड़ा दर्शक वर्ग मॉरीशस में है। यहां भारतीय विषयों पर न सिर्फ गांव और गलियों के नाम रखे गए हैं, अपितु सिनेमाघरों, दुकानों, बसों तक के नाम नालंदा, सूर्यवंशी, बनारस, सम्राट अशोक तथा अजंता आदि रखे जाते हैं।
भारतीय सांस्कृतिक संदर्भो में यहां डाक टिकट भी जब-तब निकलते रहे हैं। घरों की बनावट में भी भारतीय वास्तुकला का पूरा ध्यान रखा जाता है। मार्क ट्वेन जैसे लेखक को मॉरीशस यात्रा के दौरान यह कहना पड़ा कि भगवान ने पहले मॉरीशस बनाया होगा, फिर उसकी नकल पर स्वर्ग का निर्माण किया होगा। पर इस बंजर भूमि को स्वर्ग बनाने वाले उन महान भारतीयों को कभी भुलाया नहीं जा सकता जिन्होंने खुद की आहुति देकर अपने मूल्यों को बचाए रखा। तमाम प्रलोभनों-प्रतिबंधों के बावजूद चोरी-चोरी अपनी भाषा, संस्कृति व धर्म से जुडे़ रहे। तब भारतीयों को अपनी भाषा में अभिव्यक्ति की आजादी इसलिए नहीं थी क्योंकि अंग्रेज डरते थे कि वे उनके विरुद्ध कोई षड्यंत्र न कर बैठें। उन्हें रामायण व लोकगीत गाने से इसलिए रोका जाता था कि कहीं उनके बीच विद्रोह की चिंगारी न पनप जाए। फिर भी भारतीय स्ति्रयों ने कोयले के टुकड़ों से अंगीठी की रोशनी में अपने बच्चों को अक्षरों का बोध कराया। आंगन में हनुमान जी तथा गांवों के नुक्कड़ पर काली माई की स्थापना कर विधर्मी शक्तियों से  प्रतिरोध का मौन अभिषेक किया।
मॉरीशस में आज भी हर भारतवंशी के आंगन में हनुमान जी के चबूतरे और लाल झंडियां सांस्कृतिक मूल्यों के विजय की लघुपताकाएं बनकर लहरा रही हैं। भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब समूची जीवन शैली में साफ दिखता है। चाहे गोदभराई की रस्म हो या बच्चों के जन्म पर नामकरण संस्कार, सोहर व ललना गाने का चलन हो या उपनयन, बरछिया पद्धति हो या गृह-प्रवेश या फिर अंतिम यात्रा का क्षण सभी जगह भारतीय रीति-रिवाजों और परंपराओं का पूरी तन्मयता से पालन किया जाता है। हाईटेक होती संस्कृति के बीच शादी-विवाह के रंग-ढंग भले बदले हों, पर भोज आज भी केले के पत्तों पर पूड़ी व साग-सब्जी के साथ ही होता है। माटी कोड़ाई, इमली घोटाई, कंगना खिलाई, तिलक, हल्दी से लेकर अग्नि के भांवर आदि रस्मों का निर्वाह भारतीय संस्कृति और पद्धति के अनुरूप ही होता है। गांवों में बिरहा और हरपरौरी जैसे लोक गायन सुनने को मिलते हैं। मॉरीशस की युवा पीढ़ी फ्रेंच और अंग्रेजी गाने सुन तो लेती है, लेकिन गुनगुनाने के लिए उनकी प्राथमिकताएं हिंदी, भोजपुरी गीत और उर्दू गजलें ही हैं।
थाईलैंड: दिनचर्या में बसा भारत

थाईलैंड अथवा इसके पूर्व के स्यामवासियों के जीवन पर भारतीयता का गहरा प्रभाव रहा है। दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहासविद जानते हैं कि खोम साम्राज्य, जिसके अंतर्गत आज के कंबोडिया, मध्यवर्ती थाईलैंड तथा लाओस व वियतनाम के बहुत से भागों को शामिल किया जा सकता है, वैदिक मूल्यों तथा ब्राह्मणवाद से अत्यंत प्रभावित था। लगभग 1000 ई.पू. में दक्षिण थाईलैंड से श्री विछाया साम्राज्य, जिसके मुख्यालय छाया और सुमात्रा (अब इंडोनेशिया) थे, में बौद्ध धर्म के महायान मत का प्रभाव फैला। कुछ समय के लिए लोफूरी राज्य में भी महायान का बोलबाला रहा, परंतु उसके कुछ समय बाद संपूर्ण थाईलैंड में बौद्ध धर्म के दूसरे मत हीनयान का वर्चस्व कायम हो गया।
मूलत: भारत में जन्मा यही हीनयान आज थाईलैंड का राज्यधर्म भी है। इस प्रकार वैदिक तथा बौद्ध मान्यताओं की अंगुली थामे भारतीय संस्कृति हजारों वर्ष पूर्व थाईलैंड पहुंची थी। भारतीय संस्कृति ने वहां के परिवेश और उनके दिन-प्रतिदिन के व्यवहारों को इस तरह प्रभावित किया कि वह आज उनके जीवन का स्थायी भाव एवं दिनचर्या का महत्वपूर्ण अंग बन चुकी है।
यहां के 95 प्रतिशत नागरिक बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। यहां बौद्ध मंदिरों की खूबसूरती देखते ही बनती है। वहां की भाषा में इन मंदिरों को ‘वाट’ कहा जाता है। पूरे थाईलैंड में वाट यानी बौद्ध मंदिरों की संख्या 18 हजार से भी अधिक है। इन मंदिरों में विभिन्न प्रस्तरों वाली छतें बनाई जाती हैं। उनमें से कई मंदिरों के गुंबद स्वर्णमंडित हैं।
बौद्ध मान्यताओं का केंद्र बिंदु करुणा है और थाई जीवन पर इसका अमिट प्रभाव है। पंचशील, त्रिरत्न, कर्मसिद्धांत, गृहस्थी के लिए चार नियम, चार ब्रह्मविहार, समाज में एकता के लिए चार नियम, समस्त जीवन के लिए 38 नियम, इसी प्रकार शासक के लिए नियम या गुण, सम्राट के लिए नियम या गुण तथा मध्य मार्ग आदि इसके उदाहरण हैं। थाईलैंड के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति प्रीदी कासेमसप वहां ऑरिएंटल कल्चरल अकादमी (प्राच्य संस्कृति प्रतिष्ठान) चलाते हैं। महात्मा गांधी एवं गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर के चित्र उनके कक्ष में लगे हैं। उन्होंने बताया कि भारतीय संस्कृति के आधार स्तंभों, वेद, उपनिषद, गीता, पुराण तथा अन्य शास्त्रों के विधिवत अध्ययन के लिए अकादमी द्वारा चीनी व थाई भाषा के बाद संस्कृत भाषा का पाठ्यक्रम भी शुरू किया गया है।
थाईलैंड यात्रा में रामायण, श्रीराम तथा रामलीला से जुड़ी बहुत-सी बातें वहां जाने वाले को देखने को मिलती हैं। थाईलैंड की थम्मासाट यूनिवर्सिटी के इंडिया स्टडीज सेंटर की निदेशक प्रो. नोंगलुक्साना थिपासवासदी बताते हैं कि थाईलैंड में भी एक अयोध्या है। यही नहीं, यहां श्रीराम के पुत्र लव के नाम पर लवपुरी (लोपबुरी) भी है।
थाईलैंड के नागरिकों का यह गहरा विश्वास है किरामायण की कई घटनाएं उनके अपने देश में घटी थी। थाईलैंड की एक नदी का नाम भी सरयू है। दिलचस्प बात यह है कि भारत की तर्ज पर ही वहां भी सरयू अयोध्या के निकट ही बहती है। वस्तुत: थाईलैंड की सांस्कृतिक जीवनधारा श्रीराम की जीवनदृष्टि में पूर्णत: समाहित है।
भगवान बुद्ध के प्रभाव वाले इस देश में राम और बुद्ध के बीच कोई विभाजन रेखा दिखाई ही नहीं देती। इसका सबसे बड़ा प्रमाण बैंकाक स्थित शाही बुद्ध मंदिर है। जिसमें नीलम की मूर्ति है। यह मंदिर थाईलैंड के सुप्रसिद्ध मंदिरों में से एक है तथा दूर-दराज से श्रद्धालु यहां दर्शनार्थ आते हैं। इस मंदिर की दीवारों पर संपूर्ण रामकथा चित्रित है। यही नहीं, थाईलैंड की अपनी स्थानीय रामायण भी है। जिसे ‘रामकियेन’ के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के रचियता नरेश राम प्रथम थे। उल्लेखनीय है कि उन्हीं के वंशज आज भी थाईलैंड में शासक हैं। थाईलैंड के विश्व प्रसिद्ध नेशनल म्यूजियम में भी श्रीराम के दर्शन सुगमतापूर्वक किए जा सकते हैं। वहां खड़े धनुर्धारी राम की आकर्षक प्रतिमा आगंतुकों को मंत्रमुग्ध करती है। वहां प्रस्तुत होने वाले शास्त्रीय नृत्यों में भी राम कथा के अनेक प्रसंग प्रदर्शित किए जाते हैं। यहां रहने वाले भारतीय नागरिकों में भारतीय त्यौहारों के प्रति जितनी आस्था और विश्वास है, वह उनके आयोजनों के माध्यमों से साफ पता चलता है।
कंबोडिया: भगवान विष्णु का सबसे बड़ा मंदिर है अंगकोर वाट

