भारतीय मुसलमान और उनकी जड़ें
स्वतंत्र भारत में आज भी भारतीय समाज हिन्दू-मुसलमान संबंधों को लेकर अनेक उभरते प्रश्नों तथा समस्याओं से ग्रसित है। 1206 ई. से लेकर 1857 ई. तक पठानों तथा मुगल शासकों का देश के अधिकतर भागों पर आधिपत्य होने पर भी भारत का मुसलमान सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक पिछड़ेपन का शिकार बताया जाता है। विश्व के मुस्लिम देशों के विपरीत, भारत का मुसलमान राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग क्यों है? सैकड़ों वर्षों से साथ रहते हुए भी व्यावहारिक जगत में हिन्दू तथा मुसलमान समाज एक-दूसरे से अपरिचित से क्यों? विश्व के एकमात्र बहुसंख्यक हिन्दू देश में यहां का मुसलमान, अन्य मुस्लिम देशों की तुलना में क्यों इतना क्रूर, वीभत्स तथा अत्याचारी रहा? गंभीर चिंतन का विषय है कि हिन्दू तथा मुसलमान की मानसिकता में कैसे सामंजस्य हो? आखिर कौन से ऐसे सूत्र हैं जो भारतीय मुसलमान को उसकी मूल जड़ों से जोड़ सकते हैं?
यह एक ऐतिहासिक कटु सत्य है कि हजरत मोहम्मद की 632 ई. में मृत्यु से इस्लाम को एक विश्वव्यापी स्वरूप देने के प्रयत्न प्रारंभ हो गए थे। लगभग आगामी सौ वर्षों में इस्लाम का झण्डा सीरिया, फिलस्तीन, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका, फारस तथा यूरोपीय देशों- स्पेन, पुर्तगाल तथा दक्षिण फ्रांस में फहराने लगा था। परन्तु भारत पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए उसे पांच सौ वर्षों तक संघर्ष तथा प्रतीक्षा करनी पड़ी। स्वाभाविक रूप से ये विदेशी आक्रमक मुसलमान भारत के प्रति ज्यादा क्रूर, वीभत्स तथा नरसंहारक थे। उनका एकमात्र लक्ष्य था- दारुल हरब को दारुल इस्लाम बनाना। उन्होंने भारत में मजहबी उन्माद के तहत प्रतिशोध तथा प्रतिक्रिया से कार्य किया। जो भारतीय, मुसलमान न बना उसे 'काफिर', 'जिमी' तथा 'मोमिन' कहा तथा जजिया लेकर ही उसको छोड़ा। इस्लाम न अपनाने पर उसे द्वितीय या तृतीय श्रेणी के नागरिक के रूप में माना गया।
भारतीय जनजीवन में यद्यपि इस्लाम का आक्रमण पहला विदेशी टकराव न था। इससे पूर्व भी भारत में ईरानी, यूनानी इण्डो-ब्रैक्टरियन, इण्डो पर्शियन, शक, कुषाण तथा हूण आये थे। परन्तु वे सभी भारतीय जनजीवन से समरस हो गए थे। उन्होंने यहां की रीति-नीतियों तथा ऐतिहासिक पुरुषों तथा दिव्य विभूतियों को अपना लिया था। परन्तु इस्लाम की आंधी इसके विपरीत थी। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखा 'लड़ाई-मारकाट के दृश्य तो हिन्दुओं ने बहुत देखे थे। परन्तु उनको सपने में भी उम्मीद न थी कि संसार में एकाध जाति ऐसी हो सकती है, जिसको मूर्तियों को तोड़ने और मंदिरों को भ्रष्ट करने में सुख मिले। जब मुस्लिम आक्रमण के समय मंदिरों व मूर्तियों पर विपत्ति आई, हिन्दुओं का हृदय फट गया।'
