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Tuesday, July 24, 2012

महाराणा प्रताप का जीवन संघर्ष



लोक नायकों को न तो काल समय के बंधन में बाँधा जा सकता है न ही इतिहास के कारागार में बंद रखा जा सकता है। वे तो लोक के प्रेरणा पुरुष होते हैं। लोक उनके यशोगान को पीढी-दर-पीढी गाता, सुनाता और सुनता रहता है। ऐसे लोक पुरुष जहाँ हमारे अतीत का गौरव होते हैं वहीं हमारे वर्तमान के प्रेरक भी होते हैं। मेवाडाधिपति दाजी राज महाराणा प्रताप उन प्रेरणा पुरुषों में अपना सर्वोपरि स्थान रखते हैं। उनके संघर्षमय जीवन के अनेक प्रसंग अत्यन्त प्रेरणास्पद हैं।
युद्ध करते-करते राणा प्रताप पूरी तरह से निराश हो चुके थे। सन् 1576 ई. के हल्दीघाटी युद्ध ने राणा को बुरी तरह तोडकर रख दिया था। अकबर और राणा के बीच वह युद्ध महाभारत युद्ध की तरह विनाशकारी सिद्ध हुआ। उस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न राणा हारे, ऐसा माना जाता है। मुगलों के पास सैन्यशक्ति अधिक थी तो राणा के पास जुझारूशक्ति अधिक थी। इसी युद्ध में बडी सादडी के जुझारू झाला सरदार मान सिंह बीदा ने राणा की पाग लेकर उनका शीश बचाया। राणा अपने बहादुर सरदार का जुझारूपन कभी नहीं भूल सके। उसी युद्ध में राणा का प्राणप्रिय घोडा चेटक अपने स्वामी की रक्षा करते हुए शहीद हो गया। उसी युद्ध में उन्हें अपना बागी भाई शक्ति सिंह आ मिला और उनकी रक्षा में उसका भाई-प्रेम उजागर हो उठा। शक्ति सिंह ने उसी युद्ध में मेवाड की रक्षा का प्रण किया और अपना घोडा ‘अंकारा’ (नाटक) घायल राणा को देकर सुरक्षित निकल जाने का वंश धर्म निभाया।

हल्दी घाटी के महायुद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप नितांत अकेले रह गए। उन्हें उस दौरान जो दुर्दिन देखने पडे वे किसी भी मानव को हताश कर देने के लिए पर्याप्त थे। ऐसे ही कुसमय में एक घटना महाराणा के जीवन में घटित हो गई।

‘‘भंडार में अन्न का एक दाना भी नहीं था कहीं से व्यवस्था का आधार भी नहीं था। जैसे-तैसे (माल धान) घास बीज एकत्र् कर उन्हें कूट-पीस कर एक रोटी बनाई जा सकी। वह रोटी कुँवर हाथ में लेकर खाना ही चाहता था कि उसके हाथ से वह घास बीज की रोटी बन बिलाव (मार मीनका) झपट कर भाग गया।

घास बीज की उस रूखी रोटी के हाथ से छिन जाने पर कुँवर जोर-जोर से बिलख पडा। अपने कुँवर की उस दयनीय दशा को देख कर राणा विचलित हो उठे। उनका मन विषाद् से भर उठा। अपने जीवन के दुष्कर संघर्षों का एक चलचित्र् उनके स्मृति पटल पर घूम गया। उसी निराशा और हताशा के कारण उन्हें युद्ध और विनाश के प्रति विरक्ति हो उठी। ठीक उसी समय अकबर का दूत संधि का प्रस्ताव लेकर उनके पास आ पहुँचा। महाराणा का अवसाद से भरा मन डाँवा डोल हुआ, किन्तु तत्काल उनका राजपूती संकल्प उजागर हो उठा। उन्होंने दूत के सामने अकबर को खूब फटकार लगाई और वहाँ से चले जाने को कहा। दूत ने निवेदन किया, मेरी हाजिरी प्रमाणित करने के लिए आप इस कागज पर अपनी निशानी लगा दो। राणा ने निशानी लगा दी और दूत को रवाना कर दिया। उसी पत्र् को अकबर ने महाराणा का सहमति-पत्र् मान लिया।

