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Saturday, November 16, 2013

. हमारे प्राचीन महादेश का नाम “भारतवर्ष” कैसे पड़ा....?????


क्या आप जानते हैं कि....... ....... हमारे प्राचीन महादेश का नाम “भारतवर्ष” कैसे पड़ा....?????

साथ ही क्या आप जानते हैं कि....... हमारे प्राचीन हमारे महादेश का नाम ....."जम्बूदीप" था....?????

परन्तु..... क्या आप सच में जानते हैं जानते हैं कि..... हमारे महादेश को ""जम्बूदीप"" क्यों कहा जाता है ... और, इसका मतलब क्या होता है .....??????

दरअसल..... हमारे लिए यह जानना बहुत ही आवश्यक है कि ...... भारतवर्ष का नाम भारतवर्ष कैसे पड़ा.........????

क्योंकि.... एक सामान्य जनधारणा है कि ........महाभारत एक कुरूवंश में राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के प्रतापी पुत्र ......... भरत के नाम पर इस देश का नाम "भारतवर्ष" पड़ा...... परन्तु इसका साक्ष्य उपलब्ध नहीं है...!

लेकिन........ वहीँ हमारे पुराण इससे अलग कुछ अलग बात...... पूरे साक्ष्य के साथ प्रस्तुत करता है......।

आश्चर्यजनक रूप से......... इस ओर कभी हमारा ध्यान नही गया..........जबकि पुराणों में इतिहास ढूंढ़कर........ अपने इतिहास के साथ और अपने आगत के साथ न्याय करना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक था....।

परन्तु , क्या आपने कभी इस बात को सोचा है कि...... जब आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि........ प्राचीन काल में साथ भूभागों में अर्थात .......महाद्वीपों में भूमण्डल को बांटा गया था....।

लेकिन ये सात महाद्वीप किसने और क्यों तथा कब बनाए गये.... इस पर कभी, किसी ने कुछ भी नहीं कहा ....।

अथवा .....दूसरे शब्दों में कह सकता हूँ कि...... जान बूझकर .... इस से सम्बंधित अनुसंधान की दिशा मोड़ दी गयी......।

परन्तु ... हमारा ""जम्बूदीप नाम "" खुद में ही सारी कहानी कह जाता है ..... जिसका अर्थ होता है ..... समग्र द्वीप .

इसीलिए.... हमारे प्राचीनतम धर्म ग्रंथों तथा... विभिन्न अवतारों में.... सिर्फ "जम्बूद्वीप" का ही उल्लेख है.... क्योंकि.... उस समय सिर्फ एक ही द्वीप था...
साथ ही हमारा वायु पुराण ........ इस से सम्बंधित पूरी बात एवं उसका साक्ष्य हमारे सामने पेश करता है.....।

वायु पुराण के अनुसार........ त्रेता युग के प्रारंभ में ....... स्वयम्भुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने........ इस भरत खंड को बसाया था.....।

चूँकि महाराज प्रियव्रत को अपना कोई पुत्र नही था......... इसलिए , उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था....... जिसका लड़का नाभि था.....!

नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम........ ऋषभ था..... और, इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे ...... तथा .. इन्ही भरत के नाम पर इस देश का नाम...... "भारतवर्ष" पड़ा....।

उस समय के राजा प्रियव्रत ने ....... अपनी कन्या के दस पुत्रों में से सात पुत्रों को......... संपूर्ण पृथ्वी के सातों महाद्वीपों के अलग-अलग राजा नियुक्त किया था....।
राजा का अर्थ उस समय........ धर्म, और न्यायशील राज्य के संस्थापक से लिया जाता था.......।

इस तरह ......राजा प्रियव्रत ने जम्बू द्वीप का शासक .....अग्नीन्ध्र को बनाया था।
इसके बाद ....... राजा भरत ने जो अपना राज्य अपने पुत्र को दिया..... और, वही " भारतवर्ष" कहलाया.........।

ध्यान रखें कि..... भारतवर्ष का अर्थ है....... राजा भरत का क्षेत्र...... और इन्ही राजा भरत के पुत्र का नाम ......सुमति था....।

इस विषय में हमारा वायु पुराण कहता है....—

सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)

मैं अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए..... रोजमर्रा के कामों की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा कि.....

हम अपने घरों में अब भी कोई याज्ञिक कार्य कराते हैं ....... तो, उसमें सबसे पहले पंडित जी.... संकल्प करवाते हैं...।

हालाँकि..... हम सभी उस संकल्प मंत्र को बहुत हल्के में लेते हैं... और, उसे पंडित जी की एक धार्मिक अनुष्ठान की एक क्रिया मात्र ...... मानकर छोड़ देते हैं......।

परन्तु.... यदि आप संकल्प के उस मंत्र को ध्यान से सुनेंगे तो.....उस संकल्प मंत्र में हमें वायु पुराण की इस साक्षी के समर्थन में बहुत कुछ मिल जाता है......।

संकल्प मंत्र में यह स्पष्ट उल्लेख आता है कि........ -जम्बू द्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते….।

संकल्प के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं..... क्योंकि, इनमें जम्बूद्वीप आज के यूरेशिया के लिए प्रयुक्त किया गया है.....।

इस जम्बू द्वीप में....... भारत खण्ड अर्थात भरत का क्षेत्र अर्थात..... ‘भारतवर्ष’ स्थित है......जो कि आर्याव्रत कहलाता है....।

इस संकल्प के छोटे से मंत्र के द्वारा....... हम अपने गौरवमयी अतीत के गौरवमयी इतिहास का व्याख्यान कर डालते हैं......।

परन्तु ....अब एक बड़ा प्रश्न आता है कि ...... जब सच्चाई ऐसी है तो..... फिर शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत से.... इस देश का नाम क्यों जोड़ा जाता है....?

इस सम्बन्ध में ज्यादा कुछ कहने के स्थान पर सिर्फ इतना ही कहना उचित होगा कि ...... शकुंतला, दुष्यंत के पुत्र भरत से ......इस देश के नाम की उत्पत्ति का प्रकरण जोडऩा ....... शायद नामों के समानता का परिणाम हो सकता है.... अथवा , हम हिन्दुओं में अपने धार्मिक ग्रंथों के प्रति उदासीनता के कारण ऐसा हो गया होगा... ।

परन्तु..... जब हमारे पास ... वायु पुराण और मन्त्रों के रूप में लाखों साल पुराने साक्ष्य मौजूद है .........और, आज का आधुनिक विज्ञान भी यह मान रहा है कि..... धरती पर मनुष्य का आगमन करोड़ों साल पूर्व हो चुका था, तो हम पांच हजार साल पुरानी किसी कहानी पर क्यों विश्वास करें....?????

सिर्फ इतना ही नहीं...... हमारे संकल्प मंत्र में.... पंडित जी हमें सृष्टि सम्वत के विषय में भी बताते हैं कि........ अभी एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरहवां वर्ष चल रहा है......।

फिर यह बात तो खुद में ही हास्यास्पद है कि.... एक तरफ तो हम बात ........एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरह पुरानी करते हैं ......... परन्तु, अपना इतिहास पश्चिम के लेखकों की कलम से केवल पांच हजार साल पुराना पढ़ते और मानते हैं....!

आप खुद ही सोचें कि....यह आत्मप्रवंचना के अतिरिक्त और क्या है........?????

इसीलिए ...... जब इतिहास के लिए हमारे पास एक से एक बढ़कर साक्षी हो और प्रमाण ..... पूर्ण तर्क के साथ उपलब्ध हों ..........तो फिर , उन साक्षियों, प्रमाणों और तर्कों केआधार पर अपना अतीत अपने आप खंगालना हमारी जिम्मेदारी बनती है.........।

हमारे देश के बारे में .........वायु पुराण का ये श्लोक उल्लेखित है.....—-हिमालयं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत्।तस्मात्तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधा:.....।।

यहाँ हमारा वायु पुराण साफ साफ कह रहा है कि ......... हिमालय पर्वत से दक्षिण का वर्ष अर्थात क्षेत्र भारतवर्ष है.....।

इसीलिए हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि......हमने शकुंतला और दुष्यंत पुत्र भरत के साथ अपने देश के नाम की उत्पत्ति को जोड़कर अपने इतिहास को पश्चिमी इतिहासकारों की दृष्टि से पांच हजार साल के अंतराल में समेटने का प्रयास किया है....।

ऐसा इसीलिए होता है कि..... आज भी हम गुलामी भरी मानसिकता से आजादी नहीं पा सके हैं ..... और, यदि किसी पश्चिमी इतिहास कार को हम अपने बोलने में या लिखने में उद्घ्रत कर दें तो यह हमारे लिये शान की बात समझी जाती है........... परन्तु, यदि हम अपने विषय में अपने ही किसी लेखक कवि या प्राचीन ग्रंथ का संदर्भ दें..... तो, रूढि़वादिता का प्रमाण माना जाता है ।

और.....यह सोच सिरे से ही गलत है....।

इसे आप ठीक से ऐसे समझें कि.... राजस्थान के इतिहास के लिए सबसे प्रमाणित ग्रंथ कर्नल टाड का इतिहास माना जाता है.....।

परन्तु.... आश्चर्य जनक रूप से .......हमने यह नही सोचा कि..... एक विदेशी व्यक्ति इतने पुराने समय में भारत में ......आकर साल, डेढ़ साल रहे और यहां का इतिहास तैयार कर दे, यह कैसे संभव है.....?

