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Monday, July 30, 2012

भारत का भौतिक ज्ञान


दार्शिनक्ता और वैज्ञानिक्ता का घनिष्ट सम्बन्ध है। ‘दार्शनिक’ आविष्कारों की कल्पना करता है जिसे ‘वैज्ञानिक’ साकार कर देता है। पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के जन्मदाता अरस्तु आदि भी दार्शनिक ही थे। विचार आविष्कारों से पूर्व उजागर होते हैं तथा दीर्घायु होते हैं। तकनीक विचारों को साकार करती है किन्तु उस में बदलाव तेजीं से आते हैं। नयी तकनीकें पुरानी तकनीकों का स्थान ले लेती हैं जैसे कि ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर संदेश भेजने के लिये आवाज को विद्युत तरंगों में बदल देने का विचार आज भी पुरातन है किन्तु उसे भेजने की तकनीक तार से आरम्भ हो कर, बेतार, मोबाईल फोन, सैटेलाईट चैनल आदि के कितने ही रूप ले चुकी है। दार्शनिक विचारों की कल्पना के सहारे ही वैज्ञानिक आविष्कार होते हैं।
भौतिक ज्ञान का आरम्भ 
आज भौतिक शास्त्र की पुस्तकों में पढाया जाता है कि “पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें ठोस, तरल, और गैस की श्रेणी में में रखा जा सकता है”। यह पदार्थों का केवल दिखावटी तथ्य है। आधुनिक विज्ञान को सर्वप्रथम वेदों से ज्ञात हुआ था कि सृष्टी में मौलिक पदार्थ केवल पाँच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ही हैं। अन्य सभी पदार्थ उन्हीं पाँच महाभूतों के भिन्न भिन्न मिश्रण हैं। इसी मूल तथ्य से ही संसार का भौतिक विज्ञान विकसित हुआ है। सर्वप्रथम मानव ने नक्षत्रो, ग्रहों, ऋतुओं तथा वनस्पतियों से प्रत्यक्ष साक्षाताकार कर के प्राकृति के भौतिक स्वरूप में कारण और प्रभाव के सम्बन्धों को जाना है। 
वैदिक साहित्य में भौतिक ज्ञान
प्राचीन काल में आज की तरह की के वैज्ञानिक लेख नहीं लिखे जाते थे। विश्व की सभी भाषाओं में लेखन कार्य सर्व प्रथम पद्य रचना में ही होता था। मन्त्र-लेखन किसी भी तथ्य को सूक्षम कर के समर्ण-योग्य बनाने की शैली है। वैदिक साहित्य में भौतिक तत्वों और प्राकृतिक शक्तियों की देवता के रूप में स्तुति कर के उन के लक्षण, गुणों तथा उपयोग का उल्लेख किया गया है। वेदों के अतिरिक्त आध्यात्मवाद और भौतिक शास्त्र के अग्रिम ग्रंथ उपनिष्द, दर्शनशास्त्र और पुराण हैं। इन ग्रंथों के मंत्रों में अध्यात्मवाद के साथ पदार्थों की विशोषताओ (प्रापरटीज), का वर्णन भी दिया गया है।
अथर्व वेद के अनुसार जगत में सात ‘तत्व’ - धरा, जल, तेज, वायु, क्षितिज, तन्मात्रा, और घमण्ड हैं। उन के अतिरिक्त तीन ‘गुण’ सत्तव, रज और तम हैं। इन्हीं सात पदार्थों और तीन गुणों के मिश्रण से 21 ‘पदार्थों’ की रचना होती है।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, और मन, यह नौ ‘द्रव्य’ हैं जिन की विशेषतायें भौतिक शास्त्र की वैज्ञानिक भाषा में ही इस प्रकार से व्यक्त की गयी हैं –
पृथ्वी – पृथ्वी में गन्ध, रस, रुप और स्पर्श चार गुण (प्रापरटीज) हैं जिन में से गन्ध मुख्य है।
जल - जल में रस, रूप और स्पर्श तीन गुण हैं जिन में से रस मुख्य है। जल की पहचान शीत स्पर्श है। जल में जो ऊष्णता होती है वह अग्नि की है।
अग्नि – अग्नि की पहचान स्पर्श है, रूप और स्पर्श दो गुण हैं जिन में से रूप मुख्य है।
वायु - वायु की पहचान ऐक विलक्षण स्पर्श हैं।
आकाश - आकाश की पहचान शब्द है। जहाँ शब्द है वहाँ आकाश भी है। आकाश का कोई शरीर नहीं। कर्ण छिद्र के अन्दर का आकाश स्रोत्र है।
काल –काल सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होता है जैसे – ‘यह जल्दी हो गया’ और ‘वह देर से हुआ’ आदि। व्यवहार के लिये पल, घडी, दिन, महीना, वर्ष, युग, भूत भविष्य और वर्तमान आदि अनेक भेद कल्पना से कर लिये जाते हैं।
दिशा –व्यवहार के लिये दिशायें दस प्रकार की हैं जो काल की तरह ही सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होती हैं।
आत्मा –आत्मा की पहचान चैतन्य ज्ञान है। ज्ञान इन्द्रियों का गुण नहीं क्यों कि किसी इन्द्री के नष्ट हो जाने पर भी उस के पहले अनुभव किये हुए विषय की समृति रहती है। अनुभव करने वाला इन्द्रियों से भिन्न है। इच्छा, देूष, प्रयत्न, सुख दुःख भी शरीर से अलग हो कर आत्मा की पहचान कराते हैं।
मन – मन इन्द्रियों की तरह सुख दुःख के ज्ञान का साधन है।
शुष्क वैज्ञानिक तथ्यों को मनोरंजक कथाओं के माध्यम से जन साधारण तक पहुँचाना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है। वैज्ञानिक भौतिक तथ्यों के मोती भारत के प्राचीन साहित्य में जहाँ तहाँ बिखरे पडे हैं जैसे किः-
  • कृषि, चिकित्सा, खगोल तथा गणित, अंकगणित, और साँक्रमिक आदि से सम्बन्धित तथ्यों का भौतिक ज्ञान ऋगवेद 1-71-9,4-57-5 तथा सामवेद 121 में संकलित है। इस ज्ञान के प्रयोग से जन साधारण के दुःख दूर किये जा सकते हैं। (ऋगवेद 1-34-1 से 5, 5-77-4)
  • जल, वायु तथा अग्नि की विशेषतायें तथा विमानों और वाहनों के निर्माण के लिये उन के प्रयोग के बारे में उल्लेख किया गया है। (ऋगवेद 1-3-1,2,1-34-1,1-140-1)
  • अणु कणों, ईश्वर्य शक्ति तथा उस के गुणों के पदार्थों में समावेश के बारे में ऋगवेद 5-47-2 तथा सामवेद 222 में उल्लेख किया है।
  • भौतिक ज्ञान सम्बन्धी परिभाषायें तथा गुण यजुर्वेद 18-25 में उल्लेखित हैं।
  • आधुनिक भौतिक शास्त्रियों का मत है कि सूर्य कि किरणें सीधी रेखा के विपरीत कमान की भाँति धरती पर उतरती हैं। यही तथ्य हमारे पूर्वजों ने कलात्मिक ढंग से बताया है – भुजंगनः मितः सप्तः तुर्गः - कि सूर्य  के रथ को सर्पों से बन्धे हुये सात घोडे खींच कर चलते हैं। सर्प सीधी लाईन में नहीं चलते टेढें मेढे़ चलते हैं।
  • सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। इसी प्रकार उन्हों ने रौशनी के सम्बन्ध में कहा है कि सूर्य की श्वेत किरणों में ही सात रंग छिपे होते हैं। अथर्व वेद में कहा है सप्तः सूर्य्स रसम्यः।
  • ऋगवेद' में सूर्य के प्रकाश की गति के बारे में कहा गया है कि सूर्य का प्रकाश आधे निमिष में 2 ,202 योजन की यात्रा करता है। एक योजन लगभग 9 मील के बराबर है जिस के अनुसार यह गति 185793.75 मील होती है जब कि सूर्य के प्रकाश की आधुनिक वैज्ञानिक गणना 187372 मील है।  
  • तरल रूप में जल, गैस रूप में बादल बन कर वर्षा करता है। पर्वत शिखरों पर ठोस रूप में बर्फ भी जल का परिवर्तित रूप है – यजुर्वेद
  • अग्नि दृष्यमान है। पृथ्वी पर अग्नि ज्वाला, लावा, और भस्म के रूप में स्थित है। आकाश में सूर्य, बादलों में विद्युत तथा जल में बडवा नल, वृक्षों में दावानल तथा देह में जीवन का रूप है। शक्ति रूप और स्थान बदलती है। अग्नि सभी वस्तुओं को शुद्ध करती है। (यजुर्वेद)
  • यद्यपि तम (अन्धेरा) काले रंग का है और चलता हुआ प्रतीत होता है तथापि उस का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। ‘प्रकाश का अभाव’ ही तम है। प्रकाश के ना होने से न दीखना ही उस में कालापन है। प्रकाश के आगे आगे चलने से ही अन्धेरा चलता हुआ प्रतीत होता है जैसे मानव के चलने से उस की छाया चलती हुई प्रतीत होती है।
भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान
भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में ईसा से 600 वर्ष पूर्व विशेषिका दर्शन शास्त्रों में भौतिक तत्वों, पदार्थों तथा वनस्पतियों की विशेषताओं का विशलेषण करने का सफल प्रयत्न किया गया है जिन में से कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।
अणु शक्ति - वैशिसिका दर्शन शास्त्र के जन्मदाता ऋषि कनाद के अनुसार सृष्टि के सभी पदार्थों का सर्जन उसी पदार्थ के अणुओं से हुआ है। अणु (ऐटम) ना तो बनाये जा सकते हैं ना ही समाप्त किये जा सकते हैं। उन को विभाजित भी नहीं किया जा सकता उन का अपना निजि अस्तीत्व शाशवत रहता है। वह ऊर्जा पुंज होते हैं। कनाद ने यह भी प्रमाणित किया कि रौशनी तथा ऊष्णता ऐक ही स्त्रोत्र से हैं केवल मात्रा में फर्क है। जैन समुदाय के मुनियों के मतानुसार सभी अणु ऐक ही प्रकार के होते हैं किन्तु उन की भिन्नता इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं।
ध्वनि और रौशनी - सुश्रत ने सर्वप्रथम अविष्कार किया था कि हम आसपास की वस्तुओं को बाह्य स्त्रोत्र से रौशनी पडने के कारण देख सकते हैं। इसी तथ्य कि पुष्टि कालान्तर आर्य भट्ट नें भी की। तब तक य़ूनान के दार्शनिक समझते रहै कि हम आस पास की वस्तुऐं अपनी आँख की ज्योति के कारण देखते हैं। छटी शताब्दी में वराहमिहिर ने वस्तु पर पडने वाले रौशनी के प्रतिबिम्ब का विमोचन कर के वस्तुओं की छाया का आँकलन किया। इसी अविष्कार को आधार मान कर दसवी शताब्दी में मिस्त्र के भौतिक शास्त्री अलहैयथ्म ने विस्तार किया कि प्रथक प्रथक वस्तुओं से रौशनी की तरंगें  अलग अलग गति से निकलती हैं।
चक्रपाणी ने सर्वप्रथम अविष्कार किया कि ध्वनि और रौशनी तरंगों के रूप में गतिशील होते हैं और रौशनी की गति ध्वनि से कई गुणा तीव्र होती है। प्रस्तापदा ने इसी तथ्य का विस्तार करते हुये उल्लेख किया कि ध्वनि वायु में वृताकार तरंगों के माध्यम से विस्तरित हो कर गतिशील होती हैं और प्रत्येक ध्वनि की प्रति ध्वनि (इको) भी रहती है। वाचस्पति के मतानुसार रौशनी पदार्थों के अणुओं दुारा आँख से टकराती है। यह तथ्य कारपस्कुलर के रौशनी सिद्धान्त जैसा है जो सदियों पश्चात न्यूटन ने किया था।
आकर्षण शक्ति की खोज
यजुर्वेद में व्याख्या की गयी है कि पृथ्वी अपने स्थान पर सूर्य की महान आकर्षण शक्ति के कारण स्थिर रहती है। गुप्त काल के खगोल शास्त्री सभी ग्रहों की गति तथा मार्ग परिधि के बारे में जानते थे तथा उन्हों ने सूर्य और चन्द्र गृहण का कारण तथा समय की गणना के विषय में मौलिक जीनकारी दी है।
  1. आर्य भट्ट – सर्व प्रथम आर्य भट्ट ने ही विश्व को जानकारी दी थी  किः-
  • कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है जिस के कारण दिन और रात बनते हैं।
  • तारे अपने स्थान पर स्थिर होते हुये भी गतिशील दिखते हैं क्योंकि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती रहती है।
  • पृथ्वी के निरन्तर घूमने के कारण सितारे उदय तथा अस्त होते दिखायी पडते हैं।
  • उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों पर दिन और रात की अवधि छः मास के बराबर होती है।
  • आर्य भट्ट में पृथ्वी की परिधि 4967 योजन उल्लेख की है तथा पृथ्वी का व्यास 1,5811.24 योजन बताया था। ऐक योजन 5 अंग्रेज़ी मीलों के बराबर होता है जिस के अनुसार आर्य भट्ट का माप आज के वैज्ञायानिकों की गणना से मेल खाता है। आज के वैज्ञायानिकों की गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 24,835 मील तथा व्यास 79055.24 मील है। आर्य भट्ट रचित सूर्य सिद्धान्त पुस्तक में खगोलिक गणनायें आज भी हिन्दू केलेन्डरों में प्रयोग करी जाती हैं।
  1. ब्रह्मगुप्त – (598 – 665 ईसवी)  ने नेगेटिव अंकों  तथा गणित में शून्य की खोज की। उन का ग्रंथ ब्रह्मस्फुतः सिद्धान्त खगोल शास्त्र के पूर्व ग्रंथ ब्रह्म सिद्धान्त का संशोधन माना जाता है जिस में उन्हों ने पृथ्वी के व्यास तथा धूरी का माप दिया है।
  2. वराहमिहिर – उन्हों ने छटी शताब्दी में खगोल शास्त्र, भूगोल तथा खनिज शास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन के मतानुसार चन्द्र का आधा भाग जो सूर्य की ओर रहता है तथा पृथ्वी और सूर्य के मध्य में चक्कर लगाता है स्दैव चमकता है और शेष आधा भाग स्दैव छाया के कारण अन्धकार ग्रस्त रहता है। जब चन्द्र पर पृथ्वी की छाया पडती है तो चन्द्र गृहण होता है। उसी प्रकार सूर्य पर चन्द्र की छाया पडने से सूर्य गृहण होता है। चन्द्र गृहण सदा पश्चिम दिशा से लगता है तथा सूर्य गृहण सदा पूर्व दिशा से लगता है। उन्हों ने गृहण के बारे में जो गणना कर के आँकडे दिये वह पूर्णतया वैज्ञानिक थे।
  3. भास्कर आचार्य –भाषकराचार्य ने प्रथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था। उन के ग्रन्थ सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय के भुवनकोश प्रकरण में वस्तुओं की शक्ति के बारे में कहते हैः -
            मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
                      आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या
                                आकृष्यते तत्पततीव भा समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं। आकाश में पृथ्वी, ग्रह, तारे, चन्द्र तथा सूर्य अपनी निश्चित गति, शक्ति तथा स्थान से ऐक दूसरे को खींचते हैं जिस के कारण सभी अपनी अपनी धुरी तथा परिकर्मा मार्ग से बाहर नहीं होते। यह सिद्धा्न्त न्यूटन के जन्म से सैंकडों वर्ष पूर्व 'सिद्धान्त-शिरोमणि' में दर्शाया जा चुका था।
ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य के अनुसार पृथ्वी का व्यास 7182 मील था और किसी अन्य अनुमान के अनुसार 7905 मील था। आधुनिक वैज्ञानिक इसे 7918 मानते हैं । अन्तर केवल 13 मील का है। 
साभार : चाँद शर्मा