महाराणा प्रताप द्वारा लौटाया हुआ संधि पत्र् पढ कर अकबर का चेहरा खिल उठा। उसे तो मन की मुराद ही मिल गई थी। उसी समय अकबर ने अपने दरबारी पीथल को बुलवाकर वह संधि पत्र् दिखाते हुए कहा।

‘‘मूँ आज बादशाह धरती रो, मेवाडी पाग पगाँ में है।
बतला अब किण रजपूतण रो, रजपूती खून रगाँ में है।’’
(संघर्ष गाथा, पद 73)

पीथल भले ही अकबर का दरबारी था, किन्तु वह महाराणा प्रताप का यश गायक भी था। पीथल भरे दरबार महाराणा की यश गरिमा का बखान करता था और उन्हें ‘मेवाड धणी’ कहने तक से नहीं चूकता था। अकबर की उस दंभोक्ति को सुनकर पीथल ने अकबर से कहा कि यह पत्र् झूठा है। यदि सच निकला तो मैं अपनी मूँछें नीची कर लूँगा और अपने हाथ से अपना सिर काटकर अपनी इष्ट देवी शक्ति अम्बा के चरणों में निछावर कर दूँगा। पीथल ने तत्काल महाराणा के प्रति पत्र् लिख कर अपने दूत द्वारा भिजवाया और उस पत्र् द्वारा महाराणा के उस संधि पत्र् पर आश्चर्य प्रकट करते हुए लिखा कि -

‘‘मैं कसी सुणी, मेवाड धणी, अकबर ने कागद भिजवायो।
मैं कसी सुणी, के नाहरडो, मुगलाँ रा पिंजरा में आयो।
मैं कसी सुणी, राणा प्रताब, रजपूती रण ने छोड गई।
मैं कसी सुणी, मेवाड धणी, मूँछा री मोठ मरोड गई।
मैं कसी सुणी, सूरज औचक, धरती के ऊपर टूट पडयो।
मैं कसी सुणी, रजपूताँ री, तरवाराँ ऊपर जंग चढयो। (संघर्ष गाथा, पद 102-105)

अपने उस वीरोत्तेजक पत्र् में पीथल ने अपना धर्म निभाते हुए प्रताप को खूब उल्हाने दिए और निर्णय पर फिर से विचार करने की ताकीद भी की।

‘‘पीथल री अरजी धीरो वै हुण लीजो हे मेवाड धणी।
रण में जूझारा वै जाजो, पण मति कहिजो थे खमाघणी।।
कागद भणता हे दाजी राज, थें होच हमज करजो वचार।
कायर को मरणो नत दन को, सूरा रण जूझे एक बार।। (संघर्ष गाथा, पद 120-121)

और इतना संदेश देने के बाद पीथल राणा से कहता है कि मेरी प्रतिज्ञा है कि, यदि यह संधि पत्र् सच हुआ तब मैं अपनी मूँछें नीची कर लूँगा और अपना सीस काटकर जगदम्बा के चरणों पर चढा दूँगा। इसलिए हे महाराणा ! आप विचार करके मुझे जवाब भेजना -

‘‘मूछाँ ने रेटाँ करूँ, के मूंडे धरूँ रुवाब ।
होच हमज ने हे धणी, तुरताँ देओ जुवाब ।’’ (संघर्ष गाथा, पद 122)
तथा
‘‘माथ कटा हाथाँ धरूँ, मूछाँ धरूँ रुवाब ।
इण दो वाताँ एक सच, लिख भेजो परताब ।। (संघर्ष गाथा, पद 123)

पीथल का वह वीरोत्तेजक पत्र् पढते ही महाराणा प्रताप के भीतर वीरता का सूर्य उदय हो गया। उन्होंने पीथल को उत्तर लिखकर विश्वास दिलाया कि, ‘‘पीथल तुम अपने राणा पर भरोसा रखो। मैं फिर एक बार रणभूमि में हुँकार भरकर अकबर को ललकारूँगा। मैं कभी भी अकबर से संधि नहीं करूँगा। सुनो पीथल ! ऐसा दिन आने से पहले मेरा सिर कट जाएगा। पीथल तुम विश्वास रखो अभी रजपूतों की रजपूती नहीं मरी है। सारे रण बाँकुरे योद्धा हाथों में तलवारें लेकर रणभूमि में डट जाएँगे और दुश्मन के छक्के छुडवा देंगे।

