महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन में कर्म शब्द का अर्थ ग्दृद्यत्दृद से है। इसके पांच प्रकार हैं।
उत्क्षेपण (छद्रध्र्ठ्ठद्धड्ड थ्र्दृद्यत्दृद)
अवक्षेपण (क़्दृध्र्दध्र्ठ्ठद्धड्ड थ्र्दृद्यत्दृद)
आकुञ्चन (ग्दृद्यत्दृद ड्डद्वड्ढ द्यदृ द्यण्ड्ढ
द्धड्ढथ्ड्ढठ्ठद्मड्ढ दृढ द्यड्ढदद्मत्थ्ड्ढ द्मद्यद्धड्ढद्मद्म)
प्रसारण (च्ण्ड्ढठ्ठद्धत्दढ़ थ्र्दृद्यत्दृद)
गमन (क्रड्ढदड्ढद्धठ्ठथ् च्र्न्र्द्रड्ढ दृढ थ्र्दृद्यत्दृद)
विभिन्न कर्म या ग्दृद्यत्दृद को उसके कारण के आधार पर जानने का विश्लेषण वैशेषिक में किया है।
(१) नोदन के कारण-लगातार दबाव
(२) प्रयत्न के कारण- जैसे हाथ हिलाना
(३) गुरुत्व के कारण-कोई वस्तु नीचे गिरती है
(४) द्रवत्व के कारण-सूक्ष्म कणों के प्रवाह से
डा. एन.जी. डोंगरे अपनी पुस्तक च्ण्ड्र्ढ घ्ण्न्र्द्मत्ड़द्म में वैशेषिक सूत्रों के ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखे गए प्रशस्तपाद भाष्य में उल्लिखित वेग संस्कार और न्यूटन द्वारा १६७५ में खोजे गए गति के नियमों की तुलना करते हैं।
प्रशस्तपाद लिखते हैं ‘वेगो पञ्चसु द्रव्येषु निमित्त-विशेषापेक्षात् कर्मणो जायते नियतदिक् क्रिया प्रबंध हेतु: स्पर्शवद् द्रव्यसंयोग विशेष विरोधी क्वचित् कारण गुण पूर्ण क्रमेणोत्पद्यते।‘ अर्थात् वेग या मोशन पांचों द्रव्यों (ठोस, तरल, गैसीय) पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।
उपर्युक्त प्रशस्तिपाद के भाष्य को तीन भागों में विभाजित करें तो न्यूटन के गति सम्बंधी नियमों से इसकी समानता ध्यान आती है।
(१) वेग: निमित्तविशेषात् कर्मणो जायते
च्ण्ड्र्ढ क्ण्ठ्ठदढ़ड्ढ दृढ थ्र्दृद्यत्दृद त्द्म ड्डद्वड्ढ द्यदृ त्थ्र्द्रद्धड्ढद्मद्मड्ढड्ड ढदृद्धड़ड्ढ (घ्द्धत्दड़त्द्रत्ठ्ठ)
(२) वेग निमित्तापेक्षात् कर्मणो जायते नियत्दिक् क्रिया प्रबंध हेतु
च्ण्ड्र्ढ क्ण्ठ्ठदढ़ड्ढ दृढ थ्र्दृद्यत्दृद त्द्म द्रद्धदृद्रदृद्धद्यत्दृदठ्ठथ् द्यदृ द्यण्ड्ढ थ्र्दृद्यत्ध्ड्ढ ढदृद्धड़ड्ढ त्थ्र्द्रद्धड्ढद्मद्मड्ढड्ड ठ्ठदड्ड त्द्म थ्र्ठ्ठड्डड्ढ त्द द्यण्ड्ढ ड्डत्द्धड्ढड़द्यत्दृद दृढ द्यण्ड्ढ द्धत्ढ़ण्द्य थ्त्दड्ढ त्द ध्ण्त्र्ड़ण् द्यण्ड्ढ ढदृद्धड़ड्ढ त्द्म त्थ्र्द्रद्धड्ढद्मद्मड्ढड्ड (घ्द्धत्दड़त्द्रत्ठ्ठ)