विशेषत: तब....... जबकि उसके आने के समय यहां यातायात के अधिक साधन नही थे.... और , वह राजस्थानी भाषा से भी परिचित नही था....।

फिर उसने ऐसी परिस्थिति में .......सिर्फ इतना काम किया कि ........जो विभिन्न रजवाड़ों के संबंध में इतिहास संबंधी पुस्तकें उपलब्ध थीं ....उन सबको संहिताबद्घ कर दिया...।

इसके बाद राजकीय संरक्षण में करनल टाड की पुस्तक को प्रमाणिक माना जाने लगा.......और, यह धारणा बलवती हो गयीं कि.... राजस्थान के इतिहास पर कर्नल टाड का एकाधिकार है...।

और.... ऐसी ही धारणाएं हमें अन्य क्षेत्रों में भी परेशान करती हैं....... इसीलिए.... अपने देश के इतिहास के बारे में व्याप्त भ्रांतियों का निवारण करना हमारा ध्येय होना चाहिए....।

क्योंकि..... इतिहास मरे गिरे लोगों का लेखाजोखा नही है...... जैसा कि इसके विषय में माना जाता है........ बल्कि, इतिहास अतीत के गौरवमयी पृष्ठों और हमारे न्यायशील और धर्मशील राजाओं के कृत्यों का वर्णन करता है.....।

इसीलिए हिन्दुओं जागो..... और , अपने गौरवशाली इतिहास को पहचानो.....!

हम गौरवशाली हिन्दू सनातन धर्म का हिस्सा हैं.... और, हमें गर्व होना चाहिए कि .... हम हिन्दू 


साभार : Poojya Acharya Bal Krishan Ji Maharaj's Page

Thursday, October 31, 2013

इतिहास को विकृत करने का षडयंत्र - १

कांग्रेस सरकार ने देश के स्वाधीन होने के बाद से ही सेकुलरिज्म के नाम पर भारत के स्वर्णिम इतिहास के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी थी। प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में महाराणा प्रताप की अपेक्षा अकबर को महान सिद्घ करने का प्रयास किया था।

स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर सुनियोजित ढंग से राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए सर्वस्व समर्पित करने वाले, प्राणोत्सर्ग करने वाले क्रांतिकारियों की घोर उपेक्षा ही नही की गयी, अपितु उन्हें आतंकवादी और सिरफिरा सिद्घ करने के प्रयास किये गये। स्वातंत्रयवीर सावरकर, भाई परमानंद शहीदे आजम सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, राजा महेन्द्र प्रताप, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लाला हरदयाल आदि क्रांति पथा के राही राष्ट्रभक्तों को इतिहास में उपयुक्त स्थान ही नही दिया गया, अपितु उनके विरूद्घ उनकी कार्य प्रणाली के विषय में प्रतिकूल प्रचार-अभियान भी चलाया गया। पूरे देश में :-

साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल,
दे दी तूने आजादी बिना खड़ग बिना ढाल, 

जैसे फिल्मी गानों का प्रचार कर यही सिद्घ कराने का प्रयास किया गया कि देश को स्वाधीनता खून का एक कतरा भी बहाए बिना गांधी जी तथा कांग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन तथा चरखे के कारण मिली है। इतना ही नही, वामपंथियों ने कांग्रेस सरकार को ढाल बनाकर भारत के प्राचीन स्वर्णिम इतिहास के साथ भी सुनियोजित ढंग से छेड़छाड़ की।

प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी ने सन 1971 में वामपंथी विचारधारा से अभिभूत डा. नूरूल हसन को केन्द्रीय शिक्षा राज्यमंत्री पद सौंपा। डा. हसन ने तुरंत इतिहास तथा पाठय पुस्तकों के विकृतिकरण का बीड़ा उठा लिया। वामपंथी इतिहासकारों लेखकों को एकत्रित कर वे इस कार्य में जुट गये।

सन 1972 में इन सेकुलरवादियों ने भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का गठन कर इतिहास पुनर्लेखन की घोषणा की। सुविख्यात इतिहासकार यदुनाथ सरकार, रमेश चंद्र मजूमदार तथा श्री जीएस सरदेसाई जैसे सुप्रतिष्ठित इतिहासकारों के लिखे ग्रंथों को नकार कर नये सिरे से इतिहास लेखन का कार्य शुरू कराया गया। घोषणा की गई कि इतिहास और पाठ्यपुस्तकों से वे अंश हटा दिये जाएंगे जो राष्ट्रीय एकता में बाधा डालने वाले लगते हैं। डा. नूरूल हसन ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भाषण करते हुए कहा- महमूद गनजवी औरंगजेब आदि द्वारा मंदिरों की मूर्तियां तोड़ने के प्रसंग राष्ट्रीय एकता में बाधक है अत: उन्हें नही पढ़ाया जाना चाहिए।

वामपंथी कम्युनिस्टों का यह हमेशा से ही दुष्प्रयास रहता है कि वे इतिहास से छेड़छाड़ कर उसे विकृत कर अपना स्वार्थ सिद्घ करें। केन्द्र में जब से वामपंथियों के रहमोकरम से यूपीए की कांग्रेस सरकार का गठन हुआ है तबसे वामपंथियों ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महान सेनानी स्वातंत्रवीर सावरकर पर अंग्रेजों से क्षमा मांगकर अण्डमान काला पानी जेल से रिहा होने जैसे निराधार आरोप लगाने शुरू कर दिये हैं। केन्द्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर केा आगे करके उन्हेांने क्रांतिकारी शिरोमणि वीर सावरकर का चरित्र हनन सुनियोजित रूप से शुरू कर दिया है।

वामपंथी विचारधारा के कुछ लेखकों ने 1994 में वीर सावरकर की राष्ट्रभक्ति पर कीचड़ उछालकर उन्हें वीर की जगह कायर बताने की धृष्टता की थी। वामपंथियों का यह दुष्कृत नया नही है। वामपंथी तथा सेकुलररिस्ट लेखक सुनियोजित एंग से भारत राष्ट्र के वीर पुरूषों का चरित्र हनन करते आ रहे हैं।

राष्ट्रीय सैनिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीआरटी) द्वारा प्रकाशित ‘मध्यकालीन भारत’ तथा ‘उत्तर मुगलकालीन भारत’ पुस्तकों में वामपंथी लेखक डा. सतीश चंद्र ने कलम और तलवार के धनी महान भारतीय विभूति गुरू गोविंद सिंह जी महाराज पर औरंगजेब से माफी मांगने जैसा निराधार आरोप लगाने की धृष्टता की थी। उन्होंने धर्म स्वातंत्रय की रक्षा के लिए महान बलिदान देने वाले गुरू तेगबहादुर जी के संबंध में लिखा:-गुरू तेगबहादुर का वध किया गया। एक स्थान पर लिखा-1705 में औरंगजेब ने गुरू को माफ कर दिया। गुरू चाहता था कि औरंगजेब उसे आनंदपुर वापस दिलवा दें। डा. सतीश चंद्र ने हत्या या बलिदान की जगह वध तथा उनकी जगह उसकी शब्दों का प्रयोग कर घोर अशिष्टता का ही परिचय दिया।

मध्यमालीन भारत में डा सतीश चंद्र लिखते हैं:-

गुरू तेगबहादुर को अपने पांच अनुयायियों के साथ दिल्ली लाया गया और मौत के घाट उतार दिया गया। पूरा संसार जानता है कि गुरू तेगबहादुर जी ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया था। उन्होंने हिंदू धर्म त्यागकर मुसलमान बनने से स्पष्ट कर दिया था इसलिए औरंगजेब के आदेश से आततायियों ने सरेआम उनकी हत्या की। उन्होंने बलिदान दिया, किंतु धर्म परिवर्तन न ही किया। मुस्लिम धर्मान्ता के उपर्युक्त तथ्य पर पर्दा डालते हुए गुरू तेगबहादुर जी के बलिदान का भ्रमित व निराधार कारण इस प्रकार वर्णित किया गया है:- गुरू तेगबहादुर ने असम से लौटने के बाद शेख अहमद सरहिंद के एक अनुयायी हाफिज आमिद के साथ पूरे पंजाब प्रदेश में लूटमार मचा रखी थी और सारे प्रांत को उजाड़ दिया था। क्रमश:

by उगता भारत ब्यूरो, लेखक - शिव कुमार गोयल

Tuesday, October 29, 2013

हिन्दू अल्पसंख्यक राज्यों में हिन्दुओं से भेदभाव

संविधान निर्माताओं ने कुछ सोच-समझ कर ही भारत का संविधान बनाते समय उसमें ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा नहीं दी होगी। शायद उन्होंने यह समझा होगा कि इससे राष्ट्र विघटन की समस्या पैदा हो सकती है लेकिन केन्द्र सरकार द्वारा वोट बैंक की राजनीति के चलते राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 की धारा 2 (ग) के अंतर्गत अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी आदि को मान्यता दी गई है। ऐसा करके सरकार ने देश की जनता को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों की श्रेणी में बांट दिया लेकिन जिन राज्यों में बहुसंख्यक खुद अल्पसंख्यक हैं वहां उनके लिए किसी तरह की योजना का चलाया जाना भी जरूरी था, जिसकी अधिनियम में व्यवस्था ही नहीं की गई।

इतना ही नहीं, सरकार का यह कहना है कि जब बहुसंख्यकों यानी हिन्दुओं को अल्पसंख्यकों की श्रेणी में शामिल ही नहीं किया गया तो योजनाओं का लाभ दिए जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। यह जानकारी तब मिली जब मैंने राज्य सभा में अल्पसंख्यकों का दर्जा प्रदान किए जाने संबंधी अल्पसंख्यक कार्य मंत्री से कुछ सवाल किए। सरकार की नीतियों से ऐसा लगता है कि जिन हिन्दुओं के सिर पर अल्पसंख्यकों को राहतें दी जा रही हैं उन्हीं को एक दिन अल्पसंख्यकों की कड़ी में खड़ा कर दिया जाएगा क्योंकि अगर सरकार की योजनाओं में स्पष्टता होती तो जिन राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं वहां उन्हें भी सरकारी योजनाओं का लाभ मिलता। लेकिन ऐसा कुछ भी प्रावधान करना सरकार जरूरी नहीं समझ रही ।