‘‘ऊ दन आयाँ पेलाँ, पीथल माथो म्हारे कट जावे ला।
जोसीली फोज बणा जोधा, करवालाँ ले डट जावेला।।
थें बीसासा रइजो पीथल, राणो रण में हुँकारेला।
तन पे माथो रेहताँ पीथल, राणो हिम्मत नी हारेला।।
थें ताव धरो मूछाँ ऊपर, मूंडा पे हूरज भलकाओ।
जस गाता रो मेवाडी रो, थें रणवीरां ने वरदाओ।।’’ (संघर्ष गाथा, पद 128-131)

इस प्रकार एक दुर्घट प्रसंग सुघट बन गया। इस समूचे प्रेरक प्रसंग को लोक ने अपनी वाणी में सहेज कर रखा था। ऐसी कई ‘लोक गाथाएँ’ एवं ‘यश गाथाएँ’ लोक कवियों ने अपने-अपने स्तर पर रची हैं। लोक ने उन्हें गाया भी है। संगृहीत भी की हैं तथा लोकमानस में उत्साह का संचार भी किया है। जितना लोक साहित्य महाराणा प्रताप के जीवन संघर्ष पर रचा गया है उतना अन्य किसी भी लोक नायक पर नहीं रचा गया। संगृहीत गाथा उनमें से एक है। या कहूँ कि, लोक सागर से प्राप्त एक मात्र् बूँद है। एक ऐसी उत्तेजक बूँद जो किसी भी कायर को वीर बना देने में सक्षम है।
महाराणा प्रताप की प्रेरक घटनाएँ सुना-सुनाकर ही शिवाजी की माता जीजाबाई ने बालक शिवा के मन में वीरत्व भाव के बीज बोए थे। महाराणा की ही वीर गाथाओं ने बंगाल में स्वतंत्र्ता की ज्वाला धधकाई। भारत का प्रथम स्वतंत्र्ता संग्राम पूरी तरह से इन दो वीर नायकों के संघर्षमय जीवन की लोक कथाओं और गाथाओं से अभिप्रेरित था। स्वयं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप और शिवाजी से प्रेरित थी। वह उन्हें अपना आदर्श मानती थी। मालवा, महाराष्ट्र, नीमाड, गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक तक महाराणा प्रताप की वीर गाथाएँ लोक प्रचलित हैं। जिन्हें गा-गाकर लोक जीवन प्रेरणा प्राप्त करता है। ऐसी ही यह सेनाणी भी है। जिसने महाराणा प्रताप के संघर्ष को पुनर्जीवन प्रदान किया।

‘‘महाराणा ने लिख दियो, उच्छाह भरो जुवाब ।
पीथल मूँछा बट धरो, मूडे राखो आब ।।’’ (संघर्ष गाथा, पद 133)

पीथल को महाराणा दाजी राज ने उत्साह जनक जवाब भेज कर कहलवा दिया कि ‘‘पीथल तुम मूँछों पर खूब बट लगाओ और मुँह पर चमक रखो।’’ इस तरह महाराणा दाजी राज ने पीथल को आश्वस्त कर तो दिया, किन्तु उस आश्वासन को कार्य रूप में परिवर्तन करना बहुत कठिन काम था। अकबर से लडा गया हल्दीघाटी युद्ध भले ही बिना किसी अंतिम निर्णय के समाप्त हो गया था, किन्तु महाराणा के पास न धन था, न सैनिक और न जुझारे सामंत-साथी। कुछ मारे गए, कुछ भूमिगत हो गए, कुछ मुगलों के शरणागत भी हो गए।

