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Thursday, October 31, 2013

इतिहास को विकृत करने का षडयंत्र - १

कांग्रेस सरकार ने देश के स्वाधीन होने के बाद से ही सेकुलरिज्म के नाम पर भारत के स्वर्णिम इतिहास के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी थी। प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में महाराणा प्रताप की अपेक्षा अकबर को महान सिद्घ करने का प्रयास किया था।

स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर सुनियोजित ढंग से राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए सर्वस्व समर्पित करने वाले, प्राणोत्सर्ग करने वाले क्रांतिकारियों की घोर उपेक्षा ही नही की गयी, अपितु उन्हें आतंकवादी और सिरफिरा सिद्घ करने के प्रयास किये गये। स्वातंत्रयवीर सावरकर, भाई परमानंद शहीदे आजम सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, राजा महेन्द्र प्रताप, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लाला हरदयाल आदि क्रांति पथा के राही राष्ट्रभक्तों को इतिहास में उपयुक्त स्थान ही नही दिया गया, अपितु उनके विरूद्घ उनकी कार्य प्रणाली के विषय में प्रतिकूल प्रचार-अभियान भी चलाया गया। पूरे देश में :-

साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल,
दे दी तूने आजादी बिना खड़ग बिना ढाल, 

जैसे फिल्मी गानों का प्रचार कर यही सिद्घ कराने का प्रयास किया गया कि देश को स्वाधीनता खून का एक कतरा भी बहाए बिना गांधी जी तथा कांग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन तथा चरखे के कारण मिली है। इतना ही नही, वामपंथियों ने कांग्रेस सरकार को ढाल बनाकर भारत के प्राचीन स्वर्णिम इतिहास के साथ भी सुनियोजित ढंग से छेड़छाड़ की।

प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी ने सन 1971 में वामपंथी विचारधारा से अभिभूत डा. नूरूल हसन को केन्द्रीय शिक्षा राज्यमंत्री पद सौंपा। डा. हसन ने तुरंत इतिहास तथा पाठय पुस्तकों के विकृतिकरण का बीड़ा उठा लिया। वामपंथी इतिहासकारों लेखकों को एकत्रित कर वे इस कार्य में जुट गये।

सन 1972 में इन सेकुलरवादियों ने भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का गठन कर इतिहास पुनर्लेखन की घोषणा की। सुविख्यात इतिहासकार यदुनाथ सरकार, रमेश चंद्र मजूमदार तथा श्री जीएस सरदेसाई जैसे सुप्रतिष्ठित इतिहासकारों के लिखे ग्रंथों को नकार कर नये सिरे से इतिहास लेखन का कार्य शुरू कराया गया। घोषणा की गई कि इतिहास और पाठ्यपुस्तकों से वे अंश हटा दिये जाएंगे जो राष्ट्रीय एकता में बाधा डालने वाले लगते हैं। डा. नूरूल हसन ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भाषण करते हुए कहा- महमूद गनजवी औरंगजेब आदि द्वारा मंदिरों की मूर्तियां तोड़ने के प्रसंग राष्ट्रीय एकता में बाधक है अत: उन्हें नही पढ़ाया जाना चाहिए।

वामपंथी कम्युनिस्टों का यह हमेशा से ही दुष्प्रयास रहता है कि वे इतिहास से छेड़छाड़ कर उसे विकृत कर अपना स्वार्थ सिद्घ करें। केन्द्र में जब से वामपंथियों के रहमोकरम से यूपीए की कांग्रेस सरकार का गठन हुआ है तबसे वामपंथियों ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महान सेनानी स्वातंत्रवीर सावरकर पर अंग्रेजों से क्षमा मांगकर अण्डमान काला पानी जेल से रिहा होने जैसे निराधार आरोप लगाने शुरू कर दिये हैं। केन्द्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर केा आगे करके उन्हेांने क्रांतिकारी शिरोमणि वीर सावरकर का चरित्र हनन सुनियोजित रूप से शुरू कर दिया है।

वामपंथी विचारधारा के कुछ लेखकों ने 1994 में वीर सावरकर की राष्ट्रभक्ति पर कीचड़ उछालकर उन्हें वीर की जगह कायर बताने की धृष्टता की थी। वामपंथियों का यह दुष्कृत नया नही है। वामपंथी तथा सेकुलररिस्ट लेखक सुनियोजित एंग से भारत राष्ट्र के वीर पुरूषों का चरित्र हनन करते आ रहे हैं।

राष्ट्रीय सैनिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीआरटी) द्वारा प्रकाशित ‘मध्यकालीन भारत’ तथा ‘उत्तर मुगलकालीन भारत’ पुस्तकों में वामपंथी लेखक डा. सतीश चंद्र ने कलम और तलवार के धनी महान भारतीय विभूति गुरू गोविंद सिंह जी महाराज पर औरंगजेब से माफी मांगने जैसा निराधार आरोप लगाने की धृष्टता की थी। उन्होंने धर्म स्वातंत्रय की रक्षा के लिए महान बलिदान देने वाले गुरू तेगबहादुर जी के संबंध में लिखा:-गुरू तेगबहादुर का वध किया गया। एक स्थान पर लिखा-1705 में औरंगजेब ने गुरू को माफ कर दिया। गुरू चाहता था कि औरंगजेब उसे आनंदपुर वापस दिलवा दें। डा. सतीश चंद्र ने हत्या या बलिदान की जगह वध तथा उनकी जगह उसकी शब्दों का प्रयोग कर घोर अशिष्टता का ही परिचय दिया।

मध्यमालीन भारत में डा सतीश चंद्र लिखते हैं:-

गुरू तेगबहादुर को अपने पांच अनुयायियों के साथ दिल्ली लाया गया और मौत के घाट उतार दिया गया। पूरा संसार जानता है कि गुरू तेगबहादुर जी ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया था। उन्होंने हिंदू धर्म त्यागकर मुसलमान बनने से स्पष्ट कर दिया था इसलिए औरंगजेब के आदेश से आततायियों ने सरेआम उनकी हत्या की। उन्होंने बलिदान दिया, किंतु धर्म परिवर्तन न ही किया। मुस्लिम धर्मान्ता के उपर्युक्त तथ्य पर पर्दा डालते हुए गुरू तेगबहादुर जी के बलिदान का भ्रमित व निराधार कारण इस प्रकार वर्णित किया गया है:- गुरू तेगबहादुर ने असम से लौटने के बाद शेख अहमद सरहिंद के एक अनुयायी हाफिज आमिद के साथ पूरे पंजाब प्रदेश में लूटमार मचा रखी थी और सारे प्रांत को उजाड़ दिया था। क्रमश:

by उगता भारत ब्यूरो, लेखक - शिव कुमार गोयल

Tuesday, October 29, 2013

हिन्दू अल्पसंख्यक राज्यों में हिन्दुओं से भेदभाव

संविधान निर्माताओं ने कुछ सोच-समझ कर ही भारत का संविधान बनाते समय उसमें ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा नहीं दी होगी। शायद उन्होंने यह समझा होगा कि इससे राष्ट्र विघटन की समस्या पैदा हो सकती है लेकिन केन्द्र सरकार द्वारा वोट बैंक की राजनीति के चलते राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 की धारा 2 (ग) के अंतर्गत अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी आदि को मान्यता दी गई है। ऐसा करके सरकार ने देश की जनता को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों की श्रेणी में बांट दिया लेकिन जिन राज्यों में बहुसंख्यक खुद अल्पसंख्यक हैं वहां उनके लिए किसी तरह की योजना का चलाया जाना भी जरूरी था, जिसकी अधिनियम में व्यवस्था ही नहीं की गई।