विश्व में भगवान विष्णु का सर्वाधिक विशाल मंदिर ‘अंगकोर वाट’ कंबोडिया में ही है। यह भारत और कंबोडिया के सांस्कृतिक सौहार्द का प्रतीक है। विचार, संकल्पना और शैली में पूरी तरह भारतीय इस मंदिर के नियोजन व निर्माण का कार्य खमेर शिल्पियों ने किया था। यह मंदिर विश्व धरोहर होने के साथ-साथ करोड़ों लोगों की आस्था का भी केंद्र है। अंगकोर वाट मंदिर के जीर्णोद्धार व प्रबंधन का जिम्मा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पास है। इस मंदिर के दर्शन के लिए दुनिया भर से लाखों सैलानी हर साल आते हैं। इन्हें भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों को जानने और समझने का अवसर भी यहां मिलता है।
अंगकोर वाट मंदिर का निर्माण अंगकोर नरेश सूर्य बर्मन द्वितीय 1113-50 ने शुरू किया था। कंबोडिया में हिंदू राजवंश की स्थापना दूसरी शताब्दी में हो गई थी। हिंदू राजवंश की स्थापना यहां कौंडिन्य नामक भारतीय ब्राह्मण ने स्थानीय राजकुमारी से विवाह के बाद की थी। यहां भगवान बुद्ध, शिव और श्रीराम की मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हैं।
भगवान विष्णु के अंगकोर वाट के बाद कंबोडिया में श्रीराम वहां की लोक संस्कृति के नायक हैं। अंगकोर वाट में रामायण के कई प्रसंगों को सुंदर ढंग से दीवारों पर उकेरा गया है। इन प्रसंगों में सीता की अग्नि परीक्षा, अशोक वाटिका में हनुमान का आगमन, लंका में श्रीराम-रावण युद्ध, बाली-सुग्रीव युद्ध तथा रावण के दरबार में अंगद द्वारा पैर जमाने के दृश्यों की सजीवता देखते ही बनती है। कंबोडिया की रामायण को ‘रामकेर’ के नाम से जाना जाता है।
फिजी: भारत की धुनों पर थिरकता

फिजी में पहुंचे आप्रवासी भारतीयों ने न सिर्फ अपनी सभ्यता और संस्कृति को संरक्षित करके रखा, अपितु विविध क्षेत्रों में कामयाबी के परचम भी फहराए। मॉरीशस के बाद फिजी ही ऐसा देश है, जहां भारतीय मूल के नागरिक वहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था के सर्वोच्च पद ‘प्रधानमंत्री’ तक पहुंचे। फिजी में भारतीय और वहां के मिश्रित संगीत पर मौलिक धुनें जनमानस के व्यवहार का सामान्य हिस्सा हैं। भारतीय घरों में आरती और हनुमान चालीसा के पाठ आम तौर पर सुने जा सकते हैं। अन्य देशों की तरह भव्यता एवं वैभव की प्रतीक दीपावली यहां भी पूरी आस्था और निष्ठा से मनाई जाती है। इस त्यौहार को धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ सांप्रदायिक सौहार्द के रूप में भी मनाया जाता है।
फिजी में चलने वाले अनेक स्कूलों में भारतीय तौर-तरीकों से पढ़ाई की व्यवस्था है। भारत की कई आध्यात्मिक-सामाजिक संस्थाओं की वहां सक्रिय शाखाएं हैं। आर्य समाज का यहां के भारतीय जनजीवन में अभूतपूर्व योगदान है। आर्य समाज द्वारा संचालित संस्थाएं यहां की शैक्षिक गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। सन् 1904 से यहां आर्य समाज अपने विभिन्न आयोजनों द्वारा भारतीयता की अलख जगाए हुए है। वैदिक तौर-तरीकों से यहां के प्रत्येक संस्कार संपन्न किए जाते हैं। फिजी की कुल आबादी का 38 प्रतिशत भारतीय समुदाय है। फिजी में आप भारत के साक्षात दर्शन कर सकते हैं।
कैनेडा में भी है भारत की खुशबू