समय बहुत बलवान होता है। जिस महाराणा प्रताप के खंखारने मात्र् से दुश्मन का कलेजा थर्रा उठता था। जिस प्रताप के भाले का भलकारा देखकर सूरज भगवान भी रुक कर अपने वंश को आशीर्वाद दिए बिना आगे नहीं बढते थे वही सूरज उन पर आग बरसा रहा था। छाया और माया सब समाप्त हो गई थी। जिस प्रताप के नाम से अकबर बादशाह तक का कलेजा काँपता था। जिस अकबर को सपने में भी महाराणा प्रताप का भय बना रहता था और वह नींद में चौंक-चौंक पडता था। जैसा कि डिंगल के एक कवि ने कहा भी है -

‘‘जामण जणे तो पूत जण जेहडो राणा प्रताप ।
अकबर सूत्यो ऊझके, जाण सिराणे साँप ।।’’

ऐसे महाराणा की हार पर हल्दी घाटी का पत्थर-पत्थर सुबक उठा था। वह प्रताप न तो हारा, न टूटा और न झुका। पीथल जैसे सचेतक हितैषी उनका उत्साह जीवित बनाए रखने में सदा जागरूक बने रहे।

प्रताप के खास साथी आपस में मिले और राय की कि, अपनी युद्ध शक्ति इकट्ठी करने का प्रयत्न करें। सभी अज्ञातवास में चले गए। महाराणा के परिवार को एक भील ठिकाने में रख लिया गया। स्वयं महाराणा वेश बदल कर एक भडभूजे की भाड पर रहने लगे। भडभूजे की भाड गाँव के आखिर में थी। वहीं से जंगल शुरू होता था।

एक दिन भील सरदार राणा पुंजा नरपत और बादशाह अकबर का राजकवि पीथल परस्पर दोनों मिले और राय की कि, यूँ पडे रहने से तो उत्साह समाप्त हो जाएगा। चारों तरफ अकबर की दुहाई फिर जाएगी, ऐसी राय बना, दोनों वहाँ से चले और भडभूजे की भाड से थोडी दूर एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। क्या देखते हैं कि, मेवाडाधिपति दाजीराज प्रताप भाड झोंक रहे हैं। दोनों की आँखों में तराइयाँ भर आईं। पीथल बोला, ‘‘नरपत पुंजा न्हार ने फेर जगाणो पडेगा।’’ नरपत ने सिर हिला कर सहमति जताई, दोनों सरदार बने महाराणा प्रताप के पास पहुँचे। तीनों ने एक दूसरे को पहचाना। आँखों- आँखों में अभिवादन किया। पीथल, संकेत देकर वहाँ से जंगल की ओर चल दिया। महाराणा और राणा पुंजा भी उसके पीछे-पीछे चल दिए। तीनों परस्पर गले मिले। बात विचार होने लगा।

‘‘तीन मल्या ताकत बणी, अजब बणायो वेस।
तीनई ने यूं जाणजो, बरमा, बिसन, महेस।।’’ (लोक)

महाराणा के भीतर लावा धधक रहा था, लेकिन उस पर पराजय की परतें चढ चुकी थीं। अब यह ज्वालामुखी फूट पडना चाहिए, यही सोच कर दोनों आए थे।
पीथल ने कहा, ‘‘दाजी राज अब यह झोंकण्ये का वेश उतार फेंको और अपना सैनिक वेश धारण करो। आफ सभी अस्त्र्- शस्त्र् जिरह बख्तर उसी तरह तिलमिला रहे हैं जिस प्रकार अज्ञातवास में शमी वृक्ष पर रखे अर्जुन के अस्त्र्-शस्त्र् तिलमिला रहे थे। ‘अंकारा’ धरती खोद रहा है। उसमें लगता है चेतक की आत्मा समा गई। सारा मेवाड आपकी हुँकार सुनने को आतुर हो रहा है। वन के पशु-पक्षी तक आफ घोडे की
टापें सुनने को तरस गए हैं। भील युवक और युवतियाँ आफ हाथ में भाले का भलकारा देखने को विह्वल हैं। उनके तरकसों में तीर व्याकुल हो रहे हैं। उनका हाथ बार-बार अपने धनुष पर चला जाता है। जागो महाराणा जागो। चेतो मेवाड धणी चेतो।’’