(३) वेग: संयोगविशेषाविरोधी
च्र्दृ ड्ढध्ड्ढद्धन्र् ठ्ठड़द्यत्दृद द्यण्ड्ढद्धड्ढ त्द्म ठ्ठथ्ध्र्ठ्ठन्र्द्म ठ्ठद ड्ढद्दद्वठ्ठथ् ठ्ठदड्ड दृद्रद्रदृद्मत्द्यड्ढ द्धड्ढठ्ठड़द्यत्दृद (घ्द्धत्दड़त्द्रत्ठ्ठ)
यहां न्यूटन के गति के नियम दिए तथा वैशेषिक की परिभाषा भी बतायी है कि वेग या क़दृद्धड़ड्ढ एक द्रव्य है, जो कर्म या थ्र्दृद्यत्दृद द्वारा उत्पन्न हुआ है।
स्थिति स्थापकता (कथ्ठ्ठद्मद्यत्ड़ ढदृद्धड़ड्ढद्म)
कथ्ठ्ठद्मद्यत्ड़त्द्यन्र् वास्तव में किसी पदार्थ के उस गुण को दिया गया नाम है, जिस कारण छड़ें-फ्लेट आदि कंपन करते हैं और ध्वनि भी निकलती है। वैशेषिक दर्शनकार इसे जानते थे। उदयन की ‘न्याय कारिकावली‘ नामक ग्रंथ में इसका उल्लेख मिलता है।
स्थितिस्थापकसंस्कार:
क्षित: क्वचिच्चतुर्ष्वपि।
अतीन्द्रियोसौ विज्ञेय:
क्वचित् स्पन्देऽपि कारणम्॥ ५९॥
ठोस या द्रव्य के अन्य प्रकार में द्रव्यों में उत्पन्न अदृश्य बल ही स्पन्दन (ज्त्डद्धठ्ठद्यत्दृद का कारण है।
ई. सन् १११४ में हुए भास्कराचार्य के ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि‘ के गोलाध्याय के यंत्राध्याय के श्लोक ५३ से ५६ तक ध्र्ठ्ठद्यड्ढद्ध ध्ण्ड्र्ढड्ढथ् का वर्णन है।
ताम्रादिमयस्यांकुशरूपनलस्याम्बुपूर्णस्य। ५३
एक कुण्डजलान्तर्द्वितीयमग्रं त्वधोमुखं च बहि:
युगापन्मुक्त चेत् क नलेन कुण्डाब्दहि:
पतति ।५४
नेम्यां बद्धवा घटिकाश्च्क्रं जलयन्त्रवत् तथा धार्यम्
नलकप्रच्युतसलिलं पतित यथा तद्घटी मध्ये। ५५
भ्रमति ततस्तत् सततं पूर्णघटीभि: समाकृष्टम्
चक्रच्युतं तदुदकं कुण्डे याति
प्रणालिकया। ५६
अर्थात्-ताम्र आदि धातु से बना हुआ, अंकुश के तरह मोड़ा हुआ एवं पानी से भरा तल का एक अन्त को जल पात्र में डुबा कर और दूसरे अन्त को बाहर अधोमुख करके अगर दोनों अन्त को एक साथ छोड़ेंगे तब पात्रस्थ जल सम्पूर्ण रूप से नल के द्वारा बाहर जाएगा। चक्र की परिधि में घटिकाओं को (जल पात्रों को) बांधकर, जल यंत्र के समान. चक्र के अक्ष के दोनों अन्त को उस प्रकार रखना चाहिए जैसे नल से गिरता हुआ पानी घटिका के भीतर गिरे। इससे वह चक्र पूर्ण घटियों के द्वारा खींचा हुआ निरन्तर घूमता है और चक्र से निकला हुआ पानी नाली के द्वारा कुण्ड में चला जाता है।