कैनेडा के कुछ हिस्से आने वाले समय में भारतीय संस्कृति के सहोदर बन जाएंगे, तीन पीढि़यों से वहां बसे भारतीय परिवारों का ऐसा मानना है। क्योंकि अब कैनेडा की शादियों में बारात के आगे घोड़ी पर न सही, लिमोजीन गाड़ी में बैठे दूल्हे के आगे ढोल-नगाड़ों पर भारतीय और कैनेडा के मूल फ्रेंच निवासियों को उसी शिद्दत से नाचते-गाते देखा जा सकता है। मक्के की रोटी और सरसों के साग और मिट्ठी लस्सी से अब वो उतने ही वाकिफ हैं जितने कि भंगड़े और गिद्दे नाच से।
कैनेडा में लगभग एक सदी से तमाम भारतीय

परिवार बसे हैं। तीन पीढि़यों से सरी में बसे हरनेक चांदी कहते हैं, ‘मेरे बाबा यहां 1960 में आए थे। जब शायद वीजा जैसी औपचारिकताएं भी नहीं होती थीं। एक कंपनी में नौकरी करते थे। उनसे कहा गया किसान परिवार से हो तो जितनी चाहो जमीन ले लो और खेती करो।’ शायद यहां जमीन के बदले मनुष्यों का अनुपात बहुत कम है। फिर देखते ही देखते 400 परिवार यहां पंजाब के जालंधर से आ बसे थे। आज यहां वे हर पर्व वैसे ही मिलकर मनाते हैं जैसे भारत में।
ये लोग शादी-ब्याह के समय वैसे ही चौक पूरते हैं। वैसे ही हाथ में घुंघरू बंधा डंडा लिए हर द्वार पर खड़काते हुए सिर पर रख कर जागो निकाली जाती है। भारत के पर्व भी जमकर मनाते हैं। चाहे बैसाखी हो या लोहड़ी, दीवाली हो या नवरात्र, त्योहारों के अवसर पर वहां भारतीय परिधानों के प्रति लोगों का प्रेम भी देखते ही बनता है। इसका जबर्दस्त उदाहरण है सरी शहर। इसकी सड़कों के किनारे भारतीय कपड़ों से सजी तमाम दुकानें दिखती हैं।
वैंकूवर के अकाली सिख टेंपल (यहां गुरुद्वारा को टेंपल कहते हैं) में हर तीज-त्योहार मनाया जाता है। घनी आबादी वाले व्यावसायिक शहर टोरंटो में भगवान राम, शिव, गणेश एवं मां काली के कई मंदिर हैं। कैनेडा के ब्रैंप्टन, मिसिसागा, मारकहम, नॉर्थ यॉर्क, ओकविले, रिचमंडहिल, स्केरबरो आदि कई शहरों में कई हिंदू मंदिर हैं।
इनमें सरी में ही स्थित जय दुर्गा देवस्थानम की अपनी अनूठी शान है। यहां मंदिरों में शनिवार, रविवार के दिन भारत से आए पुरोहित विधि-विधान से पूजा कराते हैं, व्याख्यान होते हैं, प्रचार होता है। लोग बच्चों के नामकरण, जन्मदिन, शादी-ब्याह की रस्में तथा अन्य संस्कार पूरी निष्ठा और विधि-विधान से कराते हैं। नवरात्रों में तो सारा वातावरण कृष्णमय से जाता है। गोपियों और कृष्ण की रासलीला का आनंद गरबे के नाच में इसे चार चांद लगा देता है। पंजाबियों की बल्ले बल्ले और गुजराती भाइयों की गरबा की गूंज ने विदेश को भी बहुत सुगमता से अपना घर बना लिया है।
नेपाल: भारतीय अध्यात्म का गढ़

हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भारतीय आध्यात्मिकता एवं संस्कृति की जड़ें साफ दिखाई देती हैं। पूरे नेपाल में आप चाहे कहीं भी चले जाएं, हर जगह आपको ऐसा ही महसूस होगा कि जैसे भारत के ही किसी गांव या शहर में आप घूम रहे हों। बागमती नदी के समीप स्थित हिंदुओं का प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर है। यहां के दुर्लभ रुद्राक्ष की पूरे विश्व में मान्यता है। यहां भगवान शिव की मूर्ति है, इस विश्वप्रसिद्ध मंदिर में साधुओं, हिन्दू धर्मावलंबियों के अलावा देश-विदेश के लाखों लोग दर्शनार्थ आते हैं। इस मंदिर के बाहर भगवान शिव की सवारी कहे जाने वाले नंदी विराजमान हैं। नेपाल में भारतीयों के विश्वास और श्रद्धा के अनेक केंद्र स्थित हैं।
नेपाल में स्थित हनुमानढोका वहां रहने वाले भारतीयों एवं अन्य नेपालियों की आस्था का केंद्र है। यहां प्रतिष्ठित हनुमान जी की मूर्ति देखने लायक है। भारत में मनाए जाने वाले सभी तीज-त्योहारों की झलक नेपाल में देखी जा सकती है।
इंडोनेशिया: कण-कण में है हिंदू संस्कृति