मेवाड सपूत बप्पा रावल का यश और साँगा का साहस आपको ललकार रहा है। स्वयं सूरज भगवान आफ भाले पर विराजमान हो चुके हैं। अरे महाराणा*! आप तो सदा अपराजित रहे हो। हल्दीघाटी में तो आपका भाला शत्र्ु की छाती से एक बालिश्त ही दूर रह गया था। आफ उस युद्ध कौशल की प्रशंसा तो आफ बैरी भी करते नहीं थकते। मुगल तो आज भी उस दृश्य को याद करके दहल उठता है। हे महाराणा, आप तो नौ गजे हो और अकबर तो एक गजा भी नहीं है। आफ सामने अकबर की क्या बिसात*? सच तो यह है कि, राजपूत ही राजपूत का बैरी हो उठा है। अकबर चतुर चालाक है। वह लोहे से लोहा कटवाता है। वह राजपूतों को आगे रखता है और मुगलों की सेना को पीछे रखता है। राजपूतों की तो आगे भी मौत और पीछे भी मौत। आप यह खेल मत खेलो। भले ही राजपूत दुश्मन हैं तब भी राजपूत हैं। उन्हें काटने की बजाए मुगलों को काटकर आगे बढो। हे प्रताप, आप हल्दी घाटी हारे हो, संकल्प नहीं हारे। अपनी इसी हार से शिक्षा लेकर साहस बटोरो। न्हार जंगल में अकेला रहता है, तब भी वनराज कहलाता है। मेवाड आपका है, आपका ही रहेगा।

‘‘हल्दी घाटी हार्या, नी हार्या मेवाड ।
गाजो हे घनगाजणा, गजबी करो दहाड।।’’ (लोक)

पीथल ने जैसे ही बोलना बंद किया। राणा पुंजा नरपत बोल उठा, ‘‘महाराणा*! हम तीनों एक ही उम्र के हैं। हम मरेंगे तो मेवाड के लिए और जिएँगे तो मेवाड के लिए। हल्दी घाटी में आपने भील योद्धाओं के जौहर अच्छी तरह से परख लिए हैं। यह मेवाड तो कल भी भीलों का था और आज भी भीलों का है। मेवाड आफ पास हमारी अमानत है। मेवाड हमने बप्पा रावल से हारा नहीं था। तब हमारी शक्ति बँटी हुई थी। बप्पा तो बप्पा ही था। हम भील बप्पा को अपना मानते थे। हमने ही उन्हें सम्मान में बप्पा कहा वर्ना वह तो गुहिल था। यदि आप हमें कहने की आज्ञा दें, तो कह सकते हैं कि, हम भील भी गुहिल ही हैं। मेवाड जातियों पर नहीं बलिदानों पर टिका है। जुझारों के यश पर टिका है। हमने अपने बप्पा को अपना राजा मान लिया। बप्पा ने भी सदा भीलों का मान रखा। जब भी मेवाड पर संकट आया भील उगाडी (खुली) छाती तान कर लडे। जब राणा साँगा ने बाबर को खानवा में ललकारा तब भी भील ही उनके साथ खडे थे। भील डटे रहे, राजपूत हट गए। अगर उस समय राजपूत भी डटे रहते तब आप हिन्दुस्तान परहत्था (परवश) नहीं होता। आज भी भील आफ साथ खडे हैं। मैं भीलों का सरदार पूंजा नरपत भरोसा दिलाता हूँ कि, मेवाड के भीलों का बच्चा-बच्चा और युवा-वृद्ध मेवाड की रक्षा हेतु मरने-मारने के लिए एकदम तैयार है। आप तो हुँकार भरो। चौदह वर्ष से लगातार पचहत्तर वर्ष की आयु तक के भील और भीलनियाँ मेवाड पति की ललकार की प्रतीक्षा कर रहे हैं। न तो रसद की कमी है और न हथियारों की। गाँव-गाँव ढाणी-ढाणी युद्ध शिविर बन चुका है। आप गुप्त बने रहो। योद्धाओं की हिम्मत बँधाते रहो। मेवाड तो कल भी आपका था, आज भी आपका है। एक सूरज उगने की देर है। अगली सुबह मेवाड फिर आपका ही रहेगा। केवल अंधेरी रात और उजाली रात का फर्क है। राय पक्की हो गई।

महाराणा ने छापा मार युद्ध छेड दिया। सादडी के झाला बीदा जैसे और भी जुझारू तैयार किए गए जो हूबहू महाराणा प्रताप दिखें। नाटक के रूप रंग के अश्व भी उन्हें दिए गए। मुगलों और अकबर के अन्य सामंतों से ठिकाने छीने जाने लगे। एक साथ महाराणा द्वारा अनेक स्थानों पर धावे पडने लगे। मुगल औचक थे। यह कैसे हो रहा है*?