विदेशी मुस्लिम आक्रांता
भारतीय मुसलमानों के सन्दर्भ में इस तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि विदेशी मुसलमान, जो विभिन्न जातियों, स्थानों से थे, भारत में आये। इनमें ही चंगेज खां, तैमूरलंग, बाबर, नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली जैसे रक्त पिपासु, नर संहारक तथा जबरदस्ती दारुल-हरब से दारुल इस्लाम बनाने की आकांक्षा से आये थे। ये अरबिया, ईरान, तुर्किस्तान तथा अबीसीनियन थे। परन्तु कुल मिलाकर मुस्लिम जनसंख्या के दो प्रतिशत से अधिक न थे। शेष 98 प्रतिशत भारतीय थे जिसमें से मुसलमान बने। इस्लामीकरण का यह दौर निरंतर चलता रहा। ताज्जुब नहीं कि यदि कोई भी भारतीय मुसलमान आज भी अपनी पांचवीं या छठी पीढ़ी का विवरण निकाले तो वह प्राय: हिन्दू अथवा भारतीय होगी।
इन विदेशी मुसलमानों ने शासक वर्ग के रूप में मतान्तरित भारतीय मुसलमानों का भयंकर शोषण किया तथा जान-बूझकर उनके सामाजिक अलगाव, आर्थिक विषमता तथा शैक्षणिक पिछड़ेपन को बनाये रखा। किसी भी हिन्दू से मतान्तरित हो मुसलमान बने व्यक्ति को किसी भी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त न किया गया। उदाहरण के लिए पठानों के 320 वर्ष के शासनकाल (1206-1526) तक 32 शासक हुए परन्तु इसमें एक भी भारतीय मुसलमान न था। अपवादस्वरूप केवल तीन-चार भारतीय मुसलमान अल्पकाल के लिए प्रशासन में महत्वपूर्ण पदों तक पहुंच पाये थे। तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज-उस-सिराज के अनुसार इमाद्दुदीन रायहन पहला मतान्तरित भारतीय मुसलमान था जिसे कुछ समय के लिए गुलाम वंश के शासक नसीरुद्दीन महमूद ने अपना प्रधानमंत्री बनाया। परन्तु दरबारी विरोध के कारण उसे न केवल हटाया गया बल्कि शीघ्र ही मार दिया गया था (देखें 'नबकाने नासिरी (हिन्दी अनुवाद, पृ. 88-90) इसी भांति मोहम्मद तुगलक ने रतन नामक व्यक्ति को राजस्व अधिकारी तथा फिरोज तुगलक ने एक को ख्वाजा जहां बनाया था। मुगलों के काल में भी किसी भी भारतीय मुसलमान को ऊंचे पद न दिये गये। या बाबर तथा हुमायूं ने किसी भारतीय मुसलमान को ऊंचा पद न किया। अकबर से औरंगजेब के काल में उच्च मनसबदार के पद विदेशी मुसलमानों को ही दिये गये। संक्षिप्त में भारतीय मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से वंचित रखा गया। ये नये बने भारतीय मुसलमानों, जो प्राय: पहले हिन्दू ही थे (देखे, डा. के.एस.लाल 'ग्रोथ आफ मुस्लिम पोपुलेशन इन इंडिया) को, प्रो. आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव के शब्दों में, केवल यह सनतोष था, कि 'मेरा भी वही मजहब है जो शासकों का है और शुक्रवार को मैं उन्हीं के साथ खड़ा होकर मस्जिद में नमाज पढ़ सकता हूं' (भारत का इतिहास (1000-1707, पृ. 482)।
