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Friday, September 26, 2014

Ramayan and Sanatan(Hindu) Tradition In Muslim countries:

मुस्लिम राष्ट्र मलेशिया का राष्ट्रीय महाकाव्य हिकायत सेरी रामा है। यह रामायण का मलय भाषा का प्रतिरूप है। इसमें राम को सेरी राम और सीता को सीती देवी कहा गया है। वहां के राष्ट्रपति और मंत्री सेरी राम पादुका धूलि के नाम पर अपने पद की शपथ लेते हैं और समूचा शासन श्रीराम के नाम पर चलाते हैं। यहां तक कि यदि वहां पर कोई बड़ी मस्जिद बनानी होती है तो उसकी राजाज्ञा सेरी राम पादुका के नाम पर जारी की जाती है। इस्लामिक देश होने के बावजूद वहां के राष्ट्रपति को राजा परमेश्वर और उनकी पत्नी को राजा परमेश्वरी के नाम से पुकारा जाता है।

वहां के 9 सुल्तानों के प्रत्येक के दूसरे पुत्र का नाम लक्ष्मण रखा जाता है बौद्ध  देश थाईलैंड की राजधानी का नाम पहले अयुथ्या था। जिसे बाद में मॉडर्न लुक देने के लिए बैंकाक कर दिया गया। वहां के सबसे बड़े शहर का नाम लवपुरी है। वहां का राष्ट्रीय महाकाव्य रामकीयन है, जोकि रामायण का ही थाई प्रतिरूप है। थाईलैंड के राजा अपने नाम के साथ राम शब्द जरूर जोड़ते हैं। साउथ ईस्ट एशिया के देश लाओस का नाम भगवान श्री राम के बड़े बेटे लव के नाम पर पड़ा। जो बाद में बिगड़ते- बिगड़ते लव से लाओस हो गया।

बर्मा देश का नाम भगवान ब्रह्मा के नाम पर रखा गया। सिंगापुर का नाम संस्कृत से निकले सिंहों के देश के नाम पर सिंगापुर रखा गया। अरब कंट्री ब्रुनेई की राजधानी का नाम हनुमान के नाम पर बांदर श्री भगवान रखा गया है। वर्ष 1997 में आयोजित हुए दक्षिण पूर्वी एशियाई खेलों के शुभंकर हनुमान थे। दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर कंबोडिया देश के अंगकोरवाट शहर में है

दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम राष्ट्र इंडोनेशिया का राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह गरुड़ और सरकारी एयरलाइन गरुड़ एयरलाइन है। वहां की सरकारी करंसी पर दिवंगत राष्ट्रपति सुकार्णो के साथ गणेश का फोटो छपा रहता है। इंडोनेशिया की राजधानी का नाम राम की लंका विजय के उपलक्ष्य में जयकर्ता रखा गया था। जो धीरे - धीरे बिगड़कर जकार्ता हो गया। वहां के राष्ट्रीय महाकाव्य रामायण और महाभारत हैं।

देश की सभी यूनिवर्सिटियों में स्टूडेंट्स के लिए इन दोनों महाग्रंथों को पढ़ना अनिवार्य है। इंडोनेशिया में कई द्वीपों का नाम रामायण के पात्रों पर है। यहां पर लक्ष्मण की माता सुमित्रा के नाम पर सुमात्रा और सुग्रीव के नाम पर सुरब्य द्वीप व बाली द्वीप हैं। वहां के लोगों को अपनी इस विचित्र स्थिति पर कोई विरोधाभास भी प्रतीत नहीं होता है। वे गर्व से बताते हैं कि हमारा मजहब इस्लाम है लेकिन संस्कृति रामायण है। हम इसे किसी सूरत में नहीं छोड़ सकते।








Thursday, September 25, 2014

नरेंद्र मोदी यात्रा : अमेरिका एक हिन्दू देश है...


121 वर्ष पहले स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए थे और आज नरेंद्र दामोदर मोदी अमेरिका गए हैं। नरेंद्र मोदी की योग और ध्यान में गहरी रुचि है और उन्होंने अपने जीवन का कुछ समय संन्यासी रहकर भी बिताया है। विवेकानंद के जाने से लेकर तब से लेकर अब तक सबकुछ बदल चुका है। अमेरिका कई वर्षों पहले ही भौतिकवाद से ऊब गया है, लेकिन भारत में अब भौतिकवादी प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और इसके दुष्परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। अमेरिका भारत की राह पर चल पड़ा है और भारत भौतिकवादी अमेरिका की राह पर। हम में से कुछ तथाकथित बुद्धिवादी, धर्मांतरित और साम्यवादी लोग हिन्दू धर्म और इसकी परंपरा व त्योहारों को गाली बकते हैं। यही हमारे लिए दुर्भाग्य की बात है। लेकिन सच तो यह है कि आध्यात्मिक रूप से अमेरिका की आत्मा अब भारतीय होती जा रही है। कुछ तो अब कहने लगे हैं कि अमेरिका एक हिन्दू देश है... 
भारत ने ज्ञान, धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में हमेशा से हर देश को मात दी, लेकिन आज भारत हर देश का अनुसरण करने लगा है। प्राचीन ग्रीक और योरपीयन दर्शन पर स्पष्ट रूप से भारतीय वेद और दर्शन का प्रभाव देखा जा सकता है। मध्यकाल में अमेरिका, रशिया, चीन और ब्रिटेन ने भारतीय ज्ञान के बल पर ही खुद का दर्शन और विज्ञान खड़ा किया।

लगभग 2 करोड़ से ज्यादा अमेरिकन योग और ध्यान करते हैं और उनकी हिन्दू और बौद्ध धर्म में गहरी आस्था है। ये वे अमेरिकी हैं जिनका भारत से कोई संबंध नहीं है, लेकिन वैदिक संस्कृति के प्रभाव से वैदिक जीवन जीने वाले हिन्दू बने हैं। इनका किसी भी रूप में कोई धर्मांतरण नहीं किया गया फिर भी ये सभी हिन्दू धर्म में गहरी आस्था रखते हैं और ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। भारतीय हिन्दू धर्म किसी को धर्म-परिवर्तन के लिए नहीं कहता बल्कि सबके कल्याण की बात करता है। इस कल्याण के मार्ग में वह किसी भी धर्म को बाधक नहीं मानता।

भारतीय संत स्वामी विवेकानंद, महेश योगी, वेदांत स्वामी, परमहंस योगानंद, महर्षि अरविंद, ओशो रजनीश, जड्डु कृष्णमूर्ति आदि संतों ने अमेरिका को भारतीय अध्यात्म से परिचित कराया और वहां भारतीय दर्शन एवं वेदांत का प्रसार किया। ऐसा कहना है प्रख्यात अमेरिकी लेखक और आध्यात्मिक गुरु और 'अमेरिकन वेदाज' पुस्तक के लेखक फिलिप गोल्डबर्ग का। फिलिप आध्यात्मिक काउंसलर, मेडिटेशन टीचर, वेद ज्ञाता हैं।

लेकिन यह एक आधा सच है, ये सारे संत तो आज से 60-70 वर्ष पूर्व ही अमेरिका गए थे। दरअसल, अमेरिका के दार्शनिक, कवि और साहित्यकार भारतीय दर्शन और अध्यात्म से अच्छी तरह वाकिफ थे। उन्होंने वेदों सहित भारत के महान दार्शनिकों के ज्ञान का अध्ययन कर अपना खुद का एक नया दर्शन गढ़ा था। 

राल्फ वाल्डो इमर्सन : बोस्टन के रहने वाले इमर्सन (1803-1882) का नाम सभी साहित्य और दर्शन को पढ़ने वाले लोग जानते ही होंगे। ये दार्शनिक होने के साथ-साथ प्रसिद्ध निबंधकार, वक्ता तथा कवि थे। इमर्सन भारतीय दर्शन, वेद और गीता के प्रकांड विद्वान थे। उनके लेखन में इसकी झलक मिलती है। 
इमर्सन ने अपने ग्रंथ 'स्वेडनबर्ग' में माया, कर्मफल एवं पुनर्जन्म के सिद्धांतों को हिन्दू दर्शन की पृष्ठभूमि पर समझाने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं, 'जीवात्मा को हजारों बार जन्म लेना पड़ता है, जब तक कि वह अपने सभी दुष्कृत्यों से मुक्ति नहीं पा लेता। किन्हीं-किन्हीं को प्रयास करने पर अथवा अध्यात्म उपचारों द्वारा अथवा अनायास ही पूर्वजन्मों की स्मृति भी बनी रहती है, पर सृष्टा ने हर जन्म के बाद भूलने का ही सिद्धांत बनाया है। पुनर्जन्म के प्रसंग मात्र पौराणिक निरर्थक नहीं, वरन यथार्थ हैं।' उनके ये विचार ख्रीस्त (ईसाई) विचारधारा के विरुद्ध थे।

अपनी पहली पुस्तक 'नेचर' (1836) में आपने थोथी ईसाइयत तथा अमेरिकी भौतिकवाद की कड़ी आलोचना की। इसके लिए उनको कुछ ईसाई कट्टरपंथियों का विरोध भी झेलना पड़ा।

1857 में इमर्सन ने एक कविता लिखी थी जिसका नाम 'ब्रह्म' था। इमर्सन की इस कविता तथा अन्य रचनाओं में गीता, उपनिषद अन्य हिन्दू दर्शन व धर्मग्रंथों के अध्ययन की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। इमर्सन के विचारों ने अमेरिकी दर्शन और विज्ञान की दिशा मोड़ दी।

डेविड हेनरी थोरो : इनकी एक प्रसिद्ध पुस्तक है- वाल्डेन। वाल्डेन रूस की एक नदी का नाम है। थोरो बहुत अमीर व्यक्ति थे। वे भोगवादी जीवन से ऊब गए थे। उन्होंने सबकुछ छोड़कर जंगल में संन्यासियों की तरह जीवन बिताने का निश्चय किया। क्यों? 

डेविड हेनरी थोरो ने अपनी एक किताब 'लाइफ इन दी वुड्स' में लिखा है, 'बंगला, गाड़ी, प्रसिद्धि, पद और पैसा प्राप्त करने के बाद भी जीवन से सुकून चला जाता है तो समझो तुम असफल हो। सफलता इस बात में निहित है कि तुम कितने निडर और सुकून से जी रहे हो। मुझे प्यार, पैसा या नाम मत दो, अगर कुछ दे सकते हो तो सत्य दो।' थोरो के मन में ऐसे विचार कहां से आए? महात्मा गांधी थोरो को अपना आदर्श मानते थे जबकि थोरो वेदों को अपना आदर्श मानते थे।

हेनरी डेविड थोरो अमेरिका के विख्यात समाज-सुधारक थे। वे 'सिविल डिसओबिडियेंस मूवमेंट' के जनक थे जिनसे गांधी ने अपना सविनय अवज्ञा आंदोलन' लिया था। थोरो के पास गीता के अलावा भारतीय दार्शनिकों की कई किताबें थीं, जो उन्होंने भारत से मंगवाई थीं। थोरो ने वेदों की कई जगहों पर खुलकर प्रशंसा की है।

अमेरिकी जनता मानती है कि भारतीय दर्शन और अध्यात्म बहुत ही समृद्ध है। यहां के संगीत में भी एक तरह का दर्शन महसूस होता है। आज अमेरिकी शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन आ रहा है और इस परिवर्तन पर भारतीय दर्शन या भारतीयता की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। लाखों अमेरिकियों ने भारतीय अध्यात्म एवं दर्शन का अध्ययन किया है। भारतीय दर्शन और अध्यात्म का प्रभाव अमेरिका और पश्चिमी देशों पर स्पष्ट दिखाई देता है। भारत अपने शाश्वत जीवन-मूल्यों की रक्षा और उत्कृष्टता के लिए जाना जाता है और अमेरिकी जनता इससे बहुत प्रभावित है। अमेरिकियों का मानना है कि किसी भी कीमत पर शाश्वत मूल्यों से पीछे नहीं हटना चाहिए

SAABHAAR : WEBDUNIA 

Wednesday, September 24, 2014

ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि व अत्री के कुल



मरीचि : महर्षि मरीचि ब्रह्मा के अन्यतम मानसपुत्र और एक प्रधान प्रजापति हैं। इन्हें द्वितीय ब्रह्मा ही कहा गया है। ऋषि मरीचि पहले मन्वंतर के पहले सप्तऋषियों की सूची के पहले ऋषि है। यह दक्ष के दामाद और शंकर के साढू थे।

