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Monday, August 27, 2012

खेल-कूद के प्रावधान


क्रिकेट, हाकी, बास्केटबाल, वोलीबाल, सक्वाश और टेनिस आदि खेलों के सामने ऐसे लगने लगा है कि हमारे देश में कोई भी खेल नहीं खेला जाता था और खेलना कूदना हमें अंग्रेज़ों ने ही सिखाया। वास्तव में यह सभी खेल जन साधारण के नहीं हैं क्योंकि इन्हें खेलने के लिये बहुत महंगे उपकरणों की, जैसे की विस्तरित मैदान और साजो सामान की आवश्यक्ता पडती है जिन्हें जुटा पाना आम जनता के लिये तो सम्भव ही नहीं है। आजकल भारत में खेलों दूारा मनोरंजन केवल देखने मात्र तक सीमित रह गया है। प्रत्यक्ष खेलना तो केवल उन साधन सम्पन्न लोगों के लिये ही सम्भव है जो महंगी कलबों के सदस्य बन सकें। इस की तुलना में प्राचीन भारतीय खेल खरचीले ना हो कर सर्व साधारण के लिये मनोरंजन तथा व्यायाम का माध्यम थे।
शरीरिक विकास और व्यायाम
आत्म-ज्ञान के लिये स्वस्थ और स्वच्छ शरीर का होना अनिवार्य है। हम सुख-दुःख शरीर के माध्यम से ही अनुभव करते हैं अतः व्यायाम का महत्व भारत में बचपन से ही शुरु हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिये ‘काया-साधना ’ करनी पडती है। हिन्दू मतानुसार शारीरिक क्षमता की बढौतरी करते रहना प्रत्येक प्राणी का निजि कर्तव्य है। अतः शरीर के समस्त अंगों के बारे में जानकारी होनी चाहिये। योग का अभिप्राय शारीरिक शक्ति की वृद्धि और इन्द्रीयों पर पूर्ण नियन्त्रण करना है। इस साधना की प्राकाष्ठा समाधि, ऐकाग्रता तथा शारीरिक चलन हैं जिन का विकास सभी खेलों में अत्यन्त आवश्यक है। अष्टांग योग साधना के अन्तरगत आसन (उचित प्रकार से अंगों का प्रयोग), प्राणायाम (श्वास नियन्त्रण), तथा प्रत्याहार (इन्द्रियों पर नियन्त्रण) मुख्य हैं।
शरीरिक क्षमताओं को प्रोत्साहन
वैदिक काल - वैदिक काल से ही सभी को शारीरिक क्षमता वृद्धि के लिये प्रोत्साहित किया जाता था। जहाँ ब्राह्मणों को अध्यात्मिक तथा मानसिक विकास के लिये प्रोत्साहित किया जाता था, वहीं  क्षत्रियों को शरीरिक विकास के लिये रथों की दौड, धनुर्विद्या, तलवारबाज़ी, घुड सवारी, मल-युद्ध, तैराकी, तथा आखेट का प्ररिशिक्षण दिया जाता था। श्रमिक वर्ग भी बैलगाडियों की दौड में भाग लेते थे। आधुनिक औल्मपिक खेलों की बहुत सी परम्परायें भारत के माध्यम से ही यूनान में गयीं थीं। हडप्पा तथा मोइनजोदारो के अवशेषों से ज्ञात होता है कि ईसा से 2500-1550 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता में कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्रयोग किये जाते थे। उन में से तोरण (जेविलिन), चक्र (डिस्कस) इत्यादि खेल मनोरंजन के लिये प्रयोग किये जाते थे।
इस के अतिरिक्त बलराम, भीमसेन, हनुमान, जामावन्त, और जरासन्ध आदि के नाम मल-युद्ध में प्रख्यात हैं। विवाह के क्षेत्र में भी शारिरिक बल के प्रमाण स्वरूप स्वयंबर में भी शारीरिक शक्ति और दक्षता का प्रदर्शन किसी ना किसी रूप में शामिल किया जाता था। ऱाम ने शिव-धनुष पर प्रत्यन्चा चढा कर और अर्जुन नें नीचे रखे तेल के कढायें में मछली की आँख का प्रतिबिम्ब देख कर ऊपर घूमती हुयी मछली की आँख का भेदन कर के निजि दक्षता का प्रमाण ही तो दिया था। 