इतना ही नहीं, सरकार का यह कहना है कि जब बहुसंख्यकों यानी हिन्दुओं को अल्पसंख्यकों की श्रेणी में शामिल ही नहीं किया गया तो योजनाओं का लाभ दिए जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। यह जानकारी तब मिली जब मैंने राज्य सभा में अल्पसंख्यकों का दर्जा प्रदान किए जाने संबंधी अल्पसंख्यक कार्य मंत्री से कुछ सवाल किए। सरकार की नीतियों से ऐसा लगता है कि जिन हिन्दुओं के सिर पर अल्पसंख्यकों को राहतें दी जा रही हैं उन्हीं को एक दिन अल्पसंख्यकों की कड़ी में खड़ा कर दिया जाएगा क्योंकि अगर सरकार की योजनाओं में स्पष्टता होती तो जिन राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं वहां उन्हें भी सरकारी योजनाओं का लाभ मिलता। लेकिन ऐसा कुछ भी प्रावधान करना सरकार जरूरी नहीं समझ रही ।

वहीं दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों की श्रेणी में आने वाले समुदायों के लिए मैट्रिक-पूर्व छात्रवृत्ति योजना, मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति योजना, अल्पसंख्यक छात्रों के लिए मौलाना आजाद राष्ट्रीय अध्येतावृत्ति, मैरिट-सह-साधन आधारित छात्रवृत्ति, नि:शुल्क कोचिंग एवं संबद्ध योजना, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम तथा बहु-क्षेत्रीय कार्यक्रम के अलावा कई अन्य योजनाएं चलाई जा रही हैं। केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अलावा प्रदेश स्तर पर अल्पसंख्यक आयोग बना कर अल्पसंख्यकों को सुविधाएं दी जा रही हैं और उनका चेयरमैन भी अल्पसंख्यक को ही बनाया जाता है पर जिन राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं वहां उन्हें यह सुविधा न देकर हिन्दुओं को एक और प्लेटफार्म से वंचित कर दिया गया ताकि वे अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज ही बुलंद न कर सकें।  बावजूद इसके सरकार की योजनाओं में देश के मूल वासी हिन्दुओं के लिए कोई योजना नहीं।

हां, इन्हें भी अलग-अलग जाति वर्ग, समुदायों और पंथों में बांट कर राजनीतिक रोटियां सेंकने के क्रम निरंतर जारी हैं। जम्मू-कश्मीर, पंजाब, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मिजोरम आदि क्षेत्रों में हिन्दुओं की संख्या अन्य समुदायों के मुकाबले कम है और वहां भी उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं दिया जाना किसी षड्यंत्र की तरफ इशारा करता है कि कहीं-कहीं हिन्दुओं को उन्हीं की मातृभूमि से वंचित करने का रास्ता साफ किया जा रहा है।

लेकिन इतिहास गवाह है कि हजारों सालों से मुगल और अंग्रेजी शासक ऐसा करने में असफल रहे हैं पर भ्रम में कार्य कर रही केन्द्र सरकार अपनी वोट बैंक के स्वार्थ से भरी मनमानियों के चलते आज कई स्थानों पर हिन्दुओं की हालत बद से बदतर करने पर उतारू है। सरकार की योजनाएं वहीं लागू होती हैं जहां उसे वोट बैंक की चमक दिखती है।

केन्द्र सरकार को यह बात भली-भांति जान लेनी चाहिए कि सरकार बनाने में हिन्दुओं का योगदान अन्य समुदायों से अधिक होता है क्योंकि संख्या में अधिक होने के कारण इनके मत भी अधिक होते हैं और कांगेस पार्टी में 70 प्रतिशत से अधिक की भागेदारी भी हिन्दुओं की ही है। ऐसे में हिन्दुओं के हकों को दरकिनार करना तर्कसंगत न होगा।

केन्द्र सरकार का अल्पसंख्यकों की परिभाषा को स्पष्ट न किए जाने से साफ हो जाता है कि मात्र वोट बैंक की राजनीति करके हिन्दुओं को गुमराह ही नहीं बल्कि उनका शोषण भी किया जा रहा है। जम्मू-कश्मीर में पंडितों के साथ जो हुआ उसे पूरा विश्व जानता है और जो आज असम में हो रहा है वह भी किसी से छिपा नहीं है। इतना ही नहीं, आजादी के समय देश के हुए बटवारे में पाकिस्तान से आकर जम्मू-कश्मीर में बसने वाले हिन्दू और सिखों को आज तक भारतीय नागरिकता नहीं दी गई है और उन्हें रिफ्यूजी कह कर पुकारा जाता है।

मैं यहां अल्पसंख्यकों के हकों के विरोध में नहीं कह रहा लेकिन अगर अधिनियम बनाकर अल्पसंख्यकों को अधिकार दिए ही जाने हैं तो ऐसे में जिन राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं वहीं उनके हकों की पूर्ति करनी भी सुनिश्चित बनाई जाए ताकि उन्हें यह न लगे कि उनकी अनदेखी की जा रही है। इसके लिए जरूरी है कि अल्पसंख्यक की परिभाषा स्पष्ट की जाए।

शास्त्रों में भी कहा गया है कि सरकार को हर अहम फैसला अपने परम विद्वानों और सच्चे हितैषी मंत्रियों के परामर्श से ही करना चाहिए, चापलूसों और स्वार्थी मंत्रियों की बातों में नहीं फंसना चाहिए जो देश को दुश्मनों के हाथों बेच सकते हैं लेकिन आज शास्त्रों के लिखे को अनभिज्ञ करते हुए केन्द्र सरकार द्वारा ऐसे फैसले लिए जा रहे हैं जो कदापि देश हित में नहीं हैं।