राव साहब के.वी. वझे द्वारा १९२६ में भोज द्वारा ११५० ईसवी में सम्पादित ग्रंथ ‘समरांगण सूत्रधार‘ का विश्लेषण करते हुए यंत्रशास्त्र के बारे में दी गई जानकारी एक विकसित यंत्रज्ञान की कल्पना देती है। इस ग्रंथ में सभी यंत्रों की दृष्टि से कुछ मूलभूत बातों का विचार किया है। पृथ्वी पदार्थ स्वाभाविक स्थिर है, सभी यंत्र पदार्थ की कृत्रिम साधनों से उत्पन्न गति रूप है।
प्रकृत्या पार्थिवं स्थिरं शेषेषु सहजा गति:।
अत: प्रायेण सा जन्य क्षितावेव प्रयत्नत:।
सूत्रधार समरांगण अ ३१
यंत्रों के साधन व कार्य
यंत्र के मुख्य साधनों का वर्णन ‘यंत्रार्णव‘ नामक ग्रंथ में किया गया है।
दंडैश्र्चक्रैश्र्च दंतैश्र्च सरणिभ्रमणादिभि:
शक्तेरूत्पांदनं किं वा चालानं यंत्रमुच्यते॥ यंत्रार्णव
यंत्र त्द्म ठ्ठ ड़दृदद्यद्धत्ध्ठ्ठदड़ड्ढ ड़दृदद्मत्द्मद्यत्दढ़ दृढ....
दंड- ख्र्ड्ढध्ड्ढद्ध, चक्र- घ्द्वथ्थ्ड्ढन्र्, दंत- द्यदृदृद्यण्ड्ढड्ड ध्ण्ड्र्ढड्ढथ्, सरणि- त्दड़थ्त्दड्ढड्ड द्रथ्ठ्ठदड़ड्ढ, भ्रमण- च्ड़द्धड्ढध्र्
ठ्ठदड्ड त्द्म द्धड्ढद्दद्वत्द्धड्ढड्ड ढदृद्ध द्रद्धदृड्डद्वड़त्दढ़ शक्ति (घ्दृध्र्ड्ढद्ध दृद्ध थ्र्दृद्यत्दृद) दृढ ड़ण्ठ्ठदढ़त्दढ़ त्द्यद्म ड्डत्द्धड्ढड़द्यत्दृद.
इनके मुख्य कार्य- दंड का उच्चाटन या च्द्यत्द्धद्धत्दढ़, चक्र का वशीकरण या क्ड्ढदद्यद्धठ्ठथ्त्दढ़ थ्र्दृद्यत्दृद, दंत का स्तंभन या द्मद्यदृद्रद्रत्दढ़, सरणि का जारण या एद्धत्दढ़त्दढ़ द्यदृढ़ड्ढद्यण्ड्ढद्ध, भ्रमण का मारण या ठ्ठददत्ण्त्थ्ठ्ठद्यत्दृद
एक यंत्र में तीन भाग होते हैं :
(१) बीज- द्यण्ड्ढ द्रद्धदृड्डद्वड़ड्ढद्ध दृढ ठ्ठड़द्यत्दृद (२) कीलक- द्यण्ड्ढ द्रत्द त्र्दृत्दढ़त्दढ़ द्रदृध्र्ड्ढद्ध ठ्ठदड्ड ध्र्दृद्धत्त् (३) शक्ति- द्यण्ड्ढ ठ्ठडत्थ्त्द्यन्र् दृढ ड्डदृत्दढ़ द्यण्ड्ढ ध्र्दृद्धत्त्.