मुल्ला, मौलवियों, उलेमाओं का प्रभाव
विदेशी शासकों ने प्रशासन तथा राजदरबार में सभी प्रमुख स्थान विदेशी मुसलमानों को ही दिये। खान, अमीर, सिपहसलार सभी विदेशी मुसलमान होते थे। ऐसे ही शेख, मुल्ला-मौलवी तथा उलेमा विदेशी मुसलमान ही थे। उलेमा प्राय: मजहब, शिक्षा, न्याय तथा दान में विशेष रूप से हस्तक्षेप करते थे। ये प्राय: कुछ साल बाद शासन की रीढ़ की हड्डी बन गये थे। उन्होंने भारत के मुसलमानों को न तो अपने पूर्वजों की विरासत, इतिहास तथा संस्कृति से न जुड़ने दिया और न ही समकालीन शैक्षणिक सुधारों से। यदि ऐसा न होता तो भारत के मुसलमानों की अवस्था विभिन्न क्षेत्रों में अच्छी होती। शाहजहां के उदार पुत्र दारा शिकोह ने 'सिर्रे अकबर' में सही लिखा-
बहिश्त ओ जा कि मुल्क-ए-न बायद
जि मुल्क शोरो गौगा-ए न बायद
अर्थात 'बहिश्त उसी जगह है जहां मुल्ले और मौलवी नहीं हैं और उनका शोर सुनाई नहीं देता।' इन्होंने समय-समय पर अपने बेतुके, परस्पर विरोधी फतवों से भारतीय मुसलमानों को यहां से समाज से अलग रखा। ये सभी भारत में विदेशी शासकों को समरकन्द, बलख-बुखारा, कन्धार, मध्य एशिया की याद दिलाना न भूलते थे। भारतीय श्रद्धा केन्द्रों से इन्हें तनिक भी लगाव न था।
सर सैयद व रूढ़िवादी मुस्लिम
सर सैयद अहमद खां के राजनीतिक विचार कुछ भी रहे हों, उन्होंने भारतीय मुसलमानों की सामाजिक तथा शैक्षणिक अवस्था को उन्नत करने के लिए अवश्य प्रयत्न किया। उन्होंने मुसलमानों से कठमुल्लापन, संकीर्णता और मतान्धता छोड़ने का आग्रह किया। बहुविवाह तथा पर्दे की प्रथा का विरोध किया। महिलाओं का सामाजिक स्तर उठाने की कोशिश की। उन्होंने मदरसा प्रणाली को बंद करने को कहा जहां केवल रटन्त पद्धति अपनाई जाती है। शिक्षा में मौलिकता, वैज्ञानिकता तथा आधुनिकता लाने के प्रयत्न किये। परन्तु रूढ़िवादी मुल्ला-मौलवी इससे चिढ़ गए। उन्होंने सर सैयद को मारने की भी धमकी दी। श्री जदुनाथ सरकार ने लिखा- 'रूढ़िवादी मुसलमान ने सदैव यही अनुभव किया कि वह भारत में रहता अवश्य है, परन्तु भारत का अविभाज्य अंग नही है। उसे अपना हृदय, भारतीय परम्पराओं, भाषा और सांस्कृतिक वातावरण को अपनाने की बजाय फारस और अरब से आयात करना अच्छा लगता है। भारतीय मुसलमान बौद्धिक दृष्टि से विदेशी थे। वह भारतीय पर्यावरण के अनुरूप हृदय को नहीं बन सके (देखें 'ए शार्टर हिस्ट्री आफ औरंगजेब', पृ. 393)
दुर्भाग्य से बाद में खिलाफत आन्दोलन में शेख मौलवियों, उलेमाओं को सहयोग देकर कांग्रेस ने भारतीय मुसलमानों में भी अतिरिक्त विदेश भक्ति जगाई तथा राजनीतिक भूख पैदा की। अंग्रेजों ने उनका लाभ उठाकर देश के विभाजन में उनका सहयोग लिया।
मुख्यधारा से कैसे जुड़ें?