भारत के निकटवर्ती देशों में इंडोनेशिया एक ऐसा देश है, जिसका बाली द्वीप हिंदू संस्कृति की खुशबू से सराबोर है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन उड़ीसा के मछुआरा समुदाय की स्ति्रयां केले की खोखली छाल पर दीया रखकर बंगाल की खाड़ी में उसे बाली जाने के लिए प्रवाह दे देती हैं। इस प्रथा को बाली जात्रा के नाम से जाना जाता है। सदियों से यह प्रथा चली आ रही है। 3000 किमी. की इस समुद्र यात्रा पर, जहां व्यवसायी भी समुद्री जहाज की यात्रा करते कतराते हैं, वहां प्रेम, आस्था एवं विश्वास के दीये सांस्कृतिक यात्रा का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैसे इस प्रथा के बारे में बाली के लोगों को भी पहले जानकारी नहीं थी। उन्हें यह जानकारी 1979 में उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने अपनी बाली यात्रा के दौरान दी।
ऐतिहासिक द्वीप बाली की संस्कृति पूरे विश्व के पर्यटकों को आकर्षित करती है। बाली ने अपने आंचल में बहुत-सी सांस्कृतिक धरोहरों को समेटा हुआ है। भारत की हिंदू सभ्यता यहां पूरी तरह जीवंत है। बाली में हिंदुत्व की नींव छठीं-सातवीं शताब्दी में ऋषि मारकंडेय ने रखी थी।   बालीवासी भारतीय विद्वान डॉ. सोमवीर बताते हैं कि ऋषि मारकंडेय यहां जावा से आए थे। उन्होंने बाली में शिव मंदिर की स्थापना की, जो वासुकी मंदिर के नाम से जाना गया। अब इसे बेसाकी कहा जाता है। आज भी इस शिवालय केआसपास सांप रहते हैं। ऋषि ने बाली द्वीप के चारों कोनों पर मंदिरों का निर्माण करवाया, जो देवताओं और असुरों के समुद्र मंथन की कथा को मूर्त करता है। बाली को उसके अमृत रूप की मान्यता प्राप्त है।
बाली में समुद्र के किनारे पहाड़ी पर स्थित टनाह लोट मंदिर आस्था का एक और केंद्र है। वैसे तो यह मंदिर शिव का है, पर इसमें कोई मूर्ति नहीं है। इस मंदिर में प्रवेश आम पर्यटक के लिए आसान नहीं है। इसमें जाने के लिए ऐसे कपड़े पहनने होते हैं, जिसमें कहीं सिलाई न हुई हो। इसलिए साधारण पर्यटक इसके पास स्थित एक रिजॉर्ट में रुक कर मंदिर की भव्यता देख लेते हैं।
बाली के मंदिरों में मूर्ति का न होना सबको आश्चर्यचकित करता है। वैसे बाली के हर गांव में तीन मंदिर होते हैं, जो क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु और महेश को समर्पित हैं, लेकिन देखने में सभी एक तरह के ही होते हैं। इन मंदिरों की सालगिरह बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। यहां धर्म प्रबंधन का तरीका एकदम अलग है। मंदिर का पुजारी गांव के निवासियों के लिए मंदिर में आने की तिथि निर्धारित करता है। वे केवल उसी दिन भगवान से प्रार्थना कर सकते हैं। बाली के मंदिरों में एक टाल होता है, जिसे कबंग कहते हैं। इसमें भी रोज स्थानीय भक्तिगीत गाए जाते हैं। विवाह व अन्य शुभ अवसरों पर यहां भी संस्कृत मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। यहां इन प्रथाओं के बिना कोई शुभ कार्य नहीं होता।
पूरे बाली में हनुमान, राम तथा भीम की मूर्तियां देखने को मिलती हैं। इन प्रतिमाओं के निचले हिस्से पर सफेद-काले चेकदार कपड़े पहनाए जाते हैं, जो अच्छाई व बुराई के प्रतीक हैं। यहां राजमार्गो पर महाभारतकालीन घटनाओं की प्रतिमाएं जगह-जगह देखने को मिलती हैं।
बाली में एक परंपरा बड़ी अनोखी है। यहां किसी व्यक्ति की मृत्यु पर खुशी मनाई जाती है तथा शव को तब तक नहीं जलाया जाता, जब तक कि पुरोहित उचित तिथि न बताए। तिथि विशेष पर दाह-संस्कार करने से मोक्ष की प्राप्ति होगी, ऐसी मान्यता है। यहां दाह-संस्कार को सबसे महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है।
रामायण और महाभारत का प्रभाव पूरे दक्षिण पश्चिम एशिया और बाली में है। बाली के लोगों में महाभारत के युद्धस्थल कुरुक्षेत्र को देखने की इच्छा बलवती है। वहां के लोग गंगा में पवित्र स्नान तथा शिव मंदिरों को देखने को अपनी पहली प्राथमिकता में रखते हैं। उन्हें यहां अपने देश जैसा माहौल लगता है।
गुयाना: खूब खाते हैं पेड़े

दक्षिणी अमेरिका के उत्तर-पूर्व में स्थित गुयाना भारतीय मूल्यों एवं संस्कृति के नाते विख्यात है। सामान्यत: इसे ब्रिटिश गुयाना के नाम से अस्तित्व में है, जिसकी कुल आबादी के 33 प्रतिशत नागरिक भारतीय मूल के हैं। भारतीय कैलेंडर के अनुसार पड़ने वाले सभी तीज-त्योहारों को गुयाना में पूरे विधि-विधान से मनाया जाता है। दीवाली पर गुयाना में भी राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया है। दीवाली एवं अन्य अवसरों पर भारतीय मूल के लोग नए वस्त्र पहनते हैं, पूजा-प्रार्थना करते हैं तथा दूध और खोया से बनी मिठाइयों का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है। भारत के प्रमुख महानगरों में विलुप्त होने के कगार पर पहुंच रहे पेड़े और खीर गुयाना में आज भी प्राथमिकता के साथ खाए जाते हैं।
दीवाली को गुयाना में स्वस्थ आत्मा-स्वस्थ शरीर का प्रतीक माना जाता है। इस अवसर पर गणेश-लक्ष्मी की विशेष पूजा की जाती है। सभी भारतवंशी इन कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर भाग लेते हैं। वहां के विवाह एवं अन्य संस्कार भी भारतीय पद्धति एवं परंपरा के अनुपूरक हैं।
मलेशिया: जहां सशक्त माध्यम है रामकथा

भारतीय लोग दुनिया में चाहे कहीं भी रहें, उनके जीवन में आस्था की डोर हमेशा रामकथा से बंधी रहती है। इसका एक सशक्त उदाहरण मलेशिया है। वैसे तो ऐसे कई देश हैं जहां के कवियों ने अपने देश में अपने ढंग से रामकथा रची और उसमें स्थानीय रंगों का सम्मिश्रण कर उन्हें और भी लोकप्रिय बनाया। भारतीय रामायण के चरित्रों में इतना अधिक आकर्षण है कि मलेशिया के लोकजीवन में नगरों, व्यक्तियों, नदियों तथा अन्य स्थानों के नाम रामायण से लिए गए लगते हैं। मलेशिया के जनजीवन में रामायण मनोरंजन व प्रेरणा का सशक्त माध्यम बनकर उभरी है। यहां चमड़े की पुतलियों द्वारा रात को रामयण के प्रसंगों का मंचन किया जाता है, जिनमें भारतीय मूल के लोग पूरी साज-सज्जा एवं तैयारी के साथ सपरिवार शामिल होते हैं। भारतीय मूल के लोगों के अतिरिक्त मूल मलय लोगों में भी भारतीय संस्कृति के प्रति गहरा रुझान  है।
मलेशिया में रामायण को ‘हेकायत सेरीरामा’ के नाम से जाना जाता है। उसमें भारतीयता का पुट अपने वर्चस्व के साथ विराजमान है। मलेशिया अपनी विविधता के लिए पूरे विश्व में विख्यात है। मलेशिया में हिंदू समुदाय की आबादी 8 प्रतिशत है। यहां रहने वाले भारतीय मूल के लोगों में सबसे ज्यादा संख्या दक्षिण भारतीयों की है। शायद यही वजह है कि यहां मनाए जाने वाले भारतीय तीज-त्योहारों पर दक्षिण के रंग-ढंग का साफ असर दिखाई देता है। हिंदू देवताओं में भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय के मंदिर यहां सर्वाधिक प्रतिष्ठित हैं। दीवाली महोत्सव की तैयारियां महीनों पूर्व शुरू हो जाती हैं। दीवाली पर परंपरागत तौर से घरों के बाहर रंगोली बनाने का रिवाज है। तिल के तेल तथा शुद्ध घी के दीयों द्वारा लक्ष्मी का आवाहन किया जाता है। मलेशिया में दीवाली के दिन राष्ट्रीय अवकाश रखा जाता है तथा बड़े बुजुर्ग इस दिन घर-घर जाकर युवाओं को आशीर्वाद और उपहार देते हैं। भारत के अन्य त्यौहारों एवं परंपराओं के प्रति भी मलेशिया के भारतीय जनसमुदाय में विशेष आस्था एवं विश्वास है।
साभार : नवभारत टाइम्स, http://www.hindimedia.in