इनकी पत्नि दक्ष- कन्या संभूति थी। इनकी दो और पत्निनयां थी- कला और उर्णा। संभवत: उर्णा को हीधर्मव्रता भी कहा जाता है जो एक ब्राह्मण कन्या थी। दक्ष के यज्ञ में मरीचि ने भी शंकर का अपमान किया था। इस पर शंकर ने इन्हें भस्म कर डाला था।

इन्होंने ही भृगु को दण्डनीति की शिक्षा दी है। ये सुमेरु के एक शिखर पर निवास करते हैं और महाभारत में इन्हें चित्रशिखण्डी कहा गया है। ब्रह्मा ने पुष्करक्षेत्र में जो यज्ञ किया था उसमें ये अच्छावाक् पद पर नियुक्त हुए थे। दस हजार श्लोकों से युक्त ब्रह्मपुराण का दान पहले-पहल ब्रह्मा ने इन्हीं को किया था। वेद और पुराणों में इनके चरित्र का चर्चा मिलती है। 

मरीचि ने कला नाम की स्त्री से विवाह किया और उनसे उन्हें कश्यप नामक एक पुत्र मिला। कश्यप की माता 'कला' कर्दम ऋषि की पुत्री और ऋषि कपिल देव की बहन थी। ब्रह्मा के पोते और मरीचि के पुत्र कश्यप ने ब्रह्मा के दूसरे पुत्र दक्ष की 13 पुत्रियों से विवाह किया। मुख्यत इन्हीं कन्याओं से सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए।

कश्यय पत्नी- अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्ठा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा और तिमि। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएं कही जाती हैं। इन माताओं को ही जगत जननी कहा जाता है।

यहां यह बताना जरूरी है कि बहुत से विद्वान मानते हैं कि कश्यप ने दक्ष की 17 कन्याओं से विवाह किया था लेकिन ऐसा नहीं है। वो तार्क्ष्य कश्यप थे जिन्होंने विनीता कद्रू, पतंगी और यामिनी से विवाह किया था। इस तरह ये 17 कन्याएं होती है, लेकिन कुछ विद्वान सभी को कश्यप की पत्नी मान कर लिखते हैं। कश्यप ऋषि ने दक्ष की सिर्फ 13 कन्याओं से ही विवाह किया था।

कश्यप की पत्नी अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जलजंतु) की उत्पत्ति हुई।

कश्यप के आदिति से 12 आदित्य पुत्रों का जन्म हुए जिनमें विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। राजा इक्ष्वाकु के कुल में जैन और हिन्दू धर्म के महान तीर्थंकर, भगवान, राजा, साधु महात्मा और सृजनकारों का जन्म हुआ है।

वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे- 1.इल, 2.इक्ष्वाकु, 3.कुशनाम, 4.अरिष्ट, 5.धृष्ट, 6.नरिष्यन्त, 7.करुष, 8.महाबली, 9.शर्याति और 10.पृषध।

* ब्रह्मा के प्रमुख पुत्र :- 1. मरीचि, 2. अत्रि, 3. अंगिरस, 4. पुलस्त्य, 5. पुलह, 6. कृतु, 7. भृगु, 8. वशिष्ठ, 9. दक्ष, 10. कर्दम, 11. नारद, 12. सनक, 13. सनन्दन, 14. सनातन, 15. सनतकुमार, 16. स्वायम्भुव मनु और शतरुपा, 17. चित्रगुप्त, 18. रुचि, 19. प्रचेता 20. अंगिरा आदि।

* ब्रह्मा की प्रमुख पुत्रियां :- 1. सावित्री, 2. गायत्री, 3. श्रद्धा, 4. मेधा और 5. सरस्वती हैं।

* 10 प्रजापति : ब्रह्मा के 59 पुत्रों में से 10 पुत्र प्रजापति बने- 1. मरीचि, 2. अत्रि, 3. अंगिरा, 4. पुलस्त्य, 5. पुलह, 6. कृतु, 7. भृगु, 8. वशिष्ठ, 9. दक्ष और 10. कर्दम।

ब्रह्मा जी के पुत्र अत्री का कुल 


इनसे जन्मे- भारत, यादव, मलेच्छ और यवन - ब्रह्मा के दूसरे पुत्र अत्रि का कुल


अत्रि : अत्रि ने ब्रह्मा पुत्र कर्दम की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था। अनुसूया की माता का नाम देवहूति था। अत्रि को अनुसूया से एक पुत्र जन्मा जिसका नाम दत्तात्रेय था। अत्रि-दंपति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा, महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में आविर्भूत हुए। इनके ब्रह्मावादिनी नाम की कन्या भी थी।

अत्रि पुत्र चन्द्रमा ने बृहस्पति की पुत्री  तारा से विवाह किया जिससे उसे बुध नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो बाद में क्षत्रियों के चंद्रवंश का प्रवर्तक हुआ। इस वंश के राजा खुद को चंद्रवंशी कहते थे। चूंकि चंद्र अत्रि ऋषि की संतान थे इसलिए आत्रेय भी चंद्रवंशी ही हुए। ब्राह्मणों में एक उपनाम होता है आत्रेय अर्थात अत्रि से संबंधित या अत्रि की संतान।

चंद्रवंश के प्रथम राजा का नाम भी सोम माना जाता है जिसका प्रयाग पर शासन था। अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति नामक छः महाबल-विक्रमशाली पुत्र हुए।

नहुष के बड़े पुत्र यति थे, जो संन्यासी हो गए इसलिए उनके दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए। ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले। ययाति के 5 पुत्र थे। देवयानी से यदु और तर्वासु तथा शर्मिष्ठा से द्रुह्मु, अनु एवं पुरु हुए। तर्वासु से भोन (यवन), द्रुह्म से मलेच्छ (मिस्र-अरबी) तथा पुरु से सबसे प्रतापी पुरुवंश चला। अनु का वंश ज्यादा नहीं चला।

* ययाति के 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुह्मु।

ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिंध प्रांत) और उत्तर में अनु को माण्डलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भूमंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए। हालांकि पुरु के राज्य में संपूर्ण कश्मीर और जम्मू सहित हिमालय और तिब्बत का क्षेत्र था। यरुशलम से काशी तक इन 5 कुल का ही शासन था।

1. पुरु का वंश : पुरु वंश में कई प्रतापी राजा हुए उनमें से एक थे भरत और सुदास। इसी वंश में शांतनु हुए जिनके पुत्र थे भीष्म। पुरु के वंश में ही अर्जुन पुत्र अभिमन्यु हुए। इसी वंश में आगे चलकर परीक्षित हुए जिनके पुत्र थे जन्मजेय।

2. यदु का वंश : यदु के कुल में भगवान कृष्ण हुए। 

3. तुर्वसु का वंश : तुर्वसु के वंश में भोज (यवन) हुए। ययाति के पुत्र तुर्वसु का वह्नि, वह्नि का भर्ग, भर्ग का भानुमान, भानुमान का त्रिभानु, त्रिभानु का उदारबुद्धि करंधम और करंधम का पुत्र हुआ मरूत। मरूत संतानहीन था इसलिए उसने पुरु वंशी दुष्यंत को अपना पुत्र बनाकर रखा था। परंतु दुष्यंत राज्य की कामना से अपने ही वंश में लौट गए।

महाभारत के अनुसार ययाति पुत्र तुर्वसु के वंशज यवन थे। पहले ये क्षत्रिय थे, पर ब्राह्मणों से द्वेष रखने के कारण इनकी गिनती शूद्रों में होने लगी। महाभारत युद्ध में ये कौरवों के साथ थे। इससे पूर्व दिग्विजय के समय नकुल और सहदेव ने इन्हें पराजित किया था।

4. अनु का वंश : अनु को ऋ‍ग्वेद में कहीं-कहीं आनव भी कहा गया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह कबीला परुष्णि नदी (रावी नदी) क्षेत्र में बसा हुआ था। आगे चलकर सौवीर, कैकेय और मद्र कबीले इन्हीं आनवों से उत्पन्न हुए थे।

5. द्रुह्मु का वंश : द्रुह्मु के वंश में राजा गांधार हुए। ये आर्यावर्त के मध्य में रहते थे बाद में द्रहुओं को इक्ष्वाकु कुल के राजा मंधातरी ने मध्य एशिया की ओर खदेड़ दिया गया। पुराणों में द्रुह्यु राजा प्रचेतस के बाद द्रुह्युओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता। प्रचेतस के बारे में लिखा है कि उनके 100 बेटे अफगानिस्तान से उत्तर जाकर बस गए और 'म्लेच्छ' कहलाए।

ययाति के पुत्र द्रुह्यु से बभ्रु का जन्म हुआ। बभ्रु का सेतु, सेतु का आरब्ध, आरब्ध का गांधार, गांधार का धर्म, धर्म का धृत, धृत का दुर्मना और दुर्मना का पुत्र प्रचेता हुआ। प्रचेता के सौ पुत्र हुए, ये उत्तर दिशा में म्लेच्छों (अरबों) के राजा हुए।

* यदु और तुर्वस को दास कहा जाता था। यदु और तुर्वस के विषय में ऐसा माना जाता था कि इंद्र उन्हें बाद में लाए थे। सरस्वती दृषद्वती एवं आपया नदी के किनारे भरत कबीले के लोग बसते थे। सबसे महत्वपूर्ण कबीला भरत का था। इसके शासक वर्ग का नाम त्रित्सु था। संभवतः सृजन और क्रीवी कबीले भी उनसे संबद्ध थे। तुर्वस और द्रुह्म से ही यवन और मलेच्छों का ‍वंश चला। इस तरह यह इतिहास सिद्ध है कि ब्रह्मा के एक पु‍त्र अत्रि के वंशजों ने ही यहुदी, यवनी और पारसी धर्म की स्थापना की थी। इन्हीं में से ईसाई और इस्लाम धर्म का जन्म हुआ। यहुदियों के जो 10 कबीले थे उनका संबंध द्रुह्मु से ही था। हालांकि यह शोध का विषय है।

संदर्भ : वेद, पुराण, महाभारत, साभार: वेबदुनिया

Monday, September 22, 2014

कृष्ण और बौद्ध काल के बीच के खोए हुए पन्ने



मध्‍यकाल में भारतीय इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया। तक्षशिला और पाटलीपुत्र के ध्वंस के बाद महाभारत युद्ध और बौद्ध काल के बीच के हिंदू इतिहास के अब बस खंडहर ही बचे हैं। विदेशी इतिहासकारों ने जानबूझकर इस काल के इतिहास को विरोधाभासी बनाया। क्योंकि उन्हें भारत में नए धर्म को स्थापित करना था। दरअसल बुद्ध के पूर्व के संपूर्ण इतिहास को नष्ट किए जाने का संपूर्ण प्रयास किया गया। इस धूमिल से इतिहास को इतिहासकारों ने खुदाईयों और ग्रंथों की खाक छानते हुए क्रमबद्ध करने का प्रयास किया है।

हड़प्पा, सिंधु और मोहनजोदड़ों सभ्यता का प्रथम चरण 3300 से 2800 ईसा पूर्व, दूसरा चरण 2600 से 1900 ईसा पूर्व और तीसरा चरण 1900 से 1300 ईसा पूर्व तक रहा। इतिहासकार मानते हैं कि यह सभ्यता काल 800 ईस्वी पूर्व तक चलता रहा। 

प्रथम चरण के काल में महाभारत हुई, दूसरे चरण के काल में मिस्र के फराओं और भारत के कुरु और पौरवो के राजवंश थे। तीसरे चरण में यहूदी धर्म के संस्थापक इब्राहिम, मूसा, सुलेमान ने यहूदी वंशों का निर्माण किया तो भारत में सभी वंशों के 16 महाजनपदों का उदय हुआ। हड़प्पा से पहले सिंधु नदी के आसपास मेहरगढ़ की सभ्यता का अस्तित्व था। उससे पूर्व मध्यप्रदेश में भीमबेटका में भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता को खोजा गया जिसका काल 9000-7000 ईसा पूर्व था। यहां गुफाओं में कुछ शैलचित्र ऐसे भी मिले हैं जिनकी उम्र कार्बनडेटिंग अनुसार 35 हजार ईसा पूर्व की मानी गई है।

सिंधु या मोहनजोदड़ो के काल में इराक में सुमेरी और मिस्र में सबाइन सभ्यता सबसे विकसित सभ्यता थी। मोहदजोदड़ों हड़प्पा से मिलने वली मुहरें, बर्तन, भित्तिचित्र आदि ईरान, मिस्र और इराकी सभ्यताओं में पाई गई मुहरों आदि से मिलती जुलती है। सिंधु घाटी की कई मोहरें सुमेरिया से मिली है जिससे यह भी सिद्ध होता है कि इस देश के उस काल में भारत से संबंध थे।