बुद्ध काल - बुद्ध काल में शारीरिक क्षमता बनाने तथा दर्शाने के विधान अपनी प्राकाष्ठा पर पहुँच गये थे। गौतम बुद्ध स्वयं सक्ष्म धनुर्धर थे और रथ दौड, तैराकी तथा गोला फैंकने आदि की स्पर्द्धाओं में भाग ले चुके थे। ‘विलास-मणि-मंजरी’ ग्रंथ में त्र्युवेदाचार्य नें इस प्रकार की घटनाओं का उल्लेख किया है। अन्य ग्रंथ ‘मानस-उल्हास’ (1135 ईसवी) में सोमेश्वर नें भारश्रम (व्हेट लिफटिंग) और भ्रमण-श्रम ( व्हेट के साथ चलना-दौडना) आदि मनोरंजक खेलों का उल्लेख किया है। यह दोनो आज औलम्पिक्स खेलों की प्रतिस्पर्धायें बन चुकी हैं। मल-स्तम्भ ऐक विशिष्ट प्रकार की कला थी जिस में प्रतिस्पर्धी कमर तक पानी में खडे रह कर तथा अपने अपने सहयोगियों के कन्धों पर सवार हो कर ऐक दूसरे से मलयुद्ध करते थे। 
गुप्त काल - चीन के पर्यटक ऐवं राजदूत फाहियान तथा ह्यूनत्साँग ने भी कई प्रकार की भारतीय खेल प्रतिस्पर्धाओं का उल्लेख किया है। नालन्दा तथा तक्षशिला के शिक्षार्थियों में तैराकी, तलवारबाज़ी, दौड़, मलयुद्ध, तथा कई प्रकार की गेंद के साथ खेली जाने वाले खेल लोकप्रिय थे।
मध्य काल - सोहलवीं शताब्दी के विजयनगर में निवास कर रहे पुर्तगीज़ राजदूत के उल्लेखानुसार महाराज कृष्णदेव राय के राज्य में कई खेलोपयोगी क्रीडा स्थल थे तथा महाराज कृष्णदेव राय स्वयं भी अति उत्तम घुडसवार, और मलयोद्धा थे। 
बाह्य-खेल
भारतीय खेलों की मुख्य विशेषता थी कि मनोरंजन करने के लिये किसी विशिष्ट प्रकार के साजो सामान की आवश्यक्ता नहीं पडती थी। ना ही किसी वकालत प्रशिक्षशित अम्पायर की ज़रूरत पडती थी। खेल का मुख्य लक्ष्य मनोरंजन के साथ साथ शारीरिक क्षमताओं का विकास करना होता था। भारत के कुछ लोकप्रिय खेल जो आज पाश्चात्य देशों में स्टेटस-सिम्बल माने जाते हैं इस प्रकार थेः-
  • सगोल कंगजेट – आधुनिक पोलो की तरह का घुड सवारी युक्त खेल 34 ईसवी में मणिपुर राज्य में खेला जाता था। इसे ‘सगोल कंगजेट’ कहा जाता था। सगोल (घोडा), कंग (गेन्द) तथा जेट (हाकी की तरह की स्टिक)। कालान्तर मुस्लिम शासक उसी प्रकार से ‘चौग़ान’ (पोलो) और अफग़ानिस्तान वासी घोडे पर बैठकर ‘बुज़कशी’ खेलते थे। बुजकशी का खेल अति क्रूर था क्यों कि केवल मनोरंजन के लिये ही ऐक जिन्दा भेड को घुड सवार एक दूसरे से छीन झपट कर टुकडे टुकडे कर देते थे। सगोल कंगजेट का खेल अँग्रेज़ों ने पूर्वी भारत के चाय बागान वासियों से सीखा और बाद में उस के नियम आदि बना कर उन्नीसवीं शताब्दी में इसे पोलो के नाम से योरुपीय देशों में प्रसारित किया।
  • बैटलदोड – बैटलदोड का प्रचलन प्राचीन भारत में आज से 2 हजार वर्ष पूर्व था। उस खेल को आधुनिक बेड मिन्टन की तरह पक्षियों के पंखों से बनी एक गेन्द से खेला जाता था। आधुनिक बेड मिन्टन खेल अंग्रेज़ों दूारा बैटलदोड का रुपान्तर और संशोधन मात्र है।
  • कबड्डी – इस भारतीय खेल के लिये किसी विशेष साधनों की आवशयक्ता नहीं होती। धरती पर ऐक छोटे मैदान को लकीर खेंच कर दो बराबर भागों में बाँट दिया जाता है। दो टीमें ऐक दूसरे के सामने खेलती हैं। उन्हें विपरीत खिलाडी को छूना या पकडना होता है । दोनों टीमें अपने अपने खिलाडियों को बारी बारी से विपरीत टीम के पाले में भेजती हैं जो ऐक ही श्वास में “कब्डी-कब्डी” बोलता हुआ जाता है और बिना दूसरा श्वास भरे वापिस अपने भाग में आता है। यदि श्वास टूट जाये तो वह असफल माना जाता है। य़दि कोई खिलाडी सीमा से बाहर चला जाये या पकड लिया जाय तो वह असफल घोषित किया जाता है। भारत में तीन प्रकार की कब्डडी खेली जाती है जिन में से संजीवनी कब्डडी, कब्डडी फेडरेशन दूारा नियमित और मान्य है।