वहीं दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों की श्रेणी में आने वाले समुदायों के लिए मैट्रिक-पूर्व छात्रवृत्ति योजना, मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति योजना, अल्पसंख्यक छात्रों के लिए मौलाना आजाद राष्ट्रीय अध्येतावृत्ति, मैरिट-सह-साधन आधारित छात्रवृत्ति, नि:शुल्क कोचिंग एवं संबद्ध योजना, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम तथा बहु-क्षेत्रीय कार्यक्रम के अलावा कई अन्य योजनाएं चलाई जा रही हैं। केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अलावा प्रदेश स्तर पर अल्पसंख्यक आयोग बना कर अल्पसंख्यकों को सुविधाएं दी जा रही हैं और उनका चेयरमैन भी अल्पसंख्यक को ही बनाया जाता है पर जिन राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं वहां उन्हें यह सुविधा न देकर हिन्दुओं को एक और प्लेटफार्म से वंचित कर दिया गया ताकि वे अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज ही बुलंद न कर सकें।  बावजूद इसके सरकार की योजनाओं में देश के मूल वासी हिन्दुओं के लिए कोई योजना नहीं।

हां, इन्हें भी अलग-अलग जाति वर्ग, समुदायों और पंथों में बांट कर राजनीतिक रोटियां सेंकने के क्रम निरंतर जारी हैं। जम्मू-कश्मीर, पंजाब, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मिजोरम आदि क्षेत्रों में हिन्दुओं की संख्या अन्य समुदायों के मुकाबले कम है और वहां भी उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं दिया जाना किसी षड्यंत्र की तरफ इशारा करता है कि कहीं-कहीं हिन्दुओं को उन्हीं की मातृभूमि से वंचित करने का रास्ता साफ किया जा रहा है।

लेकिन इतिहास गवाह है कि हजारों सालों से मुगल और अंग्रेजी शासक ऐसा करने में असफल रहे हैं पर भ्रम में कार्य कर रही केन्द्र सरकार अपनी वोट बैंक के स्वार्थ से भरी मनमानियों के चलते आज कई स्थानों पर हिन्दुओं की हालत बद से बदतर करने पर उतारू है। सरकार की योजनाएं वहीं लागू होती हैं जहां उसे वोट बैंक की चमक दिखती है।

केन्द्र सरकार को यह बात भली-भांति जान लेनी चाहिए कि सरकार बनाने में हिन्दुओं का योगदान अन्य समुदायों से अधिक होता है क्योंकि संख्या में अधिक होने के कारण इनके मत भी अधिक होते हैं और कांगेस पार्टी में 70 प्रतिशत से अधिक की भागेदारी भी हिन्दुओं की ही है। ऐसे में हिन्दुओं के हकों को दरकिनार करना तर्कसंगत न होगा।

केन्द्र सरकार का अल्पसंख्यकों की परिभाषा को स्पष्ट न किए जाने से साफ हो जाता है कि मात्र वोट बैंक की राजनीति करके हिन्दुओं को गुमराह ही नहीं बल्कि उनका शोषण भी किया जा रहा है। जम्मू-कश्मीर में पंडितों के साथ जो हुआ उसे पूरा विश्व जानता है और जो आज असम में हो रहा है वह भी किसी से छिपा नहीं है। इतना ही नहीं, आजादी के समय देश के हुए बटवारे में पाकिस्तान से आकर जम्मू-कश्मीर में बसने वाले हिन्दू और सिखों को आज तक भारतीय नागरिकता नहीं दी गई है और उन्हें रिफ्यूजी कह कर पुकारा जाता है।

मैं यहां अल्पसंख्यकों के हकों के विरोध में नहीं कह रहा लेकिन अगर अधिनियम बनाकर अल्पसंख्यकों को अधिकार दिए ही जाने हैं तो ऐसे में जिन राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं वहीं उनके हकों की पूर्ति करनी भी सुनिश्चित बनाई जाए ताकि उन्हें यह न लगे कि उनकी अनदेखी की जा रही है। इसके लिए जरूरी है कि अल्पसंख्यक की परिभाषा स्पष्ट की जाए।

शास्त्रों में भी कहा गया है कि सरकार को हर अहम फैसला अपने परम विद्वानों और सच्चे हितैषी मंत्रियों के परामर्श से ही करना चाहिए, चापलूसों और स्वार्थी मंत्रियों की बातों में नहीं फंसना चाहिए जो देश को दुश्मनों के हाथों बेच सकते हैं लेकिन आज शास्त्रों के लिखे को अनभिज्ञ करते हुए केन्द्र सरकार द्वारा ऐसे फैसले लिए जा रहे हैं जो कदापि देश हित में नहीं हैं।

इतना ही नहीं, बाहरी देशों से यहां आकर बसने वाले मुस्लिमों और ईसाइयों को भी इन सरकारी योजनाओं का लाभ दिया जा रहा है लेकिन मूल निवासियों के लिए सरकार के पास बांटो और राज करो की पॉलिसी के सिवाय कुछ नहीं है। अब समय आ गया है कि सरकार हिन्दुओं के सब्र का इम्तिहान लेना छोड़े और समरसता का संचार करते हुए प्रदेश स्तर पर अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए एक स्पष्ट नीति बनाकर लागू की जाए।

साभार : लेखक श्री अविनाश राय खन्ना, पंजाब केसरी 

Thursday, October 17, 2013

कौन है असली ब्राह्मण, जानिए

ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या : जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर किसी अन्य को नहीं पूजता वह ब्राह्मण। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता वह ब्राह्मण नहीं।

न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥

अर्थात : भगवान बुद्ध कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं।

तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥

अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।

न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥

अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।

शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥
पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः ।
पारदाः पहल्वाश्चीनाः किरताः दरदाः खशाः॥- मनुसंहिता (1- (/43-44)

अर्थात : ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक, पारद, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये सभी क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गईं।

जाति के आधार पर तथाकथित ब्राह्मणों के हजारों प्रकार हैं। उत्तर भारतीय ब्राह्मणों के प्रकार अलग तो दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के अलग प्रकार। लेकिन हम यहां जाति के आधार के प्रकार की बात नहीं कर रहे हैं।

उत्तर भारत में जहां सारस्वत, सरयुपा‍रि, गुर्जर गौड़, सनाठ्य, औदिच्य, पराशर आदि ब्राह्मण मिल जाएंगे तो दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन संप्रदाय हैं- स्मर्त संप्रदाय, श्रीवैष्णव संप्रदाय तथा माधव संप्रदाय। इनके हजारों उप संप्रदाय हैं।

पुराणों के अनुसार पहले विष्‍णु के नाभि कमल से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा का ब्रह्मर्षिनाम करके एक पुत्र था। उस पुत्र के वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ, उससे कृपाचार्य हुए, कृपाचार्य के दो पुत्र हुए, उनका छोटा पुत्र शक्ति था। शक्ति के पांच पुत्र हुए। उसमें से प्रथम पुत्र पाराशर से पारीक समाज बना, दूसरे पुत्र सारस्‍वत के सारस्‍वत समाजा, तीसरे ग्‍वाला ऋषि से गौड़ समाजा, चौथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़ समाजा, पांचवें पुत्र श्रृंगी से उनके वंश शिखवाल समाजा, छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच समाज बना।...इस तरह ‍पुराणों में हजारों प्रकार मिल जाएंगे।

इसके अलावा माना जाता है कि सप्तऋषियों की संतानें हैं ब्राह्मण। जैन धर्म के ग्रंथों को पढ़ें तो वहां ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन अलग मिल जाएगा। बौद्धों के धर्मग्रंथ पढ़ें तो वहां अलग वर्णन है। लेकिन सबसे उत्तम तो वेद और स्मृतियों में ही मिलता है।

कोई भी बन सकता है ब्राह्मण : ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो। लेकिन ब्राह्मण होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना होता है। 

स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है:- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है। 

1. मात्र : ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं। उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह के तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी हैं।

2. ब्राह्मण : ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है।

3. श्रोत्रिय : स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है।

4. अनुचान : कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है।

5. भ्रूण : अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।

6. ऋषिकल्प : जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है उसे ऋषिकल्प कहा जाता है।

7. ऋषि : ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।

8. मुनि : जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं। 

(साभार : वेबदुनिया )

Saturday, October 5, 2013

डेढ़ सौ वर्षों में भारत को विभाजित कर कैसे बने 9 नए देश

सम्भवत: ही कोई पुस्तक (ग्रन्थ) होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, (म्यांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया। यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतन्त्र हुए।

प्राय: पाकिस्तान व बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं। शेष इतिहास मिलता तो है परन्तु चर्चित नहीं है। सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है।

सम्पूर्ण पृथ्वी का जब जल और थल इन दो तत्वों में वर्गीकरण करते हैं, तब सात द्वीप एवं सात महासमुद्र माने जाते हैं। हम इसमें से प्राचीन नाम जम्बूद्वीप जिसे आज एशिया द्वीप कहते हैं तथा इन्दू सरोवरम् जिसे आज हिन्दू महासागर कहते हैं, के निवासी हैं। इस जम्बूद्वीप (एशिया) के लगभग मध्य में हिमालय पर्वत स्थित है। हिमालय पर्वत में विश्व की सर्वाधिक ऊँची चोटी सागरमाथा, गौरीशंकर हैं, जिसे 1835 में अंग्रेज शासकों ने एवरेस्ट नाम देकर इसकी प्राचीनता व पहचान को बदलने का कूटनीतिक षड्यंत्र रचा। हम पृथ्वी पर जिस भू-भाग अर्थात् राष्ट्र के निवासी हैं उस भू-भाग का वर्णन अग्नि, वायु एवं विष्णु पुराण में लगभग समानार्थी श्लोक के रूप में है :-

उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रश्चैव दक्षिणम्।

वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति।।

अर्थात् हिन्द महासागर के उत्तर में तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो भू-भाग है उसे भारत कहते हैं और वहां के समाज को भारती या भारतीय के नाम से पहचानते हैं।

वर्तमान में भारत के निवासियों का पिछले सैकडों हजारों वर्षों से हिन्दू नाम भी प्रचलित है और हिन्दुओं के देश को हिन्दुस्तान कहते हैं। विश्व के अनेक देश इसे हिन्द व नागरिक को हिन्दी व हिन्दुस्तानी भी कहते हैं। बृहस्पति आगम में इसके लिए निम्न श्लोक उपलब्ध है :-