इतना ही नहीं, बाहरी देशों से यहां आकर बसने वाले मुस्लिमों और ईसाइयों को भी इन सरकारी योजनाओं का लाभ दिया जा रहा है लेकिन मूल निवासियों के लिए सरकार के पास बांटो और राज करो की पॉलिसी के सिवाय कुछ नहीं है। अब समय आ गया है कि सरकार हिन्दुओं के सब्र का इम्तिहान लेना छोड़े और समरसता का संचार करते हुए प्रदेश स्तर पर अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए एक स्पष्ट नीति बनाकर लागू की जाए।

साभार : लेखक श्री अविनाश राय खन्ना, पंजाब केसरी 

Thursday, October 17, 2013

कौन है असली ब्राह्मण, जानिए

ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या : जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर किसी अन्य को नहीं पूजता वह ब्राह्मण। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथा वाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता वह ब्राह्मण नहीं।

न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥

अर्थात : भगवान बुद्ध कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं।

तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥

अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।

न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥

अर्थात : महावीर स्वामी कहते हैं कि सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।

शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥
पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः ।
पारदाः पहल्वाश्चीनाः किरताः दरदाः खशाः॥- मनुसंहिता (1- (/43-44)

अर्थात : ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक, पारद, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये सभी क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गईं।

जाति के आधार पर तथाकथित ब्राह्मणों के हजारों प्रकार हैं। उत्तर भारतीय ब्राह्मणों के प्रकार अलग तो दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के अलग प्रकार। लेकिन हम यहां जाति के आधार के प्रकार की बात नहीं कर रहे हैं।

उत्तर भारत में जहां सारस्वत, सरयुपा‍रि, गुर्जर गौड़, सनाठ्य, औदिच्य, पराशर आदि ब्राह्मण मिल जाएंगे तो दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के तीन संप्रदाय हैं- स्मर्त संप्रदाय, श्रीवैष्णव संप्रदाय तथा माधव संप्रदाय। इनके हजारों उप संप्रदाय हैं।

पुराणों के अनुसार पहले विष्‍णु के नाभि कमल से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा का ब्रह्मर्षिनाम करके एक पुत्र था। उस पुत्र के वंश में पारब्रह्म नामक पुत्र हुआ, उससे कृपाचार्य हुए, कृपाचार्य के दो पुत्र हुए, उनका छोटा पुत्र शक्ति था। शक्ति के पांच पुत्र हुए। उसमें से प्रथम पुत्र पाराशर से पारीक समाज बना, दूसरे पुत्र सारस्‍वत के सारस्‍वत समाजा, तीसरे ग्‍वाला ऋषि से गौड़ समाजा, चौथे पुत्र गौतम से गुर्जर गौड़ समाजा, पांचवें पुत्र श्रृंगी से उनके वंश शिखवाल समाजा, छठे पुत्र दाधीच से दायमा या दाधीच समाज बना।...इस तरह ‍पुराणों में हजारों प्रकार मिल जाएंगे।

इसके अलावा माना जाता है कि सप्तऋषियों की संतानें हैं ब्राह्मण। जैन धर्म के ग्रंथों को पढ़ें तो वहां ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन अलग मिल जाएगा। बौद्धों के धर्मग्रंथ पढ़ें तो वहां अलग वर्णन है। लेकिन सबसे उत्तम तो वेद और स्मृतियों में ही मिलता है।

कोई भी बन सकता है ब्राह्मण : ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो। लेकिन ब्राह्मण होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना होता है। 

स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है:- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है। 

1. मात्र : ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं। उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह के तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी हैं।

2. ब्राह्मण : ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है।

3. श्रोत्रिय : स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है।

4. अनुचान : कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है।

5. भ्रूण : अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।

6. ऋषिकल्प : जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है उसे ऋषिकल्प कहा जाता है।

7. ऋषि : ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।

8. मुनि : जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं। 

(साभार : वेबदुनिया )

Saturday, October 5, 2013

डेढ़ सौ वर्षों में भारत को विभाजित कर कैसे बने 9 नए देश

सम्भवत: ही कोई पुस्तक (ग्रन्थ) होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, (म्यांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया। यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतन्त्र हुए।

प्राय: पाकिस्तान व बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं। शेष इतिहास मिलता तो है परन्तु चर्चित नहीं है। सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है।

सम्पूर्ण पृथ्वी का जब जल और थल इन दो तत्वों में वर्गीकरण करते हैं, तब सात द्वीप एवं सात महासमुद्र माने जाते हैं। हम इसमें से प्राचीन नाम जम्बूद्वीप जिसे आज एशिया द्वीप कहते हैं तथा इन्दू सरोवरम् जिसे आज हिन्दू महासागर कहते हैं, के निवासी हैं। इस जम्बूद्वीप (एशिया) के लगभग मध्य में हिमालय पर्वत स्थित है। हिमालय पर्वत में विश्व की सर्वाधिक ऊँची चोटी सागरमाथा, गौरीशंकर हैं, जिसे 1835 में अंग्रेज शासकों ने एवरेस्ट नाम देकर इसकी प्राचीनता व पहचान को बदलने का कूटनीतिक षड्यंत्र रचा। हम पृथ्वी पर जिस भू-भाग अर्थात् राष्ट्र के निवासी हैं उस भू-भाग का वर्णन अग्नि, वायु एवं विष्णु पुराण में लगभग समानार्थी श्लोक के रूप में है :-

उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रश्चैव दक्षिणम्।

वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति।।

अर्थात् हिन्द महासागर के उत्तर में तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो भू-भाग है उसे भारत कहते हैं और वहां के समाज को भारती या भारतीय के नाम से पहचानते हैं।

वर्तमान में भारत के निवासियों का पिछले सैकडों हजारों वर्षों से हिन्दू नाम भी प्रचलित है और हिन्दुओं के देश को हिन्दुस्तान कहते हैं। विश्व के अनेक देश इसे हिन्द व नागरिक को हिन्दी व हिन्दुस्तानी भी कहते हैं। बृहस्पति आगम में इसके लिए निम्न श्लोक उपलब्ध है :-

हिमालयं समारम्भ्य यावद् इन्दु सरोवरम।
तं देव निर्मित देशं, हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।

अर्थात् हिमालय से लेकर इन्दु (हिन्द) महासागर तक देव पुरुषों द्वारा निर्मित इस भूगोल को हिन्दुस्तान कहते हैं। इन सब बातों से यह निश्चित हो जाता है कि भारतवर्ष और हिन्दुस्तान एक ही देश के नाम हैं तथा भारतीय और हिन्दू एक ही समाज के नाम हैं।