Thursday, October 18, 2012

क्षितिज पर अन्धकार


पश्चिम में जब सूर्य उदय होने से पहले ही भारत का सूर्य डूब चुका था। जब योरूपीय देशों के जिज्ञासु और महत्वकाँक्षी नाविक भारत के तटों पर पहुँचे तो वहाँ सभी तरफ अन्धकार छा चुका था। जिस वैभवशाली भारत को वह देखने आये थे वह तो निराश, आपसी झगडों और अज्ञान के घोर अन्धेरे में डूबता जा रहा था। हर तरफ राजैतिक षटयन्त्रों के जाल बिछ चुके थे। छोटे छोटे पडौसी राजे, रजवाडे, सामन्त और नवाब आपस में ऐक दूसरे का इलाका छीनने के सपने संजो रहै थे। देश में नाम मात्र की केन्द्रीय सत्ता उन मुगलों के हाथ में थी जो सिर से पाँव तक विलासता और जहालत में डूब चुके थे। हमें अपने इतिहास से ढूंडना होगा कि गौरवशाली भारत जर्जर हो कर गुलामी की जंजीरों में क्यों जकडा गया?
हिन्दू धर्म का विग्रह
ईसा से 563-483 वर्ष पूर्व भारत में बुद्ध-मत तथा जैन-मत वैदिक तथा ब्राह्मण वर्ग की कुछ परम्पराओं पर 'सुधार' स्वरूप आये। दोनों मतों के जनक क्रमशः क्षत्रिय राज कुमार सिद्धार्थ तथा महावीर थे। वह भगवान गौतम बुद्ध तथा भगवान महावीर के नाम से पूजित हुये। दोनों की सुन्दर प्रतिमाओं ने भारतीय शिल्प कला को उत्थान पर पहुँचाया। बहुत से राज वँशों ने बुद्ध अथवा जैन मत को अपनाया तथा कई तत्कालिक राजा संन्यास स्वरूप भिक्षुक बन गये स्वेछा से राजमहल त्याग कर मठों में रहने लगे।
बौद्ध तथा जैन मत के कई युवा तथा व्यस्क घरबार त्याग कर मठों में रहने लगे। उन्हों ने अपना परिवारिक व्यवसाय तथा कर्म छोड कर भिक्षु बन कर जीवन काटना शुरु कर दिया था। रामायण और महाभारत के काल में सिवाय शिवलिंग के अन्य मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था किन्तु इस काल में यज्ञ विधान के साथ साथ मूर्ति पूजा भी खूब होने लगी थी। सिकन्दर की वापसी के पश्चात बुद्ध-मत का सैलाब तो भारत में रुक गया और उस के प्रसार की दिशा भारत से बाहर दक्षिण पूर्वी देशों की ओर मुड गयी। चीन, जापान, तिब्बत, लंका और जावा सुमात्रा आदि देशों में बुद्ध-मत फैलने लगा था, किन्तु जैन-मत भारत से बाहर नहीं फैल पाया।
हिन्दूओं का स्वर्ण युग
भारत में गुप्त काल के समय हिन्दू विचार धारा का पुर्नोत्थान हुआ जिस को हिन्दूओ का ‘सुवर्ण-युग’ कहा जाता है। हर क्षेत्र में प्रगति हुई। संस्कृत साहित्य में अमूल्य ग्रन्थों का सर्जन हुआ तथा संस्कृत भाषा कुलीन वर्ग की पहचान बन गयी। परन्तु इसी काल में हिन्दू धर्म में कई गुटों का उदय भी हुआ जिन में ‘वैष्णव समुदाय’, ‘शैव मत’ तथा ‘ब्राह्मण मत’ मुख्य हैं। इन सभी ने अपने अपने आराध्य देवों को दूसरों से बडा दिखाने के प्रयत्न में काल्पनिक कथाओं तथा रीति-रिवाजों का समावेश भी किया। माथे पर खडी तीन रेखाओं का तिलक विष्णुभक्त होने का प्रतीक था तो पडी तीन रेखाओं वाला तिलक शिव भक्त बना देता था - बस। देवों की मूर्तियाँ मन्दिरों में स्थापित हो गयीं तथा रीति रिवाजों की कट्टरता ने तर्क को अपने प्रभाव में ले लिया जिस से कई कुरीतियों का जन्म हुआ। पुजारी-वर्ग ने ऋषियों के स्थान पर अपना अधिकार जमा लिया।
कई मठ और मन्दिर आर्थिक दृष्टि से समपन्न होने लगे। कोई अपने आप को बौध, जैन, शैव या वैष्णव कहता था तो कोई अपनी पहचान ‘ताँत्रिक’ घोषित करता था। धीरे धीरे कोरे आदर्शवाद, अध्यात्मवाद, और रूढिवादिता में पड कर हिन्दू वास्तविकता से दूर होते चले गये और राजनैतिक ऐकता की अनदेखी भी करने लगे थे।
ईसा के 500 वर्ष पश्चात गुप्त वंश का प्रभुत्व समाप्त हो गया। गुप्त वँश के पश्चात कुशाण वँश में सम्राट कनिष्क प्रभाव शाली शासक थे किन्तु उन के पश्चात फिर हूण काल में देश में सत्ता का विकेन्द्रीय करण हो गया और छोटे छोटे प्रादेशिक राज्य उभर आये थे। उस काल में कोई विशेष प्रगति नहीं हुयी।
हिन्दू धर्म का मध्यान्ह