हिमालयं समारम्भ्य यावद् इन्दु सरोवरम।
तं देव निर्मित देशं, हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।

अर्थात् हिमालय से लेकर इन्दु (हिन्द) महासागर तक देव पुरुषों द्वारा निर्मित इस भूगोल को हिन्दुस्तान कहते हैं। इन सब बातों से यह निश्चित हो जाता है कि भारतवर्ष और हिन्दुस्तान एक ही देश के नाम हैं तथा भारतीय और हिन्दू एक ही समाज के नाम हैं।

जब हम अपने देश (राष्ट्र) का विचार करते हैं तब अपने समाज में प्रचलित एक परम्परा रही है, जिसमें किसी भी शुभ कार्य पर संकल्प पढ़ा अर्थात् लिया जाता है। संकल्प स्वयं में महत्वपूर्ण संकेत करता है। संकल्प में काल की गणना एवं भूखण्ड का विस्तृत वर्णन करते हुए, संकल्प कर्ता कौन है ? इसकी पहचान अंकित करने की परम्परा है। उसके अनुसार संकल्प में भू-खण्ड की चर्चा करते हुए बोलते (दोहराते) हैं कि जम्बूद्वीपे (एशिया) भरतखण्डे (भारतवर्ष) यही शब्द प्रयोग होता है। सम्पूर्ण साहित्य में हमारे राष्ट्र की सीमाओं का उत्तर में हिमालय व दक्षिण में हिन्द महासागर का वर्णन है, परन्तु पूर्व व पश्चिम का स्पष्ट वर्णन नहीं है। परंतु जब श्लोकों की गहराई में जाएं और भूगोल की पुस्तकों अर्थात् एटलस का अध्ययन करें तभी ध्यान में आ जाता है कि श्लोक में पूर्व व पश्चिम दिशा का वर्णन है।

जब विश्व (पृथ्वी) का मानचित्र आँखों के सामने आता है तो पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के भूगोल ग्रन्थों के अनुसार हिमालय के मध्य स्थल ‘कैलाश मानसरोवर' से पूर्व की ओर जाएं तो वर्तमान का इण्डोनेशिया और पश्चिम की ओर जाएं तो वर्तमान में ईरान देश अर्थात् आर्यान प्रदेश हिमालय के अंतिम छोर हैं। हिमालय 5000 पर्वत शृंखलाओं तथा 6000 नदियों को अपने भीतर समेटे हुए इसी प्रकार से विश्व के सभी भूगोल ग्रन्थ (एटलस) के अनुसार जब हम श्रीलंका (सिंहलद्वीप अथवा सिलोन) या कन्याकुमारी से पूर्व व पश्चिम की ओर प्रस्थान करेंगे या दृष्टि (नजर) डालेंगे तो हिन्द (इन्दु) महासागर इण्डोनेशिया व आर्यान (ईरान) तक ही है। इन मिलन बिन्दुओं के पश्चात् ही दोनों ओर महासागर का नाम बदलता है।

इस प्रकार से हिमालय, हिन्द महासागर, आर्यान (ईरान) व इण्डोनेशिया के बीच के सम्पूर्ण भू-भाग को आर्यावर्त अथवा भारतवर्ष अथवा हिन्दुस्तान कहा जाता है। प्राचीन भारत की चर्चा अभी तक की, परन्तु जब वर्तमान से 3000 वर्ष पूर्व तक के भारत की चर्चा करते हैं तब यह ध्यान में आता है कि पिछले 2500 वर्ष में जो भी आक्रांत यूनानी (रोमन ग्रीक) यवन, हूण, शक, कुषाण, सिरयन, पुर्तगाली, फेंच, डच, अरब, तुर्क, तातार, मुगल व अंग्रेज आदि आए, इन सबका विश्व के सभी इतिहासकारों ने वर्णन किया। परन्तु सभी पुस्तकों में यह प्राप्त होता है कि आक्रान्ताओं ने भारतवर्ष पर, हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया है। सम्भवत: ही कोई पुस्तक (ग्रन्थ) होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, (म्यांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया। यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतन्त्र हुए। प्राय: पाकिस्तान व बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं। शेष इतिहास मिलता तो है परन्तु चर्चित नहीं है। सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है। अंग्रेज का 350 वर्ष पूर्व के लगभग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में व्यापारी बनकर भारत आना, फिर धीरे-धीरे शासक बनना और उसके पश्चात् सन 1857 से 1947 तक उनके द्वारा किया गया भारत का 7वां विभाजन है। आगे लेख में सातों विभाजन कब और क्यों किए गए इसका संक्षिप्त वर्णन है।

सन् 1857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग कि.मी. था। वर्तमान भारत का क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग कि.मी. है। पड़ोसी 9 देशों का क्षेत्रफल 50 लाख वर्ग कि.मी. बनता है।

भारतीयों द्वारा सन् 1857 के अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए स्वतन्त्रता संग्राम (जिसे अंग्रेज ने गदर या बगावत कहा) से पूर्व एवं पश्चात् के परिदृश्य पर नजर दौडायेंगे तो ध्यान में आएगा कि ई. सन् 1800 अथवा उससे पूर्व के विश्व के देशों की सूची में वर्तमान भारत के चारों ओर जो आज देश माने जाते हैं उस समय देश नहीं थे। इनमें स्वतन्त्र राजसत्ताएं थीं, परन्तु सांस्कृतिक रूप में ये सभी भारतवर्ष के रूप में एक थे और एक-दूसरे के देश में आवागमन (व्यापार, तीर्थ दर्शन, रिश्ते, पर्यटन आदि) पूर्ण रूप से बे-रोकटोक था। इन राज्यों के विद्वान् व लेखकों ने जो भी लिखा वह विदेशी यात्रियों ने लिखा ऐसा नहीं माना जाता है। इन सभी राज्यों की भाषाएं व बोलियों में अधिकांश शब्द संस्कृत के ही हैं। मान्यताएं व परम्पराएं भी समान हैं। खान-पान, भाषा-बोली, वेशभूषा, संगीत-नृत्य, पूजापाठ, पंथ सम्प्रदाय में विविधताएं होते हुए भी एकता के दर्शन होते थे और होते हैं। जैसे-जैसे इनमें से कुछ राज्यों में भारत इतर यानि विदेशी पंथ (मजहब-रिलीजन) आये तब अनेक संकट व सम्भ्रम निर्माण करने के प्रयास हुए।

सन 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्व-मार्क्स द्वारा अर्थ प्रधान परन्तु आक्रामक व हिंसक विचार के रूप में मार्क्सवाद जिसे लेनिनवाद, माओवाद, साम्यवाद, कम्यूनिज्म शब्दों से भी पहचाना जाता है, यह अपने पांव अनेक देशों में पसार चुका था। वर्तमान रूस व चीन जो अपने चारों ओर के अनेक छोटे-बडे राज्यों को अपने में समाहित कर चुके थे या कर रहे थे, वे कम्यूनिज्म के सबसे बडे व शक्तिशाली देश पहचाने जाते हैं। ये दोनों रूस और चीन विस्तारवादी, साम्राज्यवादी, मानसिकता वाले ही देश हैं। अंग्रेज का भी उस समय लगभग आधी दुनिया पर राज्य माना जाता था और उसकी साम्राज्यवादी, विस्तारवादी, हिंसक व कुटिलता स्पष्ट रूप से सामने थी। 

अफगानिस्तान :- सन् 1834 में प्रकिया प्रारम्भ हुई और 26 मई, 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत) के बीच गंडामक संधि के रूप में निर्णय हुआ और अफगानिस्तान नाम से एक बफर स्टेट अर्थात् राजनैतिक देश को दोनों ताकतों के बीच स्थापित किया गया। इससे अफगानिस्तान अर्थात् पठान भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से अलग हो गए तथा दोनों ताकतों ने एक-दूसरे से अपनी रक्षा का मार्ग भी खोज लिया। परंतु इन दोनों पूंजीवादी व मार्क्सवादी ताकतों में अंदरूनी संघर्ष सदैव बना रहा कि अफगानिस्तान पर नियन्त्रण किसका हो ? अफगानिस्तान (उपगणस्तान) शैव व प्रकृति पूजक मत से बौद्ध मतावलम्बी और फिर विदेशी पंथ इस्लाम मतावलम्बी हो चुका था। बादशाह शाहजहाँ, शेरशाह सूरी व महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में उनके राज्य में कंधार (गंधार) आदि का स्पष्ट वर्णन मिलता है।

नेपाल :- मध्य हिमालय के 46 से अधिक छोटे-बडे राज्यों को संगठित कर पृथ्वी नारायण शाह नेपाल नाम से एक राज्य का सुगठन कर चुके थे। स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों ने इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध लडते समय-समय पर शरण ली थी। अंग्रेज ने विचारपूर्वक 1904 में वर्तमान के बिहार स्थित सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राजाओं के नरेश से संधी कर नेपाल को एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान कर अपना रेजीडेंट बैठा दिया। इस प्रकार से नेपाल स्वतन्त्र राज्य होने पर भी अंग्रेज के अप्रत्यक्ष अधीन ही था। रेजीडेंट के बिना महाराजा को कुछ भी खरीदने तक की अनुमति नहीं थी। इस कारण राजा-महाराजाओं में जहां आन्तरिक तनाव था, वहीं अंग्रेजी नियन्त्रण से कुछ में घोर बेचैनी भी थी। महाराजा त्रिभुवन सिंह ने 1953 में भारतीय सरकार को निवेदन किया था कि आप नेपाल को अन्य राज्यों की तरह भारत में मिलाएं। परन्तु सन 1955 में रूस द्वारा दो बार वीटो का उपयोग कर यह कहने के बावजूद कि नेपाल तो भारत का ही अंग है, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने पुरजोर वकालत कर नेपाल को स्वतन्त्र देश के रूप में यू.एन.ओ. में मान्यता दिलवाई। आज भी नेपाल व भारतीय एक-दूसरे के देश में विदेशी नहीं हैं और यह भी सत्य है कि नेपाल को वर्तमान भारत के साथ ही सन् 1947 में ही स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। नेपाल 1947 में ही अंग्रेजी रेजीडेंसी से मुक्त हुआ।

