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Thursday, July 12, 2012

मंदिर के आंतरिक अर्थ




मंदिर तीर्थ तिलक, टीके, मूर्ति-पूजा माला, मंत्र-तंत्र शास्त्र-पुराण हवन-यज्ञ अनुष्ठान श्राद्ध, ग्रह-नक्षत्र ज्योतिष-गणना शकुन अपशकुन इनका कभी अर्थ था, पर अब व्यर्थ हो गए हैं। इन्हें समझाने की कृपा करें और बताएं कि क्या ये साधना के बाह्य उपकरण थे ? रिमेंबरिंग या स्मरण की मात्र बाह्य व्यवस्था थी, जो समय की तीव्र गति के साथ पूरी की पूरी उखड़ गयी ? अथवा भीतर से भी इसके कुछ अंतरसंबंध थे ? क्या समय इन्हें पुनः लेने को राजी होगा ?


जैसे हाथ में चाबी हो, चाबी को हम कैसे भी सीधा जानने का उपाय करें, चाबी से ही चाबी को समझना चाहें, तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता उस चाबी की खोज-बीन से, कि कोई बड़ा खजाना उसके हाथ लग सकता है। चाबी में ऐसी कोई भी सूचना नहीं है जिससे छिपे हुए खजाने का पता लगे। चाबी अपने में बिल्कुल बंद है चाबी को हम तोड़ें-फोड़ें, काटें लोहा हाथ लगे, और धातुएं हाथ लग जाएं उस खजाने की कोई खबर हाथ न लगेगी, जो चाबी से मिल सकता है। और जब भी कोई चाबी ऐसी हो जाती है जीवन में, कि जिससे खजानों का हमें पता नहीं लगता है, तब सिवाय बोझ ढोने के हम और कुछ भी नहीं ढोते। 

और जिंदगी में ऐसी बहुत-सी चाबियां हैं जो किन्हीं खजानों का द्वार खोलती हैं-आज भी खोल सकती हैं। पर न हमें खजानों का कोई पता है, न उन तालों का हमें कोई पता है जो हमसे खुलेंगे। और जब तालों का भी पता नहीं होता और खजानों का भी पता नहीं होता, तो स्वभावतः हमारे हाथ में जो रह जाता है उसको हम चाबी भी नहीं कह सकते। वह चाबी तभी है जब किसी ताले को खोलती हो। जब उससे, कुछ भी न खुलता हो, पर फिर भी उस चाबी से कभी खजाने खुले हैं इसलिए बोझिल हो जाती हैं; तो भी मन उसे फेंक देने का नहीं होता। कहीं मनुष्य जाति के अचेतन में वह धीमी-सी गंध बनी ही रह जाती है।

चाहे हजार साल पहले वह चाबी कोई ताला खोलती रही हो, लेकिन मनुष्य की अचेतना में, उससे कभी ताले खुले हैं, कभी कोई खजाने उससे उपलब्ध होते हैं-इस स्मृति के कारण ही उस चाबी के बोझ को हम ढोए चले जाते हैं। न कोई खजाना खुलता है अब, न कोई ताला खुलता है ! फिर भी कोई कितना ही समझाए कि चाबी बेकार है, उसे फेंक देने का साहस नहीं जुटता है। कहीं किसी कोने में मन के, कोई आशा पलती ही रहती है कि कभी कोई ताला खुल जाए !