2800 से 1900 ईसापूर्व के बीच भारत में किन राजवंशों का राज था इसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। इस काल में धर्म का केंद्र हस्तीनापुर, मधुरा आदि से हटकर तक्षशिला हो गया था। अर्थात पेशावर से लेकर हिंदुकुश के इलाके में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहे थे।

1300 ईसा पूर्व भारत 16 महाजनपदों में बंटा गया- 1. कुरु, 2. पंचाल, 3. शूरसेन, 4. वत्स, 5. कोशल, 6. मल्ल, 7. काशी, 8. अंग, 9. मगध, 10. वृज्जि, 11. चे‍दि, 12. मत्स्य, 13. अश्मक, 14. अवंति, 15. गांधार और 16. कंबोज। अधिकांशतः महाजनपदों पर राजा का ही शासन रहता था, परंतु गण और संघ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था।

महाभारत के बाद धीरे-धीरे धर्म का केंद्र तक्षशिला (पेशावर) से हटकर मगध के पाटलीपुत्र में आ गया। गर्ग संहिता में महाभारत के बाद के इतिहास का उल्लेख मिलता है। मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तक्षशिला और पाटलीपुत्र के संहार किए जाने के कारण महाभारत से बुद्धकाल तक के इतिहास का अस्पष्ट उल्लेख मिलता है।

यह काल बुद्ध के पूर्व का काल है, जब भारत 16 जनपदों में बंटा हुआ था। हर काल में उक्त जनपदों की राजधानी भी अलग-अलग रही, जैसे कोशल राज्य की राजधानी अयोध्या थी तो बाद में साकेत और उसके बाद बौद्ध काल में श्रावस्ती बन गई।

महाभारत युद्ध के पश्चात पंचाल पर पाण्डवों के वंशज तथा बाद में नाग राजाओं का अधिकार रहा। पुराणों में महाभारत युद्ध से लेकर नंदवंश के राजाओं तक 27 राजाओं का उल्लेख मिलता है।

महाभारत काल के बाद अर्थात कृष्ण के बाद हजरत इब्राहीम का काल ईस्वी पूर्व 1800 है अर्थात आज से 3813 वर्ष पूर्व का अर्थात कृष्ण के 1400 वर्ष बाद ह. इब्राहीम का जन्म हुआ था। यह उपनिषदों का काल था। ईसा से 1000 वर्ष पूर्व लिपिबद्ध किए गए छांदोग्य उपनिषद में महाभारत युद्ध के होने का जिक्र है।

हजरत इब्राहीम के काल में वेद व्यास के कुल के महान संत 'सुतजी' थे। इस काल में वेद, उपनिषद, महाभारत और पुराणों को फिर से लिखा जा रहा था। सुतजी और इब्राहीम का काल थोड़ा-बहुत ही आगे-पीछे रहा।

इस काल में उत्तर वैदिक काल की सभ्यता का पतन होना शुरू हो गया था। इस काल में एक और जहां जैन धर्म के अनुयायियों और शासकों की संख्‍या बढ़ गई थी वहीं धरती पर यहूदियों के वंश विस्तार की कहानी लिखी जा रही थी। हजरत इब्राहीम इस इराक का क्षेत्र छोड़कर सीरिया के रास्ते इसराइल चले गए थे और फिर वहीं पर उन्होंने अपने वंश और यहूदी धर्म का विस्तार किया। 

इस काल में भरत, कुरु, द्रुहु, त्रित्सु और तुर्वस जैसे राजवंश राजनीति के पटल से गायब हो रहे थे और काशी, कोशल, वज्जि, विदेह, मगध और अंग जैसे राज्यों का उदय हो रहा था। इस काल में आर्यों का मुख्य केंद्र 'मध्यप्रदेश' था जिसका प्रसार सरस्वती से लेकर गंगा दोआब तक था। यही पर कुरु एवं पांचाल जैसे विशाल राज्य भी थे। पुरु और भरत कबीला मिलकर 'कुरु' तथा 'तुर्वश' और 'क्रिवि' कबीला मिलकर 'पंचाल' (पांचाल) कहलाए।

अंतिम राजा निचक्षु : महाभारत के बाद कुरु वंश का अंतिम राजा निचक्षु था। पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर नरेश निचक्षु ने, जो परीक्षित का वंशज (युधिष्ठिर से 7वीं पीढ़ी में) था, हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहा दिए जाने पर अपनी राजधानी वत्स देश की कौशांबी नगरी को बनाया। इसी वंश की 26वीं पीढ़ी में बुद्ध के समय में कौशांबी का राजा उदयन था। निचक्षु और कुरुओं के कुरुक्षेत्र से निकलने का उल्लेख शांख्यान श्रौतसूत्र में भी है। 

जन्मेजय के बाद क्रमश: शतानीक, अश्वमेधदत्त, धिसीमकृष्ण, निचक्षु, उष्ण, चित्ररथ, शुचिद्रथ, वृष्णिमत सुषेण, नुनीथ, रुच, नृचक्षुस्, सुखीबल, परिप्लव, सुनय, मेधाविन, नृपंजय, ध्रुव, मधु, तिग्म्ज्योती, बृहद्रथ और वसुदान राजा हुए जिनकी राजधानी पहले हस्तिनापुर थी तथा बाद में समय अनुसार बदलती रही। बुद्धकाल में शत्निक और उदयन हुए। उदयन के बाद अहेनर, निरमित्र (खान्दपनी) और क्षेमक हुए।

मगध वंश में क्रमश: क्षेमधर्म (639-603 ईपू), क्षेमजित (603-579 ईपू), बि‍म्बिसार (579-551), अजातशत्रु (551-524), दर्शक (524-500), उदायि (500-467), शिशुनाग (467-444) और काकवर्ण (444-424 ईपू) ये राजा हुए।

नंद वंश में नंद वंश उग्रसेन (424-404), पण्डुक (404-294), पण्डुगति (394-384), भूतपाल (384-372), राष्ट्रपाल (372-360), देवानंद (360-348), यज्ञभंग (348-342), मौर्यानंद (342-336), महानंद (336-324)। इससे पूर्व ब्रहाद्रथ का वंश मगध पर स्थापित था।

अयोध्या कुल के मनु की 94 पीढ़ी में बृहद्रथ राजा हुए। उनके वंश के राजा क्रमश: सोमाधि, श्रुतश्रव, अयुतायु, निरमित्र, सुकृत्त, बृहत्कर्मन्, सेनाजित, विभु, शुचि, क्षेम, सुव्रत, निवृति, त्रिनेत्र, महासेन, सुमति, अचल, सुनेत्र, सत्यजित, वीरजित और अरिञ्जय हुए। इन्होंने मगध पर क्षेमधर्म (639-603 ईपू) से पूर्व राज किया था।

साभार: वेबदुनिया 

Friday, September 19, 2014

हिंदुस्तान के गौरवशाली ऋषि-मुनियों का वैज्ञानिक इतिहास



हिंदुस्तान के गौरवशाली ऋषि-मुनियों का वैज्ञानिक इतिहास !

हिंदु वेदों को मान्यता देते हैं और वेदों में विज्ञान बताया गया है। केवल सौ वर्षों में पृथ्वी को नष्टप्राय बनाने के मार्ग पर लाने वाले आधुनिक विज्ञान की अपेक्षा, अत्यंत प्रगतिशील एवं एक भी समाज विघातक शोध न करनेवाला प्राचीन ‘हिंदु विज्ञान’ था।
पूर्वकाल के शोधकर्ता हिंदु ऋषियों की बुद्धि की विशालता देखकर आज के वैज्ञानिकों को अत्यंत आश्चर्य होता है। पाश्चात्त्य वैज्ञानिकों की न्यूनता सिद्ध करनेवाला शोध सहस्रों वर्ष पूर्व ही करने वाले हिंदु ऋषि-मुनि ही खरे वैज्ञानिक शोधकर्ता हैं।

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गुरुत्वाकर्षण का गूढ उजागर करनेवाले भास्कराचार्य !

भास्कराचार्य जी ने अपने (दूसरे) ‘सिद्धांत शिरोमणि’ ग्रंथ में विषय में लिखा है कि, ‘पृथ्वी अपने आकाश का पदार्थ स्व-शक्ति से अपनी ओर खींच लेती हैं । इस कारण आकाश का पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’ । इससे सिद्ध होता है कि, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण का शोध न्यूटन से ५०० वर्ष पूर्व लगाया।

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परमाणु शास्त्र के जनक आचार्य कणाद !

अणुशास्त्रज्ञ जॉन डाल्टनके २५०० वर्ष पूर्व आचार्य कणादजीने बताया कि, ‘द्रव्यके परमाणु होते हैं । ’विख्यात इतिहासज्ञ टी.एन्. कोलेबु्रक जी ने कहा है कि, ‘अणुशास्त्र में आचार्य कणाद तथा अन्य भारतीय शास्त्रज्ञ युरोपीय शास्त्रज्ञों की तुलना में विश्व विख्यात थे।’

कर्करोग प्रतिबंधित करनेवाला पतंजलीऋषिका योगशास्त्र !

‘पतंजली ऋषि द्वारा २१५० वर्ष पूर्व बताया ‘योगशास्त्र’, कर्करोग जैसी दुर्धर व्याधि पर सुपरिणामकारक उपचार है । योगसाधना से कर्करोग प्रतिबंधित होता है ।’ - भारत शासन के ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्था’के (‘एम्स’के) ५ वर्षों के शोध का निष्कर्ष !

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औषधि-निर्मिति के पितामह : आचार्य चरक !

इ.स. १०० से २०० वर्ष पूर्व काल के आयुर्वेद विशेषज्ञ चरकाचार्यजी। ‘चरकसंहिता’ प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथ के निर्माणकर्ता चरक जी को ‘त्वचा चिकित्सक’ भी कहते हैं। आचार्य चरक ने शरीर शास्त्र, गर्भ शास्त्र, रक्ताभिसरण शास्त्र, औषधि शास्त्र इत्यादि के विषय में अगाध शोध किया था। मधुमेह, क्षयरोग, हृदयविकार आदि दुर्धररोगों के निदान एवं औषधोपचार विषयक अमूल्य ज्ञान के किवाड उन्होंने अखिल जगत के लिए खोल दिए। चरकाचार्यजी एवं सुश्रुताचार्य जी ने इ.स. पूर्व ५००० में लिखे गए अर्थववेद से ज्ञान प्राप्त करके ३ खंड में आयुर्वेद पर प्रबंध लिखे।

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शल्यकर्म में निपुण महर्षि सुश्रुत !

६०० वर्ष ईसापूर्व विश्व के पहले शल्य चिकित्सक (सर्जन) महर्षि सुश्रुत शल्य चिकित्सा के पूर्व अपने उपकरण उबाल लेते थे । आधुनिक विज्ञान ने इसका शोध केवल ४०० वर्ष पूर्व किया ! महर्षि सुश्रुत सहित अन्य आयुर्वेदाचार्य त्वचारोपण शल्यचिकित्सा के साथ ही मोतियाबिंद, पथरी, अस्थिभंग इत्यादिके संदर्भमें क्लिष्ट शल्यकर्म करने में निपुण थे । इस प्रकार के शल्यकर्मों का ज्ञान पश्चिमी देशों ने अभी के कुछ वर्षों में विकसित किया है !

महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखित ‘सुश्रुतसंहिता' ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के विषय में विभिन्न पहलू विस्तृत रूप से विशद किए हैं । उसमें चाकू, सुईयां, चिमटे आदि १२५ से भी अधिक शल्यचिकित्सा हेतु आवश्यक उपकरणोंके नाम तथा ३०० प्रकार के शल्यकर्मोंका ज्ञान बताया है।

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नागार्जुन

नागार्जुन, ७वीं शताब्दी के आरंभ के रसायन शास्त्र के जनक हैं। इनका पारंगत वैज्ञानिक कार्य अविस्मरणीय है। विशेष रूपसे सोने धातुपर शोध किया एवं पारे पर उनका संशोधन कार्य अतुलनीय था। उन्होंने पारे पर संपूर्ण अध्ययन कर सतत १२ वर्ष तक संशोधन किया । पश्चिमी देशों में नागार्जुन के पश्चात जो भी प्रयोग हुए उनका मूलभूत आधार नागार्जुन के सिद्धांत के अनुसार ही रखा गया।

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बौद्धयन

२५०० वर्ष पूर्व (५०० इ.स.पूर्व) ‘पायथागोरस सिद्धांत’की खोज करनेवाले भारतीय त्रिकोणमितितज्ञ । अनुमानतः २५०० वर्ष पूर्व भारतीय त्रिकोणमितिवितज्ञों ने त्रिकोणमितिशास्त्र में महत्त्वपूर्ण शोध किया। विविध आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाने की त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बौद्धयन ने खोज निकाली। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में परिवर्तन करना, इस प्रकार के अनेक कठिन प्रश्नों को बौद्धयन ने सुलझाया।

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ऋषि भारद्वाज

राइट बंधुओंसे २५०० वर्ष पूर्व वायुयान की खोज करनेवाले भारद्वाज ऋषि !