Thursday, July 26, 2012

वैदिक मंत्रों का मानव की बुद्धि पर असर



मानव के मस्तिष्क की रचना बहुत ही अद्भुत है| शरीर का यह हिस्सा शुद्ध माना गया है क्योंकि इस स्थान पर शिव और शक्ति का मिलन होता है| ज्ञात चक्र के भीतरी स्थान पर मन का निवास होता है| मस्तिष्क की बुद्धि के ऊपरी भाग में सहस्रदल चक्र अवस्थित है, जो अत्यंत प्रकाशमय, सुंदर और अति तीव्रगति वाला, अनंत शक्ति से संपन्न, अत्यंत रहस्यमय योगचक्र माना जाता है| इस स्थान पर प्राण तथा मन के स्थिर हो जाने पर सर्व-वृत्तियों के निरोध रूप असंप्रज्ञात समाधि की योग्यता प्राप्ति होती है| महर्षियों के अनुसार आज्ञा चक्र के ऊपर ‘मानस चक्र’ नाम का एक चक्र और भी अवस्थित है| यह चक्र विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं का आधार है| मानस चक्र के ऊपर भी ‘सोम चक्र’ नामक चक्र की उपस्थिति मानी गई है| यह परार्थवादी भावों का निवास स्थान है| इस पर ध्यान केंद्रित करने से संकल्प का नियंत्रण प्राप्त होता है|

मानस चक्र के ऊपर सहस्रार चक्र स्थित है| इस पर ध्यान लगाने से योगी परम शिव से एक हो जाता है| उसके अज्ञान और मोह नष्ट हो जाते हैं| वह पाप और पुण्य से छूटजाता है| उसके संचित कर्म समाप्त हो जाते हैं और इस प्रकार वो दो देह-मुक्ति को प्राप्त कर लेता है| मृत्यु पश्‍चात् उसका पुनर्जन्म नहीं होता|

उपरोक्त सहस्र चक्र चेतना के सूक्ष्म केंद्र हैं| वे अदृश्य हैं और इसलिए उन्हें भौतिक रूप से नहीं देखा जा सकता| किन्तु वे योगियों को दिखलाई पड़ते हैं| वे प्राण-शक्ति की अभिव्यक्तियां हैं| ये ही प्राण-शक्तियां समस्त विश्‍व में व्याप्त हैं| इस प्रकार भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार देह भौतिक विश्‍व के विभु में अणु समान है| जो कुछ भौतिक विश्‍व में है, वो ही सूक्ष्म रूप में, देह में विद्यमान है| भौतिक विश्‍व पंचभूत से बना है| देह भी पंचभूत से बनी है| भौतिक विश्‍व में जो प्राण-शक्तियां काम कर रही हैं, वे चक्रों के माध्यम से मानव देह में बनी हैं| इन पर अधिकार करके मनुष्य विश्‍व शक्तियों पर अधिकार करके मनुष्य विश्‍व शक्तियों पर भी अधिकार कर सकता है|

सहस्रार चक्र का स्थान, अधिपति, देवता, देवता की शक्ति, यंत्र, कमलदलों पर अक्षरों का न्यास आदि निम्नलिखित हैं-