धीरे-धीरे मेवाड का बहुत बडा इलाका महाराणा प्रताप के कब्जे में आने लगा। महाराणा की शक्ति बढने लगी, किन्तु बिना बडी सेना के शक्तिशाली मुगल सेना के विरुद्ध युद्ध जारी रखना कठिन था। सेना का गठन बिना धन के सम्भव नहीं था। राणा ने सोचा जितना संघर्ष हो चुका वह ठीक ही रहा। यदि इसी प्रकार कुछ और दिन चला तब संभव है जीते हुए इलाकों पर फिर से मुगल कब्जा कर लें। इसलिए उन्होंने यहाँ की कमान अपने विश्वस्त सरदारों के हाथों सौंप कर गुजरात की ओर कूच करने का विचार किया। वहाँ जाकर फिर से सेना का गठन करने के पश्चात पूरी शक्ति के साथ मुगलों से मेवाड स्वतंत्र् करवाना होगा।

महाराणा प्रताप अपने कुछ चुनिंदा साथियों को लेकर मेवाड से प्रस्थान करने ही वाले थे कि, वहाँ पर उनका पुराना खजाना मंत्री-नगर सेठ भामाशाह उपस्थित हुआ। उसने महाराणा के प्रति ‘खम्मा घणी’ करी और कहा, ‘‘मेवाड धणी अपने घोडे की बाग मेवाड की तरफ मोड लीजिए। मेवाडी धरती मुगलों की गुलामी से आतंकित है। उसका उद्धार कीजिए।’’

यह कहकर भामाशाह ने अपने साथ आए परथा भील का परिचय महाराणा से करवाया। भामाशाह ने बताया कि, किस प्रकार परथा ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर आफ पूर्वजों की गुप्त खजाने की रक्षा की और आज उसे लेकर वह आफ सामने उपस्थित हुआ है। मेरे पास जो धन है वह भी आफ पूर्वजों की दात है। मेवाड स्वतंत्र् रहेगा तो धन फिर कमा लूँगा। आप यह सारा धन ग्रहण कीजिए और मेवाड की रक्षा कीजिए। भामाशाह और परथा भील की देशभक्ति और ईमानदारी देखकर महाराणा का मन द्रवित हो गया। उनकी आँखों से अश्रुधारा फूट पडी। उन्हने दोनों को गले लगा लिया। महाराणा ने कहा आप जैसे सपूतों के बल पर ही मेवाड जिंदा है। मेवाड की धरती और मेवाड के महाराणा सदा-सदा आफ इस उपकार को याद रखेंगे। मुझे आप दोनों पर गर्व है।

‘‘भामा जुग-जुग सिमरसी, आज कर्यो उपगार ।
परथा, पुंजा, पीथला, उयो परताप इक चार*।।’’ (लोक)

हे भामाशाह, आपने आज जो उपकार किया है, उसे युगों-युगों तक याद रखा जाएगा। यह परथा, पुंजा, पीथल और मैं प्रताप चार शरीर होकर भी एक हैं। हमारा संकल्प भी एक है। ऐसा कहकर महाराणा ने अपने मन के भाव प्रगट किए। महाराणा प्रताप ने मेवाड से पलायन करने का विचार त्याग दिया और अपने सब सरदारों को बुलावा भेजा।
‘‘करि लीनो नृप हुकुम तेकं वीरन उचित प्रबंध।
किंधौ चढयो खल गिरिन पे, सुरन सहित सुर इन्द।।
सुभट सजे उमराव सह, संजुत भामा शाह ।
गोडवार की ओर तें, चढयो रान जय चाह ।।’’ (प्रताप चरित्र्, पद 752-754)