आचार्य भारद्वाज जी ने ६०० वर्ष इ.स.पूर्व विमानशास्त्र के संदर्भमें महत्त्वपूर्ण संशोधन किया। एक ग्रह से दूसरे ग्रहपर उडान भरनेवाले, एक विश्व से दूसरे विश्व उडान भरनेवाले वायुयान की खोज, साथ ही वायुयान को अदृश्य कर देना इस प्रकार का विचार पश्चिमी शोधकर्ता भी नहीं कर सकते। यह खोज आचार्य भारद्वाज जी ने कर दिखाया।

पश्चिमी वैज्ञानिकों को महत्वहीन सिद्ध करनेवाले खोज, हमारे ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही कर दिखाया था। वे ही सच्चे शोधकर्ता हैं।

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गर्गमुनि

कौरव-पांडव काल में तारों के जगत के विशेषज्ञ गर्ग मुनि जी ने नक्षत्रों की खोज की। गर्ग मुनि जी ने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के जीवन के संदर्भ में जो कुछ भी बताया वह शत प्रतिशत सत्य सिद्ध हुआ। कौरव-पांडवों का भारतीय युद्ध मानव संहारक रहा, क्योंकि युद्धके प्रथम पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी । इसके द्वितीय पक्ष में भी तिथि क्षय थी । पूर्णिमा चौदहवें दिन पड गई एवं उसी दिन चंद्रग्रहण था, यही घोषणा गर्ग मुनि जीने भी की थी .

साभार: मुकुल शुक्ल, charak shanhita, Deepu Mishra, Acharya Charak., Patanjali Yog Rishi and Kamal Singh.


Friday, September 5, 2014

वर्ण व्यवस्था का बदलता स्वरूप

जातिवाद को लेकर भारत में बहुत बवाल खड़ा किया जाता रहा है। खासकर तथाकथित जातिवादी व्यवस्था की आड़ में सनातन हिंदू धर्म को बदनाम ‍किए जाने का कुचक्र भी बढ़ा है। देशी और विदेशी लोग इस बुराई को लेकर मोटी-मोटी किताब लिख चुके हैं, लेकिन क्या वे यह जानते हैं कि प्रत्येक धर्म और राष्ट्र में इस तरह की बुराइयाँ पाई जाती है। क्या उन्होंने सामाजिक विज्ञान पढ़ा है? क्या वे जातियों की उत्पत्ति का सिद्धांत जानते हैं? सभी धर्म के लोगों में ऊँच-नीच की भावनाएँ होती है किंतु धर्म का इससे कोई संबंध नहीं होता।

यक्ष और रक्ष : श्रुति अर्थात वैदिक काल में यक्ष और रक्ष दो तरह के समाज होते थे। यक्ष देव कहलाए और रक्ष राक्षस। यही सुर और असुर कहलाने लगे। कालांतर में इन्हें ही आर्य और अनार्य कहा जाने लगा। बाद में यही वैष्णव और शैव में बदल गए। जहाँ तक सवाल जाति का है तो जातियों के प्रकार अलग होते थे जिनका सनातन धर्म से कोई लेना-देना नहीं था। जातियाँ होती थी द्रविड़, मंगोल, शक, हूण, कुशाण आदि। आर्य जाति नहीं थी बल्कि उन लोगों का समूह था जो कबिलाई संस्कृति से निकलकर सभ्य होने के प्रत्येक उपक्रम में शामिल थे और जो सिर्फ वेद पर ही कायम थे।

ब्राह्मण और श्रमण : कालांतर में यह भी देखने को मिलता है कि भारत में ब्राह्मण और श्रमण नाम से दो तरह की विचारधाराएँ प्रचलित रही। ब्राह्मण मानते थे कि ईश्वर एक ही है जिसे ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म निराकार है। ब्राह्मण विचारधारा मानती है कि ईश्वर की इच्छा से ही मोक्ष प्राप्त होता है। यह संसार ईश्वर की इच्छा के अधिन है। श्रमण मानते हैं कि व्यक्ति के जीवन में श्रम की आवश्यकता है। श्रम से ही शक्ति और सुविधा अर्जित की जाती है तथा श्रम से ही मोक्ष को पाया जा सकता है। 

वर्ण का अर्थ रंग : रंगों का सफर कर्म से होकर आज की तथाकथित जाति पर आकर पूर्णत: विकृत हो चला है। अब इसके अर्थ का अनर्थ हो गया है। आर्य किसी जाति का नाम नहीं था। आर्य नाम की कोई जाति नहीं थी। आर्य काल में ऐसी मान्यता थी कि जो श्वेत रंग का है वह ब्राह्मण, जो लाल रंग का है वह क्षत्रिय, जो काले रंग का है वह क्षुद्र और ‍जो मिश्रित रंग का होता था उसे वैश्य माना जाता था। यह विभाजन लोगों की पहचान और मनोविज्ञान के आधार पर किए जाते थे। इसी आधार पर कैलाश पर्वत की चारों दिशाओं में लोगों का अलग-अलग समूह फैला हुआ था। काले रंग का व्यक्ति भी आर्य होता था और श्वेत रंग का भी। विदेशों में तो सिर्फ गोरे और काले का भेद है किंतु भारत देश में चार तरह के वर्ण (रंग) माने जाते थे।

रक्त की शुद्धता : श्वेत लोगों का समूह श्वेत लोगों में ही रोटी और बेटी‍ का संबंध रखता था। पहले रंग, नाक-नक्क्ष और भाषा को लेकर शुद्धता बरती जाती थी। किसी समुदाय, कबीले, समाज या अन्य भाषा का व्यक्ति दूसरे कबीले की स्त्री से विवाह कर लेता था तो उसे उस समुदाय, कबीले, समाज या भाषायी लोगों के समूह से बहिष्कृत कर दिया जाता था। उसी तरह जो कोई श्वेत रंग का व्यक्ति काले रंग की लड़की से विवाह कर लेता था तो उस उक्त समूह के लोग उसे बहिष्कृत कर देते थे। कालांतर में बहिष्कृत लोगों का भी अलग समूह बनने लगा। लेकिन इस तरह के भेदभाव का संबंध धर्म से कतई नहीं माना जा सकता। यह समाजिक मान्यताओं, परम्पराओं का हिस्सा हैं।

रंग बना कर्म : कालांतर में वर्ण अर्थात रंग का अर्थ बदलकर कर्म होने लगा। स्मृति काल में कार्य के आधार पर लोगों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या क्षुद्र कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्त कर ज्ञान देने वाले को ब्राह्मण, क्षेत्र का प्रबंधन और रक्षा करने वाले को क्षत्रिय, राज्य की अर्थव्यवस्था व व्यापार को संचालित करने वाले को वैश्य और राज्य के अन्य कार्यो में दक्ष व्यक्ति को क्षुद्र अर्थात सेवक कहा जाने लगा। कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार कुछ भी हो सकता था। 

योग्यता के आधार पर इस तरह धीरे-धीरे एक ही तरह के कार्य करने वालों का समूह बनने लगा और यही समूह बाद में अपने हितों की रक्षा के लिए समाज में बदलता गया। उक्त समाज को उनके कार्य के आधार पर पुकारा जाने लगा। जैसे की कपड़े सिलने वाले को दर्जी, कपड़े धोने वाले को धोबी, बाल काटने वाले को नाई, शास्त्री पढ़ने वाले को शास्त्री आदि।

कर्म का बना जाति : ऐसे कई समाज निर्मित होते गए जिन्होंने स्वयं को दूसरे समाज से अलग करने और दिखने के लिए नई परम्पराएँ निर्मित कर ली। जैसे कि सभी ने अपने-अपने कुल देवता अलग कर लिए। अपने-अपने रीति-रिवाजों को नए सिरे से परिभाषित करने लगे, जिन पर स्था‍नीय संस्कृति का प्रभाव ही ज्यादा देखने को मिलता है। उक्त सभी की परंपरा और विश्वास का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं।

शस्त्रों में जाति का विरोध : ऋग्वेद, रामायण एवं श्रीमद्भागवत गीता में जन्म के आधार पर ऊँची व निचली जाति का वर्गीकरण, अछूत व दलित की अवधारणा को वर्जित किया गया है। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41) में मिलता है।

ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। इनमें से एक के भी नाम के आगे जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ है जैसा की वर्तमान में होता है-चतुर्वेदी, सिंह, गुप्ता, अग्रवाल, यादव, सूर्यवंशी, ठाकुर, धनगर, शर्मा, अयंगर, श्रीवास्तव, गोस्वामी, भट्ट, बट, सांगते आदि। वर्तमान जाति व्यवस्था के मान से उक्त सभी ऋषि-मुनि किसी भी जाति या समाज के हो सकते हैं।

अगर ऋग्वेद की ऋचाओं व गीता के श्लोकों को गौर से पढ़ा जाए तो साफ परिलक्षित होता है कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था का कोई आधार नहीं है। मनुष्य एक है। जो हिंदू जाति व्यवस्था को मानता है वह वेद विरुद्ध कर्म करता है। धर्म का अपमान करता है। सनातन हिंदू धर्म मानव के बीच किसी भी प्रकार के भेद को नहीं मानता। उपनाम, गोत्र, जाति आदि यह सभी कई हजार वर्ष की परंपरा का परिणाम है।

श्लोक : जन्मना जायते क्षुद्र:, संस्काराद् द्विज उच्यते। -मनुस्मृति

भावार्थ : महर्षि मनु महाराज का कथन है कि मनुष्य क्षुद्र के रूप में उत्पन्न होता है तथा संस्कार से ही द्विज बनता है।

व्याख्या : मनुष्य जन्म से ही क्षुद्र अर्थात छोटा होता है लेकिन अपने संस्कारों से ही वह ‍द्विज अर्थात ‍दूसरा जन्म धारण करता है। दूसरे जन्म से तात्पर्य वह वैश्य, क्षत्रिय या ब्रह्मण बनता है या इनसे भी श्रेष्ठ वह ऋषि हो जाता है।

श्लोक : 'ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धाराय' (यर्जुवेद 38-14) 

भावार्थ : हमारे हित के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को धारण करो।

व्याख्‍या : अर्थात मनुष्य अपने हित हेतु ही ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के वरण को धारण करता है।

श्लोक : उस विराट पुरुष (ईश्वर) के ब्राह्मण मुख हैं, क्षत्रिय भुजाएँ हैं, वैश्य उरू हैं और शुद्र पैर हैं। अर्थात चरण वंदन उस परम पिता परमात्मा के पैरे को शुद्र माना गया है जिसकी हम वंदना करते हैं। (यर्जुवेद 31-11)

श्लोक : चातुर्वर्ण्य मया सृष्टां गुणकर्मविभागशः।

भावार्थ : मैंने गुण, कर्म के भेद से चारों वर्ण बनाए। महाभारत काल में वर्ण-व्यवस्था को गुण और कर्म के अनुसार परिभाषित किया गया है। चारों वर्णों के कर्तव्य अनेक स्थलों पर बतलाए गए हैं। सारे वर्ण अपने-अपने वर्णानुसार कर्म करने में तत्पर रहते थे और इस प्रकार आचरण करने से धर्म का ह्रास नहीं होता था।- महाभारत आदि पर्व 64/8/24-34)

मनुस्मृति का वचन है- 'विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तु वीर्यतः।' अर्थात् ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से। जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता होने के कारण ब्रह्म-विद्या का अधिकारी समझा गया।

अतः जाति-व्यवस्था की संकीर्णता छोड़ दें। गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार ही वर्ण का निर्णय होना होता है, जिसे जाति मान लिया गया है। वर्ण का अर्थ समाज या जाति से नहीं वर्ण का अर्थ स्वभाव और रंग से माना जाता रहा है। 