भूटान :- सन 1906 में सिक्किम व भूटान जो कि वैदिक-बौद्ध मान्यताओं के मिले-जुले समाज के छोटे भू-भाग थे इन्हें स्वतन्त्रता संग्राम से लगकर अपने प्रत्यक्ष नियन्त्रण से रेजीडेंट के माध्यम से रखकर चीन के विस्तारवाद पर अंग्रेज ने नजर रखना प्रारम्भ किया। ये क्षेत्र(राज्य) भी स्वतन्त्रता सेनानियों एवं समय-समय पर हिन्दुस्तान के उत्तर दक्षिण व पश्चिम के भारतीय सिपाहियों व समाज के नाना प्रकार के विदेशी हमलावरों से युद्धों में पराजित होने पर शरणस्थली के रूप में काम आते थे। दूसरा ज्ञान (सत्य, अहिंसा, करुणा) के उपासक वे क्षेत्र खनिज व वनस्पति की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे। तीसरा यहां के जातीय जीवन को धीरे-धीरे मुख्य भारतीय (हिन्दू) धारा से अलग कर मतान्तरित किया जा सकेगा। हम जानते हैं कि सन 1836 में उत्तर भारत में चर्च ने अत्यधिक विस्तार कर नये आयामों की रचना कर डाली थी। सुदूर हिमालयवासियों में ईसाईयत जोर पकड़ रही थी।

तिब्बत :- सन 1914 में तिब्बत को केवल एक पार्टी मानते हुए चीनी साम्राज्यवादी सरकार व भारत के काफी बड़े भू-भाग पर कब्जा जमाए अंग्रेज शासकों के बीच एक समझौता हुआ। भारत और चीन के बीच तिब्बत को एक बफर स्टेट के रूप में मान्यता देते हुए हिमालय को विभाजित करने के लिए मैकमोहन रेखा निर्माण करने का निर्णय हुआ। हिमालय सदैव से ज्ञान-विज्ञान के शोध व चिन्तन का केंद्र रहा है। हिमालय को बांटना और तिब्बत व भारतीय को अलग करना यह षड्यंत्र रचा गया। चीनी और अंग्रेज शासकों ने एक-दूसरों के विस्तारवादी, साम्राज्यवादी मनसूबों को लगाम लगाने के लिए कूटनीतिक खेल खेला।

अंग्रेज ईसाईयत हिमालय में कैसे अपने पांव जमायेगी, यह सोच रहा था परन्तु समय ने कुछ ऐसी करवट ली कि प्रथम व द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अंग्रेज को एशिया और विशेष रूप से भारत छोड़कर जाना पड़ा। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने समय की नाजकता को पहचानने में भूल कर दी और इसी कारण तिब्बत को सन 1949 से 1959 के बीच चीन हड़पने में सफल हो गया। पंचशील समझौते की समाप्ति के साथ ही अक्टूबर सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर हजारों वर्ग कि.मी. अक्साई चीन (लद्दाख यानि जम्मू-कश्मीर) व अरुणाचल आदि को कब्जे में कर लिया। तिब्बत को चीन का भू-भाग मानने का निर्णय पं. नेहरू (तत्कालीन प्रधानमंत्री) की भारी ऐतिहासिक भूल हुई। आज भी तिब्बत को चीन का भू-भाग मानना और चीन पर तिब्बत की निर्वासित सरकार से बात कर मामले को सुलझाने हेतु दबाव न डालना बड़ी कमजोरी व भूल है। नवम्बर 1962 में भारत के दोनों सदनों के संसद सदस्यों ने एकजुट होकर चीन से एक-एक इंच जमीन खाली करवाने का संकल्प लिया। आश्चर्य है भारतीय नेतृत्व (सभी दल) उस संकल्प को शायद भूल ही बैठा है। हिमालय परिवार नाम के आन्दोलन ने उस दिवस को मनाना प्रारम्भ किया है ताकि जनता नेताओं द्वारा लिए गए संकल्प को याद करवाएं।

श्रीलंका व म्यांमार :- अंग्रेज प्रथम महायुद्ध (1914 से 1919) जीतने में सफल तो हुए परन्तु भारतीय सैनिक शक्ति के आधार पर। धीरे-धीरे स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु क्रान्तिकारियों के रूप में भयानक ज्वाला अंग्रेज को भस्म करने लगी थी। सत्याग्रह, स्वदेशी के मार्ग से आम जनता अंग्रेज के कुशासन के विरुद्ध खडी हो रही थी। द्वितीय महायुद्ध के बादल भी मण्डराने लगे थे। सन् 1935 व 1937 में ईसाई ताकतों को लगा कि उन्हें कभी भी भारत व एशिया से बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ सकता है। उनकी अपनी स्थलीय शक्ति मजबूत नहीं है और न ही वे दूर से नभ व थल से वर्चस्व को बना सकते हैं। इसलिए जल मार्ग पर उनका कब्जा होना चाहिए तथा जल के किनारों पर भी उनके हितैषी राज्य होने चाहिए। समुद्र में अपना नौसैनिक बेड़ा बैठाने, उसके समर्थक राज्य स्थापित करने तथा स्वतन्त्रता संग्राम से उन भू-भागों व समाजों को अलग करने हेतु सन 1965 में श्रीलंका व सन 1937 में म्यांमार को अलग राजनीतिक देश की मान्यता दी। ये दोनों देश इन्हीं वर्षों को अपना स्वतन्त्रता दिवस मानते हैं। म्यांमार व श्रीलंका का अलग अस्तित्व प्रदान करते ही मतान्तरण का पूरा ताना-बाना जो पहले तैयार था उसे अधिक विस्तार व सुदृढ़ता भी इन देशों में प्रदान की गई। ये दोनों देश वैदिक, बौद्ध धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले हैं। म्यांमार के अनेक स्थान विशेष रूप से रंगून का अंग्रेज द्वारा देशभक्त भारतीयों को कालेपानी की सजा देने के लिए जेल के रूप में भी उपयोग होता रहा है।

पाकिस्तान, बांग्लादेश व मालद्वीप :- 1905 का लॉर्ड कर्जन का बंग-भंग का खेल 1911 में बुरी तरह से विफल हो गया। परन्तु इस हिन्दु मुस्लिम एकता को तोड़ने हेतु अंग्रेज ने आगा खां के नेतृत्व में सन 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना कर मुस्लिम कौम का बीज बोया। पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश जनजातीय जीवन को ईसाई के रूप में मतान्तरित किया जा रहा था। ईसाई बने भारतीयों को स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्णत: अलग रखा गया। पूरे भारत में एक भी ईसाई सम्मेलन में स्वतन्त्रता के पक्ष में प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। दूसरी ओर मुसलमान तुम एक अलग कौम हो, का बीज बोते हुए सन् 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तान की मांग खड़ी कर देश को नफरत की आग में झोंक दिया। अंग्रेजीयत के दो एजेण्ट क्रमश: पं. नेहरू व मो. अली जिन्ना दोनों ही घोर महत्वाकांक्षी व जिद्दी (कट्टर) स्वभाव के थे।

अंग्रेजों ने इन दोनों का उपयोग गुलाम भारत के विभाजन हेतु किया। द्वितीय महायुद्ध में अंग्रेज बुरी तरह से आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से इंग्लैण्ड में तथा अन्य देशों में टूट चुके थे। उन्हें लगता था कि अब वापस जाना ही पड़ेगा और अंग्रेजी साम्राज्य में कभी न अस्त होने वाला सूर्य अब अस्त भी हुआ करेगा। सम्पूर्ण भारत देशभक्ति के स्वरों के साथ सड़क पर आ चुका था। संघ, सुभाष, सेना व समाज सब अपने-अपने ढंग से स्वतन्त्रता की अलख जगा रहे थे। सन 1948 तक प्रतीक्षा न करते हुए 3 जून, 1947 को अंग्रेज अधीन भारत के विभाजन व स्वतन्त्रता की घोषणा औपचारिक रूप से कर दी गयी। यहां यह बात ध्यान में रखने वाली है कि उस समय भी भारत की 562 ऐसी छोटी-बड़ी रियासतें (राज्य) थीं, जो अंग्रेज के अधीन नहीं थीं। इनमें से सात ने आज के पाकिस्तान में तथा 555 ने जम्मू-कश्मीर सहित आज के भारत में विलय किया। भयानक रक्तपात व जनसंख्या की अदला-बदली के बीच 14, 15 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि में पश्चिम एवं पूर्व पाकिस्तान बनाकर अंग्रेज ने भारत का 7वां विभाजन कर डाला। आज ये दो भाग पाकिस्तान व बांग्लादेश के नाम से जाने जाते हैं। भारत के दक्षिण में सुदूर समुद्र में मालद्वीप (छोटे-छोटे टापुओं का समूह) सन 1947 में स्वतन्त्र देश बन गया, जिसकी चर्चा व जानकारी होना अत्यन्त महत्वपूर्ण व उपयोगी है। यह बिना किसी आन्दोलन व मांग के हुआ है।