यौगिक नाम - सहस्रार योग चक्र (नाना प्रकार के रंगों से युक्त चक्र ही सहस्रार चक्र हैं)
स्थान - मस्तिष्क
यंत्राकृति - शिव (परमशिव व उनकी शक्तियां)
यंत्र वर्ण - अनंत (परम तेजोमय, सुवर्णिम)
बीज मंत्र - विसर्ग
बीज वर्ण - तेजोमय
दलों के अक्षर - अं से क्षं तक
वाहन - बिंदु
चक्र गुण - प्रत्येक कार्य (समर्थ-सर्व सिद्ध)
तत्व - प्रत्येक तत्व
तत्वरूप - प्रत्येक रूप
गुण - चित्त
ज्ञानेन्द्रिय - मस्तिष्क
कर्मेन्द्रिय - समाधि ज्ञान
वायु - उदान
लोक - सत्य
ग्रह - शनि
देव - परब्रह्म
देव शक्ति - महाशक्ति
शक्ति के वर्ण - ह्रीं
कमलदल - सहस्र
दल वर्ण - श्‍वेत
मुद्रा - योनि
अनुभूति-स्वाद - अवर्णनीय
प्रहरी देवता - अर्द्धनारीश्‍वर
मंत्र - ह्रीं श्रीं हुं फट् (महामृत्युंजय)
मंत्र संख्या - एक हजार
मंत्र देवता - गायत्री-महामृत्युंजय
मंत्र संख्या - एक हजार
मंत्र देवता - गायत्री,-महामृत्युंजय (संबंधित उपासना मंत्र)
ध्यान की प्रवृत्तियां - योगिराज

मानव के मस्तिष्क की रचना बहुत ही अद्भुत है| शरीर का यह हिस्सा शुद्ध माना गया है क्योंकि इस स्थान पर शिव और शक्ति का मिलन होता है| ज्ञात चक्र के भीतरी स्थान पर मन का निवास होता है| मस्तिष्क की बुद्धि के ऊपरी भाग में सहस्रदल चक्र अवस्थित है, जो अत्यंत प्रकाशमय, सुंदर और अति तीव्रगति वाला, अनंत शक्ति से संपन्न, अत्यंत रहस्यमय योगचक्र माना जाता है| इस स्थान पर प्राण तथा मन के स्थिर हो जाने पर सर्व-वृत्तियों के निरोध रूप असंप्रज्ञात समाधि की योग्यता प्राप्ति होती है| महर्षियों के अनुसार आज्ञा चक्र के ऊपर ‘मानस चक्र’ नाम का एक चक्र और भी अवस्थित है| यह चक्र विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं का आधार है| मानस चक्र के ऊपर भी ‘सोम चक्र’ नामक चक्र की उपस्थिति मानी गई है| यह परार्थवादी भावों का निवास स्थान है| इस पर ध्यान केंद्रित करने से संकल्प का नियंत्रण प्राप्त होता है|

मानस चक्र के ऊपर सहस्रार चक्र स्थित है| इस पर ध्यान लगाने से योगी परम शिव से एक हो जाता है| उसके अज्ञान और मोह नष्ट हो जाते हैं| वह पाप और पुण्य से छूटजाता है| उसके संचित कर्म समाप्त हो जाते हैं और इस प्रकार वो दो देह-मुक्ति को प्राप्त कर लेता है| मृत्यु पश्‍चात् उसका पुनर्जन्म नहीं होता|

उपरोक्त सहस्र चक्र चेतना के सूक्ष्म केंद्र हैं| वे अदृश्य हैं और इसलिए उन्हें भौतिक रूप से नहीं देखा जा सकता| किन्तु वे योगियों को दिखलाई पड़ते हैं| वे प्राण-शक्ति की अभिव्यक्तियां हैं| ये ही प्राण-शक्तियां समस्त विश्‍व में व्याप्त हैं| इस प्रकार भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार देह भौतिक विश्‍व के विभु में अणु समान है| जो कुछ भौतिक विश्‍व में है, वो ही सूक्ष्म रूप में, देह में विद्यमान है| भौतिक विश्‍व पंचभूत से बना है| देह भी पंचभूत से बनी है| भौतिक विश्‍व में जो प्राण-शक्तियां काम कर रही हैं, वे चक्रों के माध्यम से मानव देह में बनी हैं| इन पर अधिकार करके मनुष्य विश्‍व शक्तियों पर अधिकार करके मनुष्य विश्‍व शक्तियों पर भी अधिकार कर सकता है|

सहस्रार चक्र का स्थान, अधिपति, देवता, देवता की शक्ति, यंत्र, कमलदलों पर अक्षरों का न्यास आदि निम्नलिखित हैं-

यौगिक नाम - सहस्रार योग चक्र (नाना प्रकार के रंगों से युक्त चक्र ही सहस्रार चक्र हैं)
स्थान - मस्तिष्क
यंत्राकृति - शिव (परमशिव व उनकी शक्तियां)
यंत्र वर्ण - अनंत (परम तेजोमय, सुवर्णिम)
बीज मंत्र - विसर्ग
बीज वर्ण - तेजोमय
दलों के अक्षर - अं से क्षं तक
वाहन - बिंदु
चक्र गुण - प्रत्येक कार्य (समर्थ-सर्व सिद्ध)
तत्व - प्रत्येक तत्व
तत्वरूप - प्रत्येक रूप
गुण - चित्त
ज्ञानेन्द्रिय - मस्तिष्क
कर्मेन्द्रिय - समाधि ज्ञान
वायु - उदान
लोक - सत्य
ग्रह - शनि
देव - परब्रह्म
देव शक्ति - महाशक्ति
शक्ति के वर्ण - ह्रीं
कमलदल - सहस्र
दल वर्ण - श्‍वेत
मुद्रा - योनि
अनुभूति-स्वाद - अवर्णनीय
प्रहरी देवता - अर्द्धनारीश्‍वर
मंत्र - ह्रीं श्रीं हुं फट् (महामृत्युंजय)
मंत्र संख्या - एक हजार
मंत्र देवता - गायत्री-महामृत्युंजय
मंत्र संख्या - एक हजार
मंत्र देवता - गायत्री,-महामृत्युंजय (संबंधित उपासना मंत्र)
ध्यान की प्रवृत्तियां - योगिराज

साभार : भारतीय संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ हैं, फेसबुक 