स्मृति के काल में कार्य का विभाजन करने हेतु वर्ण व्यवस्था को व्यवस्थित किया गया था। जो जैसा कार्य करना जानता हो, वह वैसा ही कार्य करें, जैसा की उसके स्वभाव में है तब उसे उक्त वर्ण में शामिल समझा जाए। आज इस व्यवस्था को जाति व्यवस्था या सामाजिक व्यवस्था समझा जाता है।

कुछ व्यक्ति योग्यता या शुद्धाचरण न होते हुए भी स्वयं को ऊँचा या ऊँ‍ची जाति का और पवित्र मानने लगे हैं और कुछ अपने को नीच और अपवित्र समझने लगे हैं। बाद में इस समझ को क्रमश: बढ़ावा मिला मुगल काल, अंग्रेज काल और फिर भारत की आजादी के बाद भारतीय राजनीति के काल में जो अब विराट रूप ले ‍चुका है। धर्मशास्त्रों में क्या लिखा है यह कोई जानने का प्रयास नहीं करता और मंत्रों तथा सूत्रों की मनमानी व्याख्‍या करता रहता है।

जाति तोड़ों समाज जोड़ों- हमारे यहाँ अनेकों जाति की अब तो अनेक उपजातियाँ तक बन गई है। तथाकथित ब्राह्मण समाज में ही दो हजार आंतरिक भेद माने गए हैं। केवल सारस्वत ब्राह्मणों की ही 469 के लगभग शाखाएँ हैं। क्षत्रियों की 990 और वैश्यों तथा क्षुद्रों की तो इससे भी अधिक उपजातियाँ है। अपने-अपने इस संकुचित दायरे के भीतर ही विवाह होते रहते हैं। जिसका परिणाम यह हुआ है कि भारत की सांस्कृतिक एकता टूट गई। जब कोई एकता टूटती है तभी उसको जोड़ने के प्रयास भी होते हैं।


साभार : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु', वेबदुनिया

Thursday, September 4, 2014

TAJMAHAL IS A SHIV TEMPLE - ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है

ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है (100 से भी अधिक प्रमाण और तर्क) 



श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक "Tajmahal is a Hindu Temple Palace" में 100 से भी अधिक प्रमाण और तर्को का हवाला देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। श्री पी.एन. ओक साहब को उस इतिहास कार के रूप मे जाना जाता है तो भारत के विकृत इतिहास को पुर्नोत्‍थान और सही दिशा में ले जाने का किया है। मुगलो और अग्रेजो के समय मे जिस प्रकार भारत के इतिहास के साथ जिस प्रकार छेड़छाड की गई और आज वर्तमान तक मे की जा रही है, उसका विरोध और सही प्रस्तुतिकारण करने वाले प्रमुख इतिहासकारो में पुरूषोत्तम नाथ ओक साहब का नाम लिया जाता है। ओक साहब ने ताजमहल की भूमिका, इतिहास और पृष्‍ठभूमि से लेकर सभी का अध्‍ययन किया और छायाचित्रों छाया चित्रो के द्वारा उसे प्रमाणित करने का सार्थक प्रयास किया। श्री ओक के इन तथ्‍यो पर आ सरकार और प्रमुख विश्वविद्यालय आदि मौन जबकि इस विषय पर शोध किया जाना चाहिये और सही इतिहास से हमे अवगत करना चाहिये। किन्‍तु दुःख की बात तो यह है कि आज तक उनकी किसी भी प्रकार से अधिकारिक जाँच नहीं हुई। यदि ताजमहल के शिव मंदिर होने में सच्चाई है तो भारतीयता के साथ बहुत बड़ा अन्याय है। आज भी हम जैसे विद्यार्थियों को झूठे इतिहास की शिक्षा देना स्वयं शिक्षा के लिये अपमान की बात है, क्‍योकि जिस इतिहास से हम सबक सीखने की बात कहते है यदि वह ही गलत हो, इससे बड़ा राष्‍ट्रीय शर्म और क्‍या हो सकता है ?

श्री पी.एन. ओक का दावा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है। इस सम्बंध में उनके द्वारा दिये गये तर्कों का हिंदी रूपांतरण इस प्रकार हैं -

सर्व प्रथम ताजमहन के नाम के सम्‍बन्‍ध में ओक साहब ने कहा कि नाम - (क्रम संख्‍या 1 से 8 तक) 

1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।

2. शब्द ताजमहल के अंत में आये 'महल' मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।

3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताजमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है - पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से "मुम" को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।

4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)।

5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख 'ताज-ए-महल' के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।

6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल। इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।

7. और यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।

8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। 'ताज' और 'महल' दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।

फिर उन्‍होने इसको मंदिर कहे जाने की बातो को तर्कसंगत तरीके से बताया है (क्रम संख्‍या 9 से 17 तक) 

9. ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।

10. संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।

11. देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।

12. संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।

13. ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।

14. भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।

15. वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में 'तेज-लिंग' का वर्णन आता है। ताजमहल में 'तेज-लिंग' प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।

16. आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।

17. आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।

ओक साहब ने भारतीय प्रामाणिक दस्तावेजो द्वारा इसे मकबरा मानने से इंकार कर दिया है ( क्रम संख्‍या18 से 24 तक)

18. बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।

19. ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।

20. शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम 'आदाब-ए-आलमगिरी', 'यादगारनामा' और 'मुरुक्का-ए-अकब़राबादी' (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।

21. जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।

22. राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।

23. शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती।

24. और फिर किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।

विदेशी और यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख द्वारा मत स्‍पष्‍ट करना ( क्रम संख्‍या 25 से 29 तक) 

25. टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को 'ताज-ए-मकान', जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।

26. एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।

27. डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।

28. बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।

29. जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies' जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।

संस्कृत शिलालेख द्वारा क्रम संख्‍या 30 द्वारा 

30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, "एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।" शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को 'बटेश्वर शिलालेख' नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम 'तेजोमहालय शिलालेख' होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था।

शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar....now in the grounds of Agra,...it is well known, once stood in the garden of Tajmahal".

थॉमस ट्विनिंग की अनुपस्थित गजप्रतिमा के सम्‍बन्‍ध में कथन (क्रम संख्‍या 31) 

31. ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहज़हां ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागतद्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं। थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक "Travels in India A Hundred Years ago" के पृष्ठ 191 में) लिखता है, "सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा। वहाँ से मैंने पालकी ली और..... बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार ('COURT OF ELEPHANTS') कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा।"

कुरान की आयतों के पैबन्द (क्रम संख्‍या 32 व 33 द्वारा)

32. ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहज़हां के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है। यदि शाहज़हां ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता।

33. शाहज़हां ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है। कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है।

वैज्ञानिक पद्धति कार्बन 14 द्वारा जाँच

34. ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहज़हां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहज़हां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।

बनावट तथा वास्तुशास्त्रीय तथ्य द्वारा जॉच (क्रम संख्‍या 35 से 39 तक) 

35. ई.बी. हॉवेल, श्रीमती केनोयर और सर डब्लू.डब्लू. हंटर जैसे पश्चिम के जाने माने वास्तुशास्त्री, जिन्हें कि अपने विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है, ने ताजमहल के अभिलेखों का अध्ययन करके यह राय दी है कि ताजमहल हिंदू मंदिरों जैसा भवन है। हॉवेल ने तर्क दिया है कि जावा देश के चांदी सेवा मंदिर का ground plan ताज के समान है।

36. चार छोटे छोटे सजावटी गुम्बदों के मध्य एक बड़ा मुख्य गुम्बद होना हिंदू मंदिरों की सार्वभौमिक विशेषता है।

37. चार कोणों में चार स्तम्भ बनाना हिंदू विशेषता रही है। इन चार स्तम्भों से दिन में चौकसी का कार्य होता था और रात्रि में प्रकाश स्तम्भ का कार्य लिया जाता था। ये स्तम्भ भवन के पवित्र अधिसीमाओं का निर्धारण का भी करती थीं। हिंदू विवाह वेदी और भगवान सत्यनारायण के पूजा वेदी में भी चारों कोणों में इसी प्रकार के चार खम्भे बनाये जाते हैं।

38. ताजमहल की अष्टकोणीय संरचना विशेष हिंदू अभिप्राय की अभिव्यक्ति है क्योंकि केवल हिंदुओं में ही आठ दिशाओं के विशेष नाम होते हैं और उनके लिये खगोलीय रक्षकों का निर्धारण किया जाता है। स्तम्भों के नींव तथा बुर्ज क्रमशः धरती और आकाश के प्रतीक होते हैं। हिंदू दुर्ग, नगर, भवन या तो अष्टकोणीय बनाये जाते हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रकार के अष्टकोणीय लक्षण बनाये जाते हैं तथा उनमें धरती और आकाश के प्रतीक स्तम्भ बनाये जाते हैं, इस प्रकार से आठों दिशाओं, धरती और आकाश सभी की अभिव्यक्ति हो जाती है जहाँ पर कि हिंदू विश्वास के अनुसार ईश्वर की सत्ता है।

39. ताजमहल के गुम्बद के बुर्ज पर एक त्रिशूल लगा हुआ है। इस त्रिशूल का का प्रतिरूप ताजमहल के पूर्व दिशा में लाल पत्थरों से बने प्रांगण में नक्काशा गया है। त्रिशूल के मध्य वाली डंडी एक कलश को प्रदर्शित करता है जिस पर आम की दो पत्तियाँ और एक नारियल रखा हुआ है। यह हिंदुओं का एक पवित्र रूपांकन है। इसी प्रकार के बुर्ज हिमालय में स्थित हिंदू तथा बौद्ध मंदिरों में भी देखे गये हैं। ताजमहल के चारों दशाओं में बहुमूल्य व उत्कृष्ट संगमरमर से बने दरवाजों के शीर्ष पर भी लाल कमल की पृष्ठभूमि वाले त्रिशूल बने हुये हैं। सदियों से लोग बड़े प्यार के साथ परंतु गलती से इन त्रिशूलों को इस्लाम का प्रतीक चांद-तारा मानते आ रहे हैं और यह भी समझा जाता है कि अंग्रेज शासकों ने इसे विद्युत चालित करके इसमें चमक पैदा कर दिया था। जबकि इस लोकप्रिय मानना के विरुद्ध यह हिंदू धातुविद्या का चमत्कार है क्योंकि यह जंगरहित मिश्रधातु का बना है और प्रकाश विक्षेपक भी है। त्रिशूल के प्रतिरूप का पूर्व दिशा में होना भी अर्थसूचक है क्योकि हिंदुओं में पूर्व दिशा को, उसी दिशा से सूर्योदय होने के कारण, विशेष महत्व दिया गया है. गुम्बद के बुर्ज अर्थात् (त्रिशूल) पर ताजमहल के अधिग्रहण के बाद 'अल्लाह' शब्द लिख दिया गया है जबकि लाल पत्थर वाले पूर्वी प्रांगण में बने प्रतिरूप में 'अल्लाह' शब्द कहीं भी नहीं है।

अन्‍य असंगतियाँ (क्रमांक 40 से 48 तक)

40. शुभ्र ताज के पूर्व तथा पश्चिम में बने दोनों भवनों के ढांचे, माप और आकृति में एक समान हैं और आज तक इस्लाम की परंपरानुसार पूर्वी भवन को सामुदायिक कक्ष (community hall) बताया जाता है जबकि पश्चिमी भवन पर मस्ज़िद होने का दावा किया जाता है। दो अलग-अलग उद्देश्य वाले भवन एक समान कैसे हो सकते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ताज पर शाहज़हां के आधिपत्य हो जाने के बाद पश्चिमी भवन को मस्ज़िद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आश्चर्य की बात है कि बिना मीनार के भवन को मस्ज़िद बताया जाने लगा। वास्तव में ये दोनों भवन तेजोमहालय के स्वागत भवन थे।

41. उसी किनारे में कुछ गज की दूरी पर नक्कारख़ाना है जो कि इस्लाम के लिये एक बहुत बड़ी असंगति है (क्योंकि शोरगुल वाला स्थान होने के कारण नक्कारख़ाने के पास मस्ज़िद नहीं बनाया जाता)। इससे इंगित होता है कि पश्चिमी भवन मूलतः मस्ज़िद नहीं था। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों में सुबह शाम आरती में विजयघंट, घंटियों, नगाड़ों आदि का मधुर नाद अनिवार्य होने के कारण इन वस्तुओं के रखने का स्थान होना आवश्यक है।