भारत का वर्तमान परिदृश्य :- सन 1947 के पश्चात् फेंच के कब्जे से पाण्डिचेरी, पुर्तगीज के कब्जे से गोवा देव- दमन तथा अमेरिका के कब्जें में जाते हुए सिक्किम को मुक्त करवाया है। आज पाकिस्तान में पख्तून, बलूच, सिंधी, बाल्टीस्थानी (गिलगित मिलाकर), कश्मीरी मुजफ्फरावादी व मुहाजिर नाम से इस्लामाबाद (लाहौर) से आजादी के आन्दोलन चल रहे हैं। पाकिस्तान की 60 प्रतिशत से अधिक जमीन तथा 30 प्रतिशत से अधिक जनता पाकिस्तान से ही आजादी चाहती है। बांग्लादेश में बढ़ती जनसंख्या का विस्फोट, चटग्राम आजादी आन्दोलन उसे जर्जर कर रहा है। शिया-सुन्नी फसाद, अहमदिया व वोहरा (खोजा-मल्कि) पर होते जुल्म मजहबी टकराव को बोल रहे हैं। हिन्दुओं की सुरक्षा तो खतरे में ही है। विश्वभर का एक भी मुस्लिम देश इन दोनों देशों के मुसलमानों से थोडी भी सहानुभूति नहीं रखता। अगर सहानुभूति होती तो क्या इन देशों के 3 करोड़ से अधिक मुस्लिम (विशेष रूप से बांग्लादेशीय) दर-दर भटकते। ये मुस्लिम देश अपने किसी भी सम्मेलन में इनकी मदद हेतु आपस में कुछ-कुछ लाख बांटकर सम्मानपूर्वक बसा सकने का निर्णय ले सकते थे। परन्तु कोई भी मुस्लिम देश आजतक बांग्लादेशी मुसलमान की मदद में आगे नहीं आया। इन घुसपैठियों के कारण भारतीय मुसलमान अधिकाधिक गरीब व पिछड़ते जा रहा है क्योंकि इनके विकास की योजनाओं पर खर्च होने वाले धन व नौकरियों पर ही तो घुसपैठियों का कब्जा होता जा रहा है। मानवतावादी वेष को धारण कराने वाले देशों में से भी कोई आगे नहीं आया कि इन घुसपैठियों यानि दरबदर होते नागरिकों को अपने यहां बसाता या अन्य किसी प्रकार की सहायता देता। इन दर-बदर होते नागरिकों के आई.एस.आई. के एजेण्ट बनकर काम करने के कारण ही भारत के करोडों मुस्लिमों को भी सन्देह के घेरे में खड़ा कर दिया है। आतंकवाद व माओवाद लगभग 200 के समूहों के रूप में भारत व भारतीयों को डस रहे हैं। लाखों उजड़ चुके हैं, हजारों विकलांग हैं और हजारों ही मारे जा चुके हैं। विदेशी ताकतें हथियार, प्रशिक्षण व जेहादी, मानसिकता देकर उन प्रदेश के लोगों के द्वारा वहां के ही लोगों को मरवा कर उन्हीं प्रदेशों को बर्बाद करवा रही हैं। इस विदेशी षड्यन्त्र को भी समझना आवश्यक है।

सांस्कृतिक व आर्थिक समूह की रचना आवश्यक :- आवश्यकता है वर्तमान भारत व पड़ोसी भारतखण्डी देशों को एकजुट होकर शक्तिशाली बन खुशहाली अर्थात विकास के मार्ग में चलने की। इसलिए अंग्रेज अर्थात् ईसाईयत द्वारा रचे गये षड्यन्त्र को ये सभी देश (राज्य) समझें और साझा व्यापार व एक करन्सी निर्माण कर नए होते इस क्षेत्र के युग का सूत्रपात करें। इन देशों 10 का समूह बनाने से प्रत्येक देश का भय का वातावरण समाप्त हो जायेगा तथा प्रत्येक देश का प्रतिवर्ष के सैंकड़ों-हजारों-करोड़ों रुपये रक्षा व्यय के रूप में बचेंगे जो कि विकास पर खर्च किए जा सकेंगे। इससे सभी सुरक्षित रहेंगे व विकसित होंगे।

Written by इन्द्रेश कुमार

- लेखक मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के मार्गदर्शक हैं।

साभार – साप्ताहिक पाञ्चजन्य से

Friday, October 4, 2013

सफलता के 20 मँत्र

1.खुद की कमाई से कम खर्च हो ऐसी जिन्दगी बनाओ..!

2. दिन मेँ कम से कम 3 लोगो की प्रशंशा करो..!

3. खुद की भुल स्वीकार ने मेँ कभी भी संकोच मत करो..!

4. किसी के सपनो पर हँसो मत..!

5. आपके पीछे खडे व्यक्ति को भी कभी कभी आगे जाने का मौका दो..!

6. रोज हो सके तो सुरज को उगता हुए देखे..!

7. खुब जरुरी हो तभी कोई चीज उधार लो..!

8. किसी के पास से कुछ जानना हो तो विवेक से दो बार पुछो..!

9. कर्ज और शत्रु को कभी बडा मत होने दो..!

10. ईश्वर पर पुरा भरोशा रखो..!

11. प्रार्थना करना कभीमत भुलो, प्रार्थना मेँ अपार शक्ति होती है..!

12. अपने काम से मतलब रखो..!

13. समय सबसे ज्यादा किमती है, इसको फालतु कामो मेँ खर्च मत करो..!

14. जो आपके पास है, उसी मेँ खुश रहना सिखो..!

15. बुराई कभी भी किसी कि भी मत करो करो,
क्योकिँ बुराई नाव मेँ छेद समान है, बुराई छोटी हो बडी नाव तो डुबोही देती है..!

16. हमेशा सकारात्मक सोच रखो..!

17. हर व्यक्ति एक हुनर लेकर पैदा होता बस उस हुनर को दुनिया के सामने लाओ..!

18. कोई काम छोटा नही होता हर काम बडा होता है जैसे कि सोचो जो काम आप कर रहे हो अगर आप वह काम आप नही करते हो तो दुनिया पर क्या
असर होता..?

19. सफलता उनको ही मिलती है जो कुछकरते है

20. कुछ पाने के लिए कुछ खोना नही बल्कि कुछ करना पडता है

साभार : फेसबुक 


Wednesday, October 2, 2013

हैफा में आज भी गूंजती है भारतीय सैनिकों की शौर्यगाथा



900 से ज्यादा भारतीय रणबांकुरों के बलिदान ने लिखी थी हैफा-मुक्ति की कहानी

किसी ने सच ही कहा है कि भारत का सैनिक सेना में नौकरी करने के उद्देश्य से भर्ती नहीं होता, वह भर्ती होता है मातृभूमि पर अपना सब कुछ निछावर करने, अपने कर्तव्य पथ पर अडिग, अनुशासित रहते हुए देश की मिट्टी की रक्षा करने, इंसानियत के दुश्मनों को धूल चटाने। और यही वह भाव होता है जो हमारे बहादुर सैनिकों में सवा लाख से अकेले टकरा जाने का दमखम भरता है, और अंतत: विजयश्री दिलाता है। 

भारतीय सेना के इतिहास में अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जिनमें विपरीत परिस्थितियों में दुश्मन को नाकों चने चबवाकर हमारे जवानों ने किले फतह किए हैं। सिर्फ भारत ही नहीं, विदेशी धरती पर भी हमारे जवानों ने अपने रक्त से शौर्य गाथाएं लिखकर इस धरती के दूध की आन बढ़ाई है। लेकिन हमारे राजनेताओं ने सैनिकों के बलिदानों को हमेशा अपमानित ही किया, उनके गौरव को बढ़ाने की जगह आज भी सैनिकों का मनोबल तोड़ने के दुष्चक्र चलाए जा रहे हैं। शायद यही कारण है कि भारत में ऐसे कम ही लोग होंगे जिन्हें इस्रायल के फिलिस्तीन से सटे हैफा शहर की आजादी के संघर्ष में तीन भारतीय रेजीमेंटों-जोधपुर लांसर्स, मैसूर लांसर्स और हैदराबाद लांसर्स- के अप्रतिम योगदान के बारे में पता होगा। ब्रिटिश सेना के अंग के नाते लड़ते हुए इन भारतीय रेजीमेंटों ने अत्याचारी दुश्मन के चंगुल से हैफा को स्वतंत्र कराया था और इस संघर्ष में 900 से ज्यादा भारतीय योद्घाओं ने बलिदान दिया था, जिनके स्मृतिशेष आज भी इस्रायल में सात शहरों में मौजूद हैं और मौजूद है उनकी गाथा सुनाता एक स्मारक, जिस पर इस्रायल सरकार और भारतीय सेना हर साल 23 सितम्बर को हैफा दिवस के अवसर पर पुष्पांजलि अर्पित करके उन वीरों को नमन करती है। 

हैफा मुक्ति की गाथा कुछ यूं है। बात प्रथम विश्व युद्घ (1914-18) की है। ऑटोमन यानी उस्मानी तुर्कों की सेनाओं ने हैफा को कब्जा लिया था। वे वहां यहूदियों पर अत्याचार कर रही थीं। उस युद्घ में करीब 150,000 भारतीय सैनिक आज के इजिप्ट और इस्रायल में 15वीं इम्पीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड के अंतर्गत अपना रणकौशल दिखा रहे थे। भालों और तलवारों से लैस भारतीय घुड़सवार सैनिक हैफा में मौजूद तुर्की मोर्चों और माउंट कारमल पर तैनात तुर्की तोपखाने को तहस-नहस करने के लिए हमले पर भेजे गए। तुर्की सेना का वह मोर्चा बहुत मजबूत था, लेकिन भारतीय सैनिकों की घुड़सवार टुकडि़यों, जोधपुर लांसर्स और मैसूर लांसर्स ने वह शौर्य दिखाया जिसका सशस्त्र सेनाओं के इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। खासकर जोधपुर लांसर्स ने अपने सेनापति मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्व में हैफा मुक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