जब हम अपने देश (राष्ट्र) का विचार करते हैं तब अपने समाज में प्रचलित एक परम्परा रही है, जिसमें किसी भी शुभ कार्य पर संकल्प पढ़ा अर्थात् लिया जाता है। संकल्प स्वयं में महत्वपूर्ण संकेत करता है। संकल्प में काल की गणना एवं भूखण्ड का विस्तृत वर्णन करते हुए, संकल्प कर्ता कौन है ? इसकी पहचान अंकित करने की परम्परा है। उसके अनुसार संकल्प में भू-खण्ड की चर्चा करते हुए बोलते (दोहराते) हैं कि जम्बूद्वीपे (एशिया) भरतखण्डे (भारतवर्ष) यही शब्द प्रयोग होता है। सम्पूर्ण साहित्य में हमारे राष्ट्र की सीमाओं का उत्तर में हिमालय व दक्षिण में हिन्द महासागर का वर्णन है, परन्तु पूर्व व पश्चिम का स्पष्ट वर्णन नहीं है। परंतु जब श्लोकों की गहराई में जाएं और भूगोल की पुस्तकों अर्थात् एटलस का अध्ययन करें तभी ध्यान में आ जाता है कि श्लोक में पूर्व व पश्चिम दिशा का वर्णन है।

जब विश्व (पृथ्वी) का मानचित्र आँखों के सामने आता है तो पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के भूगोल ग्रन्थों के अनुसार हिमालय के मध्य स्थल ‘कैलाश मानसरोवर' से पूर्व की ओर जाएं तो वर्तमान का इण्डोनेशिया और पश्चिम की ओर जाएं तो वर्तमान में ईरान देश अर्थात् आर्यान प्रदेश हिमालय के अंतिम छोर हैं। हिमालय 5000 पर्वत शृंखलाओं तथा 6000 नदियों को अपने भीतर समेटे हुए इसी प्रकार से विश्व के सभी भूगोल ग्रन्थ (एटलस) के अनुसार जब हम श्रीलंका (सिंहलद्वीप अथवा सिलोन) या कन्याकुमारी से पूर्व व पश्चिम की ओर प्रस्थान करेंगे या दृष्टि (नजर) डालेंगे तो हिन्द (इन्दु) महासागर इण्डोनेशिया व आर्यान (ईरान) तक ही है। इन मिलन बिन्दुओं के पश्चात् ही दोनों ओर महासागर का नाम बदलता है।

इस प्रकार से हिमालय, हिन्द महासागर, आर्यान (ईरान) व इण्डोनेशिया के बीच के सम्पूर्ण भू-भाग को आर्यावर्त अथवा भारतवर्ष अथवा हिन्दुस्तान कहा जाता है। प्राचीन भारत की चर्चा अभी तक की, परन्तु जब वर्तमान से 3000 वर्ष पूर्व तक के भारत की चर्चा करते हैं तब यह ध्यान में आता है कि पिछले 2500 वर्ष में जो भी आक्रांत यूनानी (रोमन ग्रीक) यवन, हूण, शक, कुषाण, सिरयन, पुर्तगाली, फेंच, डच, अरब, तुर्क, तातार, मुगल व अंग्रेज आदि आए, इन सबका विश्व के सभी इतिहासकारों ने वर्णन किया। परन्तु सभी पुस्तकों में यह प्राप्त होता है कि आक्रान्ताओं ने भारतवर्ष पर, हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया है। सम्भवत: ही कोई पुस्तक (ग्रन्थ) होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, (म्यांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया। यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतन्त्र हुए। प्राय: पाकिस्तान व बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं। शेष इतिहास मिलता तो है परन्तु चर्चित नहीं है। सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है। अंग्रेज का 350 वर्ष पूर्व के लगभग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में व्यापारी बनकर भारत आना, फिर धीरे-धीरे शासक बनना और उसके पश्चात् सन 1857 से 1947 तक उनके द्वारा किया गया भारत का 7वां विभाजन है। आगे लेख में सातों विभाजन कब और क्यों किए गए इसका संक्षिप्त वर्णन है।

सन् 1857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग कि.मी. था। वर्तमान भारत का क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग कि.मी. है। पड़ोसी 9 देशों का क्षेत्रफल 50 लाख वर्ग कि.मी. बनता है।

भारतीयों द्वारा सन् 1857 के अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए स्वतन्त्रता संग्राम (जिसे अंग्रेज ने गदर या बगावत कहा) से पूर्व एवं पश्चात् के परिदृश्य पर नजर दौडायेंगे तो ध्यान में आएगा कि ई. सन् 1800 अथवा उससे पूर्व के विश्व के देशों की सूची में वर्तमान भारत के चारों ओर जो आज देश माने जाते हैं उस समय देश नहीं थे। इनमें स्वतन्त्र राजसत्ताएं थीं, परन्तु सांस्कृतिक रूप में ये सभी भारतवर्ष के रूप में एक थे और एक-दूसरे के देश में आवागमन (व्यापार, तीर्थ दर्शन, रिश्ते, पर्यटन आदि) पूर्ण रूप से बे-रोकटोक था। इन राज्यों के विद्वान् व लेखकों ने जो भी लिखा वह विदेशी यात्रियों ने लिखा ऐसा नहीं माना जाता है। इन सभी राज्यों की भाषाएं व बोलियों में अधिकांश शब्द संस्कृत के ही हैं। मान्यताएं व परम्पराएं भी समान हैं। खान-पान, भाषा-बोली, वेशभूषा, संगीत-नृत्य, पूजापाठ, पंथ सम्प्रदाय में विविधताएं होते हुए भी एकता के दर्शन होते थे और होते हैं। जैसे-जैसे इनमें से कुछ राज्यों में भारत इतर यानि विदेशी पंथ (मजहब-रिलीजन) आये तब अनेक संकट व सम्भ्रम निर्माण करने के प्रयास हुए।

सन 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्व-मार्क्स द्वारा अर्थ प्रधान परन्तु आक्रामक व हिंसक विचार के रूप में मार्क्सवाद जिसे लेनिनवाद, माओवाद, साम्यवाद, कम्यूनिज्म शब्दों से भी पहचाना जाता है, यह अपने पांव अनेक देशों में पसार चुका था। वर्तमान रूस व चीन जो अपने चारों ओर के अनेक छोटे-बडे राज्यों को अपने में समाहित कर चुके थे या कर रहे थे, वे कम्यूनिज्म के सबसे बडे व शक्तिशाली देश पहचाने जाते हैं। ये दोनों रूस और चीन विस्तारवादी, साम्राज्यवादी, मानसिकता वाले ही देश हैं। अंग्रेज का भी उस समय लगभग आधी दुनिया पर राज्य माना जाता था और उसकी साम्राज्यवादी, विस्तारवादी, हिंसक व कुटिलता स्पष्ट रूप से सामने थी। 