Wednesday, July 25, 2012

प्राचीन भारत में गणित विज्ञान की प्रगति


गणित वेदांग साहित्य का मुख्य क्षेत्र था और इस में अंक गणित, बीज गणित, रेखागणित, तथा खगोल शास्त्र शामिल थे। वैदिक काल से ही भारत गणित तथा खगोल क्षेत्र में विश्व के अन्य देशों से बहुत आगे था। भारतीयों के लिये गौरव की बात है कि भारत की ऐक महिला शकुन्तला देवी मौखिक ही जटिल गणनाओं को क्मप्यूटरों से भी तीव्र गति से हल कर के वैदिक गणित का कमाल विश्व भर के गणितज्ञ्यों के सामने आज भी प्रत्यक्ष कर दिखाती हैं।
समझने की दृष्टि से गणित ने भौतिक यथार्थ तथा अध्यात्मिक ज्ञान के मध्य में सेतु का कार्य किया है। वैदिक गणित पद्य में संकलित है जो कि पाश्चात्य गणित से भिन्न रूप में है। यह सूक्षम तथा सक्षम है। यूनानी गणित की अपेक्षा वैदिक गणित के सूत्र सरल और स्पष्ट हैं। आर्य प्रारम्भ से ही प्रत्येक कार्य करने से पूर्व उचित समय निर्धारित करने के लिये नक्षत्रों की चाल तथा दशा के प्रति सजग रहे हैं। आर्य 1012 तक गिन सकते थे जब कि यूनानी केवल 104 तक और रोमन 108 तक ही गिन सकते थे। 
प्राचीन गणित साहित्य
भारत के गणितिज्ञ्यों ने अपनी पद्धति पद्य में अपनायी थी तथा उसे कलात्मिक छवि प्रदान की थी जो उन की विश्षेता थी। गणित सम्बन्धित सब से प्राचीन साहित्य ‘बकशाली हस्त-लेख’ है जो 1881 ईसवी में तक्षशिला के समीप बकशाली नामक गाँव में पाये गये थे। अन्य प्राचीन कृति आचार्य महावीर लिखित गणितसार संगृहम है जिन का जीवन काल लग भग ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य के मध्य का है। अक्षर-लक्षण-गणित-शास्त्र में गणित, 84 प्रमेयों (थियोरम्स) तथा पद्धतियों का उल्लेख है।
अंकों का मूल्यांकन
एक से ले कर 9 तक के अंक तथा - शून्य का अंक - भारत की ओर से गणित और विज्ञान के क्षेत्र में सर्वोपरि योगदान है।भारतीय गणितिज्ञ्यों ने अंकों को केवल गिनती करने के लिये उन के आकार को ही नहीं समझा, अपितु उन्हें गुणवाचक और भाव-वाचक संज्ञा के रूप में भी जोडा। रोमन अंकों की तुलना में भारतीयों ने अंकों को चिन्ह के साथ साथ ‘स्थान’ को भी महत्व प्रदान किया। पहले, दूसरे, तीसरे और इसी तरह आगे सभी स्थानों पर लिखे गये अंकों का अपना अपना महत्व है।
विश्व भर में बुद्धिजीवी चिन्हों के माध्यम से गिनती करने में जूझते रहे परन्तु सफलता तभी हाथ लगी जब भारतीयों दूारा अकों के अविष्कार करने के बाद उन को  स्थान के मुताबिक प्रयोगात्मिक कर के साकार किया गया। यदि यह घटना घटित नहीं होती तो गणित और कम्पयूटर के साथ जुडी हुई कोई भी प्रगति नहीं होनी थी। भारत के गणितिज्ञों नें अंकों के ‘स्थान’ अनुसार मूल्याँकन कर के समस्या का समाघान किया। संख्या में दाहिनी ओर का प्रथम अंक 1 के गुणनफल को, दूसरा अंक 10 के गुणनफल को, और तीसरा अंक 100 के गुणनफल को व्यक्त करता है। इसी क्रम से भारतीय गणितिज्ञ्यों ने असंख्य अंकों तक का गुणनफल निकालना सरल कर दिया। प्रत्येक अंक को ऐक क्रम बाँये खिसका कर दस गुणा मूल्य प्रदान कर दिखाया। इसी पद्धति को जब कम्पयूटरों में इस्तेमाल किया गया तो बाईनेरी के दो अंको को आधार माना गया जिन को ऐक स्थान बाँये खिसकाने से अंकों का योगफल दोगुणा हो जाता है। प्रसिद्ध मोरोकन-फराँसिसी गणितिज्ञ्य जार्ज इफरा के कथनानुसार समस्त विश्व में भारतीय अंक गुणवत्ता में अति सक्षम हैं।
शून्य की उपलब्द्धि
भारतीय गणितिज्ञ्यों की अति महत्वशाली उपलब्द्धि ‘शून्य’ का अविष्कार थी जिस के सहारे आज का विज्ञान आकाश की ऊचाईयों को छूने को तत्पर है। सर्व प्रथम शून्य अंक के प्रयोग का उल्लेख ईसा से 200 वर्ष पूर्व के धार्मिक ग्रँथों सें मिलता है। शून्य का अर्थ है - ‘कुछ नहीं’। पहले शून्य अंक ऐक बिन्दी के चिन्ह से दर्शाया जाता था। तदन्तर उस का आकार ऐक छोटे वृत की शक्ल का हो गया। इसी रूप में शून्य को अन्य अंकों की तरह से ऐक ‘अंक के तौर पर’ स्वीकार कर लिया गया।
ईशवासोपनिष्द उपनिष्द में शून्य की सुन्दर परिभाषा इस प्रकार की गयी है कि “पूर्ण (अनादि ब्रह्म) से यदि पूर्ण को निकाल लिया जाये तो भी पूर्ण ही शेष बचे गा ”। यह परिभाषा पाश्चात्य जगत के गणितिज्ञ्य केन्टर के इनफिनिटी सिद्धान्त की परिभाषा की अग्रज है।
भारतीयों ने शून्य अंक का केवल अविष्कार ही नहीं किया अपितु उस के आधार पर पूर्ण पद्धति का निर्माण किया। शून्य के क्रियात्मिक प्रयोग को ब्रह्मगुप्त नें आज से 1500 वर्ष पूर्व साकार किया था। शून्य का ऐक अंक के तोर पर इस्तेमाल, शून्य का नकारात्मिक अस्तित्व, तथा अन्य अंकों की पंक्ति में स्थान और उस का मूल्यांकन – यह तीनों अवस्थायें शून्य के अविष्कार तथा प्रयोग की महत्ता को दर्शाती हैं। ‘दशमल्व पद्धति’ भी उसी श्रंखला की ऐक कडी थी।
दशमलव पद्धति
पाश्चात्य देशों को भारत की दशामलव उपलब्धी का आभारी होना पडे गा जो वास्तव में किसी ‘अनामिक भारतीय’ की खोज है। यह उपलब्धी नौ अंकों के पश्चात शून्य तथा दशामलव की है। दशमलव के बिना आधुनिक युग की सभी प्रगतियाँ निर्रथक हो जातीं जिन में कम्पयूटर्स भी शामिल हैं।
  • पाँचवी शताब्दी में आर्य भट्ट ने दशमल्व पद्धति का प्रयोग किया था।
  • उस के पश्चात ब्रह्मगुप्त ने दशमलव के प्रयोग सम्बन्धी नियम बनाये जो आज भी मान्य हैं।
गणित क्षेत्र का विस्तार विकास
अरब वासियों ने भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे ’ (भारत से) कह कर अपनाया और इस ज्ञान को अफरीका तथा योरूप में ले कर गये। किन्तु योरूप वासियों ने इन अंकों को भ्रम के आधार पर अरेबिक संज्ञा दी जो अशोक स्तम्भों पर लिखित थे। भारतीय पद्धति की तुलना में रोमन अंक पद्धति जटिल और सीमित होने के कारण विज्ञान की जरूरतों में असफल रही है।
खगोल जानकारी के लिये भारतीयों ने गणित के क्षेत्र में विस्तार तथा विकास कर के त्रिकोणमिति(ट्रिगनोमेट्री) तथा केलकुलस आदि को भी जन्म दिया। ‘असंख्य’ के जिस चिन्ह (लेमीस्केटस) का प्रयोग अंग्रेज गणितिज्ञ्य जोन वालिस ने 1655 ईस्वी में किया था उसी प्रकार का चिन्ह भारत के पौराणिक साहित्य में ‘अन्नत’ तथा ‘आदिशेष’ के लिये प्रयोग किया जाता है और उस का अर्थ असंख्य तथा अन्नत है । यह चिन्ह धरातल पर ‘8’ के अंक के समान होता है और लेमीस्केटस की तरह है। 
अंक गणित
आर्य भट्ट, ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य नें अंकों के नकारात्मिक स्थान की पद्धति का प्रचलन किया। उन्हों ने आठवीं शताब्दी में 2 का वर्गमूल निकाला और उस का समाधान किया। उन्हों  ने माध्यमिक समीकरणों(इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) को भी दूसरे दर्जे तक सुलझाया जो कि योरूप के तत्कालिक गणितिज्ञ्य नहीं जानते थे। उन को यह भेद एक हजार वर्ष पश्चात इयूलर के समय ज्ञात हुआ था। भास्कर ने रेडिकल चिन्ह का प्रयोग भी किया तथा अंक गणित के और  कई चिन्ह बनाये। बौद्धयान कृत सुल्भसूत्र में पायथागोरस की थियोरम का पूर्वाभास मिलता है। उन्हों ‘ल2’ का वर्गमूल भी निकाला था।
भारतीय गणितिज्ञ्य
आर्य भट्ट का जीवन काल 475 – 550 ईस्वी का है तथा वह केरल निवासी थे। उन्हों ने नालन्दा में शिक्षा पाई थी। गणना (केलकूलेशन) विभाग में उन्हों ने खगोल शास्त्र खण्ड में मौलिक खोज की। जीवा (का्र्डस)की लम्बाई निकालने के लिये अर्ध-जीवा का प्रयोग किया जब कि यूनानी गणितिज्ञ्य पूर्ण-जीवा का ही प्रयोग करते थे। आर्य भट्ट ने पाई ’ की माप 3.1416 तक निकाली। वर्गमूल निकालने के मौलिक सिद्धान्त बनाये तथा मध्यवर्ती समीकरण (अर्थमेटिक सीरीज इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) ‘अ ज – ब व बराबर ख’ और साईन तालिकाओं (साईन टेबलस) का निर्माण भी किया।
ब्रह्मगुप्त का जीवन काल 598 – 665 ईस्वी का है। उन्हों ने नकारात्मक अंकों तथा शून्य का प्रयोग गणित में किया। उन की कृति ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त है जो कि अन्य प्राचीन कृति ब्रह्मसिद्धान्त का शोधन है। इस ग्रन्थ को कालान्तर अरबी भाषा में ‘सिन्द-हिन्द’ के नाम से ख्याति मिली। ब्रह्मगुप्त ने तीन का सिद्धानत और चतुर्भुजी ऐकालिक समीकरण (क्वार्डिक एण्ड साईमल्टेनियस ईक्वेशनस) को सुलझाने सम्बन्धी नियम बनाये। वह प्रथम गणितिज्ञ्य थे जिन्हों ने गणित तथा अंक गणित का विभागी करण किया तथा दोनो को प्रथक अंग माना। उन्हों ने मध्यवर्ती समीकरण (इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) ‘अxब=ब2’ को सुलझाया। वह अंक विशलेशण ज्ञान के भी अग्रज थे।
महावीराचार्य ने 850 ईस्वी में गणित-सार सँग्रह लिखा जो विश्व में गणित विषय की प्रथम उपलब्ध पुस्तक है। वह ऐकमात्र भारतीय गणितिज्ञ्य थे जिन्हों ने ग्रहण का प्रथम बार उल्लेख किया है जिसे आयतवृत कहा गया है।
भास्कराचार्य भारत के सर्वाधिक मशहूर गणितिज्ञ्य थे। वह 1114 ईस्वी में बिजडाबिदा (आधुनिक बीजापुर, कर्नाटक) में पैदा हुये थे। उन्हों ने सर्वप्रथम कहा कि “यदि किसी अंक को शून्य से विभाजित किया जाय तो विभाज्य भी शून्य होगा” तथा “असंख्य बार शून्य को जोडने का योगफल शुन्य ही होगा ”। भास्कराचार्य को डिफरेंशियल केलकूलस का जनक कहा जा सकता है तथा रौल्स प्रमेय (थि्योरम) का अग्रज। यह दुर्भाग्य था कि अन्य भारतीय गणितिज्ञ्यों ने इस उपलब्धी के महत्व को नहीं समझा और उस का कोई लाभ नहीं उठाया। पाँच शताब्दी पश्चात न्यूटन तथा लेबनिज ने उन के विचार को विकसित किया।भास्कराचार्य ने 1150 ईसवी में सिद्धान्त-शिरोमणि ग्रन्थ की रचना की जिस के चार भाग इस प्रकार हैं-
  • लीलावती – गणित की लोकप्रिय पुस्तक।
  • बीजगणित – इस खण्ड में चक्रावल पद्धति से अंकगणित के समीकरणों (इक्वेशनस) को सुलझाया। छः शताब्दी पश्चात योरूप के गलोईस, इयुलर, लगारंगे इत्यादि पाश्चात्य गणितिज्ञ्यों ने भास्कराचार्य की पद्धति का पुनार्वलोकन कर के विपरीत चक्रवाल (इनवर्स साइकलिक) पद्धति का निर्माण किया।
  • गोलाध्याय – खगौलिक गोलाकार (स्फीयर सलेस्चियल गलोब) का वर्णन किया है।
  • ग्रह गणित – खगोल शास्त्र के ग्रहों का ब्योरा।
अंक गणित
भारतीय आधुनिक गणित, अंक गणित और रेखा गणित के जनक थे। योरूपवासियों को अंकगणित अरब वासियों की मार्फत मिला जिसे वह ‘अलजबर’ (अडजस्टमेन्ट) कहते थे। यूनानी गणितिज्ञ्य  106 तक के अंकों को गिन सकते थे और रोमन 108 तक जब कि ईसा से 5 हजार वर्ष पूर्व भारत के गणितिज्ञ्य  53 की दसगुणा शक्ति तक का गणन कर सकते थे। वर्णाक्षरों, चिन्हों का प्रयोग कर के गणितिज्ञ्य असंख्य गणनाओं को दर्शा सकते थे जो कि आज गणित तथा अंक गणित की आधारशिला हैं। हिन्दू गणितिज्ञ्य असंख्यों को चिन्हों के माध्यम से स्पष्ट करने में अग्रज तथा सक्षम थे।
कल्प-ज्योत्मिती - रेखा गणित
वैदिक काल में पूजा के लिये वेदियाँ तथा बलि स्थल ज्योत्मिती (रेखागणित - ज्योमैट्री) के रेखा चित्रों के आकार के ही बनाये जाते थे। वेदियों की आकर्तियाँ रेखा गणित की गणना के अनुकूल बनतीं थीं तथा उन की दिशायें माप दँण्ड के अनुसार ही निर्माण की जाती थीं। ईंट पत्थर के आकार, माप दण्ड तथा संख्या पूर्व निर्धारित होती थी। आकर्तियों का धरातल इस प्रकार निर्मित किया जाता थी कि उन का आकार बदले बिना उन के क्षेत्र का विस्तार किया जा सकता था जिस के लिये रेखा गणित के विस्तरित ज्ञान की आवश्यक्ता पडती थी। ऱेखा गणित को ‘कल्प’ कहा जाता था।    
आर्य भट्ट ने त्रिभुज का तथा आयाताकार का क्षेत्रफल निकालने की विधि का अविष्कार किया। उन्हों ने ऐक सूत्र में वृत की परिधि (त्याज्ञ्य) मापने की विधि भी दर्शायी जो चार दशामलव अंकों तक सही है। सुलभ सूत्र में रेखा गणितानुसार वेदियां बनाने का विस्तरित वर्णन है जो आयत, वर्ग, चतुर्भुज, वृत, अण्डाकार (ओवल)आकार की बनायी जा सकतीं थी तथा उन का क्षेत्रफल और आकार वाँच्छित तरीके से अदला बदला जा सकता था।
लगे हाथों महाभारत में दु्र्योद्धन की रेखा गणित सूक्षमता की तारीफ भी करनी चाहिये जब उस नें पाण्डवों को ‘सूई की नोक तले आने वाली भूमि’ देने से भी इनकार कर दिया था। उस का वक्तव्य सूक्षम्ता और स्पष्टता के माप दण्ड को दर्शाता है।
भारतीय गणित के बिना आज की वैज्ञिानिक प्रगति असम्भव थी।
साभार  धन्यवाद : चाँद शर्मा