यह सर्वज्ञात है कि समूचे विश्व में भारत ही एकमात्र देश है जहां प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से धार्मिक स्वतंत्रता की पूरी गारंटी है। अत: भारत ही एक देश है जहां किसी भी मुसलमान को अन्य किसी भी मुस्लिम देश से अधिक मजहबी स्वतंत्रता है। सूत्र रूप में कुछ महत्वपूर्ण सुझाव उपयोगी हो सकते हैं।
प्रथम, विचारणीय विषय है कि प्रत्येक भारतवासी अपना नाम देश के इतिहास, संस्कृति तथा स्वस्थ परम्परा के अनुसार क्यों न रखे? इससे सम्पूर्ण भारत में जातिवाद, वर्ग, सम्प्रदाय बोध भी कम होगा तथा भारत राष्ट्र सबल होगा। आज भी विशालकाय चीन, रूस तथा अन्य कुछ देशों में नाम के आधार पर व्यक्ति की पहचान संभव नहीं है। यहां तक कि हज पर जाने वाले भारतीयों को हिन्दू देश से आये माना जाता है। डा. सुखदेव सिंह ने अपने शोध ग्रंथ में भारतीय मुसलमानों के नाम बदलने का मुख्य कारण उनका अतीत से नाता तोड़ना तथा मजहबी आस्थाओं को तोड़ना बतलाया है (देखिये 'द मुस्लिम आफ इंडियन ओरिजन', पृ. 199)। उल्लेखनीय है कि आज भी अनेक भारतीय मुसलमानों ने अपने नाम के साथ अपने पुराने गोत्र, जाति या वैशिष्ट्य को नहीं छोड़ा है।
दूसरे, यह सच है कि कुरान अरबी में है। परन्तु यह भी कटु सत्य है कि देश का एक प्रतिशत भी मुसलमान अरबी नहीं जानता है। आज कुरान के अनेक भाषाओं-फारसी, उर्दू, हिन्दी, अंग्रेजी तथा संस्कृत में अनुवाद उपलब्ध हैं। बिना इसका समुचित अर्थ समझे, क्या किसी मुसलमान को इससे लाभ होगा'? प्रसिद्ध मुस्लिम देश तुकर्ी में बहुत पहले से ही कुरान को तुकर्ी भाषा में बोला जाता है। उल्लेखनीय है कुरान का अरबी से फारसी में पहला अनुवाद दिल्ली के शाह वलीउल्लाह (1703-1763) ने ही किया था। अत: भारतीय मुसलमान भी इसका प्रभावोत्पादक उपयोग करे।
तीसरे, विदेशी मुस्लिम शासकों के काल में भारतीय मुसलमानों का जुड़ना एक प्रकार का अपराध माना जाता था। पर स्वतंत्रता के पश्चात परिस्थितियां बदल गई हैं। यह विचारणीय है कि विश्व के अन्य मुस्लिम देशों ने मतान्तरण के पश्चात भी अपने अतीत से नाता नहीं तोड़ा। आज भी ईरान अपने को 'आर्यन' कहने में गौरव अनुभव करता है तथा रुस्तम-सोहराब से नाता जोड़ता है। मंगोलिया के लोग चंगेज खां को नहीं भूलते जो मूलत: एक बौद्ध था। इण्डोनेशिया में राम और कृष्ण को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। संघर्ष के उस भयंकर दौर में कुछ भारतीय मुसलमानों ने भारत भक्ति को बनाये रखा, जैसे अमीर खुसरो, मलिक मोहम्मद जायसी कुतुबन, मंझन, ताज, रसखान, रहीस, नगीर अकबराबादी जैसे विद्वान।
चौथे, भारतीय मुस्लिम समुदाय में सामाजिक तथा शैक्षणिक स्तर उन्नत करने की आवश्यकता है। भारत में पाकिस्तान तथा बंगलादेश की भांति एक विवाह की व्यवस्था चाहिए। मदरसों में मौलिकता, वैज्ञानिक तथा आधुनिकतम शिक्षा के समान अवसर मिलने चाहिए। आर्थिक क्षेत्र में योग्यता के आधार पर समान अवसर होने चाहिए।
पांचवें, सभी के लिए संविधान की सर्वोच्चता राष्ट्र प्रेम तथा देशभक्ति की पहली शर्त होनी चाहिए। अत: राष्ट्र के प्रतीक राष्ट्र ध्वज, राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत को प्रमुख स्थान देना भारत के नागरिक का मुख्य लक्षण होना चाहिए।
साभार : पाञ्चजन्य, लेखक : डा. सतीश चन्द्र मित्तल