सम्राट हर्ष वर्द्धन की मृत्यु के पश्चात ही भारत के हालात पतन की दिशा में तेजी से बदलने लग गये। देश फिर से छोटे छोटे राज्यों में बट गया और प्रादेशिक जातियाँ, भाषायें, परम्परायें उठने लग पडी। छोटे छोटे और कमजोर राज्यों ने भारत की राजनैतिक ऐकता और शक्ति को आघात लगाया। राजाओं में स्वार्थ और परस्पर इर्षा देूष प्रभावी हो गये। वैदिक धर्म की सादगी और वैज्ञानिक्ता रूढिवाद और रीतिरिवाजों के मकडी जालों में उलझने लग पडी क्यों कि ब्राह्मण वर्ग अपने आदर्शों से गिर कर स्वार्थी होने लगा था। अध्यात्मिक प्रगति और सामाजिक उन्नति पर रोक लग गयी। 
कट्टर जातिवाद, राज घरानो में जातीय घमण्ड, और छुआ छूत के कारण समाज घटकों में बटने लग गया था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य विलासिता में घिरने लगे। संकुचित विचारधारा के कारण लोगों ने सागर पार जाना छोड दिया जिस के कारण सागर तट असुरक्षित हो गये, सीमाओं पर सारा व्यापार आक्रामिक अरबों, इरानियों और अफग़ानों के हाथ चला गया। सैनिकों के लिये अच्छी नस्ल के अरबी घोडे उप्लब्द्ध नहीं होते थे। अहिंसा का पाठ रटते रटते क्षत्रिय भूल गये थे कि धर्म-सत्ता और राजसत्ता की रक्षा करने के लिये समयानुसार हिंसा की भी जरूरत होती है। अशक्त का कोई स्वाभिमान, सम्मान या अस्तीत्व नहीं होता। इन अवहेलनाओं के कारण देश सामाजिक, आर्थिक, सैनिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल, दिशाहीन और असंगठित हो गया।
अति सर्वत्र वर्ज्येत
भारत में सांस्कृतिक ऐकता की प्रथा तो वैदिक काल से ही चली आ रही थी अतः जो भी भारत भूमि पर आया वह फिर यहीं का हो गया था। यूनानी, पा्रथियन, शक, ह्यूण गुर्जर, प्रतिहार कुशाण, सिकिथियन सभी हिन्दू धर्म तथा संस्कृति में समा चुके थे। कालान्तर सम्राट हर्ष वर्द्धन ने भी बिखरे हुये मतों को ऐकत्रित करने का पर्यास किया। बुद्ध तथा जैन मत हिन्दू धर्म का ही अभिन्न अंग सर्वत्र माने गये तथा उन के बौधिस्त्वों और तीर्थांकरों को विष्णु के अवतारों के समक्ष ही माना जाने लगा। सभी मतों की जीवन शैलि का आधार ‘जियो और जीने दो’ पर ही टिका हुआ था और भारतवासी अपने में ही आनन्द मग्न हो कर्म तथा संगठन का मार्ग भूल कर अपना जीवन बिता रहै थे। भारत से थोडी ही दूरी पर जो तूफान उभर रहा था उस की ध्वंस्ता से भारत वासी अनजान थे।
विचारने योग्य है कि यदि सिहं, सर्प, गरुड आदि अपने प्राकृतिक हिंसक स्वधर्म को त्याग कर केवल अहिंसा का मार्ग ही अपना लें और जीव नियन्त्रण कर्तव्य से विमुख हो जायें तो उन के जीवन का सृष्टि की श्रंखला में कोई अर्थ नहीं रहे गा। वह व्यर्थ के जीव ही माने जायें गे। भारत में अहिंसा के प्रति अत्याधिक कृत संकल्प हो कर शक्तिशाली राजाओं तथा क्षत्रियों नें अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग करना शुरु दिया था। देश और धर्म की रक्षा की चिन्ता छोड कर उन्हों ने अपने मोक्ष मार्ग या निर्वाण को महत्व देना आरम्भ कर दिया जिस के कारण देश की सुरक्षा की अनदेखी होने लगी थी। युद्ध कला का प्रशिक्षण गौण होगया तथा भिक्षा-पात्र महत्व शाली हो गये। युद्ध नीति में प्रहारक पहल का तो नाम ही मिट गया। प्रशासन तन्त्र छिन्न भिन्न होने लगा और देश छोटे छोटे उदासीन, दिशाहीन, कमजोर राज्यों में बटने लगा। देश की सीमाओं पर बसने वाले छोटे छोटे लुटेरों के समूह राजाओं पर भारी पडने लगे थे। महाविनाश के लिये वातावरण तैयार होने लग पडा था।
विनाश की ओर
हिमालय नें हिन्दूओं को ना केवल उत्तरी ध्रुव की शुष्क हवाओं से बचा कर रखा हुआ था बलकि लूटमार करने वाली बाहरी क्रूर और असभ्य जातियों से भी सुरक्षित रखा हुआ था। जब हिन्दू अपनी सुरक्षा के प्रति अत्याधिक आसावधान और निशचिन्त होते चले गये और अपने ऋषियों के कथन - अति सर्वत्र वर्ज्येत – अति सदैव बुरी होती है – की को भी भूल बैठे थे। आलस्य, अकर्मण्यता तथा जातीय घमंड के कारण वह भारत के अन्दर कूयें के मैण्डकों की तरह रहने लग गये थे। मोक्ष प्राप्ति के लिये अन्तरमुखी हो कर वह देख ही नहीं पाये कि मुत्यु और विनाश नें उन के घर के दरवाजों को दस्तक देते देते तोड भी दिया था और महाविनाश उन के सम्मुख प्रत्यक्ष आ खडा हुआ था। यह क्रम भारत के इतिहास में बार बार होता रहा है और आज भी हो रहा है।