Tuesday, July 24, 2012

विनीत कुमार सिंह: १९८४ में दिल्ली में कुछ हुआ था क्या?

विनीत कुमार सिंह: १९८४ में दिल्ली में कुछ हुआ था क्या?: जब मैं ६ महीने का हुआ था तभी हुआ एक दंगा वो भी देश की राजधानी में और अब २८ साल होने को आये लेकिन किसी भी दंगा पीड़ित को न्याय नहीं मिला...

महाराणा प्रताप का जीवन संघर्ष



लोक नायकों को न तो काल समय के बंधन में बाँधा जा सकता है न ही इतिहास के कारागार में बंद रखा जा सकता है। वे तो लोक के प्रेरणा पुरुष होते हैं। लोक उनके यशोगान को पीढी-दर-पीढी गाता, सुनाता और सुनता रहता है। ऐसे लोक पुरुष जहाँ हमारे अतीत का गौरव होते हैं वहीं हमारे वर्तमान के प्रेरक भी होते हैं। मेवाडाधिपति दाजी राज महाराणा प्रताप उन प्रेरणा पुरुषों में अपना सर्वोपरि स्थान रखते हैं। उनके संघर्षमय जीवन के अनेक प्रसंग अत्यन्त प्रेरणास्पद हैं।
युद्ध करते-करते राणा प्रताप पूरी तरह से निराश हो चुके थे। सन् 1576 ई. के हल्दीघाटी युद्ध ने राणा को बुरी तरह तोडकर रख दिया था। अकबर और राणा के बीच वह युद्ध महाभारत युद्ध की तरह विनाशकारी सिद्ध हुआ। उस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न राणा हारे, ऐसा माना जाता है। मुगलों के पास सैन्यशक्ति अधिक थी तो राणा के पास जुझारूशक्ति अधिक थी। इसी युद्ध में बडी सादडी के जुझारू झाला सरदार मान सिंह बीदा ने राणा की पाग लेकर उनका शीश बचाया। राणा अपने बहादुर सरदार का जुझारूपन कभी नहीं भूल सके। उसी युद्ध में राणा का प्राणप्रिय घोडा चेटक अपने स्वामी की रक्षा करते हुए शहीद हो गया। उसी युद्ध में उन्हें अपना बागी भाई शक्ति सिंह आ मिला और उनकी रक्षा में उसका भाई-प्रेम उजागर हो उठा। शक्ति सिंह ने उसी युद्ध में मेवाड की रक्षा का प्रण किया और अपना घोडा ‘अंकारा’ (नाटक) घायल राणा को देकर सुरक्षित निकल जाने का वंश धर्म निभाया।

हल्दी घाटी के महायुद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप नितांत अकेले रह गए। उन्हें उस दौरान जो दुर्दिन देखने पडे वे किसी भी मानव को हताश कर देने के लिए पर्याप्त थे। ऐसे ही कुसमय में एक घटना महाराणा के जीवन में घटित हो गई।

‘‘भंडार में अन्न का एक दाना भी नहीं था कहीं से व्यवस्था का आधार भी नहीं था। जैसे-तैसे (माल धान) घास बीज एकत्र् कर उन्हें कूट-पीस कर एक रोटी बनाई जा सकी। वह रोटी कुँवर हाथ में लेकर खाना ही चाहता था कि उसके हाथ से वह घास बीज की रोटी बन बिलाव (मार मीनका) झपट कर भाग गया।

घास बीज की उस रूखी रोटी के हाथ से छिन जाने पर कुँवर जोर-जोर से बिलख पडा। अपने कुँवर की उस दयनीय दशा को देख कर राणा विचलित हो उठे। उनका मन विषाद् से भर उठा। अपने जीवन के दुष्कर संघर्षों का एक चलचित्र् उनके स्मृति पटल पर घूम गया। उसी निराशा और हताशा के कारण उन्हें युद्ध और विनाश के प्रति विरक्ति हो उठी। ठीक उसी समय अकबर का दूत संधि का प्रस्ताव लेकर उनके पास आ पहुँचा। महाराणा का अवसाद से भरा मन डाँवा डोल हुआ, किन्तु तत्काल उनका राजपूती संकल्प उजागर हो उठा। उन्होंने दूत के सामने अकबर को खूब फटकार लगाई और वहाँ से चले जाने को कहा। दूत ने निवेदन किया, मेरी हाजिरी प्रमाणित करने के लिए आप इस कागज पर अपनी निशानी लगा दो। राणा ने निशानी लगा दी और दूत को रवाना कर दिया। उसी पत्र् को अकबर ने महाराणा का सहमति-पत्र् मान लिया।

महाराणा प्रताप द्वारा लौटाया हुआ संधि पत्र् पढ कर अकबर का चेहरा खिल उठा। उसे तो मन की मुराद ही मिल गई थी। उसी समय अकबर ने अपने दरबारी पीथल को बुलवाकर वह संधि पत्र् दिखाते हुए कहा।

‘‘मूँ आज बादशाह धरती रो, मेवाडी पाग पगाँ में है।
बतला अब किण रजपूतण रो, रजपूती खून रगाँ में है।’’
(संघर्ष गाथा, पद 73)

पीथल भले ही अकबर का दरबारी था, किन्तु वह महाराणा प्रताप का यश गायक भी था। पीथल भरे दरबार महाराणा की यश गरिमा का बखान करता था और उन्हें ‘मेवाड धणी’ कहने तक से नहीं चूकता था। अकबर की उस दंभोक्ति को सुनकर पीथल ने अकबर से कहा कि यह पत्र् झूठा है। यदि सच निकला तो मैं अपनी मूँछें नीची कर लूँगा और अपने हाथ से अपना सिर काटकर अपनी इष्ट देवी शक्ति अम्बा के चरणों में निछावर कर दूँगा। पीथल ने तत्काल महाराणा के प्रति पत्र् लिख कर अपने दूत द्वारा भिजवाया और उस पत्र् द्वारा महाराणा के उस संधि पत्र् पर आश्चर्य प्रकट करते हुए लिखा कि -

