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Wednesday, October 2, 2013

हैफा में आज भी गूंजती है भारतीय सैनिकों की शौर्यगाथा



900 से ज्यादा भारतीय रणबांकुरों के बलिदान ने लिखी थी हैफा-मुक्ति की कहानी

किसी ने सच ही कहा है कि भारत का सैनिक सेना में नौकरी करने के उद्देश्य से भर्ती नहीं होता, वह भर्ती होता है मातृभूमि पर अपना सब कुछ निछावर करने, अपने कर्तव्य पथ पर अडिग, अनुशासित रहते हुए देश की मिट्टी की रक्षा करने, इंसानियत के दुश्मनों को धूल चटाने। और यही वह भाव होता है जो हमारे बहादुर सैनिकों में सवा लाख से अकेले टकरा जाने का दमखम भरता है, और अंतत: विजयश्री दिलाता है। 

भारतीय सेना के इतिहास में अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जिनमें विपरीत परिस्थितियों में दुश्मन को नाकों चने चबवाकर हमारे जवानों ने किले फतह किए हैं। सिर्फ भारत ही नहीं, विदेशी धरती पर भी हमारे जवानों ने अपने रक्त से शौर्य गाथाएं लिखकर इस धरती के दूध की आन बढ़ाई है। लेकिन हमारे राजनेताओं ने सैनिकों के बलिदानों को हमेशा अपमानित ही किया, उनके गौरव को बढ़ाने की जगह आज भी सैनिकों का मनोबल तोड़ने के दुष्चक्र चलाए जा रहे हैं। शायद यही कारण है कि भारत में ऐसे कम ही लोग होंगे जिन्हें इस्रायल के फिलिस्तीन से सटे हैफा शहर की आजादी के संघर्ष में तीन भारतीय रेजीमेंटों-जोधपुर लांसर्स, मैसूर लांसर्स और हैदराबाद लांसर्स- के अप्रतिम योगदान के बारे में पता होगा। ब्रिटिश सेना के अंग के नाते लड़ते हुए इन भारतीय रेजीमेंटों ने अत्याचारी दुश्मन के चंगुल से हैफा को स्वतंत्र कराया था और इस संघर्ष में 900 से ज्यादा भारतीय योद्घाओं ने बलिदान दिया था, जिनके स्मृतिशेष आज भी इस्रायल में सात शहरों में मौजूद हैं और मौजूद है उनकी गाथा सुनाता एक स्मारक, जिस पर इस्रायल सरकार और भारतीय सेना हर साल 23 सितम्बर को हैफा दिवस के अवसर पर पुष्पांजलि अर्पित करके उन वीरों को नमन करती है। 

हैफा मुक्ति की गाथा कुछ यूं है। बात प्रथम विश्व युद्घ (1914-18) की है। ऑटोमन यानी उस्मानी तुर्कों की सेनाओं ने हैफा को कब्जा लिया था। वे वहां यहूदियों पर अत्याचार कर रही थीं। उस युद्घ में करीब 150,000 भारतीय सैनिक आज के इजिप्ट और इस्रायल में 15वीं इम्पीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड के अंतर्गत अपना रणकौशल दिखा रहे थे। भालों और तलवारों से लैस भारतीय घुड़सवार सैनिक हैफा में मौजूद तुर्की मोर्चों और माउंट कारमल पर तैनात तुर्की तोपखाने को तहस-नहस करने के लिए हमले पर भेजे गए। तुर्की सेना का वह मोर्चा बहुत मजबूत था, लेकिन भारतीय सैनिकों की घुड़सवार टुकडि़यों, जोधपुर लांसर्स और मैसूर लांसर्स ने वह शौर्य दिखाया जिसका सशस्त्र सेनाओं के इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। खासकर जोधपुर लांसर्स ने अपने सेनापति मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्व में हैफा मुक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

23 सितम्बर 1918 को तुर्की सेना को खदेड़कर मेजर ठाकुर दलपत सिंह के बहादुर जवानों ने इस्रायल के हैफा शहर को आजाद कराया। ठाकुर दलपत सिंह ने अपना बलिदान देकर एक सच्चे सैनिक की बहादुरी का असाधारण परिचय दिया था। उनकी उसी बहादुरी को सम्मानित करते हुए ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें मरणोपरांत मिलिटरी क्रास पदक अर्पित किया था। ब्रिटिश सेना के एक बड़े अधिकारी कर्नल हार्वी ने उनकी याद में कहा था, ह्यउनकी मृत्यु केवल जोधपुर वालों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत और पूरे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक बड़ी क्षति है।ह्ण मेजर ठाकुर दलपत सिंह के अलावा कैप्टन अनूप सिंह और से़ ले़ सगत सिंह को भी मिलिटरी क्रास पदक दिया गया था। इस युद्घ में कैप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा और दफादार जोर सिंह को उनकी बहादुरी के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट पदक दिए गए थे। आज भी हैफा, यरुशलम, रामलेह और ख्यात बीच सहित इस्रायल के सात शहरों में उनकी याद बसी हैं। इतना ही नहीं, हैफा नगर निगम और उसके उप महापौर के प्रयासों से इस्रायल सरकार वहां की स्कूली किताबों में भी इन वीर बांकुरों पर विशेष सामग्री प्रकाशित करने का फैसला कर चुकी है। इसके लिए हैफा के उप महापौर हेदवा अलमोग की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। भारत क्या, दिल्ली के ही बहुत कम निवासी जानते होंगे कि तीन मूर्ति भवन के सामने सड़क के बीच लगीं तीन सैनिकों की मूर्तियां उन्हीं तीन घुड़सवार रेजीमेंटों की प्रतीक हैं जिन्होंने अपनी जान निछावर करके हैफा को उस्मानी तुर्कों से मुक्त कराया था।

इस 23 सितम्बर 2013 को हैफा के साथ ही हांगकांग, नई दिल्ली, जयपुर, जोधपुर और मुम्बई में भारत को अपनी मातृभूमि मानने और इस देश के विकास में योगदान देने वाले पारसी समाज की सहभागिता से हैफा दिवस मनाया गया। नई दिल्ली के पारसी प्रार्थना गृह जूडाह ह्याम सिनेगॉग में सम्पन्न इस कार्यक्रम में भारत में इस्रायल के राजदूत आलोन उश्पिज, पंजाब के राज्यपाल रहे ले. जनरल जे़ एफ़ आर. जेकब, स्वाड्रन लीडर राणा तेज प्रताप सिंह चिन्ना, राज्य सभा सांसद तरुण विजय, इंडो-इस्रायल फें्रडशिप फोरम के परामर्शदाता रवि अय्यर सहित अनेक विशिष्टजन उपस्थित थे। इस अवसर पर राजदूत आलोन ने बताया कि चूंकि वे खुद हैफा में पले-बढ़े हैं इसलिए बचपन से ही भारतीय सैनिकों के बलिदान की गाथा सुनते आए हैं। उन्होंने बताया कि आज भी उन सैनिकों के प्रति वहां के लोगों में बहुत सम्मान का भाव है। ले. जनरल जेकब ने उस लड़ाई के कुछ अनछुए पहलू सामने रखे। स्वाड्रन लीडर चिन्ना ने इतिहास के पन्नों से उस लोमहर्षक गाथा के कुछ अंश पढ़कर सुनाए। तरुण विजय ने भारत-इस्रायल संबंधों को और प्रगाढ़ करने और उन बलिदानी सैनिकों की स्मृति को चिर-स्थायी बनाने के कुछ कदम उठाने की सलाह दी। रवि अय्यर ने बताया कि 2018 में हैफा मुक्ति के 100 साल खूब धूमधाम से मनाए जाएंगे, विशेष कार्यक्रम किए जाएंगे। उन्होंने पारसी समाज के भारत के विकास में योगदान और उस समाज में भारत के प्रति आदर भाव की जानकारी दी। एचआरडीआई के महासचिव राजेश गोगना ने कहा कि हैफा मुक्ति की कहानी हर उस भारतीय को पढ़नी चाहिए जिसे अपने बहादुर सैनिकों पर गर्व है। यह गाथा हमारे दिल-दिमाग पर उन वीरों की अमिट छाप छोड़ जाती है। इस मौके पर इंडो-इस्रायल फ्रेंडशिप फोरम और एचआरडीआई की ओर से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि- 'हम इन वीर भारतीय सैनिकों की गाथा इस्रायल की स्कूली किताबों में शामिल करने पर हैफा नगर निगम का धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। 2018 में शताब्दी समारोह आयोजित किए जाने का निर्णय स्वागतयोग्य है।' प्रस्ताव में हैफा के नायक मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत की याद में एक डाक टिकट जारी करने की मांग की गई। कार्यक्रम के आरम्भ और अंत में कुर्ता-पाजामा पहने और बढि़या हिन्दी बोलने वाले उस पारसी सिनेगॉग के मानद सचिव इजकिल इसाक मालेकर ने हिब्रू भाषा में विश्व बंधुत्व और शांति हेतु प्रार्थना की। 

साभार: पाञ्चजन्य, http://www.panchjanya.com

तारीख: 28 Sep 2013 


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