अफगानिस्तान :- सन् 1834 में प्रकिया प्रारम्भ हुई और 26 मई, 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत) के बीच गंडामक संधि के रूप में निर्णय हुआ और अफगानिस्तान नाम से एक बफर स्टेट अर्थात् राजनैतिक देश को दोनों ताकतों के बीच स्थापित किया गया। इससे अफगानिस्तान अर्थात् पठान भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से अलग हो गए तथा दोनों ताकतों ने एक-दूसरे से अपनी रक्षा का मार्ग भी खोज लिया। परंतु इन दोनों पूंजीवादी व मार्क्सवादी ताकतों में अंदरूनी संघर्ष सदैव बना रहा कि अफगानिस्तान पर नियन्त्रण किसका हो ? अफगानिस्तान (उपगणस्तान) शैव व प्रकृति पूजक मत से बौद्ध मतावलम्बी और फिर विदेशी पंथ इस्लाम मतावलम्बी हो चुका था। बादशाह शाहजहाँ, शेरशाह सूरी व महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में उनके राज्य में कंधार (गंधार) आदि का स्पष्ट वर्णन मिलता है।

नेपाल :- मध्य हिमालय के 46 से अधिक छोटे-बडे राज्यों को संगठित कर पृथ्वी नारायण शाह नेपाल नाम से एक राज्य का सुगठन कर चुके थे। स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों ने इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध लडते समय-समय पर शरण ली थी। अंग्रेज ने विचारपूर्वक 1904 में वर्तमान के बिहार स्थित सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राजाओं के नरेश से संधी कर नेपाल को एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान कर अपना रेजीडेंट बैठा दिया। इस प्रकार से नेपाल स्वतन्त्र राज्य होने पर भी अंग्रेज के अप्रत्यक्ष अधीन ही था। रेजीडेंट के बिना महाराजा को कुछ भी खरीदने तक की अनुमति नहीं थी। इस कारण राजा-महाराजाओं में जहां आन्तरिक तनाव था, वहीं अंग्रेजी नियन्त्रण से कुछ में घोर बेचैनी भी थी। महाराजा त्रिभुवन सिंह ने 1953 में भारतीय सरकार को निवेदन किया था कि आप नेपाल को अन्य राज्यों की तरह भारत में मिलाएं। परन्तु सन 1955 में रूस द्वारा दो बार वीटो का उपयोग कर यह कहने के बावजूद कि नेपाल तो भारत का ही अंग है, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने पुरजोर वकालत कर नेपाल को स्वतन्त्र देश के रूप में यू.एन.ओ. में मान्यता दिलवाई। आज भी नेपाल व भारतीय एक-दूसरे के देश में विदेशी नहीं हैं और यह भी सत्य है कि नेपाल को वर्तमान भारत के साथ ही सन् 1947 में ही स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। नेपाल 1947 में ही अंग्रेजी रेजीडेंसी से मुक्त हुआ।

भूटान :- सन 1906 में सिक्किम व भूटान जो कि वैदिक-बौद्ध मान्यताओं के मिले-जुले समाज के छोटे भू-भाग थे इन्हें स्वतन्त्रता संग्राम से लगकर अपने प्रत्यक्ष नियन्त्रण से रेजीडेंट के माध्यम से रखकर चीन के विस्तारवाद पर अंग्रेज ने नजर रखना प्रारम्भ किया। ये क्षेत्र(राज्य) भी स्वतन्त्रता सेनानियों एवं समय-समय पर हिन्दुस्तान के उत्तर दक्षिण व पश्चिम के भारतीय सिपाहियों व समाज के नाना प्रकार के विदेशी हमलावरों से युद्धों में पराजित होने पर शरणस्थली के रूप में काम आते थे। दूसरा ज्ञान (सत्य, अहिंसा, करुणा) के उपासक वे क्षेत्र खनिज व वनस्पति की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे। तीसरा यहां के जातीय जीवन को धीरे-धीरे मुख्य भारतीय (हिन्दू) धारा से अलग कर मतान्तरित किया जा सकेगा। हम जानते हैं कि सन 1836 में उत्तर भारत में चर्च ने अत्यधिक विस्तार कर नये आयामों की रचना कर डाली थी। सुदूर हिमालयवासियों में ईसाईयत जोर पकड़ रही थी।

तिब्बत :- सन 1914 में तिब्बत को केवल एक पार्टी मानते हुए चीनी साम्राज्यवादी सरकार व भारत के काफी बड़े भू-भाग पर कब्जा जमाए अंग्रेज शासकों के बीच एक समझौता हुआ। भारत और चीन के बीच तिब्बत को एक बफर स्टेट के रूप में मान्यता देते हुए हिमालय को विभाजित करने के लिए मैकमोहन रेखा निर्माण करने का निर्णय हुआ। हिमालय सदैव से ज्ञान-विज्ञान के शोध व चिन्तन का केंद्र रहा है। हिमालय को बांटना और तिब्बत व भारतीय को अलग करना यह षड्यंत्र रचा गया। चीनी और अंग्रेज शासकों ने एक-दूसरों के विस्तारवादी, साम्राज्यवादी मनसूबों को लगाम लगाने के लिए कूटनीतिक खेल खेला।

अंग्रेज ईसाईयत हिमालय में कैसे अपने पांव जमायेगी, यह सोच रहा था परन्तु समय ने कुछ ऐसी करवट ली कि प्रथम व द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अंग्रेज को एशिया और विशेष रूप से भारत छोड़कर जाना पड़ा। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने समय की नाजकता को पहचानने में भूल कर दी और इसी कारण तिब्बत को सन 1949 से 1959 के बीच चीन हड़पने में सफल हो गया। पंचशील समझौते की समाप्ति के साथ ही अक्टूबर सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर हजारों वर्ग कि.मी. अक्साई चीन (लद्दाख यानि जम्मू-कश्मीर) व अरुणाचल आदि को कब्जे में कर लिया। तिब्बत को चीन का भू-भाग मानने का निर्णय पं. नेहरू (तत्कालीन प्रधानमंत्री) की भारी ऐतिहासिक भूल हुई। आज भी तिब्बत को चीन का भू-भाग मानना और चीन पर तिब्बत की निर्वासित सरकार से बात कर मामले को सुलझाने हेतु दबाव न डालना बड़ी कमजोरी व भूल है। नवम्बर 1962 में भारत के दोनों सदनों के संसद सदस्यों ने एकजुट होकर चीन से एक-एक इंच जमीन खाली करवाने का संकल्प लिया। आश्चर्य है भारतीय नेतृत्व (सभी दल) उस संकल्प को शायद भूल ही बैठा है। हिमालय परिवार नाम के आन्दोलन ने उस दिवस को मनाना प्रारम्भ किया है ताकि जनता नेताओं द्वारा लिए गए संकल्प को याद करवाएं।