  • गिल्ली डंडा – यह खेल समस्त भारत में अत्यनत लोक प्रिय रहा है। इस खेल के लिये लकडी का ऐक छोटा ‘डंडा’, तथा ऐक दोनों ओर से नोकीली ‘गिल्ली’ की आवश्यक्ता पडती है। गिल्ली को डंडे से चोट कर के थोडा उछाला जाता है और फिर उछली अवस्था में ही उसे पुनः डंडे के आघात से, जहाँ तक हो सके, फैंका जाता है। जो जितनी दूर तक फैंक सके, उसी के आधार पर अंको (स्कोर) का निर्णय होता है। इस खेल के स्थानीय नियम प्रचिल्लित हैं। यदि इसी खेल को गोल्फ की तरह का उच्च कोटि का साजो सामान और आकर्ष्ण प्रदान करा दिया जाये तो यह खेल आज भी विश्व स्तर पर गोल्फ को भी मात दे सकता है जैसे यदि फाईबर-ग्लास या चन्दन की लकडी की मान्यता प्राप्त वजन और आकार की पालिश करी हुयीं खूबसूरत गिल्लियाँ और डंडे, जिन्हें लैदर के कैरीबैग्स सें सहायक उठा कर खिलाडियों के साथ मखमली घास के लम्बे-चौडे ‘गिल्ली-डंडा कोर्स’ पर चलें, फैशनेबल युवक-युवतियाँ छतरियों के नीचे बैठ कर दूरबीनों से अन्तर्राष्ट्रीय मैचों को देखने के लिये आमन्त्रित हों, दूरियाँ मापने के लिये स्वचालित ट्रालियों पर अम्पायर सवार हों और साथ में कमेंनट्री चलती रहै तो निश्चय ही भारत का प्राचीन खेल गिल्ली डंडा गोल्फ की तरह सम्मानजनक खेल बन सकता है।
आंतरिक खेल
खेल और मनोरंजन केवल पुरुषों तक ही सीमित नहीं थे। महिलाओं को भी खेलों में भाग लेने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। उस के लिये पर्याप्त व्यव्स्था भी थी। स्त्रियाँ आत्म-रक्षा की कला में भी निपुण थीं। वह घरेलु क्रीडाओं के माध्यम से भी मनोरंजन कर सकती थीं जैसे कि ‘किकली’, रस्सी के साथ विभिन्न प्रकार से कूदना, ‘मुर्ग़-युद्ध’, ‘बटेर-दून्द’, आदि। अन्य घरेलु साधन इस प्रकार थे जो परिवार में घर के अन्दर खेले जा सकते थे।
  • शतरंज – युद्ध कला पर आधारित यह खेल राज घरानों तथा सामान्य लोगों में अति लोक प्रिय रहा है। ‘अमरकोश’ के अनुसार इस का प्राचीन नाम ‘चतुरंगिनी’ था जिस का अर्थ चार अंगों वाली सैना था। इस में हाथी, घोडे, रथ तथा पैदल सैनिक भाग लेते थे। इस का अन्य नाम ‘अष्टपदी’ भी था। इस को खेलने के लिये ऐक तख्ते की आवश्यक्ता पडती थी जिस पर प्रत्येक दिशा में आठ खाने बने होते थे। यह खेल युद्ध की चालें, सुरक्षा तथा आक्रमण के सिद्धान्तों का अद्भुत मिश्रण था। छटी शताब्दी में यह खेल महाराज अंनुश्रिवण के समय (531 – 579 ईस्वी) भारत से ईरान में लोकप्रिय हुआ। तब इसे ‘चतुरआंग’, ‘चतरांग’ और फिर कालान्तर अरबी भाषा में ‘शतरंज’ कहा जाने लगा। ईरान में शतरंज के बारे में प्राचीन उल्लेख 600 ईसवी में कर्नामके अरताख शातिरे पापाकान में मिलता है। फिर दसवीं शताब्दी में फिरदौसी कृत महाकाव्य ‘शाहनामा’ में भी इस खेल का उल्लेख है जो विदित करता है कि शतरंज का खेल भारत के राजदूत के माध्यम से ईरान में लाया गया था। भारत से ही यह खेल चीन और जापान में भी गया। चीन के साहित्य में इस का उल्लेख न्यू सेंग जू की पुस्तक यू क्वाइ लू (बुक आफ मार्वल्स) में मिलता है जो आठवीं शताब्दी के अंत में लिखी गयी थी। दक्षिण पूर्व ऐशिया के देशों ने शतरंज का खेल भारत से ही आयात किया तथा कुछ देशों ने जैसे कि स्याम आदि ने भारत से चीन की मार्फत आयात कर के सीखा।