‘‘मैं कसी सुणी, मेवाड धणी, अकबर ने कागद भिजवायो।
मैं कसी सुणी, के नाहरडो, मुगलाँ रा पिंजरा में आयो।
मैं कसी सुणी, राणा प्रताब, रजपूती रण ने छोड गई।
मैं कसी सुणी, मेवाड धणी, मूँछा री मोठ मरोड गई।
मैं कसी सुणी, सूरज औचक, धरती के ऊपर टूट पडयो।
मैं कसी सुणी, रजपूताँ री, तरवाराँ ऊपर जंग चढयो। (संघर्ष गाथा, पद 102-105)

अपने उस वीरोत्तेजक पत्र् में पीथल ने अपना धर्म निभाते हुए प्रताप को खूब उल्हाने दिए और निर्णय पर फिर से विचार करने की ताकीद भी की।

‘‘पीथल री अरजी धीरो वै हुण लीजो हे मेवाड धणी।
रण में जूझारा वै जाजो, पण मति कहिजो थे खमाघणी।।
कागद भणता हे दाजी राज, थें होच हमज करजो वचार।
कायर को मरणो नत दन को, सूरा रण जूझे एक बार।। (संघर्ष गाथा, पद 120-121)

और इतना संदेश देने के बाद पीथल राणा से कहता है कि मेरी प्रतिज्ञा है कि, यदि यह संधि पत्र् सच हुआ तब मैं अपनी मूँछें नीची कर लूँगा और अपना सीस काटकर जगदम्बा के चरणों पर चढा दूँगा। इसलिए हे महाराणा ! आप विचार करके मुझे जवाब भेजना -

‘‘मूछाँ ने रेटाँ करूँ, के मूंडे धरूँ रुवाब ।
होच हमज ने हे धणी, तुरताँ देओ जुवाब ।’’ (संघर्ष गाथा, पद 122)
तथा
‘‘माथ कटा हाथाँ धरूँ, मूछाँ धरूँ रुवाब ।
इण दो वाताँ एक सच, लिख भेजो परताब ।। (संघर्ष गाथा, पद 123)

पीथल का वह वीरोत्तेजक पत्र् पढते ही महाराणा प्रताप के भीतर वीरता का सूर्य उदय हो गया। उन्होंने पीथल को उत्तर लिखकर विश्वास दिलाया कि, ‘‘पीथल तुम अपने राणा पर भरोसा रखो। मैं फिर एक बार रणभूमि में हुँकार भरकर अकबर को ललकारूँगा। मैं कभी भी अकबर से संधि नहीं करूँगा। सुनो पीथल ! ऐसा दिन आने से पहले मेरा सिर कट जाएगा। पीथल तुम विश्वास रखो अभी रजपूतों की रजपूती नहीं मरी है। सारे रण बाँकुरे योद्धा हाथों में तलवारें लेकर रणभूमि में डट जाएँगे और दुश्मन के छक्के छुडवा देंगे।

‘‘ऊ दन आयाँ पेलाँ, पीथल माथो म्हारे कट जावे ला।
जोसीली फोज बणा जोधा, करवालाँ ले डट जावेला।।
थें बीसासा रइजो पीथल, राणो रण में हुँकारेला।
तन पे माथो रेहताँ पीथल, राणो हिम्मत नी हारेला।।
थें ताव धरो मूछाँ ऊपर, मूंडा पे हूरज भलकाओ।
जस गाता रो मेवाडी रो, थें रणवीरां ने वरदाओ।।’’ (संघर्ष गाथा, पद 128-131)

इस प्रकार एक दुर्घट प्रसंग सुघट बन गया। इस समूचे प्रेरक प्रसंग को लोक ने अपनी वाणी में सहेज कर रखा था। ऐसी कई ‘लोक गाथाएँ’ एवं ‘यश गाथाएँ’ लोक कवियों ने अपने-अपने स्तर पर रची हैं। लोक ने उन्हें गाया भी है। संगृहीत भी की हैं तथा लोकमानस में उत्साह का संचार भी किया है। जितना लोक साहित्य महाराणा प्रताप के जीवन संघर्ष पर रचा गया है उतना अन्य किसी भी लोक नायक पर नहीं रचा गया। संगृहीत गाथा उनमें से एक है। या कहूँ कि, लोक सागर से प्राप्त एक मात्र् बूँद है। एक ऐसी उत्तेजक बूँद जो किसी भी कायर को वीर बना देने में सक्षम है।
महाराणा प्रताप की प्रेरक घटनाएँ सुना-सुनाकर ही शिवाजी की माता जीजाबाई ने बालक शिवा के मन में वीरत्व भाव के बीज बोए थे। महाराणा की ही वीर गाथाओं ने बंगाल में स्वतंत्र्ता की ज्वाला धधकाई। भारत का प्रथम स्वतंत्र्ता संग्राम पूरी तरह से इन दो वीर नायकों के संघर्षमय जीवन की लोक कथाओं और गाथाओं से अभिप्रेरित था। स्वयं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप और शिवाजी से प्रेरित थी। वह उन्हें अपना आदर्श मानती थी। मालवा, महाराष्ट्र, नीमाड, गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक तक महाराणा प्रताप की वीर गाथाएँ लोक प्रचलित हैं। जिन्हें गा-गाकर लोक जीवन प्रेरणा प्राप्त करता है। ऐसी ही यह सेनाणी भी है। जिसने महाराणा प्रताप के संघर्ष को पुनर्जीवन प्रदान किया।

‘‘महाराणा ने लिख दियो, उच्छाह भरो जुवाब ।
पीथल मूँछा बट धरो, मूडे राखो आब ।।’’ (संघर्ष गाथा, पद 133)

पीथल को महाराणा दाजी राज ने उत्साह जनक जवाब भेज कर कहलवा दिया कि ‘‘पीथल तुम मूँछों पर खूब बट लगाओ और मुँह पर चमक रखो।’’ इस तरह महाराणा दाजी राज ने पीथल को आश्वस्त कर तो दिया, किन्तु उस आश्वासन को कार्य रूप में परिवर्तन करना बहुत कठिन काम था। अकबर से लडा गया हल्दीघाटी युद्ध भले ही बिना किसी अंतिम निर्णय के समाप्त हो गया था, किन्तु महाराणा के पास न धन था, न सैनिक और न जुझारे सामंत-साथी। कुछ मारे गए, कुछ भूमिगत हो गए, कुछ मुगलों के शरणागत भी हो गए।

समय बहुत बलवान होता है। जिस महाराणा प्रताप के खंखारने मात्र् से दुश्मन का कलेजा थर्रा उठता था। जिस प्रताप के भाले का भलकारा देखकर सूरज भगवान भी रुक कर अपने वंश को आशीर्वाद दिए बिना आगे नहीं बढते थे वही सूरज उन पर आग बरसा रहा था। छाया और माया सब समाप्त हो गई थी। जिस प्रताप के नाम से अकबर बादशाह तक का कलेजा काँपता था। जिस अकबर को सपने में भी महाराणा प्रताप का भय बना रहता था और वह नींद में चौंक-चौंक पडता था। जैसा कि डिंगल के एक कवि ने कहा भी है -

‘‘जामण जणे तो पूत जण जेहडो राणा प्रताप ।
अकबर सूत्यो ऊझके, जाण सिराणे साँप ।।’’

ऐसे महाराणा की हार पर हल्दी घाटी का पत्थर-पत्थर सुबक उठा था। वह प्रताप न तो हारा, न टूटा और न झुका। पीथल जैसे सचेतक हितैषी उनका उत्साह जीवित बनाए रखने में सदा जागरूक बने रहे।

प्रताप के खास साथी आपस में मिले और राय की कि, अपनी युद्ध शक्ति इकट्ठी करने का प्रयत्न करें। सभी अज्ञातवास में चले गए। महाराणा के परिवार को एक भील ठिकाने में रख लिया गया। स्वयं महाराणा वेश बदल कर एक भडभूजे की भाड पर रहने लगे। भडभूजे की भाड गाँव के आखिर में थी। वहीं से जंगल शुरू होता था।

एक दिन भील सरदार राणा पुंजा नरपत और बादशाह अकबर का राजकवि पीथल परस्पर दोनों मिले और राय की कि, यूँ पडे रहने से तो उत्साह समाप्त हो जाएगा। चारों तरफ अकबर की दुहाई फिर जाएगी, ऐसी राय बना, दोनों वहाँ से चले और भडभूजे की भाड से थोडी दूर एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। क्या देखते हैं कि, मेवाडाधिपति दाजीराज प्रताप भाड झोंक रहे हैं। दोनों की आँखों में तराइयाँ भर आईं। पीथल बोला, ‘‘नरपत पुंजा न्हार ने फेर जगाणो पडेगा।’’ नरपत ने सिर हिला कर सहमति जताई, दोनों सरदार बने महाराणा प्रताप के पास पहुँचे। तीनों ने एक दूसरे को पहचाना। आँखों- आँखों में अभिवादन किया। पीथल, संकेत देकर वहाँ से जंगल की ओर चल दिया। महाराणा और राणा पुंजा भी उसके पीछे-पीछे चल दिए। तीनों परस्पर गले मिले। बात विचार होने लगा।

‘‘तीन मल्या ताकत बणी, अजब बणायो वेस।
तीनई ने यूं जाणजो, बरमा, बिसन, महेस।।’’ (लोक)