मंदिर है। पृथ्वी पर ऐसी एक भी जाति नहीं है, जिसने मंदिर जैसी कोई, चीज निर्मित न की हो। वह उसे मस्जिद कहती हो, चर्च कहती हो, गुरुद्वारा कहती हो-इससे बहुत प्रयोजन नहीं है। पृथ्वी पर ऐसी एक भी जाति नहीं है, जिसने मंदिर जैसी कोई चीज निर्मित न की हो और आज तो यह संभव है कि हम एक दूसरी जातियों से सीख लें। एक वक्त था, जब दूसरी जातियाँ हैं भी, इसका भी हमें पता नहीं था। तो मंदिर कोई ऐसी चीज नहीं, जो बाहर से किन्हीं कल्पना करने वाले लोगों ने खड़ी कर ली हो। मनुष्य की चेतना से ही निकली हुई कोई चीज है। कितनी ही दूर, कितने ही एकांत में-पर्वत में, पहाड़ में, झील पर भी बसा हुआ मनुष्य हो, उसने मंदिर जैसा कुछ निर्मित किया है। मनुष्य की चेतना से ही कुछ निकल रहा है। अनुकरण नहीं है; एक-दूसरे को देखकर कुछ निर्मित हो गया है। इसलिए विभिन्न तरह के मंदिर बने, लेकिन मंदिर बने।

बहुत फर्क है, एक मंदिर में और मस्जिद में। उनकी व्यवस्था में बहुत फर्क है। उनकी योजना में बहुत फर्क है। लेकिन आकांक्षा में फर्क नहीं है, अभीप्सा में फर्क नहीं है। तो एक जो चीज़ मनुष्य कहीं भी हो, कितना ही दूसरो से अपरिचित हो, पैदा होती ही है वह अपनी चेतना में कोई बीज छिपाए है, यह एक बात खयाल में ले लेने जैसी है। दूसरी बात यह भी खयाल में लेनी जरूरी है कि हजारों साल हो जाते हैं, न तालों का पता रह जाता है, न खजानों का। लेकिन फिर भी जिस किसी चीज को हम, किसी बिल्कुल अनजाने मोह से ग्रसित लिए चलते हैं; जिस पर हजार आघात होते हैं, बुद्धि उसको सब तरफ से तोड़ने चलती है। युग का, आज का बुद्धिमान जिसे सब तरह से इनकार करता है, फिर भी मनुष्य का मन उसे संभाले चलता है, इस सबके बावजूद।

तो उसके पीछे दूसरी बात स्मरण रख लेनी जरूरी है कि मनुष्य की अचेतना में, कहीं उसके पीछे दूसरी बात आज उसे ज्ञात नहीं है तो भी, कहीं कोई गूंजती-सी धुन जरूर है जो कहती है कि अभी कोई ताला खुलता था। अचेतना में इसलिए, कि हममें से कोई भी नया पैदा हो गया हो, ऐसा नहीं है। हममें सभी अनेक बार पैदा हो चुके हैं। ऐसा कोई युग न था जब हम न हों। ऐसी कोई घड़ी न थी जब हम न हों। उस दिन जो हमारी चेतना थी, उसी दिन जो हमने चेतना जाना था, वह आज हजारों पर्तों के भीतर दबा हुआ ‘अचेतन’ बन गया है। उस दिन अगर हमने मंदिर का रहस्य जाना था, और उससे हमने किसी द्वार को खुलते देखा था, तो आज भी हमारे अचेतन के किसी कोनें में वह स्मृति दबी पड़ी है। बुद्धि लाख इनकार कर दे, लेकिन बुद्धि उतनी गहरी नहीं हो पाती जितनी गहरी स्मृति है।

इसलिए सब आघातों के बावजूद, और सब तरह से व्यर्थ दिखायी पड़ने के बावजूद कुछ चीजें हैं, कि ‘परसिस्ट’ करती हैं, हटतीं नहीं। नए रूप लेती हैं, लेकिन जारी रहती हैं। यह तभी संभव होता है जबकि अनंत जन्मों की यात्रा में अनंत-अनंत बार, किसी चीज को हमने जाना है यद्यपि आज भूले हुए हैं। और उनमें से प्रत्येक का बाह्य उपकरण की तरह तो उपयोग हुआ ही है, उनका आंतरिक अर्थ भी है, अभिप्राय भी है।