साभार:लेखक श्री चाँद शर्मा जी, 
http://hindumahasagar.wordpress.com

ईस्लाम का अतिक्रमण


इस्लाम भारत में जिहादी लुटेरों और शत्रुओं की तरह आया जिन्हें हिन्दूओं से घृणा थी। मुस्लिम स्थानीय लोगों को ‘काफिर’ कहते थे और उन्हें को कत्ल करना अपना ‘धर्म’ मानते थे। उन्हों ने लाखों की संख्या में हिन्दूओं को कत्ल किया और वह सभी कुछ ध्वस्त करने का प्रयास किया जो स्थानीय लोगों को अपनी पहचान के लिये प्रिय था। इस्लामी जिहादियों का विशवास था कि अल्लाह ने केवल उन्हें ही जीने का अधिकार दिया था और अल्लाह ने मुहमम्द की मार्फत उन्हें आदेश भिजवा दिया था कि जो मुस्लमान नहीं उन्हें मुस्लमान बना डालो, ना बने तो उन्हें कत्ल कर डालो।
आदेश का पालन करने में लगभग 63000 हिन्दू पूजा स्थलों को ध्वस्त किया गया, लूटा गया, और उन में से कईयों को मस्जिदों में तबदील कर दिया गया। हिन्दू देवी देवताओं की प्रतिमायें तोड कर मुस्लमानों के पैरों तले रौंदी जाने के लिये उन्हें नव-निर्मत मस्जिदों की सीढियों के नीचे दबा दिया जाता था। जो दबाई या अपने स्थान से उखाडी नहीं जा सकतीं थीं उन्हें विकृत कर दिया जाता था। उन कुकर्मों के प्रमाण आज भी भारत में जगह जगह देखे जा सकते हैं। ‘इस्लामी फतेह’ को मनाने के लिये हिन्दूओं के काटे गये सिरों के ऊंचे ऊंचे मीनार युद्ध स्थल पर बनाये जाते थे। पश्चात कटे हुये सिरों को ठोकरों से अपमानित कर के मार्गों पर दबा दिया जाता था ताकि काफिरों के सिर स्दैव मुस्लमानों के पैरों तले रौंदे जाते रहैं।
खूनी नर-संहार और विधवंस  
मुस्लिम विजयों के उपलक्ष में हिन्दू समाज के अग्रज ब्राह्मणों को मुख्यतः कत्ल करने का रिवाज चल पडा था। क्षत्रिय युद्ध भूमि पर वीर गति प्राप्त करते थे, वैश्य वर्ग को लूट लिया जाता था और अपमानित किया जाता था और शूद्रों को मुस्लमान बना कर गुलाम बना लिया जाता था।
उत्तरी भारत में सर्वाधिक ऐतिहासिक नरसंहार हुये जिन में से केवल कुछ का उदाहरण स्वरूप वर्णन इस प्रकार हैः- 
  • छच नामा के अनुसार 712 ईस्वी में जब मुहमम्द बिन कासिम नें सिन्धु घाटी पर अधिकार किया तो मुलतान शहर में 6 हजार हिन्दू योद्धा वीर गति को प्राप्त हुये थे। उन सभी के परिजनों को गुलाम बना लिया गया था।
  • 1399 ईस्वी में अमीर तैमूर नें दिल्ली विजय के पश्चात सार्वजनिक नरसंहार (कत्ले-आम) का हुक्म दिया था। उस के सिपाहियों ने ऐक ही दिन में ऐक लाख हिन्दूओं को कत्ल किया जो अन्य स्थानों के नरसंहारों और लूटमार के अतिरिक्त था।
  • 1425 ईस्वी में चन्देरी का दुर्ग जीतने के बाद मुगल आक्रान्ता बाबर ने 12 वर्ष से अधिक आयु के सभी हिन्दूओं को कत्ल करवा दिया था तथा औरतों और बच्चों को गुलाम बना लिया था। चन्देरी का इलाका कई महीनों तक दुर्गन्ध से सडता रहा था।
  • 1568 ईस्वी में तथाकथित ‘उदार’ मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड के राजपूत किलेदार जयमल को उस समय गोली मार दी थी जब वह किले की दीवार की मरम्मत करवा रहा था। उस के सिपहसालार फतेह सिहं को हाथ पाँव बाँध कर हाथी के पैरों तले कुचलवाया गया था। उसी स्थान पर उन तीस हजार हिन्दूओं को कत्ल भी किया गया था जिन्हों ने युद्ध में भाग नहीं लिया था। आठ हजार महिलायें सती की अग्नि में प्रवेश कर गयीं थी।
  • 1565 ईस्वी में बाह्मनी सुलतानो ने संयुक्त तौर पर हिन्दू राज्य विजय नगर का विधवंस कत्ले आम तथा सर्वत्र लूटमार के साथ मनाया। फरिशता के उल्लेखानुसार  बाह्मनी सुलतान केवल निचले दर्जे के राजवाडे थे किन्तु वह काफिरों को सजा देने के बहाने हजारों की संख्या में हिन्दूओं का कत्ल करवा डालते थे।
  • आठारहवीं शताब्दी में नादिर शाह तथा अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली को लूटा, ध्वस्त किया और कत्लेआम करवाया ।
मुसलिम शासकों ने हिन्दूओ के नरसंहार का उल्लेख अभिमान स्वरूप अपने रोजनामचों (दैनिक गेजेट) में करवाया है क्यों कि वह इस को पवित्र कर्म मानते थे। काफिरों का कत्ल करवाने की संख्या के विषय में प्रत्येक अक्रान्ता और मुस्लिम शासक की अपनी अपनी धारणायें थी और परिताड़ण करने के नृशंसक तरीके थे जो सर्वथा क्रूर और अमानवीय होते थे। काफिरों को जिन्दा जलाना, आरे से चिरवा देना, उन की खाल उतरवा देना, उन्हें तेल के कडाहों में उबलवा देना आदि तो आम बातें थी जिन के चित्र संग्रहालयों में आज भी देखे जा सकते हैं।   
सर्वत्र अंधंकार मय युग
शीघ्र ही हिन्दूओं का संजोया हुआ सुवर्ण युग इस्लाम की विनाशात्मक काली रात में परिवर्तित हो गया, जिस के फलस्वरूपः-  
  • तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला आदि सभी विश्व विद्यालय धवस्त कर दिये गये तथा शिक्षा और ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अन्धकार छा गया।
  • बुद्धिजीवियों को चुन चुन की मार डाला जाता था। बालकों के प्रराम्भिक शिक्षण संस्थान ही बन्द हो गये। इस्लामी धार्मिक शिक्षा का काम मदरस्सों के माध्यम से कट्टरवादी मौलवियों नें शुरू कर दिया।
  • इस्लामी शासन के अन्तरगत सभी प्रकार के मौलिक भारतीय ज्ञान लुप्त हो गये। जहाँ कहीं हिन्दू प्रभाव बच पाया वहीँ संस्कृत व्याकरण, गणित, चिकित्सा तथा दर्शन और प्राचीन ग्रन्थों का पठन छिप छिपा कर बुद्धिजीवियों के निजी परिश्रमों से चलता रहा। परन्तु उन्हें राजकीय संरक्षण तथा आर्थिक सहायता देने वाला कोई नहीं था।
  • ‘जज़िया’ जैसे अधिकतर इस्लामी करों के प्रभाव से हिन्दूओं को धन का अभाव सताने लगा। हिन्दू गृहस्थियों के लिये दैनिक यज्ञ तो दूर उन के लिये परिवार का निजि खर्च चलाना भी दूभर हो गया था। वह बुद्धिजीवियों की आर्थिक सहायता करना तो असम्भव अपने बच्चों को साधारण शिक्षा भी नहीं दे सकते थे क्यों कि उन का धन, धान्य स्थानीय मुस्लिम जबरन हथिया लेते थे।