42. ताजमहल में मुमताज़ महल के नकली कब्र वाले कमरे की दीवालों पर बनी पच्चीकारी में फूल-पत्ती, शंख, घोंघा तथा हिंदू अक्षर ॐ चित्रित है। कमरे में बनी संगमरमर की अष्टकोणीय जाली के ऊपरी कठघरे में गुलाबी रंग के कमल फूलों की खुदाई की गई है। कमल, शंख और ॐ के हिंदू देवी-देवताओं के साथ संयुक्त होने के कारण उनको हिंदू मंदिरों में मूलभाव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

43. जहाँ पर आज मुमताज़ का कब्र बना हुआ है वहाँ पहले तेज लिंग हुआ करता था जो कि भगवान शिव का पवित्र प्रतीक है। इसके चारों ओर परिक्रमा करने के लिये पाँच गलियारे हैं। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली के चारों ओर घूम कर या कमरे से लगे विभिन्न विशाल कक्षों में घूम कर और बाहरी चबूतरे में भी घूम कर परिक्रमा किया जा सकता है। हिंदू रिवाजों के अनुसार परिक्रमा गलियारों में देवता के दर्शन हेतु झरोखे बनाये जाते हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था इन गलियारों में भी है।

44. ताज के इस पवित्र स्थान में चांदी के दरवाजे और सोने के कठघरे थे जैसा कि हिंदू मंदिरों में होता है। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली में मोती और रत्नों की लड़ियाँ भी लटकती थीं। ये इन ही वस्तुओं की लालच थी जिसने शाहज़हां को अपने असहाय मातहत राजा जयसिंह से ताज को लूट लेने के लिये प्रेरित किया था।

45. पीटर मुंडी, जो कि एक अंग्रेज था, ने सन् में, मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही चांदी के दरवाजे, सोने के कठघरे तथा मोती और रत्नों की लड़ियों को देखने का जिक्र किया है। यदि ताज का निर्माणकाल 22 वर्षों का होता तो पीटर मुंडी मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही इन बहुमूल्य वस्तुओं को कदापि न देख पाया होता। ऐसी बहुमूल्य सजावट के सामान भवन के निर्माण के बाद और उसके उपयोग में आने के पूर्व ही लगाये जाते हैं। ये इस बात का इशारा है कि मुमताज़ का कब्र बहुमूल्य सजावट वाले शिव लिंग वाले स्थान पर कपट रूप से बनाया गया।

46. मुमताज़ के कब्र वाले कक्ष फर्श के संगमरमर के पत्थरों में छोटे छोटे रिक्त स्थान देखे जा सकते हैं। ये स्थान चुगली करते हैं कि बहुमूल्य सजावट के सामान के विलोप हो जाने के कारण वे रिक्त हो गये।

47. मुमताज़ की कब्र के ऊपर एक जंजीर लटकती है जिसमें अब एक कंदील लटका दिया है। ताज को शाहज़हां के द्वारा हथिया लेने के पहले वहाँ एक शिव लिंग पर बूंद बूंद पानी टपकाने वाला घड़ा लटका करता था।

48. ताज भवन में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार शरदपूर्णिमा की रात्रि में अपने आप शिव लिंग पर जल की बूंद टपके। इस पानी के टपकने को इस्लाम धारणा का रूप दे कर शाहज़हां के प्रेमाश्रु बताया जाने लगा।

ताजमहल में खजाने वाला कुआँ

49. तथाकथित मस्ज़िद और नक्कारखाने के बीच एक अष्टकोणीय कुआँ है जिसमें पानी के तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। यह हिंदू मंदिरों का परंपरागत खजाने वाला कुआँ है। खजाने के संदूक नीचे की मंजिलों में रखे जाते थे जबकि खजाने के कर्मचारियों के कार्यालय ऊपरी मंजिलों में हुआ करता था। सीढ़ियों के वृतीय संरचना के कारण घुसपैठिये या आक्रमणकारी न तो आसानी के साथ खजाने तक पहुँच सकते थे और न ही एक बार अंदर आने के बाद आसानी के साथ भाग सकते थे, और वे पहचान लिये जाते थे। यदि कभी घेरा डाले हुये शक्तिशाली शत्रु के सामने समर्पण की स्थिति आ भी जाती थी तो खजाने के संदूकों को पानी में धकेल दिया जाता था जिससे कि वह पुनर्विजय तक सुरक्षित रूप से छुपा रहे। एक मकब़रे में इतना परिश्रम करके बहुमंजिला कुआँ बनाना बेमानी है। इतना विशाल दीर्घाकार कुआँ किसी कब्र के लिये अनावश्यक भी है।

मुमताज के दफ़न की तारीख अविदित होना (क्रमांक 50 से 51 तक) 

50. यदि शाहज़हां ने सचमुच ही ताजमहल जैसा आश्चर्यजनक मकब़रा होता तो उसके तामझाम का विवरण और मुमताज़ के दफ़न की तारीख इतिहास में अवश्य ही दर्ज हुई होती। परंतु दफ़न की तारीख कभी भी दर्ज नहीं की गई। इतिहास में इस तरह का ब्यौरा न होना ही ताजमहल की झूठी कहानी का पोल खोल देती है।

51. यहाँ तक कि मुमताज़ की मृत्यु किस वर्ष हुई यह भी अज्ञात है। विभिन्न लोगों ने सन् 1629,1630, 1631 या 1632 में मुमताज़ की मौत होने का अनुमान लगाया है। यदि मुमताज़ का इतना उत्कृष्ट दफ़न हुआ होता, जितना कि दावा किया जाता है, तो उसके मौत की तारीख अनुमान का विषय कदापि न होता। 5000 औरतों वाली हरम में किस औरत की मौत कब हुई इसका हिसाब रखना एक कठिन कार्य है। स्पष्टतः मुमताज़ की मौत की तारीख़ महत्वहीन थी इसीलिये उस पर ध्यान नहीं दिया गया। फिर उसके दफ़न के लिये ताज किसने बनवाया?

आधारहीन प्रेमकथाएँ

52. शाहज़हां और मुमताज़ के प्रेम की कहानियाँ मूर्खतापूर्ण तथा कपटजाल हैं। न तो इन कहानियों का कोई ऐतिहासिक आधार है न ही उनके कल्पित प्रेम प्रसंग पर कोई पुस्तक ही लिखी गई है। ताज के शाहज़हां के द्वारा अधिग्रहण के बाद उसके आधिपत्य दर्शाने के लिये ही इन कहानियों को गढ़ लिया गया।

कीमत

53. शाहज़हां के शाही और दरबारी दस्तावेज़ों में ताज की कीमत का कहीं उल्लेख नहीं है क्योंकि शाहज़हां ने कभी ताजमहल को बनवाया ही नहीं। इसी कारण से नादान लेखकों के द्वारा ताज की कीमत 40 लाख से 9 करोड़ 17 लाख तक होने का काल्पनिक अनुमान लगाया जाता है।

निर्माणकाल

54. इसी प्रकार से ताज का निर्माणकाल 10 से 22 वर्ष तक के होने का अनुमान लगाया जाता है। यदि शाहज़हां ने ताजमहल को बनवाया होता तो उसके निर्माणकाल के विषय में अनुमान लगाने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि उसकी प्रविष्टि शाही दस्तावेज़ों में अवश्य ही की गई होती।

भवननिर्माणशास्त्री

55. ताज भवन के भवननिर्माणशास्त्री (designer, architect) के विषय में भी अनेक नाम लिये जाते हैं जैसे कि ईसा इफेंडी जो कि एक तुर्क था, अहमद़ मेंहदी या एक फ्रांसीसी, आस्टीन डी बोरडीक्स या गेरोनिमो वेरेनियो जो कि एक इटालियन था, या शाहज़हां स्वयं।

नदारद दस्तावेज़ क्रमांक 56 से 61

56. ऐसा समझा जाता है कि शाहज़हां के काल में ताजमहल को बनाने के लिये 20 हजार लोगों ने 22 साल तक काम किया। यदि यह सच है तो ताजमहल का नक्शा (design drawings), मजदूरों की हाजिरी रजिस्टर (labour muster rolls), दैनिक खर्च (daily expenditure sheets), भवन निर्माण सामग्रियों के खरीदी के बिल और रसीद (bills and receipts of material ordered) आदि दस्तावेज़ शाही अभिलेखागार में उपलब्ध होते। वहाँ पर इस प्रकार के कागज का एक टुकड़ा भी नहीं है।

57. अतः ताजमहल को शाहज़हाँ ने बनवाया और उस पर उसका व्यक्तिगत तथा सांप्रदायिक अधिकार था जैसे ढोंग को समूचे संसार को मानने के लिये मजबूर करने की जिम्मेदारी चापलूस दरबारी, भयंकर भूल करने वाले इतिहासकार, अंधे भवननिर्माणशस्त्री, कल्पित कथा लेखक, मूर्ख कवि, लापरवाह पर्यटन अधिकारी और भटके हुये पथप्रदर्शकों (guides) पर है।

58. शाहज़हां के समय में ताज के वाटिकाओं के विषय में किये गये वर्णनों में केतकी, जै, जूही, चम्पा, मौलश्री, हारश्रिंगार और बेल का जिक्र आता है। ये वे ही पौधे हैं जिनके फूलों या पत्तियों का उपयोग हिंदू देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना में होता है। भगवान शिव की पूजा में बेल पत्तियों का विशेष प्रयोग होता है। किसी कब्रगाह में केवल छायादार वृक्ष लगाये जाते हैं क्योंकि श्मशान के पेड़ पौधों के फूल और फल का प्रयोग को वीभत्स मानते हुये मानव अंतरात्मा स्वीकार नहीं करती। ताज के वाटिकाओं में बेल तथा अन्य फूलों के पौधों की उपस्थिति सिद्ध करती है कि शाहज़हां के हथियाने के पहले ताज एक शिव मंदिर हुआ करता था।

59. हिंदू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाये जाते हैं। ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है जो कि शिव मंदिर के लिये एक उपयुक्त स्थान है।

60. मोहम्मद पैगम्बर ने निर्देश दिये हैं कि कब्रगाह में केवल एक कब्र होना चाहिये और उसे कम से कम एक पत्थर से चिन्हित करना चाहिये। ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर के मंज़िल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज़ का बताया जाता है, यह मोहम्मद पैगम्बर के निर्देश के निन्दनीय अवहेलना है। वास्तव में शाहज़हां को इन दोनों स्थानों के शिवलिंगों को दबाने के लिये दो कब्र बनवाने पड़े थे। शिव मंदिर में, एक मंजिल के ऊपर एक और मंजिल में, दो शिव लिंग स्थापित करने का हिंदुओं में रिवाज था जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर, जो कि अहिल्याबाई के द्वारा बनवाये गये हैं, में देखा जा सकता है।

61. ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेशद्वार हैं जो कि हिंदू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है।

हिंदू गुम्बज के सम्‍बन्‍ध मे तर्क (क्रमांक 62 से 64)

62. ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है। ऐसा गुम्बज किसी कब्र के लिये होना एक विसंगति है क्योंकि कब्रगाह एक शांतिपूर्ण स्थान होता है। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों के लिये गूंज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है क्योंकि वे देवी-देवता आरती के समय बजने वाले घंटियों, नगाड़ों आदि के ध्वनि के उल्लास और मधुरता को कई गुणा अधिक कर देते हैं।

63. ताजमहल का गुम्बज कमल की आकृति से अलंकृत है। इस्लाम के गुम्बज अनालंकृत होते हैं, दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित पाकिस्तानी दूतावास और पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के गुम्बज उनके उदाहरण हैं।

64. ताजमहल दक्षिणमुखी भवन है। यदि ताज का सम्बंध इस्लाम से होता तो उसका मुख पश्चिम की ओर होता।

कब्र दफनस्थल होता है न कि भवन ( क्रमांक 65 से 69 तक) 

65. महल को कब्र का रूप देने की गलती के परिणामस्वरूप एक व्यापक भ्रामक स्थिति उत्पन्न हुई है। इस्लाम के आक्रमण स्वरूप, जिस किसी देश में वे गये वहाँ के, विजित भवनों में लाश दफन करके उन्हें कब्र का रूप दे दिया गया। अतः दिमाग से इस भ्रम को निकाल देना चाहिये कि वे विजित भवन कब्र के ऊपर बनाये गये हैं जैसे कि लाश दफ़न करने के बाद मिट्टी का टीला बना दिया जाता है। ताजमहल का प्रकरण भी इसी सच्चाई का उदाहरण है। (भले ही केवल तर्क करने के लिये) इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज़ की लाश दफ़नाई गई न कि लाश दफ़नाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया।