पहले तो मंदिर को बनाने की जो जागतिक कल्पना है, समस्त जग का सिर्फ मनुष्य है जो मंदिर बनाता है। घर तो पशु भी बनाते हैं, घोंसले तो पक्षी भी बनाते हैं, किंतु वे मंदिर नहीं बनाते। मनुष्य की, जो भेद-रेखा खींची जाए पशुओं से, उसमें यह भी लिखना ही पड़ेगा कि वह मंदिर बनानेवाला प्राणी है। कोई दूसरा मंदिर नहीं बनाता। अपने लिए आवास तो बिल्कुल ही स्वाभाविक है। अपने रहने की जगह तो कोई भी बनाता है। छोटे-छोटे कीड़े भी बनाते हैं, पक्षी भी बनाते हैं, पशु भी बनाते हैं। लेकिन परमात्मा के लिए आवास मनुष्य का जागतिक लक्षण है।

परमात्मा के लिए भी आवास, उसके लिए भी कोई जगह बनाना ! परमात्मा के गहन बोध के अतिरिक्त मंदिर नहीं बनाया जा सकता। फिर परमात्मा का गहन बोध भी खो जाए तो मंदिर बचा रहेगा, लेकिन बनाया नहीं जा सकता बिना बोध के। आपने एक अतिथि-गृह बनाया घर में वह इसलिए कि अतिथि आते रहे हों घर में कभी। अतिथि न आते हों तो आप अतिथि-गृह नहीं बनाने वाले हैं। हालांकि यह हो सकता है कि अब अतिथि न आते हों और अतिथि-गृह खड़ा रह गया हो।
तो परमात्मा के लिए एक आवास की धारणा उन क्षणों में पैदा हुई जब परमात्मा सिर्फ कल्पना की बात नहीं थी, अनेक लोगों के अनुभव की बात थी और परमात्मा के अवतरण की जो प्रक्रिया थी, उसके उतरने की, उसके लिए एक विशेष आवास, एक विशेष स्थान, जहाँ परमात्मा अवतरित हो सके, पृथ्वी के हर कोने पर आवश्यक अनुभव हुआ। 

प्रत्येक चीज के अवतरण में, आग्रह में, ‘रिसेप्टिव होने में एक संयोजन है। अभी जो हमारे पास से रेडियो वेव्ज गुजर रही हैं हम उन्हें पकड़ नहीं पाएंगे। रेडियो के उपकरण के बिना उन्हें पकड़ना कठिन होगा। कल अगर एक ऐसा वक्त आ जाए, आ सकता है कि एक महायुद्ध हो जाए, हमारी सारी टेक्नालाजी अस्त-व्यस्त हो जाए, और आपके घर में एक रेडियो रह जाए तो आप उसे फेंकना न चाहेंगे। मान लीजिए अब कोई रेडियो स्टेशन नहीं बचा, अब रेडियो से कुछ पकड़ा नहीं जाता। अब रेडियो सुधारनेवाला भी मिलना मुश्किल है। फिर भी हो सकता है दस-पांच पीढ़ियों के बाद भी आपके घर में वह रेडियो रखा रहे और तब कोई पूछे कि इसका क्या उपयोग है ? तो कठिन हो जाएगा बताना।

लेकिन इतना जरूर बताया जा सकेगा कि पिता आग्रहशील थे इसको बचाने के लिए, उनके पिता भी आग्रहशील थे। इतना उन्हें याद है कि हमारे घर में उसको बचानेवाले आग्रहशील लोग थे, वे बचाए चले गए। हमें पता नहीं, इसका क्या उपयोग है ? आज इसका कोई भी उपयोग नहीं है। और रेडियो तोड़कर अगर हम सब उपाय भी कर लें, तो भी इसकी खबर मिलना बहुत मुश्किल है कि इससे कभी संगीत बजा करता था, कि कभी इससे आवाज निकला करती थी। सीधे रेडियो को तोड़कर देखने से कुछ पता चलनेवाला नहीं है। वह तो सिर्फ एक आग्रहक था, जहां कुछ चीज घटती थी। घटती कहीं और थी लेकिन पकड़ी जा सकती थी। ठीक ऐसे ही मंदिर आग्राहक थे,‘रिसेप्टिव इंस्टूमेंट’ थे।