महाराणा के भीतर लावा धधक रहा था, लेकिन उस पर पराजय की परतें चढ चुकी थीं। अब यह ज्वालामुखी फूट पडना चाहिए, यही सोच कर दोनों आए थे।
पीथल ने कहा, ‘‘दाजी राज अब यह झोंकण्ये का वेश उतार फेंको और अपना सैनिक वेश धारण करो। आफ सभी अस्त्र्- शस्त्र् जिरह बख्तर उसी तरह तिलमिला रहे हैं जिस प्रकार अज्ञातवास में शमी वृक्ष पर रखे अर्जुन के अस्त्र्-शस्त्र् तिलमिला रहे थे। ‘अंकारा’ धरती खोद रहा है। उसमें लगता है चेतक की आत्मा समा गई। सारा मेवाड आपकी हुँकार सुनने को आतुर हो रहा है। वन के पशु-पक्षी तक आफ घोडे की
टापें सुनने को तरस गए हैं। भील युवक और युवतियाँ आफ हाथ में भाले का भलकारा देखने को विह्वल हैं। उनके तरकसों में तीर व्याकुल हो रहे हैं। उनका हाथ बार-बार अपने धनुष पर चला जाता है। जागो महाराणा जागो। चेतो मेवाड धणी चेतो।’’

मेवाड सपूत बप्पा रावल का यश और साँगा का साहस आपको ललकार रहा है। स्वयं सूरज भगवान आफ भाले पर विराजमान हो चुके हैं। अरे महाराणा*! आप तो सदा अपराजित रहे हो। हल्दीघाटी में तो आपका भाला शत्र्ु की छाती से एक बालिश्त ही दूर रह गया था। आफ उस युद्ध कौशल की प्रशंसा तो आफ बैरी भी करते नहीं थकते। मुगल तो आज भी उस दृश्य को याद करके दहल उठता है। हे महाराणा, आप तो नौ गजे हो और अकबर तो एक गजा भी नहीं है। आफ सामने अकबर की क्या बिसात*? सच तो यह है कि, राजपूत ही राजपूत का बैरी हो उठा है। अकबर चतुर चालाक है। वह लोहे से लोहा कटवाता है। वह राजपूतों को आगे रखता है और मुगलों की सेना को पीछे रखता है। राजपूतों की तो आगे भी मौत और पीछे भी मौत। आप यह खेल मत खेलो। भले ही राजपूत दुश्मन हैं तब भी राजपूत हैं। उन्हें काटने की बजाए मुगलों को काटकर आगे बढो। हे प्रताप, आप हल्दी घाटी हारे हो, संकल्प नहीं हारे। अपनी इसी हार से शिक्षा लेकर साहस बटोरो। न्हार जंगल में अकेला रहता है, तब भी वनराज कहलाता है। मेवाड आपका है, आपका ही रहेगा।

‘‘हल्दी घाटी हार्या, नी हार्या मेवाड ।
गाजो हे घनगाजणा, गजबी करो दहाड।।’’ (लोक)

पीथल ने जैसे ही बोलना बंद किया। राणा पुंजा नरपत बोल उठा, ‘‘महाराणा*! हम तीनों एक ही उम्र के हैं। हम मरेंगे तो मेवाड के लिए और जिएँगे तो मेवाड के लिए। हल्दी घाटी में आपने भील योद्धाओं के जौहर अच्छी तरह से परख लिए हैं। यह मेवाड तो कल भी भीलों का था और आज भी भीलों का है। मेवाड आफ पास हमारी अमानत है। मेवाड हमने बप्पा रावल से हारा नहीं था। तब हमारी शक्ति बँटी हुई थी। बप्पा तो बप्पा ही था। हम भील बप्पा को अपना मानते थे। हमने ही उन्हें सम्मान में बप्पा कहा वर्ना वह तो गुहिल था। यदि आप हमें कहने की आज्ञा दें, तो कह सकते हैं कि, हम भील भी गुहिल ही हैं। मेवाड जातियों पर नहीं बलिदानों पर टिका है। जुझारों के यश पर टिका है। हमने अपने बप्पा को अपना राजा मान लिया। बप्पा ने भी सदा भीलों का मान रखा। जब भी मेवाड पर संकट आया भील उगाडी (खुली) छाती तान कर लडे। जब राणा साँगा ने बाबर को खानवा में ललकारा तब भी भील ही उनके साथ खडे थे। भील डटे रहे, राजपूत हट गए। अगर उस समय राजपूत भी डटे रहते तब आप हिन्दुस्तान परहत्था (परवश) नहीं होता। आज भी भील आफ साथ खडे हैं। मैं भीलों का सरदार पूंजा नरपत भरोसा दिलाता हूँ कि, मेवाड के भीलों का बच्चा-बच्चा और युवा-वृद्ध मेवाड की रक्षा हेतु मरने-मारने के लिए एकदम तैयार है। आप तो हुँकार भरो। चौदह वर्ष से लगातार पचहत्तर वर्ष की आयु तक के भील और भीलनियाँ मेवाड पति की ललकार की प्रतीक्षा कर रहे हैं। न तो रसद की कमी है और न हथियारों की। गाँव-गाँव ढाणी-ढाणी युद्ध शिविर बन चुका है। आप गुप्त बने रहो। योद्धाओं की हिम्मत बँधाते रहो। मेवाड तो कल भी आपका था, आज भी आपका है। एक सूरज उगने की देर है। अगली सुबह मेवाड फिर आपका ही रहेगा। केवल अंधेरी रात और उजाली रात का फर्क है। राय पक्की हो गई।

महाराणा ने छापा मार युद्ध छेड दिया। सादडी के झाला बीदा जैसे और भी जुझारू तैयार किए गए जो हूबहू महाराणा प्रताप दिखें। नाटक के रूप रंग के अश्व भी उन्हें दिए गए। मुगलों और अकबर के अन्य सामंतों से ठिकाने छीने जाने लगे। एक साथ महाराणा द्वारा अनेक स्थानों पर धावे पडने लगे। मुगल औचक थे। यह कैसे हो रहा है*?

धीरे-धीरे मेवाड का बहुत बडा इलाका महाराणा प्रताप के कब्जे में आने लगा। महाराणा की शक्ति बढने लगी, किन्तु बिना बडी सेना के शक्तिशाली मुगल सेना के विरुद्ध युद्ध जारी रखना कठिन था। सेना का गठन बिना धन के सम्भव नहीं था। राणा ने सोचा जितना संघर्ष हो चुका वह ठीक ही रहा। यदि इसी प्रकार कुछ और दिन चला तब संभव है जीते हुए इलाकों पर फिर से मुगल कब्जा कर लें। इसलिए उन्होंने यहाँ की कमान अपने विश्वस्त सरदारों के हाथों सौंप कर गुजरात की ओर कूच करने का विचार किया। वहाँ जाकर फिर से सेना का गठन करने के पश्चात पूरी शक्ति के साथ मुगलों से मेवाड स्वतंत्र् करवाना होगा।

महाराणा प्रताप अपने कुछ चुनिंदा साथियों को लेकर मेवाड से प्रस्थान करने ही वाले थे कि, वहाँ पर उनका पुराना खजाना मंत्री-नगर सेठ भामाशाह उपस्थित हुआ। उसने महाराणा के प्रति ‘खम्मा घणी’ करी और कहा, ‘‘मेवाड धणी अपने घोडे की बाग मेवाड की तरफ मोड लीजिए। मेवाडी धरती मुगलों की गुलामी से आतंकित है। उसका उद्धार कीजिए।’’

यह कहकर भामाशाह ने अपने साथ आए परथा भील का परिचय महाराणा से करवाया। भामाशाह ने बताया कि, किस प्रकार परथा ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर आफ पूर्वजों की गुप्त खजाने की रक्षा की और आज उसे लेकर वह आफ सामने उपस्थित हुआ है। मेरे पास जो धन है वह भी आफ पूर्वजों की दात है। मेवाड स्वतंत्र् रहेगा तो धन फिर कमा लूँगा। आप यह सारा धन ग्रहण कीजिए और मेवाड की रक्षा कीजिए। भामाशाह और परथा भील की देशभक्ति और ईमानदारी देखकर महाराणा का मन द्रवित हो गया। उनकी आँखों से अश्रुधारा फूट पडी। उन्हने दोनों को गले लगा लिया। महाराणा ने कहा आप जैसे सपूतों के बल पर ही मेवाड जिंदा है। मेवाड की धरती और मेवाड के महाराणा सदा-सदा आफ इस उपकार को याद रखेंगे। मुझे आप दोनों पर गर्व है।

‘‘भामा जुग-जुग सिमरसी, आज कर्यो उपगार ।
परथा, पुंजा, पीथला, उयो परताप इक चार*।।’’ (लोक)

हे भामाशाह, आपने आज जो उपकार किया है, उसे युगों-युगों तक याद रखा जाएगा। यह परथा, पुंजा, पीथल और मैं प्रताप चार शरीर होकर भी एक हैं। हमारा संकल्प भी एक है। ऐसा कहकर महाराणा ने अपने मन के भाव प्रगट किए। महाराणा प्रताप ने मेवाड से पलायन करने का विचार त्याग दिया और अपने सब सरदारों को बुलावा भेजा।
‘‘करि लीनो नृप हुकुम तेकं वीरन उचित प्रबंध।
किंधौ चढयो खल गिरिन पे, सुरन सहित सुर इन्द।।
सुभट सजे उमराव सह, संजुत भामा शाह ।
गोडवार की ओर तें, चढयो रान जय चाह ।।’’ (प्रताप चरित्र्, पद 752-754)