66. ताज एक सातमंजिला भवन है। शाहज़ादा औरंगज़ेब के शाहज़हां को लिखे पत्र में भी इस बात का विवरण है। भवन के चार मंजिल संगमरमर पत्थरों से बने हैं जिनमें चबूतरा, चबूतरे के ऊपर विशाल वृतीय मुख्य कक्ष और तहखाने का कक्ष शामिल है। मध्य में दो मंजिलें और हैं जिनमें 12 से 15 विशाल कक्ष हैं। संगमरमर के इन चार मंजिलों के नीचे लाल पत्थरों से बने दो और मंजिलें हैं जो कि पिछवाड़े में नदी तट तक चली जाती हैं। सातवीं मंजिल अवश्य ही नदी तट से लगी भूमि के नीचे होनी चाहिये क्योंकि सभी प्राचीन हिंदू भवनों में भूमिगत मंजिल हुआ करती है।

67. नदी तट से भाग में संगमरमर के नींव के ठीक नीचे लाल पत्थरों वाले 22 कमरे हैं जिनके झरोखों को शाहज़हां ने चुनवा दिया है। इन कमरों को जिन्हें कि शाहज़हां ने अतिगोपनीय बना दिया है भारत के पुरातत्व विभाग के द्वारा तालों में बंद रखा जाता है। सामान्य दर्शनार्थियों को इनके विषय में अंधेरे में रखा जाता है। इन 22 कमरों के दीवारों तथा भीतरी छतों पर अभी भी प्राचीन हिंदू चित्रकारी अंकित हैं। इन कमरों से लगा हुआ लगभग 33 फुट लंबा गलियारा है। गलियारे के दोनों सिरों में एक एक दरवाजे बने हुये हैं। इन दोनों दरवाजों को इस प्रकार से आकर्षक रूप से ईंटों और गारा से चुनवा दिया गया है कि वे दीवाल जैसे प्रतीत हों।

68. स्पष्तः मूल रूप से शाहज़हां के द्वारा चुनवाये गये इन दरवाजों को कई बार खुलवाया और फिर से चुनवाया गया है। सन् 1934 में दिल्ली के एक निवासी ने चुनवाये हुये दरवाजे के ऊपर पड़ी एक दरार से झाँक कर देखा था। उसके भीतर एक वृहत कक्ष (huge hall) और वहाँ के दृश्य को‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ देख कर वह हक्का-बक्का रह गया तथा भयभीत सा हो गया। वहाँ बीचोबीच भगवान शिव का चित्र था जिसका सिर कटा हुआ था और उसके चारों ओर बहुत सारे मूर्तियों का जमावड़ा था। ऐसा भी हो सकता है कि वहाँ पर संस्कृत के शिलालेख भी हों। यह सुनिश्चित करने के लिये कि ताजमहल हिंदू चित्र, संस्कृत शिलालेख, धार्मिक लेख, सिक्के तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं जैसे कौन कौन से साक्ष्य छुपे हुये हैं उसके के सातों मंजिलों को खोल कर उसकी साफ सफाई करने की नितांत आवश्यकता है।

69. अध्ययन से पता चलता है कि इन बंद कमरों के साथ ही साथ ताज के चौड़ी दीवारों के बीच में भी हिंदू चित्रों, मूर्तियों आदि छिपे हुये हैं। सन् 1959 से 1962 के अंतराल में श्री एस.आर. राव, जब वे आगरा पुरातत्व विभाग के सुपरिन्टेन्डेंट हुआ करते थे, का ध्यान ताजमहल के मध्यवर्तीय अष्टकोणीय कक्ष के दीवार में एक चौड़ी दरार पर गया। उस दरार का पूरी तरह से अध्ययन करने के लिये जब दीवार की एक परत उखाड़ी गई तो संगमरमर की दो या तीन प्रतिमाएँ वहाँ से निकल कर गिर पड़ीं। इस बात को खामोशी के साथ छुपा दिया गया और प्रतिमाओं को फिर से वहीं दफ़न कर दिया गया जहाँ शाहज़हां के आदेश से पहले दफ़न की गई थीं। इस बात की पुष्टि अनेक अन्य स्रोतों से हो चुकी है। जिन दिनों मैंने ताज के पूर्ववर्ती काल के विषय में खोजकार्य आरंभ किया उन्हीं दिनों मुझे इस बात की जानकारी मिली थी जो कि अब तक एक भूला बिसरा रहस्य बन कर रह गया है। ताज के मंदिर होने के प्रमाण में इससे अच्छा साक्ष्य और क्या हो सकता है? उन देव प्रतिमाओं को जो शाहज़हां के द्वारा ताज को हथियाये जाने से पहले उसमें प्रतिष्ठित थे ताज की दीवारें और चुनवाये हुये कमरे आज भी छुपाये हुये हैं।

शाहज़हां के पूर्व के ताज के संदर्भ ( क्रमांक 70 से 106 )

70. स्पष्टतः के केन्द्रीय भवन का इतिहास अत्यंत पेचीदा प्रतीत होता है। शायद महमूद गज़नी और उसके बाद के मुस्लिम प्रत्येक आक्रमणकारी ने लूट कर अपवित्र किया है परंतु हिंदुओं का इस पर पुनर्विजय के बाद पुनः भगवान शिव की प्रतिष्ठा करके इसकी पवित्रता को फिर से बरकरार कर दिया जाता था। शाहज़हां अंतिम मुसलमान था जिसने तेजोमहालय उर्फ ताजमहल के पवित्रता को भ्रष्ट किया।

71. विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक 'Akbar the Great Moghul' में लिखते हैं, "बाबर ने सन् 1630 आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई"। वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था।

72. बाबर की पुत्री गुलबदन 'हुमायूँनामा' नामक अपने ऐतिहासिक वृतांत में ताज का संदर्भ 'रहस्य महल' (Mystic House) के नाम से देती है।

73. बाबर स्वयं अपने संस्मरण में इब्राहिम लोधी के कब्जे में एक मध्यवर्ती अष्टकोणीय चारों कोणों में चार खम्भों वाली इमारत का जिक्र करता है जो कि ताज ही था। ये सारे संदर्भ ताज के शाहज़हां से कम से कम सौ साल पहले का होने का संकेत देते हैं।

74. ताजमहल की सीमाएँ चारों ओर कई सौ गज की दूरी में फैली हुई है। नदी के पार ताज से जुड़ी अन्य भवनों, स्नान के घाटों और नौका घाटों के अवशेष हैं। विक्टोरिया गार्डन के बाहरी हिस्से में एक लंबी, सर्पीली, लताच्छादित प्राचीन दीवार है जो कि एक लाल पत्थरों से बनी अष्टकोणीय स्तंभ तक जाती है। इतने वस्तृत भूभाग को कब्रिस्तान का रूप दे दिया गया।

75. यदि ताज को विशेषतः मुमताज़ के दफ़नाने के लिये बनवाया गया होता तो वहाँ पर अन्य और भी कब्रों का जमघट नहीं होता। परंतु ताज प्रांगण में अनेक कब्रें विद्यमान हैं कम से कम उसके पूर्वी एवं दक्षिणी भागों के गुम्बजदार भवनों में।

76. दक्षिणी की ओर ताजगंज गेट के दूसरे किनारे के दो गुम्बजदार भवनों में रानी सरहंडी ब़ेगम, फतेहपुरी ब़ेगम और कु. सातुन्निसा को दफ़नाया गया है। इस प्रकार से एक साथ दफ़नाना तभी न्यायसंगत हो सकता है जबकि या तो रानी का दर्जा कम किया गया हो या कु. का दर्जा बढ़ाया गया हो। शाहज़हां ने अपने वंशानुगत स्वभाव के अनुसार ताज को एक साधारण मुस्लिम कब्रिस्तान के रूप में परिवर्तित कर के रख दिया क्योंकि उसने उसे अधिग्रहित किया था (ध्यान रहे बनवाया नहीं था)।

77. शाहज़हां ने मुमताज़ से निक़ाह के पहले और बाद में भी कई और औरतों से निक़ाह किया था, अतः मुमताज़ को कोई ह़क नहीँ था कि उसके लिये आश्चर्यजनक कब्र बनवाया जावे।

78. मुमताज़ का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था और उसमें ऐसा कोई विशेष योग्यता भी नहीं थी कि उसके लिये ताम-झाम वाला कब्र बनवाया जावे।

79. शाहज़हां तो केवल एक मौका ढूंढ रहा था कि कैसे अपने क्रूर सेना के साथ मंदिर पर हमला करके वहाँ की सारी दौलत हथिया ले, मुमताज़ को दफ़नाना तो एक बहाना मात्र था। इस बात की पुष्टि बादशाहनामा में की गई इस प्रविष्टि से होती है कि मुमताज़ की लाश को बुरहानपुर के कब्र से निकाल कर आगरा लाया गया और 'अगले साल' दफ़नाया गया। बादशाहनामा जैसे अधिकारिक दस्तावेज़ में सही तारीख के स्थान पर 'अगले साल' लिखने से ही जाहिर होता है कि शाहज़हां दफ़न से सम्बंधित विवरण को छुपाना चाहता था।

80. विचार करने योग्य बात है कि जिस शाहज़हां ने मुमताज़ के जीवनकाल में उसके लिये एक भी भवन नहीं बनवाया, मर जाने के बाद एक लाश के लिये आश्चर्यमय कब्र कभी नहीं बनवा सकता।

81. एक विचारणीय बात यह भी है कि शाहज़हां के बादशाह बनने के तो या तीन साल बाद ही मुमताज़ की मौत हो गई। तो क्या शाहज़हां ने इन दो तीन साल के छोटे समय में ही इतना अधिक धन संचय कर लिया कि एक कब्र बनवाने में उसे उड़ा सके?

82. जहाँ इतिहास में शाहज़हां के मुमताज़ के प्रति विशेष आसक्ति का कोई विवरण नहीं मिलता वहीं शाहज़हां के अनेक औरतों के साथ, जिनमें दासी, औरत के आकार के पुतले, यहाँ तक कि उसकी स्वयं की बेटी जहांआरा भी शामिल है, के साथ यौन सम्बंधों ने उसके काल में अधिक महत्व पाया। क्या शाहज़हां मुमताज़ की लाश पर अपनी गाढ़ी कमाई लुटाता?

83. शाहज़हां एक कृपण सूदखोर बादशाह था। अपने सारे प्रतिद्वंदियों का कत्ल करके उसने राज सिंहासन प्राप्त किया था। जितना खर्चीला उसे बताया जाता है उतना वो हो ही नहीं सकता था।

84. मुमताज़ की मौत से खिन्न शाहज़हां ने एकाएक ताज बनवाने का निश्चय कर लिया। ये बात एक मनोवैज्ञानिक असंगति है। दुख एक ऐसी संवेदना है जो इंसान को अयोग्य और अकर्मण्य बनाती है।

85. शाहज़हां यदि मूर्ख या बावला होता तो समझा जा सकता है कि वो मृत मुमताज़ के लिये ताज बनवा सकता है परंतु सांसारिक और यौन सुख में लिप्त शाहज़हां तो कभी भी ताज नहीं बनवा सकता क्योंकि यौन भी इंसान को अयोग्य बनाने वाली संवेदना है।

86. सन् 1973 के आरंभ में जब ताज के सामने वाली वाटिका की खुदाई हुई तो वर्तमान फौवारों के लगभग छः फुट नीचे और भी फौवारे पाये गये। इससे दो बातें सिद्ध होती हैं। पहली तो यह कि जमीन के नीचे वाले फौवारे शाहज़हां के काल से पहले ही मौजूद थे। दूसरी यह कि पहले से मौजूद फौवारे चूँकि ताज से जाकर मिले थे अतः ताज भी शाहज़हां के काल से पहले ही से मौजूद था। स्पष्ट है कि इस्लाम शासन के दौरान रख रखाव न होने के कारण ताज के सामने की वाटिका और फौवारे बरसात के पानी की बाढ़ में डूब गये थे।