देव रक्षित खजाना और भामाशाह का सहयोग पाकर महाराणा का उत्साह और आत्मबल प्रबल हो गया। सामंतों, सरदारों, साहूकारों का सहयोग तथा विपुल धन पाकर महाराणा ने सेना का संगठन करना शुरू कर दिया। एक के बाद दूसरा और फिर सारा मेवाड उनके कब्जे में आता चला गया था। भामाशाह ने ईस्वी सन् 1578 में प्रताप को आर्थिक मदद देकर शक्तिशाली बना दिया था। धन की शक्ति भी बहुत बडा सम्बल होता है। महाराणा 1576 में हल्दी घाटी युद्ध हारे थे। 1576 से 1590 तक वे गुप्त रूप से छापामार युद्ध करते हुए तथा कई बार प्रगट युद्ध करते हुए विजय की ओर बढते रहे। सन् 1591 से 1596 तक का समय मेवाड और महाराणा के लिए चरम उत्कर्ष का समय कहा जा सकता है, किन्तु इस उत्कर्ष के बावजूद भी वे चैन की साँस नहीं ले पाते थे।
खोया हुआ मेवाड जीतकर भी महाराणा का मन सदा उद्विग्न बना रहता था। मेवाड तो जीत लिया, लेकिन चित्तौड नहीं जीत पाया, रणथम्बोर और कुम्भलगढ आज भी मुगलों के कब्जे में हैं। यह टीस सदा उनके मन को सालती रही। शरीर थकता जा रहा था। संकल्प अधूरे थे। जब वे भी चित्तौडगढ को देखते उनके भीतर आक्रोश की ज्वाला धधक उठती थी। उस ज्वाला को प्रगट करके शत्र्ु पर टूट पडने की शक्ति अब उनमें नहीं रह गई थी। अपने कुँवर अमर सिंह के प्रति भी वे आश्वस्त नहीं थे। यही पीडा उन्हें दिन रात सता रही थी। इसी चिन्ता के कारण वे तन और मन दोनों से क्षीण हो गए थे।
सन् 1597 ई. में जब महाराणा अपने वन दुर्ग चावण्ड में रोग शैय्या पर थे। तब उनकी उम्र 57 ही थी। लगातार युद्धों और अभावों की संघर्ष आपदाओं ने राणा को पूरी तरह भीतर से तोड दिया था। उनका अंतिम समय आ गया था। उनके सभी सोलह बत्तीसा सामंत, सभी भील सरदार, परिवार जन परिजन, राणा पूंजा नरपत, पीथल आदि सभी लोग उनके निकट उपस्थित थे। उनके प्राण बार-बार अटक रहे थे। आँखों से आँसू बह रहे थे। उनकी यह दशा देखकर अमर सिंह उनके निकट गया और पूछा, ‘‘अन्नदाता आँसूडा क्यूँ ढरकाओ*? जीव क्यों अकलावे*? कोई बात व्हे तो फरमाओ प्राण भी हाजर हे।’’

महाराणा ने साँसों को सहेजा और बोले, ‘‘अमरसिंह*! मेवाड तो कब्जे में आ गया। चित्तौड, रणथम्बोर और कुम्भलगढ नहीं जीत पाया। मैंने मेवाड की धरती को वचन दिया था। मैं वचन हार गया। मैंने राणा पूंजा नरपत को वचन दिया था। मैं वचन हार गया। मैंने पीथल को वचन दिया था। मैं वचन
हार गया। मैं इन सबका कर्जदार हूँ, इसलिए मेरे प्राण अटक रहे हैं। अमर*! मैंने जीवन में बहुत संघर्ष किए। हारा-जीता, टूटा-जुडा, किन्तु मुगलों के सामने घुटने नहीं टेके। सुलह संधि नहीं की। मौका आया भी था तब पीथल ने टेक रख ली। मुझे खतरा है कि, तुम मुगलों से संधि करके मेरा यश कलंकित कर मेवाड को मुगलों के हाथों सौंप दोगे। इसलिए प्राण अटक रहे हैं। राणा का ऐसा संदेह जानकर अमर सिंह ने सभी सामंतों सहित प्रण किया कि हम प्राण रहते मुगलों से संधि नहीं करेंगे, आप विश्वास रखें।