परमात्मा तो सब तरफ है। आप भी सब जगह मौजूद हैं, परमात्मा भी सब जगह मौजूद है। लेकिन किसी विशेष संयोजन में आप ‘एट्यून्ड’ हो जाते हैं। आपकी ‘ट्यूनिंग’ मेल खाती है, ताल-मेल हो जाता है। तो मंदिर आग्राहक की तरह उपयोग में आए। वहां सारा इंतजाम ऐसा था जहां दिव्य भाव को, दिव्य अस्तित्व को, भगवत्ता को हम ग्रहण कर पाएं। जहां हम खुल जाएं और उसे ग्रहण कर पाएं। सारा इंतजाम मंदिर का वैसा ही था। अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग तरह से इंतजाम किया था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अलग-अलग तरह से इंतजाम किया था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अलग-अलग रेडियो बनानेवाले लोग, अलग-अलग शक्ल का रेडियो बनाएं। बाकी, बहुत गहरे में प्रयोजन एक है।
जैसे कि इस मुल्क में मंदिर बने। और कोई तीन-चार तरह के ही खास ढंग के मंदिर है जिनके रूप में बाकी सारे मंदिर बने हैं। इस मुल्क में जो मंदिर बने वह आकाश की आकृति के हैं। जो गुंबज है मंदिर का वह आकाश की आकृति में है। और प्रयोजन यह है कि अगर आकाश के नीचे बैठकर मैं ओम का उच्चार करूं तो मेरा उच्चार खो जाएगा। क्योंकि मेरी शक्ति बहुत कम है, विराट आकाश है चारों तरफ। मेरा उच्चार लौटकर मुझ पर नहीं बरस सकेगा, खो जाएगा। मैं जो पुकार करूंगा, वह पुकार मुझ पर लौटकर नहीं आएगी वह अनंत में खो जाएगी।

मेरी पुकार मुझ तक लौटकर आ जाए, इसलिए मंदिर का गुंबज निर्मित किया गया। वह आकाश की छोटी प्रतिकृति है, ठीक अर्ध-गोलाकार, जैसे आकाश चारों तरफ पृथ्वी को छूता है-ऐसा एक छोटा आकाश निर्मित किया है गुबंज में। उसके नीचे मैं जो पुकार करूंगा, मंत्रोच्चार करूंगा, ध्वनि करूंगा, वह सीधी आकाश में खो नहीं जाएगी। गोल गुंबज उसे वापस लौटा देगा। जितना गोल होगा गुंबज उतनी सरलता से ध्वनि वापस लौट आएगी, और उतनी ही ज्यादा प्रतिध्वनियां उसकी पैदा होंगी। अगर ठीक व्यवस्था से गुबंज मंदिर का बना हो। फिर तो ऐसे पत्थर भी खोज लिए गए जो ध्वनियों को वापस लौटाने में बड़े सक्षम हैं।

अजंता का एक बौद्ध चैत्य है, उसमें लगे पत्थर ठीक उतनी ही ध्वनि को तीव्रता से लौटा सकते हैं, उतनी ही चोट को प्रतिध्वनित करते हैं, जैसे तबला। आप तबले पर चोट करें, वैसी ही पत्थर पर चोट करें तो उतनी ही आवाज होगी। कुछ बहुत विशेष मंत्रों (ध्वनियों) को, जो बहुत सूक्ष्म हैं, साधारण गुंबज नहीं लौटा पाता है, उसके लिए उन पत्थरों का उपयोग किया गया।

साभार : गौरी राय, फेसबुक 

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