87. ताजमहल के ऊपरी मंजिल के गौरवमय कक्षों से कई जगह से संगमरमर के पत्थर उखाड़ लिये गये थे जिनका उपयोग मुमताज़ के नकली कब्रों को बनाने के लिये किया गया। इसी कारण से ताज के भूतल के फर्श और दीवारों में लगे मूल्यवान संगमरमर के पत्थरों की तुलना में ऊपरी तल के कक्ष भद्दे, कुरूप और लूट का शिकार बने नजर आते हैं। चूँकि ताज के ऊपरी तलों के कक्षों में दर्शकों का प्रवेश वर्जित है, शाहज़हां के द्वारा की गई ये बरबादी एक सुरक्षित रहस्य बन कर रह गई है। ऐसा कोई कारण नहीं है कि मुगलों के शासन काल की समाप्ति के 200 वर्षों से भी अधिक समय व्यतीत हो जाने के बाद भी शाहज़हां के द्वारा ताज के ऊपरी कक्षों से संगमरमर की इस लूट को आज भी छुपाये रखा जावे।

88. फ्रांसीसी यात्री बेर्नियर ने लिखा है कि ताज के निचले रहस्यमय कक्षों में गैर मुस्लिमों को जाने की इजाजत नहीं थी क्योंकि वहाँ चौंधिया देने वाली वस्तुएँ थीं। यदि वे वस्तुएँ शाहज़हां ने खुद ही रखवाये होते तो वह जनता के सामने उनका प्रदर्शन गौरव के साथ करता। परंतु वे तो लूटी हुई वस्तुएँ थीं और शाहज़हां उन्हें अपने खजाने में ले जाना चाहता था इसीलिये वह नहीं चाहता था कि कोई उन्हें देखे।

89. ताज की सुरक्षा के लिये उसके चारों ओर खाई खोद कर की गई है। किलों, मंदिरों तथा भवनों की सुरक्षा के लिये खाई बनाना हिंदुओं में सामान्य सुरक्षा व्यवस्था रही है।

90. पीटर मुंडी ने लिखा है कि शाहज़हां ने उन खाइयों को पाटने के लिये हजारों मजदूर लगवाये थे। यह भी ताज के शाहज़हां के समय से पहले के होने का एक लिखित प्रमाण है।

91. नदी के पिछवाड़े में हिंदू बस्तियाँ, बहुत से हिंदू प्राचीन घाट और प्राचीन हिंदू शव-दाह गृह है। यदि शाहज़हाँ ने ताज को बनवाया होता तो इन सबको नष्ट कर दिया गया होता।

92. यह कथन कि शाहज़हाँ नदी के दूसरी तरफ एक काले पत्थर का ताज बनवाना चाहता था भी एक प्रायोजित कपोल कल्पना है। नदी के उस पार के गड्ढे मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा हिंदू भवनों के लूटमार और तोड़फोड़ के कारण बने हैं न कि दूसरे ताज के नींव खुदवाने के कारण। शाहज़हां, जिसने कि सफेद ताजमहल को ही नहीं बनवाया था, काले ताजमहल बनवाने के विषय में कभी सोच भी नहीं सकता था। वह तो इतना कंजूस था कि हिंदू भवनों को मुस्लिम रूप देने के लिये भी मजदूरों से उसने सेंत मेंत में और जोर जबर्दस्ती से काम लिया था।

93. जिन संगमरमर के पत्थरों पर कुरान की आयतें लिखी हुई हैं उनके रंग में पीलापन है जबकि शेष पत्थर ऊँची गुणवत्ता वाले शुभ्र रंग के हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कुरान की आयतों वाले पत्थर बाद में लगाये गये हैं।

94. कुछ कल्पनाशील इतिहासकारों तो ने ताज के भवननिर्माणशास्त्री के रूप में कुछ काल्पनिक नाम सुझाये हैं पर और ही अधिक कल्पनाशील इतिहासकारों ने तो स्वयं शाहज़हां को ताज के भवननिर्माणशास्त्री होने का श्रेय दे दिया है जैसे कि वह सर्वगुणसम्पन्न विद्वान एवं कला का ज्ञाता था। ऐसे ही इतिहासकारों ने अपने इतिहास के अल्पज्ञान की वजह से इतिहास के साथ ही विश्वासघात किया है वरना शाहज़हां तो एक क्रूर, निरंकुश, औरतखोर और नशेड़ी व्यक्ति था।

95. और भी कई भ्रमित करने वाली लुभावनी बातें बना दी गई हैं। कुछ लोग विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि शाहज़हां ने पूरे संसार के सर्वश्रेष्ठ भवननिर्माणशास्त्रियों से संपर्क करने के बाद उनमें से एक को चुना था। तो कुछ लोगों का यग विश्वास है कि उसने अपने ही एक भवननिर्माणशास्त्री को चुना था। यदि यह बातें सच होती तो शाहज़हां के शाही दस्तावेजों में इमारत के नक्शों का पुलिंदा मिला होता। परंतु वहाँ तो नक्शे का एक टुकड़ा भी नहीं है। नक्शों का न मिलना भी इस बात का पक्का सबूत है कि ताज को शाहज़हां ने नहीं बनवाया।

96. ताजमहल बड़े बड़े खंडहरों से घिरा हुआ है जो कि इस बात की ओर इशारा करती है कि वहाँ पर अनेक बार युद्ध हुये थे।

97. ताज के दक्षिण में एक प्रचीन पशुशाला है। वहाँ पर तेजोमहालय के पालतू गायों को बांधा जाता था। मुस्लिम कब्र में गाय कोठा होना एक असंगत बात है।

98. ताज के पश्चिमी छोर में लाल पत्थरों के अनेक उपभवन हैं जो कि एक कब्र के लिया अनावश्यक है।

99. संपूर्ण ताज में 400 से 500 कमरे हैं। कब्र जैसे स्थान में इतने सारे रहाइशी कमरों का होना समझ के बाहर की बात है।

100. ताज के पड़ोस के ताजगंज नामक नगरीय क्षेत्र का स्थूल सुरक्षा दीवार ताजमहल से लगा हुआ है। ये इस बात का स्पष्ट निशानी है कि तेजोमहालय नगरीय क्षेत्र का ही एक हिस्सा था। ताजगंज से एक सड़क सीधे ताजमहल तक आता है। ताजगंज द्वार ताजमहल के द्वार तथा उसके लाल पत्थरों से बनी अष्टकोणीय वाटिका के ठीक सीध में है।

101. ताजमहल के सभी गुम्बजदार भवन आनंददायक हैं जो कि एक मकब़रे के लिय उपयुक्त नहीं है।

102. आगरे के लाल किले के एक बरामदे में एक छोटा सा शीशा लगा हुआ है जिससे पूरा ताजमहल प्रतिबिंबित होता है। ऐसा कहा जाता है कि शाहज़हां ने अपने जीवन के अंतिम आठ साल एक कैदी के रूप में इसी शीशे से ताजमहल को देखते हुये और मुमताज़ के नाम से आहें भरते हुये बिताया था। इस कथन में अनेक झूठ का संमिश्रण है। सबसे पहले तो यह कि वृद्ध शाहज़हां को उसके बेटे औरंगज़ेब ने लाल किले के तहखाने के भीतर कैद किया था न कि सजे-धजे और चारों ओर से खुले ऊपर के मंजिल के बरामदे में। दूसरा यह कि उस छोटे से शीशे को सन् 1930 में इंशा अल्लाह ख़ान नामक पुरातत्व विभाग के एक चपरासी ने लगाया था केवल दर्शकों को यह दिखाने के लिये कि पुराने समय में लोग कैसे पूरे तेजोमहालय को एक छोटे से शीशे के टुकड़े में देख लिया करते थे। तीसरे, वृद्ध शाहज़हाँ, जिसके जोड़ों में दर्द और आँखों में मोतियाबिंद था घंटो गर्दन उठाये हुये कमजोर नजरों से उस शीशे में झाँकते रहने के काबिल ही नहीं था जब लाल किले से ताजमहल सीधे ही पूरा का पूरा दिखाई देता है तो छोटे से शीशे से केवल उसकी परछाईं को देखने की आवश्कता भी नहीं है। पर हमारी भोली-भाली जनता इतनी नादान है कि धूर्त पथप्रदर्शकों (guides) की इन अविश्वासपूर्ण और विवेकहीन बातों को आसानी के साथ पचा लेती है।

103. ताजमहल के गुम्बज में सैकड़ों लोहे के छल्ले लगे हुये हैं जिस पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा पाता है। इन छल्लों पर मिट्टी के आलोकित दिये रखे जाते थे जिससे कि संपूर्ण मंदिर आलोकमय हो जाता था।

104. ताजमहल पर शाहज़हां के स्वामित्व तथा शाहज़हां और मुमताज़ के अलौकिक प्रेम की कहानी पर विश्वास कर लेने वाले लोगों को लगता है कि शाहज़हाँ एक सहृदय व्यक्ति था और शाहज़हां तथा मुमताज़ रोम्यो और जूलियट जैसे प्रेमी युगल थे। परंतु तथ्य बताते हैं कि शाहज़हां एक हृदयहीन, अत्याचारी और क्रूर व्यक्ति था जिसने मुमताज़ के साथ जीवन भर अत्याचार किये थे।

105. विद्यालयों और महाविद्यालयों में इतिहास की कक्षा में बताया जाता है कि शाहज़हां का काल अमन और शांति का काल था तथा शाहज़हां ने अनेकों भवनों का निर्माण किया और अनेक सत्कार्य किये जो कि पूर्णतः मनगढ़ंत और कपोल कल्पित हैं। जैसा कि इस ताजमहल प्रकरण में बताया जा चुका है, शाहज़हां ने कभी भी कोई भवन नहीं बनाया उल्टे बने बनाये भवनों का नाश ही किया और अपनी सेना की 48 टुकड़ियों की सहायता से लगातार 30 वर्षों तक अत्याचार करता रहा जो कि सिद्ध करता है कि उसके काल में कभी भी अमन और शांति नहीं रही।

106. जहाँ मुमताज़ का कब्र बना है उस गुम्बज के भीतरी छत में सुनहरे रंग में सूर्य और नाग के चित्र हैं। हिंदू योद्धा अपने आपको सूर्यवंशी कहते हैं अतः सूर्य का उनके लिये बहुत अधिक महत्व है जबकि मुसलमानों के लिये सूर्य का महत्व केवल एक शब्द से अधिक कुछ भी नहीं है। और नाग का सम्बंध भगवान शंकर के साथ हमेशा से ही रहा है।

झूठे दस्तावेज़ 

107. ताज के गुम्बज की देखरेख करने वाले मुसलमानों के पास एक दस्तावेज़ है जिसे के वे "तारीख-ए-ताजमहल" कहते हैं। इतिहासकार एच.जी. कीन ने उस पर 'वास्तविक न होने की शंका वाला दस्तावेज़' का मुहर लगा दिया है। कीन का कथन एक रहस्यमय सत्य है क्योंकि हम जानते हैं कि जब शाहज़हां ने ताजमहल को नहीं बनवाया ही नहीं तो किसी भी दस्तावेज़ को जो कि ताजमहल को बनाने का श्रेय शाहज़हां को देता है झूठा ही माना जायेगा।

108. पेशेवर इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता तथा भवनशास्त्रियों के दिमाग में ताज से जुड़े बहुत सारे कुतर्क और चतुराई से भरे झूठे तर्क या कम से कम भ्रामक विचार भरे हैं। शुरू से ही उनका विश्वास रहा है कि ताज पूरी तरह से मुस्लिम भवन है। उन्हें यह बताने पर कि ताज का कमलाकार होना, चार स्तंभों का होना आदि हिंदू लक्षण हैं, वे गुणवान लोग इस प्रकार से अपना पक्ष रखते हैं कि ताज को बनाने वाले कारीगर, कर्मचारी आदि हिंदू थे और शायद इसीलिये उन्होंने हिंदू शैली से उसे बनाया। पर उनका पक्ष गलत है क्योंकि मुस्लिम वृतान्त दावा करता है कि ताज के रूपांकक (designers) बनवाने वाले शासक मुस्लिम थे, और कारीगर, कर्मचारी इत्यादि लोग मुस्लिम तानाशाही के विरुद्ध अपनी मनमानी कर ही नहीं सकते थे।

इस्‍लाम का मुख्‍य काम भारत को लूटना मात्र था, उन्‍होने तत्‍कालीन मन्दिरो अपना निशाना बनया। हिन्‍दू मंदिर उस समय अपने ऐश्वर्य के चरम पर रहे थे। इसी प्रकार आज का ताजमहल नाम से विख्‍यात तेजोमहाजय को भी अपना निशाना बनाया। मुस्लिम शासकों ने देश के हिंदू भवनों को मुस्लिम रूप देकर उन्हें बनवाने का श्रेय स्वयं ले लिया इस बात का ताज एक आदर्श उदारहरण है।

साभार: श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक