भारत जो कभी विश्वविजेता था , सम्पूर्ण विश्व जिसके ज्ञान - विज्ञान और शक्ति के सामने झुकता था तथा जिसकी शर्तो पर उसका विश्व के अन्य देशों के साथ व्यापार होता था । आखिर क्या कारण रहा कि वह अपने गौरवशाली इतिहास और वैभव को खो बैठा तथा पद्च्युत होकर बाहर से आई मुठ्ठीभर मजहबी और साम्राज्यवादी शक्तियों का गुलाम हो गया ?
इसका कारण जानने के लिए हमें भारतीय इतिहास के पाँच हजार वर्ष पुराने पृष्टों को खंगालना पडेगा । महाविनाशकारी विश्वयुद्ध महाभारत में बहुत बडी संख्या में वेदज्ञ विद्वानों के मारे जाने के कारण भारत में वेदों के पठन - पाठन और प्रचार का कार्य शनै - शनै लुप्त होता चला गया , तदानुपरांत विद्वानों की प्रतिष्ठा और क्षमता भी कम हो गई तो कालांतर में देश में में देश में अनेक अवैदिक और भोगवादी मत - मतांतरों चार्वाक , बृहस्पति , तांत्रिक और वाममार्गी आदि सम्प्रदायों ने जन्म लिया । वेदों के गूढ़ तत्वज्ञान से रहित अनेक प्राचीन भाष्यकारों ने अपने मंतव्यानुसार वेद मंत्रों के अर्थ का अनर्थ कर दिया । वैदिक शास्त्रों को विकृत किया गया और अवैदिक शास्त्रों की रजना की गई । जिसके परिणाम स्वरूप बहुदेवतावाद , अवतारवाद , जातिवाद , छुत - अछुत , अशिक्षा , यज्ञ में पशु बलि देना जैसी कुप्रथाओं का प्रचलन हुआ और स्वार्थी हो चले समाज के अमानवीय हिंसात्मक कार्यकलापों से मानवता त्राहि - त्राहि करने लगी । ऐसे विषम समय में लगभग 2600 वर्ष पूर्व भारतवर्ष में भगवान महावीर और भगवान बुद्ध दो ऐसे महापुरूष उत्पन्न हुए जिन्होंने उस समय की परिस्थिति को देखते हुए केवल अहिंसा को ही परम धर्म माना । इन दोनों महापुरूषों ने अहिंसा पर बडा बल दिया और युद्ध का घोर विरोध किया । उनका संदेश था कि ' अपनी ही अन्तरात्मा से युद्ध करों बाहर के युद्ध से क्या लाभ ? '
वैदिक ज्ञान से वंचित हो चुके जनसामान्य के मन - मस्तिष्क पर उनका बहुत प्रभाव पडा तथा वे उनके अनुयायी हो गये , साथ ही जैन व बौद्ध धर्म को राज्याश्रय भी प्राप्त हुआ । इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि उस समय यज्ञ में जो पशु हिंसा होती थी , वह बंद हो गई । किन्तु भगवान महावीर व भगवान बुद्ध की देशनाओं को ठीक से न समझ पाने के कारण करोडों भारतीय वीर वैदिक अहिंसा को छोडकर अविवेकी अहिंसा का आश्रय लेकर जैन श्रावक और बौद्ध भिक्षुक बनकर कायर , डरपोक और नपुंसक बन गये ।
वे भूल गये कि जैन धर्म या बौद्ध की अहिंसा भी वैदिक अहिंसा की तरह सभी प्रकार की परिस्थितियों में शस्त्र प्रतिकार का निषेध नहीं करती । जिन जैन लोगों ने राज्य स्थापित किये , वीर एवं वीरांगनाओं को निर्मित किया , जिन्होंने समरभूमि पर शस्त्रों से युद्ध किये , उनका जैन आचार्यो ने कहीं भी कभी भी निषेध नहीं किया है । अन्यायकारी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिकार करना केवल न्याय ही न होकर आवश्यक भी है , ऐसा जैन धर्म का प्रकट प्रतिपादन है । यदि कोई सशस्त्र आतातायी मनुष्य किसी साधु की हत्या करने का प्रयास करे , तो उस साधु के प्राणों की रक्षा हेतु उस आतातायी को मार डालना यदि आवश्यक हो तो उसे अवश्य ही मारना चाहिये , क्योंकि उस प्रकार की हिंसा एक प्रकार से सच्ची अहिंसा ही है , ऐसा उसका समर्थन