23 सितम्बर 1918 को तुर्की सेना को खदेड़कर मेजर ठाकुर दलपत सिंह के बहादुर जवानों ने इस्रायल के हैफा शहर को आजाद कराया। ठाकुर दलपत सिंह ने अपना बलिदान देकर एक सच्चे सैनिक की बहादुरी का असाधारण परिचय दिया था। उनकी उसी बहादुरी को सम्मानित करते हुए ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें मरणोपरांत मिलिटरी क्रास पदक अर्पित किया था। ब्रिटिश सेना के एक बड़े अधिकारी कर्नल हार्वी ने उनकी याद में कहा था, ह्यउनकी मृत्यु केवल जोधपुर वालों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत और पूरे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक बड़ी क्षति है।ह्ण मेजर ठाकुर दलपत सिंह के अलावा कैप्टन अनूप सिंह और से़ ले़ सगत सिंह को भी मिलिटरी क्रास पदक दिया गया था। इस युद्घ में कैप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा और दफादार जोर सिंह को उनकी बहादुरी के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट पदक दिए गए थे। आज भी हैफा, यरुशलम, रामलेह और ख्यात बीच सहित इस्रायल के सात शहरों में उनकी याद बसी हैं। इतना ही नहीं, हैफा नगर निगम और उसके उप महापौर के प्रयासों से इस्रायल सरकार वहां की स्कूली किताबों में भी इन वीर बांकुरों पर विशेष सामग्री प्रकाशित करने का फैसला कर चुकी है। इसके लिए हैफा के उप महापौर हेदवा अलमोग की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। भारत क्या, दिल्ली के ही बहुत कम निवासी जानते होंगे कि तीन मूर्ति भवन के सामने सड़क के बीच लगीं तीन सैनिकों की मूर्तियां उन्हीं तीन घुड़सवार रेजीमेंटों की प्रतीक हैं जिन्होंने अपनी जान निछावर करके हैफा को उस्मानी तुर्कों से मुक्त कराया था।

इस 23 सितम्बर 2013 को हैफा के साथ ही हांगकांग, नई दिल्ली, जयपुर, जोधपुर और मुम्बई में भारत को अपनी मातृभूमि मानने और इस देश के विकास में योगदान देने वाले पारसी समाज की सहभागिता से हैफा दिवस मनाया गया। नई दिल्ली के पारसी प्रार्थना गृह जूडाह ह्याम सिनेगॉग में सम्पन्न इस कार्यक्रम में भारत में इस्रायल के राजदूत आलोन उश्पिज, पंजाब के राज्यपाल रहे ले. जनरल जे़ एफ़ आर. जेकब, स्वाड्रन लीडर राणा तेज प्रताप सिंह चिन्ना, राज्य सभा सांसद तरुण विजय, इंडो-इस्रायल फें्रडशिप फोरम के परामर्शदाता रवि अय्यर सहित अनेक विशिष्टजन उपस्थित थे। इस अवसर पर राजदूत आलोन ने बताया कि चूंकि वे खुद हैफा में पले-बढ़े हैं इसलिए बचपन से ही भारतीय सैनिकों के बलिदान की गाथा सुनते आए हैं। उन्होंने बताया कि आज भी उन सैनिकों के प्रति वहां के लोगों में बहुत सम्मान का भाव है। ले. जनरल जेकब ने उस लड़ाई के कुछ अनछुए पहलू सामने रखे। स्वाड्रन लीडर चिन्ना ने इतिहास के पन्नों से उस लोमहर्षक गाथा के कुछ अंश पढ़कर सुनाए। तरुण विजय ने भारत-इस्रायल संबंधों को और प्रगाढ़ करने और उन बलिदानी सैनिकों की स्मृति को चिर-स्थायी बनाने के कुछ कदम उठाने की सलाह दी। रवि अय्यर ने बताया कि 2018 में हैफा मुक्ति के 100 साल खूब धूमधाम से मनाए जाएंगे, विशेष कार्यक्रम किए जाएंगे। उन्होंने पारसी समाज के भारत के विकास में योगदान और उस समाज में भारत के प्रति आदर भाव की जानकारी दी। एचआरडीआई के महासचिव राजेश गोगना ने कहा कि हैफा मुक्ति की कहानी हर उस भारतीय को पढ़नी चाहिए जिसे अपने बहादुर सैनिकों पर गर्व है। यह गाथा हमारे दिल-दिमाग पर उन वीरों की अमिट छाप छोड़ जाती है। इस मौके पर इंडो-इस्रायल फ्रेंडशिप फोरम और एचआरडीआई की ओर से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि- 'हम इन वीर भारतीय सैनिकों की गाथा इस्रायल की स्कूली किताबों में शामिल करने पर हैफा नगर निगम का धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। 2018 में शताब्दी समारोह आयोजित किए जाने का निर्णय स्वागतयोग्य है।' प्रस्ताव में हैफा के नायक मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत की याद में एक डाक टिकट जारी करने की मांग की गई। कार्यक्रम के आरम्भ और अंत में कुर्ता-पाजामा पहने और बढि़या हिन्दी बोलने वाले उस पारसी सिनेगॉग के मानद सचिव इजकिल इसाक मालेकर ने हिब्रू भाषा में विश्व बंधुत्व और शांति हेतु प्रार्थना की। 

साभार: पाञ्चजन्य, http://www.panchjanya.com

तारीख: 28 Sep 2013 


Wednesday, September 25, 2013

PURAN - OUR HISTORY, मानव इतिहास - पुराण

पुराण शब्द का अर्थ है प्राचीन कथा। पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवा-देवताओं, राजाओ, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथायें भी उल्लेख करी गयी हैं जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।

महृर्षि वेदव्यास ने 18 पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा विष्णु तथा महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं। इन 18 पुराणों के अतिरिक्त 16 उप-पुराण भी हैं किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है। मुख्य पुराणों का वर्णन इस प्रकार हैः- 

ब्रह्म पुराण – ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है। 

पद्म पुराण - पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह गॅंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था। 

विष्णु पुराण - विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था। इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है। 

शिव पुराण – शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं। 

भागवत पुराण – भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है। 

नारद पुराण - नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध ऐवम कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थि्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं। 

मार्कण्डेय पुराण – अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषिमार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं। 

अग्नि पुराण – अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है। 

भविष्य पुराण – भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है। इस पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी और महारानी विक्टोरिया तक का वृतान्त भी दिया गया है। ईसा के भारत आगमन तथा मुहम्मद और कुतुबुद्दीन ऐबक का जिक्र भी इस पुराण में दिया गया है। इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है। सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है। यह पुराण भी भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है जिस पर शोध कार्य करना चाहिये। 

ब्रह्मावैवर्ता पुराण – ब्रह्माविवर्ता पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्मी, सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है। 

लिंग पुराण – लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है। 

वराह पुराण – वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे। 

स्कन्द  पुराण – स्कन्द  पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। स्कन्द  पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में 27 नक्षत्रों, 18 नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित 12 ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है। 

वामन पुराण - वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है। 

कुर्मा पुराण – कुर्मा पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है। 

मतस्य पुराण – मतस्य पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है
  
गरुड़ पुराण – गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है। साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्यों कि इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है। समस्त योरुप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी। अंग्रेज़ी साहित्य में जान बनियन की कृति दि पिलग्रिम्स प्रौग्रेस कदाचित इस ग्रंथ से परेरित लगती है जिस में एक एवेंजलिस्ट मानव को क्रिस्चियन बनने के लिये प्रोत्साहित करते दिखाया है ताकि वह नरक से बच सके। 
  
ब्रह्माण्ड पुराण - ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। परशुराम की कथा भी इस पुराण में दी गयी है। इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है। भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को इण्डोनेशिया भी ले कर गये थे जिस के प्रमाण इण्डोनेशिया की भाषा में मिलते है। 

हिन्दू पौराणिक इतिहास की तरह अन्य देशों में भी महामानवों, दैत्यों, देवों, राजाओं तथा साधारण नागरिकों की कथायें प्रचिलित हैं। कईयों के नाम उच्चारण तथा भाषाओं की विभिन्नता के कारण बिगड़ भी चुके हैं जैसे कि हरिकुल ईश से हरकुलिस, कश्यप सागर से केस्पियन सी, तथा शम्भूसिहं से शिन बू सिन आदि बन गये। तक्षक के नाम से तक्षशिला और तक्षकखण्ड से ताशकन्द बन गये। यह विवरण अवश्य ही किसी ना किसी ऐतिहासिक घटना कई ओर संकेत करते हैं।

प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था और राजाओ नें कल्पना शक्तियों से भी अपनी वंशावलियों को सूर्य और चन्द्र वंशों से जोडा है। इस कारण पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं।

रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

साभार : चाँद शर्मा,http://hindumahasagar.wordpress.com

Saturday, August 31, 2013

परमाणु बम का जनक - सनातनी भारत





आधुनिक परमाणु बम का सफल परीक्षण 16 जुलाई 1945 को New Mexico के एक दूर दराज स्थान में किया गया था|

इस बम का निर्माण अमेरिका के एक वैज्ञानिक Julius Robert Oppenheimer [http://en.wikipedia.org/wiki/J._Robert_Oppenheimer ] के नेतृत्व में किया गया था 

Oppenheimer को आधुनिक परमाणु बम के निर्माणकर्ता के रूप में जाना जाता है, आपको ये जानकर आश्चर्य हो सकता है की इस परमाणु परीक्षण का कोड नाम Oppenheimer ने त्रिदेव (Trinity) रखा था,

परमाणु विखण्डन की श्रृंखला अभिक्रिया में २३५ भार वला यूरेनियम परमाणु,बेरियम और क्रिप्टन तत्वों में विघटित होता है। प्रति परमाणु ३ न्यूट्रान मुक्त होकर अन्य तीन परमाणुओं का विखण्डन करते है। कुछ द्रव्यमान ऊर्जा में परिणित हो जाता है। ऊर्जा = द्रव्यमान * (प्रकाश का वेग)२ {E=MC^2} के अनुसार अपरिमित ऊर्जा अर्थात उष्मा व प्रकाश उत्पन्न होते है। यहाँ देखें - [ http://www.facebook.com/photo.php?fbid=374856539304046&set=a.338314332958267.1073741828.100003391094649&type=1&theater ]

Oppenheimer ने महाभारत और गीता का काफी समय तक अध्ययन किया था और हिन्दू धर्मं शास्त्रों से वे बेहद प्रभावित थे १८९३ में जब स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में थे, उन्होने वेद और गीता के कतिपय श्लोकों का अंग्रेजी अनुवाद किया।