‘‘कुँवर अमर सिंह पन किया, सुनि यह राम संदेह ।
सीस न नमि हों शाह पे, रहिहें जब लग देह ।।
सपथ सहित पातल सुनी, वीरन की इमि बान ।
बिबुधन लिए बधाय के, रान गए सुर धाम ।।’’ (प्रताप चरित्र्, पद 815-16)

प्रणेता और सैनिक मेवाड धनी दाजी राज के सम्मानजनक पारिवारिक संबोधन से विभूषित महाराणा प्रताप इस संसार से विदा हो गये। वहीं चावण्ड में ही उस लाडले सपूत का दाह संस्कार कर दिया गया। उनकी छतरी आज भी अपने उस लाडले सपूत का यश बखान करती नहीं थकती। धन्य था वह वीर सैनानी जिसके निधन पर उनका प्रबल शत्र्ु अकबर भी शोक संतप्त हो उठा था।

‘‘सुण्यो जबै पतशाह ने, पातल स्वर्ग पयान ।
सहमि गयो अरु स्तब्ध भो, आँखन में जल आन*।।’’ (प्रताप चरित्र्, पद 820)

राणा प्रताप के निधन का समाचार सुनते ही बादशाह अकबर शोक विह्वल हो उठा। उसकी आँखों से अश्रुधारा बह पडी। अकबर ने कहा, ‘‘हे प्रताप, मुझे तेरे जैसा हठी बैरी नहीं मिलेगा और तुझे भी मेरे जैसा जिद्दी दुश्मन नहीं मिल सका। मैं तुझे सलाम (वंदन) करता हूँ।’’
आज भले ही महाराणा प्रताप हमारे बीच में नहीं हैं, किन्तु उनकी यश गाथाएँ हमें सदा प्रेरित करती रहेंगी। छापामार युद्ध का प्रणेता प्रताप ही शिवाजी और तात्याँ टोपे का भी प्रणेता रहा। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई एवं समग्र स्वतंत्र्ता को जितना बल प्रताप के चरित्र् से मिला है, वैसा अन्य किसी भी लोक नायक से नहीं। निश्चित रूप से शिवाजी भी स्वतंत्र्ता सैनानियों के प्रेरक चरित्र् रहे हैं, किन्तु प्रताप तो सर्वोपरि हैं।

इतिहास के सीलन भरे संकरे गलियारों में भटकते ऐसे अनेक लोक नायक हैं जिन्हें केवल लोक साहित्य की यश गाथाएँ ही लोक भूषित कर सकती हैं। इतिहास केवल पाद टीपों के भरोसे अपना अस्तित्व बनाए रखता है जबकि, लोक साहित्य स्वयंभू प्रामाणिक प्रसंग होता है। इसे किसी पाद टीप या संदर्भ ग्रंथ की आवश्यकता नहीं होती। वह कागज लेखी नहीं, आँखन देखी कहता है। इसीलिए तो लोक साहित्य को लोक का प्रामाणिक प्रवक्ता एवं साक्षी कहा गया है। लोक साहित्य ही इतिहास की अँगुली थाम कर अनिश्चय की अँधेरी गलियों से पार निकाल लाने की जुगत व क्षमता रखता है।


साभार : फेसबुक, शंखनाद, धर्म और राजनीति 

5 comments:

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  2. Very best Rana, Lakin Akbar is Turk tha.

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  3. pratap to lada lekin uska beta akbar ke samne nahi tik paya aur chittorgarh ko use akbar ko dena pada . Mughals is great but Rajputs is not

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    1. Mugals were never great. They changed the History. Aur Nasl - E Taimuri tum kitne neech ho aaj bhi haar ka gussa blog likh kar nikal rahe ho. Rajputo se Haar tumhare nas nas me samaya hua hai. Sadiyo tak nahi ubar paoge

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    2. apne hi gaddar nikle warna kisi chor ki itni okat kaha thi jo rajputo par hukumat kar jaye.

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