जैन शास्त्रों ने किया है । वैदिक शास्त्रों के कथनानुसार ही जैन शास्त्रों का यह भी कथन है कि ऐसी परिस्थिति में हत्या का पाप उसे लगता है जो मूलभूत हत्यारा है , न कि उसे , जो हत्यारे का वध करने वाला है - ' मन्युस्तन मन्युमर्हति । ' भगवान बुद्ध ने भी इसी प्रकार का उपदेश दिया है । एक बार किसी टोली के नेता भगवान बुद्ध के पास पहुँचे और किसी अन्य टोली के आक्रमण के विरूद्ध उनका सशस्त्र प्रतिकार करने की अनुज्ञा माँगने लगे , तब भगवान बुद्ध ने उन्हें सशस्त्र प्रतिकार करने की आज्ञा दी । भगवान महात्मा बुद्ध बोले , ' सशस्त्र आक्रमण के प्रतिकार स्वरूप युद्ध करने में क्षत्रियों के लिए कोई भी बाधा नहीं है । यदि सत्कार्य के लिए वे सशस्त्र लडते है तो उन्हें कोई पाप नहीं लगेगा । '
भारतवर्ष सम्राट अशोक के समय लगभग 2200 पूर्व तक तो गौरवपूर्ण और विश्ववंदित था , किन्तु अशोक के बौद्ध धर्म अपना लेने के बाद का इतिहास भारत के पतन का इतिहास है । वैदिक अहिंसा को छोडकर अविवेकी अहिंसा को अपनाने के कारण भारत पर अनेक आक्रमण हुए और अन्ततः विश्वविजेता रहे भारत का पतन हो गया । सन 630 ईश्वी में जब प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वैन्त्साग भारत में आया तो उसने लिखा कि कप्पिश ( काफिरस्तान ) सारा बौद्ध हो गया था । लम्पाक और नगर ( जलालाबाद ) में कुछ हिन्दुओं को छोडकर शेष सारा काबुल बौद्ध हो गया था । बंगाल और बिहार तो बौद्धों के प्रमुख गढ़ बन गये थे । बंगाल और बिहार में जैन और बौद्ध धर्म का हिंसा के विरूद्ध इतना प्रचार था कि बंगाल और बिहार के निवासी सेना में भरती नहीं होते थे । इस अविवेकी अहिंसा का परिणाम यह हुआ कि भारतीयों के जीवन में शत्रुओं के दमन की , देश , जाति और धर्म की रक्षा की भावना नष्ट हो गई । परिणाम स्वरूप भारतवर्ष परतंत्र एवं पराधीन हुआ ।
साभार : फेसबुक, संदीप गोयल
बहुत संगत और सतर्क विश्लेषण है.जब वचन ,नीतियाँ, संकल्प और निष्ठायें रूढ़ हो जाती हैं ,बदलती हुई परिस्थितियों और काल के अनुसार ,यथार्थ के धरातल पर ,उनका पुनर्मूल्यांकन नहीं किया जाता तब यही परिणाम होते हैं .
ReplyDeleteप्रतिभा जी आप बिलकुल ठीक कह रही हो. यदि हम अभी भी नहीं बदले तो हम लोगो का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा.
Deleteहमारे ब्लॉग Sachसच के ' भारत के पतन का कारण - अविवेकी अहिंसा का आचरण ' लेख को प्रचारित करने के लिए आपका आभार । ज्यादा अच्छा होता यदि लेखक का नाम अथवा ब्लॉग का लिंक भी डाल दिया होता ।
ReplyDeletewww.vishwajeetsingh1008.blogspot.com
विश्वजीत जी, मुझे ये मालुम नहीं था की ये आपका लेख हैं, मैंने इसे फेसबुक पर से संदीप गोयल जी के टाईम लाइन से लिया था. मैं क्षमा चाहता हूँ. दरअसल मेरा ये ब्लॉग हिंदू हितों के लिए हैं. मुझे जंहा से भी कोई अच्छा लेख मिलता हैं. जिसकी साईट से मिलता हैं, सधन्यवाद उठा लेता हूँ और उनका नाम नीचे डाल देता हूँ. यदि हिंदू हितों के लिए मुझे इतना करना पड़े तो आप लोग मुझे क्षमा करे. क्योंकि अच्छा लेख जितने ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुंचेगा, उतना ही धर्म के लिए अच्छा होगा. धन्यवाद, वन्देमातरम
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