  • मोक्ष-पट (साँप-सीढी) – इस खेल का प्रारम्भिक उल्लेख और श्रेय तेहरवीं शताब्दी में महाराष्ट्र के संत-कवि ज्ञानदेव को जाता है। उस समय इस खेल को मोक्ष-पट का नाम दिया गया था। खेल का लक्ष्य केवल मनोरंजन ही नहीं था अपितु हिन्दू धर्म मर्यादाओं का ज्ञान मनोरंजन के साथ साथ जन साधारण को देना भी था। खेल को एक कपडे पर चित्रित किया गया था जिस में कई खाने बने होते थे और उन्हें ‘घर’ की संज्ञा दी गयी थी। प्रत्येक घर को दया, करुणा, भय आदि भाव-वाचक संज्ञयाओं से पहचाना जाता था। सीढियाँ सद्गुणों को तथा साँप अवगुणों का प्रतिनिधित्व करते थे। साँप और सीढियों का भी अभिप्राय था। साँप की तरह की हिंसा जीव को नरक में धकेल देती थी तथा विद्याभ्यास उसे सीढियों के सहारे उत्थान की ओर ले जाते थे। खेल को सारिकाओं या कौडियों की सहायता से खेला जाता था। सतरहवीं शताब्दी में यह खेल थँजावर में प्रचिल्लित हुआ। इस के आकार में वृद्धि की गयी तथा कई अन्य बदलाव भी किये गये। तब इसे ‘परमपद सोपान-पट्टा’ कहा जाने लगा। इस खेल की नैतिकता विकटोरियन काल के अंग्रेजों को भी कदाचित भा गयी और वह इस खेल को 1892 में इंगलैण्ड ले गये। वहाँ से यह खेल अन्य योरूपीय देशों में लुड्डो अथवा स्नेक्स एण्ड लेडर्स के नाम से फैल गया।
  • गंजिफा – सामन्यता ताश जैसे इस खेल का भी धार्मिक और नैतिक महत्व था। ताश की तरह के पत्ते गोलाकार शक्ल के होते थे, उन पर लाख के माध्यम से या किसी अन्य पदार्थ से चित्र बने होते थे। ग़रीब लोग कागज़ या कँजी लगे कडक कपडे के कार्ड भी प्रयोग करते थे। सामर्थवान लोग हाथी दाँत, कछुए की हड्डी अथवा सीप के कार्ड प्रयोग करते थे। उस समय इस खेल में लगभग 12 कार्ड होते थे जिन पर पौराणिक चित्र बने होते थे। खेल के एक अन्य संस्करण ‘नवग्रह-गंजिफा’ में 108 कार्ड प्रयोग किये जाते थे। उन को 9 कार्ड की गड्डियों में रखा जाता था और प्रत्येक गड्डी सौर मण्डल के नव ग्रहों को दर्शाती थी।
  • पच्चीसी -  यह खेल लगभग 2200 वर्ष पुराना है। इसे भारत का राष्ट्रीय खेल कहना उचित हो गा। यह खेल ‘चौपड’, ‘चौसर’ अथवा ‘चौपद’ के नाम से जाना जाता है तथा आज भी भारत में खेला जाता है। यह लोकप्रिय और मनोरंजक भी है तथा नियमों आदि से बाधित भी है। मुस्लिम काल में यह खेल शासकीय वर्ग तथा सामान्य लोगों के घरों में ‘पांसा’ के नाम से खेला जाता था।
इस के अतिरिक्त जन जातियाँ भी जिमनास्टिक की तरह के प्रदर्शनकारी खेलों में पारंगत थी। बाजीगर चलते फिरते सरकस थे। उन के लिये बाँस की सहायता से अपना शरीरिक संतुलन नियन्त्रित कर के रस्सों के ऊपर चलना साधारण सी बात है और आज कल भी वह करते हैं। केवल हाथों के बल पर चलना फिरना, बाँस की सहायता से ऊंची छलाँग (हाई जम्प)भरना आदि के अधुनिक खेल वह बिना किसी सुरक्षा आडम्बरों के दिखा सकते हैं। यह खेद का विषय है कि भारत के आधुनिक शासकों नें इस संस्कृति के विकास के लिये कोई संरक्षण नहीं दिया है और यह कलायें लगभग लुप्त होती जा रही हैं और हमारे सामने ही हमारी विरासत उजडती जा रही है। उसी प्रकार 1960 के दशक तक यह सभी मनोरंजक खेल प्राय भारत के गाँवों और नगरों में खेले जाते थे परन्तु अब यह लुप्त होते जा रहै हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले समय में युवा कम्पूटर गेम्स के माध्यम से ही महंगे विदेशी खेल खेला करें गे या केवल टी वी पर ही खेल देखा करें गे। 
साभार : चाँद शर्मा

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