श्रीलंका व म्यांमार :- अंग्रेज प्रथम महायुद्ध (1914 से 1919) जीतने में सफल तो हुए परन्तु भारतीय सैनिक शक्ति के आधार पर। धीरे-धीरे स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु क्रान्तिकारियों के रूप में भयानक ज्वाला अंग्रेज को भस्म करने लगी थी। सत्याग्रह, स्वदेशी के मार्ग से आम जनता अंग्रेज के कुशासन के विरुद्ध खडी हो रही थी। द्वितीय महायुद्ध के बादल भी मण्डराने लगे थे। सन् 1935 व 1937 में ईसाई ताकतों को लगा कि उन्हें कभी भी भारत व एशिया से बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ सकता है। उनकी अपनी स्थलीय शक्ति मजबूत नहीं है और न ही वे दूर से नभ व थल से वर्चस्व को बना सकते हैं। इसलिए जल मार्ग पर उनका कब्जा होना चाहिए तथा जल के किनारों पर भी उनके हितैषी राज्य होने चाहिए। समुद्र में अपना नौसैनिक बेड़ा बैठाने, उसके समर्थक राज्य स्थापित करने तथा स्वतन्त्रता संग्राम से उन भू-भागों व समाजों को अलग करने हेतु सन 1965 में श्रीलंका व सन 1937 में म्यांमार को अलग राजनीतिक देश की मान्यता दी। ये दोनों देश इन्हीं वर्षों को अपना स्वतन्त्रता दिवस मानते हैं। म्यांमार व श्रीलंका का अलग अस्तित्व प्रदान करते ही मतान्तरण का पूरा ताना-बाना जो पहले तैयार था उसे अधिक विस्तार व सुदृढ़ता भी इन देशों में प्रदान की गई। ये दोनों देश वैदिक, बौद्ध धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले हैं। म्यांमार के अनेक स्थान विशेष रूप से रंगून का अंग्रेज द्वारा देशभक्त भारतीयों को कालेपानी की सजा देने के लिए जेल के रूप में भी उपयोग होता रहा है।

पाकिस्तान, बांग्लादेश व मालद्वीप :- 1905 का लॉर्ड कर्जन का बंग-भंग का खेल 1911 में बुरी तरह से विफल हो गया। परन्तु इस हिन्दु मुस्लिम एकता को तोड़ने हेतु अंग्रेज ने आगा खां के नेतृत्व में सन 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना कर मुस्लिम कौम का बीज बोया। पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश जनजातीय जीवन को ईसाई के रूप में मतान्तरित किया जा रहा था। ईसाई बने भारतीयों को स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्णत: अलग रखा गया। पूरे भारत में एक भी ईसाई सम्मेलन में स्वतन्त्रता के पक्ष में प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। दूसरी ओर मुसलमान तुम एक अलग कौम हो, का बीज बोते हुए सन् 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तान की मांग खड़ी कर देश को नफरत की आग में झोंक दिया। अंग्रेजीयत के दो एजेण्ट क्रमश: पं. नेहरू व मो. अली जिन्ना दोनों ही घोर महत्वाकांक्षी व जिद्दी (कट्टर) स्वभाव के थे।

अंग्रेजों ने इन दोनों का उपयोग गुलाम भारत के विभाजन हेतु किया। द्वितीय महायुद्ध में अंग्रेज बुरी तरह से आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से इंग्लैण्ड में तथा अन्य देशों में टूट चुके थे। उन्हें लगता था कि अब वापस जाना ही पड़ेगा और अंग्रेजी साम्राज्य में कभी न अस्त होने वाला सूर्य अब अस्त भी हुआ करेगा। सम्पूर्ण भारत देशभक्ति के स्वरों के साथ सड़क पर आ चुका था। संघ, सुभाष, सेना व समाज सब अपने-अपने ढंग से स्वतन्त्रता की अलख जगा रहे थे। सन 1948 तक प्रतीक्षा न करते हुए 3 जून, 1947 को अंग्रेज अधीन भारत के विभाजन व स्वतन्त्रता की घोषणा औपचारिक रूप से कर दी गयी। यहां यह बात ध्यान में रखने वाली है कि उस समय भी भारत की 562 ऐसी छोटी-बड़ी रियासतें (राज्य) थीं, जो अंग्रेज के अधीन नहीं थीं। इनमें से सात ने आज के पाकिस्तान में तथा 555 ने जम्मू-कश्मीर सहित आज के भारत में विलय किया। भयानक रक्तपात व जनसंख्या की अदला-बदली के बीच 14, 15 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि में पश्चिम एवं पूर्व पाकिस्तान बनाकर अंग्रेज ने भारत का 7वां विभाजन कर डाला। आज ये दो भाग पाकिस्तान व बांग्लादेश के नाम से जाने जाते हैं। भारत के दक्षिण में सुदूर समुद्र में मालद्वीप (छोटे-छोटे टापुओं का समूह) सन 1947 में स्वतन्त्र देश बन गया, जिसकी चर्चा व जानकारी होना अत्यन्त महत्वपूर्ण व उपयोगी है। यह बिना किसी आन्दोलन व मांग के हुआ है।

भारत का वर्तमान परिदृश्य :- सन 1947 के पश्चात् फेंच के कब्जे से पाण्डिचेरी, पुर्तगीज के कब्जे से गोवा देव- दमन तथा अमेरिका के कब्जें में जाते हुए सिक्किम को मुक्त करवाया है। आज पाकिस्तान में पख्तून, बलूच, सिंधी, बाल्टीस्थानी (गिलगित मिलाकर), कश्मीरी मुजफ्फरावादी व मुहाजिर नाम से इस्लामाबाद (लाहौर) से आजादी के आन्दोलन चल रहे हैं। पाकिस्तान की 60 प्रतिशत से अधिक जमीन तथा 30 प्रतिशत से अधिक जनता पाकिस्तान से ही आजादी चाहती है। बांग्लादेश में बढ़ती जनसंख्या का विस्फोट, चटग्राम आजादी आन्दोलन उसे जर्जर कर रहा है। शिया-सुन्नी फसाद, अहमदिया व वोहरा (खोजा-मल्कि) पर होते जुल्म मजहबी टकराव को बोल रहे हैं। हिन्दुओं की सुरक्षा तो खतरे में ही है। विश्वभर का एक भी मुस्लिम देश इन दोनों देशों के मुसलमानों से थोडी भी सहानुभूति नहीं रखता। अगर सहानुभूति होती तो क्या इन देशों के 3 करोड़ से अधिक मुस्लिम (विशेष रूप से बांग्लादेशीय) दर-दर भटकते। ये मुस्लिम देश अपने किसी भी सम्मेलन में इनकी मदद हेतु आपस में कुछ-कुछ लाख बांटकर सम्मानपूर्वक बसा सकने का निर्णय ले सकते थे। परन्तु कोई भी मुस्लिम देश आजतक बांग्लादेशी मुसलमान की मदद में आगे नहीं आया। इन घुसपैठियों के कारण भारतीय मुसलमान अधिकाधिक गरीब व पिछड़ते जा रहा है क्योंकि इनके विकास की योजनाओं पर खर्च होने वाले धन व नौकरियों पर ही तो घुसपैठियों का कब्जा होता जा रहा है। मानवतावादी वेष को धारण कराने वाले देशों में से भी कोई आगे नहीं आया कि इन घुसपैठियों यानि दरबदर होते नागरिकों को अपने यहां बसाता या अन्य किसी प्रकार की सहायता देता। इन दर-बदर होते नागरिकों के आई.एस.आई. के एजेण्ट बनकर काम करने के कारण ही भारत के करोडों मुस्लिमों को भी सन्देह के घेरे में खड़ा कर दिया है। आतंकवाद व माओवाद लगभग 200 के समूहों के रूप में भारत व भारतीयों को डस रहे हैं। लाखों उजड़ चुके हैं, हजारों विकलांग हैं और हजारों ही मारे जा चुके हैं। विदेशी ताकतें हथियार, प्रशिक्षण व जेहादी, मानसिकता देकर उन प्रदेश के लोगों के द्वारा वहां के ही लोगों को मरवा कर उन्हीं प्रदेशों को बर्बाद करवा रही हैं। इस विदेशी षड्यन्त्र को भी समझना आवश्यक है।