  • हिन्दूओं के लिये मुस्लमानों के अत्याचारों के विरुध न्याय, संरक्षण और सहायता प्राप्त करने का तो कोई प्रावधान ही नहीं बचा था। मुस्लमानों के समक्ष हिन्दूओं के नागरिक अधिकार कुछ नहीं थे। मानवता के नाम पर भी उन्हें जीवन का मौलिक अधिकार भी प्राप्त नहीं था। न्याय के नाम से मुस्लिम की शिकायत पर मौखिक सुनवाई कर के साधारणत्या स्थानीय अशिक्षित मौलवी किसी भी हिन्दू को मृत्यु दण्ड तक दे सकते थे। हिन्दूओं के लिये केवल निराशा, हताशा, तथा भय का युग था और काली लम्बी सुरंग का कोई अन्त नहीं सूझता था।
इस कठिन और कठोर अन्धकारमय युग में भी हिन्दू बुद्धिजीवियों ने छिप छिपा कर ज्ञान की टिमटिमाती रौशनी को बुझने से बचाने के भरपूर पर्यत्न किये जिन में गणित के क्षेत्र में भास्कराचार्य (1114 -1185) का नाम उल्लेखनीय है। ज्ञान क्षेत्र की स्वर्णमयी परम्परा को भास्कराचार्य ने आधुनिक युग के लिये अमूल्य योगदान पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के सिद्धान्त की व्याख्या कर के दिया।  
सामाजिक कुरीतियों का पदार्पण
अन्धकारमय वातावरण के कारण हिन्दू समाज में कई कुरीतियों ने महामारी बन कर जन्म ले लिया। प्रगति के स्थान पर अशिक्षता और अन्धविशवासों के कारण जीवन का स्वरुप और दृष्टिकोण निराशामय और नकारात्मिक हो गया था जिस के फलस्वरूपः-
  • मुस्लिम लूटमार, छीना झपटी और जजि़या जैसे विशेष करों के कारण हिन्दू दैनिक जीवन-यापन के लिये मुस्लमानों की तुलना में असमर्थ होने लगे थे।  
  • शिक्षण संस्थानों के ध्वस्त हो जाने से हिन्दू अशिक्षित हो गये। उन का व्यवसायिक प्रशिक्षण बन्द हो जाने से उन की अर्थ व्यव्स्था छिन्न भिन्न हो गयी थी। वह केवल मजदूरी कर के दो वक्त की रोटी कमा सकते थे। उस क्षेत्र में भी ‘बेगार’ लेने का प्रचलन हो गया था तथा काम के बदले में उन्हें केवल मुठ्ठी भर अनाज ही उपलब्द्ध होता था। किसानों की जमीन शासकों ने हथिया ली थी। उन का अनाज शासक अधिकृत कर लेते थे।
  • पहले संगीत साधना हिन्दूओं के लिये उपासना तथा मुक्ति का मार्ग था। अब वही कला मुस्लिम उच्च वर्ग के प्रमोद का साधन बन गयी थी। साधना उपासना की कथक नृत्य शैली मुस्लिम हवेलियों में कामुक ‘मुजरों’ के रूप में परिवर्तित हो गयी ताकि काम प्रधान भाव प्रदर्शन से लम्पट आनन्द उठा सकें। 
  • अय्याश मुस्लिम शाहजादों और शासकों के मनोरंजन के लिये श्री कृष्ण के बारें में कई मन घडन्त ‘छेड-छाड’ की अशलील कहानियाँ, चित्रों और गीतों का प्रसार भी हुआ। इस में कई स्वार्थी हिन्दूओं ने भी योगदान दिया।
  • अपनी तथा परिवार की जीविका चलाने के लिये कई बुद्धि जीवियों ने साधारण पुरोहित बन कर कर्म-काँड का आश्रय लिया जिस के कारण हिन्दू समाज में दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन भी पड गया। पुरोहितों ने यजमानों को रीति रीवाजों की आवश्यक्ता जताने के लिये ग्रन्थों में बेतुकी और मन घडन्त कथाओं को भी जोड दिया ।
हिन्दू समाज का विघटन 
असुरक्षित ब्राह्मण विदूान मुसलमानों से अपमानित होते थे और हिन्दूओं से उपेक्षित हो रहे थे। उन्हें अपना परम्परागत पठन पाठन, दान ज्ञान का मार्ग त्यागना पड गयाथा। निर्वाह के लिये उन्हें समर्थ हिन्दूओं से दक्षिणा के बजाय दान और दया पर आश्रित होना पडा। जीविका के लिये भी उन्हें रीतिरीवाजों के लिये अवसर और बहाने तराशने पडते थे जिस के कारण साधारण जनता के लिये संस्कार और रीति रिवाज केवल दिखावा और बोझ बनते गये। हिन्दू समाज का कोई मार्ग-दर्शक ना रहने के कारण प्रान्तीय रीति रिवाजों और परम्पराओं का फैलाव होने लगा था। जातियों में कट्टरता आ गयी तथा ऐक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों को घृणा, भय, तथा अविशवास से देखने लगे थे। हिन्दू समाज का पूरा ताना बाना जो परस्पर सहयोग, विशवास और प्रेम पर निर्भर था विकृत हो गया। रीतिरिवाज जटिल, विकृत और खर्चीले हो जाने के कारण हर्ष- उल्लास देने के बजाय दुःख दायक हो गये। अन्ततः निर्धन लोग रीति रिवाजों की उपेक्षा कर के धर्म-परिवर्तन के लिये भी तत्पर हो गये। 
अपमानजनक वातावरण
हिन्दूओं के आत्म सम्मान को तोडने के लिये मुस्लमानों ने क्षत्रियों का अपने सामने घोडे पर चढना वर्जित कर दिया था। उन के सामने वह शस्त्र भी धारण नहीं कर सकते थे। अतः कई क्षत्रियों ने परम्परागत सैनिक और प्रशासनिक जीवन छोड कर कृषि या जीविका के अन्य व्यवसाय अपना लिये। धर्म रक्षा का मुख्य कर्तव्य क्षत्रियों से छूट गया। जो कुछ क्षत्रिय बचे थे वह युद्ध भूमि पर मुस्लमानों के विरुद्ध या कालान्तर मुस्लमानों के लिये लडते लडते हिन्दू योद्धाओं के हाथों वीर गति पा चुके थे। हिन्दू राजा मुगलों की डयौहडियों पर ‘चौकीदारी’ करते थे या हाथ बाँधे दरबार में खडे रहते थे।   
सामाजिक कुरीतियों का चलन
मुस्लिम नवाबों तथा शासकों की कामुक दृष्टि सुन्दर और युवा लडके लडकियों पर स्दैव रहती थी। उन्हें पकड कर जबरन मुस्लमान बनाया जाता था तथा उन का यौन शोषण किया जाता था। इसी लिये हिन्दू समाज में भी महिलाओं के लिये पर्दा करने का रिवाज चल पडा। फलस्वरुप विश्षेत्या उत्तरी भारत में रात के समय विवाह करने की प्रथा चल पडी थी। वर पक्ष वधु के घर सायं काल के अन्धेरे में जाते थे, रात्रि को विवाह-संस्कार सम्पन्न कर के प्रातः सूर्योदय से पूर्व वधु को सुरक्षित घर ले आते थे। समाजिक बिखराव के कारण हिन्दू समाज में कन्या भ्रूण की हत्या, बाल विवाह, जौहर तथा विधवा जलन की कुप्रथायें भी बचावी विकल्पों के रूप में फैल गयीं।
मुस्लिम हिन्दूओं की तरह बाहर लघू-शंका के लिये नहीं जाते थे और इस चलन को ‘कुफ़र’ मानते थे। उन के समाज में लघु-शंका पर्दे में की जाती थी। गन्दगी को बाहर फैंकवाने के लिये और हिन्दूओं को अपमानित करने के लिये उन्हों ने सिरों पर मैला ढोने के लिये मजबूर किया। इस प्रथा ने हिन्दू समाज में मैला ढोने वालों के प्रति घृणा और छुआ छुत को और बढावा दिया क्यों कि हिन्दू विचार धारा में यम नियम के अन्तर्गत स्वच्छता का बहुत महत्व था। छुआ छूत का कारण स्वच्छता का अभाव था। स्वार्थी तत्वों ने इस का अत्याधिक दुषप्रचार धर्म परिवर्तन कराने के लिये और हिन्दू समाज को खण्डित करने के लिये किया जो अभी तक जारी है।   
साभार : लेखक श्री चाँद शर्मा, हिंदू महासागर