यद्यपि परमाणु बम विस्फोटट कमेटी के अध्यक्ष ओपेन हाइमर का जन्म स्वामी जी की मृत्यु के बाद हुआ था किन्तु राबर्ट ने श्लोकों का अध्ययन किया था। वे वेद और गीता से बहुत प्रभावित हुए थे। वेदों के बारे में उनका कहना था कि पाश्चात्य संस्कृति में वेदों की पंहुच इस सदी की विशेष कल्याणकारी घटना है।

उन्होने जिन तीन श्लोकों को महत्व दिया वे निम्र प्रकार है।

१. राबर्ट औपेन हाइमर का अनुमान था कि परमाणु बम विस्फोट से अत्यधिक तीव्र प्रकाश और उच्च ऊष्मा होगी, जैसा कि भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को विराट स्वरुप के दर्शन देते समय उत्पन्न हुआ होगा।

गीता के ग्यारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में लिखा है-

दिविसूर्य सहस्य भवेयुग पदुत्थिता यदि
मा सदृशीसा स्यादा सस्तस्य महात्मन: {११:१२ गीता}

अर्थात - आकाश में हजारों सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो प्रकाश उत्पन्न होगा वह भी वह विश्वरुप परमात्मा के प्रकाश के सदृश्य शायद ही हो।

२. औपेन हाइमर के अनुसार इस बम विस्फोट से बहुत अधिक लोगों की मृत्यु होगी, दुनिया में विनाश ही विनाश होगा।

उस समय उन्होंने गीता के गीता के ग्यारहवें अध्याय के ३२ वें श्लोक में वर्णित बातों का सन्दर्भ दिया -

कालोस्स्मि लोकक्षयकृत्प्रवृध्दो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत:।
ऋ तेह्यपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येह्यवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योधा:।। {११:३२ गीता}

अर्थात - मैं लोको का नाश करने वाला बढा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं,अत: जो प्रतिपक्षी सेना के योध्दा लोग हैं वे तेरे युध्द न करने पर भी नहीं रहेंगे अर्थात इनका नाश हो जाएगा।

३. औपेन हाइमर के अनुसार बम विस्फोट से जहां कुछ लोग प्रसन्न होंगे तो जिनका विनाश हुआ है वे दु:खी होंगे विलाप करेंगे,जबकि अधिकांश तटस्थ रहेंगे। इस विनाश का जिम्मेदार खुद को मानते हुए वे दुखी हुए, परन्तु उन्होंने गीता में वर्णित कर्म के सिद्धांत का प्रतिपालन किया

उन्होंने गीता के सबसे प्रसिद्ध द्वितीय अध्याय के सैंतालिसवें श्लोक का सन्दर्भ दिया।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संङ्गोह्यस्त्वकर्माणि।। {२:४७ गीता}

अर्थात - तू कर्म कर फल की चिंता मत कर। तू कर्मो के फल हेतु मत हो, तेरी अकर्म में (कर्म न करने में) आसक्ति नहीं होनी चाहिए!

उन्होंने अपनी डायरी में स्वयं की मनोस्तिथि लिखी , और इस परीक्षण का कोड नेम इन्ही ३ श्लोको के आधार तथा भगवान ब्रम्हा विष्णु महेश के नाम पर ट्रिनिटी रखा...

तत्कालीन अमेरिकी सरकार नहीं चाहती थी की कोई और सभ्यता तथा संस्कृति आधुनिक परमाणु बम की अवधारणा का का श्रेय ले जाए.... इसीलिए इस परीक्षण के नामकरण की सच्चाई को उन्होंने Oppenheimer को छुपाने के लिए कहा.... परन्तु जापान में परमाणु बम गिरने के बाद Oppenheimer ने एक इंटरव्यू में ये बात स्वीकार की थी....... विकिपीडिया भी दबी जुबान में ये बात बोलता है... [ http://en.wikipedia.org/wiki/Trinity_(nuclear_test)#Name ]

इसके अतिरिक्त 1933 में उन्होंने अपने एक मित्र Arthur William Ryder, जोकि University of California, Berkeley में संस्कृत के प्रोफेसर थे, के साथ मिल कर भगवद गीता का पूरा अध्यन किया और परमाणु बम बनाया 1945 में | परमाणु बम जैसी किसी चीज़ के होने का पता भी इनको भगवद गीता, रामायण तथा महाभारत से ही मिला, इसमें कोई संदेह नहीं | Oppenheimer ने इस प्रयोग के बाद प्राप्त निष्कर्षों पर अध्यन किया और कहा की विस्फोट के बाद उत्पन विकट परिस्तियाँ तथा दुष्परिणाम जो हमें प्राप्त हुए है ठीक इस प्रकार का वर्णन भगवद गीता तथा महाभारत आदि में मिलता है |

बाद में Oppenheimer के खुलासे के बाद भारी पैमाने पर महाभारत और गीता आदि पर शोध किया गया उन्हें इस बात पर बेहद आश्चर्य हुआ की इन ग्रंथो में "ब्रह्माश्त्र" नामक अस्त्र का वर्णन मिलता है जो इतना संहारक था की उस के प्रयोग से कई हजारो लोग व अन्य वस्तुएं न केवल जल गई अपितु पिघल भी गई| ब्रह्माश्त्र के बारे में हमसे बेहतर कौन जान सकता है इसका वर्णन प्रत्येक पुराण आदि में मिलता है... जगत पिता भगवान ब्रह्मा द्वारा असुरो के नाश हेतु ब्रह्माश्त्र का निर्माण किया गया था...

इस शोध पर लिखी गई कई किताबो में से एक है : [ The Atoms of Kshatriyas http://www.amazon.com/The-Atoms-Kshatriyas-Azsacra-Zarathustra/dp/8182533309 ]

रामायण में भी मेघनाद से युद्ध हेतु श्रीलक्ष्मण ने जब ब्रह्माश्त्र का प्रयोग करना चाहा तब श्रीराम ने उन्हें यह कह कर रोक दिया की अभी इसका प्रयोग उचित नही अन्यथा पूरी लंका साफ़ हो जाएगी |

इसके अतिरिक्त प्राचीन भारत में परमाण्विक बमों के प्रयोग होने के प्रमाणों की कोई कमी नही है । सिन्धु घाटी सभ्यता (मोहन जोदड़ो, हड़प्पा आदि) में अनुसन्धान से ऐसी कई नगरियाँ प्राप्त हुई है जो लगभग 5000 से 7000 ईसापूर्व तक अस्तित्व में थी| वहां ऐसे कई नर कंकाल इस स्थिति में प्राप्त हुए है मानो वो सभी किसी अकस्मात प्रहार में मारे गये हों... इनमें रेडिएशन का असर भी था | वह कई ऐसे प्रमाण भी है जो यह सिद्ध करते है की किसी समय यहाँ भयंकर ऊष्मा उत्पन्न हुई जो केवल परमाण्विक बम या फिर उसी तरह के अस्त्र से ही उत्पन्न हो सकती है

उत्तर पश्चिम भारत में थार मरुस्थल के एक स्थान में दस मील के घेरे में तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव्ह राख की मोटी सतह पाई जाती है। वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी परमाणु विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे। एक शोधकर्ता के आकलन के अनुसार प्राचीनकाल में उस नगर पर गिराया गया परमाणु बम जापान में सन् 1945 में गिराए गए परमाणु बम की क्षमता से ज्यादा का था।

मुंबई से उत्तर दिशा में लगभग 400 कि.मी. दूरी पर स्थित लगभग 2,154 मीटर की परिधि वाला एक अद्भुत विशाल गड्ढा (crater), जिसकी आयु 50,000 से कम आँकी गई है, भी यही इंगित करती है कि प्राचीन काल में भारत में परमाणु युद्ध हुआ था। शोध से ज्ञात हुआ है कि यह गड्ढा crater) पृथ्वी पर किसी 600.000 वायुमंडल के दबाव वाले किसी विशाल के प्रहार के कारण बना है किन्तु इस गड्ढे (Crater) तथा इसके आसपास के क्षेत्र में उल्कापात से सम्बन्धित कुछ भी सामग्री नहीं पाई जाती। फिर यह विलक्षण गड्ढा आखिर बना कैसे? सम्पूर्ण विश्व में यह अपने प्रकार का एक अकेला गड्ढा (Crater) है।

महाभारत में सौप्तिक पर्व अध्याय १३ से १५ तक ब्रह्मास्त्र के परिणाम दिये गए है|

महाभारत युद्ध का आरंभ 16 नवंबर 5561 ईसा पूर्व हुआ और 18 दिन चलाने के बाद 2 दिसम्बर 5561 ईसा पूर्व को समाप्त हुआ उसी रात दुर्योधन ने अश्वथामा को सेनापति नियुक्त किया । 3 नवंबर 5561 ईसा पूर्व के दिन भीम ने अश्वथामा को पकड़ने का प्रयत्न किया ।

{ तब अश्वथामा ने जो ब्रह्मास्त्र छोड़ा उस अस्त्र के कारण जो अग्नि उत्पन्न हुई वह प्रलंकारी थी । वह अस्त्र प्रज्वलित हुआ तब एक भयानक ज्वाला उत्पन्न हुई जो तेजोमंडल को घिर जाने मे समर्थ थी ।

तदस्त्रं प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमंडल संवृतम ।। ८ ।। }

{ इसके बाद भयंकर वायु चलने लगी । सहस्त्रावधि उल्का आकाश से गिरने लगे ।
आकाश में बड़ा शब्द (ध्वनि ) हुआ । पर्वत, अरण्य, वृक्षो के साथ पृथ्वी हिल गई|

सशब्द्म्भवम व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम । चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा ।। १० ।। अध्याय १४ }

यहाँ वेदव्यास जी लिखते हैं कि -

“जहां ब्रह्मास्त्र छोड़ा जाता है वहीं १२ वषों तक पर्जन्यवृष्ठी (जीव-जंतु , पेड़-पोधे आदि की उत्पति ) नहीं हो पाती

ये लिंक दे रहा हूँ इसे ओपन करके ध्यान पूर्वक पढ़ें -


सनातनी भारत के विलक्षण विज्ञानं को नमन है...