सांस्कृतिक व आर्थिक समूह की रचना आवश्यक :- आवश्यकता है वर्तमान भारत व पड़ोसी भारतखण्डी देशों को एकजुट होकर शक्तिशाली बन खुशहाली अर्थात विकास के मार्ग में चलने की। इसलिए अंग्रेज अर्थात् ईसाईयत द्वारा रचे गये षड्यन्त्र को ये सभी देश (राज्य) समझें और साझा व्यापार व एक करन्सी निर्माण कर नए होते इस क्षेत्र के युग का सूत्रपात करें। इन देशों 10 का समूह बनाने से प्रत्येक देश का भय का वातावरण समाप्त हो जायेगा तथा प्रत्येक देश का प्रतिवर्ष के सैंकड़ों-हजारों-करोड़ों रुपये रक्षा व्यय के रूप में बचेंगे जो कि विकास पर खर्च किए जा सकेंगे। इससे सभी सुरक्षित रहेंगे व विकसित होंगे।

Written by इन्द्रेश कुमार

- लेखक मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के मार्गदर्शक हैं।

साभार – साप्ताहिक पाञ्चजन्य से

Friday, October 4, 2013

सफलता के 20 मँत्र

1.खुद की कमाई से कम खर्च हो ऐसी जिन्दगी बनाओ..!

2. दिन मेँ कम से कम 3 लोगो की प्रशंशा करो..!

3. खुद की भुल स्वीकार ने मेँ कभी भी संकोच मत करो..!

4. किसी के सपनो पर हँसो मत..!

5. आपके पीछे खडे व्यक्ति को भी कभी कभी आगे जाने का मौका दो..!

6. रोज हो सके तो सुरज को उगता हुए देखे..!

7. खुब जरुरी हो तभी कोई चीज उधार लो..!

8. किसी के पास से कुछ जानना हो तो विवेक से दो बार पुछो..!

9. कर्ज और शत्रु को कभी बडा मत होने दो..!

10. ईश्वर पर पुरा भरोशा रखो..!

11. प्रार्थना करना कभीमत भुलो, प्रार्थना मेँ अपार शक्ति होती है..!

12. अपने काम से मतलब रखो..!

13. समय सबसे ज्यादा किमती है, इसको फालतु कामो मेँ खर्च मत करो..!

14. जो आपके पास है, उसी मेँ खुश रहना सिखो..!

15. बुराई कभी भी किसी कि भी मत करो करो,
क्योकिँ बुराई नाव मेँ छेद समान है, बुराई छोटी हो बडी नाव तो डुबोही देती है..!

16. हमेशा सकारात्मक सोच रखो..!

17. हर व्यक्ति एक हुनर लेकर पैदा होता बस उस हुनर को दुनिया के सामने लाओ..!

18. कोई काम छोटा नही होता हर काम बडा होता है जैसे कि सोचो जो काम आप कर रहे हो अगर आप वह काम आप नही करते हो तो दुनिया पर क्या
असर होता..?

19. सफलता उनको ही मिलती है जो कुछकरते है

20. कुछ पाने के लिए कुछ खोना नही बल्कि कुछ करना पडता है

साभार : फेसबुक 


Wednesday, October 2, 2013

हैफा में आज भी गूंजती है भारतीय सैनिकों की शौर्यगाथा



900 से ज्यादा भारतीय रणबांकुरों के बलिदान ने लिखी थी हैफा-मुक्ति की कहानी

किसी ने सच ही कहा है कि भारत का सैनिक सेना में नौकरी करने के उद्देश्य से भर्ती नहीं होता, वह भर्ती होता है मातृभूमि पर अपना सब कुछ निछावर करने, अपने कर्तव्य पथ पर अडिग, अनुशासित रहते हुए देश की मिट्टी की रक्षा करने, इंसानियत के दुश्मनों को धूल चटाने। और यही वह भाव होता है जो हमारे बहादुर सैनिकों में सवा लाख से अकेले टकरा जाने का दमखम भरता है, और अंतत: विजयश्री दिलाता है। 

भारतीय सेना के इतिहास में अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जिनमें विपरीत परिस्थितियों में दुश्मन को नाकों चने चबवाकर हमारे जवानों ने किले फतह किए हैं। सिर्फ भारत ही नहीं, विदेशी धरती पर भी हमारे जवानों ने अपने रक्त से शौर्य गाथाएं लिखकर इस धरती के दूध की आन बढ़ाई है। लेकिन हमारे राजनेताओं ने सैनिकों के बलिदानों को हमेशा अपमानित ही किया, उनके गौरव को बढ़ाने की जगह आज भी सैनिकों का मनोबल तोड़ने के दुष्चक्र चलाए जा रहे हैं। शायद यही कारण है कि भारत में ऐसे कम ही लोग होंगे जिन्हें इस्रायल के फिलिस्तीन से सटे हैफा शहर की आजादी के संघर्ष में तीन भारतीय रेजीमेंटों-जोधपुर लांसर्स, मैसूर लांसर्स और हैदराबाद लांसर्स- के अप्रतिम योगदान के बारे में पता होगा। ब्रिटिश सेना के अंग के नाते लड़ते हुए इन भारतीय रेजीमेंटों ने अत्याचारी दुश्मन के चंगुल से हैफा को स्वतंत्र कराया था और इस संघर्ष में 900 से ज्यादा भारतीय योद्घाओं ने बलिदान दिया था, जिनके स्मृतिशेष आज भी इस्रायल में सात शहरों में मौजूद हैं और मौजूद है उनकी गाथा सुनाता एक स्मारक, जिस पर इस्रायल सरकार और भारतीय सेना हर साल 23 सितम्बर को हैफा दिवस के अवसर पर पुष्पांजलि अर्पित करके उन वीरों को नमन करती है। 