इस प्रकार यंत्र अपने तीन भाग, पांच साधनों एवं उनके द्वारा होने वाली क्रियाओं से गतिमान होता है। इससे विविध प्रकार की गति उत्पन्न होती है।
तिर्यगूर्ध्वंमध: पृष्ठे पुरत: पार्श्वयोरपि
गमनं सरणं पात इति भेदा: क्रियोद्भवा:॥ समरांगण-अ ३१
विविध कार्यों की आवश्यकतानुसार विविध गति होती है जिससे कार्यसिद्धि होती है।
(१) तिर्यग्- द्मथ्ठ्ठदद्यत्दढ़ (२) ऊर्ध्व द्वद्रध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (३) अध:- ड्डदृध्र्दध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (४) पृष्ठे- डठ्ठड़त्त्ध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (५) पुरत:-ढदृद्धध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (६) पार्श्वयो:- द्मत्ड्डड्ढध्र्ठ्ठन्र्द्म
किसी भी यंत्र के मुख्य गुण क्या-क्या होने चाहिए, इसका वर्णन समरांगण सूत्रधार में करते हुए पुर्जों के परस्पर सम्बंध, चलने में सहजता, चलते समय विशेष ध्यान न देना पड़े, चलने में कम ऊर्जा का लगना, चलते समय ज्यादा आवाज न करें, पुर्जे ढीले न हों, गति कम-ज्यादा न हो, विविध कामों में समय संयोजन निर्दोष हो तथा लंबे समय तक काम करना आदि प्रमुख २० गुणों की चर्चा करते हुए ग्रंथ में कहा गया है-
चिरकालसहत्वं च यंत्रस्यैते महागुणा: स्मृता:। समरांगण-अ ३
हाइड्रोलिक मशीन (च्र्द्वद्धडत्दड्ढ)-जलधारा के शक्ति उत्पादन में उपयोग के संदर्भ में ‘समरांगण सूत्रधार‘ ग्रंथ के ३१वें अध्याय में कहा है-
धारा च जलभारश्च पयसो भ्रमणं तथा॥
यथोच्छ्रायो यथाधिक्यं यथा नीरंध्रतापि च।
एवमादीनि भूजस्य जलजानि प्रचक्षते॥
बहती हुई जलधारा का भार तथा वेग का शक्ति उत्पादन हेतु हाइड्रोलिक मशीन में उपयोग किया जाता है। जलधारा वस्तु को घुमाती है और ऊंचाई से धारा गिरे तो उसका प्रभाव बहुत होता है और उसके भार व वेग के अनुपात में धूमती है। इससे शक्ति उत्पन्न होती है।
सङ्गृहीतश्च दत्तश्च पूरित: प्रतनोदित:।
मरुद् बीजत्वमायाति यंत्रेषु जलजन्मसु। समरांगण-३१
पानी को संग्रहित किया जाए, उसे प्रभावित और पुन: क्रिया हेतु उपयोग किया जाए, यह मार्ग है जिससे बल का शक्ति के रूप में उपयोग किया जाता है। इसकी प्रक्रिया का विस्तार से इसी अध्याय में वर्णन है।
कुछ अन्य संदर्भ भी यंत्र विज्ञान के बारे में मिलते हैं।
चालुक्य वंश के राज्य के समय एक बगीचे के टैंक में पानी निकासी की स्वयं संचालित व्यवस्था का वर्णन जर्नल ऑफ अनन्ताचार्य इन्डोलॉजीकल इन्स्टीट्यूट बाम्बे में आया है।
महर्षि भारद्वाज रचित ‘विमान शास्त्र‘ में भी अनेक यंत्रों का वर्णन है, जिसका उल्लेख विमान शास्त्र अध्याय के प्रसंग में करेंगे।
राजा भोज के समरांगण सूत्रधार का ३१ वां अध्याय यंत्र विज्ञान के क्षेत्र में एक सीमा बिन्दु है। इस अध्याय में अनेक यंत्रों का वर्णन है। लकड़ी के वायुयान यांत्रिक दरबान तथा सिपाही, इनमें ङदृडदृद्य की एक झलक देख सकते हैं.
साभार : भारतीय संस्कृति ही श्रेष्ठ हैं
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