देव रक्षित खजाना और भामाशाह का सहयोग पाकर महाराणा का उत्साह और आत्मबल प्रबल हो गया। सामंतों, सरदारों, साहूकारों का सहयोग तथा विपुल धन पाकर महाराणा ने सेना का संगठन करना शुरू कर दिया। एक के बाद दूसरा और फिर सारा मेवाड उनके कब्जे में आता चला गया था। भामाशाह ने ईस्वी सन् 1578 में प्रताप को आर्थिक मदद देकर शक्तिशाली बना दिया था। धन की शक्ति भी बहुत बडा सम्बल होता है। महाराणा 1576 में हल्दी घाटी युद्ध हारे थे। 1576 से 1590 तक वे गुप्त रूप से छापामार युद्ध करते हुए तथा कई बार प्रगट युद्ध करते हुए विजय की ओर बढते रहे। सन् 1591 से 1596 तक का समय मेवाड और महाराणा के लिए चरम उत्कर्ष का समय कहा जा सकता है, किन्तु इस उत्कर्ष के बावजूद भी वे चैन की साँस नहीं ले पाते थे।
खोया हुआ मेवाड जीतकर भी महाराणा का मन सदा उद्विग्न बना रहता था। मेवाड तो जीत लिया, लेकिन चित्तौड नहीं जीत पाया, रणथम्बोर और कुम्भलगढ आज भी मुगलों के कब्जे में हैं। यह टीस सदा उनके मन को सालती रही। शरीर थकता जा रहा था। संकल्प अधूरे थे। जब वे भी चित्तौडगढ को देखते उनके भीतर आक्रोश की ज्वाला धधक उठती थी। उस ज्वाला को प्रगट करके शत्र्ु पर टूट पडने की शक्ति अब उनमें नहीं रह गई थी। अपने कुँवर अमर सिंह के प्रति भी वे आश्वस्त नहीं थे। यही पीडा उन्हें दिन रात सता रही थी। इसी चिन्ता के कारण वे तन और मन दोनों से क्षीण हो गए थे।
सन् 1597 ई. में जब महाराणा अपने वन दुर्ग चावण्ड में रोग शैय्या पर थे। तब उनकी उम्र 57 ही थी। लगातार युद्धों और अभावों की संघर्ष आपदाओं ने राणा को पूरी तरह भीतर से तोड दिया था। उनका अंतिम समय आ गया था। उनके सभी सोलह बत्तीसा सामंत, सभी भील सरदार, परिवार जन परिजन, राणा पूंजा नरपत, पीथल आदि सभी लोग उनके निकट उपस्थित थे। उनके प्राण बार-बार अटक रहे थे। आँखों से आँसू बह रहे थे। उनकी यह दशा देखकर अमर सिंह उनके निकट गया और पूछा, ‘‘अन्नदाता आँसूडा क्यूँ ढरकाओ*? जीव क्यों अकलावे*? कोई बात व्हे तो फरमाओ प्राण भी हाजर हे।’’

महाराणा ने साँसों को सहेजा और बोले, ‘‘अमरसिंह*! मेवाड तो कब्जे में आ गया। चित्तौड, रणथम्बोर और कुम्भलगढ नहीं जीत पाया। मैंने मेवाड की धरती को वचन दिया था। मैं वचन हार गया। मैंने राणा पूंजा नरपत को वचन दिया था। मैं वचन हार गया। मैंने पीथल को वचन दिया था। मैं वचन
हार गया। मैं इन सबका कर्जदार हूँ, इसलिए मेरे प्राण अटक रहे हैं। अमर*! मैंने जीवन में बहुत संघर्ष किए। हारा-जीता, टूटा-जुडा, किन्तु मुगलों के सामने घुटने नहीं टेके। सुलह संधि नहीं की। मौका आया भी था तब पीथल ने टेक रख ली। मुझे खतरा है कि, तुम मुगलों से संधि करके मेरा यश कलंकित कर मेवाड को मुगलों के हाथों सौंप दोगे। इसलिए प्राण अटक रहे हैं। राणा का ऐसा संदेह जानकर अमर सिंह ने सभी सामंतों सहित प्रण किया कि हम प्राण रहते मुगलों से संधि नहीं करेंगे, आप विश्वास रखें।

‘‘कुँवर अमर सिंह पन किया, सुनि यह राम संदेह ।
सीस न नमि हों शाह पे, रहिहें जब लग देह ।।
सपथ सहित पातल सुनी, वीरन की इमि बान ।
बिबुधन लिए बधाय के, रान गए सुर धाम ।।’’ (प्रताप चरित्र्, पद 815-16)

प्रणेता और सैनिक मेवाड धनी दाजी राज के सम्मानजनक पारिवारिक संबोधन से विभूषित महाराणा प्रताप इस संसार से विदा हो गये। वहीं चावण्ड में ही उस लाडले सपूत का दाह संस्कार कर दिया गया। उनकी छतरी आज भी अपने उस लाडले सपूत का यश बखान करती नहीं थकती। धन्य था वह वीर सैनानी जिसके निधन पर उनका प्रबल शत्र्ु अकबर भी शोक संतप्त हो उठा था।

‘‘सुण्यो जबै पतशाह ने, पातल स्वर्ग पयान ।
सहमि गयो अरु स्तब्ध भो, आँखन में जल आन*।।’’ (प्रताप चरित्र्, पद 820)

राणा प्रताप के निधन का समाचार सुनते ही बादशाह अकबर शोक विह्वल हो उठा। उसकी आँखों से अश्रुधारा बह पडी। अकबर ने कहा, ‘‘हे प्रताप, मुझे तेरे जैसा हठी बैरी नहीं मिलेगा और तुझे भी मेरे जैसा जिद्दी दुश्मन नहीं मिल सका। मैं तुझे सलाम (वंदन) करता हूँ।’’
आज भले ही महाराणा प्रताप हमारे बीच में नहीं हैं, किन्तु उनकी यश गाथाएँ हमें सदा प्रेरित करती रहेंगी। छापामार युद्ध का प्रणेता प्रताप ही शिवाजी और तात्याँ टोपे का भी प्रणेता रहा। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई एवं समग्र स्वतंत्र्ता को जितना बल प्रताप के चरित्र् से मिला है, वैसा अन्य किसी भी लोक नायक से नहीं। निश्चित रूप से शिवाजी भी स्वतंत्र्ता सैनानियों के प्रेरक चरित्र् रहे हैं, किन्तु प्रताप तो सर्वोपरि हैं।

इतिहास के सीलन भरे संकरे गलियारों में भटकते ऐसे अनेक लोक नायक हैं जिन्हें केवल लोक साहित्य की यश गाथाएँ ही लोक भूषित कर सकती हैं। इतिहास केवल पाद टीपों के भरोसे अपना अस्तित्व बनाए रखता है जबकि, लोक साहित्य स्वयंभू प्रामाणिक प्रसंग होता है। इसे किसी पाद टीप या संदर्भ ग्रंथ की आवश्यकता नहीं होती। वह कागज लेखी नहीं, आँखन देखी कहता है। इसीलिए तो लोक साहित्य को लोक का प्रामाणिक प्रवक्ता एवं साक्षी कहा गया है। लोक साहित्य ही इतिहास की अँगुली थाम कर अनिश्चय की अँधेरी गलियों से पार निकाल लाने की जुगत व क्षमता रखता है।


साभार : फेसबुक, शंखनाद, धर्म और राजनीति 

भगवान ब्रह्मा का कुल


ब्रह्मा हिन्दू धर्म में एक प्रमुख देवता हैं। वे हिन्दुओं के तीन प्रमुख देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में से एक हैं। ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता कहा जाता है। सृष्टि का रचयिता से आशय सिर्फ ‍जीवों की सृष्टि से है। 


प्रमुख देवता होने पर भी इनकी पूजा बहुत कम होती है। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि इन्होंने अपनी पुत्री सरस्वती पर कु्दृष्टि डाली थी। दूसरा कारण यह कि ब्रह्मांड की थाह लेने के लिए जब भगवान शिव ने विष्णु और ब्रह्मा को भेजा तो ब्रह्मा ने वापस लौटकर शिव से असत्य वचन कहा था। इनका अकेला लेकिन प्रमुख मंदिर राजस्थान में पुष्कर नामक स्थान पर है। कई लोग गलती से इन्हें 'ब्रह्म' भी मान लेते हैं। जबकि 'ब्रह्म' शब्द 'ईश्वर' के लिए प्रयुक्त होता है।

पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी के मानस पुत्र:- मन से मारिचि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगिरस, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगुषठ से दक्ष, छाया से कंदर्भ, गोद से नारद, इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार, शरीर से स्वायंभुव मनु, ध्यान से चित्रगुप्त आदि।

पुराणों में ब्रह्मा-पुत्रों को 'ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:' ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया। उनकी सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं थी। वे ब्रह्मचर्य रहकर ब्रह्म तत्व को जानने में ही मगन रहते थे।

इन वीतराग पुत्रों के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा को महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचंड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्धनारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया। पुरुष का नाम 'का' और स्त्री का नाम 'या' रखा।

प्रजापत्य कल्प में ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्वयंभु मनु और स्त्री रूप में शतरूपा को प्रकट किया। इन दोनों ने ही प्रियव्रत, उत्तानपाद, प्रसूति और आकूति नाम की संतानों को जन्म दिया। फिर आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह दक्ष से किया गया।

दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति हैं। तेरह का विवाह धर्म से किया और फिर भृगु से ख्याति का, शिव से सती का, मरीचि से सम्भूति का, अंगिरा से स्मृति का, पुलस्त्य से प्रीति का पुलह से क्षमा का, कृति से सन्नति का, अत्रि से अनसूया का, वशिष्ट से ऊर्जा का, वह्व से स्वाह का तथा पितरों से स्वधा का विवाह किया। आगे आने वाली सृष्टि इन्हीं से विकसित हुई।

ब्रह्मा के उक्त कुल पर शोध किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि पुराणों में इनके कुल के संबंध में विरोधाभाषिक बातें हैं। कोई दस मानस पुत्र बताता है, कोई सत्रह तो कोई सिर्फ नौ। साथ ही पुराणकारों ने इनके कुल को मिथकीय विस्तार भी दिया जिससे इनकी ऐतिहासिकता स्पष्ट नहीं हो पाती है।


साभार : मिश्रीलाल मीणा, फेसबुक