हैफा मुक्ति की गाथा कुछ यूं है। बात प्रथम विश्व युद्घ (1914-18) की है। ऑटोमन यानी उस्मानी तुर्कों की सेनाओं ने हैफा को कब्जा लिया था। वे वहां यहूदियों पर अत्याचार कर रही थीं। उस युद्घ में करीब 150,000 भारतीय सैनिक आज के इजिप्ट और इस्रायल में 15वीं इम्पीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड के अंतर्गत अपना रणकौशल दिखा रहे थे। भालों और तलवारों से लैस भारतीय घुड़सवार सैनिक हैफा में मौजूद तुर्की मोर्चों और माउंट कारमल पर तैनात तुर्की तोपखाने को तहस-नहस करने के लिए हमले पर भेजे गए। तुर्की सेना का वह मोर्चा बहुत मजबूत था, लेकिन भारतीय सैनिकों की घुड़सवार टुकडि़यों, जोधपुर लांसर्स और मैसूर लांसर्स ने वह शौर्य दिखाया जिसका सशस्त्र सेनाओं के इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। खासकर जोधपुर लांसर्स ने अपने सेनापति मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्व में हैफा मुक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

23 सितम्बर 1918 को तुर्की सेना को खदेड़कर मेजर ठाकुर दलपत सिंह के बहादुर जवानों ने इस्रायल के हैफा शहर को आजाद कराया। ठाकुर दलपत सिंह ने अपना बलिदान देकर एक सच्चे सैनिक की बहादुरी का असाधारण परिचय दिया था। उनकी उसी बहादुरी को सम्मानित करते हुए ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें मरणोपरांत मिलिटरी क्रास पदक अर्पित किया था। ब्रिटिश सेना के एक बड़े अधिकारी कर्नल हार्वी ने उनकी याद में कहा था, ह्यउनकी मृत्यु केवल जोधपुर वालों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत और पूरे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक बड़ी क्षति है।ह्ण मेजर ठाकुर दलपत सिंह के अलावा कैप्टन अनूप सिंह और से़ ले़ सगत सिंह को भी मिलिटरी क्रास पदक दिया गया था। इस युद्घ में कैप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा और दफादार जोर सिंह को उनकी बहादुरी के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट पदक दिए गए थे। आज भी हैफा, यरुशलम, रामलेह और ख्यात बीच सहित इस्रायल के सात शहरों में उनकी याद बसी हैं। इतना ही नहीं, हैफा नगर निगम और उसके उप महापौर के प्रयासों से इस्रायल सरकार वहां की स्कूली किताबों में भी इन वीर बांकुरों पर विशेष सामग्री प्रकाशित करने का फैसला कर चुकी है। इसके लिए हैफा के उप महापौर हेदवा अलमोग की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। भारत क्या, दिल्ली के ही बहुत कम निवासी जानते होंगे कि तीन मूर्ति भवन के सामने सड़क के बीच लगीं तीन सैनिकों की मूर्तियां उन्हीं तीन घुड़सवार रेजीमेंटों की प्रतीक हैं जिन्होंने अपनी जान निछावर करके हैफा को उस्मानी तुर्कों से मुक्त कराया था।

इस 23 सितम्बर 2013 को हैफा के साथ ही हांगकांग, नई दिल्ली, जयपुर, जोधपुर और मुम्बई में भारत को अपनी मातृभूमि मानने और इस देश के विकास में योगदान देने वाले पारसी समाज की सहभागिता से हैफा दिवस मनाया गया। नई दिल्ली के पारसी प्रार्थना गृह जूडाह ह्याम सिनेगॉग में सम्पन्न इस कार्यक्रम में भारत में इस्रायल के राजदूत आलोन उश्पिज, पंजाब के राज्यपाल रहे ले. जनरल जे़ एफ़ आर. जेकब, स्वाड्रन लीडर राणा तेज प्रताप सिंह चिन्ना, राज्य सभा सांसद तरुण विजय, इंडो-इस्रायल फें्रडशिप फोरम के परामर्शदाता रवि अय्यर सहित अनेक विशिष्टजन उपस्थित थे। इस अवसर पर राजदूत आलोन ने बताया कि चूंकि वे खुद हैफा में पले-बढ़े हैं इसलिए बचपन से ही भारतीय सैनिकों के बलिदान की गाथा सुनते आए हैं। उन्होंने बताया कि आज भी उन सैनिकों के प्रति वहां के लोगों में बहुत सम्मान का भाव है। ले. जनरल जेकब ने उस लड़ाई के कुछ अनछुए पहलू सामने रखे। स्वाड्रन लीडर चिन्ना ने इतिहास के पन्नों से उस लोमहर्षक गाथा के कुछ अंश पढ़कर सुनाए। तरुण विजय ने भारत-इस्रायल संबंधों को और प्रगाढ़ करने और उन बलिदानी सैनिकों की स्मृति को चिर-स्थायी बनाने के कुछ कदम उठाने की सलाह दी। रवि अय्यर ने बताया कि 2018 में हैफा मुक्ति के 100 साल खूब धूमधाम से मनाए जाएंगे, विशेष कार्यक्रम किए जाएंगे। उन्होंने पारसी समाज के भारत के विकास में योगदान और उस समाज में भारत के प्रति आदर भाव की जानकारी दी। एचआरडीआई के महासचिव राजेश गोगना ने कहा कि हैफा मुक्ति की कहानी हर उस भारतीय को पढ़नी चाहिए जिसे अपने बहादुर सैनिकों पर गर्व है। यह गाथा हमारे दिल-दिमाग पर उन वीरों की अमिट छाप छोड़ जाती है। इस मौके पर इंडो-इस्रायल फ्रेंडशिप फोरम और एचआरडीआई की ओर से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि- 'हम इन वीर भारतीय सैनिकों की गाथा इस्रायल की स्कूली किताबों में शामिल करने पर हैफा नगर निगम का धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। 2018 में शताब्दी समारोह आयोजित किए जाने का निर्णय स्वागतयोग्य है।' प्रस्ताव में हैफा के नायक मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत की याद में एक डाक टिकट जारी करने की मांग की गई। कार्यक्रम के आरम्भ और अंत में कुर्ता-पाजामा पहने और बढि़या हिन्दी बोलने वाले उस पारसी सिनेगॉग के मानद सचिव इजकिल इसाक मालेकर ने हिब्रू भाषा में विश्व बंधुत्व और शांति हेतु प्रार्थना की। 

साभार: पाञ्चजन्य, http://www.panchjanya.com

तारीख: 28 Sep 2013